RBSE Solutions for Class 11 Hindi अपरा Chapter 15 गद्य साहित्य का आविर्भाव

Rajasthan Board RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 15 गद्य साहित्य का आविर्भाव

RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 15 पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर

RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 15 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
‘राजा भोज का सपना’ कहानी के कहानीकार कौन थे ?
(क) राजा शिवप्रसाद
(ख) राजा लक्ष्मणसिंह
(ग) भारतेन्दु
(घ) श्रद्धाराम फुल्लौरी
उत्तर:
(क) राजा शिवप्रसाद

प्रश्न 2.
राजा लक्ष्मणसिंह ने कौन-सी पत्रिका निकाली ?
(क) कविवचन सुधा
(ख) प्रजाहितैषी
(ग) बाला बोधिनी
(घ) हिंदी प्रदीप
उत्तर:
(ख) प्रजाहितैषी

RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 15 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
कौन-से विदेशी विद्वान् हिन्दी की हित साधना में तत्पर रहे ?
उत्तर:
अंग्रेज विद्वान-फ्रेडरिक पिंकाट हिन्दी की हित साधना में तत्पर रहे।

प्रश्न 2.
पिंकाट साहब को देहान्त कहाँ हुआ?
उत्तर:
पिंकोट साहब का देहान्त भारत में उत्तर प्रदेश के लखनऊ नगर में हुआ था।

प्रश्न 3.
राजा लक्ष्मण सिंह ने कौन-सा नाटक लिखा?
उत्तर:
राजा लक्ष्मण सिंह ने ‘अभिज्ञान शकुन्तला’ नामक नाटक लिखा (यह कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तलम् का गद्य पद्यानुवाद था)।

प्रश्न 4.
‘सत्यार्थ प्रकाश’ के रचयिता कौन थे ?
उत्तर:
‘सत्यार्थ प्रकाश’ के रचयिता स्वामी दयानन्द सरस्वती थे।

प्रश्न 5.
श्रद्धाराम फुल्लौरी द्वारा रचित उपन्यास कौन-सा है ?
उत्तर:
श्रद्धाराम फुल्लौरी द्वारा रचित उपन्यास ‘भाग्यवती’ है।

RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 15 लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
शकुन्तला नाटक’ की भाषा देखकर पिंकाट साहब प्रसन्न क्यों हुए?
उत्तर:
पिंकाट साहब हिन्दी पर विदेशी भाषा अरबी-फारसी के शब्द लादे जाने के विरुद्ध थे। वे संस्कृत शब्दावली युक्त सरल हिन्दी के पक्ष में थे। ‘अभिज्ञान शकुंतला’ में राजा लक्ष्मण सिंह ने ऐसी ही भाषा का प्रयोग किया था। उसमें संस्कृत के कुछ सरस शब्द थे और वह सरल थी।

प्रश्न 2.
अपनी मृत्यु के अन्तिम दिन श्रद्धाराम फुल्लौरी ने क्या कहा ?
उत्तर:
अपनी मृत्यु के दिन श्रद्धाराम फुल्लौरी ने कहा था- भारत में भाषा के लेखक दो हैं- एक काशी में और दूसरा पंजाब में। आज के बाद अब एक ही रह जायेगा। फुल्लौरी का आशय था कि काशी में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ही हिन्दी के लेखक के रूप में जीवित रह जायेंगे।

प्रश्न. 3.
‘हितोपदेश’ का अनुवाद किसने किया ?
उत्तर:
पं० बद्रीलाल ने सन् 1919 में ‘हितोपदेश’ का हिन्दी में अनुवाद किया था। इसका परामर्श उनको डॉक्टर बैलेटाइन से प्राप्त हुआ था। इसमें पूरी कहानियाँ नहीं थीं। कुछ कहानियाँ छाँट दी गई थीं।

प्रश्न 4.
‘सत्यामृत प्रवाह’ किसने लिखा ?
उत्तर:
‘सत्यामृत प्रवाह’ एक सिद्धान्त ग्रन्थ था। इसकी भाषा अत्यन्त प्रौढ़ थी। इसके रचयिता पं० श्रद्धाराम फुल्लौरी थे। वह अत्यन्त प्रतिभाशाली तथा विद्वान् पुरुष थे।

RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 15 निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा हिन्दी भाषा के विकास में दिए गए योगदान पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
वह भारतीय समाज का नव जागरण काल था। विभिन्न मतों के प्रचारक भरत में अपने-अपने मतों का प्रचार कर रहे थे। इनमें बंगाल में ‘ब्रह्मसमाज’ का तथा उत्तरपश्चिम प्रदेशों में आर्य समाज का आन्दोलन महत्वपूर्ण है। स्वामी दयानन्द सरस्वती से थे। आपका परिवार मूर्तिपूजक था। किन्तु विश्वास भंग होने पर स्वामी जी ने गृहत्याग दिया था और संन्यासी हो गए थे। मथुरा के स्वामी विरजानंद से इन्होंने शिक्षा ग्रहण की थी। अपने गुरु को गुरुदक्षिणा में भारत के उद्धार का वचन दिया था।

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सन् 1922 में आर्य समाज की स्थापना की थी। इसकी स्थापना का उद्देश्य भारत में फैले अन्धविश्वास और पाखण्ड का खण्डन था। स्वामी जी का मानना था कि यह कार्य आर्य भाषा हिन्दी में उपदेश देने तथा आर्य समाज के सिद्धान्तों के प्रचार से ही हो सकता है। स्वामी अपने व्याख्यान हिन्दी में ही देते थे। आर्य समाज में विश्वास रखने वालों को हिन्दी सीखना जरूरी था। स्वामी जी के अनुसार हिन्दी आर्य भाषा है तथा आर्यमत के साथ ही आर्य भाषा का प्रचार भी आवश्यक है। स्वामी जी ने अपना प्रसिद्ध ग्रंन्ध ‘सत्यार्थ प्रकाश’ भी हिन्दी में लिखा था। ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की भाषा सरल संस्कृतनिष्ठ हिन्दी है।

स्वामी दयानन्द संस्कृत के विद्वान् थे। उनके द्वारा प्रयुक्त हिन्दी का रूप संस्कृतनिष्ठ है। स्वामी जी ने सन् 1920 से ही उत्तर भारत में भ्रमण करके व्याख्यान देना आरम्भ कर दिया था। पश्चिमी संयुक्त प्रांत (आज का उत्तर प्रदेश) तथा पंजाब में हिन्दी के प्रचार-प्रसार में स्वामी जी का विशेष योगदान है। आर्यसमाज के प्रचार के साथ ही इन प्रदेशों में हिन्दी का प्रचार भी बढ़ा, पंजाब में कोई लिखित साहित्य नहीं था। वहाँ के लोगों का सम्पर्क भी मुसलमानों से अधिक था। पंजाब में हिन्दी के प्रचार-प्रसार का श्रेय स्वामी दयानन्द सरस्वती तथा उनके आर्य समाज को ही जाता है। इससे पूर्व उनकी भाषा उर्दू ही थी।

प्रश्न 2.
हिन्दी भाषा के विकास में श्रद्धाराम फुल्लौरी के योगदान को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पं० श्रद्धाराम फुल्लौरी ने हिन्दी भाषा के विकास में पूर्ण योगदान दिया था। संवत् 1910 के लगभग श्रद्धाराम फुल्लौरी के व्याख्यानों और कथाओं की धूम पंजाब में मच गई थी। फुल्लौरी अत्यन्त प्रतिभाशाली तथा विद्वान् थे। वह पंजाब में स्थान-स्थान पर घूमकर व्याख्यान देते थे तथा रामायण-महाभारत आदि की कथाएँ सुनाते थे। उनके उपदेश तथा कथाएँ सुनने के लिए दूर-दूर से लोग आते थे और भारी भीड़ एकत्र होती थी। उनकी भाषा बड़ी प्रभावशाली थी तथा उनकी वाणी में भी प्रबल आकर्षण था। उन्होंने विभिन्न स्थानों पर धर्मसभाएँ स्थापित की र्थी तथा अनेक उपदेशक तैयार किए थे।

पं० श्रद्धाराम फुल्लौरी ने पंजाबी तथा उर्दू में पुस्तकें लिखी थीं परन्तु मुख्य पुस्तकें हिन्दी में ही लिखी थीं। उनका सिद्धान्त ग्रन्थ ‘सत्यामृत प्रवाह’ प्रौढ़ हिन्दी में लिखा गया है। पं० श्रद्धाराम पद्य रचना भी करते थे। हिन्दी गद्य में भी उन्होंने बहुत लिखा था। वह निरन्तर हिन्दी के प्रचार में लगे रहे थे। आपकी आत्मचिकित्सा नामक पुस्तक का हिन्दी अनुवाद सन् 1928 में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद आपकी ‘तत्व दीपक’ ‘धर्म रक्षा’, ‘उपदेश संग्रह’ ‘शतोपदेश’ आदि पुस्तकें प्रकाशित हुईं। सन् 1934 में आपका भाग्यवती’ उपन्यास प्रकाशित हुआ। आप अपने समय के सिद्धान्त हिन्दी लेखक थे।

