RBSE Class 11 Hindi अपठित पद्यांश

Rajasthan Board RBSE Class 11 Hindi अपठित पद्यांश

अपठित पद्यांश निर्देश—निम्नलिखित पद्यांश को पढ़कर नीचे दिये गये प्रश्नों के उत्तर दीजिए

(1)
आते ही उपकार याद हे माता तेरा,
हो जाता मन मुग्ध भक्तिभावों का प्रेरा,
तू पूजा के योग्य, कीर्ति तेरी हम गावें,
मन होता है, तुझे उठाकरे शीशे चढ़ावें।
वह शक्ति कहाँ, हाँ! क्या करें, क्यों हमको लज्जा न हो?
हम मातृभूमि, केवल तुझे शीश झुका सकते अहो।
कोई व्यक्ति विशेष नहीं तेरा अपना है,
जो यह समझे हाय! देखता वह सपना है,
तुझको सारे जीव एक से ही प्यारे हैं,
कर्मों के फल मात्र यहाँ न्यारे-न्यारे हैं।
हे मातृभूमि! तेरे निकट सबका सम सम्बन्ध है।
जो भेद मानता, वह अहो! लोचनयुत भी अन्ध है॥
जिस पृथ्वी से मिले हमारे पूर्वज प्यारे,
उससे हे भगवान् कभी हम रहें न न्यारे,
लोट-लोटकर वहीं हृदय को शान्त करेंगे,
उसमें मिलते समय मृत्यु से नहीं डरेंगे।
उस मातृभूमि की धूल में जब पूरे सन जायेंगे।
होकर भव-बन्धन-मुक्त हम आत्म-रूप बन जायेंगे।

प्रश्न

  1. मातृभूमि से सबका क्या और कैसा सम्बन्ध है?
  2. कवि ने अन्धा किसे कहा है?
  3. काव्यांश से किस प्रकार की प्रेरणा मिलती है?
  4. व्यक्ति आत्म-रूप कब बन सकता है?
  5. काव्यांश में मुख्य रूप से किस भाव का वर्णन हुआ है?

उत्तर:

  1. मातृभूमि से सबको माता-पुत्र जैसा सम्बन्ध है, सब मातृभूमि से अपनत्व एवं प्रेमभाव रखते हैं।
  2. कवि ने उस व्यक्ति को नेत्रों के होते हुए भी अन्धा बतलाया है जो यह नहीं समझता कि मातृभूमि के लिए तो सभी समान हैं। उसे सभी एक-से ही प्यारे हैं।
  3. प्रस्तुत काव्यांश से मातृभूमि के प्रति भक्ति का भाव रखने की प्रेरणा मिलती है, क्योंकि हम पर मातृभूमि का अत्यधिक उपकार है।
  4. कवि के अनुसार मातृभूमि में मिलने के बाद व्यक्ति सब बन्धनों से मुक्त होकर आत्म-रूप बन जाता है। उसका शरीर पंचतत्त्व में विलीन हो जाता है किन्तु आत्मा शेष रहती है।
  5. प्रस्तुत काव्यांश में मुख्य रूप से भक्ति-भाव का वर्णन हुआ है। कवि ने मातृभूमि के प्रति भक्ति का भाव व्यक्त किया है।

(2)
अरे वर्ष के हर्ष
बरस तू बरस-बरस रसधार !
पार ले चल तू मुझको
बह, दिखा मुझको भी निज
गर्जन-भैरव संसार !
उथल-पुथल कर हृदय
मचा हलचल चल रे चल
मेरे पागल बादल !
धंसता दलदल,
हँसता है नद खल्-खल्
बहता, कहती कुलकुल कलकल कलकल।
देख-देख नाचता हृदय
बहने को महा विकल-बेकल,
इस मरोर से-इसी शोर से—
सधन घोर गुरु गहन रोर से
मुझे मगन का दिखा सघन वह छोर !
राग अमर ! अम्बर में भर निज रोर !

प्रश्न

  1. बादल को ‘अरे वर्ष के हर्ष’ क्यों कहा गया है?
  2. बादल को पागल क्यों एवं किस कारण कहा गया है?
  3. बादल से अम्बर में क्या भरने को कहा गया है?
  4. “पार ले चल तू मुझको’ इसका क्या आशय है?
  5. प्रस्तुत काव्यांश का भाव-सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:

  1. बादल वर्षाकाल में अर्थात् साल में एक ऋतु में बरस कर सभी प्राणियों को शान्ति एवं किसानों को खुशहाली देते हैं। इसीलिए बादलों को वर्ष के हर्ष कहा गया है।
  2. बादल आकाश में खूब उमड़-घुमड़ मचाते हैं, पागलों की तरह अनियन्त्रित रहकर कभी कम और कभी अत्यधिक वर्षा करते हैं। इसी कारण बादल को पागल कहा गया है।
  3. बादल को अम्बर अर्थात् आकाश में अपनी घोर गर्जना का भयानक शब्द (गड़गड़ाहट) भरने को कहा गया है।
  4. बादलों के वर्षण से कृषकों का जीवन खुशहाल होगा, इसलिए किसान या कवि स्वयं को पार ले चलने के लिए कहता है।
  5. प्रस्तुत काव्यांश में कवि ने बादलों से आत्मीयता दिखाते हुए उन्हें खूब बरसने के लिए कही है। साथ ही बादलों को प्राणियों का हितैषी बताया है।

