RBSE Solutions for Class 11 Biology Chapter 40 पारिस्थितिक तंत्र

Rajasthan Board RBSE Class 11 Biology Chapter 40 पारिस्थितिक तंत्र

RBSE Class 11 Biology Chapter 40 पाठ्यपुस्तक के प्रश्न

RBSE Class 11 Biology Chapter 40 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
इकोसिस्टम शब्द को सर्वप्रथम किसने प्रतिपादित किया था?
(अ) आर. मिश्रा
(ब) ओडम
(स) क्लीमेन्टस
(द) टेन्सले

प्रश्न 2.
उपभोक्ता स्तर पर कार्बनिक पदार्थों को स्वांगीकरण कहलाता है
(अ) प्राथमिक उत्पादक
(ब) सकल उत्पादक
(स) द्वितीयक उत्पादन
(द) वास्तविक उत्पादन

प्रश्न 3.
पोषस्तर का निर्माण होता है
(अ) केवल पादपों से
(ब) केवल प्राणियों से
(स) केवल मांसाहारियों से
(द) खाद्य श्रृंखला से जुड़े जीवों से

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प्रश्न 4.
किसी भी घास स्थलीय अथवा सरोवर पारिस्थितिक तंत्र में ऊर्जा का स्तूप सदैव होता है
(अ) प्रतिलोमी
(ब) उल्टा तथा सीधा
(स) केवल सीधा
(द) उपरोक्त में से कोई नहीं

प्रश्न 5.
ऊर्जा के प्रवाह के वैकल्पिक परिपथ किनमें पाये जाते हैं
(अ) खाद्य जाल
(ब) खाद्य श्रृंखला
(स) पारिस्थितिक स्तूप
(द) जैव-भूरासायनिक चक्र

उत्तर तालिका
1. (द)
2. (स)
3. (द)
4. (स)
5. (अ)

RBSE Class 11 Biology Chapter 40 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
प्रो. आर. मिश्रा द्वारा पारिस्थितिक तंत्र के समतुल्य दिए शब्द को लिखिये।
उत्तर-
इकोकोस्म (Ecocosm)

प्रश्न 2.
खेत तथा बाग किस प्रकार के पारिस्थितिक तंत्र के उदाहरण हैं?
उत्तर-
कृत्रिम पारिस्थितिक तंत्र के उदाहरण हैं।

प्रश्न 3.
अलवण जलीय पारितंत्र को कितने भागों में बांटा जाता है? नाम लिखिये।
उत्तर-
दो में
(i) सरित या प्रवाहित जलीय (Lotic) जैसे झरना, नदी, नाला।
(ii) स्थिर जलीय (Lentic) जैसे झील, तालाब, पोखर, कुण्ड आदि।।

प्रश्न 4.
पारिस्थितिक तंत्र के मुख्य घटकों के नाम लिखिये।
उत्तर-
इसके दो मुख्य पहलू हैं- संरचना और कार्य । संरचना में दो घटक जैविक व अजैविक होते हैं।

प्रश्न 5.
उत्पादक के लिए परिवर्तक शब्द किसने दिया था?
उत्तर-
कोरमोन्डी (E.J. Kormondy) ने दिया था।

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प्रश्न 6.
पारिस्थितिक स्तूप की संकल्पना सर्वप्रथम किसने दी थी?
उत्तर-
चार्ल्स एल्टन (Charls Elton) ने दी थी।

प्रश्न 7.
पौधों के लिए प्रकाश संश्लेषी दक्षता का परास (PAR) बताइये।
उत्तर-
सूर्य विकिरण का 390 nm से 760 nm तक का दृश्यमान वर्णक्रम ही दृश्य प्रकाश होता है। इसे ही प्रकाश संश्लेषी सक्रिय विकिरण (PAR) कहते हैं। प्रकाश संश्लेषण की क्रिया प्रकाश के  नीले (430 से 470 nm) और लाल (650 से 760 nm) भाग में अधिकतम होती है।

RBSE Class 11 Biology Chapter 40 लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
टेन्सले द्वारा प्रतिपादित पारिस्थितिक तंत्र की परिभाषा लिखिये।
उत्तर-
वातावरण के जैविक एवं अजैविक कारकों के एकीकरण या समाकलन के परिणामस्वरूप निर्मित तंत्र पारिस्थितिक तंत्र कहलाता

प्रश्न 2.
पारिस्थितिक तंत्र के कार्य से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
ऊर्जा प्रवाह तथा खनिज पदार्थों का चक्रीकरण दो महत्वपूर्ण पारिस्थितिक प्रक्रम (Ecological process) हैं, जो पारिस्थितिक तंत्र के कार्य से सम्बद्ध है। किसी भी पारितंत्र का कार्यात्मक स्वरूप निम्न बिन्दुओं से स्पष्ट किया जा सकता है

