RBSE Solutions for Class 11 Biology Chapter 23 पादप वर्गिकी

Rajasthan Board RBSE Class 11 Biology Chapter 23 पादप वर्गिकी

RBSE Class 11 Biology Chapter 23 पाठ्यपुस्तक के प्रश्न

RBSE Class 11 Biology Chapter 23 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
पादप वर्गीकरण की आधारभूत इकाई है –
(अ) आंतरजातीय वर्ग
(ब) जाति
(स) वंश
(द) कुल

प्रश्न 2.
टैक्सोनॉमी का ‘जनक’ किसे माना जाता है –
(अ) तख्ताजन
(ब) लिनियस
(स) बैन्थम तथा हुकरे
(द) थियोफ्रेस्टस

प्रश्न 3.
जाति की सबसे अच्छी परिभाषा है –
(अ) जीवों का समूह जो साथ-साथ जीवित रह सकता है।
(ब) जीव जो कि अन्तरा प्रजनन (Interbreeding) कर सकते है।
(स) जीव जो कि अन्तरा प्रजनन (Interbreading) नहीं कर सकते हैं।
(द) उपरोक्त में से कोई नहीं।

RBSE Solutions for Class 11 Biology Chapter 23 पादप वर्गिकी

प्रश्न 4.
पौधों का प्राकृतिक वर्गीकरण दिया है –
(अ) हचिन्सन ने
(ब) एंग्लर एवं प्राण्टल ने
(स) बैन्थम एवं हुकर ने
(द) जॉन रे ने

प्रश्न 5.
निम्न में से कौनसा वानस्पतिक नाम सही छपा है –
(अ) Pisum Sativum
(a) Pisum sativum
(स) Pisum sativum
(द) pisum Sativum

उत्तर तालिका:
1. (ब), 2. (ब), 3 (ब), 4 (स), 5 (स)

RBSE Class 11 Biology Chapter 23 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
जातिवृत्त किसे कहते हैं?
उत्तर:
किसी भी प्रजाति की उत्पत्ति से लेकर आज तक की उसकी विकास यात्रा (evolutionany trends) को जातिवृत्त (Phylogeny) कहा जाता है।

प्रश्न 2.
लिनियस द्वारा कौनसी पुस्तक में द्विपद नाम पद्धति का सर्वप्रथम उपयोग किया गया?
उत्तर:
स्पीसीज प्लान्टेरम (species plantarum)

प्रश्न 3.
ICBN का पूरा नाम बताइये?
उत्तर:
अन्तर्राष्ट्रीय वानस्पतिक नामकरण संहिता (International Code of Botanical Nomenclature)

प्रश्न 4.
वर्गिकी या वर्गीकरण विज्ञान की परिभाषा दीजिये?
उत्तर:
वर्गिकी वनस्पति विज्ञान की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत पादपों की पहचान, नामकरण तथा वर्गीकरण का अध्ययन किया जाता है।

प्रश्न 5.
द्विनामकरण में पादप के वानस्पतिक नाम में कौन से दो शब्द लिए जाते हैं?
उत्तर:
वंश तथा जाति।

प्रश्न 6.
अधिकांश वानस्पतिक नामों को किस भाषा में लिया गया
उत्तर:
लेटिन भाषा में।

प्रश्न 7.
केसिया फिस्टुला (Cassia fistula) में कौन सा शब्द वंश को निरुपित करता है?
उत्तर:
केसिया (Cassia)।

प्रश्न 8.
जाति की संकल्पना के जनक कौन थे?
उत्तर:
केरोलस लिनियस।

प्रश्न 9.
भारतीय विश्वविद्यालयों एवं अधिकांश पादप संग्रहालयों में पादप पहचाने व वर्गीकरण की कौनसी पद्धति का अनुसरण किया जाता है?
उत्तर:
बेन्थम एवं हुकर वर्गीकरण पद्धति का अनुसरण किया जाता है।

RBSE Class 11 Biology Chapter 23 लघुत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
जाति की वैज्ञानिक परिभाषा दीजिये?
उत्तर:
बाह्य एवं आन्तरिक लक्षणों में समान पौधों का वह समूह जिसके सदस्य जननक्षम एवं मुक्त रूप से अंतःप्रजनन करते हैं, जाति कहलाती है।

प्रश्न 2.
प्राकृतिक तथा जातिवृत्तीय वर्गीकरण पद्धतियों को समझायें ?
उत्तर:
प्राकृतिक पद्धति (Natural system):
यह पद्धति मुख्य रूप से पौधों की प्राकृतिक सजातीयता या समानताओं (natural affinities) पर आधारित है। इसमें पौधों के स्वभाव से लेकर उनकी संरचना, मूल, तना, पत्ती तथा पुष्प को महत्व दिया गया है। इस पद्धति में डी. जूसियू (de. Jussieu) डी. कैन्डौली (de. Candollc), जान लिण्डले (John Lindley) तथा बेन्थम व हूकर (Benthem & Hooker) के वर्गीकरण महत्वपूर्ण हैं।

