RBSE Class 11 Hindi संवाद सेतु Chapter 2 जनसंचार के परंपरागत माध्यम

Rajasthan Board RBSE Class 11 Hindi संवाद सेतु Chapter 2 जनसंचार के परंपरागत माध्यम

जनसंचार के परंपरागत माध्यम पाठ्यपुस्तक के प्रश्न

प्रश्न 1.
जनसंचार को विभिन्न परिभाषाओं के माध्यम से समझाइए।
उत्तर:
जनसंचार का आशय है, बड़ी संख्या में विभिन्न वर्ग के लोगों को अपनी बात पहुँचाना, अर्थात् विचारों एवं सूचना सन्देशों का आदान-प्रदान करना। जनसंचार की परिभाषा देते हुए रिवर्स पिटरसन, जॉनसन तथा जॉडेन आदि विद्वानों ने बताया है कि जनसंचार में सन्देशों का प्रसार अधिक होता है। जनसंचार एकतरफा माध्यम होता है। इसको प्रभाव सामाजिक परिवेश पर पड़ता है। जन तक सूचनासन्देश का संचार होने से यह एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। जॉसफ डिविटो का मत है कि, “जनसंचार बहुत-से व्यक्तियों में एक यन्त्र के माध्यम से सूचनाओं, विचारों और दृष्टिकोणों को रूपान्तरित करने की प्रक्रिया है। इस प्रकार परम्परागत तथा प्रिन्ट व इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से विशाल जन-समूह तक तुरन्त सूचना-सन्देश का सम्प्रेषण करना ही जनसंचार कहलाता है।

प्रश्न 2.
लोक-माध्यम क्या है? उदाहरण सहित समझाइये।
उत्तर:
जनसंचार के जो माध्यम ग्रामीण परिवेश से जुड़ी परम्पराओं से प्राप्त होते हैं, उन्हें लोक-माध्यम कहा जाता है। लोक अर्थात् सामान्य ग्रामीण परिवेश या विशाल जनसमूह में बुनियादी सुविधाओं का अभाव होने से या शिक्षा आदि से पिछड़ा होने से संचार के परम्परागत साधन प्रचलित होते हैं, उन्हें लोक-माध्यम या जनसंचार के परम्परागत माध्यम कहते हैं। उदाहरण के लिए कम पढ़े-लिखे, निम्न स्तर का जीवन जीने वाले लोगों के मध्य में कठपुतली के खेल के माध्यम से सूचना-सन्देश दिये जाने की परम्परा है। इसी प्रकार कावड़ या नुक्कड़ नाटक के माध्यम से ग्रामीण लोगों को शिक्षाप्रद सन्देश दिया जाता है, सरकारी योजनाओं की सूचना, अधिकारों की बात और मतदान आदि की जानकारी दी जाती है। लोक-माध्यम से जनता की सरल भाषा में अपनी बात उन तक पहुँचाने का प्रयास किया जाता है। इस तरह ये लोक-माध्यम परम्परागत जनसंचार के माध्यम माने जाते हैं।

प्रश्न 3.
क्या आपने कभी गवरी देखी है? यदि हाँ तो उस पर एक फीचर लिखिए।
उत्तर:
राजस्थान प्रदेश में उदयपुर, डूंगरपुर, बाँसवाड़ा का आदिवासी क्षेत्र अपनी विशिष्ट सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक पहचान रखते हैं। आदिवासियों के जीवन में लोककथाओं, पौराणिक कथाओं तथा गाथाओं के साथ ही भूम्या देवताओं का खासा स्थान है। वे लोग प्रायः रक्षाबन्धन के बाद अर्थात् चौमासा बीतने पर नृत्यनाटिकाओं का सामूहिक प्रस्तुतीकरण भक्ति-भावना से करते हैं। खासकर लोकदेवताओं एवं ऊपरी हवाओं को लेकर अपनी आस्था व्यक्त करते हैं। इस निमित्त वे तरह-तरह के विश्वासों को लेकर, लोककथाओं एवं लोकगाथाओं को जनता तक पहुँचाने का। प्रयास करते हैं। इसलिए वे समूह में गोली बनाकर नाचते एवं गाते हैं। इस तरह वे जनता को अनायास ही सकारात्मक सन्देश देने का कार्य करते हैं। गवरी अर्थात् नृत्यनाटिकाओं के माध्यम से वे सामाजिक चेतना का सन्देश सहजता से देते हैं।

जनसंचार के परंपरागत माध्यम अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न

