RBSE Solutions for Class 11 Political Science Chapter 11 सरकार के अंग

Rajasthan Board RBSE Class 11 Political Science Chapter 11 सरकार के अंग

RBSE Class 11 Political Science Chapter 11 पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर

RBSE Class 11 Political Science Chapter 11 अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
कानून निर्माण का प्रमुख कार्य कौन करता है?
उत्तर:
व्यवस्थापिका।

प्रश्न 2.
द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका क्या है?
उत्तर:
वह व्यवस्थापिका जिसमें दो सदन होते हैं, द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका कहलाती है। इसमें प्रथम या निम्न सदन में प्राय: जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने हुए प्रतिनिधि आते हैं। द्वितीय सदन विभिन्न वर्गों, हितों व संघ की इकाइयों का प्रतिनिधित्व करता है।

प्रश्न 3.
राष्ट्रीय वित्त पर किसका नियन्त्रण रहता है?
उत्तर:
व्यवस्थापिका का।

प्रश्न 4.
संविधान में संशोधन की शक्ति किसके पास है?
उत्तर:
व्यवस्थापिका के पास।

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प्रश्न 5.
किस राज्य के सर्वोच्च न्यायालय को व्यवस्थापिका का तीसरा सदन कहा गया है?
उत्तर:
संयुक्त राज्य अमेरिका के।

प्रश्न 6.
कार्यपालिका का क्या अर्थ है?
उत्तर:
कार्यपालिका सरकार का वह अंग है जो व्यवस्थापिका द्वारा बनाए गए कानूनों को कार्य-रूप में सम्पन्न करता है।

प्रश्न 7.
वंशानुगत कार्यपालिका किस देश में प्रचलित है?
उत्तर:
इंग्लैण्ड में।

प्रश्न 8.
कार्यपालिका का प्रमुख कार्य क्या है?
उत्तर:
प्रशासनिक कार्य करना।

प्रश्न 9.
निरंकुश कार्यपालिका का एक दोष बताइए।
उत्तर:
शासन की शक्तियों का दुरुपयोग।

प्रश्न 10.
कार्यपालिका की शक्तियों में वृद्धि का प्रमुख कारण क्या है?
उत्तर:
राज्य के कार्यक्षेत्र में वृद्धि।

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प्रश्न 11.
देश का सर्वोच्च सेनापति कौन होता है?
उत्तर:
राज्याध्यक्ष देश का सर्वोच्च सेनापति होता है। भारत में राष्ट्रपति सर्वोच्च सेनापति है।

प्रश्न 12.
क्षमादान का अन्तिम अधिकार किसके पास है?
उत्तर:
कार्यपालिका प्रधान को क्षमादान का अन्तिम अधिकार प्राप्त है। भारत में यह अधिकार राष्ट्रपति के पास है।

प्रश्न 13.
किस देश में कानून की उचित प्रक्रिया के तहत न्यायिक पुनर्विलोकन किया जाता है?
उत्तर:
संयुक्त राज्य अमेरिका में।

प्रश्न 14.
न्यायपालिका का परामर्श सम्बन्धी कार्य सरकार के किस अंग से सम्बद्ध है?
उत्तर:
कार्यपालिका से।

प्रश्न 15.
न्यायाधीशों की नियुक्ति का सर्वोत्तम तरीका क्या है?
उत्तर:
कार्यपालिका द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति करना।

प्रश्न 16.
जनहित याचिका किसे कहते हैं?
उत्तर:
ऐसी याचिकाएँ जो व्यवस्था के कुप्रबंधन से पीड़ित व्यक्ति के स्थान पर किसी अन्य व्यक्ति द्वारा साधारण पोस्टकार्ड के माध्यम से दायर की जाती हैं, जनहित याचिका कहलाती हैं।

प्रश्न 17.
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता क्यों आवश्यक है?
उत्तर:
ताकि न्यायाधीश बिना किसी दबाव या हस्तक्षेप के अपने विवेक से निर्णय दे सके। प्रश्न 18. संघात्मक शासन में न्यायपालिका का प्रमुख कार्य क्या है? उत्तर-कानून के अनुसार न्याय करना।

प्रश्न 19.
“न्यायपालिका के बिना सभ्य समाज की कल्पना नहीं की जा सकती।” कथन किसका है?
उत्तर:
यह कथन प्रो. गार्नर का है।

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RBSE Class 11 Political Science Chapter 11 लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
व्यवस्थापिका का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
व्यवस्थापिका का अर्थ – व्यवस्थापिका सरकार का एक महत्वपूर्ण अंग है। इसका मूल कार्य कानून का निर्माण करना है। लेकिन कानून निर्माण के कार्य के साथ ही साथ व्यवस्थापिका कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के नियन्त्रण का कार्य भी करती है तथा वह राष्ट्र के वित्त पर भी नियन्त्रण रखती है। इस प्रकार आधुनिके लोकातन्त्रिक सरकारों में व्यवस्थापिका, प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा निर्वाचित वह निकाय है जो कानून निर्माण के कार्य के साथ ही साथ नीति-निर्धारण की भूमिका का निर्वाह भी करती है। यह जनता द्वारा निर्वाचित विशेष अधिकारों से युक्त व्यक्तियों का सामूहिक संगठन है।

प्रो. गार्नर के अनुसार, “अनेक अंगों में जिनके माध्यम से राज्य की इच्छा अभिव्यक्त होती है तथा लागू की जाती है, विधायिका का स्थान निर्विवाद रूप से सर्वोच्च है।” । सी. एफ. स्ट्रॉग के अनुसार, “आधुनिक संवैधानिक राज्य में सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग व्यवस्थापिका: अर्थात् कानून बनाने वाली संस्था ही होती है।” व्यवस्थापिका को सम्पूर्ण राष्ट्र की जन-प्रतिनिधि संस्था होने के कारण ‘राष्ट्र का दर्पण’ या ‘जन इच्छा का मूर्त रूप’ भी कहा जाता है। भारत में व्यवस्थापिका को संसद, संयुक्त राज्य अमेरिका में कॉग्रेस, ब्रिटेन में पार्लियामेन्ट तथा जापान में डायट कहा जाता है।

प्रश्न 2.
आधुनिक राज्य में व्यवस्थापिका के महत्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
आधुनिक राज्य में व्यवस्थापिका का महत्व – व्यवस्थापिका लोकतन्त्र के सज़ग प्रहरी और जन इच्छा के प्रतिनिधित्व के रूप में आज भी लोकतन्त्र का केन्द्रबिन्दु है। इसके महत्व को स्पष्ट करने वाले प्रमुख बिन्दु निम्नलिखित हैं

  1. व्यवस्थापिका समाज की परिस्थितियों एवं नागरिकों की आवश्यकता के अनुसार कानून बनाती है, उनमें संशोधन करती है अथवा निरस्त करती है।
  2. यह विभिन्न माध्यमों से कार्यपालिका पर प्रत्यक्ष रूप से नियन्त्रण रखती है।
  3. यह केन्द्रीय वित्त पर पूर्ण नियन्त्रण रखती है। इसकी अनुमति के बिना कार्यपालिका किसी भी प्रकार का कोई व्यय नहीं कर सकती है तथा न ही जनता पर कोई कर लगा सकती है।
  4. यह राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति एवं न्यायाधीशों के विरुद्ध लाए गए यह महाभियोग प्रस्तावों पर सुनवाई कर उन्हें अपने पद से हटा सकती है।
  5. अनेक देशों में व्यवस्थापिकाएँ निर्वाचन सम्बन्धी कार्य भी करती हैं, जैसे- भारत में राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति को निर्वाचन आदि।
  6. व्यवस्थापिका संविधान संशोधन का कार्य भी करती है।
  7. यह विदेशों के साथ पारस्परिक सम्बन्धों का निर्धारण, युद्ध व शान्ति की घोषणा के अतिरिक्त सन्धि व समझौतों का कार्य भी करती है। इस प्रकार व्यवस्थापिका सरकार का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण अंग है। कानून निर्माण के साथ-साथ शासन की नीतियों एवं प्रस्तावों का विश्लेषण, समालोचना पारित अथवा स्वीकृत करना तथा करती है। जन आकाक्षांओं को साकार करने की दिशा में भी सार्थक पहल करती है।

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प्रश्न 3.
द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
द्विसदनात्मक व्यवस्था के पक्ष में तर्क-द्विसदनात्मक व्यवस्था के पक्ष में अग्रलिखित तर्क दिए जा सकते हैं

  1. इस व्यवस्था में दूसरा सदन प्रथम सदन की निरंकुशता व स्वेच्छाचारिता पर रोक लगाता है।
  2. द्विसदनीय व्यवस्था से शक्ति विकेन्द्रित होती है एवं समाज के समस्त वर्गों को प्रतिनिधित्व मिलता है।
  3. राज्य के कार्यों में अत्यधिक वृद्धि होने से दूसरा सदन कई प्रकार से पहले सदन की मदद कर सकता है।
  4. एक सदन में विधेयक पारित हो जाने के पश्चात् दूसरे सदन में विधेयक पारित होने की प्रक्रिया में समय लगता है। इस अवधि में सामान्य जनता, राजनीतिक दलों एवं प्रेस को प्रस्तावित विधेयक कर अपना मत प्रकट करने का अवसर मिलता है।
  5. संघात्मक शासन व्यवस्था वाले राज्यों में द्वितीय सदन आवश्यक होता है। द्वितीय सदन राज्य की इकाइयों का प्रतिनिधित्व करता है। अत: यह संघ की सभी इकाइयों के हितों का संरक्षण करता है।
  6. द्वितीय सदन प्रथम सदन द्वारा जल्दबाजी व अविचारपूर्वक बनाए गए कानूनों पर रोक लगाता है। अतः यह विवेकपूर्ण विचार का साधन है।
  7. ऐतिहासिक अनुभव यह बताता है कि एक सदनीय व्यवस्थापिका वाले देशों में शासन में निरंकुशता बढ़ी है।

प्रश्न 4.
भारत के सन्दर्भ में व्यवस्थापिका के संविधान संशोधन संबंधी कार्य को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
व्यवस्थापिका का संविधान संशोधन सम्बन्धी कार्य-भारत में व्यवस्थापिका द्वारा संविधान संशोधन सम्बन्धी कार्य किया जाता है। भारत में संविधान संशोधान की निम्न तीन विधियाँ प्रचलित हैं

  1. साधारण बहुमत द्वारा – कुछ विषय व्यवस्थापिका (संसद) के दोनों सदनों के साधारण बहुमत हो संशोधित किये जा सकते हैं।
  2. दोतिहाई बहुमत द्वारा भारत के संविधान के कुछ अनुच्छेदों को संशोधित करने के लिए व्यवस्थापिका (संसद) के दोनों सदनों के पूर्ण बहुमत एवं उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है। भारतीय संविधान के भाग 3 तथा 4 के अनुच्छेद इस श्रेणी में आते हैं।
  3. दो – तिहाई बहुमत एवं आधे से अधिक राज्यों का अनुमोदन-भारतीय संविधान के कुछ अनुच्छेदों में संशोधन के लिए संसद के दोनों सदनों के पूर्ण बहुमत, उपस्थित सदस्यों के दो तिहाई बहुमत तथा आधे से अधिक राज्यों की विधान सभाओं का समर्थन आवश्यक है। राष्ट्रपति के निर्वाचन की पद्धति, केन्द्र एवं राज्यों के बीच शक्ति विभाजन आदि इस श्रेणी में आते हैं।

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प्रश्न 5.
संसदीय एवं अध्यक्षीय कार्यपालिका में क्या अन्तर है?
उत्तर:
संसदीय एवं अध्यक्षीय कार्यपालिका में निम्नलिखित अन्तर हैं
(1) संसदीय कार्यपालिका में दोहरी कार्यपालिका

  •  नाममात्र की और
  • वास्तविक कार्यपालिका होती है, जबकि अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली में इकहरी कार्यपालिका एवं वास्तविक कार्यपालिका ही होती है।

(2) संसदीय कार्यपालिका के सदस्य संसद (व्यवस्थापिका) के सदस्यों में से चुने जाते हैं और संसद के लोकप्रिय सदन के प्रति उत्तरदायी होते हैं। जबकि अध्यक्षात्मक कार्यपालिका जैसे-संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव व्यवस्थापिका नहीं, बल्कि निर्वाचक मण्डल करता है और वह उसी के प्रति उत्तरदायी होता है।

(3) संसदीय शासन में वास्तविक कार्यपालिका (मन्त्रिपरिषद्) का कार्यकाल निश्चित नहीं होता है, जबकि अध्यक्षीय कार्यपालिका में कार्यपालिका का कार्यकाल संविधान द्वारा निश्चित होता है। समय से पूर्व उसे (राष्ट्रपति) हटाना कठिन है।

