RBSE Solutions for Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 3 मीराँ

Rajasthan Board RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 3 मीराँ

RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 3 पाठ्यपुस्तक के प्रश्न

RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 3 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
मीराँ को जहर दिया था
(क) सन्तों ने
(ख) राणा ने
(ग) ननद ने
(घ) सास ने
उत्तर:
(ख) राणा ने

प्रश्न 2.
मीराँ की भक्ति किस प्रकार की थी?
(क) माधुर्य भक्ति
(ख) सख्य भक्ति
(ग) दाम्पत्य भक्ति
(घ) दास्य भक्ति।
उत्तर:
(ग) दाम्पत्य भक्ति

प्रश्न 3.
मीराँ किसकी अनन्य भक्त थी?
(क) राम
(ख) कृष्ण
(ग) विष्णु
(घ) शिव।
उत्तर:
(ख) कृष्ण

प्रश्न 4.
मीराँ का काव्य किस प्रकार का है?
(क) वीर काव्य
(ख) सरल काव्य
(ग) गीति काव्य
(घ) हास्य काव्य
उत्तर:
(ग) गीति काव्य

RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 3 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
मीराँ के काव्य की प्रमुख भाषा कौनसी है?
उत्तर:
मीराँ के काव्य की प्रमुख भाषा राजस्थानी मिश्रित ब्रजभाषा है।

प्रश्न 2.
मीराँ स्वयं को किसकी दासी मानती हैं?
उत्तर:
मीरां स्वयं को अपने आराध्य श्रीकृष्ण की दासी मानती हैं।

प्रश्न 3.
सोना, कुन्दन कैसे बनता है?
उत्तर:
सोने को अग्नि में तपाने-गलाने पर वह खरा कुन्दन बनता है।

प्रश्न 4.
सास-ननद ने किस प्रकार मीराँ को तकलीफ दी?
उत्तर:
सास मीराँ से लड़ती रहती थी और ननद चिढ़ाती रहती थी, इस तरह वे मीराँ को तकलीफ देती थीं।

RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 3 लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘द्रोपदी की लाज राखी, तुरत बढ़ायो चीर’ का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मीराँ कहती है कि प्रभु श्रीकृष्ण ने अपनी भक्ति करने वाली द्रोपदी की लाज रखी और उसकी साड़ी तुरन्त बढ़ायी। पाण्डवों एवं कौरवों की चूत-क्रीड़ा में जब पाण्डव सब कुछ हार गये, तो दुर्योधन के निर्देश पर दुःशासन द्रोपदी को भरी सभा में खींच लाया। तब उसने द्रोपदी की साड़ी खींच उसे निर्वस्त्र करना चाहा। उस समय द्रोपदी ने प्रभु श्रीकृष्ण का स्मरण किया, तो उन्होंने द्रोपदी का चीर इतना बढ़ाया कि दुष्ट दुःशासन उस चीर को खींचते-खींचते थक गया, परन्तु उसका अन्त नहीं हुआ। इस प्रकार द्रोपदी का चीर बढ़ाकर भगवान् ने उसकी लाज़ बचा दी थी।

प्रश्न 2.
‘हरि! तुम हरो जन की भीर’ से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
मीराँ अपने आराध्य को लक्ष्य कर कहती है कि हे हरि! तुम अपने , भक्तों के कष्टों को दूर करो। मीराँ स्वयं को अफ्ने आराध्य की दासी मानती थी। उसकी भक्ति में राणा-परिवार के लोग बाधा डालते थे, उसे तरह-तरह से सताते और कष्ट देते थे। मीराँ अनेक कष्ट मिलने पर भी अपनी अटूट भक्ति में निमग्न रहती थी। इसी आशय से मीराँ ने प्रभु से निवेदन किया कि उसके कष्टों को वे शीघ्र मिटा दें और अपनी सेविका मानकर उसका उद्धार कर दें। अपने अन्य भक्तों की तरह उसके दु:खों को समाप्त कर दें।

प्रश्न 3.
”हे री मैं तो दरद दीवानी मेरा दरद न जाणे कोय।” पंक्ति में मीराँ किस दर्द की बात कर रही है?
उत्तर:
मीराँ अपने आराध्य श्रीकृष्ण को अपना प्रियतम एवं पति मानती थी। इस कारण मी ने इसमें अपनी विरह-वेदना की बात की है। मीरों का प्रियतम उसके पास नहीं था। मीराँ मानती थी कि उसका प्रियतम प्रवासी है, जब वह उसके पास आयेगा, तो उसका सारा दर्द अर्थात् सांसारिक कष्ट एवं लौकिक जीवन – इन दोनों से छुटकारा मिल जायेगा। इस प्रकार मीराँ का दर्द आध्यात्मिक विरह-वेदना का दर्द था और वह दर्द सामान्य पीड़ा से भिन्न प्रकारे का था। इस दर्द का उपचार तो जब श्रीकृष्ण वैद्य बनकर आयेंगे, तभी हो सकेगा, यही: मीरों का विश्वास था। इस तरह मीराँ ने दाम्पत्य भाव की भक्ति अर्थात् प्रेमाभक्ति के दर्द का उल्लेख किया

प्रश्न 4.
“बूड़ते गज ग्राह मार्यो कियो बाहर नीर” के आधार पर अन्तर्कथा अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
पौराणिक कथा है कि ‘हुहू’ नामक गन्धर्व देवल के शाप से ग्राह बना। उधर द्रविड़ देश का राजा इन्द्रद्युम्न तपस्यारत था, उसे अगस्त्य ऋषि ने गजेन्द्र बनने का शाप दिया। वह गजेन्द्र त्रिकूट पर्वत के पास क्षीर-सागर में जल-क्रीड़ा करने उतरा, तो उस ग्राह ने उसका पैर पकड़ लिया। तब पूर्वजन्म के ज्ञान के प्रभाव से गजेन्द्र ने भगवान् की प्रार्थना की। इससे प्रसन्न होकर भगवान् विष्णु आये और उन्होंने गजेन्द्र को ग्राह से बचाया। इस तरह उस गजेन्द्र की शाप से मुक्ति भी हुई, तो ग्राह मारा गया और अपनी गन्धर्व योनि में फिर उत्पन्न हुआ। भगवान् की भक्ति से गज की रक्षा हुई और उसे डूबते हुए बचाकर भगवान् ने उसका उद्धार किया।

RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 3 निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
पठित पदों के आधार पर मीराँ की काव्यगत विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
मीराँ की काव्यगत विशेषताओं को उनके भावपक्ष एवं कलापक्ष के रूप में इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है –
(1) भावपक्ष – मीरों के काव्य में भक्ति और प्रेम की प्रधानता है। मीराँ ने अपने आराध्य को प्रियतम बताकर मधुर-मिलन की अपेक्षा विरह-वेदना का अधिक भावपूर्ण वर्णन किया है। मीराँ ने स्वयं को रात-दिन तड़पने वाली विरहिणी बताया है। उनके ऐसे पदों में आत्म-समर्पण, प्रेमनिष्ठा एवं रहस्यवाद का सरसे निरूपण हुआ है। मीरों ने अपनी विरह-व्यथा को चकोर, मीन, चातक और पपीहे के माध्यम से व्यक्त किया है। उनकी विरहानुभूति गहन और गम्भीर है। उसमें माधुर्य भाव की भक्ति-निष्ठा का समावेश होने से भावाभिव्यक्ति हार्दिक वेदना से संवलित है। इसी विशेषता से मीराँ का काव्यगत भावपक्ष अतीव भावपूर्ण माना जाता है।

(2) कलापक्ष – मीराँ ने विरह-वेदना प्रणयानुभूति की सहजता एवं सरलता पर अधिक बल दिया है। राजस्थानी मिश्रित ब्रजभाषा का गेयात्मक प्रयोग किया है, जिसमें गुजराती के शब्द भी समाविष्ट हैं। माधुर्य एवं प्रसाद गुण का समावेश कर मुहावरों का विन्यास भावानुरूप किया है। गीतिकाव्य की दृष्टि से मीरों का काव्य अनेक राग-रागनियों पर आधारित एवं सुगेय है। उसमें उपमा, रूपक आदि अलंकारों का प्रयोग स्वाभाविक रूप से हुआ है। इस प्रकार मीराँ का काव्य सभी विशेषताओं से मण्डित है।

प्रश्न 2.
मीराँ की विरह-वेदना अपने शब्दों में लिखिए। .
उत्तर:
मीराँ ने अपने आराध्य श्रीकृष्ण को अपना प्रितम और प्राणाधार बताकर माधुर्य भाव की भक्ति की। इस कारण उन्होंने प्रियतम से मिलन-विरह के मधुर भाव। व्यक्त किये। मीराँ के काव्य में संयोग श्रृंगार की अपेक्षा विरह-वेदना की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। नवयौवन में ही विधवा हो जाने से लौकिक जीवन में जो निराशावेदना उन्हें मिलीं, उससे उन्होंने प्रियतम प्रभु को अपना सर्वस्व मानकर अलौकिक प्रेम का आश्रय लिया। इस कारण मी ने स्वयं को सिर पर मोर-मुकुट धारण करने वाले गिरिधर गोपाल की प्रेम-दीवानी बताया और उनके वियोग में कभी तो अश्रुधारा बहाने लगी और कभी उनके आगमन की प्रतीक्षा में अनमनी बनी रहीं। यथा –
हेली, म्हाँसू हरि बिन रह्यो न जाय।
×          ×    ×
हे री मैं तो दरद-दिवानी मेरा दरद न जाणे कोय।
सूली ऊपर सेज हमारी, किस विध सोना होय ।।

मीराँ की विरह-वेदना में प्रतीक्षा की बेचैनी, विवशता, उत्सुकता, विरह की तीव्रता एवं हार्दिक अनुभूति का करुण स्वर सुनाई देता है। वे अनन्य प्रेमिका, समर्पिता, प्रोषितपतिका, अनन्य निष्ठा रखकर निरन्तर व्यथित रहती हैं। विरह की लगभग सभी अन्तर्दशाओं को उनके काव्य में समावेश हुआ है। अतः मीराँ की विरह-वेदना नारीहृदय की कोमल एवं मधुर अनुभूतियों से मर्मस्पर्शी दिखाई देती है।

प्रश्न 3.
हरि तुम हरो जन की पीर’ के आधार पर कृष्ण के उद्धारक रूप का विस्तृत वर्णन कीजिए।
उत्तर:
‘हरि तुम हरो जन की पीर’ पद में मीराँ ने अपने आराध्य के उद्धारक रूप का संक्षिप्त उल्लेख किया है। तदनुसार इसका विस्तृत वर्णन इस प्रकार है-

  1. द्रोपदी का चीर बढ़ाना – कौरवों की सभा में जब दुःशासन ने द्रोपदी को चीर-हरण कर उसे निर्वस्त्र करना चाहा, तब भगवान् कृष्ण ने अपनी भक्त द्रोपदी की लाज बचायी और उसके चीर को इतना बढ़ाया कि दु:शासन आखिर हार-थककर चुप हो गया।
  2. नृसिंह रूप धारण करना – हिरण्यकशिपु स्वयं को भगवान् मानता था। उसने अपने पुत्र को भगवान् विष्णु की भक्ति करने से रोका। इस कारण उसे कठोर यातनाएँ दीं। अन्त में भगवान नृसिंह रूप में आये और हिरण्यकशिपु को मार कर भक्त प्रहलाद की रक्षा की।
  3. गजेन्द्र का रक्षण – एक बार गजेन्द्र जब जलक्रीड़ा करने क्षीरसागर में उतरा, तो ग्राह ने उसका पैर पकड़ लिया। काफी कोशिश करने पर भी गजेन्द्र अपना पैर छुड़ा नहीं सका। तब पूर्व-ज्ञान के आधार पर उसने भगवान् का ध्यान किया, मुक्ति की प्रार्थना की। इससे भगवान् तुरन्त आये और गजेन्द्र को ग्राह सहित पानी से बाहर निकाला और गजेन्द्र की रक्षा कर उसका उद्धार किया।