  • पारिस्थितिक स्तूप (Ecological Pyramids)
  • खाद्य श्रृंखला एवं खाद्य जाल (Food chain and food web)
  • ऊर्जा प्रवाह (Energy flow)
  • खनिजों का चक्रीकरण (Cycling of minerals)

प्रश्न 3.
पारिस्थितिक दक्षता को परिभाषित कीजिये।
उत्तर-
प्रत्येक पारिस्थितिक तंत्र में जीव अपना भोजन प्राप्त करते हैं तथा आहार को जैवभार में परिवर्तित कर दूसरे उच्च पोषण स्तर को उपलब्ध कराते हैं। खाद्य श्रृंखला के विभिन्न पोष स्तरों के मध्य प्रवाहित होने वाली ऊर्जा की मात्रा के अनुपात को यदि प्रतिशत में व्यक्त किया जावे तो इसे पारिस्थितिक दक्षता (Ecological efficiency) कहते हैं।

प्रश्न 4.
प्राथमिक उत्पादन तथा द्वितीयक उत्पादन में अन्तर स्पष्ट कीजिये।
उत्तर-
प्राथमिक तथा द्वितीयक उत्पादन में अन्तर

प्राथमिक उत्पादन (Primary Productivity)  द्वितीयक उत्पादन (Secondary Productivity)
1. हरे पादप प्राथमिक उत्पादक होते हैं। एक निश्चित समयावधि में प्रति इकाई क्षेत्र द्वारा उत्पन्न किये गये जैव पदार्थ (कार्बनिक पदार्थ) की मात्रा के उत्पादन की दर को प्राथमिक उत्पादकता कहते हैं। इसे भार g/m² या ऊर्जा (Kcal/m²) के रूप में व्यक्त किया जा सकता है। एक पारितंत्र की सकल प्राथमिक उत्पादकता (GPP) प्रकाश संश्लेषण के दौरान कार्बनिक तत्व की उत्पादन दर होती है। इसमें से पौधे अपनी जैविक क्रियाओं के लिए कार्बनिक भोज्य पदार्थों का उपयोग करते हैं। इस मात्रा को सकल प्राथमिक उत्पादकता (GPP) को घटा देने पर नेट प्राथमिकता उत्पादकता NPP प्राप्त होती है, जो प्राथमिक उपभोक्ता को उपलब्ध होती है। इसे द्वितीयक उत्पादकता कहते हैं।
2. प्राथमिक उत्पादकता दो प्रकार की होती है – सकल प्राथमिक उत्पादकता (GPP) तथा शुद्ध या नेट प्राथमिक उत्पादकता (NPP)।
GPP – R = NPP (R = श्वसन में क्षति)।
द्वितीयक उत्पादकता दो प्रकार की होती है- सकल द्वितीयक उत्पादकता (GSP) तथा शुद्ध द्वितीयक उत्पादकता (NSP) NSP = GSP – R (श्वसन में क्षति)।

प्रश्न 5.
नाइट्रोजन के यौगिकीकरण के लिए उत्तरदायी नील हरित शैवाल तथा सहजीवी जीवाणुओं के दो-दो उदाहरण लिखिये।
उत्तर-
नील हरित शैवाल- एनाबिना (Anabaena) एवं नोस्टोक (Nostoc) । जीवाणु- राइजोबियम (Rhizobium) एवं एजोटोबेक्टर (Azotobacter) ।।

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प्रश्न 6.
स्थित अवस्था तथा स्थित शस्य में अन्तर स्पष्ट कीजिये।
उत्तर-
किसी भी पारिस्थितिक तंत्र में उपस्थित कार्बनिक पदार्थों की कुल मात्रा को स्थित अवस्था (Standing state or standing quality) कहते हैं। पारिस्थितिक तंत्र में खाद्य श्रृंखला के विभिन्न पोषण स्तरों में जीवित खाद्य पदार्थों की मात्रा को स्थित शस्य (standing crop) कहते हैं।