प्रश्न 3.
पिंकांट साहब कौन थे ? उन्होंने हिन्दी भाषा को क्या योगदान दिया ?
उत्तर:
पिंकाट साहब एक अँग्रेज हिन्दी प्रेमी विद्वान् थे। उपका पूरा नाम फ्रेडरिक पिंकाट था। उनका जन्म इंग्लैंड में सन् 1893 में हुआ था। उनको प्रेस के कार्यों का अच्छा अनुभव था। वह एलन एण्ड कम्पनी तथा रिविगंटन नामक विख्यात व्यवसाय कार्यालय में कार्यरत रहे थे। अपने लड़कपन से ही पिंकाट साहब संस्कृत की चर्चा सुनते थे। अतः उन्होंने संस्कृत का परिश्रमपूर्वक अध्ययन किया। उन्होंने हिन्दी और उर्दू का भी अभ्यास किया। उनको इन भाषाओं पर अधिकार था और इनमें लेख तथा पुस्तकें लिखते थे। उन्होंने उर्दू का भी अभ्यास किया था। परन्तु वह जानते थे कि भारत की परम्परागत प्राकृत भाषा हिन्दी ही है। अत: वह जीवनभर हिन्दी के विकास और उत्थान के प्रयास में लगे रहे।’आइने सौदागरी’ नामक व्यापार-पत्र में वह हिन्दी के लेख लिखते थे तथा हिन्दी के समाचार पत्रों से उद्धरण भी उस पत्र के हिन्दी विभाग में रखते थे।

पिंकाट साहब का राजा लक्ष्मण सिंह, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रताप नारायण मिश्र, कार्तिक प्रसाद खत्री आदि-हिन्दी लेखकों से पत्र व्यवहार भी रहता था। हिन्दी के लेखकों के बारे में इंग्लैंड के पत्रों में वह बराबर लिखा करते थे। राजा लक्ष्मण सिंह के शकुन्तला नाटक का सुन्दर परिचय उन्होंने लिखा था। बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री के खड़ी बोली का पद्य’ की भूमिका के रूप में अपने एक लेख (अंग्रेजी में) भी लिखा था। वह सच्चे हृदय से हिन्दी का हित चाहते थे। सन् 1896 की सात फरवरी को भारत के लखनऊ शहर में उनका देहान्त हो गया।

RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 15 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 15 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
‘चिन्तामणि’ के लेखक हैं –
(क) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
(ख) फ्रेडरिक पिंकाट
(ग) श्रद्धाराम फुल्लौरी
(घ) प्रतापनारायण मिश्र
उत्तर:
(क) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल

प्रश्न 2.
‘भाषापन’ का डर किस भाषा की ओर संकेत है ?
(क) संस्कृतनिष्ठ हिन्दी
(ख) उर्दू
(ग) अरबी फारसी शब्दों से युक्त हिन्दी
(घ) अरबी-फारसी
उत्तर:
(क) संस्कृतनिष्ठ हिन्दी

प्रश्न 3.
राजा शिवप्रसाद का झुकाव था –
(क) संस्कृतनिष्ठ हिन्दी की ओर
(ख) अरबी-फारसी शब्दों वाली हिन्दी की ओर
(ग) संस्कृत की ओर
(घ) उर्दू की ओर
उत्तर:
(ख) अरबी-फारसी शब्दों वाली हिन्दी की ओर

प्रश्न 4.
‘ज्ञानदायिनी’ पत्रिका निकाली थी –
(क) फ्रेडरिक पिंकाट ने
(ख) राजा शिव प्रसाद ने
(ग) बाबू नवीन चन्द्र राय ने
(घ) पं० बद्री लाल ने
उत्तर:
(ग) बाबू नवीन चन्द्र राय ने

प्रश्न 5.
स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित ग्रन्थ है –
(क) सत्यामृत प्रवाह
(ख) आत्मचिकित्सा
(ग) धर्म रक्षा
(घ) सत्यार्थ प्रकाश
उत्तर:
(घ) सत्यार्थ प्रकाश

RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 15 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भाखा’ से क्या आशय है ?
उत्तर:
भाखा’ भाषा को कहा गया है। यहाँ इसका आशय संस्कृतनिष्ठ हिन्दी से है।

प्रश्न 2.
उर्दू के पक्षपाती हिन्दी के बारे में क्या कहते थे ?
उत्तर:
उर्दू के पक्षपाती लोग हिन्दी को ‘गॅवारी बोली’ ‘मुश्किल जबान’ आदि कहकर उसका विरोध करते थे।

प्रश्न 3.
राजा शिवप्रसाद कौन थे ?
उत्तर:
राजा शिवप्रसाद हिन्दी के स्वरूप निर्धारण में लगे शिक्षाविभाग के इंस्पैक्टर थे।

प्रश्न 4.
राजा शिव प्रसाद की स्वीकृत भाषा का रूप क्या था?
उत्तर:
राजा शिव प्रसाद ठेठ हिन्दी, जिसमें अरबी-फारसी के भी शब्द हों, के प्रयोग के पक्ष में थे।

प्रश्न 5.
राजा लक्ष्मण सिंह हिन्दी के किस रूप के पक्ष में थे ?
उत्तर:
राजा लक्ष्मण सिंह हिन्दी के संस्कृतनिष्ठ सरल स्वरूप के पक्षधर थे।

प्रश्न 6.
‘गुटका’ किसको कहते थे ?
उत्तर:
‘गुटका’ साहित्य के कोर्स की पुस्तक थी। छोटा आकार होने के कारण उसको ‘गुटका’ कहते थे।

प्रश्न 7.
राजा लक्ष्मण सिंह ने आगरा से कौन सा पत्र निकाला था ?
उत्तर:
राजा लक्ष्मण सिंह ने आगरा से संवत् 1918 में ‘प्रजाहितैषी’ नामक पत्र निकाला था।

प्रश्न 8.
‘न हम उस भाषा को हिन्दी कहते हैं जिसमें अरबी, फारसी के शब्द भरे हों-यह कथन किसका है ?
उत्तर:
यह कथन राजा लक्ष्मण सिंह का है।

प्रश्न 9.
फ्रेडरिक पिंकाट कौन थे ?
उत्तर:
फ्रेडरिक पिंकाट एक हिन्दी प्रेमी अंग्रेज विद्वान थे।

प्रश्न 10.
संवत् 1924 में प्रकाशित पहले गुटका में कौन-सी रचनाएँ संकलित थीं ?
उत्तर:
संवत् 1924 में प्रकाशित पहले ‘गुटका’ में ‘राजा भोज का सपना’, ‘रानी केतकी की कहानी’, शकुंतला नाटक का बहुत-सा अंश संकलित था।

प्रश्न 11.
अदालतों में उर्दू के प्रयोग के स्थान पर हिन्दी के जारी होने की माँग किसने उठाई थी ?
उत्तर:
अदालतों में उर्दू के स्थान पर हिन्दी को प्रयोग किए जाने की माँग बाबू नवीन चन्द्र राय ने उठाई थी।

प्रश्न 12.
‘गार्सा द तासी’ कौन था ?
उत्तर:
‘गार्सा द तासी’ एक हिन्दी विरोधी फ्रांसीसी व्यक्ति था।

प्रश्न 13.
महर्षि दयानन्द सरस्वती किस भाषा में प्रवचन करते थे ?
उत्तर:
स्वामी दयानन्द सरस्वती साधुओं द्वारा प्रयुक्त हिन्दी भाषा में प्रवचन करते थे।

प्रश्न 14.
‘आर्य समाज की स्थापना कब हुई थी ?
उत्तर:
आर्य समाज की स्थापना संवत् 1922 में हुई थी।

प्रश्न 15.
पं० श्रद्धाराम फुल्लौरी का कार्य क्षेत्र कौन-सा था?
उत्तर:
पं० श्रद्धाराम फुल्लौरी को कार्य क्षेत्र पंजाब था।

प्रश्न 16.
राजा लक्ष्मण सिंह के बाद हिन्दी गद्य को समृद्ध करने का श्रेय किसको जाता है ?
उत्तर:
राजा लक्ष्मण सिंह के बाद हिन्दी गद्य को समृद्ध करने का श्रेय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को जाता है।

RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 15 लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतेन्दु से पूर्व हिन्दी गद्य की भाषा कैसी थी ?
उत्तर:
भारतेन्दु से पूर्व हिन्दी गद्य की भाषा का स्वरूप स्थिर नहीं था। कुछ लोग हिन्दी में अरबी-फारसी भाषाओं के शब्द मिलाकर उसे देवनागरी में लिखी उर्दू बनाना चाहते थे तो दूसरा पक्ष संस्कृत को तत्सम शब्दों से युक्त हिन्दी का प्रयोग कर रहा था। कालान्तर में दूसरे पक्ष को ही मान्यता मिली और हिन्दी का स्वरूप स्थिर हो सका।

प्रश्न 2.
हिन्दी गद्य भाषा स्वरूप निर्धारण में किन दो राजाओं का योगदान है ?
उत्तर:
हिन्दी गद्य भाषा के स्वरूप निर्धारण में राजा शिव प्रसाद तथा राजा लक्ष्मण सिंह का योगदान है। राजा शिव प्रसाद अरबी-फारसी के शब्दों से भरी हुई हिन्दी के पक्षपाती थे किन्तु राजा लक्ष्मण सिंह हिन्दी को उसकी परम्परा से जोड़ने तथा संस्कृतनिष्ठ बनाने के समर्थक थे।

प्रश्न 3.
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी के स्वरूप के सम्बन्ध में क्या चेतावनी दी है ?
उत्तर:
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने चेतावनी दी है कि हिन्दी तथा अन्य देशी भाषाओं को संस्कृत से दूर करना और उसमें विदेशी भाषाओं के शब्दों को घुसाना स्वस्थ परम्परा नहीं है। संस्कृत की प्राकृतभाषा से ही अन्य देशी भाषाओं के समान हिन्दी उत्पन्न हुई है। उसमें संस्कृत के शब्दों का प्रयोग होना ही उचित है।

प्रश्न 4.
कुछ लोगों के मन में ‘भाषापन’ का डर बराबर समाया रहता था-शुक्ल जी के ऐसा कहने का क्या कारण
उत्तर:
शुक्ल जी बता रहे हैं कि राजा शिवप्रसाद शिक्षा विभाग के इंस्पैक्टर पद पर नियुक्त हुए तो अन्य विभागों की तरह शिक्षा विभाग के कर्मचारियों को यह भय लगने लगा कि कहीं उनको हिन्दी न सीखनी पड़े। उस समय तक सरकारी कार्यालयों में उर्दू में काम होता था। संस्कृत शब्दों से युक्त हिन्दी के प्रयोग को ‘ भाषापन’ कहा गया है।

प्रश्न 5.
राजा शिवप्रसाद अरबी-फारसी के शब्दों से युक्त हिन्दी को अपनाने के पक्षधर क्यों थे ?
उत्तर:
राजा शिव प्रसाद अरबी-फारसी के शब्दों से युक्त हिन्दी के अपनाने के पक्षपाती थे। उनका यह झुकाव निरन्तर बढ़ता ही गया। उसका कारण संभवत: यह था कि अधिकांश पढ़े-लिखे लोगों की प्रवृत्ति यही थी। अंग्रेज अधिकारियों का रुख भी ऐसा ही था। राजा साहब सरकारी नौकर थे। अत: बाद वाला कारण अधिक महत्त्वपूर्ण है।

प्रश्न 6.
किसी देश के साहित्य की भाषा का सम्बन्ध किससे होता है ?
उत्तर:
किसी देश के साहित्य की भाषा का सम्बन्ध उस देश की संस्कृति से होता है। साहित्य की भाषा उस संस्कृति को त्याग कर नहीं चल सकती। भाषा का शब्द ही नहीं उसका वर्णन विषय भी उसी संस्कृति के अनुरूप होता है।

प्रश्न 7.
‘असली हिन्दी’ से शुक्ल जी का क्या आशय है ?
उत्तर:
शुक्ल जी का मानना है कि शिव प्रसाद की हिन्दी बनावटी थी। वह विदेशी भाषा के शब्दों से बोझिल थी। इसी समय राजा लक्ष्मण सिंह ने हिन्दी का जो नमूना पेश किया, उसमें संस्कृत के पराम्परागत शब्दों का मेल था। वह सरल थी तथा भारतीय देशी भाषाओं के परिवार की थी। भारतीय संस्कृति से जुड़ी होने के कारण शुक्ल जी के अनुसार यही असली हिन्दी थी।

प्रश्न 8.
राजा लक्ष्मण सिंह ने भाषा के स्वरूप में क्या मत प्रकट किया है?
उत्तर:
राजा लक्ष्मण सिंह ने ‘रघुवंश’ के गद्यानुवाद के प्राक्कथन में लिखा है कि हिन्दी में संस्कृत के शब्द बहुत प्रयोग होते हैं तथा उर्दू में अरबी-फारसी के। यह जरूरी नहीं है कि अरबी-फारसी के शब्दों के बिना हिन्दी न बोली जा सके। जिस भाषा में अरबी-फारसी के शब्दों की भरमार हो उसको हम हिन्दी नहीं कहते हैं।

प्रश्न 9.
राजा लक्ष्मण सिंह ने हिन्दी के स्वरूप के निर्धारण के लिए क्या किया ?
उत्तर:
राजा लक्ष्मण सिंह ने हिन्दी के स्वरूप के निर्धारण के लिए निरन्तर काम किया। आपने आगरा से ‘प्रजाहितैषी’ नामक पत्र निकाला। संवत् 1919 में ‘अभिज्ञान शकुन्तला’ का अनुवाद बहुत ही सरल और शुद्ध हिन्दी में प्रस्तुत किया। आपने ‘रघुवंश’ का गद्यानुवाद भी किया। आपके प्रयासों से लोगों की आँखें खुलीं और उन्होंने हिन्दी के सही रूप को समझा।

प्रश्न 10.
इंग्लैंड के विद्वानों का भारत की स्वाभाविक भाषा के बारे में क्या मत था ?
उत्तर:
इंग्लैंड के अध्ययनशील और विवेकी पुरुष भारत की देशी भाषाओं का अध्ययन कर रहे थे। वे भारत की साहित्यिक परम्परा और भाषा की परम्परा से अपरिचित नहीं थे। वे जान गए थे उत्तर भारत की असली और स्वाभाविक भाषा का स्वरूप क्या हो ? उनके मत में यह रूप संस्कृत की परम्परा के अनुरूप ही हो सकता था।

प्रश्न 11.
फ्रेडरिक पिंकाट ने भारत की किन-किन भाषाओं का अध्ययन किया था ? भारत की स्वाभाविक भाषा उनके मत में कौन-सी थी ?
उत्तर:
पिंकाट साहब ने पहले संस्कृत का अध्ययन किया। इसके साथ ही आपने उर्दू तथा हिन्दी का भी अभ्यास किया। इन भाषाओं में आपको लिखने की योग्यता प्राप्त थी। आपने लेख लिखे तथा प्रकाशित भी किए। आप इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि संस्कृत की प्राकृत परम्परा से विकसित हुई हिन्दी ही भारत की स्वाभाविक भाषा है।

प्रश्न 12.
पंजाब में बाबू नवीनचन्द्र राय के हिन्दी के लिए किए गए कार्य का परिचय दीजिए।
उत्तर:
संवत् 1920 से 1937 तक नवीनचन्द्र राय ने हिन्दी में पुस्तकें लिखीं। ये पुस्तकें वहाँ के कोर्स में भी रहीं। आपने ‘ज्ञानदायिनी’ पत्रिका निकाली। इसमें शिक्षा सम्बन्धी तथा ज्ञान-विज्ञान पूर्ण लेख रहते थे। इनका गद्य शुद्ध हिन्दी गद्य था। वह उर्दू के झमेले से दूर ही रहे।

प्रश्न 13.
आर्य समाज की स्थापना किसने की ? आर्य समाज का हिन्दी के विकास में क्या योग है ?
उत्तर:
आर्य समाज की स्थापना संवत् 1922 में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने की थी। आर्य समाज के अनुयायियों को हिन्दी जानना आवश्यक था। स्वामी जी हिन्दी को आर्य भाषा कहते थे। आर्य समाज के उपदेशक हिन्दी में ही प्रवचन करते थे। संयुक्त प्रान्त के पश्चिमी प्रदेश तथा पंजाब में हिन्दी के प्रसार-प्रचार में आर्य समाज का बड़ा योग रही है।