प्रश्न 4.
पावस के बादलों ने मीराँ की व्यथा बढ़ा दी, कैसे? विस्तार से लिखिए।
उत्तर:
लोक में यह परम्परा प्राचीनकाल से मान्य रही है कि वर्षाकाल आने पर जिनके प्रियतम प्रवासी रहते हैं, वे स्त्रियाँ विरह-व्यथा से पीड़ित हो जाती हैं। प्रायः प्रवासी प्रियतम पावस ऋतु आने से पहले घर लौट आते हैं, परन्तु जिनके प्रियतम किसी कारणवश नहीं आ पाते हैं, तो उनके लिए वर्षा ऋतु के बादल कष्टदायी हो जाते हैं। मीरें भी अपने आराध्य प्रियतम को प्रवासी मानती है। वर्षाकाल प्रारम्भ होने पर प्रकृति में सरसता छा जाती है। कोयल, मोर, मेंढक और पपीहा अपना-अपना स्वर सुनाने लगते हैं।

चारों ओर बादल उमड़-घुमड़ मचाते हैं तथा उनके बीच में बिजली चमकती रहती है। वायु भी कभी मन्द और कभी वेग से बहती है तथा बादलों की झड़ी सब ओर लग जाती है। ऐसे प्राकृतिक वातावरण में विरहिणी मीराँ को अपने प्रियतम की मधुर स्मृति आ जाती है और वह विरहवेदना से तड़पने लगती है। मीराँ की विरह-व्यथा पहले से अधिक बढ़ जाती है। पावस ऋतु आने पर उसके प्रियतम का आगमन-सन्देश नहीं मिलता है और न स्वयं प्रियतम आकर संयोग सुख देता है। इस कारण मीरों की व्यथा उत्तरोत्तर बढ़ती ही जाती है और पावस के बादल उसके विरह को अधिक उद्दीप्त करने लगते हैं।

व्याख्यात्मक प्रश्न –

1. हेली म्हाँसू …………… म्हारी दाय।
2. हे री मैं तो ………….. साँवलिया होय।
उत्तर:
इनकी व्याख्या के लिए सप्रसंग व्याख्या-भाग देखिए।

RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 3 अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न

RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 3 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
भगवान् ने किस डूबते हुए की रक्षा की थी?
(क) प्रहलाद की
(ख) ग्राह की
(ग) गजराज की
(घ) अजामिल की
उत्तर:
(ग) गजराज की

प्रश्न 2.
‘कारी नाग विरह अति जारी, मीराँ मन हरि भायो रे’ – इसमें ‘कारी नाग’ किसके लिए कहा गया है?
(क) बादलों के लिए।
(ख) श्रीकृष्ण के लिए
(ग) विरह-व्यथा के लिए।
(घ) काली-अंधेरी रात के लिए।
उत्तर:
(घ) काली-अंधेरी रात के लिए।

प्रश्न 3.
‘मी को प्रभु राखि लई है, दासी अपनी जाणी।’ इससे मीराँ ने व्यक्त की
(क) अनन्य निष्ठा
(ख) आत्म-भर्त्सना
(ग) आक्रोश
(घ) अहंकार
उत्तर:
(क) अनन्य निष्ठा

प्रश्न 4.
‘मीराँ की प्रभु पीर मिटैगी’-मीराँ की पीड़ा कब मिटेगी?
(क) जब इस जीवन का अन्त होगा।
(ख) जब श्रीकृष्ण का सामीप्य मिलेगा।
(ग) जब वन-वन भटकना पड़ेगा।
(घ) जब सखियाँ उचित उपचार करेंगी।
उत्तर:
(ख) जब श्रीकृष्ण का सामीप्य मिलेगा।

प्रश्न 5.
जौहर की गति जौहर जाने का निहितार्थ है –
(क) भुक्तभोगी ही विरह-व्यथा जान पाता है।
(ख) साथी ही साथी का भेद जानता है।
(ग) प्रेम-प्रीति की गति अनोखी होती है।
(घ) जौहर करने से पीड़ा कम होती है।
उत्तर:
(क) भुक्तभोगी ही विरह-व्यथा जान पाता है।

RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 3 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
मीराँ से उसकी सास-ननद क्यों लड़ती थीं?
उत्तर:
मीराँ सदैव अपने आराध्य श्रीकृष्ण को अपना प्रियतम मानकर उनको गुण-गान करती रहती थी। इस कारण उसकी सास-ननद उससे लड़ती थीं।

प्रश्न 2.
मीराँ का जन्म कब और कहाँ पर हुआ था?
उत्तर:
मीराँ का जन्म राठौड़ों की मेड़तिया शाखा के राव रतनसिंह के घर कुड़की गांव में वि. संवत् 1555 में हुआ था।

प्रश्न 3.
मीराँ का पालन-पोषण, किसने किया था?
उत्तर:
मीरों की माता का उसके शैशव में ही देहान्त हो गया था, इस कारण उसका पालन-पोषण इनके पितामह राव दूदाजी के द्वारा हुआ था।

प्रश्न 4.
मीराँ के हृदय पर कृष्ण-भक्ति के संस्कार कहाँ से पड़े?
उत्तर:
राव दूदाजी द्वारा किये गये पालन-पोषण और उन्हीं के संसर्ग से मीराँ के हृदय पर कृष्ण-भक्ति के संस्कार पड़ गये थे।