RBSE Class 11 Biology Chapter 40 निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
पारिस्थितिक स्तूप से आप क्या समझते हैं? वृक्ष पारिस्थितिक तंत्र में जीवसंख्या तथा जैवभार स्तूप का सचित्र वर्णन कीजिये।
उत्तर-
पारिस्थितिक स्तूप या पिरामिड (Ecological Pyramid)-
ब्रिटेन के प्रसिद्ध वैज्ञानिक चार्ल्स एल्टन (Charles Elton, 1927) ने सर्वप्रथम पारिस्थितिक स्तूप या मिरामिड की संकल्पना की थी। इसी कारण इन्हें एल्टोनियन पिरेमिड्स (Eltonian pyramids) भी कहते हैं। जैसा कि पूर्व में बताया गया है कि किसी पारिस्थितिक तंत्र के विभिन्न पोष स्तरों (Trophic levels) का निरीक्षण किया जावे तो यह प्रतीत होता है कि ये पोष स्तर एक के बाद एक सोपानों (tiers) में व्यवस्थित रहते हैं। यदि प्रथम पोष स्तर को आधार मानकर क्रमशः उत्तरोत्तर विभिन्न पोष स्तरों को चित्र में दिखाया जावे तो इससे स्तूपाकार (Pyramid) लेखाचित्र प्रदर्शित होता है तथा इन्हें ही पारिस्थितिक स्तूप या पिरामिड कहते हैं। जैसे-जैसे एक स्तूप में नीचे के पोष स्तर से ऊपर की ओर अग्रसर होते हैं, वैसे-वैसे जीवों की संख्या कम होती जाती है तथा अन्त में तो संख्या अत्यधिक कम हो जाती है अर्थात् अन्त में उच्चतम उपभोक्ता (Top consumers) संख्या में कुछ ही रह जाते हैं। ये पारिस्थितिक स्तूप सामान्यतः तीन प्रकार के होते हैं।

(क) जीवभार के पिरामिड (Pyramid of Biomass)-
पारिस्थितिक तंत्र में भोजन श्रृंखला तथा भोजन स्तर के जीवों के पारस्परिक सम्बन्ध दर्शाने का पारिस्थितिक पिरामिड जीवभार पिरामिड है। एक पारिस्थितिक तंत्र के जीवों का जो इकाई क्षेत्र में शुष्क भार (Dry Weight) होता है इसे जीवभार (Biomass) कहते हैं। इसमें भी यदि प्रत्येक भोजन स्तर के जीवों के जीवभार के आधार पर लेखाचित्र बनाया जावे तो यह ठीक स्तूप जैसा बनता है। जीवभार के आधार पर जो पिरामिड बनते हैं। उनसे यह ज्ञात होता है कि प्रायः उत्पादक स्तर का जीवभार सर्वाधिक होता है तथा धीरे-धीरे अन्य स्तरों में यह जीवभार क्रमशः कम होता है। जीवभार के आधार पर स्थलीय पारिस्थितिक तंत्रों के पिरामिड सीधे तथा । जलीय पारिस्थितिक तंत्र के पिरामिड उल्टे बनते हैं, जैसे- घास स्थलीय व वनों के जीवभार पिरामिड ठीक सीधे बनते हैं। परन्तु उत्पादक से उपभोक्ता की ओर क्रमशः जीवभार की निरन्तर कमी होती जाती है। जलीय माध्यम अर्थात् तालाब के अध्ययन पर जीवभार की निरन्तर कमी होती जाती है। जलीय माध्यम अर्थात् तालाब के अध्ययन पर जीवभार की निरन्तर कमी होती जाती है। जलीय माध्यम अर्थात् तालाब के अध्ययन पर जीव भार के आधार पर बनने वाले पिरामिड ठीक उल्टे होते हैं क्योंकि इनमें उत्पादक छोटे जीव होते हैं। अतः इनका जीवभार कम होता है तथा जैसे-जैसे उपभोक्ताओं की ओर अग्रसर होते हैं त्यों-त्यों जीवभार में वद्धि होती जाती है। यदि एक विशाल वृक्ष के पारिस्थितिक तंत्र का जीवभार आधार परं पिरामिड बनाया जावे तो यह भी ठीक सीधा बनता है।
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(ख) जीवों की संख्या के स्तूप (Pyramid of Numbers of Organisms)-
जब किसी पारिस्थितिक तंत्र के उत्पादक व प्राथमिक, द्वितीयक या तृतीयक श्रेणी के उपभोक्ताओं के जीवों की संख्या का चित्रण किया जाता है तो उसे जीवों की संख्या का पिरामिड कहते हैं। इसमें जैसे-जैसे उत्पादक से उपभोक्ताओं की तरफ बढ़ते हैं वैसे-वैसे जीवों की संख्या कम होती जाती है। अर्थात् इसमें उत्पादकों की संख्या सर्वाधिक एवं प्रथम, द्वितीय व तृतीय श्रेणी के उपभोक्ताओं की संख्या क्रमशः कम तथा उच्चतम उपभोक्ताओं की संख्या सबसे कम होती है। इसके चित्रण में यह पिरामिड सीधा (Upright) होता है। परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि यह स्तूप सदैव सीधे ही होते हैं, जैसे परजीवी खाद्य श्रृंखला वाले तंत्र में यह स्तूप उल्टा (Inverted) होता है। इसी प्रकार एक विशाल वृक्ष के पारिस्थितिक तंत्र का स्तूप भी उल्टा बनेगा। घास स्थलीय पारिस्थितिक तंत्र के उत्पादक मुख्य रूप से घास होती है। जो संख्या में सर्वाधिक होती है। परन्तु इसके पश्चात् उपभोक्ताओं की संख्या में निरन्तर कमी आती है। अतः इसका पिरामिड सीधा होता है।
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इसी प्रकार तालाब का पारिस्थितिक तंत्र सीधा होता है। इसमें पादप प्लावक (शैवाल) मुख्य उत्पादक होते हैं तथा संख्या में सर्वाधिक होते हैं। इसके पश्चात् विभिन्न श्रेणी के उपभोक्ताओं की संख्या में कमी होती जाती है। वन (Forest) पारिस्थितिक तंत्र में जीवों की संख्या को पिरामिड की आकृति कुछ अलग ही प्रकार की होती है क्योंकि इनमें उत्पादक बड़े आकार (size) के वृक्ष होते हैं परन्तु संख्या में कम होते हैं। इनमें शाकाहारी उपभोक्ताओं की संख्या में निरन्तर कमी आती जाती है परन्तु फिर भी यह सीधा होता है। परजीवी भोजन श्रृंखला में पिरामिड सदैव उल्टा होता है क्योंकि एक पौधा अनेक परजीवियों की वृद्धि हेतु पर्याप्त होता है तथा ये परजीवी अनेक परात्पर जीवों (Hyper parasite) को पोषणता प्रदान करने में सक्षम होते हैं और इस प्रकार से निरन्तर उत्पादक से उपभोक्ताओं की संख्या बढ़ने के कारण चित्र में उल्टी आकृति का पिरामिड बनता है।

