RBSE Class 11 Hindi अपठित गद्यांश

Rajasthan Board RBSE Class 11 Hindi अपठित गद्यांश

अपठित गद्यांश
निर्देश-निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर दिये गये प्रश्नों के उत्तर दीजिए

(1)
दु:ख के वर्ग में जो स्थान भय का है, वही स्थान आनन्द-वर्ग में उत्साह का है। भय में हम प्रस्तुत कठिन स्थिति के नियम से विशेष रूप में दुखी और कभीकभी उस स्थिति से अपने को दूर रखने के लिए प्रयत्नवान् भी होते हैं। उत्साह में हम आने वाली कठिन स्थिति के भीतर साहस के अवसर के निश्चय द्वारा प्रस्तुत कर्म-सुख की उमंग से अवश्य प्रयत्नवान् होते हैं। उत्साह में कष्ट या हानि सहने की दृढ़ता के साथ-साथ कर्म में प्रवृत्ति होने के आनन्द का योग रहता है। साहसपूर्ण आनन्द की उमंग का नाम उत्साह है। कर्म-सौन्दर्य के उपासक ही सच्चे उत्साही कहलाते हैं।

जिन कर्मों में किसी प्रकार का कष्ट या हानि सहने का साहस अपेक्षित होता है उन सबके प्रति उत्कण्ठापूर्ण आनन्द उत्साह के अन्तर्गत लिया जाता है। कष्ट या हानि के भेद के अनुसार उत्साह के भी भेद हो जाते हैं। साहित्य-मीमांसकों ने इसी दृष्टि से युद्ध-वीर, दान-वीर, दया-वीर इत्यादि भेद किये हैं। इनमें सबसे प्राचीन और प्रधान युद्ध वीरता है, जिसमें आघात, पीड़ा क्या मृत्यु की परेवा नहीं रहती। इस प्रकार की वीरता का प्रयोजन अत्यन्त प्राचीन काल से पड़ता चला आ रहा है, जिसमें साहस और प्रयत्न दोनों चरम उत्कर्ष पर पहुंचते हैं।

पर केवल कष्ट या पीड़ा सहन करने के साहस में ही उत्साह का स्वरूप स्फुरित नहीं होता। उसके साथ आनन्द-पूर्ण प्रयत्न या उसकी उत्कण्ठा का योग चाहिए। बिना बेहोश हुए भारी फोड़ा चिराने को तैयार होना साहस कहा जायेगा, पर उत्साह नहीं। इसी प्रकार चुपचाप, बिना हाथ-पैर हिलाये, घोर प्रहार सहने के लिए तैयार रहना साहस और कठिन से कठिन प्रहार सहकर भी जगह से न हटना धीरता कही जायेगी। ऐसे साहस और धीरता को उत्साह के अन्तर्गत तभी ले सकते हैं, जबकि साहसी या धीर उस काम को आनन्द के साथ करता चला जायेगा जिसके कारण उसे इतने प्रहार सहने पड़ते हैं। सारांश यह कि आनन्दपूर्ण प्रयत्न या उसकी उत्कण्ठा में ही उत्साह की दर्शन होता है, केवल कष्ट सहने के निश्चेष्ट साहस में नहीं। धृति और साहस दोनों का उत्साह के बीच संचरण होता है।

प्रश्न

  1. उत्साह उत्पन्न होने पर हम क्या प्रयत्न करने को तत्पर हो जाते
  2. उत्साह के कितने भेद किस आधार पर किये जाते हैं?
  3. युद्ध वीरता को सबसे प्राचीन और प्रधान क्यों माना गया है?
  4. उत्साह किसे कहा जाता है?
  5. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।

उत्तर:

  1. उत्साह उत्पन्न होने पर हम आने वाली कठिन स्थिति को सुलझाने का और साहस दिखाने का पूरा प्रयत्न करने में तत्पर हो जाते हैं।
  2. कष्ट, हानि या साहस आदि के आधार पर उत्साह के प्रमुख चार भेद माने जाते हैं—युद्धवीर, दयावीर, दानवीर एवं धर्मवीर। इनमें भी युद्धवीर को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
  3. युद्धवीरता में आघात, पीड़ा और मृत्यु तक की परवाह नहीं की जाती है। इसके साथ ही इसमें साहस और प्रयत्न दोनों का ही चरम उत्कर्ष दिखलाई देता है।
  4. उत्साह में व्यक्ति साहस के साथ कर्म की ओर प्रवृत्त हो जाता है। इस तरह साहसपूर्ण आनन्द की उमंग का नाम उत्साह है।
  5. गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक उत्साह का स्वरूप।

(2)
शिक्षा विविध जानकारियों का ढेर नहीं है, जो तुम्हारे मस्तिष्क में ढूंस दिया. गया है और जो आत्मसात् हुए बिना वहाँ आजन्म पड़ा रहकर गड़बड़ मचाया करता। है। हमें उन विचारों की अनुभूति कर लेने की आवश्यकता है, जो जीवन-निर्माण, ‘मनुष्य’-निर्माण तथा चरित्र-निर्माण में सहायक हों। यदि तुम केवल पाँच ही परखे हुए विचार आत्मसात् कर उनके अनुसार अपने जीवन और चरित्र का निर्माण कर लेते हो, तो तुम एक पूरे ग्रन्थालय को कण्ठस्थ करने वाले की अपेक्षा अधिक शिक्षित हो सकते हो। यदि शिक्षा का अर्थ जानकारी ही होता, तब तो पुस्तकालय संसार में सबसे। बड़े सन्त हो जाते और विश्वकोश महान् ऋषि बन जाते।

विदेशी भाषा में दूसरे के विचारों को रटकर, अपने मस्तिष्क में उन्हें ढूंसकर और विश्वविद्यालयों की कुछ पदवियाँ प्राप्त करके, तुम अपने को शिक्षित समझते होक्या यही शिक्षा है? तुम्हारी शिक्षा का उद्देश्य क्या है? या तो मुंशीगीरी मिलना, या वकील हो जाना, या अधिक-से-अधिक डिप्टी मैजिस्ट्रेट बन जाना, जो मुंशीगीरी का ही दूसरा रूप है-बस यही न? इससे तुमको या तुम्हारे देश को क्या लाभ होगा? आँखें खोलकर देखो, जो भरतखण्ड पहले कभी अन्न का अक्षय भण्डार रहा, आज वहीं उसी अन्न के लिए कैसी करुण पुकार उठ रही है

क्या तुम्हारी शिक्षा इस अभाव की पूर्ति करेगी? वह शिक्षा जो जनसमुदाय को जीवन-संग्राम के उपयुक्त नहीं बनाती, जो उनकी चारित्र्य-शक्ति का विकास नहीं करती, जो उनमें भूत-दया का भाव और सिंह का साहस पैदा नहीं करती, क्या उसे भी हम ‘शिक्षा’ का नाम दे सकते हैं? अतएव हमें तो ऐसी शिक्षा चाहिए, जिससे चरित्र बने, मानसिक बल बढ़े, बुद्धि का विकास हो और जिससे मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सके। हमें आवश्यकता इस बात की है कि हम विदेशी अधिकार से स्वतंत्र रहकर अपने निजी ज्ञानभण्डार की विभिन्न शाखाओं को और उसके साथ ही अंग्रेजी भाषा और पाश्चात्य विज्ञान का अध्ययन करें। हमें यांत्रिक और ऐसी सभी शिक्षाओं की जरूरत है, जिनसे जनता की आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके।

प्रश्न

  1. हमें किन विचारों की अनुभूति कर लेना आवश्यक है?
  2. शिक्षा का अर्थ क्या है?
  3. वर्तमान काल की शिक्षा पद्धति पर लेखक ने क्या आक्षेप। किया है?
  4. हमें कैसी शिक्षा की आवश्यकता है? बताइये।
  5. उपर्युक्त गद्यांश को उचित शीर्षक बताइये।

उत्तर:

  1. जो हमारे जीवन-निर्माण, मनुष्य-निर्माण, चरित्र-निर्माण के साथ व्यक्तित्व के विकास में सहायक हों, हमें उन विचारों की अनुभूति कर लेना आवश्यक है।
  2. शिक्षा का अर्थ कोरी अथवा अनुपयोगी बातों का ज्ञान करना न होकर तत्त्व युक्त एवं जीवनोपयोगी बातों का अवबोध करना है।
  3. लेखक ने यह आक्षेप इसलिए किया है कि इस शिक्षा पद्धति का उद्देश्य शिक्षार्थियों को विविध जानकारियाँ उपलब्ध कराना बन गया है।
  4. हमें आज ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है, जिससे हमारा चरित्र बने, मानसिक बल बढ़े, बुद्धि का विकास हो और हम स्वावलम्बी बन सकें।
  5. गद्यांश के लिए उचित शीर्षक–शिक्षा का उद्देश्य एवं महत्त्व।

