RBSE Solutions for Class 11 History Chapter 2 विश्व के प्रमुख धर्म, मजहब

Rajasthan Board RBSE Class 11 History Chapter 2 विश्व के प्रमुख धर्म, मजहब

RBSE Class 11 History Chapter 2 पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर

RBSE Class 12 History Chapter 2 अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
वैदिक साहित्य में किन ग्रन्थों को सम्मिलित किया जाता है?
उत्तर:
वैदिक साहित्य में चारों वेदों के साथ उनसे सम्बद्ध ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक, उपनिषद, सूत्र ग्रंथ तथा छः वेदांग सम्मिलित किये जाते हैं।

प्रश्न 2.
सबसे प्राचीन वेद कौन सा है?
उत्तर:
सबसे प्राचीन वेद ऋग्वेद है।

प्रश्न 3.
पंच महायज्ञ कौन से हैं?
उत्तर:
पंच महायज्ञ हैं-

  1. ब्रह्म यज्ञ
  2. देव यज्ञ
  3. भूत यज्ञ
  4. पितृ यज्ञ
  5. नृ यज्ञ।

प्रश्न 4.
महावीर स्वामी को ज्ञान किस स्थान पर प्राप्त हुआ?
उत्तर:
महावीर स्वामी को ऋजुपालिका ग्राम के पास ऋजुपालिका नदी के तट पर साल के वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ।

प्रश्न 5.
जैन धर्म के पंच महाव्रत कौन से हैं?
उत्तर:
जैन धर्म के पंच महाव्रत हैं-

  1. अहिंसा
  2. सत्य
  3. अस्तेय
  4. अपरिग्रह
  5. ब्रह्मचर्य।

प्रश्न 6.
महात्मा बौद्ध का जन्म कहाँ हुआ?
उत्तर:
महात्मा बौद्ध का जन्म 563 ई. पू. में शाक्यवंशीय क्षत्रीय कुल में लुम्बिनी वन में हुआ।

प्रश्न 7.
बौद्ध धर्म में महाभिनिष्क्रमण क्या है?
उत्तर:
जब गौतम बुद्ध पुत्र, पत्नी, पिता व सम्पूर्ण राज्य के वैभव को छोड़कर ज्ञान की खोज में घर में निकल गए तो उनके जीवन की इस घटना को बौद्ध साहित्य में महाभिनिष्क्रमण कहा जाता है।

प्रश्न 8.
हजरत मोहम्मद को मक्का क्यों छोड़ना पड़ा?
उत्तर:
हजरत मोहम्मद द्वारा दी जा रही शिक्षाओं से मक्का वासी नाराज हो गए और उनका विरोध करने लगे इसलिए उन्हें मक्का छोड़कर मदीना जाना पड़ा।

प्रश्न 9.
मुस्लिम मजहब का पवित्र ग्रन्थ कौन – सा है?
उत्तर:
मुस्लिम मजहब का पवित्र ग्रन्थ कुरान है।

प्रश्न 10.
रिसरेक्सन क्या है?
उत्तर:
ईसा मसीह की मृत्यु के 40 दिन बाद पुन: प्रकट अथवा जीवित होकर उपदेश देने की घटना को ईसाई धर्म में रिसरेक्सन कहा जाता है।

प्रश्न 11.
न्यू टेस्टामेण्ट क्या है?
उत्तर:
ईसा के शिष्य मार्क, मैथ्यू, ल्यूक एवं जोन द्वारा लिखित ग्रन्थ, जिसमें ईसा के जीवन, उनके उपदेश एवं उनके जीवन की रोचक कथाओं को संग्रहीत किया गया है, न्यू टेस्टामेण्ट कहलाता है।

RBSE Class 12 History Chapter 2 लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
वैदिक धर्म को परिभाषित कीजिए?
उत्तर:
वैदिक धर्म को श्रोत धर्म, आर्ष धर्म या सनातन धर्म भी कहते हैं। इसके अनुयायी आर्य या हिन्दू कहलाते हैं। आर्य का अर्थ श्रेष्ठ या उत्तम आचरण है। वैदिक धर्म संसार का सबसे प्राचीन धर्म है। हम कह सकते हैं कि वैदिक साहित्य में जिस धार्मिक व्यवस्था का वर्णन किया गया है, वह वैदिक धर्म कहलाती है। वैदिक साहित्य में वेद संहिता, ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक, उपनिषद, सूत्र ग्रंथ तथा छः वेदांग सम्मिलित हैं। वैदिक धर्म में पंच महायज्ञ, सोलह संस्कार, स्वर्ग की कल्पना, विवाह के आठ प्रकार, मोक्ष, तत्व चिंतन आदि पर बल दिया गया है।

प्रश्न 2.
वैदिक धर्म में उपासना विधि कौन – सी है?
उत्तर:
वैदिक धर्म विश्व का एक प्राचीन धर्म है। वैदिक धर्म में आर्य लोग अपने देवी – देवताओं को प्रसन्न करने के लिए दो प्रकार की उपासना विधि अपनाते थे।

  1. प्रार्थना व स्तुति
  2. यज्ञ करना।

ये लोग यज्ञों में अन्न, घी एवं सुगन्धित सामग्री की आहुति देकर अपने देवताओं से लम्बी आयु, पुत्र – पौत्र, धन की प्राप्ति एवं शत्रुओं का विनाश करने की प्रार्थना करते थे। आर्यों का एक वर्ग यज्ञ के स्थान पर स्तुति को अधिक महत्व प्रदान करता था। आर्य लोग
देव – पूजा के अतिरिक्त अपने – अपने पितरों की भी पूजा करते थे। यह परम्परा आज की भारतीय समाज के समस्त वर्गों में विद्यमान है।

वैदिक धर्म में प्रत्येक व्यक्ति प्रतिदिन पाँच महायज्ञ करता था, ये हैं-

  1. ब्रह्म यज्ञ
  2. देव यज्ञ
  3. भूत यज्ञ
  4. पितृ यज्ञ
  5. नृ यज्ञ।

प्रश्न 3.
वैदिक धर्म में देवताओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
आर्यों का विश्वास था कि यह संसार देवताओं की कृपा से संचालित होता है। प्रत्येक देवता को सृष्टि नियन्ता के रूप में दर्शाया गया। इन देवताओं की संख्या तैंतीस थी। इन्हें इनकी प्राकृतिक स्थिति के अनुसार तीन भागों में विभाजित किया गया है-

  1. पृथ्वी के देवता – इस श्रेणी में अग्नि, वृहस्पति, सोम, पृथ्वी, सरस्वती आदि देवताओं को रखा गया।
  2. आकाश के देवता – इस श्रेणी में द्यौस, वरुण, पूषन, मित्र, सूर्य, विष्णु, अश्विन, उषा, अदिति आदि।
  3. अन्तरिक्ष के देवता – इस श्रेणी में इन्द्र, वात, रुद्र, मरुत, वायु आदि देवता रखे गये हैं।

प्रश्न 4.
जैन धर्म में सम्यक् दर्शन क्या है?
उत्तर:
जैन धर्म में मोक्ष की प्राप्ति के लिए तीन साधनों में से एक सम्यक दर्शन भी है। सम्यक दर्शन का अर्थ है जैन तीर्थंकरों एवं उनके उपदेशों में दृढ़ विश्वास रखना। सच्चे ज्ञान को जीवन में उतारने के लिए प्रत्येक मनुष्य को तीर्थंकरों में पूर्ण आस्था और विश्वास रखना चाहिए। सम्यक दर्शन के आठ अंग हैं-

  1. संदेह से दूर रहना
  2. सुखों की इच्छा का त्याग करना
  3. गलत रास्ते पर नहीं चलना
  4. अंधविश्वासों से विचलित नहीं होना
  5. आसक्ति – विसक्ति से बचना
  6. सभी के लिए समान प्रेम रखना
  7. सही विश्वासों पर अटल रहना
  8. लौकिक अंधविश्वासों व पाखण्डों से दूर रहना।

प्रश्न 5.
जैन धर्म की विश्व को क्या देन है?
उत्तर:
जैन धर्म ने विश्व में शांति, बंधुत्व, प्रेम, सहिष्णुती एवं एकता स्थापित करने का मार्ग दिखलाया। जैन धर्म ने विश्व सभ्यता एवं संस्कृति को भी प्रभावित किया है। जैन धर्म मानने वाले लोगों ने साहित्य, कला एवं स्थापत्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। जैन धर्म की सबसे महत्वपूर्ण देन कलात्मक स्मारक, मूर्तियाँ, मंदिर, मठ एवं गुफाएँ आज भी धरोहर के रूप में हमारे पास सुरक्षित हैं।

हस्त लिखित जैन ग्रन्थों पर खीचें गए चित्र पूर्व मध्य युगीन चित्रकला के उत्कृष्ट नमूने हैं। महावीर स्वामी द्वारा प्रदान की गयी जैन जीवन शैली पर्यावरण सरंक्षण एवं प्रदूषण नियन्त्रण हेतु उपयोगी है। जैन धर्म के सिद्धान्तों को अपना कर हम लम्बे समय तक पृथ्वी और पर्यावरण को बचा सकते हैं।

प्रश्न 6.
जैन धर्म में कर्म और पुनर्जन्म का सिद्धांत क्या है?
उत्तर:
जैन धर्म विश्व का एक अति प्राचीन धर्म है। यह कर्म और पुनर्जन्म में विश्वास रखता है। जैनधर्म मानव को स्वयं अपने भाग्य का निर्माता मानता है। मानव के समस्त सुख-दुख का कारण उसके अपने कर्म हैं। आत्मा अजर-अमर है। और सदैव एक – सी बनी रहती है। मनुष्य के कर्मों के कारण पैदा होने वाली सांसारिक वासना के बंधनों के कारण आत्मा का बार – बार आवागमन होता रहता है और जन्म – मरण का चक्र चलता रहता है। कर्मों का फल प्राप्त किए बिना किसी भी जीव की मुक्ति संभव नहीं है। इस प्रकार कर्म ही पुनर्जन्म का कारण बनता है। जैन धर्म के मतानुसार यही कर्म और पुनर्जन्म का सिद्धांत कहलाता है।

प्रश्न 7.
बौद्ध धर्म में निर्वाण (मोक्ष) कैसे प्राप्त किया जा सकता है?
उत्तर:
बौद्ध धर्म का अंतिम लक्ष्य निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त करना है। निर्वाण शब्द का शाब्दिक अर्थ बुझना अथवा शांत हो जाना होता है। मन में पैदा होने वाली तृष्णा या वासना की अग्नि को बुझा देने पर ही निर्वाण प्राप्त हो सकता है, निर्वाण अर्थात मोक्ष की प्राप्ति पर मनुष्य जन्म – मरण के बंधनों से मुक्त हो जाता है। मानवं निर्वाण इसी जन्म में प्राप्त कर सकता है।

प्रश्न 8.
मोहम्मद पैगम्बर के जीवन पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
इस्लाम धर्म के संस्थापक हजरत मोहम्मद थे। इन्हें मोहम्मद पैगम्बर भी कहा जाता है। इनका जन्म 570 ई. में मक्का में हुआ। इनके पिता का नाम अब्दुल्ला तथा माता का नाम आमीना था। बचपन में ही इनके माता-पिता की मृत्यु के पश्चात इनका पालन – पोषण इनके चाचा अबूतालिब ने किया। इनका प्रारम्भिक जीवन कठिनाई से भरा था। मोहम्मद पैगम्बर ने 25 वर्ष की आयु में एक विधवा 40 वर्षीय स्त्री खदीजा से विवाह कर लिया।

इनका मन सांसारिक भोग विलास में नहीं लगा परिणामस्वरूप वे आध्यात्मिक चिन्तन में लीन हो गये। उन्होंने अरबवासियों द्वारा की जा रही मूर्तिपूजा का विरोध किया और एक अल्लाह की अवधारणा वाले मजहब का उपदेश दिया। इस कारण इनसे मक्का वासी नाराज हो गए और उनका विरोध करने लगे। फलस्वरूप इन्हें मक्का छोडकर मदीना जाना पड़ा। यह महत्वपूर्ण घटना इस्लाम में हिजरत कहलाती है। 632 ई. में इनकी मृत्यु हो गयी। इनकी शिक्षाएँ इस्लाम के पवित्र ग्रन्थ कुरान में संग्रहीत हैं।

प्रश्न 9.
बौद्ध धर्म की विश्व संस्कृति को क्या देन है?
उत्तर:
बौद्ध धर्म ने सर्वप्रथम विश्व को एक सरल एवं आडम्बर रहित धर्म प्रदान किया। धर्म के क्षेत्र में अहिंसा, शान्ति, बंधुत्व, सहअस्तित्व एवं सहिष्णुता आदि का पाठ पढ़ाया। इस धर्म ने विश्व के लोगों के सम्मुख समानता का आधार प्रस्तुत कर उनके नैतिक स्तर को ऊपर उठाया। तर्कशास्त्र का विकास किया। वृहत्तर भारत के निर्माण में योगदान दिया।

बौद्ध धर्म ने ही भारत के सांस्कृतिक सम्बन्ध विश्व के विभिन्न देशों से बनाए बौद्ध धर्म की महत्वपूर्ण देन कला और स्थापत्य के विकास में रही। इस धर्म की प्ररेणा से भारत सहित विश्व के विभिन्न भागों में अनेक स्तूप, विहार, गुहाएँ, मूर्तियाँ एवं चैत्यगृह बनाए गये। बौद्ध धर्म ने ही युद्ध विजय की नीति को त्याग कर लोक कल्याण का आदर्श समस्त विश्व के सम्मुख प्रस्तुत किया।

प्रश्न 10.
ईसाई रिलीजन के संस्कार कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
ईसाई रिलीजन के प्रमुख संस्कार निम्नलिखित हैं-

नामकरण:
इस संस्कार को बैपटाइजेशन भी कहते हैं। इस संस्कार से बालक ईसाई धर्म का अनुयायी हो जाता है।

