RBSE Solutions for Class 11 Hindi अपरा Chapter 2 सूरदास

Rajasthan Board RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 2 सूरदास

RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 2 पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर

RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 2 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

Surdas Ke Bhramar Geet Class 11 प्रश्न 1.
“जब हरि मुरली अधर धरी” पद में वर्णन किया है –
(क) मुरली की मधुरता का
(ख) कृष्ण के मुरली वादन का
(ग) गोपियों की मुग्धता का
(घ) मुरली-ध्वनि के अलौकिक प्रभाव का
उत्तर:
(ग) गोपियों की मुग्धता का

ऊधौ जाहु तुमहि हम जाने का अर्थ प्रश्न 2.
“आयौ घोष बड़ौ व्यौपारी” कथन में छिपा है –
(क) व्यंग्य
(ख) उपालम्भ
(ग) उपेक्षा
(घ) घृणा
उत्तर:
(क) व्यंग्य

RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 2 अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

ऊधौ जाहु तुमहि हम जाने प्रश्न 1.
“मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै” पंक्ति के मूल भाव को स्पष्ट करने के लिए कौन-सा उदाहरण दिया है?
उत्तर:
उदाहरण है – जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी फिरि जहाज पर आवै”।

अब कै राखि लेहु भगवान का भावार्थ प्रश्न 2.
सूरदास ने हरि भक्ति से विमुख लोगों का साथ छोड़ने का आग्रह क्यों किया है?
उत्तर:
भगवान से विमुख रहने वाले लोगों के साथ रहने से मन में बुरे विचार उठते हैं और भजन में बाधा पड़ती है।

मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै का भावार्थ प्रश्न 3.
“ताके डरतें भज्यौ चाहत हौं ऊपर ढुक्यो सचान” पंक्ति में ‘सचान’ किसका प्रतीक है?
उत्तर:
पंक्ति में सचान काल का प्रतीक है।

सूरदास पाठ के प्रश्न उत्तर Class 11 प्रश्न 4.
गोपियाँ द्धव को मुँह-माँगी वस्तु देने को कब तैयार थीं?
उत्तर:
यदि उद्धव श्रीकृष्ण को लाकर गोपियों से मिला देते तो वे उन्हें मुँह-माँगी वस्तु देने को तैयार थीं।

सूरदास के पद अर्थ सहित Class 11 प्रश्न 5.
ग्वालिन के सूने घर में जाकर कृष्ण ने क्या किया?
उत्तर:
गोपी के सूने घर में जाकर कृष्ण ने मक्खन खाया, गोरस फैलाया और सारे बर्तन तोड़ डाले। गोपी के लड़कों पर मट्ठा छिड़ककर हँसते हुए चल दिए।

RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 2 लघूत्तरात्मक प्रश्न

Surdas Ke Patit Pado Ke Aadhar Per प्रश्न 1.
गोपी-ऊद्धव संवाद को भ्रमरगीत के नाम से क्यों पुकारा जाता है ?
उत्तर:
इस विषय में प्रसिद्ध है कि जब उद्धव गोपियों को श्रीकृष्ण द्वारा भेजा गया ज्ञान और योग साधना का संदेश सुना रहे थे तो गोपियों की श्रीकृष्ण के अप्रत्याशित व्यवहार से बड़ा आश्चर्य, क्षोभ और वेदना हो रही थी। वे अपने मन की खीज और आक्रोश व्यक्त करने को उतावली हो रही थीं। उसी समय कहीं से एक भौंरा वहाँ आ पहुँचा और गोपियों के ऊपर मँडराने लगा। गोपियों का ध्यान उस पर गया तो उन्हें भौरे के रूप, रंग और स्वभाव में श्रीकृष्ण से समानता दिखाई दी। दोनों साँवले, दोनों रसलोभी, एक पीताम्बरधारी तो दूसरे पर भी पीला चिह्न। यह देख गोपियों ने भरे को माध्यम बनाकर श्रीकृष्ण और उद्धव को ताने, उपालम्भ, व्यंग्य और उपहास का लक्ष्य बना डाला। भ्रमर को माध्यम बनाने के कारण ही यह प्रसंग ‘भ्रमरगीत’ कहलाया है।

सूरदास के पद Class 11 प्रश्न 2.
“ऊधो! भली करी अब आए।” गोपियों ने उद्धव के आगमन को उचित बताते हुए क्या व्यंग्य किया है ?
उत्तर:
गोपियों ने ‘भली करी’ से उद्धव का स्वागत करते हुए उनके द्वारा दिए गए ज्ञान और योग के उपदेशों पर व्यंग्य किया है। उन्होंने उद्धव द्वारा की गई सारी सेवाओं (कष्ट पहुँचाने) को एक-एक करके गिगया है। उद्धव ने सारे ब्रज को अँवा बनाकर विरहिणी गोपियों के हृदयों को अपने उपदेशों से तपाया है। कृष्ण-प्रेम में जो कच्चापन रहा होगा उसे अग्नि में तपाकर पक्का कर दिया। साथ ही गोपियों में उद्धव पर यह व्यंग्य भी किया है कि उनका यह सारा परिश्रम बेकार गया है, क्योंकि उन्होंने अपने पके हुए हृदय घड़ों में श्रीकृष्ण का प्रेमजल भरकर रखा है। उन्हें कृष्ण के अतिरिक्त और किसी को छूने तक नहीं दिया है। भाव यह है कि उद्धव के सारे ज्ञान और योग के उपदेशों का गोपियों के हृदयों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा अपितु उनके हृदय अब कच्चे से पक्के हो गए हैं। वे कृष्ण प्रेम में परिपक्व हो गई हैं।

आयो घोष बड़ो व्यापारी व्याख्या प्रश्न 3.
“मैया, मैं तो चन्द-खिलौना लैहौं।” पद में बाल-स्वभाव की कौन-सी विशेषता बताई गई है और माता ने उसका समाधान किस प्रकार किया?
उत्तर:
हठों में ‘बाल-हठ’ प्रसिद्ध रहा है। बालक किसी वस्तु को पाने या कोई मनचाहा काम कराने को प्रायः हठ किया करते हैं। उन्हें इससे कुछ लेना-देना नहीं होता कि उनकी माँग पूरी हो सकती है या नहीं। बालकृष्ण ने चन्दा का खिलौना माँग लिया। यदि यशोदा उनको चन्द्रमा का मिलना असम्भव बताती या चन्द्रमा कोई खिलौना नहीं है, यह समझाती तो बात बनने के बजाय और बिगड़ सकती थी। अंतः उन्होंने बाल मनोविज्ञान का सहारा लिया। कृष्ण को नई दुलहिन दिलाने का लालच दिखाया और यह उपाय शत-प्रतिशत सफल हुआ। बालक कृष्ण तुरंत दूल्हा बनकर जाने को तैयार हो गए।

विनय के पद कक्षा दसवीं प्रश्न 4.
“ऊधो ! कोकिल कूजत कानन।” पद में गोपियों ने योग साधना का खंडन किस प्रकार किया है?
उत्तर:
उद्धव योगी थे और गोपियाँ प्रेमिकाएँ दोनों एक दूसरे के क्षेत्र से पूर्णतः अपरिचित थे। इसलिए गोपियों को व्यंग्य और सहज तर्को को सहारा लेकर उद्ध को वास्तविकता से परिचित कराना पड़ा। गोपियों ने उद्धव से कहा ‘उद्धव जी। आप सुन रहे हैं न, वन में कोयल कूक रही है। यह हम जैसे प्रेमियों को संदेश दे रही है कि सज-धजकर अपने प्रियजन से मिलने जाओ और आप हैं कि हमें भस्म मलकर सिंगी बजाते हुए पर्वतों में जाकर योग साधना करने के लिए कह रहे हैं। इधर पपीहा की पिऊ-पिऊ में कामदेव हमारे मन को प्रिय-मिलन के लिए आतुर बना रहा है। आपकी इस योग साधना को करने से हमें क्या मिलेगा, मुक्ति पर हमें अपने श्याम सुन्दर की मुरली की तानों के आगे आपकी मुक्ति तुच्छ प्रतीत होती है। अत: आपका योग हमारे किसी काम का नहीं है।

अब के राखी लेहु भगवन प्रश्न 5.
“सूर श्याम जब तुम्हैं पठाए तब नेकहु मुसकाने” पद में गोपियों ने उद्धव से यह प्रश्न क्यों किया? कारण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
उद्धव ने ब्रज में आकर गोपियों से कहा कि वह उनके लिए श्रीकृष्ण का सन्देश लेकर आए हैं। गोपियों को लगा कि प्रिय कृष्ण ने उनके लिए कोई सांत्वना भुरा प्रेम संदेश भेजा होगा, लेकिन जब उद्धव ने अपनी ज्ञान-योग की गाथा सुनानी आरम्भ कर दी तो गोपियों को बड़ा धक्का लगा। पहले उन्होंने उद्धव को अपनी विरह वेदना समझाने की चेष्टा की। योग-साधना में अपनी असमर्थता भी बताई, इतने पर भी उस योगी की समझ में उनकी बात नहीं आई तो उन्होंने उद्धव से कह दिया “उद्धव! आप मथुरा लौट जाइए। हम आपको अच्छी तरह जान गईं। आप श्रीकृष्ण के भेजे हुए नहीं हो सकते। अब आप सच बताओ कि जब आपको कृष्ण ने यहाँ भेजा था तो क्या वह तनिक मुस्कराए भी थे। गोपियों ने यह प्रश्न यह सचाई जानने के लिए किया कि कृष्ण ने योग और ज्ञान का संदेश वास्तव में गम्भीरता से भिजवाया था या कि अपने योगी मित्र के अहंकार को चूर कराने और उसकी हँसी उड़वाने को उसे यहाँ भेजा था?

RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 2 निबन्धात्मक प्रश्न

अब कै राखि लेहु भगवान प्रश्न 1.
‘सूर ने बाल लीला का मनोहारी वर्णन किया है। उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कहा जाता है कि सूर वात्सल्य रस के सम्राट हैं। वह वात्सल्य का कोना-कोना झाँक आए हैं। शिशु और बाल जीवन का कोई पक्ष सूर की अन्तर्दृष्टि से बच नहीं पाया है। सूर के बालवर्णन का आश्रय माता यशोदा है। वह अपने पुत्र बालकृष्ण की बाल क्रीड़ाओं को देख-रेखकर वात्सल्य का अनुपम आनंद प्राप्त करती है। शिशु कृष्ण को पालने में सुलाती और झुलाती माता यशोदा के शब्द-चित्र प्रस्तुत करने में सूरदास बेजोड़ हैं। बाल्यावस्था को प्राप्त होने पर कृष्ण की क्रीड़ाएँ और स्वभाव भी बदलता जाता है। वह चन्द्रमा से खेलने का हठ करते हैं-“मैया मैं तो चन्द्र-खिलौना लैहों” माँग पूरी न किए जाने पर माता को धमकियाँ भी दी जाती हैं।

जैहों लोटि धरनि पै अबहीं, तेरी गोद न ऐहों।
हवै हों पूत नंद बाबा कौ, तेरौ सुत न कहै हों।”

माता भी मनोवैज्ञानिक उपाय से बालहठ का समाधान करती है। वह कन्हैया को नई दुलहिन दिलाने का आश्वासन देती है और उसे मनाने में सफल हो जाती है। कृष्ण और बड़े हो गए हैं और सखाओं के साथ नए-नए बाल षडयंत्र रचने में भी कुशल हो गए हैं। एक ग्वालिन के सूने भवन पर धावा बोला जाता है। गोरस खाने और फैलाने तक ही यह अभियान नहीं रुकता। उस बेचारी के सारे बर्तन भी चूर-चूर कर दिए जाते । हैं। कृष्ण सखाओं सहित रंगे हाथों पकड़े जाते हैं और माता यशोदा के न्यायालय में पेशी होती है। सूर की बाल लीला-सृष्टि में इतने प्रसंग भरे पड़े हैं कि पाठक पग-पग पर गद्-गद्, रोमांचित और रसमग्न होता चलता है।

उद्धव गोपी संवाद और भ्रमरगीत प्रश्न 2.
‘सूरदास जी ने निर्गुण का खंडन और सगुण का समर्थन किया है। उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सूरदास जी ने ईश्वर के साकार या सगुण स्वरूप श्रीकृष्ण को अपना उपास्य माना है। उनके अनुसार निराकार या निर्गुण ईश्वर की उपासना बहुत कठिन है। जैसा वह कहते हैं –

“अविगत गति कछु कहत न आवै।
ज्यों मँगेहिं मीठे फल को रस अंतरगत ही भावै।”

सूर यह तो मानते हैं कि निराकार (निर्गुण) ईश्वर की उपासना में भी परम आनंद का अनुभव होता है लेकिन निर्गुण ईश्वर का रूप, आकृति, गुण, जाति या उसे पाने की युक्ति न होने से साधक का मन भ्रमित हो जाता है। इसी कारण वह सगुण ईश्वर श्रीकृष्ण की लीलाओं को गान करते हैं –
सूर ने उद्धव को निर्गुण का आराधक मानते हुए उन पर गोपियों द्वारा व्यंग्य, कटाक्ष और उपहास कराए हैं। वह उद्धव को योग और ज्ञान बेचने वाला कपटी व्यापारी बताती हैं। उनका तर्क है –

“अपनी दूध छौंड़ि को पीवै खार कूप कौ पानी”

श्रीकृष्ण की प्रेमाधारित भक्ति निर्मल और स्वादिष्ट दूध के समान है तथा ज्ञान और योग खारे कुएँ का पानी है। भला ऐसी कौन मूर्ख होगी जो दूध त्याग कर खारा पानी पिए। एक विरह व्यथित प्रेमी की मानसिक दशा से अपरिचित योगी उद्धव उनके व्यंग्य-विनोद के निशाने पर आ जाते हैं। वे उद्धव से व्यंग्य करती हुई कहती हैं –

“ऊधो ! कोकिल कूजति कानन।
तुम हमको उपदेश करत हौं भसम लगावन आनन !”