(3)
‘श्रद्धा एक सामाजिक भाव है, इससे अपनी श्रद्धा के बदले में हम श्रद्धेय से अपने लिए कोई बात नहीं चाहते। श्रद्धा धारण करते हुए हम अपने को उस समाज में समझते हैं जिसके अंश पर-चाहे हम व्यष्टि रूप में उसके अन्तर्गत न भी हों—जानबूझकर उसने कोई शुभ प्रभाव डाला। श्रद्धा स्वयं ऐसे कर्मों के प्रतिकार में होती है। जिनका शुभ प्रभाव अकेले हम पर ही नहीं, बल्कि सारे मनुष्य समाज पर पड़ सकता है। श्रद्धा एक ऐसी आनन्दपूर्ण कृतज्ञता है जिसे हम केवल समाज के प्रतिनिधि रूप में प्रकट करते हैं। सदाचार पर श्रद्धा और अत्याचार पर क्रोध या घृणा प्रकट करने के लिए समाज ने प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिनिधित्व प्रदान कर रखा है। यह काम उसने दो-चार मानवीय लोगों के ही सिर पर नहीं छोड़ रखा है।

जिस समाज में सदाचार पर श्रद्धा और अत्याचार पर क्रोध या घृणा प्रकट करने के लिए जितने ही अधिक लोग तत्पर पाये जायेंगे, उतना ही वह समाज जागृत समझा जायेगा। श्रद्धा की सामाजिक विशेषता एक इसी बात से समझ लीजिये कि जिस पर हुम श्रद्धा रखते हैं उस पर चाहते हैं कि और लोग भी श्रद्धा रखें। पर जिस पर हमारा प्रेम होता है हम चाहते हैं कि उससे और दस-पाँच आदमी प्रेम रखें। इसकी हमें परवाह क्या, इच्छा ही नहीं होती, क्योंकि हम प्रिय पर लोभवश एक प्रकार को अनन्य अधिकार चाहते हैं। श्रद्धालु अपने भाव में संसार को भी सम्मिलित करना चाहता है, पर प्रेमी नहीं।

अपने साथ या किसी विशेष मनुष्य के साथ किये जाने वाले व्यवहार के लिए जो कृतज्ञता होती है वह श्रद्धा नहीं है। श्रद्धालु की दृष्टि सामान्य की ओर होनी चाहिए, विशेष की ओर नहीं। अपने सम्बन्धी के प्रति किसी को कोई उपकार करते देख यदि हम कहें कि उस पर हमारी श्रद्धा हो गई है तो यह हमारा पाखण्ड है, हम झूठ-मूठ अपने को ऐसे उच्च भाव का धारणकर्ता प्रकट करते हैं। पर उसी सज्जन को दस-पाँच और ऐसे आदमियों के साथ जब हम उपकार करते देखें जिन्हें हम जानते तक नहीं और इस प्रकार हमारी दृष्टि विशेष से सामान्य की ओर हो जाये, तब यदि हमारे चित्त में उसके प्रति पहले से कहीं अधिक कृतज्ञता या पूज्य बुद्धि का उदय हो तो हम श्रद्धालु की उच्च पदवी के अधिकारी हो सकते हैं।

प्रश्न

  1. श्रद्धा को किस कारण सामाजिक भाव कहा गया है?
  2. श्रद्धा कैसे कर्मों के प्रतिकार में होती है?
  3. सदाचार पर श्रद्धा और अत्याचार पर क्रोध प्रकट करने के लिए समाज ने किसे प्रतिनिधित्व प्रदान कर रखा है और क्यों?
  4. श्रद्धा की सामाजिक विशेषता क्या है?
  5. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक बताइये।

उत्तर:

  1. श्रद्धा का भाव सभी में रहता है, इसका प्रभाव अकेले एक व्यक्ति पर नहीं, सारे समाज पर पड़ता है। इसीलिए इसे सामाजिक भाव कहा जाता है।
  2. श्रद्धा ऐसे श्रेष्ठ कर्मों के प्रतिकार में होती है, जिनका शुभ प्रभाव केवल व्यक्ति विशेष पर ही न पड़कर बल्कि सम्पूर्ण मनुष्य समाज पर पड़ता है।
  3. सदाचार पर श्रद्धा और अत्याचार पर क्रोध या घृणा प्रकट करने के लिए समाज ने प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिनिधित्व प्रदान कर रखा है, क्योंकि सदाचार मानवीय गुण है और अत्याचार अमानवीय है।
  4. श्रद्धा की सामाजिक विशेषता यह है कि हम जिस पर श्रद्धा करते हैं, उस पर हम चाहते हैं कि अन्य लोग भी श्रद्धा रखें, क्योंकि श्रद्धा एक सामाजिक भाव है।
  5. प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक-श्रद्धा-भाव का महत्त्व।

(4)
‘भूमि माता है और मैं उसका पुत्र हैं। यह भाव जब सशक्त रूप में जागता है, तब राष्ट्र-निर्माण के स्वर वायुमण्डल में भरने लगते हैं। भूमि के साथ माता और पुत्र का सम्बन्ध स्थापित होने पर उसे पवित्र मातृभूमि का पद दिया जाता है और ‘मातृभूमि को प्रणाम’, ‘माता पृथ्वी को प्रणाम’ यह प्रणाम-भाव भूमि एवं जन को परस्पर दृढ़ता से बाँध देता है। इसी दृढ़-भित्ति पर राष्ट्र का भवन तैयार किया जाता है। इसी दृढ़ चट्टान पर राष्ट्र का चिर जीवन आश्रित रहता है। इसी मर्यादा को मानकर राष्ट्र के प्रति मनुष्यों के कर्तव्य और अधिकारों का उदय होता है। जो जन पृथ्वी के साथ माता और पुत्र के सम्बन्ध को स्वीकार करता है, उसे ही पृथ्वी के वरदानों में भाग पाने का अधिकार है। माता के प्रति अनुराग और सेवाभाव पुत्र का स्वाभाविक कर्तव्य है। वह एक निष्कारण धर्म है। स्वार्थ के लिए पुत्र का माता के प्रति प्रेम, पुत्र के अधःपतन को सूचित करता है। जो जन मातृभूमि के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ना चाहता है उसे अपने कर्तव्यों के प्रति पहले ध्यान देना चाहिए।

माता अपने सब पुत्रों को समान भाव से चाहती है। इसी प्रकार पृथ्वी पर बसने वाले जन बराबर हैं। उनमें ऊँच और नीच का भाव नहीं है। जो मातृभूमि के हृदय के साथ जुड़ा हुआ है वह समान अधिकार का भागी है। पृथ्वी पर निवास करने वाले जनों का विस्तार अनन्त है::'”‘नगर और जनपद, पुर और गाँव, जंगल और पर्वत नाना प्रकार के जनों से भरे हुए हैं। ये जन अनेक प्रकार की भाषाएँ बोलने वाले और अनेक धर्मों के मानने वाले हैं, फिर भी वे मातृभूमि के पुत्र हैं और इस कारण उनका सौहार्द भाव अखण्ड है। सभ्यता और रहन-सहन की दृष्टि से जन एक-दूसरे से आगे-पीछे हो सकते हैं, किन्तु इस कारण से मातृभूमि के साथ उनको जो सम्बन्ध है उसमें कोई भेदभाव उत्पन्न नहीं हो सकता। पृथ्वी के विशाल प्रांगण में सब जातियों के लिए समान क्षेत्र है। समन्वय के मार्ग से भरपूर प्रगति और उन्नति करने का सबको एक जैसा अधिकार है। किसी जन को पीछे छोड़कर राष्ट्र आगे नहीं बढ़ सकता। अतएव समग्र राष्ट्र जागरण और प्रगति की एक जैसी उदार भावना से संचालित होना चाहिए।

प्रश्न

  1. राष्ट्र रूपी भवन का निर्माण किस पर खड़ा होता है?
  2. किस मर्यादा को मानकर राष्ट्र के प्रति मनुष्यों के कर्त्तव्य और अधिकारों का उदय होता है?
  3. पृथ्वी पर रहने वाले जनों का सौहार्द भाव किस कारण अखण्ड
  4. किस जन को सर्वप्रथम अपने कर्तव्यों पर ध्यान देना चाहिए?
  5. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक बताइये।

उत्तर:

  1. ‘भूमि हमारी माता है और हम इसके पुत्र हैं’–इस तरह की भावना रखने से मातृभूमि के प्रति नागरिकों में जो दृढ़ अपनत्व भाव जागृत होता है, उसी आधार पर राष्ट्र रूपी भवन का निर्माण होता है।
  2. भूमि माता है और मैं उसका पुत्र हूँ। इसी मर्यादा को मानकर राष्ट्र के प्रति मनुष्यों के कर्तव्य और अधिकारों के सम्यग् निर्वाह का उदय होता है।
  3. पृथ्वी पर रहने वाले जन अनेक प्रकार की भाषाएँ बोलते हैं और अनेक धर्मों को मानते हैं, लेकिन वे हर स्थिति में मातृभूमि के पुत्र होने के कारण उनका सौहार्द भाव अखण्ड है।
  4. जो जन : भूमि माती है और मैं उसका पुत्र हैं’ के भाव से पूरित होकर मातृभूमि के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ना चाहता है, उसे सर्वप्रथम अपने कर्तव्य पर ध्यान देना चाहिए।
  5. गद्यांश का उचित शीर्षक–राष्ट्र निर्माण के तत्त्व।

(5)
भारतीय साहित्य की एकता पर जोर देने की आवश्यकता इसलिए भी है कि आज संसार के समक्ष भविष्य की स्थिति बहुत कुछ डॉवाडोल हो गई है। विघटन की शक्तियाँ इतनी बलवती हो गई हैं कि यह नहीं समझ पड़ता कि नया विकास और नया संगठन किस प्रकार होगा। नयी सभ्यता के इस संक्रान्तिकाल में भारतवर्ष अपना संतुलन खो दे, यह उचित न होगा। इसके विपरीत यह अधिक आवश्यक है कि वह अपने साहित्य, अपनी कला और अपने जीवन-दर्शन द्वारा संसार को एक नया आलोक अथवा एक नवीन दिशाज्ञान देने की चेष्टा करे। संसार के बड़े-बड़े विचारक भी आज प्रकाश के लिए इधर-उधर टोह लगा रहे हैं। उनमें कुछ की यह भी धारणा है कि भारतीय साहित्य और भारतीय जीवन-दर्शन उन्हें नया मार्ग-निर्देश दे सकते हैं। ऐसी स्थिति में नयी प्रगति को दौड़कर अपनाने की अपेक्षा अपने साहित्यिक वैभव की ओर दृष्टिपात करना अधिक अच्छा होगा।

यदि हम अपने देश के प्राचीन साहित्य को देखें, तो उसमें एक मूलभूत एकता दिखाई देती है। इसका एक बड़ा प्रमाण यह है कि हमारे कतिपय महान् साहित्यिकों के जन्म-स्थान का पता न होने पर भी समस्त प्रान्तों में उनका प्रचलन है और उन्हें समान सम्मान प्राप्त है। वाल्मीकि के कार्यक्षेत्र का निर्देश कर भी दिया जाये तो भी व्यास का व्यक्तित्व और उनकी इयत्ता तो अज्ञात ही रहेगी। फिर भी सारा देश उन्हें अपना समझता है। कालिदास की भी प्रायः ऐसी ही स्थिति है। विभिन्न प्रान्तों के पंडित उन्हें अपनी-अपनी ओर खींचने का प्रयत्न करते हैं; परन्तु कालिदास वास्तव में। किसी प्रान्त के कवि नहीं थे, समस्त भारत के कवि हैं।

हमारे देश में विविधता में एकता लाने की चेष्य चिरकाल से की गई है, और इस कार्य में हमारे साहित्यिकों ने विशेष योग दिया है। वैदिक साहित्य के द्वारा सारे देश में एकसी धार्मिक भावना, एकसी यज्ञ पद्धति और एकसा दार्शनिक आधार प्रतिष्ठित हुआ था। आज भी भारतीय गृहों में वैदिक संस्कार की अनेक विधियाँ प्रचलित हैं। रामायण में राम के चरित्र की गरिमा और महत्ता एक आदर्श मानव की ही गरिमा और महत्ता है। इनसे भारतीय सांस्कृतिक एकता अत्यन्त बलबती और परिपुष्ट होती है।

प्रश्न

  1. आज भारतीय साहित्य की एकता पर क्यों जोर दिया जा रहा
  2. नयी सभ्यता के इस संक्रान्ति काल में भारत के लिए सबसे अधिक आवश्यक क्या है?
  3. संसार के बड़े-बड़े विचारक भी आज किस प्रकाश को पाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं?
  4. हमारे देश में विविधता में एकता लाने के प्रयास में विशेष रूप से किसका योगदान रहा है?
  5. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक बताइये।

उत्तर:

  1. आज संसार के समक्ष भविष्य की स्थिति अनिश्चित-सी है और विघटनकारी शक्तियों से सामाजिक-जीवन असन्तुलित हो रहा है। इसलिए आज भारतीय साहित्य की एकता पर जोर दिया जा रहा है।
  2. इस संक्रान्ति काल में भारत के लिए सबसे अधिक आवश्यक यह है कि वह अपने साहित्य, कला और अपने जीवन-दर्शन द्वारा संसार को एक नयी ज्ञान-दिशा देने की चेष्टा करे।
  3. संसार के बड़े-बड़े विचारक भी नयी सभ्यता के इस संक्रान्ति काल में भारत से नवीन दिशा-ज्ञान का प्रकाश पाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
  4. हमारे देश में विविधता में एकता लाने के प्रयास में विशेष रूप से हमारे साहित्यिकों का ही योगदान रहा है।
  5. गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक–भारतीय साहित्य की एकता।

(6)
‘संस्कृति’ शब्द को सम्बन्ध संस्कार से है, जिसका अर्थ है संशोधन करना, उत्तम बनाना, परिष्कार करना। अंग्रेजी शब्द ‘कल्चर’ में वही धातु है जो ‘एग्रीकल्चर’ में है; इसका भी अर्थ ‘पैदा करना, सुधारना है। संस्कार व्यक्ति के भी होते हैं और जाति के। भी। जातीय संस्कारों को ही संस्कृति कहते हैं। संस्कृति एक समूहवाचक शब्द है। जलवायु के अनुकूल रहन-सहन की विधियाँ और विचार-परम्पराएँ जाति के लोगों में दृढमूल हो जाने से जाति के संस्कार बन जाते हैं। इनको प्रत्येक व्यक्ति अपनी निजी प्रकृति के अनुकूल न्यूनाधिक मात्रा में पैतृक सम्पत्ति के रूप में प्राप्त करता है। ये संस्कार व्यक्ति के घरेलू जीवन तथा सामाजिक जीवन में परिलक्षित होते हैं। मनुष्य अकेला रहकर भी इनसे छुटकारा नहीं पा सकता। ये संस्कार दूसरे देश में निवास करने अथवा दूसरे देशवासियों के सम्पर्क में आने से कुछ परिवर्तित भी हो सकते हैं और कभी-कभी दब भी जाते हैं; किन्तु अनुकूल वातावरण प्राप्त करने पर फिर उभर आते हैं।

संस्कृति का बाह्य पक्ष भी होता है और आन्तरिक भी। उसका बाह्य पक्ष आन्तरिक का प्रतिबिम्ब नहीं तो उससे सम्बन्धित अवश्य रहता है। हमारे बाह्य आचार हमारे विचारों और मनोवृत्तियों के परिचायक होते हैं। संस्कृति एक देश-विशेष की उपज होती है, उसका सम्बन्ध देश के भौतिक वातावरण और उसमें पालित, पोषित एवं परिवर्द्धित विचारों से होता है।

भाषा संस्कृति का कुछ बाहरी अंग-सा है, फिर भी वह हमारी जातीय मनोवृत्ति की परिचायिका होती है। ‘कुशल’ शब्द को लीजिये; यह हमारी उस संस्कृति की ओर संकेत करता है जिसमें कि पूजा-विधान की सम्पन्नता के लिए कुश लाना एक दैनिक कार्य बना हुआ था। इसी प्रकार के अनेक शब्द हैं जो हमारी संस्कृति में महत्त्वपूर्ण माने गये हैं। हमारी संस्कृति के आन्तरिक अंगों को लेकर मनुस्मृति आदि धर्म-ग्रन्थों की रचना की गई है, जिनमें अच्छे मनुष्यों के जो अच्छे लक्षण बताये गये हैं, वे सब भारतीयों की मानसिक एवं आध्यात्मिक संस्कृति के परिचायक हैं।

प्रश्न

  1. ‘संस्कृति’ शब्द का अर्थ क्या बताया गया है?
  2. संस्कृति किसे कहा जाता है?
  3. जातीय संस्कार कैसे बन जाते हैं?
  4. जातीय संस्कार व्यक्ति के किस जीवन में परिलक्षित होते हैं?
  5. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक बताइये।

उत्तर:

  1. ‘संस्कृति’ शब्द में ‘सम्’ उपसर्ग लगी है। इस शब्द का अर्थ है– संस्कार करना, संशोधन करना, उत्तम बनाना या परिष्कार करना।
  2. व्यक्ति या जाति के आचरण में उत्तम विचारों एवं उदात्त भावों का समावेश करके जो विशिष्ट स्वरूप दिया जाता है, उसे ही संस्कृति कहा जाता है।
  3. जलवायु के अनुकूल रहन-सहने की विधियाँ और विचार परम्पराएँ जाति के लोगों में दृढमूल हो जाने से जातीय संस्कार बन जाते हैं।
  4. जातीय संस्कार व्यक्ति की भाषा, व्यवहार, घरेलू जीवन और सामाजिक जीवन में परिलक्षित होते हैं।
  5. गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक–भारतीय संस्कृति।

(7)
परहित का अर्थ है दूसरों की भलाई। इसी को परोपकार भी कहते हैं। दोनों का भाव एक है। यदि एक में दूसरे के हित की भावना है, तो दूसरे में भला करने की भावना छिपी हुई है। अपने हित की चिन्ता न कर दूसरों का हित या उपकार करना ही सच्चे अर्थ में परहित या परोपकार है।

धर्म का अर्थ है-पुण्य, कर्तव्य, सत्कर्म और सदाचार। यहाँ धर्म का अर्थ मज़हब या मत नहीं है। यदि मज़हब अर्थ है तो यह मज़हब के प्रति द्वेष या बुरा करने का भाव लिए हुए नहीं है, बल्कि भलाई करने का भाव लिए हुए है। वास्तव में जिस आचरण या कार्य से समाज का कल्याण होता है वही धर्म है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। उसका धर्म है कि वह स्वयं जिए और दूसरों को भी जीने दे। वह अपने सुखदुःख के साथ दूसरों के सुख-दुःख की ओर भी ध्यान दे। अपने स्वार्थ को छोड़कर दूसरों के हित की सोचे। अपनी स्वार्थ सिद्धि करना मानवता नहीं है। परहित ही सच्ची मानवता है, यही सच्चा धर्म है।

मनुष्य अपनी क्षमता या सामर्थ्य के अनुसार परहित कर सकता है। वह धन से या मन से या तन से, तीनों से दूसरों की भलाई कर सकता है। दूसरों के प्रति सच्ची सहानुभूति करना भी परहित है। किसी को संकट से बचाना, किसी को कुमार्ग से हटाना, किसी दुःखी और निराश व्यक्ति को सांत्वना देना भी परहित के अन्तर्गत आता है। भगवान् राम ने ऋषि-मुनियों की तपस्या में बाधा डालने वाले राक्षसों का संहार किया।

ईसामसीह ने लोगों का उत्थान किया। सम्राट् अशोक ने स्थान-स्थान पर कुएँ, तालाब आदि खुदवाकर तथा वृक्ष लगवाकर जनता का उपकार किया। यही मानव का प्रमुख धर्म है। परहित की प्रवृत्ति तो वृक्षों और नदियों में भी पाई जाती है। वृक्ष सभी प्राणियों को छाँव प्रदान करता है, फल देता है और अपनी लकड़ी देकर उनके लिए साधन जुटाता है। नदी सभी प्राणियों को अपना जल देकर उन्हें जीवन प्रदान करती है। मनुष्य तो सभी प्राणियों से उत्कृष्ट प्राणी है। इसलिए उसका परम कर्तव्य है कि वह नि:स्वार्थ भाव से सभी प्राणियों की सेवा करे।

वह मन, वाणी और कर्म से दूसरों का उपकार करे। किसी को पीड़ा न पहुँचाए। संसार के सभी धर्मों में परहित ही सबसे महान् धर्म है। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है कि परोपकार के समान कोई भी धर्म नहीं है और दूसरों को पीड़ा या दुःख पहुँचाने के समान कोई नीच कर्म नहीं है। इसलिए परहित धर्म की आराधना करने से ही मनुष्य जीवन सफल हो सकता है।

प्रश्न

  1. ‘परहित’ को धर्म क्यों कहा गया है?
  2. परोपकार किसे कहा गया है?
  3. मनुष्य का धर्म क्या है?
  4. भगवान् राम ने ऋषि-मुनियों की तपस्या में बाधा डालने वाले राक्षसों का संहार किस भावना से प्रेरित होकर किया था?
  5. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक बताइये।

उत्तर:

  1. परहित में पवित्राचरण, सत्कर्म, पुण्य कर्तव्य तथा अपनत्व का प्रेमभाव रहता है, इसी विशेषता से. परहित या परोपकार को धर्म कहा गया है।
  2. परोपकार में दूसरों की भलाई करने की भावना छिपी होती है, इसलिए अपने हित की चिन्ता न कर दूसरे का हित करना ही परोपकार कहा गया है।
  3. मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, इस नाते उसका धर्म है कि वह स्वयं जिए। और दूसरों को भी जीने दे। यही उसका धर्म है।
  4. भगवान् राम ने ऋषि-मुनियों की तपस्या में बाधा डालने वाले राक्षसों का संहार परहित की भावना से प्रेरित होकर किया था, क्योंकि यही मानव धर्म है।
  5. गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक–परहित धर्म या परोपकार का महत्त्व।

(8)
प्राचीन काल में भारतीय नारी का स्वरूप समादरणीय और अर्धाङ्गिनी रूप में प्रतिष्ठापूर्ण था। यहाँ पहले नारी को लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा का रूप माना जाता था। जिस प्रकार लक्ष्मी धन की, सरस्वती विद्या की और दुर्गा शक्ति की अधिष्ठात्री देवी है, उसी प्रकार नारी को इन तीनों के देवीत्व रूप से मण्डित माना जाता था। फलस्वरूप प्राचीन भारत में नारी को देवी रूप पूज्य था। परन्तु परवर्ती काल में नारी का गौरव कम होने लगा तथा उसे भोग-विलास की वस्तु माना गया। भारत में विधर्मियों और विदेशियों के आक्रमणों से नारी को पर्दाप्रथा, बाल-विवाह, बहु-विवाह, जौहर-प्रथा, सती–प्रथा आदि के द्वारा उत्पीड़न भोगना पड़ा। मध्यकाल में, विशेषकर मुगलों के आगमन से अनेक कुप्रथाओं, रूढ़ियों और अनैतिक-दुराचारों के प्रसार से नारी का जीवन शोषण, उत्पीड़न एवं व्यथा से ग्रस्त बनता गया।

प्रारम्भ में जब नारी के जीवन को त्याग और तपस्या से मण्डित माना जाता था, तब उसके जीवन का पूर्वकाल तपस्या का और उत्तरकाल त्याग का काल था। इन दोनों कालों में वह अच्छे परिवार, श्रेष्ठ पति एवं गुणवान् सन्तान की प्राप्ति में तथा उनकी सुख-सुविधाओं की निरन्तर कामना करने में अपना जीवन समर्पित कर देती थी। परन्तु वैचारिक व्यामोह के कारण पुरुष वर्ग नारी के त्याग, उसकी साधना एवं समर्पणशीलता को उसकी दुर्बलता अथवा विलासिता मानने लगा, फलस्वरूप नारी का जीवन दयनीय बन गया। परन्तु वर्तमान काल में ज्ञान-विज्ञान और स्त्री-शिक्षा का प्रसार होने से नारीचेतना शोषण-उत्पीड़न के विरुद्ध जागृत हो गई है। अब पढ़ी-लिखी नारियाँ अपने पैरों पर खड़ी होकर पुरुष के समान सभी कार्यों में दक्षता दिखा रही हैं। अब समान अधिकारों की परम्परा चलने लगी है। शहरी क्षेत्रों में नारी पर्दा-प्रथा तथा विकृत रूढ़ियों से मुक्त हो गई है, परन्तु ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी सामाजिक कुरीतियाँ प्रचलित हैं। इन कुरीतियों को दूर करने के अनेक उपाय किये जा रहे हैं। इससे नारी जीवन को समुन्नत बनाकर राष्ट्र के उत्थान में उनकी सहभागिता में वृद्धि की जा रही है।

प्रश्न

  1. प्राचीन काल में भारतीय नारी का स्वरूप कैसा था?
  2. प्राचीन काल में नारी को किन-किन रूपों में माना जाता था?
  3. मध्यकाल में भारतीय नारी का जीवन कैसा रहा?
  4. प्राचीन काल में नारी जीवन किससे मण्डित माना जाता था?
  5. उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक बताइए।

उत्तर:

  1. प्राचीन काल में भारतीय नारी का स्वरूप समादरणीय और अद्भुगिनी रूप में प्रतिष्ठापूर्ण था, उसे सभी धार्मिक कार्यों में सम्मान दिया जाता था।
  2. प्राचीन काल में नारी को लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा इन तीनों रूपों में माना जाता था। उसके ये तीनों रूप देवी रूप में पूज्य थे।
  3. मध्यकाल में भारतीय नारी को पर्दा-प्रथा, बाल-विवाह, बहु-विवाह, जौहरप्रथा, सती–प्रथा आदि के द्वारा उत्पीड़न भोगना पड़ा। उसे भोग-विलास की वस्तु माना जाने लगा।
  4. प्राचीन काल में नारी-जीवन को त्याग और तपस्या से मण्डित माना जाता था। उसके जीवन का पूर्व काल तपस्या का और उत्तर काल त्याग का काल था।
  5. गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक–भारतीय नारी : तब और अब।।

(9)
वर्तमान काल की निरुद्देश्य शिक्षा प्रणाली एवं गिरते हुए परीक्षा परिणामों को जब हम चिन्तन करते हैं तो हमारे मस्तिष्क में एक शब्द कुलबुलाता है- अनुशासनअनुशासन को हम दूसरे शब्दों में संयम की संज्ञा दे सकते हैं। अनुशासन शब्द ‘अनु’ व ‘शासन’ इन दो शब्दों के मेल से बना है। अनु का अर्थ है-पीछे या अनुकरण तथा शासन का अर्थ है-व्यवस्था, नियन्त्रण अथवा संयम्। इस प्रकार अनुशासन का शाब्दिक अर्थ हुआ नियन्त्रण या संयमपूर्वक रहना। विद्यार्थी-जीवन में अनुशासन का विशेष महत्त्व है, क्योंकि इस अवस्था में विद्यार्थी जिस प्रकार का आचरण एवं व्यवहार सीख लेता है, वही आचरण एवं व्यवहार उसके भावी जीवन का अंग बन जाता है। दूसरा यह कि विद्यार्थी को मस्तिष्क चूँकि पूर्ण परिपक्व नहीं होता, यही कारण है कि दूसरों की अपेक्षा विद्यार्थी के सुकोमल मस्तिष्क में अनुशासनहीनता या अनुशासनप्रियता का अधिक प्रभाव पड़ता है। इसलिए विद्यार्थी जीवन में चरित्र-निर्माण तथा शारीरिक एवं बौद्धिक विकास के लिए अनुशासन का होना अनिवार्य शर्त है।

वर्तमान काल में भौतिकवादी परिवेश, दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली, शिक्षकों और विद्यार्थियों के बीच मधुर एवं घनिष्ठ सम्बन्धों का अभाव, संरक्षकों अथवा अभिभावकों की उदासीनता, भ्रष्ट राजनीति का प्रभाव, पाश्चात्यानुकरण की प्रवृत्ति और समाज का दूषित वातावरण आदि बातें विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता के कारण। यह अनुशासनहीनता अब एक समस्या बनने लगी है। इस समस्या के समाधान के लिए वर्तमान शिक्षा प्रणाली में क्रान्तिकारी परिवर्तन एवं सुधारों की आवश्यकता है। शिक्षा इस प्रकार की हो कि विद्यार्थियों में आत्मनिर्भरता व सद्भावनाओं का विकास हो; छात्रों और शिक्षकों के बीच सहृदय एवं घनिष्ठ सम्बन्ध हों। समाज का भी यह कर्तव्य है कि अपने आदर्श विद्यार्थियों के समक्ष रखने की अपेक्षा अभद्र व्यवहार व उसका प्रदर्शन तो कम से कम न करे। अतः विद्यार्थियों को चाहिए कि वे अनुशासनप्रिय बनें तथा इसे जीवन में सफलता प्राप्ति का रहस्य मानें।

प्रश्न

  1. ‘अनुशासन’ शब्द की रचना पर प्रकाश डालिए।
  2. विद्यार्थी जीवन में अनुशासन का होना अनिवार्य क्यों है?
  3. विद्यार्थी के मस्तिष्क पर अनुशासन का अधिक प्रभाव क्यों पड़ता है?
  4. विद्यार्थियों को उक्त अवतरण में क्या सन्देश दिया गया है?
  5. उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक बताइए।

उत्तर:

  1. ‘अनुशासन’ दो शब्दों के मेल से बना है–‘अनु’ और ‘शासन’। अनु का अर्थ है-पीछे या अनुकरण और शासन का अर्थ है–व्यवस्था, नियन्त्रण और संयम।।
  2. विद्यार्थी का मस्तिष्क परिपक्व नहीं होता है इसलिए उसके जीवन में चरित्र-निर्माण, शारीरिक एवं बौद्धिक विकास के लिए अनुशासन का होना अनिवार्य
  3. विद्यार्थी का मस्तिष्क सुकोमल होता है, इसलिए उस पर अनुशासनप्रियता या अनुशासनहीनता का अधिक प्रभाव पड़ता है।
  4. विद्यार्थियों को सन्देश दिया गया है कि वे अपने जीवन में अनुशासनप्रिय बनें और इसे जीवन में सफलता प्राप्ति का रहस्य मानें।
  5. गद्यांश के लिए उचित शीर्षक-विद्यार्थी और अनुशासन।

(10)
भारत में नवजागरण की शंख-ध्वनि करने वालों में अग्रणी महापुरुष स्वामी विवेकानन्द का व्यक्तित्व अतीव सुन्दर एवं भव्य था। उनका शरीर सबल, सुदृढ़ एवं सतेज था। दृष्टि में बिजली का असर था और मुख पर आत्मतेज का आलोक। कठोर शब्द शायद उनकी वाणी से कभी नहीं निकला। विश्वविख्यात एवं विश्वबन्द्य होते हुए भी उनका स्वभाव अति सरल और अति विनम्र था। उनका पाण्डित्य अगाध था। वे अंग्रेजी के पूर्ण ज्ञाता तथा अपने समय के सर्वश्रेष्ठ वक्ता थे। संस्कृत-साहित्य और भारतीय दर्शन के उद्भट विद्वान् थे तथा जर्मन, ग्रीक, फ्रेंच आदि विभिन्न भाषाओं पर उनका पूर्ण अधिकार था। वे केवल चार घण्टे सोते थे। प्रातः चार बजे उठकर जपध्यान में लग जाते थे। प्राकृतिक दृश्यों के वे बड़े प्रेमी थे। भोर में जप-तप से निवृत्त होकर खुले परिवेश में निकलते थे और प्राकृतिक सुषमा का आनन्द लेते थे। उनकी वाणी में ऐसा प्रभाव था कि उनके भाषण श्रोताओं के हृदयों पर पत्थर की लकीर बन जाते थे। कहने का ढंग और भाषी बहुत सरल होती थी, पर उन सीधे-सादे शब्दों में ऐसा आध्यात्मिक भाव होता था कि सुनने वाले तल्लीन हो जाते थे।

स्वामीजी अपने देश के आचार-व्यवहार, रीति-नीति, साहित्य और दर्शन, सामाजिक जीवन, पूर्वकाल के महापुरुषों, इन सबको श्रद्धा-योग्य और सम्मान्य मानते थे। उन्होंने एक भाषण में कहा था कि “प्यारे देशवासियो पुनीत आर्यावर्त में बसने वाले भारतीयोक्या तुम अपनी इस तिरस्करणीय भीरुता से वह स्वाधीनता प्राप्त कर सकोगे जो केवल वीर पुरुषों का अधिकार है? हे भारत-निवासी भाइयो अच्छी तरह याद रखो कि सीता, सावित्री और दमयन्ती तुम्हारी जाति की देवियाँ हैं। हे वीर पुरुषो मर्द बनो और ललकार कर कहो कि मैं भारतीय हूँ, मैं भारत का रहने वाला हूँ। हर-एक भारतवासी चाहे वह कोई भी हो, मेरा भाई है। अनपढ़ भारतीय, निर्धन भारतीय, ऊँची जाति का भारतीय, नीची जाति का भारतीय सब मेरे भाई हैं। भारत मेरा जीवन, मेरा प्राण है।”

प्रश्न

  1. स्वामी विवेकानन्द का व्यक्तित्व कैसा था? बताइए।
  2. स्वामी विवेकानन्द किन भाषाओं के ज्ञाता थे?
  3. स्वामी विवेकानन्द की दिनचर्या क्या थी?
  4. स्वामीजी किन्हें श्रद्धा-योग्य और सम्मान्य मानते थे?
  5. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक बताइए।

उत्तर:

  1. स्वामी विवेकानन्द का व्यक्तित्व अतीव भव्य, आत्मतेजयुक्त, सशक्त, सुन्दर एवं प्रखर था। उनका स्वभाव विनम्र और वाणी सुकोमल थी।
  2. स्वामी विवेकानन्द संस्कृत भाषा के साथ ही अंग्रेजी भाषा के पूर्ण ज्ञाता थे, वे जर्मन, ग्रीक, फ्रेंच आदि विभिन्न भाषाओं के ज्ञाता भी थे।
  3. स्वामी विवेकानन्द रोजाना चार बजे उठकर जप-ध्यान करते थे। जप-तप से निवृत्त होकर बाहर निकलते थे और प्रकृति के खुले परिवेश का आनन्द लेते थे।
  4. स्वामीजी अपने देश के आचार-व्यवहार, रीति-नीति, साहित्य, दर्शन, सामाजिक जीवन, पूर्वकाल के महापुरुषों इन सभी को श्रद्धा-योग्य और सम्मान्य मानते थे।
  5. गद्यांश के लिए उचित शीर्षक–स्वामी विवेकानन्द का व्यक्तित्व।

(11)
साहित्य का स्वरूप कैसा होना चाहिए, इस बात को लेकर पाश्चात्य एवं भारतीय आचार्यों ने काव्यशास्त्रीय दृष्टि से अनेक विचार व्यक्त किये हैं। स्थूल रूप से गद्य-पद्यात्मक समस्त रचनाओं को साहित्य के अन्तर्गत माना जाता है। इसके भी दो रूप होते हैं–उपयोगी साहित्य और ललित साहित्य। उपयोगी साहित्य तो उक्त परिभाषा में सम्मिलित हो जाता है, परन्तु ललित साहित्य के लिए इतना जोड़ा जा सकता है कि मनुष्य के अनुभवों और विचारों की भावात्मक अभिव्यक्ति साहित्य है। यह भावात्मक अभिव्यक्ति शब्दबद्ध होकर साहित्य को शक्ति प्रदान करती है, जिसके कारण एक व्यक्ति के अनुभव सार्वजनिक बन जाते हैं और सभी को प्रभावित करने में समर्थ रहते हैं। साहित्य रत्तना का उद्देश्य मानव समाज का हित-चिन्तन करना तथा उसकी चेतना का पोषण करना है।

इससे यह सिद्ध होता है कि साहित्य लोक-संग्रह के कारण ही उपयोगी माना जाता है। यदि कोई रचना समाज के लिए उपयोगी नहीं है, तो वह साहित्य की श्रेणी में नहीं आ सकती। वैसे भी बिना उद्देश्य एवं उपयोगिता के रचा गया साहित्य मात्र कूड़ा-कचरा है जो रद्दी के ढेर में विलीन हो जाता है, लेकिन उपयोगी साहित्य अमर बन जाता है। इसलिए साहित्य की कसौटी उपयोगिता ही है। मानव-समाज के लिए साहित्य की उपयोगिता इसलिए भी है कि वह मानव की जिज्ञासा-वृत्ति को शान्त करता है, ज्ञान की पिपासा को तृप्त करता है, मस्तिष्क का। पोषण करता है।

जिस प्रकार पेट की भूख को शान्त करने के लिए भोजन आवश्यक है, उसी प्रकार मस्तिष्क की क्षुधा को मिटाने के लिए साहित्य आवश्यक एवं उपयोगी है। साहित्य के द्वारा मानव-चेतना का प्रसार होने से उसमें शिवत्व की स्थापना होती है। हम अपने राष्ट्रीय इतिहास से अपने देश की गरिमा, अपनी सभ्यता एवं संस्कृति और अपने परम्परागत रीति-रिवाजों, आदर्शों एवं विचारों से परिचित होते हैं। हमें अपने साहित्य का अनुशीलन करने से पता चलता है कि शताब्दियों पूर्व हमारे देश में कैसा आचार-विचार था, किस प्रादेशिक भाग में कौनसी भाषा बोली जाती थी, कौनसी वेश-भूषा थी, धार्मिक तथा आर्थिक दशा कैसी थी और सामाजिक जीवन किस तरह चल रहा था। इन सब बातों का ज्ञान हमें साहित्य के द्वारा होता है।

प्रश्न

  1. साहित्य का स्वरूप कैसा बताया गया है?
  2. साहित्य के कौन-से दो रूप माने गये हैं?
  3. भावात्मक अभिव्यक्ति किसे शक्ति प्रदान करती है?
  4. कौनसी रचना साहित्य की श्रेणी में नहीं रखी जा सकती?
  5. उपर्युक्त गद्यांश के लिए उचित शीर्षक लिखिए।

उत्तर:

  1. साहित्य का स्वरूप लोकहित, व्यवहार-ज्ञान एवं आनन्द-लाभ के कारण शब्दार्थ-युगल होता है। अनुभवों एवं विचारों की भावात्मक शब्दबद्धता साहित्य कहलाता है।
  2. साहित्य के दो रूप-उपयोगी साहित्य और ललित साहित्य माने गये हैं।
  3. शब्दबद्ध भावात्मक अभिव्यक्ति साहित्य को शक्ति प्रदान करती है, जिससे व्यक्ति के अनुभव सार्वजनिक बन जाते हैं और सभी को प्रभावित करने में समर्थ रहते
  4. जो रचना समाज के लिए उपयोगी नहीं होती है वह साहित्य की श्रेणी में नहीं रखी जा सकती।
  5. गद्यांश के लिए उचित शीर्षक–साहित्य का स्वरूप एवं उद्देश्य।

(12)
वर्षों तक पराधीनता का कष्ट झेलकर जब भारत स्वतन्त्र हुआ, तो इसके समक्ष अन्य समस्याओं के साथ बेरोजगारी की समस्या भी आयी। वर्तमान में यह समस्या व्यक्ति, सम्पूर्ण समाज और राष्ट्र को भयंकर रूप से प्रभावित कर रही है। जनसंख्या वृद्धि, गलत आरक्षण नीति, रोजगारोन्मुख शिक्षा का अभाव, अल्पायु में विवाह, लघुकुटीर उद्योगों का ह्रास आदि अनेक ऐसे कारण हैं, जिनसे बेरोजगारी बढ़ती ही जा रही है। इससे देश के सुशिक्षित नवयुवक निराश होते जा रहे हैं। अनिश्चित भविष्य व अन्धकारमय जीवन की छाया उनके मुखों पर सहज ही परिलक्षित होती है। सामाजिक जीवन में रहन-सहन के स्तर में गिरावट होती जा रही है, भ्रष्टाचार बढ़ता जा रहा है, रिश्वतखोरी और दुराचार को प्रोत्साहन मिल रहा है, इसका मूल कारण बेरोजगारी है। बेरोजगारी से युवा वर्ग को भयंकर असन्तोष की छाया घेर रही है। यही कारण है कि देश में विध्वंसकारी आन्दोलन की प्रवृत्तियों, अशान्ति और अराजकता का भयंकर प्रसार होता जा रहा है।

बेरोजगारी के उक्त कारणों को जब हम दृष्टिगत कर लेते हैं तो इस जटिल समस्या के समाधान के उपायों की ओर हमारा ध्यान स्वतः आकृष्ट होना एक अनिवार्य शर्त है। इस समस्या के समाधान में हमारा सर्वप्रथम कार्य बढ़ती हुई जनसंख्या को नियन्त्रित करना व रोकना होगा। परिवार नियोजन और विवाह की आयु सीमा में संशोधन कर हम इस समस्या का कुछ निराकरण करने में सफल हो सकते हैं। लघु एवं कुटीर उद्योगों का विकास करना होगा। कृषि उत्पादन को बढ़ाने के लिए भी प्रयत्न करना होगा। मशीनीकरण के विकास को तीव्र गति से प्रसारित करना होगा।

शिक्षा में उचित परिवर्तनों की आवश्यकता है। शिक्षा प्रणाली में भी क्रान्तिकारी परिवर्तनों के द्वारा उसे व्यवसायोन्मुखी बनाकर स्वावलम्बन तथा स्वरोजगार का प्रसार करना जरूरी है। पंचवर्षीय योजनाओं के निर्माण में इस ओर विशेष ध्यान दिया जाये कि ऐसे आर्थिक कार्यक्रम लागू किये जायें, जिनमें अधिक से अधिक रोजगार उपलब्ध हो सके।

प्रश्न

  1. हमारे देश में बेरोजगारी की समस्या के क्या कारण हैं?
  2. आज युवा वर्ग में भयंकर असन्तोष किस कारण से व्याप्त हो रहा है?
  3. वर्तमान में बेरोजगारी की समस्या भयंकर रूप से किन-किनको प्रभावित कर रही है?
  4. आज का सुशिक्षित नवयुवक निराश क्यों हो रहा है?
  5. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक ताइए।

उत्तर:

  1. हमारे देश में बेरोजगारी की समस्या के मुख्य कारण हैं-जनसंख्या में अप्रत्याशित वृद्धि, गलत आरक्षण नीति, रोजगारोन्मुखी शिक्षा का अभाव, अल्प आयु में विवाह और लघु-कुटीर उद्योगों का ह्रास।
  2. आज युवा वर्ग में बेरोजगारी के कारण भयंकर असन्तोष व्याप्त हो रहा है।
  3. वर्तमान में बेरोजगारी की समस्या व्यक्ति, सम्पूर्ण समाज और राष्ट्र को भयंकर रूप से प्रभावित कर रही है।
  4. आज का सुशिक्षित नवयुवक बेरोजगारी के कारण अपने अनिश्चित भविष्य और अन्धकारमय जीवन को लेकर निराश हो रहा है।
  5. गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक–बेरोजगारी की समस्या और समाधान।

(13)
महामति बेकन का कथन है, “समूह का नाम संगति नहीं है। जहाँ प्रेम नहीं है, वहाँ लोगों की आकृतियाँ चित्रवत् हैं और उनकी बातचीत झाँझ की झनकार है।” पहचान करने अथवा संगति करने में कुछ स्वार्थ से काम लेना चाहिए। जान-पहचान के लोग वे हों जिनसे हम कुछ लाभ उठा सकते हों, जो हमारे जीवन को उत्तम और आनन्दमय करने में कुछ सहायता दे सकते हों, यद्यपि उतनी नहीं जितनी गहरे मित्र दे सकते हैं। मनुष्य का जीवन थोड़ा है, उसमें खोने के लिए समय नहीं। यात्रा में, सार्वजनिक समारोहों में तथा मनोरंजन के साधनों में साथ-साथ रहने से परिचय बढ़ जाता है।

इस कारण आजकल जान-पहचान बढ़ाना कोई बड़ी बात नहीं है, कोई भी युवा पुरुष ऐसे अनेक युवा पुरुषों को पा सकता है, जो उसके साथ थियेटर देखने जायेंगे, नाच-रंग में जायेंगे, सैर-सपाटे में जायेंगे और भोजन का निमन्त्रण स्वीकार करेंगे। परन्तु ऐसे लोगों की संगति से कुछ हानि न होगी, तो लाभं भी न होगा। पर यदि हानि होगी तो बड़ी भारी हानि होगी। सोचिए तो, तुम्हारा जीवन कितना नष्ट होगा यदि ये जान-पहचान के लोग उन मनचले युवकों में से निकलें जो अमीरों की बुराइयों और मूर्खताओं की नकल किया करते हैं, दिन-रात बनाव-श्रृंगार में रहा करते हैं, कुलटा स्त्रियों के फोटो मोल लिया करते हैं, गलियों में ठट्टा मारते हैं और सिगरेट का धुआँ उड़ाते चलते हैं।

ऐसे नवयुवकों से बढ़कर शून्य, नि:सार और शोचनीय जीवन और किसका है? वे अच्छी बातों के सच्चे आनन्द से कोसों दूर हैं। उनके लिए न तो संसार में सुन्दर और मनोहर उक्ति वाले कवि हुए हैं और न सुन्दर आचरण वाले महात्मा हुए हैं। उनके लिए न तो बड़े-बड़े वीर अद्भुत कर्म कर गये हैं और न बड़े-बड़े ग्रन्थकार ऐसे विचार छोड़ गये हैं, जिनसे मनुष्य जाति के हृदय में सात्विकता की उमंगें उठती हैं। जिनकी आत्मा अपने इन्द्रिय-विषयों में ही लिप्त है, जिनका हृदय नीच आशाओं और कुत्सित विचारों से कलुषित है, ऐसे नाशोन्मुख प्राणियों को दिन-दिन अन्धकार में पतित होते देख कौन होगा जो तरस न खाएगा?

प्रश्न

  1. आजकले जान-पहचान बढ़ाना बड़ी बात क्यों नहीं है?
  2. कैसे नवयुवकों का जीवन शून्य, निःसार और शोचनीय होता है?
  3. महामति बेकन ने क्या कहा है?
  4. कैसे लोगों से जान-पहचान करनी चाहिए?
  5. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक बताइए।

उत्तर:

  1. आजकल अपनी मनोवृत्ति के अनुकूल लोगों के मिल जाने से तथा समान रोजगार-व्यवसाय एवं रुचि रखने से जान-पहचान बढ़ाना कोई बड़ी बात नहीं
  2. जो अमीरों के आचरण की नकल करते हैं, बनाव-श्रृंगार कर आवारागर्दी करते हैं, ऐसे नवयुवकों को जीवन शून्य, नि:सार और शोचनीय होता है।
  3. महामति बेकन ने कहा है-“समूह का नाम संगति नहीं है। जहाँ प्रेम नहीं है वहाँ लोगों की आकृतियाँ चित्रवत् हैं और उनकी बातचीत झाँझ की झनकार है।” .
  4. जान-पहचान ऐसे लोगों से करनी चाहिए जिनसे लाभ मिले आचरण सुधरे, कोई बदनामी न हो और जीवन आनन्दमय बने।।
  5. गद्यांश के लिए उचित शीर्षक-जान-पहचान की कसौटी।।

(14)
श्रमदान भारत के लिए कोई भी नई वस्तु नहीं है। यह भावना हमारे देश में बहुत पहले से ही विद्यमान थी। जिस प्रकार हम किसी अभावग्रस्त व्यक्ति को भोजन-वस्त्रादि का दान करते हैं, उसी प्रकार श्रमदान में श्रम से प्राप्त लाभांश किसी व्यक्ति अथवा समाज को दिया जाता है। परन्तु श्रमदान का यह अर्थ संकीर्ण है। विस्तृत अर्थ में यह शब्द एकदम नया है। इस शब्द का प्रचलन विनोबा भावे के भूदान के साथ हुआ है जिसका मुख्य आधार ‘दानं संविभागः” है, अर्थात् जिनके पास अधिक धन या श्रम है, वे अभावग्रस्त लोगों को अपने पास से कुछ धन या श्रम दें। इस प्रकार के दान एवं समान विभाग में कर्त्तव्य एवं जन-कल्याण की भावना निहित है। ऐसे दान में दान लेने वाले के प्रति तुच्छता की भावना तथा दान देने वाले के लिए। बड़प्पन की भावना नहीं रहती है। न दान देने और लेने वालों के मन में ऐसी भावना जागती है।

समाज में दान के अनेक रूप प्रचलित हैं। उदाहरण के लिए सम्पत्ति दान, विद्यादान, भोजनदान, वस्त्रदान, धनदान, गायदान, जीवनदान, भूदान, श्रमदान आदि। परन्तु इन सभी दानों में श्रमदान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अन्य दोन जहाँ व्यक्ति को सुलभ न होकर दुर्लभ हैं, वहाँ श्रमदान जन-साधारण को सुलभ है। इसके लिए किसी विशेष साधन की आवश्यकता नहीं होती है। भोजनदान वही कर सकता है। जिसके पास पर्याप्त मात्रा में भोजन सामग्री हो। परन्तु श्रमदान में श्रमदाता को कोई वस्तु देनी नहीं पड़ती, वरन् वह शरीर की शक्ति का ही दान करता है, जिस पर किसी का कोई अधिकार नहीं होता।

इस प्रकार श्रमदान का महत्त्व सभी दानों से अधिक है, क्योंकि श्रमदान समाज तथा देश की उन्नति का मूल साधन है। जिस कार्य को एक व्यक्ति आसानी से नहीं कर सकता, उसे कई लोगों के द्वारा श्रमदान द्वारा आसानी से किया जा सकता है। जिन योजनाओं के पूरा करने के लिए लाखों की सम्पत्ति चाहिए और जिनके लिए सरकार या धनवानों को मुंह ताकना पड़ता है, उनमें से बहुत-से कार्य श्रमदान और पारस्परिक सहयोग से सहज हो जाते हैं। यातायात के लिए मार्ग या सड़क का निर्माण करना, पानी के स्रोतों, यथा-कुओं, बावड़ियों एवं पोखरों आदि की सफाई एवं निर्माण करना, जन-कल्याण का कार्य करना, भवननिर्माण करना आदि कार्य श्रमदान द्वारा आसानी से किये जा सकते हैं।

प्रश्न

  1. हमारे समाज में दान के कौन-कौनसे रूप प्रचलित हैं?
  2. श्रम-दान का संकीर्ण अर्थ क्या है?
  3. श्रम-दान शब्द का प्रचलन किसके साथ हुआ? इसका मुख्य आधार क्या है?
  4. श्रमदान से कौन-कौनसे कार्य किये जा सकते हैं?
  5. उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक बताइए।

उत्तर:

  1. हमारे समाज में सम्पत्ति दान, विद्यादान, भोजन-दान, वस्त्रदान, धनदान, गायदान, जीवनदान, भूदान, श्रमदान आदि दान के अनेक रूप प्रचलित हैं।
  2. श्रमदान का संकीर्ण अर्थ है-जब श्रमदान में श्रम से प्राप्त लाभांश किसी अभावग्रस्त व्यक्ति अथवा समाज को दिया जावे।
  3. श्रमदान शब्द का प्रचलन विनोबा भावे के भूदान आन्दोलने के साथ हुआ, जिसका मुख्य आधार ‘दानं संविभागः’ है।
  4. श्रमदान के कुओं, बावड़ियों एवं पोखरों की सफाई और निर्माण का काम, गाँवों की पगडण्डियों की मरम्मत या सड़क का निर्माण, सामुदायिक विकास के काम किये जा सकते हैं।
  5. गद्यांश के लिए उचित शीर्षक–श्रमदान का महत्त्व।

(15)
इस संसार में प्रत्येक प्राणी माता के गर्भ से जन्म लेता है, उसका शरीर माता के रक्त से निर्मित होता है, उसमें माता की भावनाओं का संचार होता है। वस्तुतः माता का ही आत्मिक रूप उसकी सन्तान होती है। इसीलिए माता और मातृभूमि के प्रति भक्ति-भावना रखना मानव का नैसर्गिक गुण एवं कर्तव्य भी है। कहा भी गया है-‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’-अर्थात् जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ है। भारतीय मनीषियों ने माता के इसी महत्त्व को देखकर ‘मातृदेवो भव’ की घोषणा करके, मातृत्व को देवतुल्य माना है। अतः माता का महत्त्व समझकर हमें मातृ-वन्दना करनी चाहिए। भक्त ध्रुव ने मातृ-वन्दना से अपना नाम अमर किया, लम्बोदर गणेश ने अपने माता-पिता की वन्दना कर सभी देवताओं में प्रथम-पूजा का सम्मान प्राप्त किया और श्रवण कुमार ने मातृ-भक्ति का श्रेष्ठ परिचय देते हुए अपना कर्तव्य निभाया। इन सब प्रसंगों से मातृ-वन्दना का भाव स्वतः व्यक्त हो जाता है।

सृष्टि में सामान्य पशु-पक्षी एवं अन्य प्राणी भी सन्तति उत्पन्न करते हैं। गर्भधारण से लेकर प्रसवोत्तर काल तक उनमें मातृत्व भाव प्रबलता से रहता है, परन्तु जब पक्षिशावकों के पर निकल आते हैं, जब गाय का बछड़ा बड़ा हो जाता है, तब उनका मातृत्व-बोध समाप्त हो जाता है। मानव सचेतन प्राणी है इसलिए उसमें मातृत्व-भाव शाश्वत बना रहता है। प्रत्येक माता अपनी सन्तान से अतिशय प्रेम करती है, वह सन्तान या पुत्र के बड़ा होने पर भी उसे उसी प्रकार लाड़-दुलार देती है, जैसे कि बाल्यकाल में देती है। माता का हृदय पुत्र के लिए दया, स्नेह एवं ममता का अपार सागर होता है।

वह सैकड़ों कष्ट सहकर भी पुत्र का संवर्द्धन करती है, स्वयं भूखी रहकर भी सन्तान को स्तनपान से पुष्ट करती है और उसकी अनिष्ट की आशंका से बड़ा-से-बड़ा त्याग करने के लिए उद्यत रहती है। इसीलिए आदर्श मातृत्व भाव संसार की सर्वोच्च सत्ता से भी श्रेष्ठ माना जाता है। आदर्श माताओं की सन्ताने ही संसार में महापुरुषत्व से सम्मानित हुई हैं। माता का हृदय कोमल भावनाओं से भरा रहता है और वह अपनी सन्तान के लिए सब कुछ न्यौछावर कर सकती है। इसीलिए कहा जाता है कि माता कभी कुमाता नहीं होती है, वह सदा माता ही होती है।
प्रश्न

  1. सन्तान का माता के प्रति भक्ति-भावना रखना क्या बताया गया है?
  2. पशु-पक्षियों में मातृत्व बोध कब समाप्त हो जाता है?
  3. माता के सम्बन्ध में हमारे यहाँ क्या कहा गया है?
  4. मातृ-भक्ति का परिचय देने वालों का उल्लेख कीजिए।
  5. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक बताइए।

उत्तर:

  1. प्रत्येक प्राणी माता के रक्त से निर्मित, उसके स्तनपान से पुष्ट और स्नेह से सिंचित होता है। इस कारण माता के प्रति भक्ति-भावना रखना सन्तान का नैसर्गिक गुण एवं कर्तव्य बताया गया है।
  2. पशु-पक्षियों में मातृत्व-बोध उस समय समाप्त हो जाता है जब पशु का बच्चा बड़ा हो जाता है और पक्षी के शावक के पर निकल आते हैं।
  3. माता के सम्बन्ध में हमारे राहाँ यह कहा गया है कि माता कभी कुमाता नहीं होती है, वह सदा माता ही रहती है।
  4. मातृ-भक्ति का परिचय देने वालों में भक्त ध्रुव, गणेश, श्रवणकुमार, लवकुश और शिवाजी आदि का नाम श्रद्धापूर्वक लिया जाता है।
  5. गद्यांश के लिए उचित शीर्षक–मातृत्व का महत्त्व।

(16)
धर्म या सत्य की खोज आध्यात्मिक आवश्यकता है। ब्रह्माण्ड की प्रक्रिया पर दृष्टिपात करने पर हम पाते हैं कि एक वस्तु के बाद दूसरी वस्तु अस्तित्व में आ रही है। या एक घटना के बाद दूसरी घटना घट रही है। महान् सभ्यताओं, कला के महान् प्रतीकों तथा अन्य महान् वस्तुओं का उदय होता है, विकास होता है और फिर अन्त हो जाता है। और हम प्रश्न करते हैं, क्या अन्त होना ही सबकुछ है या कुछ ऐसा भी। है, जिसका अन्त नहीं होता? सतत परिवर्तन की इस प्रक्रिया में क्या कुछ ऐसा भी है। जिसे अपरिवर्तनीय माना जा सकता है? यह ऐसा प्रश्न है जिसे हर प्रबुद्ध व्यक्ति अवश्य ही उठाता है। वह यह नहीं सोच सकता कि मात्र विनाश ही सम्पूर्ण अस्तित्व का अन्त है और ब्रह्माण्ड की प्रक्रिया का उदय होता है और अवसान हो जाता है। यह प्रश्न अवश्य ही उठता है और यही कारण है कि सत्य के महान् खोजी यह प्रश्न करते हैं।

उपनिषद् के ऋषि ने कहा है, “असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्माऽमृतं गमय।” अर्थात् मुझे असत्य से सत्य, अन्धकार से प्रकाश और मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चल। इससे यही सिद्ध होता है कि सत्य सनातन एवं शाश्वत प्रकाशमान रहता है, आत्मा उसकी ज्ञान-ज्योति से विभावित होकर अमरत्व को प्राप्त होती है। इसमें वह शाश्वत सत्य आध्यात्मिक चिन्तन का परिचायक माना जाता है। और सत्य को अन्तिम छोर भी वही है।

प्रश्न

  1. सत्य के महान् खोजी एवं प्रबुद्ध लोग प्रायः क्या प्रश्न करते
  2. इस सृष्टि में अपरिवर्तनीय क्या बताया गया है?
  3. सत्य किस तरह आध्यात्मिक चिन्तन का परिचायक है?
  4. सत्य या धर्म को किसकी आवश्यकता बताया गया है?
  5. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।

उत्तर:

  1. सत्य के महान् खोजी एवं प्रबुद्ध लोग प्रश्न करते हैं कि इस परिवर्तनशील सृष्टि में क्या कोई ऐसा भी है, जिसका अन्त नहीं होता है या जो सदैव अपरिवर्तनीय रहता है।
  2. इस सृष्टि की प्रक्रिया में सब परिवर्तनीय है, केवल सत्य अथवा आध्यात्मिक, ज्ञान-ज्योति को ही अपरिवर्तनीय बताया गया है। क्योंकि वह शाश्वत एवं सनातन रहता है।
  3. सत्य या धर्म का सम्बन्ध आत्मा की ज्ञान-ज्योति से है, जिससे शाश्वत सत्य की अनुभूति होती है। अतः सत्य परम ब्रह्मस्वरूप एवं आध्यात्मिक चिन्तन का परिचायक है।
  4. सत्य या धर्म को आध्यात्मिक आवश्यकता बताया गया है। क्योंकि इसका सम्बन्ध आत्मा के साथ ही परम तत्त्व से है और वही परम ज्ञान-ज्योति का आधार भी। है।
  5. गद्यांश के लिए उचित शीर्षक–सत्य की आध्यात्मिक सत्ता।

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