प्रमाणीकरण:
इसे कनफरमेशन संस्कार भी कहते हैं। इसके अन्तर्गत 12 वर्ष की आयु प्राप्त कर लेने पर बालक के नाम की सार्वजनिक घोषणा की जाती है।

1. प्रभु की भोजन:
ईसा ने अपनी मृत्यु से पूर्व अपने 12 शिष्यों के साथ भोजन किया था। इस दिन को ईसाई लोग पवित्र धार्मिक त्योहार मानते हैं।

2. विवाह:
इस संस्कार में पुरुष व स्त्री वैवाहिक बंधन में बँधकर गृहस्थ जीवन में प्रवेश करते हैं।

3. दीक्षा:
इसे औरडीनेशन भी कहते हैं। इसके अन्तर्गत 18 वर्ष से अधिक उम्र वाला व्यक्ति यदि पादरी बनना चाहता है तो उसे दीक्षा दी जाती है।

4. प्रायश्चिते:
इसके अन्तर्गत पादरी के समक्ष ईसा से अपने अपराधों के लिए अपराधी द्वारा क्षमा माँगी जाती है।

5. अन्तिम स्नान:
इसके अन्तर्गत मरणासन्न व्यक्ति को अन्तिम पवित्र स्नान करवाया जाता है जिससे कि उसकी आत्मा के सांसारिक दाग समाप्त हो जाएँ।

प्रश्न 11.
ईसा के जीवन के बारे में संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
ईसा समीह ईसाई धर्म व दर्शन के संस्थापक थे। इनका जन्म फिलिस्तीन के पहाड़ी भाग बेथलेहम (जार्डन) में हुआ था। इनके पिता युसुफ एवं माता मरियम बढ़ई का कार्य करते थे। ईसा मसीह ने अंधविश्वासों से घिरे तत्कालीन समाज को मुक्त कराने के लिए गाँव – गाँव जाकर लोगों को उपदेश दिया कि ईश्वर सभी को समान दृष्टि से देखता है। यहूदियों के हिंसात्मक कार्यों का विरोध किया। ईसा मसीह को तीस वर्ष की अवस्था में सूली पर लटका दिया गया। इन्होंने लोगों को सत्य, अहिंसा, दीन दुखियों की सेवा व बलिदान की शिक्षा दी। उनके उपदेश ईसाइयों के पवित्र ग्रन्थ बाइबिल में संकलित हैं।

RBSE Class 12 History Chapter 2 निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
वैदिक धर्म में पुरुषार्थ व आश्रम व्यवस्था की विशेषताओं का वर्णन कीजिये।
उत्तर:
पुरुषार्थ का अर्थ:
वैदिक धर्म में मानव जीवन के दो अंग हैं- एक भौतिक (अभ्युदय) दूसरा अतिभौतिक (निःश्रेयस)। भौतिक साधन – सामग्री का उपार्जन, रक्षण, भोग के लिए अर्थात् भौतिक उन्नति के लिए ‘अभ्युदय’ शब्द है। अतिभौतिक अंग को आध्यात्मिक कहा गया है। इसकी चरम उपलब्धि मोक्ष है, जिसे ‘निःश्रेयस’ कहा गया है। इस अभ्युदय और निःश्रेयस रूपी धर्म की सिद्धि के लिए करणीय कार्यों को ‘पुरुषार्थ’ कहा गया है।

पुरुषार्थ के प्रकार:
पुरुषार्थ के चार प्रकार बताये गये हैं। ये हैं-

1. धर्म:
धर्म का तात्पर्य उन सभी कर्तव्यों के पालन से है जो व्यक्ति के साथ – साथ समाज की प्रगति में भी योग । देते हैं।

2. अर्थ:
मनुष्य की सभी आवश्यकताएँ तथा उसकी भौतिक इच्छाएँ अर्थ के माध्यम से पूरी होती हैं। धर्म के अनुरूप अर्थात् संसार के लिए जो शुभ हो, ऐसे कल्याणकारी मार्ग से ‘अर्थ’ अर्थात् धनादि भौतिक सुखोपभोग की सामग्रियों का उपार्जन करना चाहिए।

3. काम:
इन उपार्जित सामग्रियों का संयमित, त्यागपूर्वक भोग करना चाहिए, काम के वशीभूत होकर धर्म नहीं छोड़ना चाहिए।

4. मोक्ष:
मोक्ष सर्वोच्च पुरुषार्थ है। सहसाध्य है और धर्म अर्थ तथा काम इसके साधन हैं। मनुष्य के जीवन का अन्तिम उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना होता है। मोक्ष की प्राप्ति उसे उसी स्थिति में हो सकती है, जब उसमें सात्विकता का विकास होता है।

आश्रम व्यवस्था:
वेदों में सौ वर्ष को आदर्श आयु मानकर व्यक्ति के जीवन को चार भागों में बाँटा था, जिन्हें चार आश्रम ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम व सन्यास आश्रम कहते हैं। इनका विस्तार से वर्णन अग्र प्रकार हैं-

1. ब्रह्मचर्याश्रम:
यह शिक्षा और संस्कार का काल है। जिसमें व्यक्ति कठोर तप का अभ्यास करते हुए भावी जीवन में सुयोग्यं नागरिक बनने की तैयारी करता है।

2. गृहस्थाश्रम:
इसे श्रेष्ठ आश्रम माना है क्योंकि यह आश्रम तीनों आश्रमों का आधार है। यह आश्रम सर्वाधिक सक्रियता, पुरुषार्थ तथा कर्तव्य पालन की अपेक्षा करता है।

3. वानप्रस्थाश्रम:
गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों से निवृत होने तथा समाज कार्य के लिए प्रवृत्त होने की व्यवस्था को वानप्रस्थाश्रम कहते हैं। यह समाज के उपकार से उऋण होने का काल है, जिसमें व्यक्ति की विशेषज्ञता और अनुभव का लाभ समाज को मिलता है।

4. सन्यासाश्रम:
सांसारिक मोह बंधनों से मुक्त होकर जीवन का शेष समय भगवद् चिंतन करते हुए निर्लिप्त भाव से देह त्याग की तैयारी तथा अपनी तपस्या से सकारात्मक, सात्विक वातावरण बनाने की समयावधि को सन्यासाश्रम कहते हैं।

प्रश्न 2.
जैन धर्म के अनुसार मनुष्य केवल्य (मोक्ष) कैसे प्राप्त कर सकता है?
उत्तर:
जैन धर्म के अनुसार केवल्य (मोक्ष) की प्राप्ति

संसार की मोह – माया व इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त करना ही जैन धर्म का मुख्य उद्देश्य है। जैन धर्म में मोक्ष को केवल्य कहा जाता है। केवल्य अर्थात मोक्ष प्राप्त करने के लिए महावीर स्वामी ने तीन उपाय बताए थे जो आगे चलकर त्रिरत्न कहलाए-

  1. सम्यक् ज्ञान
  2. सम्यक् दर्शन
  3. सम्यक् चरित्र

1. सम्यक् ज्ञान – इसका अर्थ पूर्ण और सच्चा ज्ञान होता है। जैन धर्म में ज्ञान के पाँच प्रकार बताए गए हैं।

  • मति अर्थात इन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान।
  • श्रुति अर्थात सुनकर अथवा वर्णन के द्वारा प्राप्त ज्ञान।
  • अवधि ज्ञान अर्थात कहीं रखी हुई किसी वस्तु को दिव्य ज्ञान।
  • मन: पर्याय अर्थात अन्य व्यक्तियों के भावों और विचारों को जानने का ज्ञान।
  • केवल्य ज्ञान अर्थात पूर्ण ज्ञान जिसे प्राप्त करने के पश्चात कुछ भी जानना शेष नहीं रहता।

महावीर स्वामी ने बताया कि सच्चे और पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति के लिए मनुष्यों को तीर्थंकरों के उपदेशों को अध्ययन व अनुसरण करना चाहिए।

2. सम्यक् दर्शन:
इसका अर्थ है- जैन तीर्थंकर एवं उनके उपदेशों में पूर्ण आस्था रखना। सच्चे ज्ञान को जीवन में उतारने के लिए प्रत्येक मनुष्य को तीर्थंकरों में पूर्ण आस्था और विश्वांस रखना चाहिए। सम्यक् दर्शन के आठ अंग बताए गए। है-

  • संदेह से दूर रहना।
  • सांसारिक सुख की इच्छा का त्याग करना।
  • गलत रास्ते पर नहीं चलना।
  • आसक्तिविसक्ति से बचना।
  • अंधविश्वासों से विचलित न होना।
  • सही विश्वास पर अटल रहना।
  • सभी के लिए एक समान प्रेमं रखना।
  • जैन सिद्धान्तों में पूर्ण आस्था एवं विश्वास रखना।

इसके अतिरिक्त जैनधर्म में लौकिक अंधविश्वासों एवं पाखण्डों से भी दूर रहने का उपदेश दिया गया है।

3. सम्यक चरित्र:
इसका अर्थ है मनुष्य अपनी इन्द्रियों को वश में रखकर ही ज्ञान को प्राप्त कर सकता है। अत: उसे इन्द्रियों पर संयम रखना चाहिए। इसके अन्तर्गत भिक्षुओं के लिए पाँच महाव्रत एवं गृहस्थों के लिए पाँच अणुव्रत बताए गए हैं तथा सदाचार एवं सच्चरित्रता पर बल दिया गया है। इन त्रिरत्नों का अनुसरण करने पर कर्मों का जीव की ओर बहाव रुक जाता है जिसे ‘संवर’ कहते हैं। साधना से संचित कर्म समाप्त होने लगते हैं।

इस अवस्था को जैनधर्म में ‘निर्जरा’ कहा जाता है। जिस जीव के कर्म पूर्ण रूप से समाप्त हो जाते हैं। वह केवल्य अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति कर लेता है। मोक्ष अर्थात केवल्य प्राप्त होने के पश्चात जीव इस संसार के जन्म – मरण के चक्र से छूट जाता है। तब जीव अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन व अनन्त सुख की प्राप्ति कर लेता है। जिसे जैन धर्म में ‘अनन्त चतुष्टय’ के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 3.
गौतम बुद्ध के जीवन का वर्णन कीजिए तथा उनके अष्टांगिक मार्ग पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
गौतम बुद्ध का जीवन गौतम बुद्ध का जन्म 563 ई.पू. में उत्तरी बिहार स्थित कपिलवस्तु गणराज्य के लुम्बिनी वन में शाक्यवंशीय क्षत्रिय कुल में हुआ था। इनका बचपन का नाम सिद्धार्थ था। अपने कुल का गौतम गौत्र होने के कारण उन्हें गौतम भी कहा जाता है। इनके पिता का नाम शुद्धोधन व माता का नाम महामाया था। बचपन से ही बुद्ध विचारशील एवं एकांतप्रिय थे। वे बड़े करुणावान भी थे।

संसार के लोगों को कष्टों में देखकर उनका हृदय दया से भर जाता था। 16 वर्ष की उम्र में इनका विवाह यशोधरा नाम की राजकुमारी से कर दिया गया। लगभग 1213 वर्ष तक गृहस्थी का जीवन व्यतीत कर लेने के पश्चात भी सिद्धार्थ का मन सांसारिक प्रवृत्तियों में नहीं लगा। इस वैराग्य भावना के फलस्वरूप एक दिन अपने पुत्र, पत्नी, पिता एवं सम्पूर्ण राज्य वैभव को छोड़कर वे 29 वर्ष की आयु में ज्ञान की खोज में निकल पड़े।

इस गृहत्याग की घटना को बौद्ध सहित्य में ‘महाभिनिष्क्रमण’ कहा जाता है। ज्ञान की खोज में गौतम बुद्ध एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहे। कठोर तपस्या के कारण उनका शरीर सूख कर काँटा हो गया, फिर भी उनका उद्देश्य सिद्ध न हो सका तब उन्होंने तपस्या छोड़कर आहार करने का निश्चित किया। गौतम में यह परिवर्तन देखकर उसके साथी उन्हें छोड़कर चले गए किन्तु इससे वे विचलित नहीं हुए।

गौतम को छ: वर्षों की साधना के पश्चात 35 वर्ष की उम्र में वैशाख पूर्णिमा की रात को पीपल वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ। तभी से वे बुद्ध नाम से विख्यात हुए। तभी से पीपल के वृक्ष का नाम बोधिवृक्ष एवं उस स्थान का नाम बोधगया हो गया। ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात सबसे पहले बोधगया में ही महात्मा बुद्ध ने अपने ज्ञान का उपदेश तपस्सु व मल्लिक नामक दो बंजारों को दिया। इसके पश्चात बुद्ध अपने ज्ञान एवं विचारों को जन साधारण तक पहुँचाने के उद्देश्य से भ्रमण पर पड़े और सारनाथ पहुँचे।

वहीं उन्होंने अपने उन पाँचों साथियों से सर्पक स्थापित किया जो उन्हें छोड़कर चले गए थे। बुद्ध ने उन्हें अपने ज्ञान की धर्म के रूप में दीक्षा दी। यह घटना बौद्ध धर्म में धर्मचक्र प्रवर्तन कहलाती है। अंत में 80 वर्ष की आयु में 483 ई. पू. में मल्ल गणराज्य की राजधानी कुशीनगर में गौतम बुद्ध ने अपना शरीर त्याग दिया। बुद्ध के शरीर त्यागने की घटना को बौद्ध इतिहास में ‘महापरिनिर्वाण’ कहा जाता है।

गौतम बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग – महात्मा बुद्ध ने बताया कि सांसारिक वस्तुओं को भोगने की लालसा ही आत्मा को जन्म-मरण के बंधन में जकड़े रखती है। अतः मोक्ष प्राप्ति के लिए लालसा को मिटा देना आवश्यक है। इसके लिए मानव को अष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। अष्टांगिक मार्ग के आठ उपाय निम्नलिखित हैं-