(3)
मैं नहीं चाह ता चिर सुख,
मैं नहीं चाह ता चिर दु:ख,
सुख-दु:ख की आँख मिचौनी में,
खोले जीवन अपना मुख,
सुख-दु:ख के मधुर मिलन से,
यह जीवन हो परिपूरण,
फिर घन में ओझल हो शशि,
फिर राशि में ओझल हो घन।
जग पीड़ित है अति सुख से,
जग पीड़ित है अति दु:ख से,
मानव जग में बँट जावे,
दुःख सुख से औ’ सुख दु:ख से।
अविरल दुःख है उत्पीड़न,
अविरल सुख भी उत्पीड़न,
दुःख-सुख की दिवा-निशा में,
सोता जगता जग-जीवन।
यह साँझ-उषा का आँगन,
अलिंगन विरह मिलन का,
चिर हास अश्रुमय आनन,
रे इस मानव का जीवन।

प्रश्न

  1. जग सुख और दुःख दोनों से पीड़ित क्यों है?
  2. कवि ने सुख-दुःख को लेकर क्या कामना की है?
  3. संसार किसमें पीड़ा का अनुभव करता है?
  4. प्रस्तुत कविता में क्या सन्देश व्यक्त हुआ है?
  5. प्रस्तुत कविता में कौन-सा काव्य गुण है?

उत्तर:

  1. प्रत्येक बात की अति अरुचिकर होती है। जग में अति सुख से जहाँ उत्पीड़न होता है, वहीं अति दु:ख से भी कष्ट मिलता है। इन दोनों में नियत क्रम बना रहे, यही उचित है।
  2. कवि ने सुख-दुःख को लेकर कामना की है कि जीवन में इन दोनों को समान रूप में सब में बाँट दिया जावे, जिससे जीवन सहजता से भोगा. जावे।
  3. संसार अतिशय सुख में भी पीड़ा का अनुभव करता है और अतिशय दु:ख में पीड़ा भोगता है।
  4. प्रस्तुत कविता में यह सन्देश व्यक्त हुआ है कि जीवन में अधिक सुख मिलने पर अधिक उल्लसित और अधिक दुःख मिलने पर व्यथित नहीं होना चाहिए, दोनों स्थितियों में समान रहना चाहिए।
  5. प्रस्तुत कविता में प्रसाद गुण है, क्योंकि इसमें अर्थ-बोध सरलता से हो रहा है। सामासिक एवं क्लिष्ट पद नहीं है। इसमें पांचाली रीति है।

(4)
छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाये
मते झुको अनय पर, भले व्योम फट जाये,
दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है,
मरता है जो, एक ही बारे मरता है।
तुम स्वयं मरण के मुख पर चरण धरो रे!
जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे!!
उपशम को ही जाति धर्म कहती है,
शम, दम, विराग को श्रेष्ठ कर्म कहती है,
धृति को प्रहार, क्षान्ति को वर्म कहती है,
अक्रोध, विनय को विजय-मर्म कहती है,
अपमान कौन, वह जिसको नहीं सहेगी?
सबको असीर सबका बन दास कहेगी।
दो उन्हें राम, तो मात्र नाम वे लेंगी,
विक्रमी शरासन से न काम वे लेंगी,
नवनीत बना देतीं भट अवतारी को,
मोहन मुरलीधर पाँचजन्य-धारी को।
पावक को बुझा तुषार बना देती हैं,
गांधी को शीतल क्षार बना देती हैं।

प्रश्न

  1. प्रस्तुत कविता का केन्द्रीय भाव क्या है?
  2. इस संसार में किस व्यक्ति को अपमान सहना पड़ता है?
  3. कवि किस बात पर अड़े रहने के लिए कहता है?
  4. कविं ने क्या अपनाने की बात कही है?
  5. ‘नवनीत बना देतीं भट अवतारी को-ऐसा किसके लिए और क्यों कहा गया है?

उत्तर:

  1. पराक्रम, पुरुषार्थ एवं सक्रियता अपनाये बिना केवल विनय एवं अहिंसा से राष्ट्र का निर्माण नहीं हो सकता। इसलिए सदा जागृति रखने की जरूरत
  2. जो व्यक्ति आन-बान की चिन्ता न करके चुपचाप अन्याय सहता है, शान्ति को ही श्रेष्ठ कर्तव्य मानकर पुरुषार्थ नहीं दिखाता है, ऐसे व्यक्ति को अपमान सहना पड़ता है।
  3. कवि कहता है कि अन्याय पर कभी मत झुको और हर हालत में न्यायपूर्ण बात पर अड़े रहो।।
  4. प्रस्तुत कवितांश में कवि ने अहिंसा, सहनशीलता और भीरुता को छोड़कर वीरता, ओजस्विता तथा निर्भयता अपनाने की बात कही है।
  5. ऐसा कोरी अहिंसावादी नीति के लिए कहा गया है। अहिंसा से बड़े-से बड़े पराक्रमी को कोमल-हृदय और स्ववश किया जा सकता है।