जॉर्ज बेन्थम (George Banthem) व जोसेफ डाल्टन हूकर (Joseph Dalton Hooker) दोनों ही इंग्लैण्ड के रायल बोटेनिकल गार्डन क्यू (Royal Botanical Garden, Kew) में वनस्पतिज्ञ थे। इनके द्वारा दिया गया वर्गीकरण लेटिन भाषा में जेनेरा प्लैन्टेरम (Genera plantarum) नामक पुस्तक के तीन खण्डों (volume) में प्रकाशित हुआ। इन्होंने वास्तविक रूप से पौधों को अवलोकन व अध्ययन करने के पश्चात् वर्णन किया।

इसीलिए अनेक प्रकार के वर्गीकरण उपलब्ध होने के पश्चात् भी प्रयोगिक दृष्टि से यह वर्गीकरण सबसे उत्तम है तथा इस वर्गीकरण का प्रयोग प्रायः विश्व विख्यात वनस्पति संग्रहालयों (Herbaria) में किया जाता है। हमारे देश में स्थित देहरादून, कलकत्ता, लखनऊ के हरबेरिया इसी वर्गीकरण पर आधारित है। इन्होंने वर्गीकरण में अनावृत्तबीजीयों को द्विबीजपत्री व एकबीजपत्री के बीच में रखा है। बेन्थम व हूकर का वर्गीकरण वस्तुतः डी. केण्डोली (De Candolle) के वर्गीकरण पद्धति का विस्तृत व संशोधित रूप है। डी. केण्डोली ने अनावृत्तबीजी को द्विबीजपत्री पौधों के साथ रखा था।

जातिवृत्तीय पद्धति (Phylogenetic system):
चाल्से डार्विन (1859) द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त “प्राकृतिक चयन द्वारा जातियों का उद्भव” (Origin of species by natural selection) से इस पद्धति का विकास हुआ है। इस पद्धति में पौधों का वर्गीकरण उनके विकास तथा जनन गुणों पर आधारित है या यो कहें कि यह पौधों के जातिवृत्त (phylogeny) पर आधारित है। किसी जाति के उत्पत्ति काल से वर्तमान तक के सम्पूर्ण विकास को ही उस जाति का जातिवृत्त (Phylogeny) कहते हैं।

जातिवृत्तीय वर्गीकरण में कुलों को पुष्प के विकास अनुसार जटिलता के बढ़ते क्रम में व्यवस्थित किया गया है। वर्गीकरण में सर्वप्रथम नग्न पुष्प (naked flower) वाले आद्य (primitive) कुलों को रखा गया तथा अन्त में अत्यधिक विकसित कुलों को व्यवस्थित किया गया है। इस पद्धति के अन्तर्गत एंग्लर व प्रन्टल (Engler & Prantl), हचिन्सन (Hutchinson) तथा क्रॉनक्विस्ट (Cronquist) के वर्गीकरण महत्वपूर्ण हैं।

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प्रश्न 3.
द्विपद नाम पद्धति को परिभाषित कीजिये?
उत्तर:
नामाकरण की वह पद्धति जिसमें प्रत्येक नाम के दो घटक होते हैं उसे द्विपदनाम पद्धति या द्विनाम पद्धति कहते हैं। एक पादप के नाम के दो भाग होते हैं-प्रथम नाम वंश का व द्वितीय नाम जाति का होता है।

प्रश्न 4.
वर्गीकरण की कृत्रिम पद्धति क्या है?
उत्तर:
कृत्रिम पद्धति (Artificial system):
इसमें पौधों का वर्गीकरण केवल एक या कुछ लक्षणों पर ही आधारित था। यह पद्धति अपूर्णज्ञान वाली तथा सुविधा पर आधारित थी। इसके अन्तर्गत थिओफ्रस्टस (Theophrastus) तथा केरोलस लीनियस (Carolus Linnaeus) के वर्गीकरण महत्वपूर्ण हैं। थिओफ्रेस्टस ग्रीक दार्शनिक अरस्तू (Aristotle) का शिष्य व सिकन्दर महान (Alexander the great) का समकालीन था, इन्हें वनस्पति विज्ञान का जनक (Father of Botany) कहा जाता है।

इन्होंने पादप स्वभाव के अनुसार समस्त पादपों को चार समूहों – शाक (herb), उपेक्षुप (undershrub), क्षुप (shrub) व वृक्षों (trees) में वर्गीकृत किया। यह वर्गीकरण इनकी पुस्तक ‘हिस्टोरिया प्लैन्टैरम (Historia Plantarum = इस पुस्तके को ‘Enquiry into plants’ के नाम से भी कहते हैं) में दिया गया है। यह पुस्तक वनस्पति क्षेत्र की उपलब्ध सबसे प्राचीनतम पुस्तकों में से है। लिनियस को वर्गिकी का जनक (Father of taxonomy) कहते हैं, लिनियस स्वीडन के प्रकृति वैज्ञानिक एवं व्यवसाय से चिकित्सक थे तथा बाद में कार्ल वॉन लिने (Carl Van Linne) के नाम से विख्यात हुए।