  1. सम्यक् दृष्टि – सत्य – असत्य, पाप – पुण्य में भेद करने से ही इन चार आर्य सत्यों पर विश्वास पैदा होता है।
  2. सम्यक् वाणी – सदैव सत्य व मीठी वाणी बोलना।
  3. सम्यक् कर्मान्त – हमेशा सच्चे और अच्छे काम करना।
  4. सम्यक् आजीव – अपनी आजीविका के लिए सदैव पवित्र तरीके अपनाना।
  5. सम्यक् प्रयत्न – शरीर को अच्छे कार्यों में लगाने के लिए उचित परिश्रम करना।
  6. सम्यक् संकल्प – दुख के कारण तृष्णा (लालसा) से दूर रहने का दृढ़ विचार रखना।
  7. सम्यक् स्मृति – शरीर अपवित्र पदार्थों से बना है। इसका स्मरण, इन्द्रियों के विषय, बंधन तथा उनके नाश के उपायों का ठीक से विचार करना।
  8. सम्यक् समाधि – मन को एकाग्र करने के लिए समाधि अर्थात ध्यान लगाना।

प्रश्न 4.
हजरत मोहम्मद की शिक्षाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
हजरत मोहम्मद की शिक्षाएँ:
इस्लाम धर्म के संस्थापक हजरत मोहम्मद थे। इनका जन्म 570 ई. में मक्का में हुआ था। इन्होंने अपने विचारों का प्रचार-प्रसार समस्त अरब में किया था। इस्लाम का दार्शनिक चिंतन मुसलमानों के पवित्र ग्रन्थ कुरान में संग्रहीत है। हजरत मोहम्मद की प्रमुख शिक्षाएँ निम्नलिखित हैं-

  1. अल्लाह अर्थात् ईश्वर एक है जो सर्व शक्तिमान और सर्वत्र फैला हुआ है। इसके अतिरिक्त कोई पूजनीय नहीं है। मोहम्मद साहब उसके पैगम्बर अर्थात् दूत हैं।
  2. प्रत्येक मुसलमान को दिन में पाँच बार निश्चित समयों पर नमाज पढ़नी चाहिए। शुक्रवार को दोपहर में सामूहिक रूप में एक साथ सभी मुसलमानों को नमाज पढ़नी चाहिए।
  3. प्रत्येक मुसलमान को प्रति वर्ष रमजान के महीने में रोजा रखना चाहिए। इस महीने में सूर्योदय से सूर्यास्त तक खाने – पीने की क्रिया नहीं करनी चाहिए।
  4. प्रत्येक मुसलमान को अपनी आमदनी का 40वाँ हिस्सा जकात (दान) के रूप में देना चाहिए।
  5. प्रत्येक मुसलमान को जीवन में कम से कम एक बार हज (मक्का – मदीना की तीर्थयात्रा) अवश्य करनी चाहिए।
  6. इस्लाम धर्म कर्म की प्रधानता को स्वीकार करता है। इस धर्म के अनुसार अच्छे कर्म करने पर अल्लाह उसे जन्नत (स्वर्ग) एवं बुरे कर्म करने पर जहन्नम (नरक) देता है।
  7. इस्लाम के अनुसार यह जीवन अंतिम है अर्थात् इस्लाम पुनर्जन्म के सिद्धान्त में विश्वास नहीं करता है।
  8. इस्लाम मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं करता है। मोहम्मद साहब ने स्वयं अरब में प्रचलित मूर्तिपूजा का विरोध किया।
  9. इस्लाम के अनुसार अल्लाह की इबादत (पूजा – अर्चना) के लिए किसी भी बिचौलिए (मध्यस्थ) की आवश्यकता नहीं है।

प्रश्न 5.
ईसा मसीह की शिक्षाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
ईसा मसीह की शिक्षाएँ ईसाई रिलीजन (धर्म) व दर्शन के संस्थापक ईसा मसीह थे। इनका जन्म फिलिस्तीन के पहाड़ी भाग बेथलेहम में हुआ था। ईसा मसीह ने अंधविश्वास से घिरे समाज को मुक्त करने का बीड़ा उठाया। उन्होंने गाँव – गाँव जाकर लोगों को उपदेश दिया कि परमात्मा सभी को समाने दृष्टि से देखता है।

यहूदियों को ईसा मसीह का यह संदेश बुरा लगने लगा। एक बार ईसा मसीह ने जेरूसलम के एक उत्सव में यहूदियों के हिंसात्मक कार्यों का विरोध किया। इससे समस्त यहूदी समाज उनसे नाराज हो गया। ईसा मसीह के एक शिष्य जूडस ने उन्हें धोखे से गिरफ्तार करवा दिया। मृत्युदण्ड की सजा के तहत उन्हें तीस वर्ष की अवस्था में सूली पर लटका दिया गया।

ईसा मसीह ने लोगों को छोटी-छोटी कथाओं के माध्यम से प्रेम, दया, क्षमा, शांति, भाईचारा, अहिंसा आदि का उपदेश दिया। इनके उपदेश ईसाइयों के पवित्र ग्रन्थ बाइबिल में संकलित हैं।
ईसा मसीह की प्रमुख शिक्षाएँ निम्नलिखित हैं-

  1. ईश्वर एक है, वह सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है।
  2. पृथ्वी पर ईश्वर की सत्ता है।
  3. मनुष्य को ईश्वरीय नियमों के अनुसार जीवन जीना चाहिए।
  4. जो लोग ईसा की शरण में आये वे ‘पैराडाइज’ (स्वर्ग) में तथा पापी ‘हेल’ (नरक) में जायेंगे।
  5. ईसा मसीह ने दया, करुणा, सत्य, अहिंसा, परोपकार, सद्व्यवहार, सहिष्णुता आदि गुणों को ग्रहण करने पर जोर देते हुए कहा था कि सदाचारी व्यक्ति ही ईश्वरीय सत्ता में प्रवेश पा सकता है।
  6. ईसा को अपना तारक मानने वालों को ईसा पाप से मुक्त करता है।
  7. ईसा मसीह ने क्षमाशीलता पर जोर देते हुए कहा था कि हम सभी को क्षमाशीलता का गुण ग्रहण करना चाहिए तथा क्रोध और बदले की भावना से कोई कार्य नहीं करना चाहिए।
  8. एक ही ईश्वर में तीन व्यक्ति हैं-पिता (गॉड), पुत्र (जीसस) और पवित्र आत्मा (होली घोस्ट)। इसे ‘ट्रिनिटि को सिद्धान्त’ कहते हैं।
  9. ईसाईयत में पुनर्जन्म को नहीं मानते।
  10. ईश्वर के स्वरूप को कोई मूर्ति व्यक्त नहीं कर सकती है।
  11. मनुष्य को पवित्र बनने के लिए ईश्वर की पूजा करनी चाहिए तथा ईश्वरीय नियमों के अनुसार जीवन यापन करना चाहिए।
  12. पाप के कारण मनुष्य की दुर्गति को देखकर ईश्वर ने मुक्ति का मार्ग बताया और उस मार्ग को तैयार करने के लिए उसने यहूदी जाति को ही अपनी प्रजा के रूप में ग्रहण किया है।
  13. मनुष्य की आत्मा एक ही बार मानव शरीर धारण कर संसार में जीवनयापन करती है। कयामत के दिन सभी मनुष्य सशरीर जीवित हो जाएँगे और ईश्वर उनका न्याय करने के लिए स्वर्ग से आएँगे।

RBSE Class 12 History Chapter 2 अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

RBSE Class 12 History Chapter 2 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय दर्शन के आदि ग्रन्थ माने जाते हैं।
(अ) वेद
(ब) उपनिषद्
(स) आरण्यक
(द) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(अ) वेद

प्रश्न 2.
सबसे प्राचीन ग्रन्थ है।
(अ) ऋग्वेद
(ब) यजुर्वेद
(स) सामवेद
(द) अथर्ववेद।
उत्तर:
(अ) ऋग्वेद

प्रश्न 3.
निम्न में से कौन – सा वेद संगीत कला का स्त्रोत माना जाता है?
(अ) यजुर्वेद
(ब) ऋग्वेद
(स) अथर्ववेद
(द) सामवेद।
उत्तर:
(द) सामवेद।

प्रश्न 4.
ऋग्वैदिक काल का सबसे महत्वपूर्ण देवता थे।
(अ) शिव
(ब) विष्णु
(स) इन्द्र
(द) ब्रह्मा।
उत्तर:
(स) इन्द्र

प्रश्न 5.
देवताओं के मिलन का सांसारिक स्थान कहा गया है।
(अ) यज्ञ को
(ब) वर्षा को
(स) पूजा को
(द) मंत्र को।
उत्तर:
(अ) यज्ञ को

प्रश्न 6.
निम्न में से यज्ञ का प्रकार है।
(अ) देव यज्ञ
(ब) ब्रह्म यज्ञ
(स) भूत यज्ञ
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 7.
धर्म शास्त्रों में व्यक्ति के जीवन को कितने आश्रमों में बाँटा गया है।
(अ) 10
(ब) 4
(स) 6
(द) 2
उत्तर:
(ब) 4

प्रश्न 8.
महावीर स्वामी जैन धर्म में कौन – से तीर्थंकर थे?
(अ) प्रथम
(ब) तेइसवें
(स) चौबीसवें
(द) तीसरे।
उत्तर:
(स) चौबीसवें

प्रश्न 9.
निम्न में से किस नदी के तट पर महावीर स्वामी को ज्ञान प्राप्त हुआ?
(अ) गंगा नदी
(ब) यमुना नदी
(स) ऋजुपालिका नदी
(द) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(स) ऋजुपालिका नदी

प्रश्न 10.
पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित मार्ग पर चलने वाले लोगों को कहा जाता है।
(अ) निर्ग्रन्थ
(ब) आगम
(स) केवल्य
(द) प्रतीत।
उत्तर:
(अ) निर्ग्रन्थ

प्रश्न 11.
अस्तेय का अर्थ है।
(अ) संग्रह न करना
(ब) चोरी नहीं करना
(स) सत्य वचन बोलना
(द) अहिंसा न करना।
उत्तर:
(ब) चोरी नहीं करना

प्रश्न 12.
महात्मा बुद्ध के बचपन का नाम था।
(अ) अशोक
(ब) गौतम
(स) सिद्धार्थ
(द) महावीर।
उत्तर:
(स) सिद्धार्थ

प्रश्न 13.
गौतम बुद्ध द्वारा गृह त्याग की घटना कहलाती है।
(अ) महापरिनिर्वाण
(ब) महाभिनिष्क्रमण
(स) धर्मचक्र प्रवर्तन
(द) समुत्पाद।
उत्तर:
(ब) महाभिनिष्क्रमण

प्रश्न 14.
चार आर्य सत्य का सम्बन्ध निम्न में से किस धर्म से है?
(अ) बौद्ध धर्म
(ब) जैन धर्म
(स) इस्लाम धर्म
(द) ईसाई धर्म।
उत्तर:
(अ) बौद्ध धर्म

प्रश्न 15.
इस्लाम धर्म के संस्थापक थे।
(अ) महात्मा बुद्ध
(ब) महावीर स्वामी
(स) हजरत मोहम्मद
(द) ईसामसीह।
उत्तर:
(स) हजरत मोहम्मद

प्रश्न 16.
ईसाई धर्म के प्रवर्तक थे।
(अ) ईसा मसीह
(ब) गौतम बुद्ध
(स) महावीर स्वामी
(द) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(अ) ईसा मसीह

प्रश्न 17.
ईसाई धर्म का प्रमुख ग्रन्थ है।
(अ) कुरान
(ब) वेद
(स) बाइबिल
(द) आगम।
उत्तर:
(स) बाइबिल

सुमेलन सम्बन्धी प्रश्न

1. मिलान कीजिए।
RBSE Solutions for Class 11 History Chapter 2 विश्व के प्रमुख धर्म, मजहब image 1
उत्तर:
1. (ख), 2. (क). 3. (घ), 4. (ङ), 5. (ग), 6. (छ), 7. (च), 8. (झ), 9.(ज)।

2. मिलान कीजिए।
RBSE Solutions for Class 11 History Chapter 2 विश्व के प्रमुख धर्म, मजहब image 2
उत्तर:
1. (ग), 2. (क), 3. (ख), 4. (ङ), 5. (घ), 6. (छ), 7. (ज्ञ), 8. (ट), 9. (च), 10. (ज), 11. (झ)।

RBSE Class 12 History Chapter 2 अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत का सबसे प्राचीन धर्म कौन-सा है?
उत्तर:
वैदिक धर्मः।

प्रश्न 2.
वेद का क्या अर्थ होता है ?
उत्तर:
वेद शब्द संस्कृत के विद् धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है ज्ञान।

प्रश्न 3.
वेदों को श्रुति क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
क्योंकि वेदं श्रुति परम्परा से संकलित किए गए हैं।

प्रश्न 4.
वेद कितने हैं? नाम लिखिए।
उत्तर:
वेद चार हैं –

  1. ऋग्वेद
  2. यजुर्वेद
  3. सामवेद
  4. अथर्ववेद।

प्रश्न 5.
आँधी-तूफान और वर्षा का देवता किसे माना जाता है?
उत्तर:
इन्द्र को।

प्रश्न 6.
सर्वप्रथम आर्यों ने किन-किन देवताओं की पूजा की?
उत्तर:
द्यौस (आकाश) एवं पृथ्वी की।

प्रश्न 7.
वैदिक धर्म में आर्यों ने आकाश का देवता किसे माना?
उत्तर:
वरुण को।

प्रश्न 8.
यज्ञों में किसे विशेष महत्वपूर्ण माना गया है?
उत्तर:
अग्नि को।

प्रश्न 9.
किस वेद में सोमरस की प्रार्थना के अनेक मंत्र उल्लिखित हैं?
उत्तर:
ऋग्वेद में।

प्रश्न 10.
ऋग्वेद में परमतत्व सम्बन्धी विचार किन-किन रूपों में प्राप्त होते हैं?
उत्तर:
दो रूपों में –

  1. सर्वेश्वरवाद
  2. एकत्ववाद।

प्रश्न 11.
वैदिकाल में यज्ञों के प्रकार बताइए।
उत्तर:
1. नित्य यज्ञ
2. नैमित्तिक यज्ञ।