(4) संसदीय शासन में कार्यपालिका और व्यवस्थापिका में निरन्तर घनिष्ठ सम्बन्ध बना रहता है, जबकि अध्यक्षीय कार्यपालिका में शक्ति पृथक्करण का सिद्धान्त पाया जाता है। अत: कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका दोनों स्वतन्त्र होते हैं।

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प्रश्न 6.
नाममात्र की कार्यपालिका से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
नाममात्र की कार्यपालिका से अभिप्राय – जब शासन अथवा राज्य का प्रधान नाममात्र का होता है एवं शक्तियों का प्रयोग उसके नाम पर कोई दूसरा करता है तो वह नाममात्र की कार्यपालिका कहलाती है। संसदात्मक शासन व्यवस्था में संविधान द्वारा सम्पूर्ण शक्तियाँ सम्राट या राष्ट्रपति को प्रदान की गयी हैं किन्तु इन शक्तियों का प्रयोग वह प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिमण्डल की सलाह पर ही करता है। भारत में राष्ट्रपति तथा इंग्लैण्ड में सम्राट के नाम पर ही शासन के समस्त कार्य किए जाते हैं किन्तु स्वयं उन्हें इन शक्तियों का उपयोग करने की स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं है। वास्तविक रूप में कार्यपालिका शक्ति प्रधानमन्त्री के नेतृत्व में उसकी मन्त्रिपरिषद् के हाथ में होती है।

प्रश्न 7.
प्रदत्त व्यवस्थापन क्या है?
उत्तर:
प्रदत्त व्यवस्थापन – राज्य के कार्यों में वृद्धि, समय की कमी तथा विशेषज्ञों का अभाव आदि कारकों ने वर्तमान काल में व्यवस्थापिका के लिए यह आवश्यक कर दिया है कि वह अपनी कानून निर्माण सम्बन्धी कुछ शक्ति कार्यपालिको को हस्तांतरित कर दे। इस प्रकार वर्तमान में व्यवस्थापिका ने अपनी इच्छा से कानून निर्माण का कुछ कार्य कार्यपालिका के विभिन्न विभागों को सौंप दिया है। इसी को ‘प्रदत्त व्यवस्थापन’ नाम से जाना जाता है। इस प्रदत्त व्यवस्था के कारण ही कार्यपालिका की शक्तियों में वृद्धि हुई है।

प्रश्न 8.
एकल एवं बहुल कार्यपालिका के स्वरूप को समझाइए।
उत्तर:
एकल कार्यपालिका – जब कार्यपालिका सम्बन्धी विषयों में निर्णय लेने का अन्तिम अधिकार एक व्यक्ति में निहित रहता है, तो उसे एकल कार्यपालिका कहते हैं। अध्यक्षीय व्यवस्था में शासन को केन्द्र बिन्दु राष्ट्रपति होता है। उदाहरण के रूप में संयुक्त राज्य अमेरिका की संघीय सरकार की सम्पूर्ण शक्तियाँ राष्ट्रपति के हाथों में रहती हैं।

अतः वहाँ राष्ट्रपति एकल कार्यपालिका है। संसदीय शासन प्रणाली में, जैसे-इंग्लैण्ड और भारत में यद्यपि कार्यपालिका शक्ति मन्त्रिमण्डल के हाथों में होती है जो अनेक व्यक्तियों की संस्था है लेकिन सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धान्त के कारण मन्त्रिमण्डल एक इकाई की भाँति कार्य करता है।

इसलिए संसदीय शासन का यह रूप भी एकल कार्यपालिका का ही एक रूप है। बहुल कार्यपालिका – जबे कार्यपालिका सम्बन्धी शक्ति किसी एक व्यक्ति में निहित न होकर एक से अधिक व्यक्तियों के हाथों में रहती है तो इसे बहुल कार्यपालिका कहते हैं। उदाहरण के रूप में; स्विट्जरलैण्ड व पूर्व सोवियत संघ की कार्यपालिका स्विट्जरलैण्ड में कार्यपालिका की शक्तियाँ 7 सदस्यों की एक संघीय परिषद् में निवास करती हैं। परिषद का एक सदस्य वरिष्ठता के क्रम में एक वर्ष के लिए अध्यक्ष चुन लिया जाता है जो केवल सभापतित्व का कार्य ही करता है। कार्यपालिका सामूहिक कार्यपालिका के समान ही कार्य करती है।

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प्रश्न 9.
“कार्यपालिका ने व्यवस्थापिका को पीछे धकेल दिया।” केसे?
उत्तर:
व्यवस्थापिका सरकार का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण अंग है। कानून निर्माण के साथ – साथ शासन की नीतियों एवं प्रस्तावों का विश्लेषण, समालोचना करना अथवा स्वीकृत करना तथा जन आकांक्षाओं को साकार करने की दिशा में सार्थक पहल करना इसका प्रमुख कार्य है। लेकिन वर्तमान में व्यवस्थापिका अपने संगठन, कार्यप्रणाली एवं दलगत राजनीति के कारण कार्यपालिका की तुलना में कमजोर हुई है।

आज संसदीय शासन व्यवस्था में संसद का अधिवेशन बुलाने, सत्रावसान करने, व्यवस्थापिका के लोकप्रिय सदन को भंग करने, बजट प्रस्तुत करने के अतिरिक्त राज्याध्यक्ष द्वारा दिए जाने वाले भाषण का प्रारूप लिखने का कार्य मन्त्रिमण्डल के निर्देशन में होता है।

अधिकांश विधेयक कार्यपालिका द्वारा ही प्रस्तुत किये जाते हैं तथा बहुमत के आधार पर कार्यपालिका की इच्छानुसार पारित हो जाते हैं। ऐसे में कानून निर्माण का वास्तविक कार्य व्यवस्थापिका की इच्छा के अनुरूप न होकर कार्यपालिका की इच्छा के अनुरूप होता है। आज कार्यपालिका ने कुशल नेतृत्व एवं विशेषज्ञता के चलते व्यवस्थापिका को पीछे धकेल दिया है। परिणामस्वरूप व्यवस्थापिका की शक्तियों में कमी आयी है।

प्रश्न 10.
न्यायपालिका का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
न्यायपालिका का अर्थ – न्यायपालिका सरकार का तीसरा एवं महत्वपूर्ण अंग है। यह अंग समाज में प्रचलित विधि की व्याख्या करने तथा उसका उल्लंघन करने वाले व्यक्तियों को दण्डित करने की संस्थागत व्यवस्था है। न्यायपालिका उन व्यक्तियों का समूह है, जिन्हें विधि के अनुसार विवादों का समाधान करने का अधिकार प्राप्त रहता है। तथा जिनका कार्य राज्य की किसी विधि विशेष के अतिक्रमण सम्बन्धी शिकायत का समाधान अथवा निर्णय करना है। न्यायपालिका समाज में प्रचलित विधियों को लेकर उठने वाले विवादों का समाधान और विधि के शासन की रक्षा करती है।

प्रो. लास्की के अनुसार, “एक राज्य की न्यायपालिका अधिकारियों के ऐसे समूह से परिभाषित की जा सकती। है, जिसका कार्य राज्य के किसी कानून विशेष वै. उल्लंघन या तोड़ने सम्बन्धी शिकायत का विभिन्न लोगों के बीच या नागरिकों और राज्य के बीच एक-दूसरे के विरुद्ध होती है। समाधान व फैसला करता है।” प्रो. गार्नर के अनुसार, “न्यायपालिका के अभाव में एक सभ्य राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती है।”.

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प्रश्न 11.
न्यायिक पुनर्विलोकन क्या है?
उत्तर:
न्यायिक पुनर्विलोकन – न्यायिक पुनर्विलोकन सर्वोच्च न्यायालय को संविधान की रक्षा करने का अधिकार प्रदान करता है। संघ तथा राज्यों की व्यवस्थापिका अपनी संवैधानिक मर्यादाओं का उल्लंघन करती हैं अथवा मौलिक अधिकारों में किसी प्रकार की कमी करती हैं तो संसद अथवा व्यवस्थापिका द्वारा.बनाए गए ऐसे किसी भी कानून को सर्वोच्च न्यायालय अवैध घोषित कर सकता है।

न्यायालय की इस शक्ति को न्यायिक पुनरावलोकन कहते हैं। आधुनिक समय में न्यायिक पुनरावलोकन का प्रारम्भ सर्वप्रथम संयुक्त राज्य अमेरिका में हुआ। संयुक्त राज्य अमेरिका में न्यायिक पुनरावलोकन का आधार कानून की उचित प्रक्रिया है, जबकि भारत में इसका आधार विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ है।

प्रश्न 12.
न्यायालय की सक्रियता से क्या आशय है?
उत्तर:
न्यायालयं की सक्रियता से आशय – जब न्यायपालिका, व्यवस्थापिका या कार्यपालिका द्वारा किए जा रहे असंवैधानिक कृत्यों के विरुद्ध दिशा-निर्देश जारी करती है तो ऐसी कार्यवाही को न्यायिक सक्रियता नाम दिया जाता है। एक कल्याणकारी देश में यह जनहित की शिकायतों के समाधान की एक आधुनिक विधि है। मानवाधिकारों के युग में ‘न्यायिक सक्रियता’ कार्यपालिका की अकर्मण्यता के कारण विकसित हुई है।

भारत में न्यायिक सक्रियता का प्रारम्भ सन् 1986 से तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश पी. एन. भगवती ने किया। उन्होंने मात्र एक पोस्टकार्ड पर जनहित याचिका पर सुनवाई की। न्यायिक सक्रियता के उत्तरदायी तत्व हैं-कार्यपालिका की कर्तव्य – विमुखता, पथ-भ्रमिता, अत्यधिक भ्रष्टाचार, जनहित याचिका पद्धति, न्यायिक पुनरावलोकन, न्यायाधीशों की प्रखरता, निर्भीकता और कर्तव्य परायणता, राजनीतिक परिदृश्य, जनसामान्य का कार्यपालिका के प्रति कम होता विश्वास व परिस्थितियों की व्यावहारिकता आदि। न्यायपालिका ने राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, पर्यावरण सम्बन्धी प्रत्येक क्षेत्र में सक्रिय भूमिका निभाई है।

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प्रश्न 13.
न्यायिक पुनर्विलोकन प्रगतिशीलता में बाधक है। कैसे?
उत्तर:
न्यायपालिका सरकार का तीसरा महत्वपूर्ण अंग है। न्यायिक पुनरावलोकन के अन्तर्गत न्यायपालिका, व्यवस्थापिका और कार्यपालिका द्वारा किए गए कार्यों की संवैधानिकता तथा वैधता का परीक्षण करती है और संविधान के प्रावधानों व विधि के मान्य सिद्धान्तों के विपरीत होने पर ऐसे कार्यों को अवैध घोषित कर सकती है।

इस तरह न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति ने संविधान की सर्वोच्चता की अपेक्षा न्यायिक सर्वोच्चता को सिद्धान्त स्थापित कर दिया है। न्यायिक सर्वोच्चता की स्थापना से व्यवस्थापिका के सम्मान को ठेस पहुँचती है क्योंकि लोकतन्त्र में अन्तिम शक्ति जनता के पास होती है। व्यवस्थापिका जनता की शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है।

न्यायपालिका की न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति अनेक बार व्यवस्थापिकी द्वारा जनहितकारी कानूनों को अवैध घोषित कर देती है। जिससे व्यवस्थापिका के समान को ठेस पहुँचने के साथ-साथ देश की प्रगतिशीलता में भी बाधा उत्पन्न होती है। उदाहरण के रूप में भारत में भूमि सुधार कानून प्रिवीपर्स की समाप्ति, बैकों के राष्ट्रीयकरण जैसे लोककल्याणकारी कानूनों को समाप्त कर दिया गया। न्यायपालिका के इन निर्णयों ने व्यवस्थापिका के सम्मान को ठेस पहुँचाने के साथ देश की प्रगतिशीलता में भी बाधा पहुँचायी है।

प्रश्न 14.
भारत में न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया समझाइए।
उत्तर:
भारत में न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया:
भारत में न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका द्वारा होती है। इस व्यवस्था में राजनैतिक दलबन्दी पर रोक लगती है एवं योग्य व्यक्ति न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होते हैं। भारत में संविधान के अनुच्छेद 124(3) में न्यायाधीशों की नियुक्ति का प्रावधान है। भारतीय संविधान के प्रावधानों के अनुसार उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।

संविधान में यह प्रावधान किया गया है कि उच्चतम न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति से पूर्व राष्ट्रपति उच्चतम न्यायालय तथा राज्यों के उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करेगा जिनसे परामर्श करना वह उचित समझे। उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से भिन्न अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के सम्बन्ध में राष्ट्रपति के लिए उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करना अनिवार्य बनाया गया है।

राष्ट्रपति उच्चतम न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति के सम्बन्ध में प्रधानमन्त्री के परामर्श से कार्य करता है। सन् 1993 एवं 1999 में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए न्यायाधीशों की नियुक्ति के विषय में कार्यपालिका हस्तक्षेप सीमित कर दिया गया है। उच्चतम न्यायालय ने यह निर्धारित किया है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के साथ चार वरिष्ठतम् न्यायाधीशों का सम्मिलित परामर्श निर्णायक भूमिका का निर्वहन करेगा।