(ग) ऊर्जा के पिरामिड (Pyramid of energy)-
तीनों प्रकार के पारिस्थितिक पिरामिड में से ऊर्जा के पिरामिड पूर्ण रूप से पारिस्थितिक तंत्र की प्रकृति का स्पष्ट चित्रण करते हैं। भोजन श्रृंखला में भोजन उत्पादकों से उपभोक्ताओं तक जाता है अर्थात् भोजन एक स्तर से दूसरे स्तर तक जाता रहता है या यों कहा जा सकता है कि ऊर्जा एक स्तर से दूसरे स्तर की ओर प्रवाहित होती है। यह सुनिश्चित है कि ऊर्जा एक पोष स्तर से दूसरे पोष स्तर पर जाने पर कम होती जाती है। यह देखा गया है कि एक पोष स्तर से संचित ऊर्जा जब दूसरे पोष स्तर में जाती है तो कुल ऊर्जा का केवल 10 प्रतिशत ही जीवभार के रूप में रूपान्तरित होता है। अतः उत्पादकों में ऊर्जा सर्वाधिक तथा प्राथमिक, द्वितीयक व तृतीयक और उच्चतम उपभोक्ता में ऊर्जा धीरे-धीरे कम होती जाती है। इसलिए ऊर्जा के आधार पर चित्रण किए जाने से पिरामिड सदैव सीधे बनते हैं। ऊर्जा के आधार पर बनने वाले पिरामिड का आधार सदैव बड़ा तथा शीर्ष छोटा होता है । यद्यपि इस पर जीवों के आकार और उपापचय दर का प्रभाव नहीं। होता परन्तु इस प्रकार के पिरामिड बनाने में समय तथा क्षेत्र अधिक महत्वपूर्ण है। ऊर्जा के आधार पर जीवों का अध्ययन एक इकाई क्षेत्र तथा समय के आधार पर किया जाता है।
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प्रश्न 2.
खाद्य श्रृंखला तथा खाद्य जाल का उदाहरण सहित वर्णन कीजिये।
उत्तर-
(i) खाद्य श्रृंखला (Food Chain)-
पारिस्थितिक तंत्र में उत्पादक सौर ऊर्जा को उपयोग में लेकर भोजन निर्माण करते हैं तथा इस भोजन का उपयोग प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता (शाकाहारी) करते हैं। प्रथम श्रेणी के उपभोक्ताओं में विद्यमान भोजन को द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ता तथा द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ताओं को तृतीय श्रेणी के उपभोक्ता भोजन के रूप में उपयोग कर लेते हैं, अर्थात् पारिस्थितिक तंत्र में उत्पादक, उपभोक्ता एक क्रम में व्यवस्थित (Producers, Consumers arrangement) रहते हैं अथवा यह कहा जाए कि इसमें खाने व खाये जाने की पुनरावृत्ति होती है। अर्थात् दूसरे शब्दों में यह खाद्य क्रम जीवो, जीवस्य भोजनम्” की उक्ति को चरितार्थ करता है। अतः भोजन के भक्ष्य की श्रृंखला को ही खाद्य श्रृंखला (Food Chain) कहते हैं। एल्टन (Alton, 1927) के अनुसार प्रकृति में सामान्यतः एक खाद्य श्रृंखला में पांच-छ: से अधिक कड़ियां (Links) या जीव नहीं होते हैं क्योंकि खाद्य ऊर्जा के एक पोष स्तर से दूसरे पोष स्तर में जाने पर 90 प्रतिशत ऊर्जा का ऊष्मा के रूप में अपव्यय (श्वसन क्रिया में) हो जाता है तथा सबसे ऊंचे पोष स्तर को बहुत कम ऊर्जा उपलब्ध होती है। इस श्रृंखला के प्रत्येक स्तर को पोष रचना कहा जाता है। उसमें एक निश्चित भोजन स्तर अर्थात् पोष स्तर होता है। इस श्रृंखला के एक किनारे पर उत्पादक (हरे पौधे) होते हैं तो दूसरे किनारे पर अपघटक (decompose) होते हैं। जैसे घास स्थल, जलीय व वन पारिस्थितिक तंत्र में निम्न प्रकार की खाद्य श्रृंखलायें होती हैं
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जलीय पारिस्थितिक तंत्र में खाद्य श्रृंखला-
पादप प्लवक → जन्तु प्लवक छोटी मछली → बड़ी मछली → मनुष्य
वन पारिस्थितिक तंत्र में खाद्य श्रृंखला-
पादप → हिरन → भेड़िया → शेर
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प्रकृति में तीन तरह की खाद्य श्रृंखलाएं होती हैं