प्रश्न 5.
मीराँ के अनुसार उसे पूर्वजन्म के दाय रूप में क्या मिला?
उत्तर:
मीराँ के अनुसार वह पूर्वजन्म में प्रभु कृष्ण की प्रियतमां थी, वही पूर्व जन्म के दाय रूप में उसे मिला और उसी प्रेम का वह निर्वाह करती रही।

प्रश्न 6.
मतवाले काले बादल से मीराँ को क्या निराशा हुई?
उत्तर:
मतवाला काला बादल आया, परन्तु वह मीराँ के प्रवासी प्रियतम के लौट आने का सन्देश नहीं लाया, इसी कारण उससे मीराँ को निराशा हुई।

प्रश्न 7.
भक्त कारण रूप नरहरि, धयो आप सरीर।’ भगवान् ने किस भक्त के कारण नृसिंह रूप धारण किया?
उत्तर:
भगवान् ने अपने भक्त प्रहलाद के कारण नृसिंह रूप धारण किया, अर्थात् नृसिंह अवतार में अवतरित हुए।

प्रश्न 8.
भगवान् ने ग्राह (मकर) से किसकी रक्षा की?
उत्तर:
भगवान् ने ग्राह (मकर) से गजराज (हाथी) की रक्षा की।

प्रश्न 9.
मीराँ की पीड़ा कब मिट सकती है?
उत्तर:
जब प्रियतम श्रीकृष्ण से मीराँ का मधुर-मिलन होवे, तभी उसकी पीड़ा मिट सकती है।

RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 3 लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
हरि! तुम हरो जन की पीर।” शीर्षक पद में उल्लिखित श्रीकृष्ण के कोई दो भक्तोद्धारक कर्म बताइये।
उत्तर:
श्रीकृष्ण ने अपने अनेक भक्तों का उद्धार किया। उक्त पद में जो उदाहरण दिये गये हैं, उनमें से दो उद्धारक कर्म इस प्रकार हैं –

  1. द्रोपदी प्रभु की भक्त थी। जब कौरवों की सभा में दु:शासन ने उसे चीरहरण कर निर्वस्त्र करना चाहा, तब प्रभु श्रीकृष्ण ने उसका चीर बढ़ाकर लाज बचायी।
  2. प्रहलाद प्रभु को भक्त था, परन्तु उसका पिता हिरण्यकशिपु उसकी भक्ति का उपहास करता था और उसे यातनाएँ देता रहता था। तब प्रभु ने उसे प्राप्त वरदान का ध्यान रखकर नृसिंह रूप में आकर हिरण्यकशिपु का वध किया तथा प्रहलाद की रक्षा की। इस प्रकार भगवान् अपने भक्तों के कष्टों को दूर कर उनका उद्धार करते हैं।

प्रश्न 2.
मीराँ की भक्ति में जो विन डाले गये, उनका उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
मीरां अपने प्रभु श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहती थीं, परन्तु उनके परिवार के लोग सदैव उसकी भक्ति में विघ्न डालते थे। उदाहरण के लिए मीराँ के देवर राणा ने इसी उद्देश्य से जहर का प्याला भेजा था, एक पिटारी में साँप भेजा था। राणा परिवार के लोगों ने मीराँ पर साधु-संगति एवं भजन-कीर्तन में जाने से प्रतिबन्ध लगाने का प्रयास किया था और उसे कमरे में ताला लगाकर बन्द कर दिया था। सास-ननद उसे फटकारती रहती थीं और प्रभु-भक्ति करने से रोकती एवं उपहास करती थीं। वे सब मीराँ को परिवार की रूढ़ियों में जकड़ी रखना चाहते थे। इस तरह वे मीरों की भक्ति में विघ्न डालते रहते थे।’

प्रश्न 3.
“मीराँ की भक्ति में सगुण भक्ति के तत्त्व पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं।” यह कथन स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मीरों के अधिकांश पद श्रीकृष्ण को आलम्बन बनाकर रचे गये हैं। ऐसे पदों में स्थान-स्थान पर साँवरिया, स्याम, गिरधर गोपाल, हरि एवं नटवर नागर आदि सम्बोधनों का प्रयोग हुआ है। इनसे स्पष्ट हो जाता है कि मीराँ ने अपने आराध्य श्रीकृष्ण की भक्ति में ही स्वयं को धन्य माना है। सगुण-साकार भक्ति के सूत्र उनकी रचनाओं में सर्वत्र उपलब्ध हो जाते हैं। उन्होंने अपने आराध्य की रूप-छवि, रूप-सौन्दर्य, आकार-प्रकार एवं विविध लीलाओं का साकार वर्णन कर उन्हें अपने हृदय में अविनाशी प्रियतम के रूप में बसाया है। उन्होंने अपने आराध्य के सारे कार्यकलापों को साकार रूप में दर्शाया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि मीराँ की माधुरी भक्ति में उसकी सगुण भक्ति की ही प्रधानता है।

प्रश्न 4.
मीराँ की रचनाओं के बारे में विद्वानों का क्या अभिमत रहा है?
उत्तर:
हिन्दी साहित्य का परिशीलन करने से यह ज्ञात होता है कि कई रंचनाओं का उल्लेख मीराँ के नाम से किया गया है। जो रचनाएँ मीराँ द्वारा रचित बतायी गई हैं, वे हैं-नरसीजी रो माहिरो, गीत गोविन्द की टीका, मीराँनी गरबी, मीरा के पद, राग सोरठ के पद, रास गोविन्द ‘नरसीजी रो माहिरो’ में नरसी मेहता के भात भरने का वर्णन है। ‘गीत गोविन्द की टीका’ अभी तक अप्राप्य है। ‘रास गोविन्द’ के बारे में अनुमान है कि उन्होंने रचा होगा। ‘रागसोरठ के पद’ में मीराँ, कबीर और नामदेव के पदों का संग्रह है। ‘मीराँनी गरबी’ या ‘गीत’ रास मण्डली के गीतों के समान गाये जाते हैं। ये सब प्रारम्भ में मौखिक रहे हैं।