(5)
यह धरती है उस किसान की
जो बैलों के कन्धों पर।
बरसात घाम में,
जुआ भाग्य का रख देता है,
खून चाटती हुई वायु में,
पैनी कुसी खेत के भीतर,
दूर कलेजे तक ले जाकर,
जोत डालती है मिट्टी को,
पाँस डालकर,।
और बीज बो देता है
नये वर्ष में नयी फसल के,
ढेर अन्न का लग जाता है।
यह धरती है उस किसान की।
नहीं कृष्ण की, नहीं राम की,
नहीं भीम, सहदेव, नकुल की,
नहीं पार्थ की, नहीं राव की,
नहीं रंक की,
नहीं तेग, तलवार, धर्म की,
नहीं किसी की,
नहीं किसी की,
धरती है केवल किसान की।

प्रश्न

  1. कवि ने धरती का असली स्वामी किसे और क्यों बताया है?
  2. ‘जुआ भाग्य का रख देता है’ कथन से क्या आशय है?
  3. किसान को भाग्यवादी बताने वाली पंक्ति को छाँटकर लिखिए।
  4. प्रस्तुत कविता का मूल भाव लिखिए।
  5. काव्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।

उत्तर:

  1. कवि ने धरती का असली स्वामी किसान को बताया है, क्योंकि वही परिश्रम करके, धरती को उर्वरा करके अन्न उगाता है।
  2. किसान यद्यपि खेती पर रात-दिन परिश्रम करता है, तथापि वह खेती की पैदावार को अपने भाग्य का प्रतिफल मानता है।
  3. किसान भाग्यवादी होता है, उसकी यह विशेषता इस पंक्ति से व्यक्त हुई। है—’जुआ भाग्य का रख देता है।’
  4. प्रस्तुत कविता का मूल भाव यह है कि किसान रात-दिन परिश्रम करके खेतों को उपजाऊ बनाता है। धरती का असली स्वामी वही है। राव, सामन्त या जमींदार तो उसका शोषण ही करते हैं।
  5. प्रस्तुत काव्यांश का शीर्षक ‘किसान की धरती’ हो सकता है।

(6)
शान्ति नहीं तबे तक, जब तक
सुख-भाग न नर का सम हो,
नहीं किसी को बहुत अधिक हो,
नहीं किसी को कम हो।
ऐसी शान्ति राज्य करती है।
तन पर नहीं, हृदय पर,
नर के ऊँचे विश्वासों पर।
श्रद्धा, भक्ति, प्रणय पर।
न्याय शान्ति का प्रथम न्यास है।
जब तक न्याय न आता।
जैसा भी हो महल शान्ति का,
सुदृढ़ नहीं रह पाता।
कृत्रिम शान्ति सशंक आप
अपने से ही डरती है,
खड्ग छोड़ विश्वास किसी का
कभी नहीं करती है।
और जिन्हें इस शान्ति-व्यवस्था
में सुख-भोग सुलभ है,
उनके लिए शान्ति ही जीवन,
सार, सिद्धि दुर्लभ है।

प्रश्न

  1. सामाजिक जीवन में अशान्ति का क्या कारण बताया गया
  2. कृत्रिम शान्ति से क्या हानि संभव है?
  3. प्रस्तुत काव्यांश से क्या प्रेरणादायी सन्देश दिया गया है?
  4. कवि किस प्रकार की शान्ति को महत्त्वपूर्ण मानता है?
  5. देश-समाज में शान्ति-स्थापना का प्रथम न्यास किसे बताया गया है?

उत्तर:

  1. सामाजिक जीवन में आर्थिक विषमता सुख-भोग की असमानता और न्याय का व्यवहार न होना अशान्ति का मूल कारण बताया गया है।
  2. कृत्रिम शान्ति से आशंका, भय एवं विद्वेष बना रहता है, ऐसी शान्ति से यह हानि होती है कि समाज का वातावरण खुशहाल नहीं रहता है।
  3. इससे यह सन्देश दिया गया है कि मानव-समाज के समक्ष युद्ध और शान्ति की जो चिर समस्या है, उसका समाधान समता, न्याय एवं परस्पर विश्वास रखने से ही हो सकता है।
  4. कवि तलवार या शक्ति की अपेक्षा न्याय एवं आर्थिक समानता से स्थापित शान्ति को महत्त्वपूर्ण मानता है।
  5. देश-समाज में शान्ति-स्थापना का प्रथम न्यास सभी को समतामूलक न्याय मिलना बताया गया है, अर्थात् समाज में सभी को न्याय मिलने से ही शान्ति स्थापित हो सकती है।

(7)
प्रभु ने तुमको कर दान किये,
सब वांछित वस्तु विधान किये।
तुम प्राप्त करो उनको न अहो,
फिर है किसका वह दोष कहो?
समझो ने अलभ्य किसी धन को,
नर हो न निराश करो मन को।
किस गौरव के तुम योग्य नहीं,
कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं?
जन हो तुम भी जगदीश्वर के,
सब हैं जिसके अपने घर के।
फिर दुर्लभ क्या उसके मन को?
नर हो, न निराश करो मन को।
करके विधि-वाद न खेद करो,
निज लक्ष्य निरन्तर भेद करो।
बनता बस उद्यम ही विधि है,
मिलती जिससे सुख की निधि है।
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को,
नर हो, न निराश करो मन को।।