प्रश्न 14.
पं० श्रद्धाराम फुल्लौरी की रचनाओं पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
पं० श्रद्धाराम फुल्लौरी ने गद्य तथा पद्य में रचनायें की थीं। आपने आत्मचिकित्सा, तत्वदीपक, धर्मरक्षा, उपदेश संग्रह, शतोपदेश इत्यादि पुस्तकों की रचना की थी। आपने अपना एक बड़ा जीवन चरित्र लिखा था, जो कहीं खो गया था। संवत् 1934 में आपने ‘भाग्यवती’ नामक एक सामाजिक उपन्यास भी लिखा था।

प्रश्न 15.
लेटिन और यूनानी भाषाओं के योरोप की देशी भाषाओं से सम्बन्ध तथा संस्कृत और भारत की देशी भाषाओं से सम्बन्ध में क्या समानता है?
उत्तर:
लेटिन और यूनानी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग योरोप की देशी भाषाओं के साहित्य में होता है। उस प्रकार भारत की देशी भाषाओं में अपनी मौलिक भाषा संस्कृत की सभी आर्यभाषाएँ संस्कृत के प्राकृत रूप से निकली और विकसित हुई हैं। अत: उनके शब्द-भण्डार में संस्कृत के शब्दों का प्रयोग होता है। शब्द उसी प्रकार पाए जाते हैं जिस प्रकार योरोप की भाषाओं के साहित्यिक भण्डार में यूनानी तथा लेटिन भाषा के शब्द मिलते हैं।

RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 15 निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतेन्दु पूर्व हिन्दी गद्य की भाषा की स्थिति कैसी थी ? विचारपूर्ण टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
भारतेन्दु पूर्व हिन्दी गद्य की भाषा की स्थिति स्पष्ट नहीं थी। पहले देवनागरी लिपि में लिखी हुई उर्दू को ही हिन्दी मान लिया गया था। हिन्दी के प्रयोग का विरोध होता था तथा लोग उससे डरते भी थे। जब राजा शिवप्रसाद शिक्षा विभाग में इंस्पैक्टर पद पर नियुक्त हुए तो अन्य विभागों की तरह शिक्षा विभाग में भी भय व्याप्त था कि हिन्दी सीखनी पड़ेगी, वे संस्कृत शब्दों वाली हिन्दी को ‘मुश्किल जबान’ कहते थे। उनका कहना था कि जब एक भाषा प्रचलित है तो दूसरी की जरूरत क्या है। वे हिन्दी का विरोध करते थे और उसको गॅवारी बोली कहते थे। राजा शिव प्रसाद ने हिन्दी का स्वरूप स्थिर करने की कोशिश की, वह चाहते थे किं ठेठ हिन्दी में दो-चार अरबी-फारसी के प्रचलित शब्दों को सम्मिलित करके उसका रूप निर्मित किया जाय।

वह संस्कृत शब्दों के हिन्दी में प्रयोग के विरुद्ध थे। वह आमफहम’ और ‘खासपसंद’ शब्दों के प्रयोग के पक्षपाती थे। राजा शिव प्रसाद के पश्चात् राजा लक्ष्मण सिंह का आगमन हुआ। राजा लक्ष्मण सिंह उनके हिन्दी के स्वरूप-सम्बन्धी विचारों से असहमत थे। उनका मानना था कि अरबी-फारसी के शब्दों का प्रयोग हिन्दी की प्रकृति और परम्परा के विरुद्ध है। इससे उसका रूप बनावटी हो जायेगा। हिन्दी संस्कृत की धारा से निकली है। ऐसी स्थिति में हिन्दी में संस्कृत के प्रचलित शब्दों का प्रयोग किया जाना ही अभीष्ट है। अपने विचारों को सार्थक रूप देने लिए राजा लक्ष्मण सिंह ने कालिदास के शकुन्तला नाटक का अनुवाद हिन्दी में प्रस्तुत किया। कालान्तर में राजा लक्ष्मण सिंह के मत को ही मान्यता मिली तथा संस्कृत के शब्दों वाली हिन्दी ही वास्तविक भाषा मानी गई। राजा लक्ष्मण सिंह के मार्गदर्शन के पश्चात् ही हिन्दी का रूप कुछ-कुछ बनाया गया था। उसके पश्चात् ही हिंदी गद्य के क्षेत्र में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का उदय हुआ।

प्रश्न 2.
राजा शिवप्रसाद तथा राजा लक्ष्मण सिंह के हिन्दी के स्वरूप के सम्बन्ध में विचारों में क्या अन्तर है ?
उत्तर:
भारतेन्दु जी से पूर्व हिन्दी के स्वरूप के सम्बन्ध में पर्याप्त मतभेद तथा खींचतान चलती रही थी। उस समय देवनागरी लिपि में लिखी उर्दू को ही हिन्दी समझा जाता था। लोग उर्दू जानते थे तथा उसी का प्रयोग करते थे, वे हिन्दी के विरोध में थे। ऐसे समय में राजा शिव प्रसाद शिक्षा विभाग में इंस्पैक्टर पद पर नियुक्त हुए। उर्दू के समर्थक हिन्दी नहीं चाहते थे। अत: राजा शिव प्रसाद ने ठेठ हिन्दी के ऐसे रूप का पक्ष लिया जिसमें कुछ अरबी तथा फारसी के शब्द भी हों ।

राजा शिव प्रसाद ने भाषा के स्वरूप के विषय में कहा है-हम लोगों का जहाँ तक बन पड़े चुनने में उन शब्दों को लेना चाहिए कि जो आमफहम और ख़ासपसंद हों अर्थात जिनको ज्यादा (अधिक) आदमी समझ सकते हैं और जो यहाँ के पढ़े-लिखे, आलिमफाजिल पंडित विद्वान की बोलचाल भाषा में छोड़े नहीं गए हैं हम लोगों को हर्गिज गैर मुल्क के शब्द काम में न लाने चाहिए और न संस्कृत की टकसाल कायम कर नए-नए ऊपरी शब्दों के सिक्के जारी करने चाहिए। इससे स्पष्ट है कि उनका झुकाव अरबी-फारसी शब्दों वाली हिन्दी की ओर था जो उत्तरोतर बढ़ता गया था। राजा लक्ष्मण सिंह हिन्दी के संस्कृत शब्दों से युक्त सरल भाषा वाले रूप के पक्षधर थे। अरबी-फारसी के शब्दों वाली भाषा को हिन्दी मानने को वह तैयार नहीं थे।

‘रघुवंश’ के गद्यानुवाद के प्राक्कथन में आपने लिखा है-“हिन्दी में संस्कृत के पद बहुत आते हैं, उर्दू में अरबी-फारसी के। परंतु कुछ अवश्य नहीं है कि अरबी-फारसी के शब्दों के बिना हिन्दी न बोली जाय और न हम उस भाषा को हिन्दी कहते हैं जिसमें अरबी, फारसी के शब्द भरे हों।” राजा लक्ष्मण सिंह ने अपने शकुन्तला नाटक के अनुवाद में ‘रघुवश’ के प्राक्कथन, लेख आदि में संस्कृतनिष्ठ सरल हिन्दी का ही प्रयोग किया है। इस प्रकार राजा शिव प्रसाद तथा राजा लक्ष्मण सिंह के हिन्दी स्वरूप सम्बन्धी विचारों में मौलिक मतभेद है।

प्रश्न 3.
पंजाब में हिन्दी के प्रचार और प्रसार में किनका योग रहा है ?
उत्तर:
पंजाब बोली में लिखित साहित्य नहीं था। पंजाब का सम्पर्क मुसलमानों से ज्यादा रहा था। अत: वहाँ की लिखने-पढ़ने। की भाषा उर्दू की थी। पंजाब में हिन्दी के प्रचार-प्रसार का श्रेय तीन लोगों को जाता है। पंजाब में हिन्दी का प्रचार करने वालों में बाबू नवीन चन्द्र राय का नाम उल्लेखनीय है। संवत् 1920 और 1937 के बीच आपने भिन्न-भिन्न विषयों की अनेक पुस्तकें तैयार की। ये हिन्दी में थीं। ये पुस्तकें बहुत दिनों तक पढ़ाई के कोर्स में रहीं। उनकी संवत् 1924 में निकाली गई पत्रिका ‘ज्ञानदायिनी’ में शिक्षा सम्बन्धी तथा ज्ञान विज्ञान विषयक लेख होते थे। शिक्षा विभाग द्वारा हिन्दी गद्य के जिस रूपक प्रचार में ये सहायक हुए वह शुद्ध हिन्दी गद्य था।