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RBSE Class 11 Political Science Chapter 11 निबन्धात्मक प्रश्न:

प्रश्न 1.
व्यवस्थापिका का अर्थ स्पष्ट करते हुए उसके कार्यों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
व्यवस्थापिका का अर्थ व्यवस्थापिका सरकार के संगठन का एक महत्वपूर्ण अंग है। इसे भारत में ‘संसद’ के नाम से जाना जाता है। संसद शब्द की उत्पत्ति अंग्रेजी भाषा के शब्द ‘पार्लियामेन्ट’ से हुई है। जिसका अर्थ है-“बोलना” अथवा “विचार – विमर्श करना। यह सरकार का वह अंग है जो राजकीय इच्छा को कानून में परिवर्तित करता है।

इसके द्वारा बनाये गये कानूनों के माध्यम से ही कार्यपालिका शासन चलाती है तथा न्यायपालिका न्याय करती है। व्यवस्थापिका के कार्य विश्व के सभी देशों में व्यवस्थापिका के कार्य एक जैसे नहीं हैं, क्योंकि व्यवस्थापिका के कार्य संबंद्ध देश की शासन प्रणाली पर निर्भर करते हैं।

लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली में व्यवस्थापिका निम्नलिखित कार्य करती हैं:
1.  कानून निर्माण सम्बन्धी कार्य – व्यवस्थापिका का मुख्य कार्य कानून बनाना है। समाज की परिस्थितियों तथा नागरिकों की आवश्यकताओं के अनुसार व्यवस्थापिका कानून बनाती है, उनमें संशोधन करती है तथा उन्हें निरस्त करती है।

2. कार्यपालिका का नियन्त्रण – व्यवस्थापिका, कार्यपालिका पर पूर्ण नियन्त्रण रखती है। संसदीय शासन में यह नियन्त्रण प्रश्न व पूरक प्रश्न पूछकर स्थगन और निन्दा प्रस्ताव, बजट व सरकारी नीतियों पर वाद-विवाद द्वारा रखा जाता है। ऐसे में व्यवस्थापिका, कार्यपालिका को अविश्वास प्रस्ताव द्वारा पदच्युत कर सकती है। ब्रिटेन, भारत व जापान में यही विधि अपनायी जाती है। अध्यक्षीय शासन व्यवस्था में व्यवस्थापिका महाभियोग प्रस्ताव के द्वारा कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखती है।

3.  विचार विमर्शात्मक कार्य – व्यवस्थापिका का एक महत्वपूर्ण कार्य राजनैतिक विषयों व शासन सम्बन्धी नीतियों पर विचार-विमर्श करना है। किसी विषय पर कानून बनाने और निर्णय लेने से पूर्व उस पर विभिन्न दृष्टिकोण से विचार-विमर्श किया जाता है।

4. न्यायिक कार्य – अनेक देशों में व्यवस्थापिकाएँ न्यायिक कार्य भी सम्पन्न करती हैं, जैसे- भारत में संसद को राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति व न्यायाधीशों पर महाभियोग की सुनवाई का अधिकार है। इसी प्रकार ब्रिटेन की संसद की लार्ड सभा अपील सुनने का सर्वोच्च न्यायालय है जो दीवानी और फौजदारी मुकदमों की अपील सुनता है। अमेरिका में काँग्रेस राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति पर महाभियोग चला कर उन्हें अपने पद से हटा सकती है।

5.  संविधान में संशोधन करना – व्यवस्थापिका देश की आवश्यकतानुसार संविधान संशोधन का कार्य सम्पन्न करती है। ब्रिटेन में संसद साधारण बहुमत से कानून में संशोधन कर सकती है, जबकि भारत में साधारण बहुमत से, दो तिहाई बहुमत से और आधे राज्यों की अनुमति से अर्थात् तीन विधियों से संविधान संशोधन किये जाते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में काँग्रेस के दो तिहाई सदस्यों की स्वीकृति के बाद तीन – चौथाई राज्यों की अनुमति भी संविधान संशोधन हेतु आवश्यक है।

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6. निर्वाचन सम्बन्धी कार्य – अनेक देशों में व्यवस्थापिका निर्वाचन सम्बन्धी कार्य भी सम्पन्न करती है। स्विट्जरलैण्ड में व्यवस्थापिका मन्त्रिपरिषद् व न्यायाधीशों का चुनाव करती है। चीन में संघीय राष्ट्रपति संसद द्वारा चुना जाता है। अमेरिका में काँग्रेस राष्ट्रपति का उपराष्ट्रपति का चुनाव तब करती है जब कोई भी प्रत्याशी निर्वाचकमण्डल का बहुमत प्राप्त नहीं कर पाता।

7. विदेश नीति पर नियन्त्रण – व्यवस्थापिका राज्य के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की देखभाल करती है। मन्त्रिमण्डल को अपनी विदेश नीति व्यवस्थापिका से स्वीकृत करवानी पड़ती है। लोकतान्त्रिक राज्यों में तो युद्ध व शान्ति की घोषणा व्यवस्थापिका द्वारा ही की जाती है। संयुक्त राज्य अमेरिका में सीनेट राष्ट्रपति द्वारा की गई सन्धियों को स्वीकृति प्रदान करती है।

8.  वित्त पर नियन्त्रण – प्रायः सभी लोकतान्त्रिक देशों में वित्त पर व्यवस्थापिका का ही नियन्त्रण होता है। व्यवस्थापिका की अनुमति के बिना छोटा-से-छोटा व्यय भी नहीं किया जा सकता।

9. सार्वजनिक शिकायतों की अभिव्यक्ति का मंच – व्यवस्थापिका में विभिन्न क्षेत्रों से निर्वाचित जन प्रतिनिधि होते हैं जो अपने निर्वाचन क्षेत्रों के लोगों से सम्पर्क बनाए रखते हैं और उनकी कठिनाइयों और शिकायतों को सरकार तक पहुँचाते हैं।

10. जाँच – पड़ताल सम्बन्धी कार्य – व्यवस्थापिका विशेष कार्यों की जाँच हेतु विभिन्न समितियों व आयोगों को गठन करती है जिन्हें एक निश्चित समय में अपना प्रतिवेदन व्यवस्थापिका के सम्मुख प्रस्तुत करना होता है। व्यवस्थापिका उस प्रतिवेदन पर निर्णय लेती है। उसका निर्णय अन्तिम होता है।

11. संकटकाल की घोषणा को स्वीकृति प्रदान करना – व्यवस्थापिका राज्य द्वारा संकटकाल की घोषणा किए जाने पर उसे स्वीकृति प्रदान करती है। भारत में राष्ट्रपति द्वारा की गई संकटकाल की घोषणा हेतु संसद की स्वीकृति आवश्यक है।

12. राज्यों के पुनर्गठन का कार्य – संघीय ढाँचे वाले राज्यों में इकाइयों के पुनर्गठन का कार्य भी व्यवस्थापिका द्वारा ही किया जाता है।

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प्रश्न 2.
व्यवस्थापिका के संगठन से क्या अभिप्राय है? द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका के पक्ष तथा विपक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
व्यवस्थापिका को संगठन – संगठन की दृष्टि से व्यवस्थापिका दो प्रकार की हो सकती है-

  1.  एक सदनीय व्यवस्थापिका
  2. द्विसदनीय व्यवस्थापिका।

एक सदनीय व्यवस्थापिका:
एक सदनीय व्यवस्थापिका में एक ही सदन होता है, यह सदन प्राय: प्रतिनिधि सदन होता है। लोकतान्त्रिक देशों में इस सदन के सदस्यों को जनता प्रत्यक्ष रूप से चुनती है। इनका चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर होता है। कई देशों में मताधिकार कुछ विशेष निश्चित योग्यता रखने वाले व्यक्तियों तक ही सीमित होता है। जहाँ एक सदनीय व्यवस्थापिका होती है वहाँ सम्पूर्ण शक्तियाँ एक ही सदन में केन्द्रित होती हैं। विश्व में पुर्तगाल, चीन, यूनान व भारतीय संघ की कुछ। इकाइयों में एक सदनीय विधानमण्डल की व्यवस्था है।

द्विसदनीय व्यवस्थापिका:
द्विसदनीय व्यवस्थापिका में व्यवस्थापिका के दो सदन होते हैं – द्विसदनीय विधानमण्डल की प्रथा सर्वप्रथम ब्रिटेन में प्रचलित हुई। वर्तमान में यह संवैधानिक परंपरा-सी बन गई है। संयुक्त राज्य अमेरिका, स्विट्जरलैण्ड, फ्रांस, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, जापान, भारत, रूस आदि देशों में द्विसदनीय व्यवस्थापिका है।

द्विसदनात्मक व्यवस्था के पक्ष में तर्क:
1. प्रथम सदन की निरंकुशता पर रोक – जहाँ एक सदनीय प्रणाली होती है वहाँ विधि निर्माण की समस्त शक्तियाँ उसे ही प्राप्त होती हैं। प्रथम सदन उन शक्तियों का प्रयोग बिना किसी बाधा के कर सकता है, जिससे यह सदन निरंकुश व स्वेच्छाचारी बन सकता है। द्वितीय सदन, प्रथम सदन को निरंकुश बनने से रोक सकता है।

2. जल्दबाजी में पारित कानूनों की रोकना – अपने हितों की रक्षा और मतदाताओं से वचन निभाने हेतु पहला सदन बिना सोचे समझे शीघ्रता से कानून पारित कर देता हैं तो दूसरा जल्दबाजी में पारित विधेयक को पुनर्विचार का अवसर प्रदान करता है। इस प्रकार ऐसे कानून के दोषों एवं त्रुटियों को दूर किया जा सकता है।

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3. लोकतान्त्रिक परम्परा के अनुरूप – यदि एक सदनात्मक व्यवस्थापिका है, तो एक सदन के हाथ में शक्ति केन्द्रित होती है, जिससे मानवीय स्वतन्त्रता को खतरा सम्भव है क्योंकि शक्ति व्यक्ति अथवा संस्था को भ्रष्ट बनाती है। द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका में शक्ति विकेन्द्रित होती है एवं समाज के सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व मिलता है।

4. प्रथम सदन की सहायता – राज्य के कार्यों में अत्यधिक वृद्धि हो जाने से प्रथम सदन सभी विधेयकों के साथ न्याय नहीं कर पाता। जनकल्याणकारी विधेयक को विचारपूर्वक पारित करने के लिए पर्याप्त समय और योग्यता की आवश्यकता होती है। व्यवस्थापिका के दो सदन होने से बढ़े हुए कार्य का विभाजन किया जा सकता है।

5. जनमत निर्माण में सहायक – एक सदन में विधेयक पारित हो जाने के बाद, दूसरे सदन में विधेयक पारित होने की प्रक्रिया में समय लगता है। इस प्रकार पास करने से पहले जनता को विधेयक के बारे में सोचने-विचारने का पर्याप्त समय मिल जाता है।

6. अनुभवी एवं कार्यकुशल – प्रथम सदन का आधार लोकप्रियता होने के कारण अनेक बार योग्य एवं कार्यकुशल व्यक्ति चुनाव नहीं जीत पाते हैं। ऐसे में देश को उनकी योग्यता से वंचित होना पड़ता है। द्वितीय सदन के होने पर योग्य एवं अनुभवी व्यक्तियों का उसका सदस्य बन जाने से देश लाभान्वित होता है।

7. संघात्मक व्यवस्था के अनुकूल – द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका में प्रथम सदन पूरे राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करंता है तो द्वितीय सदन प्रान्तीय इकाइयों का प्रतिनिधित्व करता है। द्वितीय सदन की सहमति के बिना प्रान्तीय इकाइयों के मौलिक स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं लाया जा सकता, इस प्रकार संघ की सभी इकाइयों के हित की रक्षा सम्भव हो सकती है।

द्विसदनात्मक व्यवस्था के विपक्ष में तर्क।

1. अलोकतान्त्रिक – लोकतन्त्रिक शासन व्यवस्था में सम्प्रभुता जनता में निवास में करती है और यह सम्प्रभुता अविभाज्य है। जनता द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचित सदन ही समस्त जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए प्रभुसत्ता भी एक सदन में ही निहित होनी चाहिए।

2. विलम्बकारी संस्था-द्वितीय सदन के विपक्ष में एक तर्क यह दिया जाता है कि यह अनावश्यक रूप से कानून के पारित होने में विलम्ब करता है। इसका परिणाम यह होता है कि कभी-कभी अच्छे कानून भी समय पर पारित नहीं हो पाते।