(क) परभक्षी या शाकवर्ती खाद्य श्रृंखला (Predator or grazing food chain)-
इस प्रकार की खाद्य श्रृंखला सौर ऊर्जा पर आधारित होती है जो हरे पौधों से प्रारम्भ होकर मांसाहारी जन्तुओं से होती हुई सर्वोच्च मांसाहारी जन्तुओं या उपभोक्ताओं पर समाप्त होती है। अतः यह छोटे जीवों से प्रारम्भ होकर बड़े जीवों पर समाप्त होती है। उदाहरण- घास स्थलीय खाद्य श्रृंखला।।

(ख) परजीवी खाद्य श्रृंखला (Parasitic food chain)-
यह बड़े जन्तुओं (शाकाहारी) से प्रारम्भ होकर छोटे जीवों (परजीवी) पर समाप्त होती है अर्थात् परपोषी से परजीवी की ओर अग्रसर होती है। उदाहरण
जड़े → निमेटोड → जीवाणु

(ग) अपरदी या मृतोपजीवी खाद्य श्रृंखला (Detritus or Saprophytic food chain)-
यह आहार श्रृंखला मृत सड़े-गले कार्बनिक पदार्थों से प्रारंभ होती है और मृदा में स्थित अपरभक्षी जीवों से होकर उन जीवों तक जाती है, जो अपरदहारी जीवों का भक्षण करते हैं। उदाहरण
अपरद → केंचुआ → मेंढक → सांप → चील ।
इस प्रकार की खाद्य श्रृंखला वनों व घास स्थलीय पारिस्थितिक तंत्रों में बहुत महत्व की है।

(ii) खाद्य जाल (Food Web)-
उपरोक्त खाद्य श्रृंखलाओं में एक स्तर से अन्य स्तर पर ऊर्जा का प्रवाह होता है। जलीय पारिस्थितिक तंत्र में चारण खाद्य श्रृंखला (Grazing food chain = GFC) ऊर्जा प्रवाह का महत्वपूर्ण साधन है परन्तु स्थलीय पारिस्थितिक तंत्र में चारण खाद्य श्रृंखला की तुलना में अपरद खाद्य श्रृंखला (Detritus food chain = DFC) द्वारा अधिक ऊर्जा प्रवाहित होती है।

पारिस्थितिक तंत्र में सभी जीव एक समुदाय में अन्य जीवों के साथ रहते हैं। सभी जीव अपने पोषण या आहार के स्रोत के आधार पर खाद्य श्रृंखला में एक विशेष स्थान ग्रहण करते हैं, जिसे पोषण स्तर (trophic level) कहा जाता है। एक विशिष्ट समय पर प्रत्येक पोषण स्तर के जीवित पदार्थ की कुछ खास मात्रा होती है, जिसे स्थित शस्य या खड़ी फसल (Standing crop) कहते हैं। इसे इकाई क्षेत्र में उपस्थित जीवों की संख्या या जैवभार (biomass) द्वारा प्रदर्शित किया जाता है।