प्रश्न 1.
‘संचार’ शब्द का अर्थ एवं परिभाषा लिखिए।
उत्तर:
संस्कृत की ‘चर्’ धातु में घञ् प्रत्यय लगाने से चार’ शब्द बनता है और ‘सम्’ उपसर्ग के योग से ‘संचार’ शब्द बनती है। इसका अर्थ होता है—गति, गमन, यात्रा। संचार शब्द के लिए लैटिन भाषा में ‘कम्युनिस’ शब्द का प्रयोग होता है, इसका अर्थ होता है—किसी वस्तु या विषय का सबके लिए साझा होना। इस कम्युनिस शब्द से अंग्रेजी में ‘कम्युनिकेशन’ शब्द बना। इस प्रकार जिसके द्वारा किसी भाव, विचार या जानकारी को हम दूसरों तक पहुँचाते हैं, उस प्रक्रिया को संचार’ कहते हैं।

संचार की परिभाषा को लेकर अनेक विद्वानों ने विचार व्यक्त किये हैं। मूल रूप से एक व्यक्ति से अन्य व्यक्ति, व्यक्ति से व्यक्तियों के समूह के बीच सम्बन्धों और विचारों-सूचनाओं का आदान-प्रदान करना ही ‘संचार’ कहलाता है। इसमें सूचना एवं सम्प्रेषण का कार्य, सन्देश व आदान-प्रदान का कार्य वार्तालाप, हावभाव अथवा लेखन द्वारा किया जाता है।

प्रश्न 2.
‘जनसंचार’ शब्द का आशय एवं उपयोग स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
संचार अंग्रेजी भाषा के ‘कम्युनिकेशन’ शब्द का हिन्दी रूपान्तर है, इसका अर्थ है-विचार, सूचना या सन्देश का संचरण या सम्प्रेषण या प्रसारण करना। हिन्दी में इसके समकक्षी शब्द हैं—’संवाद’ और ‘सम्प्रेषण’। ‘संचार’ शब्द में ‘जन’ जोड़ने से ‘जनसंचार’ शब्द बनता है और यह अंग्रेजी के ‘मास कम्युनिकेशन’ का रूपान्तर है। संचार एवं जनसंचार में थोड़ा-सा अन्तर है। संचार में प्राप्तकर्ता की संख्या एक भी हो सकती है, एक से अधिक भी; इसमें किसी भाव, विचार और जानकारी को दूसरों तक सम्प्रेषित किया जाता है। किन्तु जब यह प्रक्रिया व्यापक पैमाने पर होती है, अर्थात् मानव-वर्ग के सभी समुदायों तक बड़े पैमाने पर, चाहे वह समीप हो या दूर, कुछ विचार, भाव या सूचनाएँ शब्दों या अन्य प्रतीकों के द्वारा प्रेषित की जाती हैं और इस कार्य के लिए इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का प्रयोग किया जाता है, तो उसे जनसंचार (मास कम्युनिकेशन) कहते हैं। इस तरह जनसंचार में विविध माध्यमों एवं उपकरणों का प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 3.
‘संचार’ की विद्वानों ने क्या परिभाषा दी है? बताइए।
उत्तर:
अनेक विद्वानों ने ‘संचार’ की परिभाषा दी है, उनमें प्रमुख भारतीय विद्वानों की परिभाषाएँ इस प्रकार हैं

  1. डॉ. जेम्स एस. मूर्ति के अनुसार, “संचार का अभिप्राय अपने भाव, विचार या सन्देश की उस अभिव्यक्ति, आदान-प्रदान या सम्प्रेषण से है, जो प्राप्तकर्ता में प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं।”
  2. डॉ. चन्द्रकुमार के अनुसार, ”संचार एक प्रक्रिया है, तन्त्र नहीं, संचार एक मूलभूत वैयक्तिक एवं सामाजिक आवश्यकता तथा मानवाधिकार है। संचार के बिना जीवन में सम्पूर्णता नहीं हो सकती है।”
  3. पत्रकार प्रेम विज के अनुसार, “संचार को अर्थ विचारों और सन्देशों को जनता तक पहुँचाना है।”

इस प्रकार संचार की परिभाषा को लेकर सभी एकमत हैं कि इसमें विचारों, सूचनाओं एवं सन्देशों का पारस्परिक आदान-प्रदान होता है।

प्रश्न 4.
संचार की कौनसी विशेषताएँ मानी जाती हैं? संक्षेप में बताइए।
उत्तर:
संचार की प्रमुखतः ये विशेषताएँ मानी जाती हैं