इन्होंने पौधों को पुष्पों में पुंकेसरों की व अण्डप की संख्या, पुष्प एकलिंगी व द्विलिंगी आधार पर वर्गीकृत किया। अतः इसे लैंगिक पद्धति (sexual system) भी कहते हैं, इस प्रकार पौधों को 24 वर्गों में विभाजित किया वे अपनी पुस्तक ‘स्पीशीज प्लैन्टेरम’ (Species Plantarum) में इस वर्गीकरण का उल्लेख करते हुए। 7,300 जातियों का वर्णन किया। थियोफ्रेस्टस तथा लिनियम के अतिरिक्त एण्ड्रिया सीजलपिनो (Andrea Caesalpino), जॉन रे (John Ray) व केमोरेरियस (Camerarius) के वर्गीकरण भी कृत्रिम थे।

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प्रश्न 5.
बेन्थम और हुकर की पद्धति के प्रमुख टेक्सा (संवर्ग स्तर तक) के लाक्षणिक गुणों को स्पष्ट कीजिये?
उत्तर:
बेन्थम और हुकर ने बीजीय पौधों को तीन संवर्गों में विभक्त किया है- द्विबीजपत्री, जिम्नोस्पर्मी या नग्नबीजी एवं एकबीजपत्री।

संवर्ग (Class ) I:
द्विबीजपत्री (Dicotyledonae): इस संवर्ग के प्रमुख लक्षण हैं- भ्रूण में दो बीज पत्र, संवहन पूल वर्षी (Open) तथा एक वलय (Ring) में व्यवस्थित, पर्यों में जालिकावत् शिराविन्यास (Reticulate Venation), पुष्प पंचतयी (Pentamerous) अथवा चतुर्तयी (Tetramerous) इत्यादि।

संवर्ग (Class ) II:
जिम्नोस्पर्मी (Gymnospermae): जिम्नोस्पर्मी को द्विबीजपत्री एवं एक बीजपत्री संवर्ग के बीच में रखा गया है। इसमें जनन संरचनाएं नर व मादा शंकुओं के रूप में होती है। इस वर्ग के सदस्यों के बीजाण्ड (Ovule) या बीज (Secd) नग्न (Naked) होते हैं, अर्थात् अण्डाशय या फल में परिबद्ध नहीं होते हैं। इसके अन्तर्गत तीन कुल- सायकेडेसी, कोनीफेरी तथा नीटेसी आते हैं।

संवर्ग (Class ) III :
एकबीजपत्री (Monocotyledonae): एकबीजपत्री पौधों की पत्तियाँ सरल व समानान्तर शिराविन्यासयुक्त (Parallel venation) होती हैं। भ्रूण में बीजपत्रों की संख्या एक तथा संवहन पूल में एधा (Cambium) अनुपस्थित अर्थात् अवर्षी (Closed) संवहनपूल होते हैं, जो मृदूतक (Parenchyma) में बिखरे रहते हैं। पुष्प सामान्यतया त्रितयी। (Trimerous) होते हैं। मूलें अपस्थानिक (Adventitious) होती हैं।

प्रश्न 6.
सिस्टेमेटिक्स (Systematics) को परिभाषित कीजिये?
उत्तर:
Taxonomy शब्द का बाद में एक अन्य नाम प्रचलन में आया जिसे सिस्टेमेटिक्स कहते हैं। सिस्टेमेटिक्स का हिन्दी अनुवाद वर्गीकरण विज्ञान या वर्गीकरण पद्धति है। अतः हिन्दी अनुवाद के अनुसार ये दोनों समानार्थी हैं। अतः इसके अन्तर्गत पादपों की पहचान, नामकरण तथा वर्गीकरण का अध्ययन के अतिरिक्त उनके मध्य पाये जाने वाले अन्र्तसम्बन्धों तथा विविधताओं का अध्ययन किया जाता है।

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प्रश्न 7.
प्राचीन ग्रंथ ”वृक्षायुर्वेद” में आधुनिक क्रूसीफेरी कुल की व्याख्या किस प्रकार की गई है?
उत्तर:
क्रूसीफेरी कुल के चार दलों की रचना के आधार पर जो स्वास्तिक की रचना मिलती है, इस कारण इसे स्वास्तिक गणमय कहा गया है।

प्रश्न 8.
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रत्येक पादप का वानस्पतिक नाम कौनसी भाषा में लिया जाता है और क्यो ?
उत्तर:
लेटिन भाषा में। लेटिन भाषा को अपने यथार्थ एवं संक्षिप्त स्वभाव के कारण पादप नामकरण हेतु उपयुक्त माना गया है। इसलिए पौधों के वैज्ञानिक नाम अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर लैटिन भाषा में दिये गये हैं तथा इसी भाषा के अनुसार लिखे एवं उच्चारित किये जाते हैं।