वस्तुतः प्रकृति में उपरोक्त वर्णित सरल खाद्य श्रृंखलाएं नहीं पाई जाती हैं अपितु विभिन्न खाद्य श्रृंखलाएं आपस में किसी न किसी पोष स्तर से जुड़कर एक अत्यन्त जटिल खाद्य जाल (food web)’ को निर्माण करती हैं। इसका कारण यह है कि एक ही प्राणी कई प्रकार के प्राणियों को अपना भोजन बना सकता है। उदाहरण- एक घास स्थलीय पारिस्थितिक तंत्र में प्राथमिक उत्पादकों को टिड्डी एवं चूहों के अतिरिक्त खरगोश, गाय, बकरी या अन्य शाकाहारी द्वारा भी खाया जा सकता है। इसी प्रकार चूहों को सर्प तथा सर्पो को गिद्ध खाते हैं परन्तु इन सर्पो व गिद्ध के अतिरिक्त अन्य जन्तुओं द्वारा भी खाया जा सकता है।
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किसी भी पारिस्थितिक तंत्र में खाद्य जाल जितना जटिल और विशाल होगा, उतना ही वह पारिस्थितिक तंत्र स्थिरता व संतुलन लिए होगा क्योंकि इसमें उपभोक्ता के लिए अनेक प्रकार के जीव उपयोग हेतु उपलब्ध रहेंगे। किसी जीव के किसी कारणवश नष्ट हो जाने पर खाद्य जाल के स्थायित्व (stability) पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता क्योंकि खाद्य जाल मे वैकल्पिक व्यवस्था (alternative arrangement) होती है। जिससे उस जीव के स्थान की पूर्ति अन्य जीव द्वारा हो जाती है तथा ऊर्जा का प्रवाह वैकल्पिक परिपथों से होने लगता है। खाद्य जाल, समुदाय में जीवों के बहुदिशीय संबंधों को प्रकट करता है। खाद्य जाल में ऊर्जा का प्रवाह एकदिशीय होते हुए भी अनेक वैकल्पिक परिपथों से होकर होता है।

खाद्य श्रृंखला में एक पोष स्तर से दूसरे पोष स्तर में केवल 10 प्रतिशत ऊर्जा ही प्रवाहित होती है।