यह ऋतु तो प्रिय-मिलन की ऋतु है। अरे नीरस योगी। तुम क्या जानो कि एक प्रेमी के लिए वसंत क्या होता है। अंत में गोपियाँ खुलकर उद्धव की अज्ञानता पर आक्रमण करने लगती हैं। वे उनसे पूछती हैं – कहँ अबला कहँ दसा दिगंबर सम्मुख करि पहचाने।” स्त्रियाँ सारी मर्यादा और संकोच त्याग कर योगियों की तरह एक लंगोटी या मृग चर्म लपेटकर कैसे रह सकती हैं। इस प्रकार सूरदास जी ने गोपियों के माध्यम से उद्धव को लक्ष्य बनाकर निर्गुण उपासना का खण्डन कराया है।

मेरो मन अनत कहां सुख पावे का अर्थ प्रश्न 3.
गोपियाँ कृष्ण की अनन्य प्रेमिका थीं। ‘भ्रमर गीत’ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
‘भ्रमरगीत’ श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों के अनन्य प्रेम और समर्पण का अमर आख्यान है। उद्धव-गोपी संवाद में, पग-पग पर गोपियों के श्रीकृष्ण प्रेम का हृदयस्पर्शी स्वरूप साकार हुआ है। अपने प्रिय कृष्ण के संदेशवाहक उद्धव के आगमन से गोपियाँ बड़ी उत्साहित होती हैं। उन्हें विश्वास है कि कृष्ण ने उन सभी के लिए प्रेमरस में भीगा कोई सुखदायी संदेश भिजवाया होगा, किन्तु ज्ञान और योग साधना का उपदेश सुनकर उनके कोमल हृदयों को बड़ा आघात लगता है।

उधर उद्धव का ज्ञान-योग पर उपदेश दिया जाना उनको बहुत अखरता है। वे उद्धव पर व्यंग्य , कटाक्ष और उपहास की बौछार आरम्भ कर देती है। गोपियों का यह व्यवहार कृष्ण के प्रति उनके अनन्य प्रेम का प्रमाण है। योग के नाम पर प्यारे कृष्ण से वियोग कराने आए उद्धव को वह कपटी व्यापारी बताती हैं। उनकी दृष्टि में उद्धव उन्हें छलने आए है, योग रूपी खारा पानी देकर वह उनसे कृष्ण प्रेम रूपी स्वादिष्ट दूध हरण कर लेना चाहते हैं। वह उनके सामने प्रस्ताव रखती हैं “ऊधो जाहु सवार यहाँ ते वेगि गहरु जनि लाऔ। मुँह माग्यो पैहो सूरज प्रभु साहुहि आनि दिखाऔ।”

साहू अर्थात् श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए वह उद्धव को मुँहमाँगी कीमत देने को तैयार हैं। यह कृष्ण के प्रति उनके अनन्य प्रेम का ही प्रमाण है। उनके लिए ज्ञान और योग से मिलने वाला मोक्ष भी तुच्छ है। कृष्ण की भुवनमोहनी वंशी ध्वनि के सामने मुक्ति कहीं नहीं ठहरती। निर्गुण ईश्वर की आराधना और योग-साधना के विरुद्ध दिए गए उनके वर्ण भी यही सिद्ध करते हैं कि वह अपने और श्रीकृष्ण के बीच किसी तीसरे को आने की अनुमति नहीं दे सकतीं। वे उद्धव से स्पष्ट कह देती हैं कि उनके उपदेशों और विरह के ताप-संताप में तपकर उनके कृष्ण प्रेमी हृदय अब परिपक्व हो चुके हैं और उन्होंने उनको पवित्र प्रेम-जल से भर लिया है। कृष्ण के अतिरिक्त और कोई उन्हें छू भी नहीं पाया है। ये हृदय-घट केवल और केवल उनके हृदय बल्लभ श्रीकृष्ण के लिए सुरक्षित हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि गोपियाँ श्रीकृष्ण की अनन्य प्रेमिकाएँ थीं।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए
(क) ऊधो ! कोकिल ……………………. दिखावो ॥
(ख) जब हरि ………………. प्रेम प्रवाह ढरी ॥
(ग) अब कै राखि ……………….. कृपानिधान॥
(घ) ऊधो ! मोहि ……….. पछिताहीं
उत्तर:
संकेत – इन पद्यांशों की व्याख्या छात्र ‘सप्रसंग व्याख्याएँ’ प्रकरण का अवलोकन करके स्वयं लिखें।

RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 2 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 2 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
सूरदास ने ‘मेरौ मन अनत कहाँ सुख पावै’ पद में ‘छेरी’ कहा है –
(क) बकरी को
(ख) दुर्बल व्यक्ति को
(ग) अन्य देवताओं को
(घ) अपने आपको

प्रश्न 2.
सूरदास के अनुसार कहने में नहीं आती है –
(क) अज्ञात की गति
(ख) वर्तमान स्थिति
(ग) निर्गुण ईश्वर की गति
(घ) संसार की गति

प्रश्न 3.
‘हरि से विमुख लोगों का संग’ करने का परिणाम होता है
(क) ज्ञान में वृद्धि होती है।
(ख) संकट आते हैं
(ग) कुबुद्धि उत्पन्न होती है
(घ) तर्क शक्ति बढ़ती है।

प्रश्न 4.
कोयल की ध्वनि के समय ऊद्धव गोपियों को उपदेश कर रहे थे
(क) ज्ञानी बनने का
(ख) कृष्ण-प्रेम त्यागने का
(ग) मुख पर भस्म लगाने का
(घ) मोक्ष के लिए।

प्रश्न 5.
श्रीकृष्ण ने मथुरा को बताया है
(क) कंचन की नगरी
(ख) कंस की नगरी
(ग) नीरस की नगरी
(घ) अप्रिय नगरी।

RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 2 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘मेरौ मन अनत कहाँ सुख पावें पद में कवि ने कामधेनु और छेरी किसे कहा है ?
उत्तर:
कवि ने श्रीकृष्ण की कामधेनु के समान तथा अन्य देवताओं को छेरी (बकरी) के समान कहा है।

प्रश्न 2.
सूर श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान करने का क्या कारण बताते हैं?
उत्तर:
सूर ने निराकार ईश्वर को सब प्रकार से अगम्य (पहुँच से बाहर) मानकर सगुण स्वरूप श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान किया है।

प्रश्न 3.
गदहे को अरगजा लगाने और बंदर को आभूषण पहनाने का क्या परिणाम होता है?
उत्तर:
गधा फिर धूल में ही जा लोटता है और बंदर आभूषणों को तोड़कर फेंक देता है या उन्हें चबा डालता है।

प्रश्न 4.
कबूतर की प्राणरक्षा की कथा द्वारा सूरदास ने क्या बताना चाहा है?
उत्तर:
सूरदास ने बताना चाहा है कि भगवान बड़े कृपालु हैं। सच्चे मन से उन्हें पुकारने पर बड़े-से बड़े संकट दूर हो जाते हैं।

प्रश्न 5.
‘चन्द खिलौना’ न मिलने पर कृष्ण ने माता यशोदा को क्या धमकी दी?
उत्तर:
कृष्ण ने कहा कि वह धरती पर लोट जाएँगे और अपने को नंदबाबा का पुत्र बताएँगे न कि यशोदा का।

प्रश्न 6.
कृष्ण को मनाने के लिए यशोदा ने उन्हें क्या लालच दिखाया?
उत्तर:
यशोदा ने कृष्ण को पास बुलाकर कहा कि वह उनके लिए सुन्दर-सी नई दुलहन दिलाएगी।

प्रश्न 7.
कृष्ण की वंशी की ध्वनि सुनते ही गोपियों पर उसका क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
वंशी-ध्वनि कान में पड़ते ही गोपियाँ घर की मर्यादाएँ और सारे कार्य त्याग कर कृष्ण से मिलने चल दीं।।

प्रश्न 8.
गोपियों को देखकर कीर’ और ‘कपोत’ क्यों छिप गए?
उत्तर:
गोपियों की सुंदर नाकों को देखकर ‘कीर’ (तोता) और उनकी सुडौल गर्दनों को देखकर कपोत’ (कबूतर) लज्जित होकर छिप गए।

प्रश्न 9.
अपने घर से निकलते कृष्ण को पकड़कर गोपी उन्हें कहाँ और क्यों ले गईं?
उत्तर:
गोपी कृष्ण को पकड़कर उनकी माता यशोदा के पास ले गई क्योंकि वह कृष्ण के नित्य नए उत्पादों से तंग आ गई थी।

प्रश्न 10.
‘फाटक देकर हाटक माँगत’ का आशय क्या है?
उत्तर:
इस कथन का सामान्य अर्थ है कि उद्धव फटकन (कूड़ा) देकर हाटक (सोना) माँग रहे हैं, यहाँ, ‘फटकन’ का आशय ज्ञान और योग तथा ‘हाटक’ का आशय कृष्ण से प्रेम है।

प्रश्न 11.
गोपियों ने उद्धव से ज्ञान किनको देने को कहा और क्यों?
उत्तर:
गोपियों ने कहा कि वे तो बिलकुल मूर्ख ग्वालिन हैं। वे भला ज्ञान कैसे समझ पाएँगी? ज्ञान तो ज्ञानियों को ही देना चाहिए।

प्रश्न 12.
“बड़ लागै न विवेक तिहारौ” गोपियों ने उद्धव से ऐसा क्यों कहा?
उत्तर:
यदि उद्धव विवेकी-सा ज्ञानी होते तो वह अपढ़ और सीधे-सादे ब्रजवासियों को योग की शिक्षा नहीं देते।

प्रश्न 13.
दसा दिगंबर’ का अभिप्राय क्या है?
उत्तर:
‘दसा दिगंबर’ का अभिप्राय है-वस्त्र न धारण करना। योगी लोग नाम मात्र को वस्त्र धारण करते हैं।

प्रश्न 14.
‘विधि कुलाल कीन्हें काँचे घट’ इस पंक्ति में ‘काँचे घट’ किसे कहा गया है?
उत्तर:
यहाँ ‘काँचे घट’ गोपियों ने अपने कोमल हृदयों को बताया है जो कृष्ण वियोग से अत्यन्त व्यथित थे।

प्रश्न 15.
गोपियों ने अपने हृदयों रूपी पके हुए घड़ों को किससे भर लिया था?
उत्तर:
गोपियों ने अपने हृदय-घटों को कृष्ण प्रेम रूपी पवित्र जल से भर लिया था।

प्रश्न 16.
‘जिय उमगत तनु नाहीं’ कृष्ण की ऐसी अवस्था कम होती थी?
उत्तर:
जब श्रीकृष्ण को अपने ब्रज में बिताए दिनों और वहाँ की लीलाओं का स्मरण हो आता था, तब उनकी ऐसी दशा हो जाती थी।

RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 2 लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘मेरौ मन अनत कहाँ सुख पावै।’ पद में सूर ने अपने इस कथन के पक्ष में कौन-कौन से प्रमाण प्रस्तुत किए हैं? पद के आधार पर लिखिए।
उत्तर:
सूरदास ने कहा है कि उनके मन को श्रीकृष्ण की शरण के अतिरिक्त और कहीं सुख नहीं मिल सकता। अपने इस कथन को सिद्ध करते हुए सर्वप्रथम वह समुद्र में स्थित जहाज पर बैठे पक्षी का उदाहरण देते हैं। वह उड़कर जाना भी चाहे तो कहाँ जाएगा। लौटकर फिर उसी जहाज पर आना पड़ेगा। इस प्रकार कमल नयन’ श्रीकृष्ण को छोड़कर एक अंधे सूर) को और किसका ध्यान या उपासना करनी चाहिए यह तर्क भी दिया है। यदि कोई प्यासा व्यक्ति परम पवित्र गंगा को छोड़कर प्यास बुझाने को कुआँ खुदवाए तो वह मूर्ख ही माना जाएगा। कमल-रस चखने वाले भौंरे को भला करील के कड़वे फल कैसे भा सकते हैं। सूर कहते हैं कि उनके प्रभु कामधेनु। हैं। उन्हें छोड़कर क्या मैं बकरी दुहने को जाऊँ। यह तो महान मूर्खता होगी।

प्रश्न 2.
‘अविगत गति कुछ कहते न आवै।’ पद में सूरदास जी ने निराकार ईश्वर की उपासना में क्या-क्या कठिनाइयाँ बताई हैं ? लिखिए।
उत्तर:
इस पद में सूर ने निराकार या निर्गुण ईश्वर की उपासना में प्रथम कठिनाई बताई है कि वह निराकार ईश्वर ‘अविगत अर्थात’ अज्ञात है। उसके विषय में कुछ भी कहना सम्भव नहीं है। उसकी भक्ति या उपासना का आनंद उपासक केवल चित्त में ही अनुभव कर सकता है। निर्गुण ईश्वर तक मन और वाणी की पहुँच नहीं है। न उसके स्वरूप का अनुमान किया जा सकता है न वर्णन। निराकार होने से उसका न कोई रूप है न गुण, न जाति है। न उसे पाने की कोई युक्ति। इससे उपासक का मन भ्रम में पड़ जाता है। इसीलिए सूरदास ने ईश्वर के सगुण स्वरूप, श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान करना स्वीकार किया है।

प्रश्न 3.
सूरदास ने हरि से विमुख रहने वालों को ‘कारी कामरि’ कैसे बताया है ?
उत्तर:
काले कम्बल पर कोई भी दूसरा रंग नहीं चढ़ता। इसी प्रकार भगवत् चर्चा से दूर रहने वाले लोगों पर किसी उपदेश या सत्संग का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इनका स्वभाव साँप जैसा होता है। साँप को कितना भी दूध पिलाओ वह विष को नहीं त्यागता । कौए को कपूर चुगा लो लेकिन वह अपवित्र वस्तुओं का खाना नहीं छोड़ता, कुत्ते को गंगा स्नान करा लो पर वह गंदगी में रहना नहीं त्यागता। इसी प्रकार गदहा चंदन आदि का लेप करने से धूल में लोटना नहीं छोड़ता। इसी प्रकार बन्दर, हाथी आदि अपने स्वभाव से विवश हैं। हरि विरोधी का स्वभाव भी ऐसा ही होता है। इसीलिए सूर ने उसे कारी कामरि के समान बताया है।

प्रश्न 4.
अबकी राखि लेहु भगवान’ पद द्वारा सूरदास क्या संदेश देना चाहते हैं। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
इस पद में कवि ने मृत्यु-संकट में पड़े असहाय जीव-कबूतर की प्राण रक्षा की कथा सुनाई है। कबूतर वृक्ष की डाल पर बैठा था। अचानक उसने देखा कि एक शिकारी ने उस पर बाण का निशाना लगा रखा था। वह उसके भय से भागना चाहता था कि ऊपर आकाश में उसे एक बाज मँडराता दिखाई दिया। दोनों ओर से मृत्यु-संकट में पड़े कबूतर ने असहाय होकर भगवान को पुकारा। उसी समय किसी साँप ने शिकारी को डस लिया। उसके हाथ से छूटा बाण ऊपर बाज को लगा और दोनों शत्रु समाप्त हो गए। इस कथा द्वारा सूरदास संदेश दे रहे हैं कि भगवान बड़े कृपालु हैं। उनकी शरण में जाने वाले का कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता।

प्रश्न 5.
‘सूरदास बाल मनोविज्ञान के मर्मज्ञ हैं।’ संकलित पदों के आधार पर इस कथन की पुष्टि कीजिए।
उत्तर:
सूर का बाले वर्णन इतना सजीव, स्वाभाविक और हृदयस्पर्शी है कि उनको बाल और वात्सल्य का सम्राट कहा गया है। इसके पीछे उनका बाल-मनोविज्ञान से पूर्ण परिचित होना ही कारण है। ‘मैया मैं तो चंद-खिलौना लैहों पद इसका प्रमाण है। उपर्युक्त पद में बालक कृष्ण माँ यशोदा को धमकी दे रहे हैं कि वह धरती पर लोट जाएँगे, चोटी ही नहीं गुंथवाएँगे। वह नंद बाबा के ही पुत्र हो जाएँगे। माँ यशोदा भी बाल-मनोविज्ञान का सहारा लेकर उनको मनाती है। उनको नई दुलहिन दिलाने का लालच देती है। इस पद से स्पष्ट है कि सूर बाल-मनोविज्ञान के पंड़ित है।

प्रश्न 6.
श्रीकृष्ण के वंशी वादन का गोपियों पर क्या प्रभाव हुआ ? संकलित पद के आधार पर लिखिए।
उत्तर:
जब श्रीकृष्ण ने यमुना के तीर पर अपनी मनमोहनी वंशी बजाई तो उसकी ध्वनि सुनते ही गोपियाँ श्रीकृष्ण से मिलने चल पड़ीं। उन्होंने घर-परिवार तथा उचित आवरण की भी चिंता नहीं की। वे बिना किसी झिझक के घरों से निकल पड़ीं। आनंद और उमंग से भरी गोपियाँ, यमुना तट पर कृष्ण से मिलने जा पहुँचीं। वे प्रेम की धारा में बहती हुई अपने प्रिय कृष्ण से मिलकर जैसे एकाकार हो गईं।

प्रश्न 7.
गोपी के सूने घर में कृष्ण ने क्या उत्पात मचाया और पकड़े जाने पर क्या हुआ ? संकलित पद के आधार पर लिखिए।
उत्तर:
माखन-चोर नाम से प्रसिद्ध कृष्ण एक दिन एक गोपी के सूने घर में जा घुसे। पहले खूब मक्खन खाया, फिर उसका सारा गोरस (दूध, दही आदि) धरती पर बिखेर दिया और उसके बर्तन फोड़कर चूर-चूर कर दिए। गोपी के यहाँ एक बहुत पुराना माँट (दही मथने का बड़ा पात्र) था, उसके भी टुकड़े-टुकड़े कर डाले। घर में सो रहे गोपी के बच्चों पर मट्ठा छिड़ककर हँसते हुए जैसे ही घर से निकले कि गोपी आ गई। उसने घर का हाल देखा तो उसे बड़ा क्रोध आया और वह दोनों हाथों से कसकर पकड़कर कृष्ण को यशोदा के पास ले गई और ब्रज को छोड़कर कहीं और चले जाने की बात कही।

प्रश्न 8.
ऊद्धव पर गोपियों ने क्या आरोप लगाया ? “आयौ घोष बड़ौ व्यौपारी।” पद के आधार पर लिखिए।
उत्तर:
पद में गोपियों ने उद्धव को एक चतुर व्यापारी बताया है। वह अपना ज्ञान और योग का सामान बेचने ब्रज में आए हैं। शुरू से ही मन में खोट होने के कारण इस व्यापारी का माल कहीं नहीं बिका। अब यह गोपियों को ठगने ब्रज में आया है। यह फटकन (योग रूपी कूड़ा) देकर कृष्ण-प्रेम रूपी सोनी ठगना चाहता है। लेकिन गोपियाँ ऐसी मूर्ख नहीं जो इसकी बातों में आ जाएँ। योगी उद्धव को व्यापारी सिद्ध करने के लिए इस पद में गोपियों ने उन पर व्यंग्य भरे आरोप लगाए हैं।

प्रश्न 9.
“ऊधो! कोकिल कूजति कानन।” पद में सूर ने ‘मुक्ति’ पर ‘भक्ति’ की विजय का संदेश दिया है। अपना मत स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
इस पद में गोपियाँ बड़े भोले अंदाज में उद्धव से बड़ी गहरी बात कहती हैं। उद्धव जी देखिए वनों में कोयले कूक रही हैं। ऐसी मादक वसंत ऋतु में आप हम प्रिय विरह में व्याकुल नारियाँ को उपदेश दे रहे हैं कि हम अपने शरीर पर भस्म मलें। सिंगी बजाती पर्वतों में जाकर योग साधना करें। हम तो मुरली की मधुर तान से तन-मन को वश में कर लेने वाले कृष्ण की प्रेममयी भक्ति चाहती हैं। हमें आपकी मुक्ति नहीं चाहिएं। इस प्रकार गोपियों ने मुक्ति को ठुकराकर भक्ति का वरण किया है। यहाँ योगी उद्धव भी हारे हैं।

प्रश्न 10.
“ऊधो! जाहु तुम्हें हम जाने।” इस पद में गोपियों ने योगी और ज्ञानी उद्धव का क्या मूल्यांकन किया है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
इस पद के आरम्भ में ही गोपियाँ उद्धव से कहती हैं-उद्धव अब आप मथुरा लौट जाओ। आप क्या हैं, यह हम अच्छी प्रकार से जान गई हैं। आपको यहाँ कृष्ण ने नहीं भेजा। आप भटककर इधर आ पहुँचे हैं। आप कैसे ज्ञानी हैं! आपको पात्र और अपात्र की परख नहीं आती। आप भोले ब्रजवासियों को योग की शिक्षा देना चाहते हैं, उसी से आपके विवेक और ज्ञान का मूल्यांकन हो गया है। कम से कम आप इतना तो सोचते कि हम जैसी ग्रामीण और दुर्बल हृदय वाली नारियाँ, योगियों की भाँति दिगम्बर (वस्त्र हीन) होकर कैसे रह सकती हैं। इस प्रकार गोपियों ने उद्धव को एक व्यावहारिक ज्ञान और सामाजिक आचार-विचार से अपरिचित, अज्ञानी व्यक्ति माना है।

प्रश्न 11.
ऊधौ! भली करी ब्रज आए।’ इस पद के भावात्मक और कलात्मक सौन्दर्य पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
उपर्युक्त पद सूर की काव्यकला का एक सुन्दर उदाहरण है। इस पद में व्यंगात्मक शैली में कृष्ण-वियोग में व्याकुल और योगी उद्धव के ज्ञान और योग-साधना के उपदेशों से संतप्त गोपियों की मर्मस्पर्शी व्यथा व्यंजित हुई है। इस व्यथा को साकार करने के लिए कवि ने आलंकारिक शैली का आश्रय लिया है। पूरा पद सांगरूपक अलंकार से सना हुआ है। गोपियों के कोमल हृदयों रूपी कच्चे घड़ों को पकाने के लिए सारा सामान कवि ने रूपकों के द्वारा प्रस्तुत किया है। इस प्रकार यह पद भाव और कला, दोनों ही दृष्टि से एक उत्तम रचना है।

प्रश्न 12.
ब्रज के विषय में कृष्ण ने अपनी मनोभावनाएँ, द्धव के सामने किस रूप में व्यक्त की ? संकलित पदों के आधार पर लिखिए।
उत्तर:
ब्रजवासी नर-नारी, बालक, गाएँ तथा बछड़े आदि कृष्ण के वियोग में जितने व्याकुल थे, कृष्ण भी अपने ब्रज में बिताए दिनों और ब्रजवासियों के सहज प्रेमभाव को, कभी नहीं भुला सके। अपने अभिन्न मित्र उद्धव के सामने उन्होंने अपना हृदय खोलकर रख दिया। उन्होंने कहा-उद्धव! मैं ब्रज को एक पल के लिए भी नहीं भूल पाता हूँ। यमुना के वे सुन्दर तट, कुंजों की वह शीतल छाया, वे गाएँ, बछड़े, दुहने के पात्र, गायें के बाड़े सब मुझे बार-बार याद आते हैं। गोप कुमारों के साथ कोलाहल करना, बाँह पकड़-पकड़ कर नाचना, वे सारी घटनाएँ मेरे मन में साकार होने लगती हैं। इस मथुरा में चाहे मुझे कितना भी धन-वैभव और सुख प्राप्त हो, पर जब मुझे ब्रज-जीवन की स्मृति होती है तो मेरा मन ब्रज में जा पहुँचने को व्याकुल हो जाता है। इन्हीं शब्दों में कृष्ण ने अपने ब्रज-प्रेम का दर्शन किया।

RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 2 निबंधात्मक प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
‘विनय’ शीर्षक के अन्तर्गत संकलित पदों के आधार पर सूरदास द्वारा व्यक्त भावों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
‘विनय’ शीर्षक अन्तर्गत सूरदास के चार पद संकलित हैं। इन पदों में सूरदास ने अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण के प्रति अपनी अडिग निष्ठा का परिचय दिया है। प्रथम पद में कवि ने अनेक उदाहरण देकर श्रीकृष्ण के प्रति अपने समर्पण को उचित ठहराया है। द्वितीय पद में श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान करने का कारण बताया है। सूर ने निर्गुण या निराकार ईश्वर की उपासना में आने वाली कठिनाइयाँ बताते हुए सगुण या साकार ईश्वर-श्रीकृष्ण के लीला-गान को उचित ठहराया है।

प्रश्न 2.
पाठ्य-पुस्तक में ‘बाल-लीला’ शीर्षक के अन्तर्गत संकलित पदों के आधार पर सूर के बाल-वर्णन की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
सूरदास जी के विषय में कहा गया है कि वह वात्सल्य का कोना-कोना झाँक आए हैं। सूरदास के जैसा सर्वांगीण, सजीव, स्वाभाविक और बाल मनोविज्ञान पर आधारित बाल-वर्णन विश्व साहित्य में मिलना दुर्लभ है। हमारी पाठ्य-पुस्तक में सूररचित कृष्ण की बाललीला से संबंधित पद संकलित हैं। इन पदों में सूर के बाल-वर्णन की अनेक विशेषताओं के दर्शन होते हैं। एक पद में कृष्ण माता यशोदा से हठ कर रहे हैं कि वह तो चन्द्र खिलौने से खेलेंगे। यदि उन्हें ‘चन्द खिलौना’ नहीं दिया तो वह धरती पर लोटने लगेंगे। वह माता की गोद में नहीं जाएँगे।

गाय का दूध नहीं पिएँगे, चोटी नहीं गुथवाएँगे और वह अपने को नंदबाबा का ही बेटा मानेंगे, यशोदा का नहीं। यशोदा हठी पुत्र को मनोवैज्ञानिक उपाय से मनाती है। वह उसे नई दुलहिन दिलाने का आश्वासन देती है और बाल-हठ का समाधान हो जाता है। एक अन्य पद में कृष्ण की मक्खन चुराने और गोपियों को तंग करने की बाल-मनोवृत्ति का वर्णन हुआ है। किसी गोपी का घर सूना देखकर कृष्ण उसमें घुस जाते हैं।

जी भरकर मक्खन खाने के पश्चात् उस बेचारी के बर्तन तोड़ डालते हैं। बहुत पुराने मांट के टुकड़े कर देते हैं। अचानक लौटी गोपी कृष्ण का करतब देखकर बड़ी क्षुब्ध होती है और उन्हें पकड़कर माँ यशोदा के न्यायालय में पेश कर देती है। इन पदों में बाल-स्वभाव और बच्चों के उपद्रवों का स्वाभाविक वर्णन हुआ है। बच्चों का रूठना और मनना; गोद में न आने, धरती पर लोटने, दूध न पीने की धमकियाँ देना आदि सूरदास के बाल वर्णन में सूक्ष्म निरीक्षण की विशेषता की ओर संकेत करती है। चुराकर वस्तु खाना, तोड़-फोड़ करना आदि बाल-स्वभाव के अंग हैं। इस प्रकार संकलित पदों में सूरदास के बाल-वर्णन की अनेक विशेषताएँ उपस्थित हैं।

प्रश्न 3.
पाठ्य-पुस्तक में ‘भ्रमरगीत’ शीर्षक के अन्तर्गत संकलित पदों के आधार पर बताइए कि गोपियों ने ज्ञान और योग को अस्वीकार करने के पक्ष में क्या-क्या तर्क दिए हैं ?
उत्तर:
गोपियाँ मानती हैं कि ज्ञान और योग का मार्ग उन जैसी अशिक्षित ग्रमीण नारियों के लिए बहुत कठिन है। उनके अनुसार प्रेम और भक्ति का मार्ग ही नारियों के लिए सुगम और सुखदायी है। उन्हें लगता है कि उद्धव उन्हें कृष्ण प्रेम से विमुख करने आए हैं। अतः वे उनके पक्ष का अनेक प्रकार से खण्डन करने लगती हैं। वह उद्धव पर आक्षेप करती हैं कि उनका व्यवहार एक चतुर व्यापारी जैसा है। वह उनके कृष्ण प्रेम जैसी अमूल्य वस्तु ठगकर योग और ज्ञान जैसी निरर्थक वस्तु से बहलाना चाहते हैं।

उनका कहना है कि वे ऐसी मूर्ख नहीं हैं कि फटकन के बदले अपना सोना दे दें। उनका तर्क है कि उद्धव कोरे ज्ञानी और योगी हैं, उन्हें लोक-व्यवहार का ज्ञान नहीं है। प्रेम और भक्ति से वह अपरिचित हैं। नारी मनोविज्ञान से उनका दूर का भी परिचय नहीं है। अत: उनके उपदेश उनके किसी काम के नहीं हैं।

गोपियों को उद्धव के ज्ञानी होने पर भी संशय है। ज्ञानी और विवेकी व्यक्ति किसी को शिक्षा-दीक्षा देते समय उसकी पात्रता का ध्यान रखता है। उद्धव को लोकाचार की साधारण बातें तक ज्ञात नहीं हैं। गोपियों जैसी अशिक्षित, ग्रामीण नारियाँ भला योगियों की तरह अर्धनग्न होकर कैसे साधना कर सकती हैं। इस प्रकार गोपियों ने अपने कृष्ण-प्रेम के पक्ष में तर्क देते हुए उद्धव को निरुत्तर कर दिया है।

प्रश्न 4.
पाठ्य-पुस्तक में संकलित पदों के आधार पर सूरदास के काव्य की भावपक्षीय और कलापक्षीय विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
संकलित पदों के आधार पर सूर के काव्य की निम्नलिखित विशेषताएँ सामने आती हैं –
भावपक्ष – भाव पक्ष की दृष्टि से सूर का काव्य दो रूपों में सामने आता है। प्रथम है बल्लभाचार्य से भेंट होने से पूर्व की रचनाएँ। इनमें विनय, दीनता, उद्धार की प्रार्थना जैसे भावों की प्रधानता है। जैसे

‘मेरौ मन अनत कहाँ सुख पावै
जैसे उड़ि जहाज को पंछी फिरि जहाज पै आवै।’
तथा – “अबकी राखि लेहु भगवान
हौं अनाथ बैठ्यौ द्रुम डरिया, पारधि साधे बान॥”
आदि ऐसी ही रचनाएँ हैं।

द्वितीय स्वरूप में वात्सल्य, सखाभाव और माधुर्यपूर्ण रचनाएँ आती हैं। वात्सल्य के तो सूर एकछत्र सम्राट हैं। सखाभाव में वह अपने इष्ट श्रीकृष्ण की सभी लीलाओं के साक्षी हैं और प्रेम-माधुर्यमयी रचनाओं में उनको नारी-हृदय प्राप्त होने की बात पर विश्वास करना पड़ता है। भ्रमरगीत, वियोगी नारी हृदय का विविध धाराओं में प्रवाहित अन्तर्गान है। गोपियों की मार्मिक उक्तियाँ, कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेमभाव सूर के भाव-वैभव का प्रत्यक्ष प्रमाण है।

कला-पक्ष – काव्यशिल्प की दृष्टि से भी सूर काव्य अभिनन्दनीय है। ब्रजभाषा को एक साहित्यिक.काव्य भाषा का स्वरूप प्रदान करना सूर की अपूर्व देन है। लोकोक्तियाँ और मुहावरों के सहज प्रयोग से भाषा को प्रभावशाली बनाया है। लक्षणा और व्यंजना शब्द-शक्तियों के प्रयोग से भाषा में अर्थ की गहराई आई है। ‘सूर सारावली’ के पद तो सूर की चमत्कारप्रियता के सुन्दर नमूने हैं। विषयानुसार वर्णन शैली की विविधता उपस्थित है। श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का हृदयस्पर्शी स्वरूप उपस्थित है। सूर ने अनुप्रास, यमक, श्लेष, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, सांगरूपक आदि सभी प्रमुख अलंकारों का प्रयोग किया है। इस प्रकार सूर काव्य भाव और कला दोनों ही दृष्टि से समृद्ध है।

सूरदास कवि परिचय

जीवन परिचय-
महाकवि सूरदास के जन्म और अवसान को लेकर विद्वानों में मतभेद रहे हैं। अधिकतर विद्वान सूरदास का जन्म 1483 ई. तथा देहावसान सन् 1563 ई. मानते हैं। सूर का जन्म दिल्ली के पास सीही नामक गाँव के एक ब्राह्मण के यहाँ हुआ था। उनको जन्मान्ध माना जाता है। बाद में वह आगरा और मथुरा के बीच गऊघाट पर रहने लगे। वहीं पर बल्लभाचार्य जी से इनकी भेंट हुई और उनके उपदेशों से प्रभावित होकर ये श्रीकृष्ण के बालस्वरूप और रसमयी लीलाओं को वर्णन करने लगे। पारसौली ग्राम में इस कृष्णलीलाओं के अद्वितीय गायक की वाणी ने अंतिम विराम लिया।

साहित्यिक परिचय-सूरदास जी की तीन रचनाएँ मानी जाती हैं-सूरसागर, साहित्य लहरी और सूरसारावली। इनमें सूरसागर से ही सूरदास जी की विश्वप्रसिद्ध पहचान है। सूर ने श्रीकृष्ण की लीलाओं से संबंधित विनय, वात्सल्य और श्रृंगार के पद रचे हैं। शृंगार रस के संयोग और वियोग दोनों पक्षों की हृदयस्पर्शी रचनाएँ सूरसागर में विद्यमान हैं। वात्सल्य रस का तो सूरदास को सम्राट माना जाता है।

सूरदास ने ब्रजभाषा को साहित्य की भाषा बनाया। उनकी भाषा जहाँ लोकोक्तियों और मुहावरों से कथन को प्रभावशाली बनाती है वहीं शब्द की लक्षण और व्यंजना शक्ति के प्रयोग से वह अपनी बात को बड़ी गइराई तक पाठक के हृदय में बैठा देते हैं। उनकी रचना शैली गीतिमय मुक्तकों से युक्त है। सूर के काव्य में प्राय: सभी प्रमुख शब्दालंकारों तथा अर्थालंकारों का प्रयोग हुआ है। यहाँ तक कि मानवीकरण अलंकार भी सहज रूप में उपस्थित है।

पाठ-परिचय

प्रस्तुत संकलन में सूर रचित विनय, बाल वर्णन तथा भ्रमरगीत प्रसंग के श्रृंगारपरक पद रखे गए हैं। विनय से संबंधित पहले पद तथा दूसरे में कवि ने श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान करने का कारण स्पष्ट किया है। तीसरे पद में सत्संग का महत्व प्रकाशित किया है तथा चौथे पद में अपने इष्टदेव से अपने उद्धार की प्रार्थना की है।

बाल वर्णन से सम्बद्ध पदों में प्रथम पद में बालहठ का रोचक वर्णन है। दूसरे पद में कृष्ण के बाँसुरी-वादन का मनमोहक और व्यापक प्रभाव का वर्णन हुआ है। तीसरे पद में ‘माखन चोर’ कन्हैया की गोपियों को खिझाने वाली करतूतें उजागर हुई हैं।

‘भ्रमर गीत’ प्रसंग से संकलित पदों में सूर ने योगी उद्धव पर व्यंग्यबाण छोड़ती गोपियों की प्रगल्भता का परिचय कराया है। प्रथम पद में गोपियाँ, सहज तर्को द्वारा प्रेममार्ग की तुलना में योग की व्यर्थता सिद्ध कर रही हैं।