पंजाब में हिन्दी गद्य के प्रचार-प्रसार में योगदान करने वाले दूसरे विद्वान् हैं पंडित श्रद्धाराम फुल्लौरी। आप अत्यन्त प्रतिभाशाली थे। पंजाब के विभिन्न स्थानों पर घूम-घूम कर आप रामायण तथा महाभारत की कथाएँ सुनाते थे तथा प्रवचन करते थे। उनके प्रवचन सुनने दूर-दूर से लोग आते थे तथा भारी भीड़ एकत्र होती थी। आपकी वाणी आकर्षक और भाषा जोरदार होती थी। आपने स्थान-स्थान पर धर्म सभाएँ स्थापित की थीं। आपने अनेक पुस्तकें लिखी थीं, जिनमें अ-कांश हिन्दी में लिखी गई थीं। अपका सिद्धान्त ग्रन्थ “सत्यामृत प्रवाह” प्रौढ़ हिन्दी में लिखा गया था। वह जीवनभर हिन्दी के प्रचार में लगे रहे।

पंजाब में हिन्दी को जन-जन तक पहुँचाने का श्रेय स्वामी दयानन्द सरस्वती तथा उनके आर्य समाज को भी जाता है। स्वामी जी संवत् 1920 से ही घूमकर वैदिक धर्म का प्रचार कर रहे थे। आपके उपदेशों की भाषा आर्यभाषा अर्थात् हिन्दी थी। आपने अपना ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नामक ग्रन्थ हिन्दी में लिखा था। संवत् 1922 में आपने आर्य समाज की स्थापना की। इसके अनुयायियों को आर्य भाषा अर्थात् हिन्दी सीखना अनिवार्य था। आर्य समाज के अनेक प्रचारक भी हिन्दी में ही अपने प्रवचन देते थे। इस तरह स्वामी जी ने हिन्दी को पंजाब के जन-जन तक पहुँचाया तथा लोकप्रिय बनाया।

लेखक-परिचय

जीवन-परिचय-

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जन्म सन् 1884 में उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के अगौना गाँव में हुआ था। आपके पिता का नाम पं० चन्द्रबलि शुक्ल था। आपने एण्ट्रेस परीक्षा उत्तीर्ण की। फिर एफ० ए० (इण्टर) तक अध्ययन किया। स्वाभिमानी होने के कारण सरकारी नौकरी से दूर रहे। मिर्जापुर के मिशन स्कूल में ड्राइंग मास्टर हो गए। अध्ययनशील स्वभाव होने के कारण आपने खूब ज्ञानार्जन किया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में मालवीय जी ने आपको हिन्दी प्राध्यापक नियुक्त किया। श्याम सुन्दर दास की सेवामुक्ति के पश्चात् आप विभागाध्यक्ष बन गए। इसी पद पर रहते हुए सन् 1941 में आपने इस संसार से विदा ले ली।

साहित्यिक परिचय-आचार्य शुक्ल हिन्दी गद्य को जीवन देने वाले हैं। गद्यकार होने के साथ ही आप कवि भी हैं। आपकी रचनाएँ ‘ आनन्द कादम्बिनी’ ‘सरस्वती’ आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित होती थीं। शुक्ल जी ने हिन्दी का प्रथम वैज्ञानिक तथा प्रमाणिक इतिहास लिखा। आपके द्वारा लिखे मनोविकारों पर आधारित निबन्ध हिन्दी साहित्य की अमूल्यनिधि हैं।

आपने हिन्दी समालोचना को नवीन दिशा प्रदान की है। प्राचीन साहित्यिक कृतियों, शब्दकोश तथा पत्रिकाओं के सम्पादन में भी आपने योग दिया है। कविता, कहानी, नाटक, अनुवाद आदि क्षेत्रों में भी आपने कार्य किया है किन्तु निबन्ध, साहित्येतिहास लेखन तथा समालोचना आपकी विशेष उपलब्धियों के क्षेत्र हैं। शुक्ल जी की भाषा संस्कृतनिष्ठ, परिष्कृत, शुद्ध और साहित्यिक है। आपने वर्णनात्मक, समीक्षात्मक, गवेषणात्मक तथा हास्य-व्यंग्यात्मक शैलियों का प्रयोग किया है।

कृतियाँ-शुक्ल जी की रचनाएँ निन्नलिखित हैं

  1. कविता-‘अभिमन्यु वध’
  2. कंहानी-ग्यारह वर्ष का समय।
  3. अनुवाद-बुद्ध चरित, आदर्श जीवन, विश्व प्रपंच, मैगस्थनीज का भारतवर्षीय विवरण आदि।
  4. इतिहास-हिन्दी साहित्य का इतिहास।
  5. समालोचना-त्रिवेणी (सूर, तुलसी और जायसी की विस्तृत समीक्षाएँ), सूरदास, रस मीमांसा॥
  6. निबन्ध-चिन्तामणि (दो भाग)।
  7. सम्पादन-तुलसी ग्रन्थावली, जायसी ग्रन्थावली, हिन्दी शब्द सागरे, नागरी प्रचारिणी सभा पत्रिका।

आपकी चिन्तामणि’ को मंगला प्रसाद पारितोषिक तथा हिन्दी साहित्य का इतिहास को हिन्दुस्तानी ऐकेडमी’ पुरस्कार प्राप्त हो। चुके हैं।

पाठ-सार

गद्य साहित्य का आविर्भाव’ आचार्य रामचन्द्र शुल्क द्वारा रचित हिन्दी साहित्य का इतिहास के आधुनिक काल (सन् 1900 से 1970) के द्वितीय प्रकरण ‘गद्य साहित्य का आविर्भाव’ से लिया गया है। हिन्दी के स्वरूप निर्धारण की समस्या थी। हिन्दी के नाम से नागरी अक्षरों में उर्दू लिखी जाने लगी थी। राजा शिव प्रसाद शिक्षा विभाग में इंसपैक्टर पद पर नियुक्त हुए। उस समय लोग संस्कृत से प्रभावित हिन्दी की पढ़ाई नहीं करना चाहते थे। वे उर्दू के पक्ष में थे। हिन्दी को नँवारी बोली कहते थे। राजा शिव प्रसाद ने निश्चय किया ठेठ हिन्दी का प्रयोग किया जाय जिसमें कुछ शब्द अरबी-फारसी के भी हों। उन्होंने अपने मित्रों के सहारे कोर्स की पुस्तकें तैयार कराईं संवत् 1917 के बाद उनका झुकाव उर्दू की ओर होने लगा जो उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया। इसके बाद की उनकी लिखी पुस्तकों की भाषा उर्दूपन लिए हुए थी। उनके द्वारा निर्धारित स्वरूप वाली भाषा सामान्य जनों की समझ से बाहर थी।’

किसी देश का साहित्य उस देश की संस्कृति से प्रभावित रहता है। उसी से भाषा में रोचकता आती है। भाषा ही नहीं विषयवस्तु भी। उस देश की संस्कृति से प्रभावित होती है। संस्कृत के शब्दों के संयोग से बना भाषा का जो रूप हजारों वर्षों से चला आ रहा है उसको

छोड़कर किसी विदेशी भाषा को गले लगाना देश की प्रकृति के विरुद्ध था तब से भाषा का एक-सा रूप लेकर राजा लक्ष्मण सिंह आए। 1919 में उनका’ अभिज्ञान शाकुंतलम्’ का अनुवाद प्रकाशित हुआ। इसकी भाषा सरल और विशुद्ध हिन्दी थी। इसमें संस्कृत के सरस शब्दों का प्रयोग भी हुआ था। ‘रघुवंश’ के गद्यानुवाद के प्राक्कथन में राजा लक्ष्मण सिंह ने अरबी-फारसी के शब्दों से भरी हुई भाषा को हिन्दी मानने से इन्कार कर दिया।

भारत की देशी भाषाओं के अध्ययन की ओर इंग्लैंड के लोगों का ध्यान भी गया था। अँग्रेज विद्वान् फ्रेडरिक पिंकाट संस्कृत, हिन्दी और उर्दू के ज्ञाता थे। वे हिन्दी को अरबी-फारसी के शब्दों से बनावटी बनाने के स्थान पर संस्कृत के शब्दों से मंडित करने के पक्ष में। थे। उनका राजा लक्ष्मण सिंह, भारतेन्दु, प्रतापनारायण मिश्र आदि से पत्र व्यवहार भी होता था। उनका देहान्त भारत में सन् 1896 को हुआ था। राजा लक्ष्मण सिंह के शकुन्तला नाटक की भाषा को देखकर वह बहुत प्रसन्न हुए थे। शिवप्रसाद के ‘गुटका’ की भाषा आदर्श हिन्दी ही थी। उस समय प्रकाशित होने वाले ‘प्रजाहितैषी’, ‘लोक चित्र’ इत्यादि समाचार-पत्रों को भाषा भी शुद्ध हिन्दी होती थी।