प्रश्न

  1. वांछित वस्तुओं को प्राप्त न कर सकने में किसका दोष है और क्यों?
  2. विधि-वाद का खेद कौन व्यक्त करते हैं?
  3. इस काव्यांश से क्या प्रेरणा दी गई है?
  4. काव्यांश से कवि के कौनसे विचारों का परिचय मिलता है?
  5. उन पंक्तियों को पहचानिए जिनसे पता चलता है कि कवि – आस्तिक है, ईश्वर को मानता है।

उत्तर:

  1. जीवन में वांछित वस्तुओं को प्राप्त न करने में कर्महीनता का दोष है, क्योंकि उचित श्रम और कर्म न करने से मनचाहा फल नहीं मिलता है।
  2. इस संसार में कुछ लोग उचित परिश्रम नहीं करते हैं, भाग्यवादी, आलसी एवं निराशा से ग्रस्त रहते हैं। ऐसे लोग ही विधि-वाद का खेद व्यक्त करते हैं।
  3. इस काव्यांश से कवि ने सभी मानवों को अथवा सभी भारतीयों को यह प्रेरणा दी है कि वे निराश न हों, लक्ष्य प्राप्ति हेतु साहसी एवं कर्मनिष्ठ बनें।
  4. इस काव्यांश से ज्ञात होता है कि कवि मानवीय संवेदना एवं आध्यात्मिक दृष्टिकोण रखता है। वह कर्म पर विश्वास करने वाला एवं भाग्य-भरोसे रहने वाला नहीं है।
  5. कवि परिश्रम को महत्त्वपूर्ण मानता है और ईश्वर के प्रति भी आस्था रखता है। इस भाव की द्योतक पंक्तियाँ ये हैं—- जन हो तुम जगदीश्वर के, सब हैं जिसके अपने घर के।।

(8)
सिंही की गोद से।
छीनता रे शिशु कौन?
मौन भी क्या रहती वह
रहते प्राण? रे अजान!
एक मेषमाता ही।
रहती है निर्निमेष—-
दुर्बल वह–
छिनती सन्तान जब
जन्म पर अपने अभिशप्त
तप्त आँसू बहाती है,
किन्तु क्या,
योग्य जन जीता है।
पश्चिम की उक्ति नहीं
गीता है, गीता है,
स्मरण करो बार-बार
जागो फिर एक-बार!
पशु नहीं, वीर तुम,
समर शूर, क्रूर नहीं।
काल-चक्र में ही दबे;
आज तुम राजकुँवर !
समर-सरताज !

प्रश्न

  1. प्रस्तुत काव्यांश का मूल भाव बताइये।
  2. तप्त आँसू कौन बहाता है और क्यों?
  3. ‘गीता है, गीता है इससे क्या व्यंजना की गई है?
  4. सिंह और मेषमाता किसके प्रतीक बताये गये हैं?
  5. प्रस्तुत काव्यांश किन परिस्थितियों में क्या प्रेरणा देने के लिए लिखा गया है?

उत्तर:

  1. इसका मूल भाव यह है कि कायर एवं दुर्बल व्यक्ति को हर कोई दबाता-सताता है। पराक्रमी एवं साहसी व्यक्ति से सब डरते हैं और वह प्रत्येक कार्य में सफल रहता है।
  2. जिस व्यक्ति में जागृति, साहस एवं पराक्रम नहीं रहता है, ऐसा व्यक्ति दुःख-निराशा से ग्रस्त होकर जीवन में सदा तप्त आँसू बहाता है।
  3. इससे यह व्यंजना की गई है कि व्यक्ति को कर्मठ होना चाहिए। इस संसार में उसी का जीवन सफल होता है, जो कोरा भाग्यवादी न होकर पराक्रमी एवं कर्मशील होता है।
  4. सिंह को पराक्रम, साहस, निर्भयता एवं शौर्य का और मेषमाता अर्थात् भेड़ को कायरता, भयग्रस्तता तथा विवशता का प्रतीक बताया गया है।
  5. प्रस्तुत पंक्तियाँ देश की गुलामी के समय देशवासियों में जोश पैदा कर जागृत करने तथा निर्भय होकर स्वतन्त्रता-प्राप्ति का प्रयास करने के उद्देश्य से लिखी गई है।

(9)
जाति-धन, प्रिय नव-युवक समूह,
विमल मानस के मंजु मराल।
देश के परम मनोरम रत्न,
ललित भारत-ललना के लाल।
लोक की लाखों आँखें आज,
लगी हैं तुम लोगों की ओर,
भरी उनमें है करुणा भूरि,
लालसामय है ललकित कोर।
उठो, लो आँखें अपनी खोल
विलोको अवनितल का हाल,
अनालोकित में भर आलोक,
करो कमनीय कलंकित भाल।
भरे उर में जो अभिनव ओज,
सुना दो वह सुन्दर झनकार,
ध्वनित हो जिससे मानस-यन्त्र,
छेड़ दो उस तन्त्री के तार।
रगों में बिजली जावे दौड़,
जगे भारत-भूतल का भाग,
प्रभावित धुन से हो भरपूर,
उमग गाओ वह रोचक राग।

प्रश्न

  1. ‘जाति-धन, प्रिय नवयुवक समूह’ किनके लिए और क्यों कहा गया है?
  2. कवि ने नवयुवकों को कैसा राग गाने के लिए कहा है?
  3. प्रस्तुत काव्यांश का केन्द्रीय भाव लिखिए।
  4. ‘करो कमनीय कलंकित भाल’ से क्या आशय है?
  5. प्रस्तुत काव्यांश में देश के नवयुवकों से क्या करने के लिए कहा गया है?