3.  संगठन की समस्या-विभिन्न देशों में दूसरे सदन का गठन विभिन्न परम्पराओं और सिद्धान्तों पर होता है। अधिकांश देशों में दूसरे सदन का गठन अप्रजातान्त्रिक है। इंग्लैण्ड में दूसरे सदन हाउस ऑफ लार्ड्स का संगठन वंशानुगत है और यह केवल कुलीन वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। भारत में द्वितीय सदन का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से होता है जो अनेक बार भ्रष्टाचार का कारण बनता है।

4. संघात्मक व्यवस्था के लिए अनावश्यक – संघात्मक व्यवस्था के लिए द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका आवश्यक नहीं है। दलीय अनुशासन के चलते द्वितीय सदन के सदस्य राज्यों के हितों की रक्षा के बजाए अपने – अपने राजनैतिक दलों के हितों का ध्यान रखते हैं।

5. अधिक खर्च – द्विसदनीय प्रणाली में अधिक खर्च आता है। दूसरे सदन के सदस्यों के वेतन, भत्ते व चुनाव पर भारी धनराशि खर्च होती है जिससे जनता पर करों का बोझ बढ़ता है।

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6. दोनों सदनों में संघर्ष की सम्भावना – द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका में प्रथम तथा द्वितीय सदन के बीच हमेशा संघर्ष की सम्भावना बनी रहती है। यह स्थिति तब और अधिक खतरनाक हो जाती है जब प्रतिनिधि सदन (प्रथम सदन या निम्न संदन) में तो सरकार के पास बहुमत हो लेकिन द्वितीय सदन या उच्च सदन में वह अल्पमत में हो।

प्रश्न 3.
व्यवस्थापिका के पतन के कारण बताइए।
उत्तर
व्यवस्थापिका के पतन के कारण”:
(1) कार्यपालिका के कार्यों में वृद्धि – लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा ने कार्यपालिका के कार्यों में अभूतपूर्व वृद्धि की है। कानून निर्माण, अधिक नियोजन व योजनाओं का संचालन कार्यपालिका का प्रमुख दायित्व बन गया है। विदेश नीति एवं राष्ट्र रक्षा नीति पर तुरन्त निर्णय व कार्यवाही की आवश्यकता ने भी इसके कार्यों में वृद्धि की है। वहीं व्यवस्थापिका की भूमिका में निरन्तर संकुचित हुई है।

(2) प्रदत्त व्यवस्थापिका – प्रदत्त व्यवस्थापिका की प्रथा के कारण विधायी क्षेत्र में व्यवस्थापिका की शक्तियों का प्रयोग कार्यपालिका करने लगी है। व्यवस्थापिका व्यवहार में समस्त कानून या कम – से – कम सभी महत्वपूर्ण कानून बनाने का कार्य भी नहीं करती, जबकि व्यवहार में कार्यपालिका ही अनेक कानून प्रदत्त व्यवस्थापन की प्रथा के अन्तर्गत बनाने लगी है।

(3) दलीय अनुशासन – दलीय अनुशासन ने आधुनिक व्यवस्थापिकाओं के अधिकार-क्षेत्र को सीमित कर दिया है। दलीय अनुशासन के कारण कार्यपालिका न केवल व्यवस्थापिका की शक्तियों का उपयोग करती है अपितु व्यवस्थापिका को ही नियन्त्रित करती है। इस कारण व्यवस्थापिका की भूमिका सीमित हो गई है।

(4) न्यायपालिका की भूमिका – न्यायपालिका की बढ़ती हुई भूमिका के कारण भी व्यवस्थापिका की शक्तियों में कमी आई है। भारत तथा संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे राज्यों में न्यायिक समीक्षा जैसी व्यवस्था ने व्यवस्थापिका की शक्ति को कमजोर किया है।

(5) संचार माध्यमों का प्रभाव – संचार माध्यमों का विकास व्यवस्थापिका के प्रभाव में कमी करने का प्रमुख कारण रहा है। आज कार्यपालिका, व्यवस्थापिका को विश्वास में लिए बिना संचार माध्यमों के द्वारा जन इच्छाओं का संकलन कर सकती है। संचार के साधनों के विकास ने कार्यपालिका प्रधान को सीधे जनता के समक्ष लाकर खड़ा कर दिया है। वह सीधे जनता से बात कर जनमत जान सकता है। भारत में ‘मन की बात’ कार्यक्रम कार्यपालिका व जनता के बीच संवाद का प्रभावी माध्यम बन गया है।

(6) अन्य कारण – उपर्युक्त के अतिरिक्त सेना पर नियन्त्रण, वैदेशिक मामलों में प्रमुखता, लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा, विषय विशेषज्ञों पर निर्भरता एवं व्यवस्थापिका में साधारण योग्यता वाले व्यक्तियों की बढ़ती संख्या आदि ने व्यवस्थापिका के महत्व में निरन्तर कमी की है।

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प्रश्न 4.
कार्यपालिका का अर्थ स्पष्ट करते हुए इसके प्रमुख कार्य बताइए।
उत्तर:
कार्यपालिकी का अर्थ:
कार्यपालिका सरकार का दूसरा महत्वपूर्ण अंग है। इसका मुख्य कार्य व्यवस्थापिका द्वारा बनाये हुए कानून को लागू करना है। कार्यपालिका शब्द का प्रयोग व्यापक व संकुचित दोनों अर्थों में किया जाता है। व्यापक अर्थ में इसमें राजनीतिक कार्यपालिका एवं स्थायी कार्यपालिका दोनों सम्मिलित हैं, जैसे-राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री और मन्त्रिपरिषद् तथा प्रशासनिक अधिकारियों का वह समूह जो राज्य की इच्छा को क्रियान्वित करने से सम्बन्ध रखता हो, आते हैं।

इसका संकुचित अर्थ मात्र राजनैतिक कार्यपालिका तक ही सीमित है। यह नीति निर्धारित करती है, योजना निर्माण करती है और कानून का कार्यान्वयन करती है। ब्रिटेन में संम्राट, प्रधानमन्त्री व उसका मन्त्रिमण्डल तो भारत में राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री एवं उसका मन्त्रिमण्डल राजनीतिक कार्यपालिका के उदाहरण हैं।

कार्यपालिका के प्रमुख कार्य:
(1) राजनयिक कार्य – कार्यपालिका के राजनीतिक कार्यों में प्रमुख हैं- अन्य देशों में राजपूतों की नियुक्ति, प्रतिनिधि मण्डल भेजना, विदेशी राजदूतों से भेंट, परराष्ट्र सम्बन्धों का संचालन, अन्य देशों से आर्थिक व राजनीतिक समझौते व सन्धियाँ, युद्ध व शान्ति सम्बन्धी कार्य इत्यादि । लोकतांत्रिक पद्धति में अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों के लिए व्यवस्थापिका की अनुमोदन आवश्यक है, जिसे कार्यपालिका ही अन्तिम रूप देकर प्रस्तुत करती है। व्यवस्थापिका की स्वीकृति से इन्हें कानूनी मान्यता मिल जाती है।

(2) प्रशासनिक कार्य – कार्यपालिका का मुख्य कार्य कानूनों को लागू करना और शान्ति बनाए रखना है। विभिन्न प्रशासनिक विभाग अपने विभाग सम्बन्धी कानूनों को लागू करते हैं। प्रत्येक विभाग का मुखिया एक मन्त्री होता है। कानून को वास्तव में लागू करने का कार्य राज्य कर्मचारियों का है जिनकी नियुक्ति लोक सेवा आयोग करती है। लोक सेवा आयोग के सदस्य कार्यपालिका द्वारा नियुक्त होते हैं। कार्यपालिका समस्त प्रशासनिक दायित्वों का निर्वहन करती है।

(3) विधायी कार्य – कार्यपालिका किसी-न-किसी रूप में व्यवस्थापिका के साथ विधि निर्माण के कार्यों में अवश्य भाग लेती है। संसदीय पद्धति वाले राज्यों में कार्यपालिका संसद का अधिवेशन बुलाने; सत्रावसान करने का अधिकार रखती है। यद्यपि कानून को स्वीकृति व्यवस्थापिका प्रदान करती है परन्तु विधेयक कों विचार हेतु प्रस्तावित करना तथा पारित कराना, किसी विधेयक को कानून बनने से रोकने इत्यादि में कार्यपालिका का योगदान रहता है।

(4) सैनिक कार्य – देश की सुरक्षा की जिम्मेदारी कार्यपालिका की होती है। कार्यपालिका प्रतिरक्षा विभाग के माध्यम से इस कार्य को पूर्ण करती है। लोकतान्त्रिक देशों में प्राय: राज्याध्यक्ष (राष्ट्रपति) को ही सशस्त्र सेनाओं का सेनापति स्वीकार किया जाता है। सेना के संगठन एवं अनुशासन सम्बन्धी नियम कार्यपालिका ही निर्मित करती है।

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(5) न्यायिक कार्य – न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका के अध्यक्ष (राष्ट्रपति) द्वारा की जाती है। भारत में राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करता है। यद्यपि इसके लिए संसद की स्वीकृति आवश्यक है। कई देशों में कार्यपालिका प्रमुख को अपराधियों को क्षमादान, दण्ड कम करने या समाप्त करने का भी अधिकार है। भारत में राष्ट्रपति, ब्रिटेन में महारानी और संयुक्त राज्य अमेरिका का राष्ट्रपति इन शक्तियों का प्रयोग करते हैं।

(6) वित्तीय कार्य – सिद्धान्ततः देश के समस्त आय – व्यय की स्वीकृति व्यवस्थापिका देती है, किन्तु व्यवहार में यह उत्तरदायित्व कार्यपालिका का है। ब्रिटेन व भारत में कार्यपालिका ही धन विधेयकों को संसद में प्रस्तुत करती है और बहुमत से पारित करवाती है। संयुक्त राज्य अमेरिका में बजट राष्ट्रपति के निर्देशन में तैयार होता है। यद्यपि इसे काँग्रेस पारित करती है। राष्ट्रीय कोष की समुचित व्यवस्था हेतु कार्यपालिका का एक वित्त विभाग होता है। जो प्रत्येक प्रशासनिक विभाग के आय-व्यय का निरीक्षण व नियन्त्रण करता है।

(7) अन्य कार्य – उपर्युक्त कार्यों के अतिरिक्त कार्यपालिका अन्य कार्य भी करती है, जो निम्नलिखित हैं

  • आर्थिक विकास हेतु योजनाओं का निर्माण करना।
  • ख्याति प्राप्त लोगों को उपाधियों का वितरण करना।
  • विदेशी नागरिकों को नागरिकता का अधिकार प्रदान करना।
  • विशेष सेवाओं के लिए आर्थिक सहायता प्रदान करना।
  • सभी के लिए शिक्षा एवं जन स्वास्थ्य की व्यवस्था करना।
  • सार्वजनिक क्षेत्र में उद्योगों का संचालन करना।

प्रश्न 5.
कार्यपालिका से आप क्या समझते हैं? इसके विभिन्न प्रकारों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
कार्यपालिका से आशय:
कार्यपालिका सरकार का वह महत्वपूर्ण अंग है जो व्यवस्थापिका द्वारा बनाए गए कानूनों को कार्यरूप में सम्पन्न करती है। राजनीति शास्त्र में कार्यपालिका शब्द का प्रयोग संकुचित तथा व्यापक इन दोनों अर्थों में लिया जाता है। व्यापक अर्थ में इसमें राजनीतिक कार्यपालिका एवं स्थायी कार्यपालिका दोनों सम्मिलित हैं, जैसे – राज्य का संवैधानिक अध्यक्ष (राष्ट्रपति), प्रधानमन्त्री और मन्त्रिपरिषद् तथा प्रशासनिक कर्मचारी व राज्य की इच्छा के कार्यान्वयन सम्बन्धी समस्त संस्थाएँ।

इसका संकुचित अर्थ मात्र राजनीतिक कार्यपालिका तक ही सीमित है, जो नीति निर्धारित करती है, योजनानिर्माण करती है और कानूनों का क्रियान्वयन करती है। ब्रिटेन में सम्राट, प्रधानमन्त्री व उसका मन्त्रिमण्डल। राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री व उसका मन्त्रिमण्डल राजनीतिक कार्यपालिका के उदाहरण हैं।

कार्यपालिका के प्रकार:
1. नाममात्र की कार्यपालिका – जब शासन अथवा राज्य का प्रधान नाममात्र का होता है एवं उसकी शक्तियों को प्रयोग वह नहीं करता बल्कि कोई दूसरा करता है तो वह नाममात्र की कार्यपालिका कहलाती है। संसदात्मक व्यवस्था में संविधान द्वारा सम्पूर्ण शक्तियाँ सम्राट या राष्ट्रपति को प्रदान की गई हैं।

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किन्तु इन शक्तियों का प्रयोग वह प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिमण्डल की सलाह पर ही करता है। भारत में राष्ट्रपति तथा इंग्लैण्ड में सम्राट के नाम पर ही शासन के समस्त कार्य सम्पादित किए जाते हैं किन्तु स्वयं उन्हें इन शक्तियों का प्रयोग करने की स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं है। वास्तव में कार्यपालिका शक्ति प्रधानमन्त्री और उनके मन्त्रिमण्डल के हाथ में होती है।