प्रश्न 12.
देव यज्ञ क्यों किया जाता था?
उत्तर:
देवताओं के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए देव यज्ञ किया जाता था।

प्रश्न 13.
अग्नि लोक की प्राप्ति हेतु कौन-सा यज्ञ किया जाता था?
उत्तर:
वैश्यदेव यज्ञ।

प्रश्न 14.
उत्तर वैदिक काल में कितने प्रकार के ऋणों की कल्पना की गई है?
उत्तर:
तीन प्रकार के ऋणों की कल्पना की गई है –

  1. देव ऋण
  2. ऋषि ऋण
  3. पितृ ऋण।

प्रश्न 15.
उत्तर वैदिक काल में कितने संस्कारों का उल्लेख किया गया है?
उत्तर:
16 संस्कारों का।

प्रश्न 16.
उत्तर वैदिक कालीन किन्हीं दो संस्कारों के नाम लिखिए।
उत्तर:
1. नामकरण संस्कार
2. विवाह संस्कार।

प्रश्न 17.
उपनिषदों के अनुसार मनुष्यं का सच्चा ध्येय क्या है?
उत्तर:
मोक्ष प्राप्त करना।

प्रश्न 18.
मोक्ष का क्या अर्थ है?
उत्तर:
मोक्ष का अर्थ है आवागमन से अर्थात् जन्म- मरण के चक्र से छुटकारा प्राप्त करना।

प्रश्न 19.
जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर कौन थे?
उत्तर:
ऋषभदेव।

प्रश्न 20.
जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर कौन थे?
उत्तर:
महावीर स्वामी।

प्रश्न 21.
निर्ग्रन्थ क्या है?
उत्तर:
जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ द्वारा प्रतिपादित मार्ग पर चलने वालों को निर्ग्रन्थ कहा जाता था।

प्रश्न 22.
पार्श्वनाथ ने किस धर्म का प्रतिपादन किया?
उत्तर:
पार्श्वनाथ ने चातुर्याम धर्म का प्रतिपादन कियाअहिंसा, सत्य, अस्तेय एवं अपरिग्रह।

प्रश्न 23.
महावीर स्वामी का जन्म कब व कहाँ हुआ?
उत्तर:
599 ई. पू. में वैशाली के निकट कुण्डलग्राम में।

प्रश्न 24.
महावीर स्वामी का निर्वाण कब व कहाँ हुआ?
उत्तर:
527 ई. पू. में पावापुरी (बिहार) में।

प्रश्न 25.
जैनधर्म की शिक्षाओं की जानकारी कौन-से जैन धर्मग्रन्थों में मिलती है?
उत्तर:
आगम साहित्य में।

प्रश्न 26.
पंच महाव्रत धर्म को प्रतिपादन किसने किया?
उत्तर:
महावीर स्वामी ने।

प्रश्न 27.
जैनधर्म का एक मात्र उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
संसार की मोह माया व इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर केवल्य (मोक्ष) प्राप्त करना।

प्रश्न 28.
जैनधर्म में अनेकान्तवाद अथवा स्यादवाद किसे कहा जाता है?
उत्तर:
महावीर स्वामी ने आत्मवादियों एवं नास्तिकों के एकान्तिक मतों को छोड़कर मध्यम मार्ग अपनाया। इसी मार्ग को अनेकान्तवाद अथवा स्यादवाद कहा जाता है।

प्रश्न 29.
जैन धर्म में त्रिरत्न किसे कहा जाता है?
उत्तर:
जैन धर्म में सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान एवं साम्यक चरित्र को त्रिरत्न कहा जाता है।

प्रश्न 30.
कालांतर में जैन धर्म कितनी धाराओं में विभाजित हो गया?
उत्तर:
दो धाराओं में –

  1. श्वेताम्बर
  2. दिगम्बर।

प्रश्न 31.
बौद्धधर्म के संस्थापक कौन थे?
उत्तर:
महात्मा बुद्ध।

प्रश्न 32.
महात्मा बुद्ध को जन्म कब व कहाँ हुआ?
उत्तर:
563 ई. पू. में कपिलवस्तु गणराज्य के लुम्बिनी वन में।

प्रश्न 33.
महात्मा बुद्ध के बचपन का नाम क्या था?
उत्तर:
सिद्धार्थ।

प्रश्न 34.
ज्ञान की खोज में गौतम बुद्ध सर्वप्रथम किस तपस्वी से मिले ?
उत्तर:
अलामकलाम से।

प्रश्न 35.
महात्मा बुद्ध को ज्ञान कहाँ प्राप्त हुआ?
उत्तर:
महात्मा बुद्ध को बोध गया में बोधिवृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ।

प्रश्न 36.
बौद्ध धर्म में महापरिनिर्वाण क्या है?
उत्तर:
महात्मा बुद्ध के शरीर त्यागने की घटना को बौद्ध धर्म में महापरिनिर्वाण कहा जाता है।

प्रश्न 37.
बौद्ध धर्म के अनुसार चार आर्य सत्यों के नाम लिखिए।
उत्तर:
1. दु:ख
2. दुःख समुदाय
3. दु:ख निरोध
4. दुःख निरोध मार्ग।

प्रश्न 38.
महात्मा बुद्ध ने दुःख का कारण किसे बताया है?
उत्तर:
अविद्या को।

प्रश्न 39.
प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन कहाँ हुआ?
उत्तर:
राजगृह की सप्तपर्ण गुफा में।

प्रश्न 40.
प्रथम बौद्ध संगीति के अध्यक्ष कौन थे?
उत्तर:
महाकश्यप।

प्रश्न 41.
द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन कब व कहाँ हुआ?
उत्तर:
383 ई.पू. में वैशाली में।

प्रश्न 42.
तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन कहाँ व किसके शासन काल में हुआ?
उत्तर:
मौर्य शासक अशोक के शासन काल में, पाटलिपुत्र में।

प्रश्न 43.
चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन किसके शासन काल में व कहाँ हुआ?
उत्तर:
‘कुषाण शासक’ कनिष्क के शासन काल में कुण्डलवन (कश्मीर) में।

प्रश्न 44.
बौद्ध धर्म के किन्हीं दो सम्प्रदायों का नाम लिखिए?
उत्तर:
1. हीनयान
2. महायान।

प्रश्न 45.
इस्लाम मजहब के संस्थापक कौन थे?
उत्तर:
हजरत मोहम्मद।

प्रश्न 46.
हजरत मोहम्मद का जन्म कब व कहाँ हुआ?
उत्तर:
हजरत मोहम्मद का जन्म 570 ई. में अरब प्रायद्वीप के मक्का नगर में हुआ था।

प्रश्न 47.
मोहम्मद साहब का लालन पालन किसने किया ?
उत्तर:
चाचा अबूतालिब ने।

प्रश्न 48.
मोहम्मद साहब की मक्का से मदीना जाने की घटना क्या कहलाती है?
उत्तर:
हिजरत।

प्रश्न 49.
हिजरी संवत का प्रारम्भ कब हुआ?
उत्तर:
622 ई. में।

प्रश्न 50.
मोहम्मद साहब की मृत्यु कब हुई?
उत्तर:
632 ई. में।

प्रश्न 51.
मुसलमानों के पवित्र मजहबी ग्रन्थ कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
1. कुरान शरीफ
2. हदीस।

प्रश्न 52.
ईसाई रिलीजन के प्रवर्तक कौन थे?
उत्तर:
ईसा मसीह।

प्रश्न 53.
ईसा मसीह का जन्म कहाँ हुआ था?
उत्तर:
बेथलेहम (जार्डन) में।

प्रश्न 54.
ईसा मसीह को उनके किस शिष्य ने गिरफ्तार करवाया ?
उत्तर:
जूडस ने।

प्रश्न 55.
ईसाई धर्म का पवित्र ग्रन्थ कौन-सा है?
उत्तर:
बाइबिल।

प्रश्न 56.
बैपटाइजेशन क्या है?
उत्तर:
जब बालक 3 वर्ष का हो जाता है तो पादरी पवित्र जल छिड़ककर उसका नाम रखते हैं। इसे बैपटाइजेसन अथवा नामकरण कहते हैं।

प्रश्न 57.
ईसाई यहूदियों के किस मूल ग्रन्थ को अपना धर्म ग्रन्थ मानते हैं?
उत्तर:
ओल्ड टेस्टामेंट को।

RBSE Class 12 History Chapter 2 लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
वेद का शाब्दिक अर्थ क्या है? इसके प्रकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
वेद शब्द संस्कृत के विद् धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है ज्ञान। वेद के प्रकार –

  1. ऋग्वेद
  2. यजुर्वेद
  3. सामवेद
  4. अथर्ववेद।

1. ऋग्वेद:
यह सबसे प्राचीन एवं विश्व का प्रथम ग्रन्थ माना जाता है। ऋग्वेद में प्रधान रूप से धर्मपरक सूक्त हैं। इसमें 10,500 मंत्र एवं 1028 सूक्त हैं। यह दश मण्डलों में विभाजित है। इस ग्रन्थ से हमें आर्यों के सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक तथा आर्थिक जीवन के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

2. यजुर्वेद:
इसके अन्तर्गत यज्ञों और हवनों के नियम एवं विधान हैं। यह गद्य और पद्य दोनों विधाओं में है। इसमें 40 अध्याय हैं।

3. सामवेद:
यह वेद संगीत कला का स्त्रोत माना जाता है। इसके अन्तर्गत यज्ञ करते समय मंत्रों का उच्चारण कैसे किया जाए, जिससे देवता प्रसन्न हो सकें, की जानकारी मिलती है।

4. अथर्ववेद:
इसके अन्तर्गत 20 काण्ड एवं 732 सूक्त हैं। इसमें राजनीति एवं समाजशास्त्र के सिद्धान्त भी दिए गए हैं।

प्रश्न 2.
वैदिक धर्म में अग्नि के महत्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
वैदिक धर्म में अग्नि का बहुत अधिक महत्व है। ऋग्वैदिक काल में अग्नि का बहुत अधिक महत्व था। ऋग्वेद में अग्नि की प्रार्थना सम्बन्धी लगभग 200 मंत्र हैं। यज्ञों में अग्नि को विशेष स्थान दिया गया है इसलिए इसे पुरोहित, होता, याज्ञिक के नाम से पुकारा गया। अग्नि को समस्त लोक से राक्षसों को भी भगाने वाला कहा गया है। इसे देवताओं का मुख भी कहा गया क्योंकि इसी के माध्यम से आहुति समस्त देवताओं तक पहुँचती थी। उक्त सब बातें वैदिक धर्म में अग्नि के महत्व को दर्शाती हैं।

प्रश्न 3.
ऋग्वेद में परम् तत्व सम्बन्धी विचार क्या है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
ऋग्वेद में परम् तत्व सम्बन्धी विचार दो रूपों में प्राप्त होते हैं –

1. सर्वेश्वरवाद:
परमतत्व सम्बन्धी इस विचार का उल्लेख ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में मिलता है। इस सूक्त में स्पष्टत: वर्णित है कि सृष्टि के आदि में एक ही परम तत्व उपस्थित था, उसी से सृष्टि की उत्पत्ति हुई है। वही तत्व पूर्ण रूप से सृष्टि में विस्तारित है।

2. एकत्ववाद:
इसका उल्लेख पुरुष सूक्त में किया गया है। इस सूक्त में बताया गया है कि सृष्टि का मूल तत्व विराट पुरुष है। वह सम्पूर्ण विश्व में फैला हुआ है।

प्रश्न 4.
उत्तर वैदिक काल में तीन ऋणों की कल्पना क्यों की गयी थी ?
उत्तर:
उत्तर वैदिक काल में तीन ऋणों की कल्पना की गई थी। ये ऋण थे –

  1. देव ऋण
  2. पितृ ऋण
  3. ऋषि ऋण।

इन ऋणों की कल्पना के मूल में समाज के प्रति व्यक्ति के दायित्व एवं कर्तव्य छिपे हैं। इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति अपने माता-पिता, अतिथियों, देवताओं, ऋषियों एवं अन्य प्राणियों से कुछ न कुछ ज्ञान, साधन एवं शक्ति प्राप्त करता आया है और उन्हीं से अपने जीवन को सुखी एवं समृद्ध बनाता आया है। इससे मनुष्य के ऊपर अनेक ऋणों का भार बढ़ गया। अतः प्रत्येक मनुष्य का यह कर्तव्य बनता है कि वह उन, ऋणों को चुकाने का प्रयास करे।

प्रश्न 5.
ऋग्वेद में की गयी ‘स्वर्ग की परिकल्पना’ को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
ऋग्वेद में अच्छा कार्य करने वाले मनुष्य हेतु आनंदपूर्वक स्वर्ग में निवास करने की परिकल्पना की गयी है। स्वर्ग में आनंद, उल्लास, कामनाओं की पूर्णता का भी उल्लेख किया गया है तथा गलत कार्य करने वाले लोगों के लिए दण्ड का उल्लेख किया गया है। ऋग्वेद में उल्लिखित स्वर्ग की यह परिकल्पना मनुष्य को सन्मार्ग अर्थात् अच्छे . मार्ग की ओर प्रवृत्त कर जीवन में आशावाद का संचार करने का यथार्थ मार्ग प्रदान करती है।

प्रश्न 6.
धर्मशास्त्रों में कौन-कौन से संस्कारों का उल्लेख किया गया है ? बताइए।
उत्तर:
धर्मशास्त्रों में 16 संस्कारों का उल्लेख किया गया हैं। इन संस्कारों की जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य को पालना करनी होती है। इनके द्वारा ही मनुष्य का शारीरिक, मानसिक, चारित्रिक एवं व्यक्तित्व का विकास सम्भव है। ये संस्कार हैं –

  1. गर्भाधान संस्कार
  2. पुसंवन संस्कार
  3. सीमान्तोन्नयन संस्कार
  4. जातकर्म संस्कार
  5. नामकरण संस्कार
  6. निष्क्रमण संस्कार
  7. अन्न प्राशन संस्कार
  8. चूड़ाकर्म संस्कार
  9. कर्ण भेद संस्कार
  10. विद्यारम्भ संस्कार
  11. उपनयन संस्कार
  12. वेदारम्भ संस्कार
  13. केशान्त अथवा गौदाने संस्कार
  14. समावर्तन संस्कार
  15. विवाह संस्कार
  16. अंत्येष्टि संस्कार।