उत्तर:

  1. यह भारतीय नवयुवकों के लिए कहा गया है; क्योंकि उनकी ओर देश के करोड़ों लोगों की आशापूर्ण दृष्टि लगी हुई है।
  2. प्रस्तुत काव्यांश में कवि ने नवयुवकों को ऐसा राग गाने के लिए कहा है, जिससे देश से अज्ञान एवं पराधीनता का कलंक मिट जावे, जनता में ओजस्वी भावों का और नवचेतना का प्रसार होवे।
  3. यद्यपि भारत को स्वाधीनता मिल गयी है, परन्तु उसकी रक्षा करने को भार देश के नवयुवकों पर है। देश के नवयुवक ही जनता में अभिनव ओज भरकर उनकी आशाओं को पूरी कर सकते हैं।
  4. स्वाधीन देश के नवयुवक अज्ञान एवं पराधीनता के कलंक को मिटाकर भारत के मस्तक को सुन्दर-आकर्षक बना दें।
  5. देश के नवयुवक अज्ञान, निराशा आदि के अन्धकार को दूर कर सकते हैं। और वे लोगों में नया जोश पैदा कर सकते हैं। ऐसा करके वे भारत का भाग्य बदल सकते हैं, कल्याण कर सकते हैं।

(10)
दिवसावसान का समय,
मेघमय असमान से उतर रही है।
वह संध्या-सुंदरी परी-सी
धीरे-धीरे-धीरे।
तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास,
मधुर-मधुर हैं दोनों उसके अधर
किन्तु जरा गम्भीर,-नहीं है उनमें हास-विलास।
हँसता है तो केवल तारा एक
गुंथा हुआ उन धुंघराले काले-काले बालों से
हृदयराज्य की रानी को वह करता है अभिषेक।
अलसता की-सी लता
किन्तु कोमलता की वह कली।
सखी नीरवता के कंधे पर डाले बाँह,
छाँह-सी अम्बर-पथ से चली।
नहीं बजती उसके हाथों में कोई वीणा,
नहीं होता कोई अनुराग-राग आलाप
नूपुरों में भी रुनझुन-रुनझुन नहीं
सिर्फ एक अव्यक्त शब्द सा “चुप, चुप, चुप”
है पूँज रहा सब कहीं

प्रश्न

  1. इस काव्यांश में किस काल का वर्णन हुआ है?
  2. मेघमय आसमान से कौन उतर रही है?
  3. सन्ध्या-सुन्दरी के अधरों की क्या विशेषता है?
  4. सन्ध्या की सखी कौन है?
  5. सन्ध्या को कवि ने अलसता की-सी लता क्यों कहा है?

उत्तर:

  1. इस काव्यांश में सूर्यास्त को लेकर सन्ध्याकाल का वर्णन हुआ है।
  2. मेघमय और बादलों से घिरे आसमान से सन्ध्या रूपी परी जैसी नायिका धरती पर उतर रही है।
  3. संन्ध्या-सुन्दरी के अधरों की यह विशेषता है कि वे स्वाभाविक रूप से लालिमायुक्त और सुकोमल-मधुर हैं, लेकिन उनमें हास-विलास नहीं है।
  4. सन्ध्या की सखी नीरवता है, अर्थात् सन्ध्याकाल में जो निस्तब्धता रहती है, वही उसकी सखी है।
  5. सन्ध्याकाल आने पर सभी प्राणी दिनभर की थकान मिटाना चाहते हैं। इस कारण उनके शरीर आलस्य से व्याप्त रहते हैं। इसी कारण सन्ध्या को अलसता फैलाने वाली लता कहा गया है।

(11)
पूछो सिकता-कण से हिमपति !
तेरा वह राजस्थान कहाँ?
वन-वन स्वतंत्रता दीप लिये।
फिरने वाला बलवान कहाँ?।
री कपिलवस्तु ! कहे बुद्धदेव
के वे मंगल-उपदेश कहाँ?।
तिब्बत, ईरान, जापान, चीन
तक गये हुए सन्देश कहाँ?
वैशाली के भग्नावशेष से
पूछ लिच्छवी-शान कहाँ
ओ री उदास गंडकी ! बता
विद्यापति-कवि के गाने कहाँ?
तू तरुण देश से पूछ अरे!
पूँजा कैसा.यह ध्वंस-राग?
अम्बुधि-अन्तस्थल-बीच छिपी
यह सुलग रही है कौन आग?
प्राची के प्रांगण-बीच देख
जल रहा स्वर्ण-युग-अग्नि ज्वाल,
तू सिंहनाद कर जाग तपी!
मेरे नगपति ! मेरे विशाल !