RBSE Class 11 Biology Chapter 23 निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
बैन्थम और हुकर की वर्गीकरण पद्धति की वर्ग स्तर तक रूपरेखा, प्रमुख लक्षणों सहित समझाइये। इस वर्गीकरण के गुण एवं दोष को स्पष्ट कीजिये?
उत्तर:
बैन्थम एवं हुकर के वर्गीकरण में बीजीय पौधों को शारीरिक लक्षण, पर्णविन्यास, शिराविन्यास, पुष्पक्रम, बाह्यदलपुंज, दलपुंज, पुमंग, जायांग, बीजों के आवरण एवं दलपत्रों की संख्या के आधार पर तीन संवर्गों (classes) में विभक्त किया गया है – द्विबीजपत्री, जिम्नोस्पर्मी या नग्नबीजी एवं एकबीजपत्री।

संवर्ग (class) I :
द्विबीजपत्री (Dicotyledonoe ):
भ्रूण में दो बीजपत्र, पत्तियों में जालिकावत शिराविन्यास, पुष्प पंचतयी (pentamerous) या चतुर्तयी (tetramerous), संवहनपूल वर्षी (open) इत्यादि। इस संवर्ग को तीन उपसंवर्गों (Subclasses) में बांटा गया है –

1. पोलीपेटेली
2. गमोपेटेली
3. मोनोक्लेमाइडी

  1. उपसंवर्ग पोलीपेटेली (Subclass Polypetaleae): उपसंवर्ग पोलीपेटेली में दलपुंज पृथक चक्रों में होते हैं तथा इनमें चार या पांच दल एक दूसरे से स्वतंत्र रहते हैं।
  2. उपसंवर्ग गेमोपेटेली (Subclass Gamopetaleae): इस उपसंवर्ग में परिदल के दो चक्र पाये जाते हैं, जिसमें बाह्यदल व दलपुंज पृथक्-पृथक होते हैं। दलपुंज के चार या पांच दल एक-दूसरे से आंशिक या पूर्ण रूप से जुड़े होते हैं। पुंकेसर प्रायः दललग्न होते हैं।
  3. उपसंवर्ग मोनोक्लेमाइडी ( Subclass Monochlamydeae or Incompletae): पुष्प में बाह्यदल एवं दल में अन्तर नहीं होता अर्थात् अविभेदित परिदलपुंज (perianth) उपस्थित होता है अतः पुष्प अपूर्ण होता है। यह चक्र सामान्यतया बाह्यदलाभ (Sepaloid) होता है।

संवर्ग (Class ) II:
जिम्नोस्पर्मी (Gymnospermae ):
इसे द्विबीजपत्री एवं एकबीजपत्री के बीच में रखा गया है। इनमें जनन संरचनाएं नर व मादा शंकुओं के रूप में होती है। इस वर्ग के सदस्यों के बीजाण्ड (ovule) या बीज नग्न होते हैं अर्थात अण्डाशय या फल में बन्द नहीं होते हैं। इसमें तीन कुल- सायकेडेसी, कोनीफेरी तथा नीटेसी आते हैं।

संवर्ग (Class ) III :
एकबीजपत्री ( Monocotyledonae )एकबीजपत्री पौधों की पत्तियाँ सरल व समानान्तर शिराविन्यास युक्त होती हैं। भ्रूण में बीजपत्रों की संख्या एक तथा संवहन पूल अवर्थी होते हैं, जो मृदूतक में बिखरे रहते हैं। पुष्प सामान्यतया त्रितयी होते हैं। एकबीजपत्री पौधों को परिदलों की प्रकृतिं एवं अण्डाशय की अवस्था के आधार पर सात श्रेणियों में विभक्त किया है।
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गुण (Merits):
इस पद्धति को व्यावहारिक दृष्टिकोण से आदर्श पद्धति माना जाता है। यह सुविधाजनक होती है, इस कारण विभिन्न पादप संग्रहालयों (Herbaria) में पादप व्यवस्था क्रम हेतु इस पद्धति का उपयोग किया जाता है क्योंकि इसमें निम्न गुण होते हैं –

  1. प्रायोगिक दृष्टि से यह वर्गीकरण अधिक सुविधाजनक है। हमारे देश व इंग्लैण्ड के विश्वविद्यालयों में, वनस्पति उद्यान व संग्रहालयों में इसी वर्गीकरण का उपयोग किया जाता है।
  2. यह पद्धति आधुनिक पद्धतियों की पूर्वज मानी जा सकती है।
  3. यद्यपि यह वर्गीकरण जातिवृत्तीय नहीं है फिर भी इस वर्गीकरण में कुछ इस प्रकार के गुण हैं जिससे इसे जातिवृत्तीय भी कहा जा सकता है, जैसे –
    • वर्गीकरण के आरम्भ में रेनेल्स गण को रखा गया है जो कि आद्य गण है।
    • एकबीजपत्री को द्विबीजपत्री के बाद रखा गया है। अतः एकबीजपत्री की उत्पत्ति द्विबीजपत्री से हुई है।