1. संचार जटिल, प्रतीकात्मक, समस्यायुक्त एवं विरोधाभासी प्रकृति का होता है। सामान्य रूप से संचार-प्रक्रिया से सन्देश का आदान-प्रदान होता है।
2. संचार प्रभावी तथा सार्थक होकर ही उत्प्रेरक होता है। इसके अन्तर्गत अनुभवों के आदान-प्रदान की क्रिया प्रत्यक्ष एवं परोक्ष से सम्पन्न होती है।
3. सम्प्रेषक को स्वतः ही उसे सूचना, तथ्य और विचार को हृदयंगम कर लेने के बाद श्रोताओं की पसन्द और संचार माध्यम पर ध्यान देना पड़ता है।
4. संचार में सफलता और संग्राहकों की सुविधा के लिए उचित भौतिक वातावरण का उपस्थापन करना जरूरी रहता है।
5. संग्राहक पर सन्देश के प्रभाव का मूल्यांकन करना अपेक्षित रहता है।
6. संचार सदैव सोद्देश्य, सन्तुलित, संग्राहक की क्षमताओं एवं मान्यताओं के अनुरूप तथा समयानुसार होने पर प्रभावी रहता है।

प्रश्न 5.
परम्परागत जनसंचार माध्यमों में लोककथा और लोकनृत्य का महत्त्व बताइये।
उत्तर:
लोक-कथा-लोक-कथाएँ भारत में प्राचीन काल से ही मौखिक एवं लिखित रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक निरन्तर चलती रहती हैं। लोक-कथाओं में मंगल-कामना की भावना, प्रेम का पुट, प्रकृति का विस्तारपूर्वक वर्णन करना, रोमांच, रहस्य एवं अलौकिकता की प्रधानता आदि का समावेश रहता है। लोक-कथा के प्रमुख स्रोत पंचतन्त्र, हितोपदेश, बैताल पंचविंशतिका, पुरुष परीक्षा आदि ग्रन्थ हैं। इन लोक-कथाओं में कोई-न-कोई सन्देश छिपा रहता है जो जनकल्याणार्थ होता है।

लोक-नृत्य-भारतीय शास्त्रीय नृत्य ललित-कलाओं के अन्तर्गत आता है। जहाँ तक सम्प्रेषण की बात आती है, नृत्य के द्वारा हृदय के भीतर छिपी हुई बात को सरलता से व्यक्त किया जा सकता है तथा इनसे मानवीय संवेगों की भी सहज रूप में अभिव्यक्ति हो जाती है। हमारे यहाँ प्रचलित विविध नृत्यों से संचार-सन्देश की सुन्दर प्रस्तुति की जाती है।

प्रश्न 6.
वर्तमान में जनसंचार के कितने माध्यम प्रचलित हैं?
उत्तर:
वर्तमान में जनसंचार के जो माध्यम प्रचलित हैं, उनका वर्गीकरण अनेक तरह से किया जा सकता है। यहाँ इसके प्रमुख चार प्रकारों का वर्गीकरण दिया जा रहा

  1. मुद्रित ( प्रिंट) माध्यम-इसके अन्तर्गत दैनिक, पाक्षिक, मासिक आदि सभी तरह के समाचार-पत्रों एवं पत्रिकाओं का समावेश हो जाता है।
  2. इलेक्ट्रॉनिक माध्यम-
    • इसमें श्रव्य माध्यम रूप में प्रसार भारती का सरकारी रेडियो तथा एफ.एम. रेडियो,
    • दृश्य-श्रव्य माध्यम के रूप में दूरदर्शन तथा उससे सम्बन्धित सभी चैनल, ऑडियो, वीडियो आदि,
    • फिल्म रूप में डाक्यूमेंट्री, फीचर, विज्ञापन एवं क्वीज फिल्म की गणना की जाती है।
  3. पारम्परिक माध्यम-इसके अन्तर्गत लोकगीत, लोकनाट्य, लोकनृत्य, लोकोत्सव, लोक-कलाएँ (कठपुतली, गवरी, कावड़) आदि का समावेश हो जाता है।
  4. अन्य माध्यम-इसमें जनसम्पर्क, प्रदर्शनी, विज्ञापन एवं प्रचार सामग्री आदि की गणना की जाती है।

प्रश्न 7.
‘जनसंचार’ की परिभाषा लिखिए।
उत्तर:
विद्वानों ने ‘जनसंचार का महत्त्व बतलाते हुए इसकी अनेक परिभाषाएँ दी हैं। जोंसफ डिविरो का कथन है कि “जनसंचार बहुत-से व्यक्तियों में एक यन्त्र के माध्यम से सूचनाओं, विचारों और दृष्टिकोणों को रूपान्तरित करने की प्रक्रिया है।”