प्रश्न

  1. कवि ने सिकता-कण से क्या पूछने के लिए कहा है?
  2. महात्मा बुद्ध के ज्ञानोपदेश कहाँ-कहाँ तक गये थे?
  3. प्राची के प्रांगण-बीच क्या जल रहा है?
  4. ‘ओ री उदास गंडकी’ से कवि का क्या तात्पर्य है?
  5. ‘तू सिंहनाद कर जाग तपी’ कहकर कवि किसे जगाने का प्रयास कर रहा है?

उत्तर:

  1. कवि ने सिकता-कण से कहा है कि आज मातृभूमि की स्वतंत्रता की ज्योति जलाने वाला और प्राण-पण से मातृभूमि का उद्धार करने वाला राणा प्रताप कहाँ है? “
  2. महात्मा बुद्ध के ज्ञानोपदेश तिब्बत, ईरान, जापान, चीन आदि देशों तक गये, अर्थात् वहाँ पर भी बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ उससे मानवता का कल्याण ही हुआ।
  3. प्राचीनकाल में भारत मानव-सभ्यता में अग्रणी देश था, यहाँ मानवता का स्वर्ण-युग था। पूर्व दिशा के प्रांगण में उसी स्वर्ण-युग की ज्वाला अभी भी जल, रही,
  4. कवि का तात्पर्य है कि जो गंडक नदी कभी मैथिल कोकिल विद्यापति के गान की स्वर लहरियों से गूंजती थी, वह नदी आज ऐसे कवि के अभाव में उदासीन है।
  5. यहाँ कवि ‘तपी’ कहकर हिमालय को जगाने का प्रयास कर रहा है क्योंकि यह हिमालय तेजस्वी तपस्वियों की तपस्थली रहा है।

(12)
देखकर बाधा विविध, बहु विघ्न घबराते नहीं।
रह भरोसे भाग के दु:ख भोग पछताते नहीं
काम कितनी ही कठिन हो किन्तु उकताते नहीं।
भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं ॥
हो गए एक आन में उनके बुरे दिन भी भले।
सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले।
व्योम को छूते हुए दुर्गम पहाड़ों के शिखर।
वे घने जंगल जहाँ रहता है। तम आठों पहर॥
गर्जते जलराशि की उठती हुई ऊँची लहर।
आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लबर ॥
ये कॅपा सकतीं कभी जिसके कलेजे को नहीं।
भूलकर भी वह नहीं नाकाम रहता है। कहीं।
चिलचिलाती धूप कों जो चाँदनी देवें बना।
काम पड़ने पर करें जो शेर का भी सामना
जो कि हँस-हँस के चबा लेते हैं लोहे का चना।
है कठिन कुछ भी नहीं जिनके है जी में ठना
कोस कितने ही चलें पर वे कभी थकते नहीं।
कौन-सी है गाँठ जिसको खोल वे सकते नहीं।

प्रश्न

  1. विघ्न-बाधाओं से कौन नहीं घबराते हैं? उनकी विशेषताएँ बताइए।
  2. ‘चबा लेते हैं लोहे का चना’ से क्या आशय है?
  3. चिलचिलाती धूप को चाँदनी बनाने से क्या सन्देश व्यक्त हुआ
  4. ‘जिनके है जी में ठना’ से कवि का क्या आशय है?
  5. इस काव्यांश का क्या आशय है?

उत्तर:

  1. जो कर्मवीर होते हैं, वे विघ्न-बाधाओं से नहीं घबराते हैं। वे भाग्यवादी न होकर कठिन परिश्रमी, धीर-वीर, दृढ़-निश्चयी और आन-बान निभाने वाले हैं।
  2. अत्यधिक कठिन एवं असाध्य काम को करना—इस आशय के लिए लोहे के चने चबाना मुहावरा प्रसिद्ध है। यहाँ भी इसका यही आशय है।
  3. विपरीत या कठिन परिस्थितियों को अनुकूल बनाकर चलने से कर्मवीर का जीवन सफल रहता है। अतः सदा दृढ़ निश्चयी बनकर उद्यम करना चाहिए।
  4. ‘जिनके है जी में ठना’ से कवि का आशय है कि कर्म में विश्वास रखने वाले वीर पुरुष जो कुछ अपने मन में प्रण कर लेते हैं वे उसे पूरा करके ही रहते हैं।
  5. इसका आशय है कि कर्मशील, धीर-वीर व आन-बान वाले महापुरुष विपरीत परिस्थितियों में भी कर्मपथ पर बढ़ते रहते हैं।

(13)
नये साल की शुभकामनाएँ !
खेतों की मेड़ों पर धूल-भरे पाँव को,
कुहरे से लिपटे उस छोटे-से गाँव को,
नये साल की शुभकामनाएँ !
जाँते के गीतों को, वेलों की चाल को,
करघे को, कोल्हू को, मछुओं को, जाल को,
नये साल की शुभकामनाएँ !
इस पकती रोटी को, बच्चों के शोर को,
चौके की गुनगुन को, चूल्हे को,
भोर को, नये साल की शुभकामनाएँ !
वीराने जंगल को, तारों को रात को,
ठण्डी दो बन्दूकों में घर की बात को,
नये साल की शुभकामनाएँ।
इस चलती. आँधी में, हर बिखरे बाल को,
सिगरेट की लाशों पर फूलों से ख्याल को,
नये साल की शुभकामनाएँ !
कोट के गुलाब और जूड़े के फूल को,
हर नन्ही याद को, हर छोटी भूल को,
नये साल की शुभकामनाएँ !
उनको, जिनने चुन-चुनकर ग्रीटिंग कार्ड लिखे,
उनको, जो अपने गमले में चुपचाप दिखे।