दोष (Demerits ): यद्यपि बेन्थम व हुकर का वर्गीकरण प्रयोगिक दृष्टि से अधिक उपयुक्त है फिर भी इस पद्धति में निम्न दोष हैं –

  1. यह जातिवृत्तीय पद्धति नहीं है।
  2. वर्गीकरण में पादपों को उनमें पाये जाने वाले कृत्रिम लक्षणों के आधार पर वर्गीकृत किया गया है फलस्वरूप समान लक्षणों वाले कुल दूर-दूर रखे गये हैं।
  3. वर्गीकरण में द्विबीजपत्री तथा एकबीजपत्री के बीच जिम्नोस्पर्म को रखना त्रुटिपूर्ण है।
  4. सम्पूर्ण मोनोक्लेमाइडी एक कृत्रिम समूह है।
  5. इसमें एकबीजपत्री समूह में कुलों की व्यवस्था अप्राकृतिक सी है।

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प्रश्न 2.
द्विपदनामकरण पद्धति को परिभाषित कीजिये व इसके सार्वजनिक नियम स्पष्ट कीजिये?
उत्तर:
किसी भी पौधे का वैज्ञानिक नाम जिसे अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर वैज्ञानिकों द्वारा उपयोग किया जा सकता हो अर्थात् सारे विश्व में उसका वही नाम हो, इसे वानस्पतिक नामाकरण (botanical nomenclature) कहते हैं। वैज्ञानिक पद्धति के अनुसार पौधे के नाम लैटिन या ग्रीक भाषा में दिये गये हैं। नामकरण सम्बन्ध में द्विनाम नामकरण पद्धति (Binomial system of nomenclature) को सर्वप्रथम प्रतिपादित व प्रचलित करने का श्रेय स्वीडन के प्रकृति वैज्ञानिक तथा वर्गिकी के जनक (Father of taxonomy) कैरोलस लिनियस (Carolus Linnecus) को जाता है।

सन् 1753 में इस पद्धति का उपयोग अपनी पुस्तक “स्पीशीज प्लैन्टैरम” में किया था। वैसे इस पद्धति को गैसपार्ड बाहीन (Gaspard Bauhin) ने लिनियस से लगभग 100 वर्ष पूर्व प्रयोग किया था परन्तु वे इसका अधिक उपयोग व प्रचारित नहीं कर पाये तथा इस पद्धति का उल्लेख पिनेक्स (Pinax) नामक पुस्तक में किया था। इस पद्धति के अनुसार प्रत्येक पौधे का नाम दो लेटिन शब्दों से बना होता है- प्रथम शब्द वंशीय नाम (generic name) तथा दूसरा शब्द जातीय नाम (species name) का होता है।

वंशीय नाम उन सभी पादपों के लिए होता है जो एक दूसरे से सामान्य समरूपता (similarity) व सम्बन्ध रखते हैं। वंशीय नाम का प्रथम अक्षर अंग्रेजी के बड़े ( Capital) अक्षर से तथा जातीय नाम को छोटे (small) अक्षर से लिखा जाता है। जैसे Solanum melongena, Solanum = वंशीय नाम है तथा melongena = जातीय नाम है। नामाकरण हेतु विशेष अन्तर्राष्ट्रीय नियम हैं जिन्हें वानस्पतिक नामाकरण की अन्तर्राष्ट्रीय संहिता (International code of Botanical nomenclature = ICBN) के नाम से जाना जाता है। ये नियम निम्न प्रकार से है –

  1. प्रत्येक पौधे के दो नाम-वंशीय और जातीय नाम होने चाहिए। वंश के नाम का प्रथम अक्षर बड़ा तथा जातीय का छोटा लिखना चाहिए।
  2. दोनों शब्दों को इटैलिक (Italics) में या तिरछे लिखते हैं। यदि तिरछे नहीं लिखे जावें या हाथ से लिखे गये हों तो इन्हें रेखांकित किया जाना चाहिए।
  3. नाम लेटिन भाषा या लेटिनीकृत (Latinised) होने चाहिए।
  4. नाम अधिक लम्बा व कठिन उच्चारण वाला नहीं होना चाहिए।
  5. लिखने में सर्वप्रथम वंशीय नाम व फिर जातीय नाम लिखना चाहिए।
  6. टोटोनिम (Tautonym) अर्थात् वंशीय नाम को ही दुबारा से जातीय नाम के रूप में प्रयोग नहीं करना चाहिए, जैसेब्रेसिका – बेसिका (Brassica – brassica) इत्यादि।
  7. जातीय नाम अन्य सम्बन्धित पौधों के नामों से भिन्न होना चाहिए।
  8. जाती का नाम वंश के नाम से छोटा होना चाहिए।
  9. वानस्पतिक नाम में जातीय नाम के पश्चात् उस लेखक या अन्वेषक का नाम (जिसने सर्वप्रथम उस जाति का वर्णन व नाम दिया तथा जो नये पौधे का नाम ICBN से स्वीकृत करवा लेता है, वही उसका लेखक या अन्वेषक माना जाता है) पूर्ण या संक्षिप्त रूप से लिखा जाना चाहिए। जैसे Brassica campertris Linn. यहां Linn का तात्पर्य है कि इसका लेखक Linnaeus है। जो वैज्ञानिक किसी पौधे का नाम देना चाहता है इसे संहिता के नियमों का कड़ाई से पालन करने के पश्चात् दिये गये नाम को अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पत्रिकाओं के द्वारा प्रचारित करना पड़ता है।
  10. संहिता में वर्गीकरण की प्रत्येक इकाई के अन्त में ICBN के नियमों के अनुसार अंतिमाक्षर (suffix) का शब्द निश्चित होता है।