अन्य विद्वान् जाडेन का मत है कि ”संगठित स्रोत द्वारा विस्तृत, विजातीय, बिखरी हुई जनता को तकनीकी माध्यम से जो सन्देश प्राप्त होता है, उसे जनसंचार कहते हैं।”

जानसन ने मत व्यक्त किया है कि “जनसंचार एकतरफा होता है। जनसंचार जनता के अधिकतर हिस्सों तक सन्देशों का प्रवाह सुनिश्चित करता है। यह सामाजिक परिवेश सतत प्रक्रिया है।”

इस प्रकार ‘जनसंचार’ उसे कहते हैं, जिसमें विभिन्न माध्यमों से विशाल जनसमूह तक सूचना-सन्देशों का संचरण द्रुतगति से किया जाता है तथा सन्देशों का प्रसार सुनियोजित रूप से होता है।

प्रश्न 8.
जनसंचार माध्यमों से सम्प्रेषित सन्देशों की भाषा कैसी होनी चाहिए? लिखिए।
उत्तर:
जनसंचार माध्यमों से सम्प्रेषित सन्देशों की भाषा को लेकर निम्न तीन बिन्दुओं का ध्यान रखना चाहिए”

  1. सन्देश की भाषा सरल, सुगम्य और सुबोध हो, साथ ही यह ध्यान भी रखना पड़ता है कि जिस वर्ग समूह को सन्देश प्रेषित किया जा रहा हो, उसकी स्थानीय भाषा का प्रयोग भी सहजता से किया जावे।
  2. किसी जन-समूह को सन्देश देते समय यह ध्यान रखना पड़ता है कि भाषा में किसी भी प्रकार की वर्तनी की त्रुटि न हो। भाषा शुद्ध हो तथा उससे अर्थ का अनर्थ नहीं निकाला जा सके अथवा गलत प्रभाव नहीं पड़े।
  3. सन्देश प्रेषित करते समय भाषा तथ्यपरक और सारगर्भित हो, अर्थात् जनसंचार माध्यम में भाव-विचार की अभिव्यक्ति उचित हो तथा सम्प्रेषित सन्देश संशयजनक न हो। इस प्रकार जनसंचार माध्यमों में भाषा का प्रयोग पूरी सावधानी से करना चाहिए।

प्रश्न 9.
जनसंचार माध्यमों का स्वरूप किस तरह बदलता रहा?
अथवा
जनसंचार माध्यमों का विकास मानव-सभ्यता के इतिहास से कैसे जुड़ा हुआ है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जब से इस धरती पर मानव-सभ्यता का उदय हुआ है, तब से जनसंचार के प्रयोग सतत किये जाते रहे हैं। प्रारम्भ में मानव अपनी बात दूसरों को समझाने के लिए इशारों या संकेतों का प्रयोग करता था, फिर तरह-तरह की बोलियों के द्वारा अनेक तरह के प्रतीक चिह्न बनाकर अपने विचार एवं भाव दूसरों पर व्यक्त करता था। राजाओं के शासन काल में जनसंचार के लिए दुन्दुभि एवं नगाड़ों का प्रयोग किया जाता था, फिर लाउड स्पीकर या ध्वनि-विस्तारक यन्त्रों का प्रयोग होने लगी। आदिवासियों के द्वारा आज भी नगाड़ों, तुरहियों, सिंगी वाद्यों के द्वारा सन्देश-सूचना का सम्प्रेषण किया जाता है। गाँवों में पंचायतों के लिए डोंडी पिटवाई जाती थी। फिर इश्तहार, पम्फलेट आदि का प्रयोग किया जाने लगा। जनसंचार के परम्परागत माध्यमों। के साथ ही वर्तमान में मुद्रित एवं इलेक्ट्रॉयीक माध्यमों को अपनाया जाने लगा है। इस प्रकार मानव-सभ्यता के विकास के साथ ही जनसंचार के माध्यमों के विकास की प्रक्रिया सतत चलती रही है।

प्रश्न 10.
परम्परागत जनसंचार के माध्यमों का सामान्य परिचय दीजिए।
उत्तर:
जो जनसंचार माध्यम हमारे ग्रामीण परिवेश से जुड़ी परम्पराओं से हमें प्राप्त हुए हैं या ग्रामीण क्षेत्रों में पुरानी परम्परा से चले आ रहे हैं, उन्हें परम्परागत जनसंचार माध्यम या लोक-माध्यम कहा जाता है। ऐसे जनसंचार माध्यम किसी भी जनसमूह तक सूचना एवं सन्देश को मनोरंजनपूर्ण तरीके से पहुँचाते हैं। इसका विकास ग्रामीण समाज के लोगों के द्वारा अपने समाज में रहकर किया जाता है तथा धीरे-धीरे इनमें परिष्कार-सुधार भी होता रहता है। राजस्थान प्रदेश में जनसंचार के लोक-माध्यम क्षेत्रानुसार तथा वर्ग-विशेष के जनसमूहों में प्रचलन के अनुसार अपनाये गये हैं। इनके माध्यम से जनता तक सरकारी योजनाओं की सूचना, अधिकारों की बात, परिवार नियोजन, शिक्षा, मतदान का महत्त्व आदि की जानकारी पहुँचायी जाती है। राजस्थान में कठपुतली, कावड़, गवरी, नुक्कड़ नाटक आदि इस तरह के लोक-माध्यम हैं।