दूसरे पद में गोपियाँ योगी उद्धव को अपनी वियोग-पीड़ा और विवशता समझाने का यत्न कर रही हैं, तो तीसरे पद में उद्धव को भुलक्कड़ और नासमझे बताते हुए, उन्हें उनके कौतुकी मित्र कृष्ण की शरारत का मारा हुआ बता रही हैं।

चौथा पद सांगरूपक (रूपक के सभी अंगों से युक्त) है। इस रूपक में ब्रह्मा को कच्चे घड़े बनाने वाला कुम्हार बनाया गया है। गोपियों के विरह-व्याकुल हृदय ही ये घड़े हैं। योगी उद्धव ने सारे ब्रज को बर्तन पकाने वाला भट्टा (अँवाँ), योग को ईंधन, कृष्ण की स्मृति को आग, दुखभरी साँसों को फेंक बनाकर इन गोपियों के हृदयरूपी घड़ों को पका दिया। विरह की अग्नि में तपाकर इन्हें पक्का (कृष्ण प्रेम में दृढ़) बना दिया है।

अंतिम पद में श्रीकृष्ण अपने अभिन्न मित्र उद्धव को अपने मन की बात बता रहे हैं। वह कह रहे हैं कि वह एक पल को भी अपने विगत ब्रज जीवन को नहीं भूल पाते हैं। बेचारे उद्धव अवाक् और चकित होकर मित्र को देखे जा रहे हैं।

पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्याएँ।

विनय-

1.
मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै?
जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी फिरि जहाज पर आवै॥
कमल-नैन कौ छाँड़ि महातम, और देव को ध्यावै।
परम गंग को छाँड़ि पियासो, दुरमति कूप खनावै॥
जिहि मधुकर अंबुज-रस चाख्यौ, क्यों करील फल भावै॥
सूरदास प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै॥

कठिन शब्दार्थ-अनत = अन्यत्र, और कहीं। कमल नैन = कमल जैसे नेत्र वाला। महातम = अंधा, मूर्ख। दुरमति = दुर्बुद्धि, बुद्धिहीन। कूप = कूआँ। खनावै = खुदवाना। मधुकर = मोर। अंबुज = कमल। करील = एक झाड़ी जिस पर ‘टेंटी’ नामक कडुआ फल उत्पन्न होता है। भावै = अच्छा लगना। कामधेनु = एक कल्पित गाय, जो सारी इच्छाएँ पूरी कर देती है।

प्रसंग तथासंदर्भ-प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अपरा’ में सन्निहित संकलित ‘विनय’ शीर्षक के अन्तर्गत संकलित सूरदास के पदों से उद्धृत है। इस पद में सूरदास ने कृष्ण की भक्ति करने का वर्णन किया है।

व्याख्या-मेरे मन को और किसी देवी-देवता की शरण में जाने से सुख नहीं मिल सकता। मेरा मन तो बीच समुद्र में स्थित किसी जहाज पर बैठे पक्षी के समान है। वह पक्षी उस जहाज से उड़कर और कहीं नहीं जा सकता। उसे लौटकर फिर उसी जहाज पर आना पड़ता है।

इसी प्रकार मैं भी जानता हूँ कि मुझे लौटकर फिर आपकी ही शरण में आना पड़ेगा। हे प्रभु ! आप ही बताइये कि जो व्यक्ति महातम (अंधा) है, वह कमल जैसे नेत्र वाले आपको छोड़कर और किसी देवता की आराधना क्यों करे ? धन चाहने वाला धन की देवी लक्ष्मी की, बल चाहने वाला बल के देव हनुमान की और विद्या चाहने वाला सरस्वती की आराधना करता है। मैं नेत्रहीन हूँ और आप कमलनयन हैं फिर मैं आपको छोड़ किसी अन्य की शरण क्यों हूँ? जिसके सामने परम पवित्र गंगा बह रही हो, वह प्यास बुझाने के लिए कुआँ खुदवाए तो उसे बुद्धिहीन ही कहा जाएगा, जिसने कमल का मधुर रस चखा है उसे करील के कड़वे फल क्यों अच्छे लगेंगे? मेरे लिए तो आप गंगा और कमल-रस के समान हैं। सूरदास कहते हैं कि हे प्रभु ! जिसे कामधेनु मिली हो, वह उसे त्यागकर भला बकरियाँ दुहने क्यों जाएगा।

विशेष-
(i) सूरदास ने अनेक तर्क देकर भगवान श्रीकृष्ण में अपनी अविचल भक्ति का परिचय दिया है।
(ii) साहित्यिक ब्रजभाषा है।
(iii) ‘मेरो मन’ तथा ‘क्यों करील’ में अनुप्रास अलंकार है। ‘कमल-नयन’ में उपमा अलंकार है।

2.
अविगत-गति कछु कहत न आवै॥
ज्यों गूंगे मीठे फल कौ रस, अंतरगत ही भावै॥
परम स्वाद सबही जु निरन्तर अमित तोष उपजावै॥
मन-बाणी कौं अगम-अगोचर, सो जानै जो पावै॥
रूप-रेख गुण जाति-जुगुति बिनु, निरालंब मन चक्रित धावै।
सब विधि अगम विचारहिं तातें, सूर सगुन-लीला पद गावै॥

कठिन शब्दार्थ- अविगत = अज्ञात, निराकार। गति = स्वभाव, व्यवहार। अन्तरगत = मन में। भावै = अनुभव होता है। परम = अत्यन्त। स्वाद = आनन्द। अमित = अपार। तोष = संतुष्टि, तृप्ति। उपजावै = उत्पन्न करता है। अगम = पहुँच से बाहर। अगोचर = इन्द्रियों द्वारा जिसका अनुभव या ज्ञान न हो। रेख = आकृति, बनावट। जुगुति = युक्ति, उपाय। बिनु = बिना। निरालंब = असहाय, उपायहीन। चक्रित धावै = भ्रम में पड़ जाता है, चक्कर में पड़ जाता है। विधि = उपाय, प्रकार। अगम = अगम्य, जिसे जाना न जा सके। सगुन-लीला = सगुण या साकार रूप में (श्रीकृष्ण के रूप में) की गई लीलाएँ॥

प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अपरा’ में सन्निहित ‘विनय’ शीर्षक के अन्तर्गत संकलित सूरदास के पदों से उद्धृत है। इस पद में सूरदास ने निराकार रूप में ईश्वर की उपासना या भक्ति को कठिन बताते हुए, उसके सगुण या साकार रूप-श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन करना सरल माना है।

व्याख्या-‘सूर’ कहते हैं कि निराकार या निर्गुण ईश्वर की भक्ति करना बड़ा कठिन है। उस निराकार का वर्णन कर पाना सम्भव नहीं है। उसकी भक्ति या उपासना का केवल अपने मन में ही अनुभव किया जा सकता है। यह स्थिति वैसी ही है जैसे एक गूंगा व्यक्ति मीठे फल का स्वाद मन में तो अनुभव करता है किन्तु उसे दूसरों को बता नहीं सकता। योगी, संन्यासी या साधक लोग, जो निराकार ईश्वर के आराधक हैं वे बताते हैं कि ईश्वर की निराकार स्वरूप उपासना में निरंतर बड़ा आनन्द मिलता है। आत्मा को परम संतुष्टि का अनुभव होता है, किन्तु वह आनंद और संतोष मन और वाणी की पहुँच से बाहर होता है। उसको वाणी द्वारा वर्णित करना या मन में पूर्ण रूप से समझ पाना सम्भव नहीं है। उस निराकार को केवल वही जान पाता है, जिसने साधना द्वारा उसे प्राप्त कर लिया है तथा अनुभव किया है। उस निराकार ईश्वर का न कोई रूप है न आकृति। वह गुणों से रहित है, उसकी कोई जाति या पहचान भी नहीं बताई जा सकती, उसे पाने या समझने का कोई निश्चित उपाय भी नहीं है। अत: निराकार ईश्वर की उपासना करने वाले सामान्य व्यक्ति का मन भ्रम में पड़ जाता है। ‘सूरदास’ अंत में कहते हैं कि उस निर्गुण या निराकार ईश्वर को सब प्रकार से अगम-ज्ञाने से परे जानकर, वह परमात्मा के सगुण रूप भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान करके, परम आनंद का अनुभव कर रहे हैं॥

विशेष-
(i) सूरदास जी ने अपने जैसे सामान्य व्यक्तियों के लिए ईश्वर के सगुण स्वरूप की भक्ति को ही सर्वोत्तम माना है। निराकार रूप में ईश्वर की उपासना में कितनी कठिनाइयाँ हैं, यह गिनाते हुए सूरदास ने उद्धव जैसे निराकार उपासना के समर्थकों पर व्यंग्य भी किया है।
(ii) भाषा साहित्यिक तथा विषय के अनुरूप है।
(iii) कवि ने अपनी आस्था को बल देने के लिए खण्डन-मण्डन की शैली अपनाई है।
(iv) ‘कछु कहत’, ‘अगम-अगोचर’, ‘रूप-रेख’ तथा ‘जाति-जुगुति’ में अनुप्रास अलंकार है।

3.
छाँड़ि मन हरि विमुखन कौ संग।
जाके संग कुबुद्धी उपजै परत भजन में भंग॥
कहा भयौ पये, पान कराये विष नहिं तजत भुजंग।
कागहि कहा कपूर खवाए, स्वान न्हवाए गंग॥
खर को कहा अरगजा लेपन मरकट भूषण अंग।
गज को कहा न्हवाये सरिता बहुरि धरै गहि छंग॥
पाहन पतित बान नहिं भेदत रीतौ करत निषंग॥
‘सूरदास’ खल कारी कामरि चढ़े न दूजो रंग॥

कठिन शब्दार्थ-छाँड़ि = त्याग दे। हरि विमुख = भगवान की भक्ति में रुचि न लेने वाला। कुबुद्धी = बुरे भाव या विचार। भंग = बाधा। पय = दूध। पान= पिलाना। तजत = त्यागता है। भुजंग = सर्प। कागहि= कौए को। कपूर = एक सुगन्धित पदार्थ। स्वान = कुत्ता। न्हवाए= नहलाने से, स्नान कराने से। गंग = गंगा। खर = गधा। अरगजा = कपूर, केसर तथा चंदन को मिलाकर बना सुगंधित लेप। मरकट = बंदर। भूषण = गहने, आभूषण। अंग = शरीर। गज = हाथी। बहुरि = फिर से। धरै = धारण करता है, डाल लेता है। गहि छंग = धूल स्नान करना, धूल को अपने शरीर पर डालना। पाहन = पत्थर। पतित = पड़ने वाला, चोट करने वाला। बान = बाण, तीर। भेदत = छेदना, पार जाता। रीतौ = खाली, रीता। निषंग = तरकस, बाण रखने का थैला जो पीठ पर कसा जाता है। खल = दुष्ट, भगवत् विरोधी। कारी कामरि = काले रंग का छोटा कम्बल। दूजो = दूसरा, अन्य। . प्रसंग तथा

संदर्भ-प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अपरा’ में ‘विनय’ शीर्षक के अन्तर्गत संकलित सूरदास के पदों से उद्धृत है। इस पद में सूरदास भगवान की भक्ति में रुचि न लेने वाले दुष्ट लोगों की संगति से बचने का सन्देश दे रहे हैं।

व्याख्या-सूर कहते हैं-हे मेरे मन! तू भगवत् चर्चा से दूर रहने वाले और सांसारिक चर्चाओं में लगे रहने वाले लोगों का साथ छोड़ दे। ऐसे लोगों का संग करने से बुरे विचार उत्पन्न होते हैं तथा भगवान की भक्ति में बाधा पड़ती है। ऐसे लोगों को सुधारना असम्भव है। साँप को कितना ही दूध पिलाओ, उसका विष कभी दूर नहीं हो पाता, अपितु और बढ़ता है। इसी प्रकार मांस आदि मलिन वस्तुओं का भक्षण करने वाले कौए को कितना भी सुगंधमय कपूर चुगाओ, वह अपना स्वभाव नहीं छोड़ता। कुत्ते को गंगा में स्नान कराने से वह गंदे स्थान पर बैठना और अपवित्र वस्तुएँ खाना नहीं छोड़ता। गधे का स्वभाव धूल में लोटने का है। उसके शरीर पर कपूर, केसर तथा चंदन से बना अत्यन्त सुगंधित ‘अरगजा’ का कितना भी लेप करो, वह धूल में लोटे बिना नहीं मानेगा। ऐसे ही बंदर का स्वभाव हर वस्तु को तोड़ने-फाड़ने का है, उसे सुन्दर और बहुमूल्य आभूषण पहना देने से क्या वह सुधर जाएगा?