2. वास्तविक कार्यपालिका – जब राज्य को प्रधान नाममात्र का न होकर राज्य की समस्त शक्तियों का प्रयोग स्वयं करता है, तो उसे वास्तविक कार्यपालिका कहते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका का राष्ट्रपति तथा ब्रिटेन व भारत का प्रधानमन्त्री वास्तविक कार्यपालिका के उदारहण हैं।’

3. संसदीय कार्यपालिका – जहाँ कार्यपालिका प्रधान नाममात्र का हो तथा वास्तविक रूप में शक्तियों का प्रयोग प्रधानमन्त्री एवं उसका मन्त्रिमण्डल करता हो, उसे संसदीय कार्यपालिका कहते हैं। इसमें प्रधानमन्त्री एवं उनका मन्त्रिमण्डल अपने कार्यों के लिए व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी होते हैं तथा व्यवस्थापिका का कार्यपालिका पर पूर्ण नियन्त्रण रहता है। इंग्लैण्ड, फ्रांस एवं भारत संसदीय कार्यपालिका के प्रमुख उदाहरण हैं।

4. अध्यक्षात्मक कार्यपालिका – जब राष्ट्रपति वास्तविक शक्तियों का उपयोग करता है तथा अपने कार्यों के लिए व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होता है, तो उसे अध्यक्षात्मक कार्यपालिका कहते हैं। अध्यक्षात्मक कार्यपालिका में व्यवस्थापिका व कार्यपालिका एक – दूसरे से स्वतन्त्र होते हैं। ऐसी कार्यपालिका संयुक्त राज्य अमेरिका में विद्यमान है। राष्ट्रपति ही सम्पूर्ण शक्तियों का प्रयोग करता है।

5. एकल एवं बहुल कार्यपालिका – जहाँ कार्यपालिका शक्तियाँ एक व्यक्ति के हाथों में होती हैं, उसे एकल कार्यपालिका कहते हैं; जैसे – संयुक्त राज्य अमेरिका में सचिव (मन्त्रीगण) राष्ट्रपति के अधीनस्थ होते हैं। राष्ट्रपति का निर्णय अन्तिम होता है। जहाँ कार्यपालिका शक्तियाँ अनेक व्यक्तियों के पास होती हैं, उसे बहुल कार्यपालिका कहते हैं।

स्विट्जरलैण्ड में बहुल कार्यपालिका है, स्विट्जरलैण्ड में कार्यपालिका की शक्तियाँ एक संघीय परिषद् के पास हैं, जिनके सात सदस्य होते हैं, इनकी शक्तियाँ समान हैं। अध्यक्ष को शेष सदस्यों से अधिक शक्तियाँ प्राप्त नहीं होती।

6. सर्वाधिकारवादी कार्यपालिका – जब कोई एक व्यक्ति वैधानिक साधनों के बिना शक्ति के आधार पर सत्ता पर अधिकार कर लेता है, तो उसे सर्वाधिकारवादी या तानाशाही कार्यपालिका कहते हैं। उदाहरण के रूप में – पाकिस्तान में समय-समय पर तानाशाही कार्यपालिका देखने को मिलती है। मुसोलिनी व हिटलर तानाशाही सत्ता के प्रमुख उदाहरण हैं।

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प्रश्न 6.
कार्यपालिका के कार्यों में वृद्धि के कारणों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
कार्यपालिका के कार्यों में वृद्धि के कारण आधुनिक युग में अनेक तत्वों के प्रवृत्तियों ने कार्यपालिका की शक्तियों में अभूतपूर्व वृद्धि की है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद तो कार्यपालिका शक्ति का प्रधान केन्द्र बन गयी। जनकल्याणकारी राज्य की अवधारणा ने कार्यपालिका को सरकार के अन्य अंगों की तुलना में अधिक शक्तियाँ प्रदान की हैं। आज कार्यपालिका का प्रशासन पर सर्वव्यापी प्रभाव हो गया है। इसके जिम्मेदार कारणों को निम्नलिखित रूप में व्यक्त किया जा सकता है

1. राज्य के कार्यभार में वृद्धि – लोक कल्याणकारी एवं समाजवादी अवधारणा ने राज्य के कार्यभार में वृद्धि की है। समाजवादी राज्यों में सामाजिक और आर्थिक सुधारों की अधिकांश जिम्मेदारी कार्यपालिका निभा रही हैं। पुलिस व राज्य की भूमिका कम हुई है तथा राष्ट्रीय जीवन के अन्य क्षेत्रों में कार्यपालिका को हस्तक्षेप बढ़ा है। राज्य के वास्तविक प्रशासन के रूप में राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय, दोनों स्तरों पर कार्यपालिका के कार्यों में वृद्धि हुई है।

2.  प्रदत्त स्थापना – राज्य के कार्यों में वृद्धि से कानून निर्माण का कार्य न केवल बढ़ा है, अपितु जटिल हो गया है। जिससे व्यवस्थापिका ने स्वेच्छा से कानून निर्माण का कार्य कार्यपालिका के विभिन्न विभागों को सौंप दिया है, जिसे प्रदत्त व्यवस्थापन कहते हैं। इससे भी कार्यपालिका की शक्तियों में अभिवृद्धि हुई है।

3. व्यवस्थापिका की शक्तियों का ह्रास – वर्तमान युग की नवीन प्रवृत्तियों व जटिल चुनौतियों ने व्यवस्थापिका का स्वरूप ही परिवर्तित कर दिया है। आज राज्यं को अनेक जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इनके समाधान के लिए अधिक ज्ञान, अनुभव एवं योग्यता की आवश्यकता होती है। यह अनुभव कार्यपालिका के सदस्यों के पास होता है न कि व्यवस्थापिका के सामान्य योग्यता वाले सदस्यों के पास। अत: कार्यपालिका ने कुशल नेतृत्व एवं विशेषज्ञता के कारण व्यवस्थापिका को पीछे धकेलते हुए अनेक शक्तियाँ स्वयं हथिया ली हैं।

4.  लोक कल्याणकारी राज्य की धारणा – लोकतान्त्रिक युग में कार्यपालिका को लोक कल्याणकारी राज्य में भूमिका के निर्वहन हेतु व्यापक शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। जनकल्याणकारी राज्य द्वारा विविध क्षेत्रों में कार्यपालिका को नये दायित्व प्रदान किए गए हैं जिससे उनके कार्यों और शक्तियों में वृद्धि हुई है।

5. औद्योगिक प्रगति – आज का युग औद्योगिक प्रगति का युग है, जिसके फलस्वरूप राज्य के कार्यक्षेत्र में वृद्धि हुई है। अधिकांश प्रगतिशील देश आर्थिक नियोजन की पद्धति को अपना रहे हैं। औद्योगिक प्रगति ने राज्य को सामाजिक, आर्थिक एवं औद्योगिक कार्यों में संलग्न कर दिया है। इससे कार्यपालिका की शक्तियों में वृद्धि हुई है।

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प्रश्न 7.
न्यायपालिका का अर्थ स्पष्ट करते हुए उसके संगठन एवं कार्यों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
न्यायपालिका का अर्थ न्यायपालिका सरकार का तीसरा महत्वपूर्ण अंग है, जो समाज में प्रचलित विधि की व्याख्या करने तथा उसका उल्लंघन करने वाले व्यक्तियों को दण्डित करने की संस्थागत व्यवस्था है। न्यायपालिका उन व्यक्तियों का समूह है, जिन्हें विधि के अनुसार विवादों को हल करने का अधिकार प्राप्त होता है। न्यायपालिका अधिकारियों का एक ऐसा समूह है, जिसका कार्य राज्य की किसी विधि विशेष के अतिक्रमण सम्बन्धी शिकायत का समाधान अथवा निर्णय करना है।

न्यायपालिका का संगठन:
1. जनता द्वारा निर्वाचित न्यायाधीश – विश्व के कुछ देशों में न्यायाधीशों का निर्वाचन जनता द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली से होता है, जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका तथा स्विट्जरलैण्ड के कुछ केन्टस् लेकिन यह प्रणाली दोषपूर्ण है क्योंकि इसमें योग्य व्यक्तियों का निर्वाचन संदिग्ध है एवं न्यायाधीश दलबन्दी का शिकार भी हो सकते हैं।

2.  कार्यपालिका द्वारा नियुक्त न्यायपालिका अधिकांश देशों में न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका द्वारा होती है। इस व्यवस्था से राजनैतिक दलबन्दी पर रोक लगती है तथा योग्य व्यक्ति न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होते हैं, जो कानून के अनुसार निष्पक्ष होकर न्याय करते हैं। उदाहरण- भारत।

3.  व्यवस्थापिका द्वारा निर्वाचित न्यायपालिका – स्विट्जरलैण्ड के कुछ केन्ट्स तथा पूर्व सोवियत संघ में व्यवस्थापिका द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति की जाती रही है लेकिन इसमें भी न्यायपालिका का व्यवस्थापिका की कठपुतली बनने का खतरा है। इस व्यवस्था में न्यायधीशों की नियुक्ति योग्यता के आधार पर न होकर दलगत राजनैतिक मान्यताओं के आधार पर होने की सम्भावना होती है।

न्यायपालिका के कार्य:
(1) न्याय करना – न्यायपालिका का मुख्य कार्य देश की मूलभूत विधि के अनुसार न्यायिक कार्यों को सम्पन्न करना है। न्यायपालिका दीवानी, फौजदारी एवं सांविधानिक मुकदमों को सुनकर व्यक्तियों के आपसी विवादों तथा सरकार व नागरिकों के बीच हुए विवादों का निर्णय करती है। न्यायपालिका न्याय कर अपराधियों को दण्ड देने की व्यवस्था भी करती है।

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(2) संविधान की संरक्षक – संविधान की व्याख्या करने का अधिकार न्यायपालिका को ही प्राप्त है। यह संविधान में प्रतिपादित व्यवस्था एवं आदर्शों को यथावत रखकर संविधान के अनुसार कार्य करती है। संयुक्त राज्य अमेरिका तथा भारत में न्यायपालिका को संविधान की व्याख्या करने तथा न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार प्राप्त है।

(3) मौलिक अधिकारों की संरक्षक – न्यायपालिका ही व्यक्ति के मौलिक अधिकारों व स्वतन्त्रताओं की रक्षा करती है। यदि व्यक्तियों एवं सरकार द्वारा व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया जाता है तो उनकी रक्षा का दायित्व न्यायपालिका का होता है।

(4) संविधान एवं व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित विधि की व्याख्या – संविधान तथा व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित विधि की व्याख्या करना न्यायपालिका का प्रमुख कार्य है। विधि की जटिलता तथा अस्पष्टता के कारण व्याख्या का प्रश्न उत्पन्न होता है। न्यायपालिका उन विधियों की व्याख्या करती है जो स्पष्ट नहीं होतीं। न्यायपालिका द्वारा की गई व्याख्या अन्तिम व सर्वमान्य होती है।

(5) संघ राज्य विवादों का निपटारा – संघात्मक राज्य अवस्था में केन्द्र एवं राज्यों के मध्य शक्तियों का विभाजन संविधान द्वारा किया जाता है किन्तु अनेक बार केन्द्र और राज्यों में शक्तियों को लेकर विवाद उत्पन्न होता है, ऐसी स्थिति में समस्या के समाधान के लिए स्वतन्त्र और निष्पक्ष न्यायपालिका का होना नितान्त आवश्यक है।

(6) परामर्श सम्बन्धी कार्य – न्यायपालिका से यदि कार्यपालिका विधि व संविधान के जटिल प्रश्न पर परामर्श माँगती तो वह उसे परामर्श देने का कार्य भी न्यायपालिका करती है। भारत में यदि राष्ट्रपति आवश्यक समझे तो संवैधानिक विषयों अथवा सार्वजनिक महत्व के विषयों पर उच्चतम न्यायालय से परामर्श ले सकता है लेकिन वह उस परामर्श को मानने या न मानने को बाध्य नहीं है।

(7) प्रशासनिक कार्य – न्यायपालिका अपने प्रशासनिक ढाँचे को बनाए रखने के लिए भी आवश्यक कार्य सम्पन्न करती है। न्यायिक कर्मचारियों की नियुक्ति, पदोन्नति व स्थानान्तरण की कार्यवाही सम्बन्धी प्रक्रिया का निर्धारण व कार्य संचालन सम्बन्धी नियमों का निर्माण भी न्यायपालिका का ही कार्य है।

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(8) अन्य कार्य-उपर्युक्त कार्यों के अतिरिक्त न्यायपालिका द्वारा अन्य कार्य भी किए जाते हैं जिनमें प्रमुख हैं-