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प्रश्न 3.
पारिस्थितिक तंत्र से आप क्या समझते हैं? इसके संरचनात्मक पहलू का वर्णन कीजिये।
उत्तर-
पारितंत्र या पारिस्थितिक तंत्र का आकार एक छोटे से तालाब से लेकर एक विशाल जंगल या महासागर तक हो सकता है। अनेक पारिस्थितिकी वैज्ञानिक सम्पूर्ण जीवमंडल को विश्व (globe) पारितंत्र के रूप में मानते हैं। जिसमें पृथ्वी के सभी स्थानीय पारितंत्र समाहित होते हैं। चूंकि यह तंत्र बहुत विशाल एवं जटिल है अतः अध्ययन की सुविधा के लिए इसे मुख्य रूप से दो प्रकारों में बांटा जा सकता है
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प्रश्न 4.
पारिस्थितिक तंत्र में ऊर्जा के प्रवाह को सार्वत्रिक प्रारूप सहित वर्णन कीजिये।
उत्तर-
पारिस्थितिक तंत्र में ऊर्जा प्रवाह (Energy flow in an ecosystem)-
पारिस्थितिक तंत्र में ऊर्जा का प्रवेश, स्थानान्तरण, रूपान्तरण एवं | वितरण उष्मागतिकी के दो मूल नियमों (Law of thermodynamics) के अनुरूप होता है। कार्य करने की क्षमता को ऊर्जा कहते हैं। प्रत्येक जीव को अपनी जैविक क्रियाओं के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। किसी भी पारिस्थितिक तंत्र में ऊर्जा का एकमात्र एवं अंतिम मुख्य स्रोत सूर्य है। पृथ्वी पर पहुंचने वाली कुल प्रकाश ऊर्जा का केवल 1 प्रतिशत भाग प्रकाश संश्लेषण द्वारा खाद्य ऊर्जा या रासायनिक ऊर्जा में रूपान्तरित हो पाता है। वन वृक्षों में यह दक्षता 5 प्रतिशत तक हो सकती है। शेष ऊर्जा का ऊष्मा के रूप में ह्यस हो जाता है। पृथ्वी पर कुल प्रकाश संश्लेषण का लगभग 90 प्रतिशत भाग जलीय पौधों विशेषतः समुद्रीय डायटमों (Diatoms) शैवालों द्वारा सम्पन्न होता है. और शेष भाग स्थलीय पौधों द्वारा होता है। इनमें भी वन वृक्ष सबसे अधिक प्रकाश-संश्लेषण करते हैं। इसके बाद कृष्य (cultivated) पौधे तथा घास जातियां आती हैं। कोई भी जीव प्राप्त की गई ऊर्जा के औसतन 10 प्रतिशत से अधिक ऊर्जा अपने शरीर निर्माण में प्रयोग नहीं कर पाता है तथा शेष 90 प्रतिशत ऊर्जा का ऊष्मा के रूप में श्वसन आदि क्रियाओं में ह्यस हो जाता है अर्थात् खाद्य श्रृंखला में ऊर्जा के स्थानान्तरण में एक पोष स्तर पर लगभग 10 प्रतिशत ऊर्जा ही संग्रहित होती है। इसे लिण्डेमान (Lindeman, 1942) का पारिस्थितिक, दशांश का नियम (Rule of ecological tenth) कहते हैं। इस प्रकार यदि किसी स्थान पर सौर ऊर्जा की मात्रा 100 कैलोरी हो तो . पादपों (प्राथमिक उत्पादक) को 10 कैलोरी, उन पादपों का चारण करके शाक भक्षी को केवल 1 कैलोरी और उस शाकाहारी (प्राथमिक उपभोक्ता) को खासकर मांसाहारी (द्वितीयक उपभोक्ता) में केवल 0.1 कैलोरी ऊर्जा संग्रहित होगी तथा अपघटक तक यह बहुत न्यून मात्रा में पहुंचेगी। वास्तव में ऊर्जा संकल्पना में ऊर्जा का एक पोष स्तर से दूसरे पोष स्तर में स्थानान्तरण एवं रूपान्तरण है।
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समस्त प्रकार के पारिस्थितिक तंत्रों के लिए एकमात्र ऊर्जा का स्रोत सौर ऊर्जा है। (समुद्र के जलतापीय पारितंत्र को छोड़कर)। आपतित (incident) सौर विकिरण का 50 प्रतिशत भाग ही प्रकाशसंश्लेषण क्रिया में काम आता है। हरे पादप तथा रसायन संश्लेषणी (chemo synthetic) जीवाणु सौर ऊर्जा का उपयोग करके अकार्बनिक पदार्थों से खाद्य पदार्थों का निर्माण करते हैं। पादप केवल 2 से 10 प्रतिशत ही प्रकाश-संश्लेषणात्मक सक्रिय विकिरण (Photo synthetically Active Radiation = PAR) का उपयोग करते हैं और यही ऊर्जा सभी जीवधारियों का पोषण करती है। पृथ्वी के सभी जीव आहार के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उत्पादकों (हरे पौधे) पर निर्भर करते हैं। पादपों के द्वारा ग्रहण की गई सौर ऊर्जा एक पारिस्थितिक तंत्र के विभिन्न जीवों के माध्यम से प्रवाहित होती है। उष्मा गतिक के प्रथम सिद्धान्तानुसार ऊर्जा का न तो निर्माण किया जा सकता है और न ही इसका विनाश हो सकता है। इसे केवल रूपान्तरित किया जा सकता है। सौर ऊर्जा को उत्पादक पौधे प्राप्त करते हैं व इनसे उपभोक्ता की ओर ऊर्जा का प्रवाह एकदिशीय होता है। अतः ऊर्जा का प्रवाह निम्न प्रकार होता है

सूर्य के उत्पादक पादप → जन्तु उपभोक्ता → अपघटनकर्ता

पारिस्थितिक तंत्र में उष्मागतिक के दूसरे नियम का भी पालन होता है। इसके अनुसार पारिस्थितिक तंत्र को निरन्तर ऊर्जा की आपूर्ति की आवश्यकता होती है। जिससे वह पादपों व प्राणियों के लिए आवश्यक अणुओं का निरन्तर संश्लेषण कर सके। पारिस्थितिक तंत्र में हरे पादप उत्पादक होते हैं। स्थलीय पारिस्थितिक तंत्र में शाक (herbs), झाड़ियां व वृक्ष प्रमुख उत्पादक हैं जबकि जलीय पारिस्थितिक तंत्र में पादप प्लवक (Phytoplankton) बड़े जलीय पादप आदि प्राथमिक उत्पादक होते हैं।
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I = पूर्ण ऊर्जा निवेश
LA = पादप आवरण द्वारा अवशोषित प्रकाश
PG = कुल प्राथमिक उत्पादन
A = कुल स्वांगीकरण
PN = नेट प्राथमिक उत्पादन
P = द्वितीयक (उपभोक्ता) उत्पादन
NU = अनुपयोगी ऊर्जा (संचित या निर्यातित)
NA = उपभोक्ताओं द्वारा अस्वांगीकृत ऊर्जा (बहिक्षेपित)
R = श्व सन