नहीं, वह उन आभूषणों को भी छिन्न-भिन्न कर डालेगा। हाथी को धूल से स्नान करना बहुत प्रिय लगता है, उसे नदी में कितना भी मल-मल कर स्नान कराओ, वह बाहर आते ही सँड़ में धूल लेकर अपने अंगों पर डालना आरम्भ कर देता है। पत्थर पर कितने भी बाण चलाए जाएँ, वे उसमें छेद नहीं कर सकते। सारा तरकस भी बाणों से खाली कर दो, तब भी कोई बाण पत्थर को नहीं भेद पाएगा।’सूरदास’ कहते हैं- भक्तजनो ! इसी प्रकार दुष्ट हरि विरोधियों का स्वभाव भी काली कमली के समान होता है। इन पर हरि चर्चा रूपी रंग कभी नहीं चढ़ पाता। अत: ऐसे लोगों की संगति त्याग देना ही बुद्धिमानी है।

विशेष-
(i) किसी भी व्यक्ति के लिए अपने स्वभाव को बदल पाना बहुत कठिन होता है। यदि कोई व्यक्ति दुष्ट स्वभाव का है। तो उसे सुधारने के यत्न में अपनी हानि हो सकती है। अतः सूर ने इस पद में भक्तजनों को सर्वथा उचित परामर्श दिया है।
(ii) भाषा साहित्यिक है। उदाहरणपरक शैली अपनाकर कवि ने अपने संदेश को प्रभावशाली बनाया है।
(iii) पद में लोकोक्तियों को कुछ नए ढंग में प्रस्तुत किया गया है।
(iv) ‘भजन में भंग’, ‘पय पान’, ‘कागहि कहा कपूर’, ‘पाहन पतित’ तथा ‘कारी कामरि’ में अनुप्रास अलंकार है।
(v) कवि ने बुरों को सुधारने के झूठे अहंकार से मुक्त रहकर भगवत्-भक्ति में चित्त लगाने का संदेश दिया है।

4.
अब कै राखि लेहु भगवान।
हौं अनाथ बैठ्यौ दुम डरिया, पारधि साधे बान॥
ताकै डर हैं भज्यौ चहत हौं, ऊपर ढुक्यो सचान।
दुहुँ भाँति दुख भयौ आनि यह, कौन उबारै प्रान?
सुमिरत ही अहि डस्यौ पारधी, सर छूट्यौ संधान।
सूरदास सर लग्यौ सचानहिं, जय-जय कृपानिधान॥

कठिन शब्दार्थ-अब कै= अब की बार। राखि लेहु= रक्षा करके। दुम = वृक्ष। डरिया = डाली। पारधि = चिड़ीमार, पक्षियों का शिकार करने वाला। साधे = धनुष पर चढ़ाए हुए। ताके = उसके। भज्यौ चहत = भागना चाहता। हौं = मैं। ढुक्यो = झपटने को मँडरा रहा। सचान = बाज, एक शिकारी पक्षी। दुहुँ = दोनों। उबारै = बचाए। सुमिरत ही = स्मरण करते ही। अहि= साँप। डस्यौ = डस लिया, काट लिया। सर = बाण। छूट्यौ = छूट गया। संधान = धनुष पर चढ़ा हुआ (बाण)। लग्यौ = जा लगा।

प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अपरा’ में ‘विनय’ शीर्षक के अंतर्गत संकलित सूरदास के पदों से उधृत है। इस पद में कवि भगवान के शरणागत रक्षक स्वरूप का परिचय करा रहा है। एक निरीह कबूतर की भगवान ने कैसे प्राण-रक्षा की, इस कथा को कवि ने इस पद में प्रस्तुत किया है।

व्याख्या-एक बार एक कबूतर एक वृक्ष की डाल पर बैठा हुआ था। उसने अचानक देखा कि एक चिड़ीमार (पक्षियों का शिकारी) उस पर बाण का निशाना लगाए खड़ा था। प्राण संकट में देखकर कबूतर बहुत घबराया। वह भगवान से प्रार्थना करने लगा। हे प्रभु! इस बार हमारी रक्षा कीजिए। देखिए ! मैं वृक्ष की डाल पर बैठा हूँ। यह शिकारी मुझे बाण का निशाना बनाना चाहता है। मैं बिल्कुल अनाथ हूँ। मेरा इस समय कोई रक्षक नहीं है। मैंने इस वधिक के भय से भागना चाहा तो देखा कि ऊपर आकाश में मँडराता एक बाज मुझ पर झपटना चाहता है। अब तो दोनों ओर से मेरे प्राण संकट में हैं। आपके अतिरिक्त और कौन मेरी रक्षा कर सकता है। जैसे ही कबूतर ने दीन भाव से प्रभु को पुकारा तभी एक सर्प ने उस वधिक के पैर में डस लिया और धनुष पर चढ़ा बाण हाथ से छूट गया। वह बाण जाकर ऊपर मँडरा रहे बाज को जा लगा और वह भी मारा गया। इस प्रकार भगवान की शरण लेते ही कबूतर के दोनों शत्रु नष्ट हो गए। ‘सूर’ ऐसे शरणागत वत्सल भगवान की जय-जयकार करते हैं।

विशेष-
(i) इस पद के माध्यम से सूरदास संदेश दे रहे हैं कि भगवान बड़े दयालु हैं। वह शरणागत की पुकार सुनने में तनिक भी देर नहीं लगाते हैं। भक्त के बड़े-से-बड़े संकट को भी तनिक देर में दूर कर देते हैं।
(ii) सरल-साहित्यिक ब्रज भाषा है।
(iii) दास्य भाव की भक्ति का आदर्श स्वरूप प्रस्तुत हुआ है।

बाल-लीला

5.
मैया, मैं तो चंद-खिलौना लैहौं।
जैहौं लोटि धरनि पर अवही, तेरी गोद न ऐहौं।
सुरभी को पय-पान न करिहौं, बेनी सिर न गुहैहौं।
वै हौं पूत नंद बाबा कौ, तेरौ सुत न कहै हौं।
आगे आउ, बात सुन मेरी, बलदेवहिं न जनैहौं।
हँसि समुझावति, कहति जसोमति, नई दुलहनिया दैहौं॥
तेरी सौं, मेरी सुनि मैया, अवहिं वियाहन जैहौं।
सूरदास वै कुटिल बराती, गीत सुमंगल गैहौं।

कठिन शब्दार्थ-चंद-खिलौना = चंद्रमारूपी खिलौना। लैहौं = लँगा। धरनि = धरती। सुरभी = एक प्रकार की गाय। पय = दूध। बेनी = चोटी। गुहैहौं = गॅथवाऊँगा। वै हौं = होऊँगा। पूत = पुत्र। जनैहौं = बताऊँगी। जसोमति = यशोदा। अवहिं = अभी। वियाहन = विवाह करने। कुटिल = टेढ़ा, कपटी।

प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अपरा’ में ‘बाल-लीला’ शीर्षक के अंतर्गत संकलित पदों से उद्धृत है। इस पद में बालक कृष्ण चंद्रमों से खेलने का हठ कर रहे हैं। माता यशोदा उन्हें नई दुलहिन दिलाने का वचन देकर बहला रही हैं।

व्याख्या-आकाश में दमक रहे श्वेत चंद्रमा को देख हठी कन्हैया ने उसी से खेलने का हठ कर लिया है। माँ से कह रहे हैं कि वह इस चंद्रमा के खिलौने से ही खेलेंगे। यदि वह यह चन्द्र खिलौना नहीं देंगी तो वह धरती पर लोट जाएँगे और उसकी (माता की) गोद में नहीं आएँगे। न सुरभी गाय का दूध पिएँगे न सिर पर चोटी गॅथवाएँगे। अब हम नंद बाबा के पुत्र हो जाएँगे और अपने को यशोदा का बेटा नहीं कहलवाएँगे। यह सुनकर यशोदा कृष्ण से कहती हैं कि तनिक आगे आकर वह उनकी बात सुनें। यह बात वह बलराम को पता नहीं चलने देंगी। हँसती हुई यशोदा श्रीकृष्ण को समझा रही हैं कि वह उनको (कृष्ण को) नई दुलहिन दिलाएँगी। यह सुनकर कृष्ण माँ से कहते हैं कि वह उनकी सौगंध खाकर कह रहे हैं कि वह अभी विवाह करने जाएँगे। सूरदास भी आनंदित होकर कहते हैं कि वह भी इस विवाह में कपटी बराती बनकर जाएँगे और मंगलकारी गीत गाएँगे।

विशेष-
(i) सूर बाल-मनोविज्ञान के पंडित हैं। बालकों को हठ और माताओं द्वारा उनको बहलाना। बाल जगत की इस मनोरंजक परम्परा को इस पद में कवि ने बड़े स्वाभाविक रूप में प्रस्तुत किया है।
(ii) छोटे बालकों के रूठने और उनके द्वारा दी जाने वाली धमकियों का यथातथ्य वर्णन हुआ है।
(iii) भाषा पात्रों के अनुरूप है।
(iv) ‘चंद-खिलौना’ में रूपक तथा ‘पय-पान’ तथा ‘आगे आउ’ में अनुप्रास अलंकार है।

6.
जब हरि मुरली अधर धरी।
गृह-व्यौहार तजे आरज-पथ, चलत न संककरी॥
पद-रिपु पट अंटक्यौ न सम्हारति, उलट न पलट खरी।
सिब-सुत-वाहन आइ मिले हैं, मन-चित-बुद्धि हरी॥
दुरि गए कीर, कपोत, मधुप, पिक सारँग सुधि बिसरी।
उडुपति, विदुम बिम्ब खिसाने, दामिनि अधिक डरी॥
मिलि हैं स्यामहिं हंस-सुता-तट, आनंद-उसँग भरी।
सूर स्याम कौं मिली परस्पर, प्रेम-प्रवाह ढरी॥

कठिन शब्दार्थ-अधर = होंठ (पर)। धरी = रखी। गृह-व्यौहार = परिवार में किया जाने वाला उचित व्यवहार, घर के कार्य। तजे = त्याग दिए, भुला दिए। आरज-पथ = श्रेष्ठ आचरण। संक= शंका, संकोच। पद-रिपु= पैर का शत्रु अर्थात् काँटा। पट = वस्त्र, साड़ी आदि। अटक्यौ = उलझ गया। सम्हारति = सम्हालती, बचाती। उलट न पलट खरी = मुड़कर खड़ी नहीं हुई। पलटकर भी न देखा। सिब-सुत-वाहन = शिव के पुत्र कार्तिकेय को वाहन-मोर। चित= चेतना। हरी = नहीं रहीं। दुरि गए= छिप गए। कीर= तोते। कपोत= कबूतर। मधुप= भौरे। पिक = कोयले। सारँग = सर्प। सुधि बिसरी= सुध-बुध भूल गए, चकित रह गए। उडुपति = चन्द्रमा। विद्म = मॅगी। बिम्ब = बिम्बा नामक लाल फल। खिसाने= खिसिया गए। दामिनि = बिजली। हंस-सुता= यमुना। प्रेम-प्रवाह= प्रेम की धारा। ढरी = मग्न, बहती।

प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य पुस्तक ‘अपरा’ में ‘बाल-लीला’ शीर्षक के अंतर्गत संकलित सूरदास के पदों से उधृत है।

इस पद में सूरदास ने श्रीकृष्ण की बंशी की ध्वनि के गोपियों पर पड़ने वाले प्रभाव का और गोपियों के अंग-सौन्दर्य का। आलंकारिक वर्णन किया है।

व्याख्या-जब श्रीकृष्ण ने होंठों पर बंशी धारण की तो उसकी मनमोहनी ध्वनि ने गोपियों के मन वश में कर लिए। गोपियाँ घर के सभी कामों को और उचित आचरण को भुलाकर बिना किसी संकोच या शंका के कृष्ण से मिलने चल दीं। उनके वस्त्र काँटों में उलझने लगे किन्तु उन्होंने उनको सँभालना तो दूर, पलटकर भी पीछे नहीं देखा। मार्ग में शिव के पुत्र कार्तिकेय के वाहन अर्थात् मोर आकर मिले तो मोर मुकुटधारी कृष्ण के भ्रम ने उनके मन, चेतना और विचारशक्ति का हरण कर लिया। उन गोपियों के अंग-सौन्दर्य को देखकर सारे उपमान लज्जित होने लगे। उनकी नाक देखकर तोते, कंठ देखकर कबूतर, नेत्र देखकर भौंरे, मधुर वाणी से कोयल और काली-काली चोटियों को देखकर सर्प सुधबुध भूल गए, चकित मूंगे, होंठों को देखकर बिम्बाफल खिसिया गए। इन सभी को अपनी सुन्दरता फीकी लगने लगी। गोपियों की शुभ्र दंत पंक्ति को देखकर बिजली डर गई। सारी गोपियाँ आनंद और उत्साह से भरी हुई यहाँ यमुनातट पर श्रीकृष्ण से मिलने जा रही थीं। सूरदास कहते हैं कि प्रेम के प्रवाह में मग्न वे गोपियाँ श्रीकृष्ण से मिलकर जैसे एकाकार हो गईं।