प्रश्न 7.
जैन धर्म में पंच महाव्रत का क्या विधान है?
उत्तर:
जैन धर्म में पंच महाव्रत का पालन करना अनिवार्य है। ये महाव्रत हैं –

  1. अहिंसा – मन, वचन व कर्म से किसी भी जीव को कष्ट न पहुँचाना।
  2. सत्य – मन, वचन व कर्म से सत्य बोलना।
  3. अस्तेय – किसी भी प्रकार की चोरी नहीं करना।
  4. अपरिग्रह – आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न करना।
  5. ब्रह्मचर्य – सभी वासनाओं को त्यागकर संयमित जीवन व्यतीत करना।

प्रश्न 8.
जैन धर्म में सम्यक् ज्ञान क्या है?
उत्तर:
मोक्ष प्राप्त करने के लिए महावीर स्वामी ने तीन उपाय बताए थे जो आगे चलकर त्रिरत्न कहलाये। इन त्रिरत्नों में से सम्यक ज्ञान प्रमुख है। सम्यक ज्ञान का अर्थ पूर्ण और सच्चा ज्ञान होता है। महावीर स्वामी ने बताया कि सच्चे और पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति के लिए मनुष्यों को तीर्थंकरों के उपदेशों का अध्ययन व अनुसरण करना चाहिए। जैन धर्म में ज्ञान के पाँच प्रकार बताए गए हैं, जो हैं –

  1. मति अर्थात इन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान।
  2. श्रुति अर्थात् सुनकर या वर्णन द्वारा प्राप्त ज्ञान।
  3. अवधि ज्ञान अर्थात् कहीं रखी हुई वस्तु का दिव्य ज्ञान।
  4. मनः पर्याय अर्थात् अन्य व्यक्तियों के भावों तथा विचारों को जानने का ज्ञान।
  5. केवल्य ज्ञान अर्थात् मोक्ष का ज्ञान।

प्रश्न 9.
बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
चार आर्य सत्य बौद्ध धर्म की आधार शिला हैं। ये हैं –

  1. दुःख – संसार में सर्वत्र दु:ख है अर्थात् यह संसार दुःखमय है।
  2. दुःख का कारण – बिना कारण किसी वस्तु का जन्म नहीं होता है। दु:ख का कारण अविद्या है।
  3. दुःख निवारण – दु:ख निवारण सम्भव है। यदि अविद्या को समाप्त कर दिया जाय तो दु:ख भी नष्ट हो जाएगा।
  4. दुःख निवारण मार्ग – बुद्ध द्वारा प्रतिपादित दु:ख निरोधगामिनी प्रतिपदा मार्ग पर चलकर कोई भी व्यक्ति दुःखों पर विजय प्राप्त कर सकता है।

इसमें आठ अंगों की व्यवस्था है जिसे आष्टांगिक मार्ग कहते हैं –

  1. सम्यक् दृष्टि।
  2. सम्यक् वाणी।
  3. सम्यक् संकल्प।
  4. सम्यक् कर्मान्त।
  5. सम्यक् आजीव।
  6. सम्यक् प्रयत्न।
  7. सम्यक् स्मृति।
  8. सम्यक् समाधि।

प्रश्न 10.
बौद्ध धर्म को मध्यम प्रतिपदा क्या है?
अथवा
बौद्ध धर्म के मध्यम मार्ग को समझाइए।
उत्तर:
गौतम बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के लिए कठोर तपस्या एवं अत्यधिक सुख दोनों के मध्य का मार्ग अपनाया। महात्मा बुद्ध ने दु:खों से छुटकारा पाने के लिए आष्टांगिक मार्ग का प्रतिपादन किया। यही मध्यम प्रतिपदा अथक मध्यम मार्ग है। यह आष्टांगिक मार्ग आठ भागों में विभक्त है –

  1. सम्यक् दृष्टि।
  2. सम्यक् संकल्प।
  3. सम्यक् वाणी।
  4. सम्यक् कर्म।
  5. सम्यक् आजीव।
  6. सम्यक् प्रयत्न।
  7. सम्यक् स्मृति।
  8. सम्यक् समाधि।

उक्त मध्यम मार्ग के सम्बन्ध में स्वयं गौतम बुद्ध ने कहा था कि यदि वीणा के तारों को अत्यधिक केस दोगे तो वे टूट जाएँगे और ढीला छोड़ दोगे तो उसके स्वर ही नहीं निकलेंगे।” इसलिए मानव जीवन में गौतम बुद्ध ने मध्यम मार्ग अपनाने पर बल दिया।

प्रश्न 11.
महात्मा बुद्ध द्वारा प्रतिपादित पंच शील या नैतिक आचरण कौन-कौन से हैं?
अथवा
गौतम बुद्ध द्वारा प्रतिपादित सदाचार के पाँच नियमों को बताइए।
उत्तर:
महात्मा बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं में शील अर्थात् नैतिकता पर बहुत अधिक बल दिया। उन्होंने अपने अनुयाइयों को मन, वचन और कर्म से पवित्र रहने को कहा। इसके लिए उन्होंने गृहस्थ तथा भिक्षुक दोनों के लिए आचरणीय निम्नलिखित पंच शील या नैतिक आचरण का पालन करने को कहा –

  1. अहिंसा व्रत का पालन करना (अहिंसा)।
  2. झूठ का परित्याग करना (सत्य)।
  3. चोरी नहीं करना (अस्तेय)।
  4. वस्तुओं का संग्रह न करना (अपरिग्रह)।
  5. भोग-विलास से दूर रहना (ब्रह्मचर्य)।

भिक्षुकों के लिए इनके अतिरिक्त पाँच अन्य शील भी हैं। इस प्रकार उन्हें ‘देस शीलों का पालन करना था।

प्रश्न 12.
बौद्ध धर्म के कार्य-कारण सिद्धान्त को स्पष्ट कीजिए।
अथवा
प्रतीत्य समुत्पाद क्या है? बताइए।
उत्तर:
बौद्ध धर्म का कार्य-कारण सिद्धान्त प्रतीत्यसमुत्पाद के नाम से भी जाना जाता है। गौतम बुद्ध के अनुसार संसार में किसी भी विषय के अस्तित्व के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है। जन्म के कारण ही वृद्धावस्था एवं मरण की स्थिति उत्पन्न होती है। हर कार्य और वस्तु का अनिवार्य रूप से एक कारण अवश्य होता है। बौद्ध धर्म के अन्तर्गत इस सिद्धान्त के तीन सूत्र बताए गए हैं –

  1. इसके होने पर यह होता है।
  2. इसके न होने पर यह नहीं होता।
  3. इसका निरोध होने पर यह निरुद्ध हो जाता है।

इस कर्म कारण की श्रृंखला के 12 क्रम बताए गए हैं, जिन्हें द्वादश निदान या भव चक्र भी कहते हैं। ये हैं –

  1. जरामरण
  2. जाति
  3. भव
  4. उपादान
  5. तृष्णा
  6. वेदना
  7. स्पर्श
  8. षडायतन
  9. नाम रूप
  10. विज्ञान
  11. संस्कार
  12. अविद्या।

प्रश्न 13.
बौद्ध धर्म ने वृहत्तर भारत के निर्माण में किस प्रकार योगदान दिया?
उत्तर:
भारत से बाहर जिन देशों में भारतीय संस्कृति का प्रचार हुआ, उन देशों को सम्मिलित रूप से वृहत्तर भारत कहा जाता है। बौद्ध धर्म प्रचारकों ने भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार में बहुत अधिक योगदान दिया। मौर्य सम्राट अशोक ने विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु प्रचारकों के जाने की शुरुआत की। बौद्ध प्रचारकों ने श्रीलंका, चीन, वर्मा, जापान, तिब्बत, वियतनाम, कम्बोडिया, मंचूरिया, कोरिया, नेपाल, मलेशिया, इंडोनेशिया, मंगोलिया आदि एशियाई देशों में भारतीय संस्कृति को फैलाया।

प्रश्न 14.
मोहम्मद साहब ने प्रत्येक मुसलमान को कौन-कौन से पाँच कर्तव्यों का पालन करने का आदेश दिया?
उत्तर:
मोहम्मद साहब ने प्रत्येक मुसलमान को निम्नलिखित पाँच कर्तव्यों का पालन करने का आदेश दिया –

  1. अल्लाह ही पूजने योग्य है। इसके सिवाये कोई पूजनीय नहीं है।
  2. प्रत्येक मुसलमान को दिन में पाँच बार नमाज अदा करनी चाहिए।
  3. प्रत्येक मुसलमान को रमजान के महीने में रोजे रखने चाहिए।
  4. प्रत्येक मुसलमान को अपनी आमदनी का 40वाँ भाग दान के रूप में देना चाहिए।
  5. प्रत्येक मुसलमान को जीवन में कम से कम एक बार हज (मक्का मदीना की तीर्थ यात्री) अवश्य करना चाहिए।

प्रश्न 15.
‘काबा’ क्या है ? संक्षेप में बताइए।
उत्तर:
‘काबा’ मक्का की विशाल मस्जिद में निर्मित संगमरमर की एक छोटी-सी इमारत है। इस इमारत का निर्माण अल्लाह की इबादत हेतु अब्राहम ने करवाया था। इसी इमारत में एक पवित्र ‘काला पत्थर’ लगा हुआ है। ऐसी मान्यता है कि इस पत्थर को जन्नत अर्थात् स्वर्ग से आदम के साथ ही धरती पर फेंका गया था तथा काब के निर्माण के समय जिब्राइल ने इसे अब्राहम को दिया था। मक्का मदीना की यात्रा करने वाला प्रत्येक व्यक्ति यहाँ जियारत करता है। इस्लाम धर्म में यह नियम भी है कि प्रत्येक मुसलमान जहाँ कहीं भी हो उसे सदैव काबा की ओर मुँह करके नमाज पढ़नी चाहिए।

प्रश्न 16.
ईसा मसीह की किन्हीं पाँच शिक्षाओं का उल्लेख कीजिए।
अथवा
ईसाई धर्म के कोई पाँच सिद्धान्त बताइए।
उत्तर:
ईसा मसीह की शिक्षाएँ/ईसाई धर्म के पाँच प्रमुख सिद्धांत निम्नलिखित हैं –

  1. ईश्वर एक है। वह सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है।
  2. ईश्वर के स्वरूप को कोई मूर्ति व्यक्त नहीं कर सकती।
  3. ईश्वर के स्वरूप को कोई मूर्ति व्यक्त नहीं कर सकती।
  4. एक ही ईश्वर में तीन व्यक्ति हैं-पिता (गॉड), पुत्र (जीसस) और पवित्र आत्मा (होली घोस्ट)। ये तीनों एक ही तत्व के अंश है। इसे ‘ट्रिनिटि का सिद्धान्त’ कहते हैं।
  5. आत्मा अजर-अमर है। वह एक ही बार मानव शरीर धारण करे संसार में जीवन व्यतीत करती है।

RBSE Class 12 History Chapter 2 निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
वैदिक धर्म के स्रोत साहित्य का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
वैदिक धर्म का स्रोत साहित्य वेद से तात्पर्य चार संहिताओं से है। वैदिक साहित्य के अन्तर्गत वेद संहिताओं के साथ-साथ ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक, उपनिषद् सूत्र ग्रंथ और छः वेदांग गिने जाते है।

1. वेद संहिता:
चार वेदों के चार विषय हैं। ऋग्वेद का ज्ञान, यजुर्वेद को कर्म, सामवेद को उपासना, अथर्ववेद का विज्ञान। चारों वेदों के चार उपवेद क्रमशः आयुर्वेद, धनुर्वेद, गंधर्ववेद तथा अर्थवेद हैं।

2. ब्राह्मण ग्रंथ:
ये वैदिक मंत्रों की व्याख्या करने वाले ग्रंथ हैं –

वेद ब्राह्मण ग्रंथ
ऋग्वेद ऐतरेय ब्राह्मण, सांख्यायन (कौषितकि)
सामवेद साम व तण्ड्य महाब्राह्मण
अथर्ववेद गोपथ ब्राह्मण
यजुर्वेद तैत्तीरीय, शतपथ ब्राह्मण

3. आरण्यक:
ये ब्राह्मण ग्रंथों के परिशिष्ट की तरह हैं, जिनमें आध्यात्मिक एवं दार्शनिक विषयों का विवेचन किया गया है। वृहदारण्य, जैमिनीय, सांख्यायन, ऐतरेय आदि नामों से आरण्यक है।

4. उपनिषद:
आध्यात्मिक ज्ञान, तत्व चिंतन व अनुभूतियों की चरम अवस्था का वर्णन करने वाले ग्रंथ उपनिषद हैं। उपनिषदों की संख्या 108 मानी जाती है, किन्तु इनमें से अधिक प्रसिद्ध उपनिषद निम्नलिखित हैं-ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तीरीय; छान्दोग्य, वृहदारण्यक तथा श्वेताश्वतर।

5. सूत्र ग्रंथ:
इन ग्रंथों में वैदिक यज्ञों का विधान वर्णित है। ये ग्रंथ तीन प्रकार के हैं –

  • श्रोत सूत्र
  • गृहय सूत्र
  • धर्म सूत्र।

6. वेदांग:
वैदिक वाड्मय को समझने के लिए विकसित छः सहायक अंगों को वेदांग कहा जाता है। ये छ: वेदांग हैं –