  • विवाह, तलाक एवं नागरिकता संबंधी प्रमाण – पत्र जारी करना
  • अपनी मानहानि करने पर किसी व्यक्ति को दण्डित करना
  • नाबालिकों के संरक्षकों की नियुक्ति करना
  • वसीयतनामों का प्रमाणीकरण करना
  • न्यायिक समीक्षा करना
  • सार्वजनिक सम्पत्ति के लिए न्यासी की नियुक्ति करना।
  • दिवालिया फर्म के लिए रिसीवर की नियुक्ति करना आदि।

प्रश्न 8.
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का आशय स्पष्ट करते हुए साधनों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता से आशय:
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता से आशय यह है कि न्यायपालिका के कार्य में व्यवस्थापिका और कार्यपालिका का कोई हस्तक्षेप न हो तथा उसके द्वारा की गयी कानून की व्याख्या को समुचित मान्यता मिले। हेमिल्टन के अनुसार, “किसी भी राज्य का कानून कितना ही अच्छा क्यों न हो, एक स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिका के बिना वह निष्प्राण है।”

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखने वाले साधन:
(1) न्यायाधीशों की नियुक्ति-न्यायपालिका की स्वतन्त्रता की प्रथम आवश्यकता न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया है। सम्पूर्ण विश्व में न्यायाधीशों की नियुक्ति की तीन विधियाँ प्रचलित हैं-

  • जनता द्वारा
  • व्यवस्थपिका द्वारा
  • कार्यपालिका द्वारा।

जनता द्वारा अथवा व्यवस्थापिका द्वारा न्यायाधाशों की नियुक्ति को ठीक वहीं माना गया है। इसका प्रमुख कारण यह है कि न्यायाधीशों के न्यायाधीश होने की अपेक्षा राजनीतिज्ञ होने का खतरा उत्पन्न हो जाएगा। इसलिए कार्यपालिका द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति के तरीके को श्रेष्ठ माना गया है। भारत में उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।

(2) न्यायाधीशों की योग्यताएँ – न्यायपालिका की स्वतन्त्रता हेतु न्यायाधीशों का योग्य, अनुभवी एवं प्रशिक्षित होना आवश्यक है। वे विधि के गम्भीर ज्ञाता, ईमानदार व निष्पक्ष हों। भारत में उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश वही व्यक्ति बन सकता है जो उच्च न्यायालय में कम-से-कम पाँच वर्ष न्यायाधीश या दस वर्ष अधिवक्ता रहा हो अथवा राष्ट्रपति की दृष्टि से प्रसिद्ध विधिवेत्ता हो।

(3) न्यायाधीशों का कार्यकाल – न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए न्यायाधीशों का कार्यकाल दीर्घ व निश्चित होना चाहिए, जिससे वे स्वतन्त्र, निष्पक्ष व निडर होकर कार्य कर सकें। दीर्घकाल होने से वे अपने भविष्य के प्रति निश्चिंत होकर सही अर्थों में अपने कर्तव्य का निर्वहन कर सकेंगे।

(4) पंर्याप्त वेतन भत्ते एवं पेंशन – न्यायाधीशों को समुचित वेतन, भत्ते तथा पेंशन की सुविधा उपलब्ध हो जिससे वे अपने पद की गरिमा के अनुसार जीवन स्तर को बनाये रख सके। उनके कार्यकाल में उनके वेतन-भत्ते कम नहीं किए जाने चाहिए।

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(5) कार्यपालिका से पृथकता – एक ही व्यक्ति के हाथ में कार्यकारी एवं न्यायिक शक्ति होने से न्याय के सिद्धान्त की उपेक्षा सम्भव है। न्यायपालिका को कार्यपालिका के बन्धनों से मुक्त रखा जाना आवश्यक है। भारत के संविधान में नीति निर्देशक तत्वों (अनु. 50) में यह अपेक्षा की गई है कि कार्यपालिका, न्यायपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप न करे। न्यायाधीशों के काम में कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका द्वारा तब तक हस्तक्षेप न किया जाए जब तक कि उनका आचरण एवं व्यवहार संविधान सम्मत है।

(6) सेवानिवृत्ति के बाद वकालत एवं नियुक्ति पर रोक – शक्ति के दुरुपयोग को रोकने के लिए आवश्यक है कि सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीश को वकालत करने से रोका जाए, कम – से – कम उस न्यायालय में अवश्य जहाँ वह न्यायाधीश रहा चुका है। साथ-ही-साथ यदि न्यायाधीश की नियुक्ति सेवानिवृत्ति के पश्चात् राजदूत, राज्यपाल या मन्त्री के रूप में की जाती है, तो सम्भावना रहेगी कि वह अपने सेवाकाल में कार्यपालिका के प्रति वफादार रहेगा।

परिणामतः सेवानिवृत्ति के निकट आते आते वह राज्य के प्रशासन से पुरस्कार पाने की इच्छा से न्याय के नैसर्गिक सिद्धान्त का उल्लंघन कर बैठेगा। न्यायाधीश को सेवानिवृत्ति के पश्चात् उचित पेंशन का प्रावधान हो तथा उसकी सेवाओं का उपयोग न्यायिक आयोग एवं न्यायाधिकरण में किया जाए। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि किसी देश में संविधान और शासन का मूल्यांकन उस देश की निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र न्यायपालिका द्वारा ही किया जा सकता है। स्वस्थ, निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र न्यायपालिका के अभाव में हम देश में एक अच्छे प्रशासन की कल्पना नहीं कर सकते।

प्रश्न 9.
न्यायिक पुनरावलोकन की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिए।
उत्तर:
न्यायिक पुनरावलोकन से आशय:
न्यायिक पुनरावलोकन न्यायालयों की वह शक्ति है, जिसके द्वारा वे व्यवस्थापिका और कार्यपालिका द्वारा किये गए कार्यों, विधियों तथा आदेशों की संवैधानिकता और वैधता का परीक्षण करती हैं और संविधान के प्रावधानों और विधि के मान्य सिद्धान्तों के विपरीत होने पर ऐसे कार्यों को अवैध और शून्य घोषित कर सकती हैं। न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के अधीन न्यायालय संविधान की व्याख्या करते हैं और कानूनों तथा प्रशासनिक आदेशों की वैधता तथा अवैधता का निर्णय करते हैं।

न्यायिक पुनरावलोकन का आधार:
संविधान का सिद्धान्त दो आधारों पर कार्य करता है-व्यवस्थापिका की सर्वोच्चता या संविधान की सर्वोच्चता। ब्रिटेन में व्यवस्थापिका सर्वोपरि है तथा उसे कानून निर्माण की असीमित शक्तियाँ प्राप्त हैं। जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका एवं ‘ भारत में संविधान की सर्वोच्चता’ है। भारतीय संविधान में शासन की सभी इकाइयों (केन्द्र तथा राज्य) को शक्तियाँ संविधान से प्राप्त होती हैं। शासक की कोई इकाई यदि अपनी शक्तियों का अतिक्रमण करती है तो न्यायपालिका को उसे अवैध घोषित करने का अधिकार दिया गया है।

न्यायिक पुनरावलोकन की आलोचना:
न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति ने व्यवस्थापिका के कार्य में न्यायपालिका के हस्तक्षेप की सम्भावनाओं को जन्म दिया है। न्यायिक पुनरावलोकन की निम्न आधार पर आलोचना की जाती है
(1) शक्ति पृथक्करण सिद्धान्त के प्रतिकूल – लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था में शासन के तीनों अंगों में सन्तुलन रखते हुए शक्ति पृथक्करण पर बल दिया गया है। न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति न्यायपालिका को व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप के अवसर उपलब्ध कराकर शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त की अवहेलना करती है।

(2) प्रगतिशीलता में बाधक – लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली में अन्तिम शक्ति जनता में निहित होती है। जनता की शक्ति का प्रतिनिधित्व संसद के द्वारा किया जाता है। लेकिन कई बार न्यायपालिका की न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति संसद द्वारा जनहितकारी कानूनों को अवैध घोषित कर प्रगतिशीलता में बाधा पहुँचाती है। भारत में भूमि सुधार कानून, प्रिवीपर्स की समाप्ति, बैंकों के राष्ट्रीयकरण जैसे लोक कल्याणकारी कानूनों को समाप्त किया जाना इसका उदाहरण है।

(3) विरोधाभासी निर्णय – न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का प्रयोग करते समय न्यायालय समय-समय पर अपने पूर्व में दिए निर्णयों में बदलाव कर परस्पर विरोधाभासी स्थिति को जन्म देते हैं। उनकी नीतियों एवं निर्णयों में एकरूपता का अभाव पाया जाता है। इससे संवैधानिक कानून सम्बन्धी भ्रान्तियाँ पैदा हो जाती हैं। न्यायाधीशों के निर्णय विशुद्ध वैधता पर आधारित न होकर उनकी व्यक्तिगत मान्यताओं पर आधारित होते हैं।

उदाहरण के रूप में भारत में सन् 1952 एवं 1965 में संसद द्वारा मौलिक अधिकारों को सीमित तथा संशोधित करने की शक्ति को सही ठहराया गया, किन्तु सन् 1967 में गोलकनाथ विवाद में कहा गया कि संसद मौलिक अधिकारों को सीमित नहीं कर सकती। ऐसी स्थिति अनेक बार न्यायधीशों को स्वेच्छाचारी होने तथा अपने सामाजिक राजनैतिक सम्बन्धों को थोपने का अवसर प्रदान करती है।

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(4) न्यायपालिका की सर्वोच्चता का समर्थन-न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति ने संविधान की सर्वोच्चता की अपेक्षा न्यायिक सर्वोच्चता का सिद्धान्त स्थापित कर दिया है। यह शक्ति लोकतान्त्रिक दृष्टि से पूर्णत: अनुचित है। व्यवस्थापिका जनता की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करती है। अत: उसके द्वार जनकल्याण के लिए लाये गये कानून के औचित्य की समीक्षा करना न्यायपालिका को सर्वोच्चता प्रदान करता है जो उचित नहीं है।

उपर्युक्त आलोचना के बावजूद निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि भारत में न्यायिक पुनरावलोकन की व्यवस्था ने संघात्मक शासन व्यवस्था को स्थिरता प्रदान की है। संविधान की रक्षा, नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा एवं शासन की शक्तियों को मर्यादित करने में न्यायिक पुनरावलोकन की भूमिका अति महत्वपूर्ण है।

RBSE Class 11 Political Science Chapter 11 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
राज्य की इच्छा की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है
(अ) न्यायपालिका
(ब) व्यवस्थापिका
(स) कार्यपालिका
(द) संचार माध्यम।
उत्तर:
(अ) न्यायपालिका

प्रश्न 2.
विपक्ष का सर्वाधिक शक्तिशाली उच्च सदन है
(अ) सीनेट
(ब) हाउस ऑफ लाड्र्स
(स) राज्यसभा
(द) लोकसभा।
उत्तर:
(ब) हाउस ऑफ लाड्र्स

प्रश्न 3.
द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका के आलोचकों के मत में यह
(अ) विलम्बकारी संस्था।
(ब)-प्रतिक्रियावादी सदन
(स) सम्प्रभुता सिद्धान्त विरोधी
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 4.
व्यवस्थापिका के कार्यपालिका पर प्रभावी नियन्त्रण का साधन है
(अ) प्रश्न पूछकर
(ब) काम रोको प्रस्ताव
(स) ध्यानाकर्षण प्रस्ताव
(द) अविश्वास प्रस्ताव।
उत्तर:
(द) अविश्वास प्रस्ताव।

प्रश्न 5.
वंशानुगत कार्यपालिका का उदाहरण है?
(अ) भारत
(ब) अमेरिका
(स) इंग्लैण्ड
(द) फ्रांस।
उत्तर:
(स) इंग्लैण्ड

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प्रश्न 6.
“कार्यपालिका वह धुरी है जिसके चारों ओर प्रशासन तन्त्र घूमता है” कथन किसका है?
(अ) गार्नर
(ब) फाइनर
(स) लास्की
(द) गिल क्राइस्ट।
उत्तर:
(अ) गार्नर

प्रश्न 7.
कानून का पालन कराने की प्रमुख जिम्मेदार संस्था है
(अ) व्यवस्थापिका.
(ब) कार्यपालिका
(स) न्यायपालिका
(द) प्रेस।
उत्तर:
(ब) कार्यपालिका

प्रश्न 8.
अध्यक्षात्मक कार्यपालिका है
(अ) स्विट्जरलैण्ड
(ब) इंग्लैण्ड।
(स) भारत।
(द) अमेरिका।
उत्तर:
(द) अमेरिका।

प्रश्न 9.
बहुल कार्यपालिका का उदाहरण है
(अ) भारत
(ब) स्विट्जरलैण्ड
(स) इंग्लैण्ड
(द) अमेरिका।
उत्तर:
(ब) स्विट्जरलैण्ड

प्रश्न 10.
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए आवश्यक है?
(अ) न्यायाधीशों की जनता द्वारा नियुक्ति
(ब) अल्प कार्यकाल
(स) महाभियोग की सरल प्रक्रिया
(द) निश्चित एवं दीर्घ कार्यकाल।
उत्तर:
(द) निश्चित एवं दीर्घ कार्यकाल।