प्रश्न 11.
कठपुतली लोक-माध्यम का परिचय दीजिए।
उत्तर:
रंग-बिरंगे कपड़ों एवं मुखौटों से बनी कठपुतलियाँ डोरियों एवं अँगुलियों के सहारे मनोरंजनापूर्ण प्रदर्शन करती हैं। यद्यपि कठपुतलियाँ निर्जीव होती हैं, परन्तु इनके द्वारा किया गया प्रदर्शन ऐसा लगता है मानो कोई सजीव कलाकार अपनी प्रस्तुति दे रहा हो। राजस्थान प्रदेश में कठपुतली की बहुत पुरानी एवं समृद्ध कला है। भाट जाति के लोगों के द्वारा इनका निर्माण एवं प्रदर्शन किया जाता है। ये लोग गाँव-गाँव में जाकर मनोरंजनपूर्ण शैली में दहेज प्रथा, बालिका शिक्षा, नशाखोरी, मतदान के प्रति जागरूकता आदि के कार्यक्रम प्रस्तुत कर जनता को सन्देश पहुँचाते हैं तथा जन-चेतना में जागरण का काम भी करते हैं। राजस्थान के गाँवों एवं कस्बों के अलावा नगरों की कच्ची बस्तियों में कठपुतली के प्रदर्शन चलते रहते हैं। इनसे मनोरंजन के साथ-साथ शिक्षाप्रद सन्देश का सम्प्रेषण बड़ी सहजता से हो जाता है।

प्रश्न 12.
कावड़ लोक-माध्यम का सामान्य उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
राजस्थान के ग्रामीण आदिवासी क्षेत्रों में जनसंचार माध्यम के रूप में कावड़ का प्रदर्शन किया जाता है। कावड़ लकड़ी का बना दरवाजानुमा चलता-फिरता आस्था का मन्दिर होता है। इस पर धार्मिक एवं पौराणिक लोकगाथाओं से सम्बन्धित रंगीन चित्राकृतियाँ उकेरी रहती हैं। सूफी-सन्तों की कहानियों से जुड़ी चित्राकृतियाँ। भी खुदी रहती हैं। कावड़ का निर्माण प्रायः भाट जाति के लोग करते हैं। ये ग्रामीण। क्षेत्रों में जाकर कावड़ के द्वारा धार्मिक लोकगाथाओं को जनता तक पहुँचाते हैं। ये लोककथाओं को बड़े भावपूर्ण ढंग से, विशेष स्वर में सुनाते हैं तथा उसी के अनुसार जनता को भावमग्न करने का प्रयास करते हैं। पुरानी कथाओं एवं घटनाओं का वर्णन कर इनके माध्यम से जनता को जीवन जीने की राह दिखाते हैं, उन्हें जागरूक करते हैं। कावड़वाचकों को अनेक लोकगाथाओं, सूफी-सन्तों की कथाओं आदि का भावपूर्ण सम्प्रेषण करने में दक्षता रहती है। इनसे जनता को अनेक तरह के सन्देश तथा शिक्षाप्रद बातों की सूचना मिल जाती है।

प्रश्न 13.
जनसंचार के लोक-माध्यम ‘गवरी’ का परिचय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
राजस्थान के उदयपुर, डूंगरपुर, बाँसवाड़ा आदि क्षेत्रों में लोक-संस्कृति को प्रदर्शित करने वाली नृत्य-नाटिकाओं का प्रचलन है। इसे ही ‘गवरी’ कहा जाता. है। गवरी में वादन, संवाद एवं नृत्य द्वारा प्रस्तुतीकरण होता है। लोक-कला के रूप में। मेवाड़ की गवरी का विशेष समान है। पौराणिक कथाओं, लोककथाओं तथा लोकजीवन की विशिष्ट घटनाओं की झाँकियों के आधार पर नृत्य-नाटिकाओं का प्रदर्शन किया जाता है। प्रायः रक्षाबन्धन के दूसरे दिन से इन्हें प्रारम्भ किया जाता है। गवरी से सारा वातावरण भक्तिमय हो जाता है और दर्शक गहरी आस्था में डूब जाते हैं। इस तरह गवरी के माध्यम से सामाजिक चेतना का प्रसार होता है और प्राचीन संस्कृति के आदर्शों को अपनाने का सन्देश मिलता है। जो लोग लोककथाओं के मर्म से अनभिज्ञ रहते हैं, उन्हें भी इनकी जानकारी मिल जाती है। गवरी से जनता का मनोरंजन भी होता है तथा सामाजिक सहकारिता अपनाने का सन्देश भी दिया जाता है।