ओडम (Odum, 1963) ने एक प्रारूपिक पारिस्थितिक तंत्र में ऊर्जा प्रवाह को समझाने के लिए डिब्बों (Boxes) व नलिकाओं (pipes) के एक मॉडल का उपयोग किया। इस मॉडल में डिब्बे पोष स्तर को तथा नलिकाएं प्रत्येक पोष स्तर में ऊर्जा प्रवाह के प्रवेश एवं निकास को निरुपित करती हैं। इसे ग्रेजिंग चैनल या चारण वाहिका (Grazing channel) भी कहा जाता है। (चित्र 40.9) इसमें उत्पादक पोष स्तर पर उपलब्ध कुल ऊर्जा का केवल 0.001% भाग ही चरम पोष स्तर पर उपयोग होता है । इस मॉडल के अनुसार यदि हरे पादपों (उत्पादकों) को कुल 3000 K. cal सूर्य का प्रकाश प्राप्त हो रहा है, इसमें से लगभग 50% भाग 1500 K. cal ही अवशोषित हो पाता है तथा इस अवशोषित मात्रा में से भी केवल 1 प्रतिशत भाग 15 K. cal प्रथम पोष स्तर पर भोजन ऊर्जा (रासायनिक ऊर्जा) में रूपान्तरित होता है । इस प्रकार नेट प्राथमिक उत्पादन केवल 15 K. cal होता है। उत्तरोत्तर उपभोक्ता पोषी स्तरों अर्थात् शाकाहारी और मांसाहारियों पर द्वितीयक उत्पादकता में (P, व P,) लगभग 10% होती है, जबकि कभी-कभी दक्षता अधिक भी हो सकती है, जैसे 20% मांसाहारी स्तर पर जैसा कि चित्र में (या P3=0.3 Kcal) दिखाया गया है। अतः यह प्रमाणित होता है कि उत्तरोत्तर पोषीस्तरों पर ऊर्जा प्रवाह में उत्तरोत्तर ह्यस होता है। इस प्रकार जितनी छोटी खाद्य श्रृंखला होगी, प्राप्य खाद्य ऊर्जा भी उतनी ही ज्यादा होगी, क्योंकि यहां ऊर्जा का ह्रास कम होता है। (चित्र 40.9)

ई.पी. ओडम (E.P. Odum, 1983) ने Y आकारिय या Z चैनल ऊर्जा प्रवाह का मॉडल दिया जो दोनों स्थलीय व जलीय पारिस्थितिक तंत्रों हेतु लागू है। चित्र 40.10 जिसे सार्वत्रिक मॉडल (universal model) कहा जाता है, यह किसी भी जीवित घटक, चाहे पौधा, प्राणि, सूक्ष्म जन्तु या व्यक्तिगत (individual model), जनसंख्या या पोषी समूह के लिए लागू होता है। इस चित्र में, छायामय डिब्बा चिह्नित ‘B’ जीवीय घटक के जीवभार को बताता है। कुल ऊर्जा निवेश या अन्तर्ग्रहित ‘I’ से दर्शाया गया है। प्रत्येक Y आकार के मॉडल में एक युग्म शाकवर्ती खाद्य श्रृंखला (grazing food chain) को तथा दूसरी अम्य अपरदी खाद्य श्रृंखला (Detritus food chain) को निरुपित करती है। (चित्र 40.11) ऊर्जा प्रवाह की यह
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I = अन्तर्ग्रहित ऊर्जा या निवेश
NU = अप्रयुक्त ऊर्जा
R = श्वसन
G = वृद्धि
E = उत्सर्जी ऊर्जा
A = स्वांगीकृत ऊर्जा
P = उत्पादन
B = जैव भार
S = संचित ऊर्जा

धारा अपरद धारा या वाहिका (Detritus channel) कहलाती है। इस प्रकार ऊर्जा प्रवाह की यह धारा या वाहिका सीधी न होकर Y के आकार की होती है। इस प्रकार से सूर्य से प्रारम्भ होकर हरे पादपो के द्वारा खाद्य श्रृंखला में विभिन्न पोष स्तरों तथा अपघटकों में ऊर्जा का अविच्छिन्न प्रवाह होता रहता है।
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