प्रश्न 5.
मीराँ का वैवाहिक जीवन किस प्रकार का था? बताइये।
उत्तर:
मीराँ का वैवाहिक जीवन कष्टमय ही रहा। मीराँ का विवाह राजकुमार भोजराज के साथ हुआ, परन्तु तीन-चार वर्ष बाद लगभग वि.सं. 1580 में भोजराज का अचानक निधन हो गया। मीराँ को इस दु:खद घटना से बहुत धक्का लगा। वे अभी इस दु:ख को सहन नहीं कर पायी थीं कि वि. संवत् 1584 में इनके पिता रत्नसिंह और इसके पश्चात् ससुर भी चल बसे। इन घटनाओं से मीराँ का हृदय व्यथित हो गया था। विधवा-जीवन एवं राणा-परिवार की रूढ़ियों के कारण मीराँ के हृदय में प्रभु-भक्ति की रुचि जागृत हुई, परन्तु देवर एवं सास आदि ने इस कारण काफी कष्ट दिये। फलस्वरूप मीर ने गृह-त्याग कर वैराग्य अपनाया।

RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 3 निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
पठितांश के आधार पर मीराँ की उपासना पद्धति पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
कृष्ण-भक्त कवियों में मीरा का प्रमुख स्थान है। उनकी भक्ति-भावना माधुर्य भाव की रही है। उनकी भक्ति में प्रेमभाव की समर्पणशीलता, अनन्य निष्ठा. विरह-वेदना एवं माधुर्य भावना की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है। मीराँ के काव्य को जनभाषा एवं सुगेय रागों के प्रयोग के साथ सरस प्रेमाभक्ति के कारण अधिक लोकप्रियता मिली है। मीराँ की उपासना-पद्धति-मीराँ के पदों में प्रमुख रूप से श्रीकृष्ण के प्रति प्रणय-निवेदन किया गया है। डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त के मतानुसार कहा जा सकता है कि “मीरौं न तो पूर्णतः भक्तों की श्रेणी में आती है और न ही सन्तों की श्रेणी में। उनकी भावना भक्ति-रहस्यवाद के बीच में पड़ती है, जिसे माधुर्य भाव की भक्ति कहा जा सकता है। अतः भावना के आधार पर मीराँ की उपासना पद्धति के तीन भेद किये जा सकते हैं –

  1. निर्गुण भावना और प्रणयानुभूतियों की रहस्यवादी व्यंजना
  2. सगुण श्रद्धा तथा प्रणयजनित भक्ति-भावना तथा
  3. सगुण प्रणयाश्रितं माधुर्य भावना।

इस तरह इन तीनों रूपों में मीराँ की उपासना पद्धति को। देखा-परखा जा सकता है। अधिकतर विद्वानों का मत है कि उक्त तीनों रूपों में भी मीरों के काव्य में माधुर्य भावना की भक्ति प्रमुखता से अभिव्यक्त हुई है।

प्रश्न 2.
मीराँ की भक्ति-भावना की विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मीरों ने अपने आराध्य प्रभु की प्रियतम या पति रूप में भक्ति की, इसलिए मीराँ की. भक्ति पति-पत्नी भाव या माधुर्य भाव की भक्ति मानी जाती है। मीराँ ने अपने पदों में अपने प्रियतम से मिलने के लिए लोक-लाज को त्यागने का सरस चित्रण किया है तथा विरह-वेदना की तीव्र अनुभूति व्यक्त की है। मीराँ की भक्ति-भावना की विशेषताएँ-मीरों की माधुर्य भाव की भक्ति लौकिक एवं अलौकिक दोनों रूपों में व्यक्त हुई है। माधुर्य भाव की भक्ति के तीन अंग होते हैं – रूप वर्णन, विरह-वर्णन और आत्मसमर्पण। मीराँ की भक्ति में इन तीनों ही अंगों का समुचित विन्यास हुआ है तथा इन तीनों के उदाहरण पर्याप्त मात्रा में मिल जाते हैं। यथा

  1. रूप-वर्णन – मीराँ ने अपने आराध्य प्रियतम की माधुरी छवि का अंकन ललित रूप में किया है, जैसे।
    बसो मेरे नैनन में नन्दलाल।
    मोर मुकुट मकराकृत कुण्डल अरुण तिलक दिये भाल।।
  2. विरह-वर्णन – मीराँ के पदों में प्रियतम प्रभु की विरह-व्यथा की सभी दशाओं एवं स्थितियों का अनुभूतिमय चित्रण हुआ है, जैसे –
    हे री मैं तो दरद-दिवानी मेरा दरद न जाणै कोय।।
  3. आत्म-समर्पण – मीरों ने स्वयं को गिरिधर गोपाल की चेरी या दासी बताया है तथा अपने परिवार का परित्याग कर आराध्य की लीलाभूमि में रहकर अनन्य निष्ठा एवं आत्मसमर्पण से युक्त भक्ति में निमग्न रही है।

रचनाकार का परिचय सम्बन्धी प्रश्न –

प्रश्न 1.
मीराँ का व्यक्तित्व-कृतित्व परिचय संक्षेप में दीजिए।
उत्तर:
मीराँ का जन्म कुड़की गाँव में राठौड़ रत्नसिंह की पुत्री रूप में हुआ। था। शैशवकाल में ही माता का देहान्त हो जाने से इनका पालन-पोषण पितामह राव दूदाजी द्वारा हुआ, जो कि परम वैष्णव भक्त थे। उन्हीं के संसर्ग से मीराँ के हृदय में कृष्ण-भक्ति के संस्कार पड़े, जो कि बाद में माधुर्य भाव की भक्ति में विकसित हुए। मीराँ का विवाह राणा परिवार के राजकुमार भोजराज से हुआ, परन्तु कुछ ही वर्षों के बाद पति का निधन हो गया। तब बाल्यकाल के संस्कार पल्लविते हुए और ये गिरिधर गोपाल को अपना पति मानकर भक्ति करने लगीं। ये साधुसंगति में रहने लगीं, कुल-मर्यादा को छोड़ दिया। इस कारण राज-परिवार का कठोर विरोध सहा। अन्ततः वैराग्य अपनाकर वृन्दावन, काशी एवं द्वारिका में रहकर कृष्णभक्ति में जीवन-पर्यन्त निमग्न रहीं और अन्त में द्वारिका में रणछोड़ की मूर्ति में ही अन्तर्लीन हो गई।