प्रश्न 14.
नुक्कड़ नाटक जनसंचार का सशक्त लोक-माध्यम कैसे माना जाता है? बताइये।
उत्तर:
नुक्कड़ अर्थात् मोहल्लों की गलियों या रास्तों के नुक्कड़ों पर प्रदर्शित अभिनयात्मक दृश्य को नुक्कड़ नाटक कहा जाता है। यह रंगमंचीय नाटकों से भिन्न होता है, अर्थात् यह रंगमंच पर नहीं दिखाया जाता है, अपितु बिना रंगमंच के खुले स्थान पर तमाशे की तरह प्रस्तुत किया जाता है। वर्तमान समय में समाज तथा देश की समस्याओं को आधार बनाकर, नुक्कड़ों पर उनका प्रदर्शन कर लोगों को जागरूक रहने का सन्देश दिया जाता है। जनता की समस्याओं को उठाना तथा उनके समाधान के लिए जन-जागरण का सन्देश देना इनका मुख्य लक्ष्य रहता है। वर्तमान कई बड़ी कम्पनियाँ अपने उत्पाद के प्रचार-प्रसार के लिए इस विधा का प्रयोग करती हैं। कुछ क्रान्तिकारी चेतना के युवावर्ग नुक्कड़ नाटकों के प्रदर्शन से व्यवस्था के प्रति अपना विरोध भी व्यक्त करते हैं तथा कई राजनीतिक दल मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए नुक्कड़ नाटकों का सहारा लेते हैं।

प्रश्न 15.
जनसंचार की प्रक्रिया मानव-सभ्यता से कैसे जुड़ी हुई है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जनसंचार की प्रक्रिया को अच्छी तरह समझने के लिए हम मानव-सभ्यता का इतिहास देख सकते हैं। ज्यों-ज्यों मानव ने इस धरती पर विकास के कदम बढ़ाये, त्यों-त्यों उसने संचार के नये-नये साधन भी अपनाये। प्रारम्भ में एक-दूसरे तक सन्देशसूचना देने के लिए हाव-भाव, प्रतीक चिह्न, ध्वनि आदि को माध्यम बनाया गया। फिर लोक-जीवन में अति प्रचलित प्रवृत्तियों को जनसंचार के माध्यम के रूप में इस तरह प्रयुक्त किया कि उनसे मनोरंजन भी हो जावे तथा जनता तक आसानी से सन्देश को सम्प्रेषण भी हो सके। संचार वस्तुएँ सामाजिक संवाद की प्रक्रिया है। मानव सभ्यता का विकास वैज्ञानिक आविष्कारों तक की यात्रा करने लगा, तो जनसंचार के माध्यम भी परम्परागत से आगे बढ़े और मुद्रित माध्यमों के साथ इलेक्ट्रॉनिक माध्यम अपनाये जाने लगे। अब सामाजिक नेटवर्किंग को जनसंचार का माध्यम बनाया जा रहा है। इस प्रकार जनसंचार की प्रक्रिया मानव-सभ्यता के साथ आगे बढ़ती जा रही है।

जनसंचार के परंपरागत माध्यम अध्याय-सार

जनसंचार की प्रक्रिया-संचार सतत चलने वाली प्रक्रिया है। जब से पृथ्वी पर मानव का जन्म हुआ है, तभी से संचार का भी उद्भव हुआ है। मानव सभ्यता के आरम्भ में हाव-भाव, प्रतीक चिह्न या ध्वनि आदि संचार के माध्यम थे, बाद में इनका स्वरूप बदलता रहा। यह संचार प्रक्रिया केवल मनुष्यों में ही नहीं, अपितु पशु-पक्षियों में भी दिखाई देती है। वस्तुतः अपने विचारों का आदान-प्रदान सभी करते हैं, परन्तु भाषा या ध्वनि-संकेत भिन्न-भिन्न होते हैं।