विशेष-
(i) कवि ने कृष्ण की मुरली की ध्वनि के जादू को और गोपियों के श्रीकृष्ण के प्रति उन्माद भरे प्रेम का सजीव चित्रण किया है।
(ii) गोपियों के अंग-सौन्दर्य का आलंकारिक शैली में वर्णन हुआ है। कवि ने स्त्रियों के अंगों की सुंदरता के लिए उदाहरण दिए। जाने वाले सारे प्रसिद्ध उपमानों को गोपियों के अंग-सौन्दर्य के सामने कान्तिहीन बताया है।
(iii) भाषा साहित्यिक ब्रजी है।
(iv) संयोग श्रृंगार रस की मनोरम झाँकी प्रस्तुत हुई है।

गए स्याम ग्वालिनि घर सूनै।
माखन खाइ, डारि सब गोरस, बासन फोरि किए सब चूनै॥
बडौ माट इक बहुत दिननि कौ, ताहि कयौ दस टूक।
सोवत लरिकनि छिरकि मही सौं, हँसते चले दै कूक॥
आइ गई ग्वालिनि तिहि औसर, निकसत हरि धरि पाए।
देखे घर बासन सब फूटे, दूध दही ढरकाए॥
दोउ भुज धरि गाडै करि लीन्हे, गई महरि के आगै।
सूरदास अब बसै कौन ह्याँ, पति रहि है ब्रज त्यागै॥

कठिन शब्दार्थ-सूनै = सूना। डारि = गिराकर। गोरस = दूध-दही, छाछ आदि। बासन = बर्तन (मिट्टी के)। फोरि = तोड़कर। चूनै = चूर-चूर। माट = एक बड़ा मिट्टी का पात्र। टूक = टुकड़े। लरिकन = लड़कों को। छिरकि= छिड़ककर। मही सौं = छाछ या मट्ठे से। दै कूक = कूकते हुए, प्रसन्नतासूचक बोली बोलते। तिहि= उसी। औसर = अवसर, समय। निकसत = निकलते हुए। धरि पाए = पकड़े गए। ढरकाए= फैलाए हुए। भुज= भुजाएँ, हाथ। गाडै करि लीन्हें= कसकर पकड़ लिया। महरि = यशोदा। बसै = रहे। याँ = यहाँ। पति = सम्मान॥

प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अपरा’ में ‘बाललीला’ शीर्षक के अंतर्गत संकलित पदों से उद्धृत है। सूरदास ने इस पद में बालक कृष्ण की लोक-प्रसिद्ध और लोक-प्रियं, ‘माखन-चोरी’ लीला के एक प्रसंग का शब्द-चित्र प्रस्तुत किया है।

व्याख्या-कृष्ण अपने सखाओं सहित एक गोपी के सूने घर में जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने उसका मक्खन खाया। सारा गोरस (दूध, दही, छाछ आदि) फैला दिया और उसके मिट्टी के सारे बर्तन तोड़कर चूर-चूर कर दिए। घर में एक बहुत पुराना और बड़ा मिट्टी का।

बर्तन मांट रखा था। उसको तोड़कर दस टुकड़े कर दिए। इसके बाद घर में सो रहे गोपी के लड़कों पर मट्ठा छिड़ककर हँसते और कोलाहल करते चल दिए। उसी समय गोपी आ पहुँची। उसने घर से निकल रहे कृष्ण को पकड़ लिया। जब उसने घर में जाकर सारे बर्तन टूटे पड़े हुए और दही फैला हुआ देखा तो उसने दोनों हाथों से कृष्ण को पकड़ लिया और उन्हें लेकर यशोदा के सामने जा पहुँची। गोपी यशोदा से कहने लगी कि कृष्ण के नित्य नए उत्पातों के चलते अब इस ब्रज में कोई कैसे रह पाएगा। अब तो ब्रज को छोड़कर कहीं और जाकर बसने पर ही सम्मान बच पाएगा।

विशेष-
(i) प्रस्तुत पद में सूरदास के सजीव और स्वाभाविक बाल-वर्णन की मन-मोहनी झाँकी चित्रित हुई है।
(ii) शरारती बालकों के मनोविज्ञान से कवि सुपरिचित है, पद के क्रिया-कलाप यह प्रमाणित कर रहे हैं।
(ii) ब्रजभाषा का मौलिक रूप शब्दावली से प्रत्यक्ष हो रहा है।

भ्रमर गीत

1.
आयौ घोष बड़ौ व्यौपारी।
लादि खेप गुन, ज्ञान-जोग की ब्रज में आय उतारी॥
फाटक दै कर हाटक माँगत भौंरे निपट सुधारी
धुर ही ते खोटो खायो है, लये फिरत सिर भारी॥
इनके कहे कौन डहकावै, ऐसी कौन अजानी॥
अपनो दूध छाँड़ि को पीवै, खार कूप को पानी॥
ऊधो जाहु सवार यहाँ तें, वेगि गहरु जनि लावौ।
मुँह माँग्यो पैहो सूरज प्रभु साहुहि आनि दिखावौ॥

कठिन शब्दार्थ- खेप = बोझ, भार। फाटक = फटकन, कूड़ा। हाटक = सोना। निपट = बिलकुल, पूर्णतः। सुधारी= समझ ली हैं। धुर ही ते = आरम्भ से ही। खोटो खायो = कपट किया है, अनुचित लाभ कमाया है। डहकावै = बहकावे में आए। अज्ञानी = मूर्ख, भोली। खार = खारा। बेगि = शीघ्र। गहरु = देर। जनि लावौ = मत करो। मुँह माँग्यौ = इच्छानुसार। पैहो = पाओगे। साहुहि= साहू या स्वामी को। आनि = लाकर।

प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य पुस्तक अपरा में ‘भ्रमरगीत’ शीर्षक के अन्तर्गत संकलित सूरदास के पदों से उद्धृत है। इस पद में गोपियाँ ज्ञान और योग का उपदेश करने आए उद्धव की हँसी उड़ा रही हैं। व्याख्या-गोपियाँ परस्पर कह रही हैं कि उनकी बस्ती में आज एक बड़ा व्यापारी आया हुआ है। इसने गुण ज्ञान और योग आदि वस्तुओं की अपनी खेप (बिक्री की वस्तुएँ) सीधे ब्रज में लाकर उतारी है। यह व्यापारी बड़ा कपटी है। यह अपने फटकन (कूड़ा-करकट) को सोने के बदले बेचना चाहता है। इसने हम सबको भोली या मूर्ख समझ लिया है। इसने तो लगता है आरम्भ से ही लोगों को ठगा है। तभी तो यह इस भारी बोझ को सिर पर लिए घूम रहा है। पर इस ब्रज में ऐसी मूर्ख कोई नहीं है जो इसके बहकावे में आ जाय। भला अपना दूध (कृष्ण के प्रति प्रेमभाव) को छोड़कर खारे कुएँ के पानी (ज्ञान और योग) को कौन पिएगा। गोपियाँ उद्धव से कहती हैं- उद्धव जी!
आप इस नाटक को बंद करके बिना देर किए सीधे मथुरा जाइए और अपने साहू या बड़े सेठ को लाकर हमें दिखा दीजिए। हम आपको मुँहमाँगा मूल्य चुकाएँगी।

विशेष-
(i) उद्धव को गोपियों ने व्यापारी बना दिया है जो योग और ज्ञान जैसी तुच्छ वस्तुओं के बदले उनसे कृष्ण-प्रेम रुपी स्वर्णमुद्रा ठगना चाहता है।
(ii) कृष्ण प्रेम को दूध के समान और ज्ञान-योग को खारे पानी के समान बताया गया है।
(iii) भाषा लक्षणा और व्यंजना शक्ति से सम्पन्न है। लोकोक्तियों और मुहावरों के प्रयोग से कथ्य प्रभावशाली बन गया है।
(iv) ‘गुने, ग्यान, जोग’, ‘खोटो खायो’ तथा ‘मुँह माँग्यां’ में अनुप्रास अलंकार है।

2.
ऊधो ! कोकिल कूजत कानन।
तुम हमको उपदेश करत हौ भस्म लगावन आनन।
औरों सब तजि, सिंगी लै-लै टेरन चढ़न पखानन।
पै नित आनि पपीहा के मिस मदन हति निज बीनन।
हम तौ निपट अहीर बाबरी, जोग दीजिए ज्ञाननि।
कहा कथत मामी के आगे, जानत नानी नानन॥
सुंदरस्याम मनोहर मूरति, भावति नीके गानन्।
सूर मुकुति कैसे पूजति है, वा मुरली की तानन॥

कठिन शब्दार्थ-कोकिल= कोयल। कूजत= कूक, रही, बोल रही। कानन = वैन। भस्म = राख। आनन = मुख। सिंगी = योगियों द्वारा बजाई जाने वाली, सग से बनी तुरही। टेरन= पुकारा। पखानन= पत्थरों या पर्वतों पर। पपीहा = एक पक्षी जो पिउ-घिउ की ध्वनि में बोलता है। मिस= बहाने से। मदन = कामदेव, सौन्दर्य और प्रेम के देवता। हति (हतै) = चोट कर रहा है। निपट = निरी, पूर्णतः। अहीर = गोपी। बाबरी = पागल भोली। जोग = योग की शिक्षा। ज्ञाननि = ज्ञानियों को। कथत = कहते हो, बताते हो। नानी-नानन = पूरे परिवार को, सचाई को। नीके = सुहावने। गानन = गीतों से। मुकुति = मुक्ति, मोक्ष, जन्म और मृत्यु से छुटकारा। पूजति = समान हो सकती है।

प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में ‘भ्रमरगीत’ शीर्षक के अन्तर्गत संकलित सूरदास के पदों में से अवतरित है। गोपियाँ उद्धव द्वारा योग साधना किए जाने के उपदेश पर व्यंग्य कर रही है। व्याख्या-गोपियाँ उद्धव से कहती हैं-उद्धव जी ! सुनिए, वन में कोयल कूक रही है। वसंत के आगमन की सूचना दे रही है। वसंत के मादक और प्रेम जगाने वाले वातावरण में कुछ प्रेम की बातें कीजिए। आप तो हमसे कह रहे हैं कि हम अपने मुखों पर योगियों की भाँति राख मल लें। सब कुछ त्याग कर हाथों में सींग की बनी तुरही लेकर, उसे बजाती हुई पर्वतों पर जाकर योग साधना करें। परन्तु यह कामदेव पपीहे की ‘पिउ-पिउ’ के बहाने से हमारे वियोगी हृदयों में प्रेम-जगाने वाले बाण मार रहा है, इसके लिए क्या करें। उद्धव हम तो अपढ़ और बिल्कुल अज्ञानिनी अहीरिने (गोपियाँ) हैं, हम आपके ज्ञान और योग को कैसे समझ पाएँगी? इसे तो आप ज्ञानियों को ही दीजिए। आपके इन योग और ज्ञान के उपदेशों को सुनकर हमें लगता है जैसे कोई मामी के आगे नानी और नाना (ननसाल) की बातें करे। आपके ज्ञान और योग की साधना से हम को मुक्ति या मोक्ष प्राप्त हो सकता है, परन्तु हमें अपने प्रिय श्यामसुंदर की मुरली की मनमोहनी तानों के आगे, आपकी मुक्ति तुच्छ प्रतीत होती है। अत: आपका योग हमारे किसी काम का नहीं है।

विशेष-
(i) योगी उद्धव प्रेम का क, ख, ग भी नहीं जानते। वह भला गोपियों की विरह वेदना कैसे समझ पाएँगे। गोपियों ने उन्हें संकेत में समझाने की चेष्टा की है कि वह उनको योग सिखाने के बजाय श्रीकृष्ण से उनका मिलन करा दें।
(ii) सूरदास जी ने गोपियों के माध्यम से संदेश दिया है कि ज्ञान और योग की अपेक्षा प्रेम और भक्ति का मार्ग सामान्य जन के लिए सुगम और अनुकूल है।
(iii) पद का भावपेक्ष हृदयस्पर्शी है।
(iv) कोकिल कूजति कानन’ में अनुप्रास अलंकार है।