संयुक्त प्रान्त में राजा शिव प्रसाद हिन्दी के लिए काम कर रहे थे। पंजाब में बाबू नवीन चन्द्र राय ने सन् 1920 और 1937 के बीच भिन्न-भिन्न विषयों की पुस्तकें हिन्दी में तैयार कराई थीं। ब्रह्म समाज के सिद्धान्तों के प्रचार के लिए उन्होंने कई पत्रिकाएँ निकाली थीं। वह हिन्दी को उर्दू के झमेले से सदा बचाते रहे। इलाहाबाद इंस्टीट्यूट के अधिवेशन में सन् 1925 में विवाद हुआ कि देशी जबान, हिन्दी है या उर्दू ? हिन्दी का पक्ष लेने वालों का विरोध गार्सा द तासी ने किया था। एक बार तासी ने हिन्दी को ‘भद्दी बोली’ कहा था।
शिक्षा के आंदोलन के साथ देश के पश्चिमी भाग में मतमतान्तर सम्बन्धी आंदोलन भी चल रहा था। स्वामी दयानन्द सरस्वती हिन्दी में वैदिक मत का प्रचार कर रहे थे। उन्होंने अपना ‘सत्यार्थ प्रकाश’ हिन्दी में लिखा था। आर्य समाज की स्थापना के साथ हिन्दी का विकास भी हुआ। वे हिन्दी को आर्य भाषा कहते थे। पंजाब में हिन्दी के प्रचार का श्रेय आर्य समाज को ही है।

पंडित श्रद्धाराम फुल्लौरी प्रतिभाशाली विद्वान थे। उनकी कथाओं और व्याख्यानों की पंजाब में धूम थी। रामायण, महाभारत आदि पर आधारित उनके उपदेश सुनने हजारों लोग आते थे। आपका ‘सत्यामृत प्रवाह’ प्रौढ़ भाषा में लिखा ग्रन्थ है। हिन्दी गद्य तथा हिन्दी के लिए उन्होंने बहुत काम किया था। उन्होंने ‘तत्त्वदीपक’, ‘धर्मरक्षा’, ‘उपदेशसंग्रह’, ‘शतोपदेश’ आदि ग्रन्थ लिखे थे।’ भाग्यवती’ आपका उपन्यास है।

राजा शिव प्रसाद ‘आमफहम’ और ‘खासपसंद’ भाषा की बातें ही करते रहे लेकिन तब तक हिंदी ने अपना स्वरूप निर्धारित कर लिया था। धार्मिक और सामाजिक आंदोलनों से इसमें बड़ी सहायता मिली। हिन्दी की दिशा तय हो चुकी थी। संस्कृत पदावली भारतीय भाषाओं में सदा प्रयुक्त हुई है तब हिन्दी गद्य की भाषा उसको त्याग कर विदेशी भाषाओं के शब्द ग्रहण नहीं कर सकती थी। कुछ अंग्रेज। संस्कृत गर्भित हिन्दी का मजाक उड़ाते थे परन्तु आर्य भाषाओं के संस्कृत के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध का ज्ञान उनको नहीं था।

राजा लक्ष्मण सिंह के समय से ही हिन्दी-गद्य की भाषा को स्वरूप स्थिर हो चुका था। उसको व्यवस्थित और परिमार्जित करने का काम बाकी था। ऐसे साहित्यकारों की आवश्यकता थी जो शिक्षित जनता की रुचि के अनुकूल साहित्य रचते। ऐसे ही अवसर पर हिन्दी में भारतेन्दु का उदय हुआ।

शब्दार्थ-

(पृष्ठसं. 88,87)-
नागरी = देवनागरी लिपि। भाखा = भाषा, संस्कृत भाषा। जबान भाषा। पाठ्यक्रम= पढ़ाई में प्रयुक्त लेख, कविताएँ आदि। आँवारी = असभ्यों की भाषा। गुटका = छोटे आकार की पुस्तक। ठेठ = शुद्ध। रुख = दिश। पक्षपाती = पक्ष मानने वाले। निरूपण = अभिव्यक्ति। आमफहम = सामान्य लोगों में प्रचलित। गैरमुल्क = पराया देश। टकसाल = सिक्के ढालने का स्थान। साबित = प्रमाणित।

(पृष्ठ सं. 88)-
कविताई = कविता लिखना। इल्म = कला-फैशन। प्रतिपादन = स्थापना। परम्परा = पुराने समय से चली आ रही बातें। रोचकता = आकर्षण। प्रकृति = स्वभाव। प्रकृति विरुद्ध = अस्वाभाविक। भूषण = शोभा। गति = शरीर। रसिक = सरस, रसीले, मधुर। प्राक्कथन = भूमिका। विवेकी = बुद्धिमान। अभिज्ञ = परिचित।

(पृष्ठसं. 89)-
उद्योग = प्रयास। प्राकृत = प्रकृति के अनुकूल। हितसाधना = हित की रक्षा करना। ग्रंथकार = पुस्तकों के लेखक।

(पृष्ठसं. 90)-
संवाद = बातचीत। झमेला = झंझट। अधिवेशन = बैठक, सम्मेलन। वक्ता = भाषण देने वाला। जारी होना = प्रचलित होना। उपहास = हँसी, मजाक। जिक्र = उल्लेख। मतमतान्तर = धर्म, धार्मिक विचार। वैदिक = वेदों से सम्बन्धिते। एकेश्वरवाद = एक ही ईश्वर होने का विचार। व्याख्यान = भाषण।

(पृष्ठसं. 91)-
भाष्य = टीका। अनुयायी = मानने वाले। संयुक्त प्रान्त = वर्तमान उत्तर प्रदेश। बदौलत = कारण। विलक्षण = अपूर्व, अनुपम। संशय = संदेह। समाधान = शोधन, हल। वर्णाश्रम धर्म = चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र पर आधारित व्यवस्था। वक्तृताएँ = भाषण। उपदेशंक = उपदेश देने वाला। प्रौढ़ =परिष्कृत। अभिप्राय = भाव। खटकना = अप्रिय लगना। नास्तिक = ईश्वर को न मानने वाला। हितैषी = भला चाहने वाला। सिद्धहस्त = कुशल॥

(पृष्ठ सं. 92)-
काल = समय। चिरकाल = बहुत पहले से। पदावली = शब्द समूह। संबंध सूत्र = जोड़ने वाला धागा। अजनबी = अनजान। मूल = जड़े, उत्पत्ति का स्थान। घनिष्ठ = गहरा। उत्तराधिकार = पूर्वजों से प्राप्त वस्तु। संचित = एकत्रित। विच्छिन्न = अलग। परिमार्जित = शुद्ध। विधान = निर्माण। भारतेन्दु = भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, हिन्दी के एक प्रसिद्ध गद्यकार।

महत्त्वपूर्ण गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्याएँ।

1. किस प्रकार हिंदी के नाम से नागरी अक्षरों में उर्दू ही लिखी जाने लगी थी, इसकी चर्चा ‘बनारस अखबार के संबंध में कर आए हैं। संवत् 1913 में अर्थात् बलवे के एक वर्ष पहले राजा शिवप्रसाद शिक्षाविभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। उस समय और दूसरे विभागों के समान शिक्षाविभाग में भी कुछ लोगों के मन में ‘भाषापन’ को डर बराबर समाया रहता था। वे इस बात से डरा करते थे कि कहीं नौकरी के लिये भाखा’ संस्कृत से लगाव रखने वाली ‘हिंदी’ न सीखनी पड़े। अतः उन्होंने पहले तो उर्दू के अतिरिक्त हिंदी की पढ़ाई की व्यवस्था का घोर विरोध किया। उनका कहना था कि जब अदालती कामों में उर्दू ही काम में लाई जाती है तब एक और जबान का बोझ डालने से क्या लाभ ? ‘भाखा’ में हिंदुओं की कथावार्ता आदि कहते-सुनते हिंदी को ‘गॅवारी’ बोली भी कहा करते थे। इस परिस्थिति में राजा शिवप्रसाद को हिंदी की रक्षा के लिये बड़ी मुश्किल का सामना करना पड़ा। हिंदी का सवाल जब आता तब कुछ लोग उसे मुश्किल जबान’ कहकर विरोध करते।

(पृष्ठसं. 86)
सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में संकलित ‘गद्य साहित्य का आविर्भाव’ शीर्षक पाठ से अवतरित है। इसके रचयिता आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हैं।