  • शिक्षा
  • कल्प
  • व्याकरण
  • निरूक्त
  • छंद
  • ज्योतिष।

प्रश्न 2.
वैदिक धर्म के बहुदेववाद का वर्णन करते हुए वैदिक धर्म की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
वैदिक धर्म एक प्राचीन धर्म है। वैदिक धर्म का वर्णन वैदिक साहित्य में देखने को मिलता है। वैदिक धर्म में बहुदेववाद-वैदिक काल में लोग प्राकृतिक शक्तियों की उपासना देवताओं के रूप में करते थे। इस काल में लोग देवताओं को प्रसन्न करने के लिए मंत्र उच्चारण एवं यज्ञ आदि का आयोजन करते थे, जिससे कि देवता प्रसन्न होकर उनकी मनोकामनाओं की पूर्ति करें। वैदिककालीन लोग अनेक देवी-देवताओं की उपासना करते थे तथा वे समय और श्रद्धा के अनुसार उपासना करते थे।

वैदिक धर्म के प्रमुख देवता सूर्य, चन्द्रमा, इन्द्र, आकाश, वायु, ऊषा, अदिति, सिन्धु, आख्यायनी एवं सरस्वती आदि थे। वैदिक धर्म में जिस देवता की स्तुति की जाती थी। उसी को सर्वोपरि मान लिया जाता था। इस प्रकार वैदिक कालीन लोगों के अनेक देवता थे। यही वैदिक धर्म में बहुदेववाद कहलाता है।

वैदिक धर्म की विशेषताएँ: वैदिक धर्म की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

1. बहुदेव शक्तिवाद में विश्वास:
वैदिककालीन लोग अनेक देवी-देवताओं की पूजा करते थे। वे प्राकृतिक शक्तियों की उपासना अलग-अलग देवताओं के रूप में करते थे। वे समय और श्रद्धा के अनुसार उपासना करते थे।

2. प्राकृतिक शक्तियों की पूजा-अर्चना:
वैदिक, कालीन लोग प्राकृतिक शक्तियों को देवता मानकर उनकी पूजा अर्चना करते थे। वैदिककाल के प्रमुख देवता सूर्य, चन्द्र, इन्द्र, आकाश, वायु, ऊषा आदि थे। इन्द्र को आँधी, तूफान व वर्षा का देवता माना जाता था। ऊषा को अरुणोदय के पूर्व की बेला की देवी माना जाता था। इन सभी देवी-देवताओं की मंत्रोच्चारण के साथ उपासना की जाती थी।

3. एक ईश्वर में विश्वास:
प्रारम्भ में वैदिककालीन लोग बहुदेववाद में विश्वास करते थे तथा प्राकृतिक शक्तियों की पूजा अलग-अलग देवताओं के रूप में करते थे लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने एक सर्वोच्च देवता को खोजने का प्रयास किया। इस प्रकार उनका एकेश्वरवाद में विश्वास बढ़ता गया। वह यह मानने लगे कि इस समस्त संसार को एक महान शक्ति संचालित कर रही है।

4. यज्ञ अनुष्ठान में जटिलता:
प्रारम्भ में वैदिककालीन यज्ञ बड़े सरल थे। घर का मुखिया ही समस्त उपासना विधि पूर्वक कर लेता था लेकिन धीरे-धीरे यज्ञों में कर्मकाण्ड व आडम्बर प्रवेश कर गया। फलस्वरूप यज्ञ बहुत खर्चीले हो गए। इस प्रकार वर्ष भर चलने वाले व्ययशील यज्ञ सामान्य लोंगों की क्षमता से बाहर हो गए।

5. जीवन सम्बन्धी आशावादी दृष्टिकोण:
वैदिककालीन लोग आशावादी थे। उनका अपना जीवन सम्बन्धी सकारात्मक दृष्टिकोण था। उनका मत था कि धर्मपरायण व्यक्ति उदार देवताओं के संरक्षण में इस लोक में भी सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं तथा परलोक में भी सुख व शांति की प्राप्ति करते हैं।

प्रश्न 3.
वैदिक धर्म में किये जाने वाले यज्ञों के प्रकार बताइए।
अथवा
पंच महायज्ञों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
यज्ञ वैदिक धर्म में यश्र को श्रेष्ठतम कर्म कहा गया है। अग्नि में हवन सामग्री तथा घी आदि समर्पित करना मात्र यज्ञ नहीं है। इनका उपयोग पर्यावरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, किन्तु वास्तव में सभी श्रेष्ठ कर्मों का नाम यज्ञ है। यज्ञ के तीन भाग हैं –

  1. जिन कर्मों द्वारा ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना की जाए।
  2. विद्वानों, तपस्वियों का आदर किया जाए।
  3. पंच तत्वों (अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश) को प्रदूषण मुक्त रखते हुए ठीक उपयोग किया जाए।

यज्ञ दो प्रकार के होते हैं – नित्य यज्ञ और नैमित्तिक यज्ञ।

(क) नित्य यज्ञ:
गृहस्थाश्रम में कर्तव्य रूप नित्य यज्ञों को पंच महायज्ञ कहते हैं। समाज को सुचारु चालने के लिए प्रत्येक गृहस्थ के लिए इन्हें अनिवार्य माना जाता था।

पंच महायज्ञ – वैदिक काल में प्रत्येक व्यक्ति निम्नलिखित पाँच महायज्ञ करता था।

1. ब्रह्म यज्ञ:
इसे ऋषि यज्ञ के नाम से भी जाना जाता है। इस यज्ञ के माध्यम से मनुष्य अपने प्राचीन ऋषिमुनियों के प्रति आदर भावना प्रकट करता था।

2. देव यज्ञ:
इस यज्ञ को देवताओं के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिये किया जाता था। इस यज्ञ के अन्तर्गत दूध, दही, घी, अन्न की अग्नि के माध्यम से देवताओं को आहुति दी जाती थी।

3. भूत यज्ञ:
इस यज्ञ के माध्यम से अन्य प्राणियों के प्रति मनुष्य के कर्तव्य की जानकारी होती है। इस यज्ञ के अन्तर्गत पृथ्वी, वायु, जल, आकाश एवं प्रजापति आदि देवताओं को भोजन अर्पित किया जाता था तथा पशु-पक्षी एवं वनस्पति आदि की बलि दी जाती थी।

4. पितृ यज्ञ:
इस यज्ञ के माध्यम से पितरों के लिए तर्पण एवं श्राद्ध आदि का आयोजन किया जाता था।

5. नृ यज्ञ:
इस यज्ञ का उद्देश्य लौकिक लाभ की प्राप्ति करना होता था। इस प्रकार के यज्ञ मनुष्य मात्र के प्रति उत्तरदायित्व अर्थात् अतिथि सत्कार एवं मानवता की भावना रखना तथा विशिष्ट लक्ष्यों की पूर्ति हेतु किये जाते थे। ये यज्ञ पुरोहितों के माध्यम से सम्पन्न कराये जाते थे।

(ख) नैमित्तिक यज्ञ:
ऐसे यज्ञ जो व्यष्टि (व्यक्ति) या समष्टि (समस्त विश्व) के किसी प्रयोजन को पूरा करने के लिए किए जाते हैं। इनका उद्देश्य कोई फल प्राप्ति होता है जैसे – पुत्रेष्टी यज्ञ, वृष्टि यज्ञ, अश्वमेघ यज्ञ, राजसूय यज्ञ, समरसता यज्ञ, विश्व मंगल यज्ञ।

प्रश्न 4.
वैदिक धर्म की संस्कार व्यवस्था क्या है? सोलह संस्कारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
वैदिक धर्म की संस्कार व्यवस्था-संस्कार शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ऋग्वेद में हुआ है। वेद में इसका अर्थ धर्म की शुद्धता तथा पवित्रता से लिया गया है। मीमांसा दर्शन के अनुसार संस्कार वह प्रक्रिया है, जिसके होने से कोई व्यक्ति या पदार्थ किसी कार्य के योग्य हो जाता है। कुमारिल भट्ट के अनुसार ‘संस्कार वे क्रियाएँ या रीतियाँ हैं, जो योग्यता प्रदान करती है। मनुष्य को आसुरी या पशुवृत्ति से ऊपर उठाकर दिव्य, दैवीय गुणों से युक्त बनाने के लिए जन्म के पूर्व से लेकर मृत्यु पर्यन्त, अर्थात अगले जन्म की तैयारी तक सोलह संस्कारों की व्यवस्था की गई है। इनका विस्तार से वर्णन
निम्नलिखित है –

1. गर्भाधान संस्कार:
माता-पिता ‘हमें कैसी संतान चाहिए’ इसका विचार कर उसके अनुरूप-गर्भधारण की योग्यता, उसके अनुकूल मन-स्थिति, स्वास्थ्य एवं अनुकूल समय का विचार कर यह अनुष्ठान करते हैं।

2. पुसंवन संस्कार:
निषेचन के उपरान्त बढ़ते हुए भ्रूण की स्वस्थ वृद्धि के लिए दूसरे या तीसरे माह में यह संस्कार होता

3. सीमन्तोन्नयन संस्कार:
गर्भस्थ शिशु के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य की यह द्वितीय जाँच का संस्कार है, जो छठे या आठवें मास में होता है।

4. जात कर्म संस्कार:
यह जन्म के उपरान्त नाल काटने तथा पिता द्वारा शिशु के स्वस्थ एवं मेधावी होने की प्रार्थना का संस्कार है।

5. नामकरण संस्कार:
यह शिशु के आठ या दस दिन का होने पर जन्म के समय के ग्रहादि की स्थिति के अनुसार शिशु का गुणवाचक नाम रखने का संस्कार है।

6. निष्क्रमण संस्कार:
इस संस्कार में जन्म के चौथे महीने में पिता बच्चे को जच्चा गृह से बाहर लाता है ताकि वह सूर्य दर्शन करे एवं बाह्य वातावरण के अनुकूल हो सके।

7. अन्न प्राशन संस्कार:
इसमें जन्म के छठे मास में शिशु को माँ के दूध के साथ अन्न का आहार देना प्रारम्भ करते हैं।

8. चूडाकर्म संस्कार:
लगभग एक वर्ष की आयु होने पर जन्म के समय के बालों का प्रथम मुण्डन किया जाता है।

9. कर्णवेध संस्कार:
यह संस्कार आंत्रवृद्धि आदि रोगों के निवारणार्थ एक्यूपंक्चर चिकित्सा का है, जिसमें कानों को छेदन कर रजत या स्वर्णाभूषण पहनाते हैं।

10. उपनयन संस्कार:
इसे यज्ञोपवीत संस्कार भी कहते हैं। यह संस्कार विद्याध्ययन आरम्भ की योग्यता तथा आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश के द्वार के रूप में किया जाता है। यज्ञोपवीत में तीन धागे पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण के स्मरण चिन्ह हैं।

11. विद्यारम्भ संस्कार:
गुरूकुल में जाकर शिक्षा प्रारम्भ करने का संस्कार।

12. समावर्तन संस्कार:
अध्ययन तथा ब्रह्मचर्याश्रम का समय पूरा होने के बाद गृहस्थ बनने से पूर्व होने वाला दीक्षान्त समारोह।

13. विवाह संस्कार:
हिन्दू धर्म में विवाह अनुबंध या समझौता न होकर संस्कार है। गृहस्थ के कर्तव्यों के पालन की शपथ लेना है।

14. वानप्रस्थ संस्कार:
गृहस्थ के कर्त्तव्य पूरे करने के पश्चात् समाज सेवा के कार्य की दीक्षा लेना।

15. सन्यास संस्कार:
जीवन के अंतिम काल में चिंतन, मनन और लोक कल्याण के लिए जीते हुए सन्यास ग्रहण करते समय किया जाने वाला संस्कार।

16. अन्त्येष्टि संस्कार:
सांसारिक जीवन का अवसान मृत्यु में और संस्कारों की समाप्ति विधि-विधान से देह को अग्नि को समर्पित करने के अन्त्येष्टी संस्कार में होती है।

प्रश्न 5.
“वैदिक सूक्तियाँ व्यक्तिगत व सामाजिक जीवन के लिए आज भी प्रांसगिक है।” विवेचना कीजिए।
उत्तर:
वैदिक सुक्तियाँ:
ये आदर्श सामाजिक जीवन तथा व्यक्तिगत व राष्ट्रीय चरित्र के लिए वेद में उद्बोधक, प्रेरक वचन हैं जो आज भी संसार को वैदिक धर्म की देन के रूप में मार्ग दर्शक हो सकते हैं। कुछ वैदिक सूक्तियाँ निम्नलिखित है –

1. ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” ऋग्वेद का यह मंत्र कहता है कि हे सत्कर्मों में निपुण सज्जनों ! परम ऐश्वर्यशालियों को बढ़ाते हुए दुष्कर्मी पापियों का दमन करते हुए संसार को श्रेष्ठ बनाते रहो।’

2. वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः हम राष्ट्र में जागरूक, आदर्श नागरिक बनें। अथर्ववेद (7-36-1) का यह मंत्र कहता है कि इस राष्ट्र को अपने सौभाग्य का कारण मानकर समृद्ध करो।

3. वैदिक राष्ट्रगीत (यजुर्वेद 22-22) में प्रार्थना की गई है कि राष्ट्र में सभी को प्रकाशित करने वाले युवक जन्म लें ब्रह्मवर्चस्वी बुद्धिजीवी हों राजन्य (अर्थात शासन कर्ता शूर, धनुर्धारी और महारथी, सैन्य शक्ति सम्पन्न हो) दूध देने वाली गायें हों (आर्थिक समृद्धि) परिवार को धारण करने वाली स्त्रियाँ हों, समय-समय पर वर्षा हों और सभी औषधियाँ फलवती हों।

4. हम सृष्टि के न्यासी हैं अतः कमाये हुए पर केवल हमारा अधिकार नहीं है। अतः वेद कहता है-सबमें दान देने की प्रवृत्ति होनी चाहिए। ‘शत हस्त समाहर सहस्र हस्त संकिर’ (अथर्ववेद में कहा है, सौ हाथों से अर्जित कर और हजार हाथों से बांट दे)। जो अपने कमाये हुए को अकेला खाता है, बांटकर नहीं खाता, वेद ऐसे अन्न को ‘पाप का अन्न कहना है।’

5. अन्न जैविक कृषि से प्राप्त हो तथा उसका उचित प्रबंधन हो इसके लिए वेद का संदेश है ‘हे अन्न का पालन (संरक्षण) करने वाले ! हमको निरोगकारी व बलवर्धक अन्न धारण कराइए मनुष्य और चौपायों को भी इससे शक्ति दो।