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प्रश्न 3.
जाति एवं वंश की संकल्पना को सोदाहरण समझाइये?
उत्तर:
जाति की संकल्पना:
केरोलस लिनियस को सर्वप्रथम जाति की अवधारणा को तर्कसम्मत व वैज्ञानिक प्रमाणिकता प्रदान करने का श्रेय दिया जाता है। इन्होंने ”मूल आकारिकीय विविधताओं के आधार पर विभिन्न पादप जातियों का गठन किया था। डार्लिंगटन (Darlington) के अनुसार प्राकृतिक रूप से पाई जाने वाली पादप व्यष्टि या आबादी (Population) के स्थाई रूप से पृथक एवं आनुवंशिक आधार पर स्थिर लक्षण प्रदर्शित करने वाले समूह जो अंत:प्रजनन प्रदर्शित करते हैं, प्रजाति (species) कहलाते हैं।

ड्यूरिट्ज (Durictz) के अनुसार, जातियां छोटी से छोटी प्राकृतिक जनसंख्याएं हैं जो “जीवरूपों (biotypes) के स्पष्ट अलगाव” के कारण एक दूसरे से स्थाई रूप से अलग हो गई हैं। क्लाऊसन एवं सहयोगियों के अनुसार समान लक्षणी प्राकृतिक रूप से संगठित पौधों का वह समूह जिसके सदस्य जीनों का आदान-प्रदान बिना किसी हानिकारक प्रभाव के करते हैं, प्रजाति कहलाती है।
उपरोक्त तीनों परिभाषाओं में निम्न तथ्य उभर कर सामने आते हैं –

  1. एक पादप जाति के सदस्य महत्वपूर्ण आकारि की (Morphological), शारीरिक एवं अन्य लक्षणों में लगभग पूर्णतया समान होते हैं।
  2. एक जाति के सदस्यों के बीच अंत:प्रजनन (Interbreeding) या लैंगिक प्रजनन होता है, संतति पीढ़ी का उद्भव होता है एवं वंशवृद्धि होती है।
  3. एक जाति के सदस्यों के बीच आनुवंशिक अवरोध (Genetical barrier) नहीं होता।
  4. एक जाति के सदस्य, सामान्यतया दूसरी जाति के पौधों से लैंगिक जनन प्रदर्शित नहीं करते, अर्थात् इनमें आनुवंशिकी पदार्थों का विनिमय (Exchange of genetic material) नहीं होता।

उपरोक्त तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है “बाह्य एवं आन्तरिक लक्षणों में समान पौधों का वह समूह जिसके सदस्य जननक्षम एवं मुक्त रूप से अंतःप्रजनन करते हैं, प्रजाति (species ) कहलाता है। प्रायः एक ही प्रजाति के विभिन्न सदस्य बाह्य एवं प्रमुख आन्तरिक लक्षणों में एकरूपता प्रदर्शित करते हैं, किन्तु सामान्यतया यह भी देखा गया है कि वातावरण एवं भौगोगिक परिस्थितियों में परिवर्तनशीलता के कारण एक ही प्रजाति के कुछ सदस्य बाह्य व आन्तरिक तथा जैव रासायनिक यहां तक कि कभी-कभी आनुवंशिकी लक्षणों में कुछ भिन्नता दर्शाते हैं। इस प्रकार लक्षणों में विविधता तथा भिन्नताएं दर्शाने वाले एक ही प्रजाति के ऐसे पादप समूहों को अवजाति वर्ग” या “आंतरजातीय वर्ग” (Intraspecific categories) कहा जाता है।

वंश की संकल्पना:
Genus एकवचन है तथा Genera बहुवचन है। वंश प्रजाति से उच्चतर की वर्गिकी इकाई (Taxonomic unit) है। ‘‘ऐसी अनेक प्रजातियां जो एक-दूसरे से अधिकांश लक्षणों में समानता दर्शाती है, वंश का गठन करती हैं। जब किसी वंश मे केवल एक ही जाति या प्रजाति होती है तो ऐसे वंश को एकलप्ररूपी (monotypic) कहते हैं। एक ही वंश में सम्मिलित करने के लिए दो अथवा दो से अधिक जातियों के विभिन्न लक्षणों में कितनी कम या अधिक असमानताएं होनी चाहिए।