आचार्य शुक्ल बता रहे हैं कि हिन्दी गद्य की भाषा के बनने के समय स्थिति अत्यन्त संघर्षपूर्ण थी। आरम्भ में देवनागरी लिपि में लिखी हुई उर्दू को ही हिन्दी कहा जा रहा था। उस समय संस्कृत से प्रभावित और प्रेरणा लेने वाली हिन्दी को राँवारी भाषा कहा जाता था॥

व्याख्या-शुक्ल जी कहते हैं कि ‘बनारस अखबार’ के सम्बन्ध में यह बातें कही जा चुकी हैं कि किस तरह देवनागरी लिपि में लिखी हुई उर्दू को ही हिन्दी कहा जा रहा था। संवत् 1913 से एक साल अर्थत् बलवा होने से पहले राजा शिवप्रसाद शिक्षा विभाग में इंस्पेक्टर नियुक्त हो चुके थे। जिस प्रकार अन्य विभागों में भाषापन अर्थात् संस्कृत शब्दों से युक्त हिन्दी का डर व्याप्त था, उसी प्रकार की स्थिति शिक्षा विभाग में भी थी। लोगों को भय था कि नौकरी के लिए संस्कृत शब्दों वाली हिन्दी न सीखनी पड़े। संस्कृत मुक्त हिन्दी को तब ‘भाखा’ कहा जाता था। अत: लोग विरोध कह रहे थे कि उर्दू के अतिरिक्त हिन्दी का प्रयोग किया ही न जाय। जब न्यायालयों का काम उर्दू में अच्छी तरह चलता है तो अन्य विभागों के कर्मचारियों को एक और भाषा अर्थात् हिन्दी सीखने की जरूरत ही क्या है ? यह तो उन लोगों पर अनावश्यक भार डालना है। भाखा अर्थात् हिन्दी में हिन्दुओं की कथा-वार्ताएँ कही-सुनी जाती थीं। इस बोली को लोग गॅवारी अर्थात् अनपढ़ लोगों की भाषा कहते थे। इन परिस्थितियों में हिन्दी के स्वरूप निर्धारण में राजा शिवप्रसाद को बहुत कठिनाई हुई। जब भी हिंदी के प्रयोग की बात चलती तो लोग कहते कि यह एक ‘मुश्किल जबान’ है और इसका विरोध किया जाता।

विशेष-
(i) हिन्दी के जन्म के समय की परिस्थिति का गम्भीरतापूर्ण विवेचन किया गया है।
(ii) आचार्य जी की भाषा सरल तथा विषयानुरूप है।
(iii) शैली वर्णनात्मक है।

2. किसी देश के साहित्य का संबंध उस देश की संस्कृति परंपरा से होता है। अतः साहित्य की भाषा उस संस्कृति का त्याग करके नहीं चल सकती। भाषा में जो रोचकता या शब्दों में जो सौंदर्य का भाव रहता है वह देश की प्रकृति के अनुसार होता है। इस प्रकृति के निर्माण में जिस प्रकार देश के प्राकृतिक रूप-रंग, आचार-व्यवहार आदि का योग रहता है उसी प्रकार परंपरा से चले आते हुए साहित्य का भी। संस्कृत शब्दों में थोड़े बहुत मेल से भाषा का जो रुचिकर रूप हजारों वर्षों से चला आता था उसके स्थान पर एक विदेशी रूपरंग की भाषा गले में उतारना देश की प्रकृति के विरुद्ध था।

(पृष्ठ सं. 88)
सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में संकलित गद्य साहित्य का आविर्भाव’ शीर्षक पाठ से अवतरित है। इसके रचयिता आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हैं। . राजा शिव प्रसाद ने भाषा सम्बन्धी सिद्धान्त निश्चित करते समय उन शब्दों का प्रयोग करने की बात कही है जो सामान्य लोगों के बीच प्रचलित हों तथा उनका अर्थ समझते हों। अपने लेख में राजा साहब ने ‘आमफहम’ ‘खासपसंद’ ‘इल्मी जरूरत’ आदि शब्द प्रयोग किए हैं। शुक्ल जी कहते हैं कि ये शब्द जनता की भाषा के तो नहीं हैं न ये हिन्दी की जन्म की परम्परा से ही सम्बन्धित हैं।

व्याख्या-शुक्ल जी हिन्दी में अरबी-फारसी के शब्दों के बाहुल्य के विरोधी हैं। हर देश का साहित्य उसकी परम्पराओं और संस्कृति से सम्बन्धित होती है। भाषा की सुरुचिपूर्णता और शब्दों का सौन्दर्य उस देश की प्रकृति के अनुरूप होता है। भाषा की यह प्रवृत्ति देश के स्वरूप, प्राकृतिक सौन्दर्य आदि के अनुसार ही निर्मित होती है। इसमें उस देश के आचार-व्यवहार का भी योगदान होता है। साथ ही जो साहित्य परम्परा से चला आ रहा है, वह भी भाषा के निर्माण में सहायता करता है। इन बातों को छोड़कर किसी विदेशी भाषा से शब्द लेकर जातीय भाषा का स्वरूप निश्चित नहीं हो सकता। संस्कृत शब्दों के थोड़े-से मेल से भाषा का जो लोकप्रिय स्वरूप वर्षों से चला आ रहा था, उसके स्थान पर विदेशी भाषा के शब्दों से युक्त भाषा को अपनाना अस्वाभाविक प्रक्रिया थी।

विशेष-
(i) आचार्य शुक्ल ने राजा शिवप्रसाद के भाषा-सिद्धान्त का तर्कपूर्ण खण्डन प्रस्तुत किया है।
(ii) भाषा तत्सम शब्दावली युक्त, साहित्यिक तथा प्रभावपूर्ण है।
(iii) शैली विचार-विवेचनात्मक है।

3. संस्कृति की चर्चा पिंकाट साहब लड़कपन से ही सुनते आते थे, इससे उन्होंने बहुत परिश्रम के साथ उसका अध्ययन किया। इसके उपरांत उन्होंने हिंदी और उर्दू का अभ्यास किया। इंगलैंड में बैठे उन्होंने इन दोनों भाषाओं पर ऐसा अधिकार प्राप्त कर लिया कि इनमें लेख और पुस्तकें लिखने और अपने प्रेस में छापने लगे। यद्यपि उन्होंने उर्दू का भी अच्छा अभ्यास किया था, पर उन्हें इस बात का अच्छी तरह निश्चय हो गया था कि यहाँ की परंपरागत प्राकृत भाषा हिंदी है, अतः जीवनभर ये उसी की सेवा और हितसाधना में तत्पर रहे।
(पृष्ठ सं. 89) सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में संकलित ‘गद्य साहित्य का आविर्भाव’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है। इसके रचयिता आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हैं।
हिन्दी गद्य की भाषा के स्वरूप के सम्बन्ध में भारत में दो परस्पर विरोधी मत चल रहे थे। इंगलैंड के कुछ विद्वानों का ध्यान भी इस ओर गया था। इनमें एक थे-फ्रेडरिक पिंकोट। पिंकाटे भारतीय देशी भाषाओं के ज्ञाता थे।

व्याख्या-शुक्ल जी कहते हैं कि पिंकाट महोदय अपने लड़कपन से ही जानले थे कि भारत की प्राचीन भाषा संस्कृत है। इस कारण उन्होंने परिश्रमपूर्वक संस्कृत भाषा का अध्ययन किया था। इसके बाद उन्होंने हिन्दी और उर्दू भी सीखी। इंग्लैंड में रहते हुए ही उन्होंने इन दोनों भाषाओं का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। वे इतने समर्थ हो गए थे कि इन भाषाओं में लेख और पुस्तकें लिखते थे और छापते थे। उन्होंने उर्दू भी सीखी थी परन्तु वह भलीभाँति जानते थे कि उर्दू भारत की परम्परगत भाषा नहीं है। परम्परा और प्रकृति से हिन्दी ही भारत की भाषा है। अत: वह अपने पूरे जीवन हिन्दी की सेवा करने और उसका हित करने के काम से संलग्न रहे।

विशेष-
(i) आचार्य शुक्ल ने फ्रेडरिक पिंकाट के हिन्दी प्रेम का परिचय दिया है।
(ii) पिंकाट हिन्दी को ही भारत की प्रकृति के अनुकूल भाषा मानते थे।
(iii) भाषा प्रवाहपूर्ण, साहित्यिक तथा विषयानुकूल है।
(iv) शैली वर्णनात्मक है।