प्रश्न 11.
कानून की व्याख्या का काम है?
(अ) कार्यपालिका का
(ब) नौकरशाही का
(स) न्यायपालिका का
(द) व्यवस्थापिका का।
उत्तर:
(स) न्यायपालिका का

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प्रश्न 12.
“न्यायदीप ही अन्धकार में विलीन हो जाए तो अन्धकार की गहनता का क्या अनुमान लगाया जा सकता है” कथन है
(अ) लार्ड ब्राइस का
(ब) लास्की का
(स) मेरियट का
(द) गार्नर का।
उत्तर:
(अ) लार्ड ब्राइस का

प्रश्न 13. न्यायपालिका का मूल कार्य है
(अ) कानून निर्माण
(ब) कानून के अनुसार न्याय
(स) कानून का क्रियान्वयन
(द) प्रधानमन्त्री की नियुक्ति।
उत्तर:
(ब) कानून के अनुसार न्याय

प्रश्न 14.
संघ राज्यों के मध्य विवाद का निपटारा होता है
(अ) संसद में
(ब) सर्वोच्च न्यायालय में
(स) विधानमण्डल में
(द) राष्ट्रपति द्वारा
उत्तर:
(ब) सर्वोच्च न्यायालय में

RBSE Class 11 Political Science Chapter 11 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

RBSE Class 11 Political Science Chapter 11 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
“सरकार एक ऐसा संगठन है जिसके माध्यम से राज्य अपनी इच्छा प्रकट करता है।” यह कथन किसका है
(अ) गार्नर का
(ब) लास्की का
(स) अब्राहम लिंकन का
(द) पी. एन. भगवती को।
उत्तर:
(अ) गार्नर का

प्रश्न 2.
किस देश की संसद ‘संसदों की जननी’ कहलाती है
(अ) संयुक्त राज्य अमेरिका
(ब) भारत
(स) चीन
(द) ब्रिटेन।
उत्तर:
(द) ब्रिटेन।

प्रश्न 3.
संयुक्त राज्य अमेरिका की व्यवस्थापिका को किस नाम से जाना जाता है?
(अ) संसद
(ब)काँग्रेस
(स) डायट
(द) पार्लियामेंट।
उत्तर:
(ब)काँग्रेस

प्रश्न 4.
जापान की व्यवस्थापिका कहलाती है
(अ) संसद
(ब) काँग्रेस
(स) पार्लियामेंट
(द) डायट।
उत्तर:
(द) डायट।

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प्रश्न 5.
भारत की व्यवस्थापिका का नाम है
(अ) काँग्रेस
(ब) पार्लियामेंट
(स) संसद
(द) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(स) संसद

प्रश्न 6.
व्यवस्थापिका का मुख्य कार्य है
(अ) कानून निर्माण
(ब) वित्तीय कार्य.
(स) न्यायिक कार्य
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 7.
केन्द्रीय वित्त पर पूर्ण नियन्त्रण होता है..
(अ) कार्यपालिका का
(ब) व्यवस्थापिका का
(स) न्यायपालिका का
(द) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(ब) व्यवस्थापिका का

प्रश्न 8.
संविधान संशोधन सम्बन्धी कार्य करती है’
(अ) न्यायपालिका
(ब) कार्यपालिका
(स) व्यवस्थापिका
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(स) व्यवस्थापिका

प्रश्न 9.
भारत में व्यवस्थापिका का प्रथम सदन कहलाता है
(अ) लोकसभा
(ब) राज्यसभा
(स) सीनेट
(द) हाउस ऑफ लॉर्ड्स।
उत्तर:
(अ) लोकसभा

प्रश्न 10.
संयुक्त राज्य अमेरिका में व्यवस्थापिका का द्वितीय सदन कहलाता है
(अ) राज्यसभा
(ब) डायट
(स) सीनेट
(द) हाउस ऑफ कॉमन्स।
उत्तर:
(स) सीनेट

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प्रश्न 11.
“एक सदनीय व्यवस्थापिका उतावली और अनुत्तरदायी हो सकती है।” यह कथन है
(अ) लीकॉक का
(ब) लास्की का
(स) गार्नर को
(द) अरस्तू का।
उत्तर:
(अ) लीकॉक का

प्रश्न 12.
“यदि द्वितीय सदन, प्रथम सदन से सहमति प्रकट करता है, तो वह अनावश्यक है और यदि विरोध करता है तोशैतान।” यह कथन किसका है
(अ) फ्रैंकलिन का
(ब) एब्बेसीज का
(स) लास्की का
(द) ब्लंटशली का।
उत्तर:
(ब) एब्बेसीज का

प्रश्न 13.
द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका का जो गुण नहीं है, वह है
(अ) प्रथम सदन की निरंकुशता पर रोक
(ब) अनुभवी व कार्यकुशल
(स) लोकतान्त्रिक परम्परा के अनुरूप
(द) धन का अपव्यये
उत्तर:
(द) धन का अपव्यये

प्रश्न 14.
आधुनिक लोकतन्त्र में व्यवस्थापिका की भूमिका में कमी का मुख्य कारण है
(अ) दलीय अनुशासन
(ब) प्रदत्त व्यवस्थापन
(स) कार्यपालिका का प्रभाव
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 15.
प्रदत्त व्यवस्थापन के कारण सरकार के किस अंग के कार्यों में वृद्धि हुई है?
(अ) व्यवस्थापिका
(ब) कार्यपालिका
(स) न्यायपालिका
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(ब) कार्यपालिका

प्रश्न 16.
शासन में कानून का कार्यान्वयन करने वाला अंग कहलाता है
(अ) व्यवस्थापिका
(ब) कार्यपालिका
(स) न्यायपालिका
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(ब) कार्यपालिका

प्रश्न 17.
भारत में नाममात्र की कार्यपालिका का उदाहरण है
(अ) राष्ट्रपति
(ब) प्रधानमन्त्री
(स) मन्त्री
(द) मुख्यमन्त्री
उत्तर:
(अ) राष्ट्रपति

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प्रश्न 18.
संयुक्त राज्य अमेरिका का राष्ट्रपति निम्न में से कार्यपालिका के किस रूप का उदाहरण है
(अ) नाममात्र की कार्यपालिका
(ब) वास्तविक कार्यपालिका
(स) संसदात्मक कार्यपालिका
(द) एकल कार्यपालिका।
उत्तर:
(ब) वास्तविक कार्यपालिका

प्रश्न 19.
निम्न में से संसदात्मक कार्यपालिका को उदाहरण नहीं है
(अ) संयुक्त राज्य अमेरिका
(ब) भारत
(स) फ्रांस
(द) इंग्लैण्ड।
उत्तर:
(अ) संयुक्त राज्य अमेरिका

प्रश्न 20.
निम्न में से एकल कार्यपालिका का उदाहरण नहीं है
(अ) संयुक्त राज्य अमेरिका
(ब) भारत
(स) स्विट्जरलैण्ड
(द) इंग्लैण्ड।
उत्तर:
(स) स्विट्जरलैण्ड

प्रश्न 21.
कार्यपालिका का मुख्य कार्य है
(अ) आन्तरिक प्रशासन
(ब) राजनयिक कार्य
(स) वित्तीय कार्य
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 22.
जहाँ कार्यपालिका शक्ति अन्तिम रूप से एक व्यक्ति में निहित होती है, उसे कहते हैं
(अ) बहुल कार्यपालिका
(ब) एकल कार्यपालिका
(स) संसदात्मक कार्यपालिका
(द) अध्यक्षात्मक कार्यपालिका।
उत्तर:
(ब) एकल कार्यपालिका

प्रश्न 23.
किस शासन व्यवस्था में शासनाध्यक्ष वास्तविक कार्यपालिका होता है?
(अ) अध्यक्षात्मक
(ब) संसदात्मक
(स) एकात्मक
(द) बहुल
उत्तर:
(अ) अध्यक्षात्मक

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प्रश्न 24.
अध्यक्षात्मक कार्यपालिका का उदाहरण है
(अ) भारत
(ब) संयुक्त राज्य अमेरिका
(स) फ्रांस
(द) इंग्लैण्ड
उत्तर:
(ब) संयुक्त राज्य अमेरिका

प्रश्न 25.
स्विट्जरलैण्ड की कार्यपालिका उदाहरण है
(अ) बहुल कार्यपालिका का
(ब) एकल कार्यपालिका का
(स) नाममात्र की कार्यपालिका का।
(द) सर्वाधिकारवादी कार्यपालिका का।
उत्तर:
(अ) बहुल कार्यपालिका का

प्रश्न 26.
भारत का राष्ट्रपति एवं ब्रिटेन की महारानी उदाहरण हैं
(अ) बहुल कार्यपालिका का
(ब) संसदात्मक कार्यपालिका का
(स) नाममात्र की कार्यपालिका का
(द) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(स) नाममात्र की कार्यपालिका का

प्रश्न 27.
संसदात्मक कार्यपालिका की प्रमुख विशेषता है
(अ) संसद के प्रति उत्तरदायित्व
(ब) संसद के प्रति उत्तरदायित्व न होना
(स) एकल कार्यपालिका
(द) बहुल कार्यपालिका।
उत्तर:
(अ) संसद के प्रति उत्तरदायित्व

प्रश्न 28.
कार्यपालिका के कार्यों में वृद्धि का प्रमुख कारण है
(अ) राज्य के कार्यभार में वृद्धि
(ब) प्रदत्त व्यवस्थापन
(स) दलीय अनुशासन
(द) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 29.
शासन का कौन-सा अंग कानूनों की व्याख्या करता है?
(अ) न्यायपालिका
(ब) व्यवस्थापिका
(स) कार्यपालिका
(द) नौकरशाही
उत्तर:
(अ) न्यायपालिका

प्रश्न 30.
“न्यायपालिका के अभाव में एक सभ्य राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती है।” यह कथन है
(अ) प्रो. लास्की का
(ब) प्रो. गार्नर का
(स) ब्लंटशली का
(द) प्लेटो का
उत्तर:
(ब) प्रो. गार्नर का

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प्रश्न 31.
निम्न में से किस देश में जनता न्यायाधीशों को चुनती है?
(अ) भारत
(ब) संयुक्त राज्य अमेरिका
(स) जापान
(द) श्रीलंका
उत्तर:
(ब) संयुक्त राज्य अमेरिका

प्रश्न 32.
न्यायाधीशों को चुनने की सर्वश्रेष्ठ विधि है-
(अ) जनता द्वारा निर्वाचन
(ब) व्यवस्थापिका द्वारा निर्वाचन
(स) कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति
(द) राजनीतिक दलों द्वारा नियुक्ति
उत्तर:
(स) कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति

प्रश्न 33.
न्यायपालिका का मुख्य कार्य है.
(अ) न्याय करना।
(ब) संविधान का संरक्षण
(स) परामर्श सम्बन्धी कार्य
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 34.
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता से आशय है
(अ) न्यायाधीशों की नियुक्ति
(ब) न्यायाधीशों का कम वेतन
(स) प्रशासनिक कार्य
(द) बिना दबाव के निष्पक्ष व स्वतन्त्र कार्य।
उत्तर:
(द) बिना दबाव के निष्पक्ष व स्वतन्त्र कार्य।

प्रश्न 35.
‘एलीमेंट्स ऑफ पॉलिटिक्स’ नामक पुस्तक के लेखक हैं
(अ) हैमिल्टन
(ब) गार्नर
(स) लास्की
(द) ब्लंटशली।
उत्तर:
(अ) हैमिल्टन

प्रश्न 36.
न्यायिक पुनरावलोकन का सर्वप्रथम प्रयोग किस देश में हुआ?
(अ) चीन में
(ब) भारत में
(स) संयुक्त राज्य अमेरिका में
(द) इंग्लैण्ड में।
उत्तर:
(स) संयुक्त राज्य अमेरिका में

प्रश्न 37.
न्यायिक पुनरावलोकन का सम्बन्ध है
(अ) कार्यपालिका से
(ब) न्यायपालिका से
(स) व्यवस्थापिका से
(द) उपर्युक्त सभी से।
उत्तर:
(ब) न्यायपालिका से

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प्रश्न 38.
“न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के कारण सर्वोच्च न्यायालय काँग्रेस का तीसरा सदन बन गया है। प्रो. लास्की का यह कथन किस देश के सन्दर्भ में है
(अ) भारत
(ब) चीन
(स) जापान
(द) संयुक्त राज्य अमेरिका
उत्तर:
(द) संयुक्त राज्य अमेरिका

प्रश्न 39.
न्यायिक पुनरावलोकन का मुख्य दोष है
(अ) शक्ति पृथक्करण सिद्धान्त के प्रतिकूल होना
(ब) विरोधाभासी निर्णय
(स) प्रगतिशीलता में बाधक
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 40.
निम्न में से कौन-सा न्यायिक पुनरावलोकन का महत्व नहीं है
(अ) संविधान की रक्षा
(ब) संघात्मक शासन की स्थिरता
(स) मौलिक अधिकारों की रक्षा
(द) अलोकतान्त्रिक।
उत्तर:
(द) अलोकतान्त्रिक।