‘जनसंचार’ शब्द की व्युत्पत्ति-संचार एक सामाजिक संवाद है। सम् उपसर्ग एवं संस्कृत की ‘चर्’ धातु से संचार शब्द बनता है। संचार का आशय एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति या समूह से विचारों का आदान-प्रदान करना है। इसमें विचारों के साथ सूचना या जानकारी का संवाद भी होता है। संचार शब्द से पूर्व ‘जन’ जोड़ने पर ‘जनसंचार’ शब्द बनता है, जिसे अंग्रेजी में ‘मास कम्यूनिकेशन’ कहते हैं। इसका आशय यह है कि भारी संख्या में बिखरे हुए लोगों तक अपनी बात या विचारों को पहुँचाया जाता है। इस तरह जनसंचार का प्रवाह असीमित एवं व्यापक होता है।

जनसंचार की परिभाषा-जनसंचार की अलग-अलग विद्वानों ने परिभाषाएँ दी हैं। रिवर्स पिटरसन और जॉनसन ने जनसंचार की परिभाषा इस प्रकार दी है-

  1. जनसंचार एक तरफ (One way) होता है।
  2. इसमें संदेशों का प्रसार अधिक होता है।
  3. सामाजिक परिवेश जनसंचार को प्रभावित करता है।
  4. इसमें दो-तरफा चयन की प्रक्रिया होती है।
  5. जनसंचार जनता के अधिकतर हिस्सों तक पहुँचने के लिए उपयुक्त समय का चयन करता है।
  6. जनसंचार लोगों तक सन्देशों का प्रवाह सुनिश्चित करता है।

जाडेन नामक विद्वान् का कथन है कि ”संगठन स्रोत द्वारा विस्तृत, विजातीय, बिखरी हुई जनता को तकनीकी माध्यम से जो सन्देश प्राप्त होता है, उसे जनसंचार कहते हैं।”
जनसंचार के माध्यम एवं भाषा-इस तरह जनसंचार के द्वारा बिखरे हुए, विशाल जनसमूह तक कोई सूचना या सन्देश तुरन्त पहुँचाया जाता है। इसके लिए अखबार (प्रिन्ट मीडिया), रेडियो, टेलीविजन, फिल्म एवं इन्टरनेट आदि के अलावा अन्य अनेक माध्यम अपनाये जाते हैं। इसमें इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि जनता तक पहुँचने वाले किसी भी सन्देश की भाषा ऐसी होनी चाहिए, जो किसी वर्ग-विशेष को आहत न करे और वह सन्देश किसी धर्म-विशेष के विरोध में भी न हो। इसके लिए निम्न बातों का ध्यान रखना जरूरी है

  1. सन्देश की भाषा सरल, सुगम होने के साथ ही स्थानीय भाषा से मिश्रित हो।
  2. भाषा में वर्तनी की त्रुटि न हो, ताकि उससे अर्थ का अनर्थ होने की सम्भावना नहीं रहे।
  3. सन्देश की भाषा सारगर्भित और तथ्यात्मक हो।

जनसंचार के माध्यमों का विकास-जब से मानव-जाति ने पृथ्वी पर जन्म लिया है, वह जनसंचार का प्रयोग करता आ रहा है। परन्तु मानव-सभ्यता के विकास के साथ जनसंचार माध्यमों का विकास होता रहा है, अर्थात् इनका स्वरूप बदलता रहा है। प्रारम्भ में मनुष्य अपनी बात को समझाने के लिए संकेतों या इशारों का प्रयोग करता था, फिर उसने प्रतीक-चिह्नों एवं बोलियों का प्रयोग कर अपने विचार व्यक्त किये। प्राचीन समय में नगाड़ों एवं दुन्दुभियों को बजाकर जनसमूह को एकत्र कर सूचना या सन्देश दिये जाते थे। सामाजिक समारोहों की सूचना या शासकीय आदेशों के संचार के लिए नगाड़े बजाये जाते थे और एकत्र जनता को सन्देश सुनाये जाते थे। इस प्रकार प्राचीन समय में जनसंचार के अनेक माध्यम रहे हैं। ऐसे माध्यमों को ही परम्परागत माध्यम या लोक-माध्यम कहा जाता है।

जनसंचार के लोक-माध्यम-ग्रामीण परिवेश की पुरानी मान्यताओं एवं परम्पराओं से जुड़ी जनसंचार की प्रक्रिया को जनसंचार के परम्परागत माध्यम या लोक-माध्यम कहा जाता है। इन परम्परागत माध्यमों के द्वारा विशाल जन-समूह तक सूचना एवं सन्देश को मनोरंजक तरीके से पहुंचाया जाता है। इन लोकमाध्यमों का भी समय की गति के साथ परिष्कार होता रहा। इनमें से कुछ माध्यम न केवल सूचनात्मक अपितु लोकानुरंजक होते थे। आज भी गाँवों में इन माध्यमों का प्रदर्शन किया जाता है। क्योंकि गाँवों में अब भी शिक्षा–क्षेत्र पिछड़ा हुआ है।