प्रश्न

  1. प्रस्तुत काव्यांश का केन्द्रीय भाव लिखिए।
  2. ‘नये साल की शुभकामना के रूप में किस परम्परा की व्यंजना
  3. शुभकामनाएँ किन्हें देनी चाहिए और किन्हें नहीं?
  4. प्रस्तुत काव्यांश की प्रतीक-योजना स्पष्ट कीजिए।
  5. ‘धूल भरे पाँव, करघा, कोल्हू’ आदि शब्द किस वर्ग के जीवन के प्रतीक हैं?

उत्तर:

  1. इसका केन्द्रीय भाव यह है कि नया वर्ष जीवन में नयी ताजगी एवं नवीन भावनाओं को जगाता है और मंगल कामनाओं को लेकर आता है।
  2. भारतीय संस्कृति में नव-संवत्सर नये साल के रूप में माना जाता है और इस दिन आस्तिक लोग पूजा-पाठ आदि करके जीवन की मंगल-कामना करते हैं।
  3. नये साल की शुभकामनाएँ किसानों, खेतिहर मजदूरों, अन्य कार्यों पर लगे श्रमिकों, बड़े-बूढ़ों आदि को देनी चाहिए, परन्तु दुराचारी लोगों को नहीं देनी चाहिए।
  4. इस काव्यांश में ये प्रतीक आये हैं-खेत की मेड़, जाँते के गीत, करघा, कोल्हू, गुलाब, ग्रीटिंग कार्ड आदि।
  5. धूल भरे पाँव, करघा, कोल्हू आदि शब्द किसान व श्रमिक वर्ग के कर्मठ जीवन के प्रतीक हैं।

(14)
वे तो पागल थे। जो सत्य,
शिव, सुन्दर की खोज में
अपने-अपने सपने लिये।
नदियों, पहाड़ों, बियाबानों, सुनसानों में
फटेहाल, भूखे-प्यासे
टकराते फिरते थे,
अपने से जूझते थे,
आत्मा की आज्ञा पर मानवता के लिए।
शिलाएँ, चट्टानें, पर्वत काट-काटकर,
मूर्तियाँ, मन्दिर और गुफाएँ बनाते थे।
किन्तु ऐ दोस्त!
इनको मैं क्या कहूँ
जो मौत की खोज में
अपनी-अपनी बन्दूकें, मशीनगनें लिये हुए
नदियों, पहाड़ों, बियाबानों, सुनसानों में
फटे-हाल, भूखे-प्यासे
टकराते फिरते हैं,
दूसरों की आज्ञा पर,
चन्द पैसों के वास्ते

प्रश्न

  1. प्रस्तुत काव्यांश में किन दो में अन्तर बताया गया है? स्पष्ट कीजिए।
  2. मानवता के हित साधक क्या करते हैं?
  3. प्रस्तुत काव्यांश में क्या सन्देश दिया गया है?
  4. दूसरों की आज्ञा पर चलना कहाँ तक उचित है?
  5. जो मौत की खोज में से कवि का क्या तात्पर्य है?

उत्तर:

  1. इसमें कलाकार और सिपाही में अन्तर बताया गया है। कलाकार आत्मा की प्रेरणा पर और सिपाही सेनापति की आज्ञा पर कर्मरत रहते हैं।
  2. मानवता के हित-साधक ऐसे काम करते हैं, जिनसे सभी को सुख-शान्ति एवं आनन्द मिले। मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा एवं संस्कृति की रक्षा हो सके।
  3. इसमें सन्देश दिया गया है कि मानवता के कल्याणार्थ हमें सत्य, शिव और . सुन्दर की खोज करने वाले मानवतावादियों का अनुसरण करना चाहिए। शत्रुओं से देश की सीमाओं की रक्षा हो।
  4. दूसरों की आज्ञा पर चलना तभी तकं उचित है, जब तक उससे अपने साथ ही दूसरों का भी हित हो शत्रुओं से देश की सीमाओं की रक्षा हो।
  5. इससे कवि का तात्पर्य है कि कुछ लोग चंद पैसों की खातिर लोगों की जान ले लेते हैं और उग्रवादी या आतंकवादी बनकर मानवताविहीन राह पर चल पड़ते

(15)
उठे राष्ट्र तेरे कन्धों पर,
बढ़े प्रगति के प्रांगण में,
पृथ्वी को रख दिया उठाकरे
तूने नभ के आँगन में।
तेरे प्राणों के ज्वारों पर,
लहराते हैं देश सभी,
चाहे जिसे इधर कर दे तू
चाहे जिसे उधर क्षण में।
विजय वैजयन्ती फहरी जो,
जग के कोने-कोने में,
उनमें तेरा नाम लिखा है।
जीने में बलि होने में।
घहरे रन घनघोर बढ़ी
सेनाएँ तेरा बल पाकर,
स्वर्ण-मुकुट आ गये चरण-तल
तेरे शस्त्र संजोने में।
तेरे बाहुदण्ड में वह बल,
जो केहरि-कटि तोड़ सके,
तेरे दृढ़ कन्धों में वह बल
जो गिरि से ले होड़ सके।