मीरों की रचनाओं को लेकर कहा जाता है कि उन्होंने कोई चमत्कार अथवा काव्य-प्रतिभा दिखाने के लिए रचना नहीं की, अपितु हृदय की सहज भक्ति एवं अनुराग को व्यक्त करने का प्रयास किया। मीराँ की रचनाओं को लेकर कहा जाता है कि ‘नरसीजी रो माहिरो’, ‘गीत गोविन्द की टीका’, ‘मीराँबाई का मलार’, ‘राग सोरठ के पद’, ‘राग गोविन्द’ एवं ‘मीराँ के पद इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं। परन्तु इनमें से कुछ अप्राप्त हैं तथा कुछ प्रक्षिप्त हैं। सम्प्रति इनकी रचनाओं का ‘मीराँ पदावली’ के रूप में संकलन-प्रकाशन हुआ है। इन्होंने राजस्थानी मिश्रित साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग भावानुरूप किया है।

मीराँ – कवयित्री- परिचय-

मध्ययुगीन सगुण भक्ति काव्यधारा की महत्त्वपूर्ण भक्त कवयित्री मीरां का जन्म वि. संवत् 1555 में कुड़की ग्राम (मारवाड़ रियासत) में हुआ था। बचपन से ही मीराँ की माता का देहान्त हो जाने से इनका लालनपालन इनके दादा राव दूदाजी के पास मेड़ता में हुआ। जिस समय मीराँ का जन्म हुआ था वह राजपूतों के संघर्ष का काल था। इनके पिता रत्नसिंह प्रायः युद्ध-क्षेत्र में रहा करते थे। इसलिए इनकी शिक्षा का समुचित प्रबन्ध नहीं हो संका। मीराँ बाल्यावस्था से ही कृष्ण की प्रेमाभक्ति में निमग्न रहती थीं। इनका विवाह महाराणा साँगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज के साथ हुआ था। लेकिन कुछ ही वर्षों में भोजराज का अकस्मात् निधन हो गया। तब मीराँ ने अपने आराध्य को ही अपना सर्वस्व माना तथा पारिवारिक व सामाजिक बन्धनों से मुक्त होकर गृह-त्याग किया और वृन्दावन आदि स्थानों पर कृष्ण-भक्ति में लीन रहीं। इनका जीवनान्त वि. संवत् 1603 में हुआ।

पाठ-परिचय-

प्रस्तुत पाठ में मीराँ द्वारा रचित पाँच पद संकलित हैं। प्रथम पद में राणा द्वारा विष देकर मीराँ को मार डालने के षड्यन्त्र का वर्णन है। अन्य पदों में मीराँ द्वारा अपने आराध्य को लेकर दाम्पत्य-भाव की भक्ति का स्वर व्यक्त हुआ है, जिनमें विरह-वेदना के साथ ही अनन्य भक्ति की व्यंजना हुई है। मीराँ ने अपने आराध्य को संसार का उद्धार करने वाला और भक्तों की पीड़ा को मिटाने वाला बताया है। प्रियतम को प्रवासी मानकर मीराँ ने जो विरहवेदना, अनन्य भक्तिनिष्ठा एवं समर्पण भावना व्यक्त की है, वह उनकी भक्ति की श्रेष्ठता का परिचायक है।

सप्रसंग व्याख्याएँ

पद (1)
राणाजी थे जहर दियो म्हे जाणी। (टेक)
जैसे कंचन दहत अगनि में, निकसत बाराँबांणी।
लोकलाज कुल-काण जगत की, दई बहाय जस पांणी।
अपणे घर का परदा करले, मैं अबला बौरांणी।
तरकस तीर लग्यो मेरे हियरे, गरक गये सनकांणी।
सब संतन पर तन मन वारों, चरण-कंवल लपटांणी।
मीरां को प्रभु राखि लई है, दासी अपणी जाणी।।

कठिन शब्दार्थ-थे = आपने। म्हे = मैंने। कञ्चन = सोना। बाराँबांणी = पूरी तरह खरा, कुन्दन। जस = जैसे। पांणी = पानी। कुल-काण = कुल की मर्यादा। बौरांणी = पागल। हियरे = हृदय में। सनकांणी = सनक गई, पागल-सी हो गई। गरक गयो = गहरा घाव कर गया।

प्रसंग-प्रस्तुत पद. भक्त-कवयित्री मीराँ द्वारा रचित ‘पदावली’ से उद्धत है। इसमें मीराँ ने बताया कि परिवार के लोगों के द्वारा बाधाएँ डालने पर भी वह प्रभुभक्ति में निमग्न रहीं। इसी बारे में यह वर्णन है।