यह सुनिश्चित करना पादप वर्गीकरण विज्ञानियों के विवेक पर निर्भर करता है किन्तु इसकी सीमारेखा स्थापित करने में साधारण मतभेद हो सकता है। इन सभी विवादों के उपरान्त भी वंश की परिकल्पना सम्भवतया अति प्राचीनकाल से उपयोग हो रही है जबकि वर्गिकी का वैज्ञानिक अध्ययन आरम्भ भी नहीं हुआ था। विभिन्न पादप वंशों (Plant genera) के उल्लेख हेतु हिन्दी एवं संस्कृत भाषाओं के प्राचीन साहित्य से प्रचलित नामों जैसे चीड़ (Pine), तुलसी (Basil) व बांज, (Oak) का उदाहरण लिया जा सकता है।

यहां इन नामों की स्थापना वंश (Genus) के संदर्भ में की गई है तथा चीड़ की समस्य जातियां पाइनस (Pintus) वंश में, तुलसी की समस्त जातियां ओसिमर्म (Ocimum) वंश में, तथा बांज की समस्त जातियां क्यूरकस (Ouercus) वंश में सम्मिलित की गई है। अतः यह कहा जा सकता है कि वंश की। संकल्पना वर्गिकीविज्ञों द्वारा विस्तृत विवरण दिये जाने से बहुत पहले ही जाने अनजाने में मनुष्य द्वारा निर्धारित कर ली गई थी।

आधुनिक वनस्पति शास्त्र में पादप नामकरण के लिए प्रचलित लैटिन नामों तथा विभिन्न पादप वंशों के विधिवत लक्षणों के वर्णन का श्रेय टोर्नफोर्ट (Tournfort) को दिया जाता है। इन्होंने अपनी पुस्तक इंस्टीट्यूशन री हरबेरी (Institution rei herbarie) में लगभग 700 वंशों का वर्णन किया है। टोर्नफोर्ड के अनुसार वंश की स्थापना एवं निर्धारण के लिए पादप जातियों के “पुष्पीय एवं फल संबंधी लक्षणों को सर्वश्रेष्ठ मानदंड (parameter ) के रूप में उपयोग किया जा सकता है।

इसके अतिरिक्त यदि आवश्यक हो तो अन्य आकारिकी एवं कायिक (vegetative) लक्षणों की सहायता भी ले सकते हैं। पादप वर्गीकरण विज्ञान के जनक लीनियस के द्वारा वंश परिकल्पना के अन्तर्गत वंश निर्धारण में पुष्पीय लक्षणों के साथ-साथ अन्य लक्षणों का उपयोग भी किया गया है। वर्तमान में वंश संकल्पना में बाह्य आकारिकी लक्षणों के अतिरिक्त आन्तरिक संरचना (Anatomy), कोशिका संरचना (cell structure), भ्रूण एवं बीजाण्ड संरचना (Embryo and ovule structure) व परागकण संरचना की विशेषताओं की सहायता भी ली जाने लगी है। आज विभिन्न पादप भागों के अध्ययन से प्राप्त सूचनाओं का उपयोग पादप वर्गीकरण संबंधी अनेक जटिल समस्याओं के निराकरण में किया जाता है।

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प्रश्न 4.
पादप वर्गीकरण पद्धतियों को किस आधार पर कितने प्रकारों में बांटा जाता है? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिये?
उत्तर:
समस्त प्रकार के वर्गीकरणों को तीन श्रेणियों में विभक्त कर सकते है –

  1. कृत्रिम पद्धति (Artificial system)
  2. प्राकृतिक पद्धति (Natural system)
  3. जातिवृत्तीय पद्धति (Phylogenetic system)

1. कृत्रिम पद्धति (Artificial system):
इसमें पौधों का वर्गीकरण केवल एक या कुछ लक्षणों पर ही आधारित था। यह पद्धति अपूर्णज्ञान वाली तथा सुविधा पर आधारित थी। इसके अन्तर्गत थिओफ्रस्टस (Theophrastus) तथा केरोलस लीनियस (Carolus Linnaeus) के वर्गीकरण महत्वपूर्ण हैं। थिओफ्रेस्टस ग्रीक दार्शनिक अरस्तू (Aristotle) का शिष्य व सिकन्दर महान (Alexander the great) का समकालीन था, इन्हें वनस्पति विज्ञान का जनक (Father of Botany) कहा जाता है।