6. हे मनुष्य ! तू ऊपर की ओर जा, उत्थान कर, उन्नति कर, नीचे की ओर मत जा अर्थात अवनति को प्राप्त मत हो। इसके लिए वेद कहता है – स्वस्ति पन्थामनुचरेम्’ अर्थात् हम कल्याण के मार्ग पर चलें।

7. विद्यार्थी के लिए वैदिक प्रार्थना है मामद्य मेधाविनं कुरूं” हे मेधाविन् परमात्मन् ! जिस मेधा बुद्धि की प्रार्थना, उपासना और याचना हमारे देवगण, ऋषिगण और पितृगण करते आए हैं, उसी मेधा शक्ति का दान आज हम सबको प्रदान कीजिए।”

8. ‘मित्रस्य चक्षुषा सर्वान समीक्षामहे’ अर्थात में सबको मित्र-दृष्टि से देखें।

9. ‘मनुर्भव जनय दैव्यं जनम्’, अर्थात मनुष्य बन अपने भीतर दिव्यतायुक्त जन को जन्म दे।

10. अथर्ववेद का मंत्र है मेरा जाना मधुरतायुक्त हो मेरा आना मधुतायुक्त हो। मधुर वाणी बोलूं और मैं मधुर आकृति वाला हो जाऊँ।

11. ‘आ नो भद्रा क्रतवो यन्तु विश्वत:’ वेट कहता है कि संसार में सब ओर से अच्छे विचार मेरी ओर आएँ। ऋग्वेद कहता है- हम भद्र (अच्छा) सुनें और देखें। यजुर्वेद के गायत्री मंत्र में कहा है-‘यद भद्रं तन्न आ सुव’ अर्थात जो भद्र गति है उसे हमको प्राप्त कराओ।

प्रश्न 6.
महावीर स्वामी के जीवन पर प्रकाश डालते हुए जैन धर्म की शिक्षाओं को बताइए।
अथवा
जैन धर्म दर्शन के सिद्धान्त बताइए।
उत्तर:
महावीर स्वामी का जीवन:
महावीर स्वामी जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर थे। इनका जन्म 599 ई. पू. में वैशाली के निकट कुण्डलग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम सिद्धार्थ एवं माता का नाम त्रिशला था। महावीर स्वामी 30 वर्ष की आयु में सत्य की खोज के लिए सन्यासी बन गए। 12 वर्ष की कठोर तपस्या के पश्चात् ऋजुपालिका ग्राम के पास ऋजुपालिका नदी के तट पर साल के वृक्ष के नीचे महावीर स्वामी को केवल्य अर्थात् ज्ञान प्राप्त हुआ। जैन धर्म एवं दर्शन का प्रचार करते हुए 72 वर्ष की आयु में 468 ई. पू. में राजगृह के पास पावापुरी में इन्होंने अपने शरीर का त्याग कर दिया।
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जैन धर्म की शिक्षाएँ/जैन धर्म दर्शन के सिद्धान्त:
जैन धर्म की शिक्षाओं और सिद्धान्तों की जानकारी हमें प्राचीनतम जैन धर्मग्रन्थ ‘आगम साहित्य’ में मिलती है। जैन धर्म की प्रमुख शिक्षाएँ,जैन धर्म दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं –

1. आत्मा को सांसारिक बंधनों से मुक्त रखने एवं सत्य की ओर अग्रसर होने के लिए महावीर स्वामी ने जैन भिक्षुक वर्ग के लिए पंच महाव्रतों का कठोरता पूर्वक पालन करने की शिक्षा दी। ये महाव्रत हैं-सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य ।

2. जैन धर्म में गृहस्थ जैन उपासकों के लिए पाँच अणुव्रतों की व्यवस्था की गयी है। ये भी महाव्रतों की तरह ही थे लेकिन इन गृहस्थव्रतों की कठोरता काफी कम कर दी गयी थी। ये थे –

  • अहिंसा अणुव्रत।
  • सत्याग्रह अणुव्रत।
  • अस्तेय अणुव्रत।
  • अपरिग्रह अणुव्रत।
  • ब्रह्मचर्य अणुव्रत।

3. जैनधर्म, कर्म व पुनर्जन्म में विश्वास करता है। मानवीय सुख व दुखों का कारण उसके कर्म ही हैं। कर्म ही पुनर्जन्म का कारण है। अतः व्यक्ति को कर्मों के फल को भोगे बिना जन्म-मरण से चक्र के छुटकारा नहीं मिलता है।

4. महावीर स्वामी के अनुसार गृहस्थ जीवन में मनुष्य की सांसारिक इच्छाएँ निरन्तर बनी रहती है। अत: उन्होंने इस भौतिकवादी संसार को त्यागकर कठोर तपस्या करने एवं ज्ञान प्राप्त करने की शिक्षा दी है।

5. जैन धर्म ने ईश्वर को सृष्टि का कर्ता नहीं माना है। सृष्टि तो अनादि और नित्य है। कर्म बंधन में बंधा जीव तीर्थंकर द्वारा बताए गए मार्ग के अनुसरण से ही संसार के भौतिक बंधनों से मुक्ति पा सकता है।

6. संसार की मोहमाया व इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त करना ही इस धर्म का एकमात्र उद्देश्य है। मोक्ष प्राप्त करने के लिए महावीर स्वामी ने तीन उपाय बताए थे जो आगे चलकर ‘त्रिरत्न’ कहलाए। ये हैं – सम्यक् ज्ञाने, सम्यक् दर्शन व सम्यक चरित्र।

7. महावीर स्वामी आत्मा की अमरता में विश्वास करते थे। उनके अनुसार प्रकृति में परिवर्तन हो सकते हैं किन्तु आत्मा अजर-अमर है और सदैव एकसी बनी रहती है।

8. जैन धर्म ने धार्मिक, सामाजिक रूढ़ियों एवं पाखण्डों का विरोध किया। इसी प्रकार वर्ण व जाति भेद को भी नहीं माना।

9. महावीर स्वामी ने अठारह प्रकार के बुरे कार्य या पाप बताए है जिससे मनुष्य को बचना चाहिए। यह हैं-हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, अपरिग्रह, क्रोध, राग, लाभ, माया, कलह, चुगली, संयम, द्वेष, मान, मिथ्यादर्शन, छल, कपट, निन्दा आदि।

प्रश्न 7.
जैन धर्म की विश्व को देन क्या है? विस्तार से समझाइए।
उत्तर:
जैन धर्म की विश्व को देन:
जैनधर्म की विश्व को देन का विभिन्न दृष्टियों से अध्ययन अग्र प्रकार हैं –

1. सामाजिक दृष्टि में जैन धर्म का सामाजिक दृष्टि से निम्नलिखित योगदान है –

  • सामाजिक समानता पर बल।
  • नारी स्वतन्त्रता की भावना।
  • समाज सेवा की भावना।
  • सांस्कृतिक समन्वय तथा एकता की भावना पर बल।

2. धार्मिक दृष्टि से –

  • अहिंसा
  • वैदिक धर्म में सुधार
  • उच्च नैतिक जीस पर बल।

3. दर्शन की दृष्टि से:
जैन धर्म ने ज्ञान-सिद्धान्त, कर्मवाद, जीव-अजीव, स्यावाद तथा अहिंसा के विचारों का प्रतिपादन कर भारतीय दार्शनिक चिन्तन को गौरवपूर्ण बनाने में योगदान दिया। ज्ञान सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक जीव की आत्मा पूर्ण ज्ञान युक्त है। और सांसारिकता का पर्दा उसके ज्ञान-प्रकाश को प्रकट नहीं होने देता। अत: प्रत्येक मनुष्य को इस पर्दे को हटाकर ज्ञान को समझना चाहिए।

4 साहित्य की दृष्टि से:
सबसे अधिक जैन ग्रन्थ प्राकृत भाषा में लिखे गये हैं जो अत्यन्त श्रेष्ठ हैं। दक्षिण में कन्नड़ तथा तेलगू में भी साहित्य की रचना की गयी जिनमें तमिल ग्रन्थ ‘कुरल’ कुछ जैनियों द्वारा रचा गया। संस्कृत भाषा में भी जैन मुनियों द्वारा रचनायें लिखी गयी। जैन साहित्य का सबसे बड़ा महत्त्व यह है कि जैन विद्वानों ने अपनी रचनाओं द्वारा, भारतीय साहित्य को समृद्ध बनाया तथा दूसरी ओर उन्होंने भारत के आध्यात्मिक चिन्तन को जन-साधारण तक पहुँचाया।

5. कला की दृष्टि से:
जैन धर्म की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण देन कलात्मक स्मारकों मूर्तियों मठों, गुफाओं आदि के रूप में आज भी स्पष्ट दिखाई देती है।

6. पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियन्त्रण की दृष्टि से:
पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियन्त्रण में महावीर प्रदत्त जैन जीवन शैली एकमात्र सम्पूर्ण समाधान है। अपरिग्रह का सिद्धान्त पदार्थों के असंग्रह और इच्छाओं, आवश्यकताओं के अल्पीकरण का सिद्धान्त है। जैन धर्म के सिद्धान्तों को अपनाकर, पृथ्वी और पर्यावरण को लम्बे काल तक बचाया जा सकता है। जल और वायु के प्रदूषण से बचा जा सकता है।

प्रश्न 8.
बौद्ध धर्म की प्रमुख शिक्षाओं का वर्णन कीजिए।
अथवा
गौतम बुद्ध की शिक्षाएँ बताइए।
उत्तर:
बौद्ध धर्म की प्रमुख शिक्षाएँ:
भारत के विभिन्न धर्मों में बौद्ध धर्म का स्थान अत्यधिक महत्वपूर्ण है। बौद्ध धर्म की स्थापना भी जैन धर्म की तरह उच्च कुलीन क्षत्रिय महात्मा बुद्ध ने की थी। बौद्ध धर्म की प्रमुख शिक्षाएँ निम्नलिखित हैं –
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1. बौद्ध धर्म के दार्शनिक चिंतन का आधार चार आर्य सत्य है। गौतम बुद्ध ने यह स्वीकार किया कि सम्पूर्ण संसार । में दुख व्याप्त हैं। अत: व्यक्ति को अपनी वास्तविक समस्या दु:ख निवारण की ओर ध्यान देना चाहिए। इसके लिए उन्होंने अपने सिद्धांतों के प्रमुख आधार के रूप में निम्नलिखित चार आर्य सत्य का उपदेश दिया –

  • दु:ख
  • दु:ख समुदय (दुख का कारण)।
  • दु:ख निरोध (निवारण)।
  • दु:ख निरोध मार्ग।

2. दु:ख के निवारण हेतु गौतम बुद्ध ने आठ उपाय बताए हैं जिन्हें अष्टांगिक मार्ग के नाम से जाना जाता है।

  • सम्यक् दृष्टि
  • सम्यक् संकल्प
  • सम्यक् वाणी
  • सम्यक् कर्म
  • सम्यक् आजीव
  • सम्यक् प्रयत्न
  • सम्यक् स्मृति
  • सम्यक् समाधि।

3. गौतम बुद्ध ने मनुष्य को स्वयं अपने भाग्य का विधाता बताया न कि किसी भी देवी-देवता या ईश्वर को। इसका निर्धारण मनुष्य द्वारा किए गए कर्मों के आधार पर होता है।

4. गौतम बुद्ध ने बताया कि संसार में प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील, अस्थाई एवं गतिशील है।

5. बौद्ध धर्म ने सत्य बोलना, दान देना, तन व मन की शुद्धता, प्रेम, दया, धैर्य, सभी प्राणियों के प्रति अहिंसा जैसे । नैतिक नियमों पर विशेष बल दिया।

6. बौद्ध धर्म के अनुसार पुनर्जन्म आत्मा के अस्तित्व के बिना असम्भव है। यदि व्यक्ति अपने जीवन में अच्छे कर्म करता है तो उसे अगले जन्म में उच्च जीवन प्राप्त होता है। बुरे कर्म करने पर उसका फल की बुरा होता है।

7. गौतम बुद्ध के अनुसार मनुष्य को अत्यधिक भोग विलास के जीवन से एवं शरीर के कठिन तपस्या के द्वारा अत्यधिक कष्ट देने से दूर रहना चाहिए।

8. गौतम बुद्ध के अनुसार संसार में किसी भी विषय के अस्तित्व के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य है। जन्म के कारण ही वृद्धावस्था एवं मरण होता है।

9. बौद्ध धर्म के अनुसार जीवन का अंतिम लक्ष्य निर्वाण या मोक्ष है। मोक्ष प्राप्ति के लिए तृष्णा अर्थात् लालसा को मिटा देना आवश्यक है।
निर्वाण एक पूर्णता की अवस्था है जिसमें मनुष्य जन्म-मृत्यु के बंधनों से मुक्त हो जाता है।

10. अपने आचरण को शुद्ध बनाए रखने के लिए गौतम बुद्ध ने दस नियमों का पालन करने पर बल दिया जो बौद्ध धर्म के दस शील के नाम से जाने जाते हैं। ये हैं अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, नृत्य का त्याग, सुगन्धित पदार्थों का त्याग, असमय भोजन, कोमल शैय्या का त्याग व कामिनी कंचन का त्याग।

प्रश्न 9.
बौद्ध धर्म का प्रचार एवं विकास का विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर:
बौद्ध धर्म का प्रचार एवं विकास:
गौतम बुद्ध ने योजनाबद्ध ढंग से बौद्ध धर्म का प्रचार किया। उन्होंने अपने मत का प्रचार करने के लिए बौद्ध संघ एवं बौद्ध विहारों की स्थापना की। यही कारण है कि गौतम बुद्ध के समय एवं कालान्तर में राज्याश्रय के कारण बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार भारत में ही नहीं अपितु चीन, जापान, श्रीलंका, तिब्बत, वर्मा, कोरिया, मलेशिया, नेपाल, कम्बोडिया, सुमात्रा आदि देशों में हुआ।