व्याख्या-मीराँ कहती है कि राणाजी ने कृष्ण का भजन करने से नाराज होकर मुझे जहर दिया, यह बात मैं जानती हूँ। मैंने उन बाधाओं को अपनी परीक्षा के रूप में माना। जिस प्रकार सोने को अग्नि में तपाया जाता है और वह खरा सोना बनकर निकलता है, उसी प्रकार बाधाओं से मेरी कृष्ण-भक्ति बढ़ी ही है, कम नहीं हुई। मैंने तो कृष्ण-भक्ति की खातिर लोकलाज, कुल की मर्यादा और संसार को ही पानी की तरह बहा दिया है, त्याग दिया है। उनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं रह गया। आपको यदि मेरा व्यवहार अखरता है तो आप मेरा व्यवहार न देखें, मैं तो कृष्ण-प्रेम में पागल-सी हो गई हूँ। तरकश से निकलकर हृदय में लगे तीर की तरह कृष्ण-प्रेम मेरे हृदय में समा गया है। उससे मैं दीवानी हो गई हूँ। मुझे बस कृष्ण की भक्ति करने की धुन लग गई है और बातों का अब कोई ध्यान ही नहीं रहता। मैं संतों की आभारी हूँ जिन्होंने मुझमें भक्ति बढ़ाई है। मैं संतों पर अपना तन-मन न्यौछावर करती हैं। अपने आराध्य के चरण-कमलों की वंदना करती हूँ। मीराँ कहती है कि कैसी भी परिस्थिति क्यों न आई हो, मुझे मेरे प्रभु श्रीकृष्ण ने अपनी दासी मानकर बचाया है और अपनाया है।

विशेष-
(1) यहाँ मीराँ की कृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति व्यक्त है।
(2) प्रगाढ़ भक्ति होने पर भक्त को भगवान् के अतिरिक्त कुछ नहीं दीखता, मीरों की स्थिति वैसी ही है।

(2) हेली म्हाँसू हरि बिन रह्यो न जाय।
सास लड़े मेरी ननद खिजावै, ‘राणां रह्यो रिसाय।
पहरो भी राख्यो चौकी बिठायो, ताला दियो जुड़ाय।
पूर्व जनम की प्रीत पुराणी, सो क्यूँ छोड़ी जाय।
मीराँ के प्रभु गिरधर नागर, और न आवे म्हारी दाय।।

कठिन शब्दार्थ-हेली = सखी। खिजावै = चिढ़ाती है। रिसाय = क्रोधित होना। दाय = हिस्सा, दान, पसन्द।

प्रसंग-यह अवतरण भक्त-कवयित्री मीराँ द्वारा रचित एवं संकलित पदों से लिया गया है। इसमें मीराँ ने स्वजनों के द्वारा उसके साथ किये गये दुर्व्यवहारों का वर्णन किया है।

व्याख्या-मीराँ कहती है कि हे सखी! मुझसे प्रियतम कृष्ण के बिना रहा। नहीं जाता। मेरे इस कृष्ण-प्रेम के कारण सभी परिवारीजन मुझसे नाराज हैं। सास मुझसे लड़ती है तथा ननद मुझे चिढ़ाती रहती है। इसके साथ ही राणाजी मुझ पर क्रोध करते रहते हैं। उन्होंने मुझ पर पहरा बैठा रखा है और मेरी निगरानी के लिए चौकियाँ बिठा रखी हैं। यहाँ तक कि मुझे ताले में बन्द कर दिया है। लेकिन हे। सखी ! मेरी और कृष्ण की प्रीति तो पूर्वजन्म की और काफी पुरानी है, अर्थात् जन्मजन्मान्तरों की है। वह भला कैसे छोड़ी जा सकती है? आशय यह है कि उनके साथ मेरी प्रीति कभी नहीं टूटने वाली है। मीराँ कहती है कि मेरे आराध्य तो एकमात्र गिरधर नागर हैं, उन्हें छोड़कर मुझे और कोई भी नहीं रुचता है।

विशेष-
(1) राणा-परिवार द्वारा मीराँ की भक्ति में जो बाधाएँ डाली गईं। उनका सांकेतिक वर्णन हुआ है।
(2) मीराँ की भक्ति-निष्ठा एवं समर्पणशीलता व्यक्त हुई है।

(3)
हरि! तुम हरो जीने की भीर।
दोपदी की लाज राखी, तुरत बढ़ायो चीर।
भक्त कारण रूप नरहरि, धर्यो आप सरीर।
हिरनकश्यप मार लीनो, धयो नाहिन धीर।
बूडते गज ग्राह. मायो, कियो बाहर नीर।।
दासी मीराँ लालगिरधर, दुःख जहाँ तहाँ पीर।

कठिन शब्दार्थ-जन = भक्त। भीर = पीड़ा, दु:ख। द्रोपदी :: पाण्डवों की पत्नी। नरहरि = नृसिंह। बूडते = डूबने पर। गज = हाथी। ग्राह = मगर। नीर = पानी।

प्रसंग–प्रस्तुत अवतरण मीराँ द्वारा रचित ‘पदावली’ से लिया गया है। मीराँ कृष्ण को उनके द्वारा की गई भक्तों की सहायता की याद दिलाती है और चाहती है कि कृष्ण उसी प्रकार उसका भी उद्धार करें।

व्याख्या-मीराँ कहती है कि हे हरि! आप अपने जनों, भक्तों का दु:ख अवश्य ही दूर कर देते हो। आपने पहले भी द्रोपदी की लाज बचाई थी। दु:शासन तो भरी। सभा में द्रोपदी का चीर खींचकर उसे निर्वस्त्र करना चाहता था। आपने ही द्रोपदी का चीर बढ़ा दिया था और द्रोपदी की लाज बच गई थी। आपने अपने भक्त प्रहलाद के कारण नृसिंह अवतार लिया था, नृसिंह का शरीर धारण किया था और तब प्रहलाद के अत्याचारी पिता हिरण्यकश्यप को मार डाला था। आप दुष्ट को मारे बिना धैर्य धारण नहीं कर सके थे। ग्राह हाथी को पकड़कर जल में खींचे लिये जा रहा था और हाथी डूबने ही वाला था। तब आपने ग्राह को मारकर हाथी को पानी से बाहर निकाला था। मीराँ कहती है कि हे गिरिधर कृष्ण ! मैं आपकी दासी हूँ। आपके विरह में मैं जहाँ भी रहूँ पीड़ा ही भोगती हूँ।