प्रश्न

  1. ‘उठे राष्ट्र तेरे कन्धों पर-इसमें ‘तेरे’ किसके लिए कहा गया
  2. प्रस्तुत काव्यांश का मूल भाव क्या है? लिखिए।
  3. प्रस्तुत काव्यांश में कवि को तरुणों से क्या-क्या अपेक्षाएँ हैं?
  4. ‘केहरि-कटि’ तोड़ सके’ से कवि का क्या आशय है?
  5. विजय वैजयन्ती फहरी’ से कवि का क्या तात्पर्य है?

उत्तर:

  1. प्रस्तुत काव्यांश में ‘तेरे’ शब्द देश के नवयुवकों अर्थात् देश की प्रगति एवं उद्धार करने में संलग्न तरुणों के लिए कहा गया है।
  2. प्रस्तुत काव्यांश को मूल भाव यह है कि संसार में जितने भी सामाजिक परिवर्तन एवं लोक-कल्याण के कार्य हुए हैं, वे नौजवानों की अदम्य शक्ति एवं साहस स . से ही हुए हैं।
  3. कवि को तरुणों से अपेक्षाएँ हैं कि वे देश की प्रगति व रक्षा का भार लें, कमजोर लोगों व दलितों का उद्धार करें और दुश्मनों का डटकर मुकाबला करें।
  4. कवि का आशय है कि तरुणों की भुजाओं में अपरिमित बल है, अपनी शक्ति से असम्भव भी सम्भव कर देते हैं।
  5. ‘विजय वैजयन्ती फहरी’ से कवि का तात्पर्य यह है कि देश के नौजवान। जिधर अपनी नजरें दौड़ा देते हैं अर्थात् जिधर अपना पराक्रम दिखाते हैं उधर ही अपनी विजय-पताका फहरा देते हैं।

(16)
अब न गहरी नींद में तुम सो सकोगे,
गीत गाकर मैं जगाने आ रही हैं।
अतल अस्ताचल तुम्हें जाने न दूंगा,
अरुण उदयाचल सजाने आ रहा हूँ ॥
कल्पना में आज तक उड़ते रहे तुम,
साधना से मुड़कर सिहरते रहे तुम।
अब तुम्हें आकाश में उड़ने न दूंगा,
आज धरती पर बसाने आ रहा हूँ ॥
सुख नहीं यह, नींद में सपने संजोना,
दुःख नहीं यह शीश पर गुरु भार ढोना।
शूल तुम जिसको समझते थे अभी तक,
फूल मैं उसको बनाने आ रहा हूँ
फूल को जो फूल समझे, भूल है यह,
शूल को जो शूल समझे,
भूल है यह। भूल में अनुकूल या प्रतिकूल के कण,
धूलि भूलों की हयने आ रहा हूँ।।
देखकर मॅझधार में घबड़ा न जाना,
हाथ ले पतवार को घबड़ा न जाना।
मैं किनारे पर तुम्हें थकने न दूंगा,
पार मैं तुमको लगाने आ रहा हूँ ॥

प्रश्न

  1. प्रस्तुत काव्यांश में क्या सन्देश व्यक्त हुआ है?
  2. ‘शूल को जो शूल समझे, भूल है यह’-कवि ने ऐसा क्यों कहा है?
  3. ‘अरुण उदयाचल सजाने आ रहा हूँ’-इसका क्या आशय है?
  4. ‘गीत गाकर मैं जगाने आ रहा हूँ’ में कवि किसे जगाने की बात कह रहा है और क्यों? समझाइये।
  5. ‘अब तुम्हें आकाश में उड़ने न दूंगा’ से कवि का क्या आशय

उत्तर:

  1. कवि ने सन्देश दिया है कि देश के नवयुवक आलस्य, निराशा, अधीरता एवं संकीर्णता आदि को त्यागकर उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होकर अपना जीवन सफल बनावें।।
  2. “शूल’ का अर्थ है दु:ख और बाधा। दुःख से मत घबराओ तथा घबराकर पीछे भी मत हो। उससे प्रेरणा लेकर आगे बढ़ते रहो।
  3. रात्रि के बाद प्रभातकाल होता है, इसी प्रकार जीवन में निराशा के बाद आशा का संचार होता है। अतएव निराशा को दूर कर आशा का संचार करो
  4. इसमें कवि नवयुवकों को जगाने की बात कह रहा है; क्योंकि आज का नवयुवक आलस्य, अधीरता और संकीणर्ता को अपना सुख मानकर कल्पनाओं में जी रहा है।
  5. कवि उन नवयुवकों को सचेत करता है जो कल्पनाओं के संसार में जी रहे हैं, उन्हें कोरी कल्पनाओं को छोड़कर यथार्थ जीवन जीने का प्रयास करना चाहिए।

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