इन्होंने पादप स्वभाव के अनुसार समस्त पादपों को चार समूहों – शाक (herb), उपेक्षुप (undershrub), क्षुप (shrub) व वृक्षों (trees) में वर्गीकृत किया। यह वर्गीकरण इनकी पुस्तक ‘हिस्टोरिया प्लैन्टैरम (Historia Plantarum = इस पुस्तके को ‘Enquiry into plants’ के नाम से भी कहते हैं) में दिया गया है। यह पुस्तक वनस्पति क्षेत्र की उपलब्ध सबसे प्राचीनतम पुस्तकों में से है। लिनियस को वर्गिकी का जनक (Father of taxonomy) कहते हैं, लिनियस स्वीडन के प्रकृति वैज्ञानिक एवं व्यवसाय से चिकित्सक थे तथा बाद में कार्ल वॉन लिने (Carl Van Linne) के नाम से विख्यात हुए।

इन्होंने पौधों को पुष्पों में पुंकेसरों की व अण्डप की संख्या, पुष्प एकलिंगी व द्विलिंगी आधार पर वर्गीकृत किया। अतः इसे लैंगिक पद्धति (sexual system) भी कहते हैं, इस प्रकार पौधों को 24 वर्गों में विभाजित किया वे अपनी पुस्तक ‘स्पीशीज प्लैन्टेरम’ (Species Plantarum) में इस वर्गीकरण का उल्लेख करते हुए। 7,300 जातियों का वर्णन किया। थियोफ्रेस्टस तथा लिनियम के अतिरिक्त एण्ड्रिया सीजलपिनो (Andrea Caesalpino), जॉन रे (John Ray) व केमोरेरियस (Camerarius) के वर्गीकरण भी कृत्रिम थे।

2. प्राकृतिक पद्धति (Natural system):
यह पद्धति मुख्य रूप से पौधों की प्राकृतिक सजातीयता या समानताओं (natural affinities) पर आधारित है। इसमें पौधों के स्वभाव से लेकर उनकी संरचना, मूल, तना, पत्ती तथा पुष्प को महत्व दिया गया है। इस पद्धति में डी. जूसियू (de. Jussieu) डी. कैन्डौली (de. Candollc), जान लिण्डले (John Lindley) तथा बेन्थम व हूकर (Benthem & Hooker) के वर्गीकरण महत्वपूर्ण हैं।

जॉर्ज बेन्थम (George Banthem) व जोसेफ डाल्टन हूकर (Joseph Dalton Hooker) दोनों ही इंग्लैण्ड के रायल बोटेनिकल गार्डन क्यू (Royal Botanical Garden, Kew) में वनस्पतिज्ञ थे। इनके द्वारा दिया गया वर्गीकरण लेटिन भाषा में जेनेरा प्लैन्टेरम (Genera plantarum) नामक पुस्तक के तीन खण्डों (volume) में प्रकाशित हुआ। इन्होंने वास्तविक रूप से पौधों को अवलोकन व अध्ययन करने के पश्चात् वर्णन किया।

इसीलिए अनेक प्रकार के वर्गीकरण उपलब्ध होने के पश्चात् भी प्रयोगिक दृष्टि से यह वर्गीकरण सबसे उत्तम है तथा इस वर्गीकरण का प्रयोग प्रायः विश्व विख्यात वनस्पति संग्रहालयों (Herbaria) में किया जाता है। हमारे देश में स्थित देहरादून, कलकत्ता, लखनऊ के हरबेरिया इसी वर्गीकरण पर आधारित है। इन्होंने वर्गीकरण में अनावृत्तबीजीयों को द्विबीजपत्री व एकबीजपत्री के बीच में रखा है। बेन्थम व हूकर का वर्गीकरण वस्तुतः डी. केण्डोली (De Candolle) के वर्गीकरण पद्धति का विस्तृत व संशोधित रूप है। डी. केण्डोली ने अनावृत्तबीजी को द्विबीजपत्री पौधों के साथ रखा था।

3. जातिवृत्तीय पद्धति (Phylogenetic system):
चाल्से डार्विन (1859) द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त “प्राकृतिक चयन द्वारा जातियों का उद्भव” (Origin of species by natural selection) से इस पद्धति का विकास हुआ है। इस पद्धति में पौधों का वर्गीकरण उनके विकास तथा जनन गुणों पर आधारित है या यो कहें कि यह पौधों के जातिवृत्त (phylogeny) पर आधारित है। किसी जाति के उत्पत्ति काल से वर्तमान तक के सम्पूर्ण विकास को ही उस जाति का जातिवृत्त (Phylogeny) कहते हैं।

जातिवृत्तीय वर्गीकरण में कुलों को पुष्प के विकास अनुसार जटिलता के बढ़ते क्रम में व्यवस्थित किया गया है। वर्गीकरण में सर्वप्रथम नग्न पुष्प (naked flower) वाले आद्य (primitive) कुलों को रखा गया तथा अन्त में अत्यधिक विकसित कुलों को व्यवस्थित किया गया है। इस पद्धति के अन्तर्गत एंग्लर व प्रन्टल (Engler & Prantl), हचिन्सन (Hutchinson) तथा क्रॉनक्विस्ट (Cronquist) के वर्गीकरण महत्वपूर्ण हैं।

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