मौर्य शासक अशोक और कुषाण शासक कनिष्क ने तो बौद्ध धर्म को राज्य धर्म भी घोषित कर दिया था। नालंदा का विहार बौद्ध धर्म का प्रमुख केन्द्र था। बौद्ध धर्म के विकास एवं प्रसार के लिए विभिन्न कालों में चार बौद्ध संगीति अथवा महासभाओं का आयोजन हुआ जो निम्नलिखित हैं –

1. प्रथम बौद्ध संगीति:
गौतम बुद्ध के निर्वाण (मृत्यु) के पश्चात् अजातशत्रु के शासन काल में राजगृह की सप्तपर्ण गुफा में प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया। इस बौद्ध संगीति की अध्यक्षता महाकस्यप ने की इस बौद्ध संगीति में महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं का संकलन किया गया जिन्हें सुत्त पिटक एवं विनय पिटक में बाँटा गया।

2. द्वितीय बौद्ध संगीति:
इस बौद्ध संगीति का आयोजन महात्मा बुद्ध के निर्वाण के 100 वर्ष पश्चात् 383 ई. पू. में वैशाली में कालाशोक के शासनकाल में हुआ था। इस सभा को बुलाने का उद्देश्य बौद्ध भिक्षुओं में आए मतभेदों को दूर करना था। इस बौद्ध संगीति के पश्चात् बौद्ध भिक्षु संघ दो सम्प्रदायों थेरवादी एवं सर्वास्तिवादी में बंट गया।

3. तृतीय बौद्ध संगीति:
बौद्ध धर्म की तृतीय महासभा का आयोजन 251 ई. पू. में मौर्य शासक अशोक के. शासनकाल में पाटलिपुत्र में हुआ था। इस महासभा की अध्यक्षता भोगलीपुत्त तिस्य ने की थी। उन्होंने कथावत्यु नामक ग्रन्थ का संकलन किया जो अभिधम्म पिटक का भाग है।

4. चतुर्थ बौद्ध संगीति:
इस बौद्ध महासभा का आयोजन कनिष्ट के शासन काल में श्रीनगर के कुण्डलवन में हुआ था। इसकी अध्यक्षता वसुमित्र ने की थी। इस महासभा में बौद्ध ग्रन्थों के क़ठिन भागों पर विचार विमर्श हुआ। इसी महासभा में बौद्ध धर्म हीनयान व महायान दो स्पष्ट एवं स्वतन्त्र सम्प्रदायों में विभाजित हो गया।

प्रश्न 10.
बौद्ध धर्म के सांस्कृतिक महत्व एवं देन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
बौद्ध धर्म का सांस्कृतिक महत्व एवं देन:
बौद्ध धर्म ने भारत की ही नहीं समस्त विश्व की संस्कृति को एक नवीन जागृति एवं रोशनी प्रदान की। बौद्ध धर्म का सांस्कृतिक महत्व व देन निम्न प्रकार से है –

1. धर्म और दर्शन के क्षेत्र में योगदान:
गौतम बुद्ध ने समस्त विश्व को एक सरल लोकप्रिय, आडम्बर रहित एवं लोकप्रिय धर्म प्रदान किया। बौद्ध धर्म का अनुसरण अमीर गरीब सभी कर सकते थे। धर्म के क्षेत्र में अहिंसा एवं सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया। गौतम बुद्ध ने मूल समस्या दुख और दुख से मुक्ति के सरलतम उपाय बताए।

2 सामाजिक समरसता:
गौतम बुद्ध ने बौद्ध संघ के द्वार सभी वर्गों और जातियों के लिए खोलकर सामाजिक एकता का संदेश दिया। जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था के स्थान पर आचरण को प्रधानता दी गयी। गौतम बुद्ध ने स्त्री समानता एवं स्वतंत्रता को भी प्रोत्साहित किया।

3. साहित्य एवं शिक्षा का विकास:
पाली, संस्कृत और प्राकृत भाषाओं में प्रचुर मात्रा में बौद्ध सासि का सृजन हुआ। अनेक बौद्ध ग्रन्थों का चीनी व तिब्बती भाषा में अनुवाद हुआ। बौद्ध बिहार एवं मठ प्रमुख शिक्षा केन्द्र के रूप में उभरे। नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला आदि का प्रमुख विश्वविद्यालयों के रूप में विकास हुआ।

4. तर्कशास्त्र का विकास:
बौद्ध धर्म ने तर्कशास्त्र का विकास किया। बौद्ध दर्शन में शून्यवाद व विज्ञानवाद की दार्शनिक पद्धतियों का जन्म हुआ। इनका विश्व के दर्शन में प्रमुख स्थान है।

5. राजनीतिक क्षेत्र में योगदान समकालीन:
शासकों पर बौद्ध सिद्धान्तों का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। कई राजाओं ने अहिंसा के सिद्धांत को स्वीकार कर युद्ध का परित्याग कर दिया। मानवता और नैतिकता के मूल्यों को अपनाया। जनतांत्रिक शासन प्रणाली को अपनाया। बौद्ध धर्म के प्रभाव के कारण, राजाओं ने जनकल्याणकारी नीतियों का अनुकरण किया।

6. कला की उन्नति:
बौद्ध धर्म की प्रेरणा से भारत ही नहीं वरन समस्त विश्व में अनेक स्तूप, गुफाएँ, चैत्य, मठ, विहार आदि का निर्माण हुआ। जिन्होंने भारत के साथ-साथ विश्व कला को भी समृद्ध किया। साँची, भरहुत, अमरावती के स्तूप, कनहेरी, अजन्ता की गुफाएँ, चैत्य व विहार बौद्ध कला के श्रेष्ठ उदाहरण है। चित्रकला के क्षेत्र में अजंता के भित्ति चित्र प्रसिद्ध है।

7. वृहत्तर भारत के निर्माण में योगदान:
भारत से बाहर जिन देशों में भारतीय संस्कृति का प्रचार हुआ, उन देशों को सम्मिलित रूप से वृहत्तर भारत कहा गया। इस कार्य में बौद्ध प्रचारकों ने भी अपूर्व साहस व समर्पण भाव से पूर्ण योगदान दिया। अशोक ने विदेशों में बौद्ध प्रचारक भेजे। श्रीलंका, चीन, जापान, वर्मा, तिब्बत, कम्वोडिया, सुमात्रा, मंचूरिया, कोरिया, नेपाल, मलेशिया, इंडोनेशिया, मंगोलिया आदि एशियाई देशों में भारतीय संस्कृति का प्रचार प्रसार हुआ।

8. विश्व के विभिन्न देशों के साथ सांस्कृतिक सम्बन्ध:
बौद्ध धर्म ने भारत के विश्व के विभिन्न देशों के साथ सांस्कृतिक सम्बन्ध बनाए। भारत के बौद्ध भिक्षुओं ने विश्व के विभिन्न भागों में जाकर बौद्ध धर्म की शिक्षाओं और सिद्धान्तों का प्रचार किया। महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं से प्रेरित होकर अनेक विदेशी यात्रियों ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। अनेक विदेशी विद्वान बौद्ध धर्म के अध्ययन हेतु भारत आए। फाहियान, ह्वेनसांग व इत्सिंग आदि ने भारत में वर्षों तक रहकर बौद्ध धर्म का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किया।

प्रश्न 11.
इस्लाम के मूल सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
इस्लाम के मूल सिद्धान्त-इस्लाम शब्द का अरबी भाषा में अर्थ ‘समर्पण’ (अल्लाह के प्रति) तथा ‘शांति’ होता है। जो व्यक्ति इस्लाम में श्रद्धा रखता है, ‘मोमिन’ कहलाता है। इस्लाम के मूलभूत श्रद्धा बिन्दुओं को ‘उसूले दीन’ कहते हैं, जो इस प्रकार हैं –

1. तौहीद:
एक ईश्वर (अल्लाह) पर अविचल श्रद्धा। अल्लाह के साथ किसी अन्य को भागीदार बनाना ‘शिर्क’ कहलाता है। जैसे –

  • अल्लाह का अस्तित्व किसी अन्य में या विपरीत कल्पना करना।
  • किसी अन्य को आल्लाह के समकक्ष मानना।
  • किसी को अल्लाह का पिता या पुत्र मानना।
  • अल्लाह के गुण विशेष में किसी को सहभागी मानना।
  • शिर्क’ करने वाला व्यक्ति ‘मुशरिक’ कहलाता है।

2. रिसाल्लाह या नुबूवत:
अल्लाह के बाद इस्लाम में सबसे महत्वपूर्ण शब्द ‘रसूल’ अथवा ‘नबी’ है। रसूल का अर्थ प्रेषित या भेजा हुआ होता है। अर्थात् अल्लाह का संदेश लोगों तक पहुँचाने के लिए भेजा दूत । नबी का अर्थ पद चिह्न है अर्थात् जिसका अनुसरण किया जाना चाहिए।

3. मलायकह:
फरिश्ते, ईशदूत पर श्रद्धा ‘मलायकह’ कहलाती है। सातवें आसमान पर अल्लाह के सिंहासन के निकट चार फरिश्ते ‘हमलत अल अर्ष’ कहलाते हैं। अल्लाह की स्तुति करने वाले फरिश्ते करुबियून, इनके पश्चात् जिब्रील, मिकाईल आदि फरिश्तों का क्रम आता है। अल्लाह से पैगम्बर तक कुरान का अवतरण जिब्राइल द्वारा हुआ था।

4. कुतुबुल्लाह:
इस शब्द का अर्थ है अल्लाह के ग्रंथों पर श्रद्धा रखना। जिनके पास अल्लाह के ग्रंथ हैं, वे ‘किताब वाले’ कहलाते हैं जैसे-मुसलमान, ईसाई, यहूदी। इस्लामिक मान्यता के अनुसार इन सबमें कुरान ही शुद्ध है।

5. योग अल्-कियामह:
अल्लाह के निर्धारित किए समय तक मनुष्य अल्-दुनिया (पृथ्वी लोक) में रहता है। मृत्यु के बाद का समय उसे कब्र में बिताना होगा, इसे ‘बरझख’ की स्थिति कहते हैं। इसके बाद की स्थिति ‘योग अल्-कियामह’ (पुनरुत्थान दिवस) आती है अर्थात् कयामत (प्रलय) के दिन सभी को जीवित किया जाएगा और अल्लाह के सामने लाया जाएगा और कर्मानुसार जन्नत या जहन्नम में भेजा जाएगा।

6. अल्-कद्र:
अल्लाह की योजनानुसार सब घटित होता है और आगे भी होगा, इस श्रद्धा को ‘अल् कद्र’ कहते है।

7. मिशाक:
इसका अर्थ ‘इकरारनामा’ (अनुबंध) है। अल्लाह अपने चयनित लोगों से अनुबंध करता है। वर्तमान में ‘उम्मतु मुहम्मदी’ अर्थात् मुसलमान अल्लाह के अनुबंधित, चयनित लोग हैं, ऐसी इस्लाम की मान्यता है।

प्रश्न 12.
ईसाईयत के संस्कारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
ईसाईयत के संस्कार:
ईसा ने जीवन के कुछ नियम बनाये जिन्हें संस्कार कहते है ईसाईयत के संस्कारों को बाइबिल में “सेक्रामेन्ट” कहा जाता है। सैक्रामेन्ट संख्या में सात हैं – संत आगस्टाइन ने पाँचवी शताब्दी में सेक्रामेन्टो की परिभाषा इस प्रकार व्यक्त की- “सैक्रामेन्ट एक आन्तरिक ईश्वर प्रार्थना व गौरव की बाहरी या लौकिक प्रदर्शनी है।” सेक्रामेन्टों में गिरजाघरों को ईसा का प्रतीक बताया गया और दैनिक जीवन में इनके पालन पर जोर दिया गया। ये निम्नलिखित हैं।

1. नामकरण:
इस संस्कार को बैपटाइजेशन (बपतिस्मा) कहते हैं। जब बालक तीन वर्ष का हो जाता है तो पादरी पवित्र जल छिड़ककर उसका नाम रखता हैं। इसे नामकरण संस्कार कहते हैं। इस संस्कार से बालक ईसाई रिलिजन का अनुयायी हो जाता है। यह किसी भी व्यक्ति को ईसाई घोषित करने का संस्कार हैं।

2. प्रमाणीकरण:
इसे कनफरमेशन संस्कार भी कहते हैं। जब बालक 12 वर्ष का हो जाता है तब उसके नाम की सार्वजनिक घोषणा की जाती है। इसे प्रमाणीकरण संस्कार कहते हैं। इस संस्कार से उसके ईसाई होने की पुष्टि होती है।

3. प्रभु का भोजन:
ईसा ने अपनी मृत्यु से पूर्व अपने बारह अनुयायियों के साथ भोजन किया था। इस दिन को ईसाई लोग पवित्र त्यौहार कहते हैं। सभी एक साथ बैठकर भोजन कहते हैं।

4. प्रायश्चित:
ईसाईयत के अनुसार यदि कोई अपराधी पादरी के समक्ष ईसा से अपने अपराधों की क्षमा मांग ले तथा बुरे कर्मों का प्रायश्चित कर ले तो ईश्वर उसको क्षमा कर देता है। इसमें ‘कन्फेशन’ या पापों की स्वीकृति तथा ‘पेनेंस’ या प्रायश्चित, यह क्रम रहता है।

5. अन्तिम स्नान:
इस संस्कार में मरणासन्न मनुष्य को अन्तिम पवित्र स्नान करवाया जाता है ताकि उसकी आत्मा से सांसारिक दाग साफ हो जाएँ।

6. दीक्षा:
यदि कोई व्यक्ति जो 18 वर्षों की आयु से अधिक हो और पादरी बनना चाहता हो, उसे दीक्षा दी जाती है उसे “औरडीनेशन’ (ईश्वरीय अनुकम्पा) दीक्षा संस्कार कहते हैं।

7. विवाह:
इस संस्कार से पुरुष और स्त्री वैवाहिक बंधन में बंधने के पश्चात् गृहस्थ जीवन में प्रवेश को मान्यता दी जाती है।

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