तथा बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। इस कारण गाँवों में परम्परागत लोककलाओं, नोटंकी, कठपुतली, भजन, कावड़, गवरी, नुक्कड़ नाटक आदि के माध्यम से सरकारी योजनाओं की सूचना, अधिकारों का सन्देश और मतदान या परिवार नियोजन आदि की जानकारी जनता तक पहुँचायी जाती है। लोक-माध्यमों से जनता को जनता की आम-भाषा में सूचना देने का प्रयास मुख्य ध्येय रहता है। यहाँ कुछ ऐसे लोक-माध्यमों का उल्लेख किया जा रहा है

1. कठपुतली-प्राचीन समय में कठपुतली के माध्यम से जनता तक कोई सूचना या जानकारी पहुँचायी जाती थी। यह कार्य राजस्थान प्रदेश में बहुत पुरानी एवं समृद्ध कला के रूप में प्रचलित रहा है। कठपुतलियाँ भले ही निर्जीव होती हैं, परन्तु उनके माध्यम से ऐसा रोचक प्रदर्शन किया जाता है जो कि अत्यन्त सजीव लगता है। गाँवों में दहेज प्रथा, नशाखोरी, बाल-विवाह तथा बालिका शिक्षा आदि से सम्बन्धित कार्यक्रम प्रस्तुत कर कठपुतली के खेल से सन्देश पहुँचाये जाते हैं। कठपुतली का खेल सभी के लिए मनोरंजनपूर्ण होता है और सन्देश प्रेषण सहजता से हो जाता है।

2. कावड़-यह जनसंचार का ऐसा लोक-माध्यम है, जिससे धार्मिक लोकगाथाओं और सूफी सन्तों की कहानियों को जनमानस तक पहुँचाया जाता है। कावड़ लकड़ी का बना एक दरवाजानुमा चलता-फिरता आस्था का मन्दिर होता है। इस पर धार्मिक एवं पौराणिक लोकगाथाओं से सम्बन्धित रंगीन चित्राकृतियाँ उकेरी रहती हैं। भाट इन चित्राकृतियों के द्वारा ग्रामीण जनता को लोकगाथाओं से परिचित कराते हैं। इनका प्रस्तुतीकरण अतीव रोचक होता है तथा इनसे जीवन जीने का सही [ ढंग भी सन्देश रूप में ज्ञात हो जाता है।

3. गवरी-लोक-संस्कृति को प्रदर्शित करती हुई नृत्य-नाटिकाएँ गवरी कहलाती हैं। वादन, संवाद और प्रस्तुतीकरण के आधार पर मेवाड़ की गवरी सबसे अलग है। ये नृत्य-नाटिकाएँ पौराणिक कथाओं, लोकगाथाओं एवं लोक-जीवन की कई प्रकार की झाँकियों पर आधारित होती हैं। गवरी का आयोजन रक्षाबन्धन के दूसरे दिन से आरम्भ होता है। इनसे सामाजिक जीवन को सकारात्मक सन्देश दिया जाता है और सामाजिक चेतना को लोक-परम्परा के अनुसार ढालने का प्रयास किया जाता है।

4. नुक्कड़ नाटक-परम्परागत रंगमंच से हटकर गली-मुहल्ले के नुक्कड़ों पर अर्थात् खुले स्थान पर प्रदर्शित होने से इसे नुक्कड़ नाटक नाम दिया गया है। इसकी रचना किसी उद्देश्य को लेकर की जाती है। वर्तमान समय में समाज एवं देश की ज्वलन्त समस्याओं को आधार बनाकर नुक्कड़ नाटक का अभिनयात्मक प्रदर्शन किया जाता है। इससे जनता को आसानी से सन्देश दिया जाता है तथा उन्हें समस्याओं के समाधान के प्रति आकर्षित किया जाता है। इसमें तेज-तर्रार भाषाशैली एवं हाव-भाव का प्रदर्शन रोचकता के साथ किया जाता है।

इस प्रकार वर्तमान में ग्रामीण क्षेत्रों एवं कस्बों में जन-संचार के उक्त परम्परागत लोक-माध्यमों का काफी प्रचलन दिखाई देता है। इनसे मनोरंजन के साथ ही शिक्षा-सन्देश व्यक्त हो जाता है।

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