3.
ऊधो! जाहु तुम्हैं हम जाने॥
स्याम तुम्हें याँ नाहिं पठाए, तुम हौ बीच भुलाने॥
ब्रजवासिने सों जोग कहत हौ, बात कहने न जाने।
बढ़ लागै न विवेक तुम्हारो, ऐसे नए अयाने॥
हमसों कही लई सो सहिकै, जिय गुनि लेहु अपाने।
कहँ अबला कहँ दसा दिगंबर, संमुख करौ पहिचाने॥
साँच कहो तुमको अपनी सौं, बूझति बात निदाने।
‘सूर’ स्याम जब तुम्हें पठाए, तब नेकहु मुसुकाने॥

कठिन शब्दार्थ-जाने = जान गई। पठाए = भेजे। बीच = रास्ते में। भुलाने = भूल गए हो। बढ़ = बढ़ा हुआ, बड़ा। विवेक = ज्ञान। अयाने = अज्ञानी। गुनि लेहु = विचार करो, सोचो। अबला = दुर्बल (स्त्रियाँ)। दसा = दशा, स्वरूप। दिगंबर = वस्त्रहीन, नग्न। सम्मुख = सामने (रखकर)। पहिचाने = पहचान, निर्णय। बूझति = पूछती है। निदाने = वास्तव में। नेकहु= तनिक भी।

प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में ‘भ्रमरगीत’ नामक शीर्षक के अंतर्गत संकलित सूरदास के पदों से उद्धृत है। इस पद में गोपियाँ, स्त्रियों को योगसाधना का उपदेश करने वाले, उद्धव पर व्यंग्य कर रही हैं।

व्याख्या-गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि वह मथुरा लौट जाएँ क्योंकि उन्होंने उनकी योग्यता को पहचान लिया है। वे कहती हैं। कि कृष्ण ने उनको यहाँ (ब्रज में) नहीं भेजा है। वह तो मार्ग में भटककर वहाँ चले आए हैं। यदि उनको कृष्ण ने भेजा होता तो वह भोले-भाले, कृष्ण-प्रेमी, ब्रजवासियों को योग की शिक्षा नहीं देते। उनको तो इतनी भी समझ नहीं है कि किससे क्या बात कहनी चाहिए। गोपी उद्धव से कहती हैं-उद्धव जी आप चाहे कितने भी महान योगी हैं। पर आपका ज्ञान हमें बड़ा नहीं लगता। हमें तो लगता है कि आप। अभी नौसिखिए हैं। आपको लोक व्यवहार का ज्ञान नहीं है।

चलो, आपने हम से जो कुछ योग और ज्ञान संबंधी बातें कहीं, हमने तो आपको प्रिय कृष्ण का मित्र मानते हुए सहन कर लीं किन्तु तनिक आप अपने मन में विचार करके देखिए कि कहाँ तो दुर्बल तन-मन वाली हम स्त्रियाँ और कहाँ आपके योगियों की नग्न रहने की दशा। क्या स्त्रियाँ योगियों की भाँति लँगोटी बाँधकर रह सकती हैं?

सच-सच बताइए, आपको हमारी सौगंध है; जब कृष्ण ने आपको ब्रज में भेजा था, तब क्या वह तनिक मुसकराए थे?

भाव यह है कि कहीं कृष्ण ने आपके साथ परिहास तो नहीं किया? आपके योग और ज्ञान के अहंकार की हँसी उड़वाने को तो आपके मित्र ने आपको यहाँ नहीं भेज दिया?

विशेष-
(i) इस प्रसंग के माध्यम से कवि सूरदास ने योग और ज्ञान मार्ग पर, प्रेम आधारित भक्ति भाव की विजय कराई है।
(ii) व्यंग्य और परिहासमयी शैली ने कथ्य को पैनापन प्रदान किया है।
(iii) लक्षण और व्यंजना ने गोपियों के संवादों को मर्मस्पर्शी बना दिया है।
(iv) ‘दसा दिगंबर’ में अनुप्रास अलंकार है।

4.
ऊधो! भली करी अब आए।
विधि-कुलाल कीने काँचे घट, ते तुम आनि पकाए॥
रंग दियो हो कान्ह साँवरे, अँग-अँग चित्र बनाए।
गलन न पाए नयन-नीर ते, अवधि अटा जो छाए।
ब्रज करि अँवाँ, जोग करि ईंधन, सुरति-अगिनी सुलगाए।
हूँक उसास, विरह परजारनि, दरसन आस फिराए॥
भए सँपूरन, भरे प्रेम-जल, छुवन न काहू पाए।
राजकाज ते गए सूर सुनि, नंदनन्दन कर लाए।

कठिन शब्दार्थ-विधि= विधाता, ब्रह्मा। काँचे= कच्चे। घट= घड़े। आनि= आकार। अवधि= निश्चित किया गया समय। अटा= अटारी। अँवाँ= मिट्टी. के कच्चे बर्तनों को पकाने के लिए ईंधन का ढेर। सुरति= स्मृति, याद। उसास= गहरी दुख भरी साँस। परजारिन= लपटें, तीव्र आग। फिराए = घुमाए (कहीं ‘फिराए’ के स्थान पर सिराए’ पाठ भी है)। सँपूरन= पूर्ण, पककर तैयार। छुवने = छूना। राजुकाज = राजा (कंस) को कार्य। कर लाए= के लिए (सुरक्षित रखे हैं।)

प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य पुस्तक अपरा में ‘भ्रमरगीत’ शीर्षक के अंतर्गत संकलित सूरदास के पदों से उद्धृत हैं। इस पद में कवि ने सांगरूपक अलंकार द्वारा, गोपियों के उद्धव के प्रति व्यंग्यमय कथन को प्रस्तुत किया है।

व्याख्या-गोपियाँ उद्धव के ब्रज में पधारने पर उन्हें धन्यवाद कह रही हैं। उद्धवजी आप यहाँ आए, तो आपने हम पर बड़ा उपकार किया। विधाता ने जो हमारे हृदय रूपी कच्चे घड़े बनाए थे, आपने आकर उन्हें पका दिया। इन हमारे हृदयरूपी घड़ों को प्रिय कृष्ण ने प्रेम रंग में रँगा था। इन पर अपनी छवियों के अनेक चित्र बनाए थे। कृष्ण-वियोग में निरंतर बहते हमारे आँसुओं से ये गले नहीं, इसका कारण यह है कि हमने इन्हें ‘अवधि’ अर्थात् कृष्ण जो लौटकर आने के समय पर विश्वासरूपी अट्टे में रखा था। आपने यहाँ पधारकर सारे ब्रज को बर्तन पकाने का भट्टा बनाया। योग उपदेशों को ईंधन बनाया और कृष्ण स्मृति रूपी अग्नि से इस भट्टे को सुलगा दिया। हमारी दुख भरी लम्बी साँसों ने फेंक का काम किया और विरह व्यथा ने लपटें बनकर इन कच्चे घड़ों रूपी हमारे हृदय को खूब तपाया। श्रीकृष्ण लौटकर अवश्य आएँगे, इस आशा ने, इन्हें उलट-पलटकर अच्छी तरह पकाया है।

अब ये हृदय-घट बनकर पूरी तरह तैयार हो गए हैं और हमने इन्हें प्रेमरूपी जल से भर दिया है। किसी अन्य को हमने इन्हें छूने तक नहीं दिया है। हमारे साँवरे, राज काज से मथुरा गए हैं। हमने इन हृदय-घटों को उन्हीं के लिए सुरक्षित रखा है।

भाव यह है कि उद्धव ने तो अपने योग उपदेशों से गोपियों के हृदयों को जितना तपाना (कष्ट पहुँचाना) था तपा लिया। परन्तु वह इनमें ज्ञान और योग रूपी जल नहीं भर पाए। ये हृदय-घट अब भी कृष्ण प्रेम से परिपूर्ण होकर, प्यारे-प्यारे श्यामसुन्दर की प्रतीक्षा कर। रहे हैं।

विशेष-
(i) सूर की आलंकारिक वर्णन शैली इस पद में उनकी काव्य-कला का परिचय दे रही है।
(ii) पद, श्रीकृष्ण में गोपियों के एकनिष्ठ प्रेम भाव का प्रमाण पत्र है।
(iii) सम्पूर्ण पद में सांगरूपक अलंकार है।
(iv) सूर ने ब्रजभाषा को किस प्रकार साहित्य के सिंहासन पर आसीन किया, इसका यह पद एक नमूना है।

5.
ऊधो! मोहि ब्रज बिसरत नाहीं।
हंससुता की सुन्दर कगरी अरु कुंजन की छाहीं॥
वै सुरभी, वै बच्छ, दोहनी खरिक दुहावन जाहीं।
ग्वालबाल सब करत कुलाहल नाचत गहि गहि बाहीं॥
यह मथुरा कंचन की नगरी मनि-मुक्ताहल जाहीं।
जबहिं सुरति आवति वा सुख की जिय उमगत तनु नाहीं॥
अनगन भाँति करी बहु लीला, जसुदा-नंद निबाहीं।
सूरदास प्रभु रहे मौन वै, यह कहि-कहि पछिताहीं॥

कठिन शब्दार्थ-बिसरत = भूलता। हंससुता = यमुना। कगरी = तट। सुरभी = गाएँ। बच्छ = बछड़े। दोहनी = दूध दुहने के बर्तन। खरिक = गायें बाँधे जाने के बाड़े। कुलाहल = कोलाहल, शोर। गहि-गहि= पकड़-पकड़कर। बाहीं = बाँहें। कंचन= सोना, धन। मुक्ताहल = मोती। सुरति = स्मृति। उमगत = उमड़ता है। तनु= शरीर। अनमन= असंख्य, अनगिनती। निबाही = निभाई, सहन कीं।

प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में ‘भ्रमरगीत’ शीर्षक के अंतर्गत संकलित सूरदास के पदों में से लिया गया है। इस पद में ब्रज से लौटकर आये उद्धव से श्रीकृष्ण अपने मन की बात कह रहे हैं। व्याख्या-श्रीकृष्ण उद्धव से कहते हैं कि उन्हें ब्रज में बिताए जीवन की यादें भुलाए नहीं भूलर्ती। आज भी उनका मन ब्रज में जाकर रहने को करता रहता है। वहाँ यमुना के वे सुन्दर तट और कुंजों की छाया, वे गाएँ, वे बछड़े दूध, दूहने के बर्तन, गायों को बाँधने के वे बाड़े जहाँ हम गाएँ दुहने जाया करते थे, आज भी मन को खींचती रहती है। हम सभी गोप बालकों को मिलकर हल्ला मचाना और एक दूसरे का हाथ पकड़कर नाचना भुलाए नहीं भूलता। उद्धव यह मथुरा धन-धान्य से पूर्ण नगरी है।

यहाँ मुझे सारे राजसी सुख प्राप्त हैं। मणि और मोतियों के आभूषण भी पहनता हूँ, परन्तु जब भी मुझे उस ब्रज-जीवन की स्मृति होती है तो मेरा हृदय ब्रज में पहुँच जाने को उमगने लगता है। ऐसा लगता है मेरा मन ब्रज में ही जा पहुँचा है, मेरे शरीर में नहीं है। वहाँ ब्रज में रहते हुए हमने अनगिनती लीलाएँ की थीं और माता यशोदा तथा नंद बाबा ने उनको प्यार से निभाया था। सूरदास कहते हैं कि इतना कहकर श्रीकृष्ण चुप हो गए। इन सारी बातों को बार-बार कहकर मन में पछताकर रह जाते हैं। क्योंकि आज इन्हें उसी ब्रज से दूर रहना पड़ रहा है।

विशेष-
(i) ब्रजवासियों और ब्रज के बंधन मुक्त जीवन से, श्रीकृष्ण के सहज प्रेमभाव का परिचय कराया गया है।
(ii) ब्रजवासियों के हार्दिक प्रेम के सामने श्रीकृष्ण को मथुरा का राजसी सुखों से पूर्ण जीवन भी तुच्छ प्रतीत हो रहा है। भक्त और भगवान के बीच प्रेम का यही अटूट नाता होता है, जिसके सामने सारे सांसारिक सुख और नाते तुच्छ प्रतीत होते हैं।
(iii) सरल भाषा में हृदयस्पर्शी भाव-व्यंजना की गई है।

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