4. शिक्षा के आंदोलन के साथ ही साथ मत-मतांतर संबंधी आंदोलन देश.के पश्चिमी भागों में भी चल पड़े। इसी के साथ दयानंद सरस्वती वैदिक एकेश्वरवाद लेकर खड़े हुए। संवत् 1920 से उन्होंने अनेक नगरों में घूम-घूम कर व्याख्यान देना आरंभ किया। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये व्याख्यान देश में बहुत दूर-दूर प्रचलित साधु हिंदी भाषा में ही होते थे। स्वामीजी ने अपना ‘सत्यार्थ प्रकाश’ तो हिंदी या आर्यभाषा में प्रकाशित भी किया, वेदों के भाष्य भी संस्कृत और हिंदी दोनों में किए। स्वामी जी के अनुयायी हिंदी को ‘आर्यभाषा’ कहते थे। स्वामीजी ने संवत् 1922 में ‘आर्यसमाज’ की स्थापना की और सब आर्यसमाजियों के लिये हिंदी या आर्यभाषा को पढ़ना आवश्यक ठहराया।

(पृष्ठ सं. 90, 91)
सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में संकलित गद्य साहित्य का आविर्भाव’ शीर्षक पाठ से लिया गया है। इसके रचयिता आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हैं।
आचार्य शुक्ल हिन्दी के स्वरूप निर्धारण में विभिन्न महापुरुषों तथा संस्थाओं के योगदान की चर्चा कर रहे हैं। आचार्य जी बता रहे हैं कि स्वामी दयानन्द सरस्वती तथा उनके आर्यसमाज ने इस सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है।

व्याख्या- हिन्दी प्रदेश में शिक्षा विभाग में हिन्दी के स्वरूप के सम्बन्ध में आन्दोलन तो चल ही रहा था, साथ ही देश के पश्चिमी भाग में अनेक मते अपने प्रचार के लिए कार्य कर रहे थे। इनमें ही से एक थे स्वामी दयानन्द सरस्वती। स्वामी जी वेदों के एकेश्वरवाद का प्रचार कर रहे थे। संवत् 1920 से वह अनेक नगरों में घूम-घूम कर व्याख्यान दे रहे थे। उनके यह व्याख्यान जिस साधुओं की भाषा में होते थे, वह दूर-दूर तक देश में प्रचलित थी। स्वामी जी ने अपना ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नामक ग्रन्थ लिखा था। इसकी रचना हिंदी अर्थात् आर्यभाषा में भी हुई थी। उन्होंने वेदों के भाष्य लिखे जो हिन्दी तथा संस्कृत दोनों ही भाषाओं में थे। स्वामी दयानन्द ने संवत् 1922 में आर्यसमाज की स्थापना की। उन्होंने सभी आर्यसमाजियों के लिए हिन्दी या आर्य भाषा को पढ़ना अनिवार्य बताया। स्वामी जी के अनुयायी हिन्दी को आर्यभाषा कहते थे।

विशेष-
(i) हिन्दी के प्रचार-प्रसार में स्वामी दयानन्द तथा उनके आर्यसमाज के योगदान का परिचय दिया गया है।
(ii) भाषा सरल, प्रवाहपूर्ण तथा साहित्यिक है।
(iii) शैली विवरणात्मक है।

5. कुछ अंगरेज विद्वान् संस्कृतगर्भित हिंदी की हँसी उड़ाने के लिए किसी अँगरेजी वाक्य में उसी भाषा में लैटिन के शब्द भरकर पेश करते हैं। उन्हें यह समझना चाहिए कि अँगरेजी का लैटिन के साथ मूल संबंध नहीं है, पर हिंदी, बँगला, गुजराती आदि भाषाएँ संस्कृत के ही कुटुंब की हैं उसी के प्राकृत रूपों से निकली हैं। इन आर्य भाषाओं का संस्कृत के साथ बहुत घनिष्ठ संबंध है। इस भाषाओं के साहित्य की परंपरा को भी संस्कृत की परंपरा का विस्तार कह सकते हैं। देशभाषा के साहित्य को उत्तराधिकार में जिस प्रकार संस्कृत साहित्य के कुछ संचित शब्द मिले हैं उसी प्रकार विचार और भावनाएँ भी मिली हैं। विचार और वाणी की इस धारा से हिंदी अपने को विच्छिन्न कैसे कर सकती थी ?

(पृष्ठ सं. 92)
सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में संकलित ‘गद्य साहित्य का आविर्भाव’ पाठ से लिया गया है। इसके रचयिता आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हैं। भारत की देशी भाषाओं का जन्म तथा विकास संस्कृत से हुआ है। उनके और संस्कृत के बीच यह एक स्वाभाविक सम्बन्ध है। हिन्दी भी इसी परिवार की भाषा है। वह संस्कृत से सम्बन्ध तोड़कर नहीं रह सकती थी।

व्याख्या-आचार्य शुक्ल कहते हैं कि कुछ अँग्रेज विद्वान् हिन्दी से संस्कृतगर्भित स्वरूप का मजाक उड़ाते हैं। इसके लिए उन्होंने लैटिन के शब्दों को किसी अँग्रेजी वाक्य में भरकर प्रस्तुत किया था। उनका यह प्रयास हास्यास्पद ही कहा जायेगा। उनको जानना चाहिए कि लैटिन का अँग्रेजी भाषा के साथ वह मूल सम्बन्ध नहीं है जो हिन्दी का संस्कृत के साथ है। हिन्दी ही नहीं, बँगला, गुजराती आदि भाषाओं का भी संस्कृत से मूल सम्बन्ध है। ये सभी भाषाएँ एक ही परिवार की हैं। इनका जन्म संस्कृत के ही प्राकृत रूपों से हुआ है। ये
आर्य भाषाएँ संस्कृत के साथ घनिष्ठता के साथ जुड़ी हैं। कह सकते हैं कि इन भाषाओं साहित्यिक परम्परा का विस्तार संस्कृत की परम्परा : का ही विस्तार है। देशी भाषाओं के साहित्य को उत्तराधिकार में संस्कृत भाषा के कुछ शब्द प्राप्त हुए हैं। उसी प्रकार शब्दों के साथ-साथ उनको कुछ विचार और मत भी प्राप्त हुए हैं। विचार और वाणी की यह धारा निरन्तर प्रवाहित होती रही है। हिन्दी स्वयं को इससे अलग नहीं रख सकती थी।

विशेष-
(i) हिन्दी तथा अन्य आर्य भाषाओं के संस्कृत के साथ गहरे सम्बन्ध का परिचय दिया गया है। इन भाषाओं को शब्द ही नहीं भाव और विचार भी संस्कृत साहित्य-से प्राप्त हुए हैं।
(ii) भाषा सरल, विषयानुकूल-साहित्यिक है।
(iii) शैली विचार-विवेचनात्मक है।

6. राजा लक्ष्मण सिंह के समय से ही हिंदी गद्य अपने भावी रूप का आभास दे चुकी थी। अब आवश्यकता ऐसे शक्तिसंपन्न लेखकों की थी जो अपने प्रतिभा और सद्भावना के बल से उसे सुव्यवस्थित और परिमार्जित करते और उसमें ऐसे साहित्य का विधान करते जो शिक्षित जनता की रुचि के अनुकूल होता। ठीक इसी परिस्थिति में भारतेंदु को उदय हुआ।

(पृष्ठ सं. 92)
सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अपरा में संकलित पाठ’गद्य साहित्य का आविर्भाव’ से लिया गया है। इसकी रचना आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने की है।

रामचन्द्र शुक्ल जी हिन्दी के स्वरूप निर्धारण की समस्या पर विचार कर रहे हैं। उनकी दृष्टि में संस्कृत शब्दावली युक्त हिन्दी ही . सच्ची हिन्दी है।

व्याख्या-शुक्ल जी कहते हैं कि राजा लक्ष्मण सिंह संस्कृतनिष्ठ हिन्दी लिखने के पक्षपाती थे। उनकी दृष्टि में यह हिन्दी का सही और स्वाभाविक स्वरूप था। हिन्दी को इसी दिशा में आगे बढ़ना था। अब इस पर किसी विवाद की आवश्यकता नहीं थी। अरबी-फारसी शब्दों से युक्त हिन्दी अस्वीकार्य हो चुकी थी। अब आवश्यकता यह थी कि ऐसे प्रतिभाशाली साहित्यकार आगे आएँ जो हिन्दी को अपनी प्रतिभा और सद्भावना की शक्ति से सुव्यवस्थित और परिमार्जित करें और उसमें शिक्षित जनसाधारण की रुचि के अनुरूप साहित्य की रचना करें। ऐसे ही अवसर पर हिन्दी में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का पदार्पण हुआ।

विशेष-
(i) लेखक ने बताया है कि हिन्दी का रूप स्थिर हो चुका था, अब उसमें सुरुचिपूर्ण साहित्य रचने की आवश्यकता थी।
(ii) भाषा सरल है तथा साहित्यिक है।
(iii) शैली विचार-विवेचन की है।

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