विशेष-
(1) द्रौपदी, प्रहलाद एवं गजराज से सम्बन्धित पौराणिक अन्तर्कथाओं की ओर संकेत कर भगंवान् की भक्तवत्सलता बतलायी गयी है।
(2) मीराँ ने अपने आराध्य से अपने उद्धार की विनती की है। साथ ही विरहवेदना की व्यंजना हुई है।

(4) हे री मैं तो दरद-दिवानी मेरा दरद न जाणै कोय।
सूली ऊपर सेज हमारी, किस बिध सोना होय।
गगन-मण्डल पै सेज पिया की, किस बिध मिलना होय।
घायल की गति घायल जाने, की जिन लाई होय।
जौहर की गति जौहर जानै, की जिन जौहर होय।
दरद की मारी वन-वन डोलू, बैद मिला नहि कोय।
मीराँ की प्रभु पीर मिटेगी, जद बैद साँवलिया होय।

कठिन शब्दार्थ-दिवानी = पागल। जाणै = जाने। सेज = शय्या। जद = जब। बैद = वैद्य। गगन मण्डल = शून्य स्थित सहस्रार चक्र। जौहर = रत्न।।

प्रसंग-प्रस्तुत अवतरण मीराँ द्वारा रचित ‘पदावली’ से उद्धृत है। मीराँ ‘कृष्ण के वियोगजनित दु:ख से ग्रस्त है। उसे अपने प्रिय कृष्ण से मिलना कठिन जानकर
और दु:ख होता है। वह विरह में बेचैन रहती है और कृष्ण के दर्शन की ही कामना किया करती है।

व्याख्या-मीराँ अपनी सखी से कहती है कि हे सखी! मैं तो कृष्ण से मिलने के दर्द से दीवानी, पगली हो रही हूँ। मेरे हृदय में जितना दु:ख है उसका कोई अनुमान नहीं लग सकता। कृष्ण से मिलना वैसा ही कठिन है जैसा सूली के ऊपर बनी हुई शय्या पर सोना कठिन है। गगन-मण्डल में शय्या हो, उस तक पहुँचना जितना कठिन है, उतना ही कठिन कृष्ण से मिलना है। मैं कृष्ण बिना दु:खी हूँ। मेरी स्थिति को मेरे जैसा भुक्तभोगी ही जान सकता है। जिसके शरीर में घाव हो गया हो, वही घायल की पीड़ा का अनुमान लगा सकता है, दूसरा नहीं। रत्न की विशेषताओं को तो कोई जौहरी ही जान सकता है या स्वयं रत्न। मैं दर्द के मारी चैन नहीं पाती हूँ और मारी-मारी फिरती हैं, किन्तु मेरी पीड़ा दूर करने वाला कोई नहीं मिला। जिस प्रकार बीमार की पीड़ा को वैद्य दूर करता है उसी प्रकार मेरी पीड़ा को साँवलिया कृष्ण ही दूर कर सकते हैं।

विशेष-
(1) विरहिणी मीराँ ने अपनी विरह-वेदना का वर्णन किया है।
(2) आध्यात्मिक विरह की पीड़ा सामान्य पीड़ा से बहुत भिन्न प्रकार की. होती है। उसे वैद्य आदि दूर नहीं कर सकते। वह तो ईश्वर-दर्शन से ही दूर हो सकती है। मीराँ ने यही बात कही है।
(3) ईश्वर को प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। यह बात ‘सूली ऊपर सेज’, ‘गगन-मंडल पै सेज’ द्वारा व्यक्त की गई है।

(5) मतवारो बादर आयो रे हरि को सनेसो नहिं लायो रे।
दादुर मोर पपइया बौलै, कोयल सबद सुणायो रे।
कारी अँधियारी बिजरी चमकै, बिरहिणी अति डरपायो रे।
गाजे बाजे पवन मधुरिया, मेहा अति झड़ लायो रे।
कारी नाग बिरह अति जारी, मीराँ मन हरि भायो रे।

कठिन शब्दार्थ-मतवारो = मतवाला, मस्ती से उमड़ने-घुमड़ने वाला। हरि = कृष्ण। दादुर = मेंढक। पपइयो = पपीहा। कारी = काली। मधुरिया = मधुर शब्द वाला। मेहा = बादल।।

प्रसंग-प्रस्तुत पद मीराँ द्वारा रचित ‘पदावली’ से संकलित है। इसमें मीराँ ने वर्षाकालीन प्रकृति का उद्दीपन रूप में वर्णन कर अपनी विरह-वेदना प्रकट की है।

व्याख्या-मीरां कहती है कि मस्ती को उमड़ने-घुमड़ने वाला बादल आया है, परन्तु वह मेरे प्रवासी प्रियतम कृष्ण का सन्देश नहीं लाया है। वर्षा ऋतु में मेंढक, मोर व पपीहा मधुर स्वर में बोलने लग गये हैं और कोयल अपने मीठे शब्द सुना रही है। बादलों की घटा से रात काली एवं अंधकार से व्याप्त है और बिजली चमक रही है, जो कि मुझ जैसी विरहिणी नारियों को बहुत डरा रही है। बादलों की गर्जना को पवन मधुरता से चारों ओर फैला रहा है और बादलों की रिमझिम लगातार हो रही है। वर्षा की झड़ी लगातार हो रही है। मीराँ कहती है कि विरह रूपी काला नाग मुझे अत्यधिक व्यथित कर रहा है। ऐसे समय पर मुझे प्रियतम कृष्ण का मधुर स्मरण हो रहा है और मेरे मन को वे अतीव भा रहे हैं।

विशेष-
(1) विरह-वेदना को लेकर मेंढक, मोर, पपीहा, बिजली की चमक एवं बादलों की रिमझिम का परम्परागत वर्णन किया गया है।
(2) प्राचीनकाल में वर्षा ऋतु आने से पहले ही प्रवासी लोग अपने प्रियजनों के पास लौट आते थे। बादल मानो उनके लौट आने का सन्देश लांते थे। मीराँ ने इसी आधार पर बादल पर आक्षेप किया है।

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