प्रश्न 41.
भारत में न्यायिक सक्रियता को प्रारम्भ करने का श्रेय दिया जाता है
(अ) पी.एन. भगवती को
(ब) पी. बी. सावंत को
(स) एच. आर. खन्ना को
(द) उपर्युक्त सभी को।
उत्तर:
(अ) पी.एन. भगवती को

प्रश्न 42.
न्यायिक सक्रियता के लिए उत्तरदायी तत्व है
(अ) कार्यपालिका की कर्तव्य विमुखता
(ब) अत्यधिक भ्रष्टाचार
(स) न्यायिक पुनरावलोकन
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी।

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RBSE Class 11 Political Science Chapter 11 अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
सरकार के तीन अंग कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
सरकार के तीन अंग हैं-

  1. व्यवस्थापिका
  2. कार्यपालिका
  3. न्यायपालिका।

प्रश्न 2.
व्यवस्थापिका से क्या आशय है? अथवा विधायिका क्या है?
उत्तर:
व्यवस्थापिका (विधायिका) से आशय सरकार के उस अंग से है जो राज्य की इच्छा को कानून में परिवर्तित करता है।

प्रश्न 3.
राज्य की आत्मा किसे कहा जाता है?
उत्तर:
सरकार को।

प्रश्न 4.
व्यवस्थापिका के प्रमुख कार्य कौन-कौन से हैं?
उत्तर:

  1. विधि निर्माण करना
  2. कार्यपालिका पर नियन्त्रण करना
  3. वित्त पर नियन्त्रण करना।

प्रश्न 5.
विश्व की प्रथम लोकतान्त्रिक संसद किस देश की है?
उत्तर:
ब्रिटेन की।

प्रश्न 6.
किस देश की संसद को ‘संसदों में जननी’ कहा जाता है?
उत्तर:
ब्रिटेन की संसद को।

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प्रश्न 7.
प्रो. गार्नर के अनुसार व्यवस्थापिका (विधायिका) क्या है?
उत्तर:
प्रो. गार्नर के अनुसार, “अनेक अंगों में जिनके माध्यम से राज्य की इच्छा अभिव्यक्त होती है तथा लागू की जाती है; विधायिका का स्थान निर्विवाद रूप से सर्वोच्च है।”

प्रश्न 8.
लोकतन्त्र में व्यवस्थापिका को ‘जन इच्छा को मूर्त रूप’ और ‘राष्ट्र का दर्पण’ क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
लोकतन्त्र में व्यवस्थापिका जनता की प्रतिनिधि सभा होती है। यह जनता का वास्तविक प्रतिनिधित्व करती है। इसलिए इसे जन इच्छा को मूर्त रूप और राष्ट्र का दर्पण कहा जाता है।

प्रश्न 9.
जापान में व्यवस्थापिका को किस नाम से जाना जाता है?
उत्तर:
डायट के नाम से।

प्रश्न 10.
संयुक्त राज्य अमेरिका की व्यवस्थापिका को किस नाम से पुकारा जाता है?
उत्तर:
काँग्रेस के नाम से।

प्रश्न 11.
व्यवस्थापिका के किन्हीं दो कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  1. राज्य का बजट पारित करना
  2. कर लगाना।

प्रश्न 12.
किस देश की व्यवस्थापिका का उच्च सदने (हाउस ऑफ लाड्र्स) उच्चतम अपीलीय न्यायालय का कार्य करता है?
उत्तर:
इंग्लैण्ड का।

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प्रश्न 13.
विश्व के किन्हीं दो देशों के नाम बताइए जहाँ राष्ट्रपति संसद द्वारा चुना जाता है?
उत्तर:

  1. फ्रांस
  2. चीन।

प्रश्न 14.
भारत में व्यवस्थापिका निर्वाचन सम्बन्धी कौन-सा कार्य करती है?
उत्तर:
राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का निर्वाचन।

प्रश्न 15.
विश्व के किस देश में राष्ट्रपति द्वारा की कई नियुक्ति एवं सन्धियों के प्रस्ताव पर सीनेट का अनुमोदन आवश्यक है?
उत्तर:
संयुक्त राज्य अमेरिका में।

प्रश्न 16.
विश्व के किस देश में सर्वोच्च कार्यपालिका पदाधिकारियों का निर्वाचन व्यवस्थापिका द्वारा किया जाता है?
उत्तर:
स्विट्जरलैण्ड में।

प्रश्न 17.
संगठन की दृष्टि से व्यवस्थापिका कितने प्रकार की होती है?
उत्तर:
संगठन की दृष्टि से व्यवस्थापिका दो प्रकार की होती है-

  1. एक सदनीय तथा
  2. द्विसदनीय।

प्रश्न 18.
एक सदनीय व्यवस्थापिका क्या है?
उत्तर:
एक सदनीय व्यवस्थापिका में एक ही सदन होता है और यह सदन प्रायः प्रतिनिधि सदन होता है अर्थात् । लोकतान्त्रिक देशों में इस सदन के सदस्य जनता प्रत्यक्ष रूप से स्वयं चुनती है।

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प्रश्न 19.
भारत में व्यवस्थापिका के दोनों सदनों का नाम लिखिए।
उत्तर:

  1. लोकसभा
  2. राज्यसभा।

प्रश्न 20.
व्यवस्थापिका के निम्न सदन के सदस्यों का निर्वाचन किसके द्वारा किया जाता है?
उत्तर:
जनता द्वारा।

प्रश्न 21.
द्विसदनीय व्यवस्थापिका में सामान्यतः कौन-सा सदन स्थायी सदन होता है?
उत्तर:
द्वितीय या उच्च सदन।

प्रश्न 22.
इंग्लैण्ड में व्यवस्थापिका के दोनों सदनों का नाम लिखिए।
उत्तर:

  1. हाउस ऑफ कॉमन्स
  2. हाउस ऑफ लाड्र्स।

प्रश्न 23.
संयुक्त राज्य अमरिका में व्यवस्थापिका के दोनों सदनों का नाम लिखिए।
उत्तर:

  1. हाउस ऑफ रिप्रजेन्टेटिव
  2. सीनेट।

प्रश्न 24.
भारत में प्रथम सदन / निम्न सदन / प्रतिनिधि सदन किसे कहा जाता है?
उत्तर:
लोकसभा को।

प्रश्न 25.
इंग्लैण्ड में प्रथम सदन / निम्न सदन / प्रतिनिधि सदन किसे कहा जाता है?
उत्तर:
हाउस ऑफ कॉमन्स को।

प्रश्न 26.
संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रथम सदन/निम्न सदन / प्रतिनिधि सदन किसे कहा जाता है?
उत्तर:
हाउस ऑफ रिप्रजेन्टेटिव्स को।

प्रश्न 27.
भारत में उच्च सदन / द्वितीय सदन / वरिष्ठ सदन किसे कहा जाता है?
उत्तर:
राज्यसभा को।

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प्रश्न 28.
इंग्लैण्ड में उच्च सदन / द्वितीय सदन / वरिष्ठ सदन किसे कहा जाता है?
उत्तर:
हाउस ऑफ लॉड्स को।

प्रश्न 29.
संयुक्त राज्य अमेरिका में उच्च सदन / द्वितीय सदन / वरिष्ठ सदन किसे कहा जाता है?
उत्तर:
सीनेट को।

प्रश्न 30.
द्विसदनीय व्यवस्थापिका (विधायिका) के पक्ष में कोई दो तर्क दीजिए।
उत्तर:

  1. प्रथम सदन की निरंकुशता पर रोक
  2. जनमत निर्माण में सहायक।

प्रश्न 31.
द्विसदनीय व्यवस्थापिका के विपक्ष में कोई दो तर्क दीजिए।
उत्तर:

  1. संघात्मक व्यवस्थापिका के लिए अनावश्यक
  2. धन का अपव्यय।

प्रश्न 32.
व्यवस्थापिका के पतन के कोई दो कारण बताइए।
उत्तर:

  1. कार्यपालिका के कार्यों में वृद्धि
  2.  प्रदत्त व्यवस्थापन।

प्रश्न 33.
प्रदत्त व्यवस्थापन से क्या आशय है?
उत्तर:
व्यवस्थापिका कार्य के अधिकता के कारण अपने कार्यों का कुछ भाग कार्यपालिका को हस्तान्तरित कर देती है, जिससे कार्यपालिका भी कानून निर्माण का कार्य करने लगी है। इसे ही प्रदत्त व्यवस्थापन कहा जाता है।

प्रश्न 34.
प्रदत्त व्यवस्थापन किस देश की देन है?
उत्तर:
स्विट्जरलैण्ड की।

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प्रश्न 35.
कार्यपालिका के अन्तर्गत कौन – कौन सम्मिलित होते हैं?
उत्तर:
कार्यपालिका के अन्तर्गत राष्ट्राध्यक्ष के साथ-साथ शासन का प्रधान, मन्त्रिपरिषद् के सदस्य एवं प्रशासनिक अधिकारी सम्मिलित होते हैं।

प्रश्न 36.
व्यापक अर्थ में कार्यपालिका को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
व्यापक अर्थ में कार्यपालिका के अन्तर्गत राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री एवं उनके मन्त्रिपरिषद् के साथ-साथ राज्य की इच्छा को क्रियान्वित करने वाले प्रशासनिक अधिकारियों का समूह सम्मिलित होता है।

प्रश्न 37.
संकुचित अर्थ में कार्यपालिका को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
संकुचित अर्थ में कार्यपालिका के अन्तर्गत केवल राज्य एवं शासन के प्रधान एवं मन्त्रिमण्डल सम्मिलित। होता है।

प्रश्न 38.
भारत में कार्यपालिका का उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
भारत में राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री एवं उसका मन्त्रिमण्डल कार्यपालिका के उदाहरण हैं।

प्रश्न 39.
कार्यपालिका के मुख्यतः कितने भाग हैं?
उत्तर:
कार्यपालिका के मुख्यत दो भाग हैं-

  1. राजनैतिक कार्यपालिका
  2. स्थायी कार्यपालिका।

प्रश्न 40.
नाममात्र की कार्यपालिका के कोई दो उदाहरण दीजिए।
उत्तर:

  1. भारत
  2. इंग्लैण्ड।

प्रश्न 41.
वास्तविक, कार्यपालिका किसे कहते हैं?
उत्तर:
जब राज्य का प्रधान नाममात्र का न होकर राज्य की समस्त शक्तियों का प्रयोग स्वयं करता है, तो उसे वास्तविक कार्यपालिका कहते हैं। उदाहरण – संयुक्त राज्य अमेरिका का राष्ट्रपति।

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प्रश्न 42.
संसदीय कार्यपालिका किसे कहते हैं?
उत्तर:
जिस राज्य में कार्यपालिका का प्रधान नाममात्र का हो तथा वास्तविक रूप में शक्तियों का प्रयोग प्रधानमन्त्री और मन्त्रिमण्डल करता हो, तो उसे संसदात्मक कार्यपालिका कहते हैं।

प्रश्न 43.
संसदीय कार्यपालिका के कोई तीन उदाहरण दीजिए।
उत्तर:

  1. इंग्लैण्ड
  2. फ्रांस
  3. भारत

प्रश्न 44.
एकल कार्यपालिका किसे कहते हैं?
उत्तर:
जहाँ कार्यपालिका शक्तियाँ एक व्यक्ति के हाथों में होती हैं, उसे एकल कार्यपालिका कहते हैं। उदाहरण – संयुक्त राज्य अमेरिका का राष्ट्रपति

प्रश्न 45.
बहुल कार्यपालिका किसे कहते हैं?
उत्तर:
जहाँ कार्यपालिका शक्तियाँ. अनेक व्यक्तियों के पास होती हैं, उसे बहुल कार्यपालिका कहते हैं। उदाहरण-स्विट्जरलैण्ड की संघीय परिषद्।

प्रश्न 46.
सर्वाधिकारवादी अथवा तानाशाही कार्यपालिका किसे कहते हैं?
उत्तर:
जब कोई एक व्यक्ति वैधानिक साधनों के बिना शासन सत्ता पर अधिकार कर लेता है एवं निरंकुश हो जाता है तो उसे सर्वाधिकारवादी अथवा तानाशाही कार्यपालिका कहते हैं।

प्रश्न 47.
वंशानुगत कार्यपालिका से क्या आशय है?
उत्तर:
वंशानुगत कार्यपालिका उसे कहते हैं जहाँ राजा राज्य का अध्यक्ष होता है तथा उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र या पुत्री को राजसिंहासन पर बैठाया जाता है।

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प्रश्न 48.
निर्वाचित कार्यपालिका किसे कहते हैं?
उत्तर:
यदि कार्यपालिका शक्तियाँ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित व्यक्ति को सौंपी जाती हैं, तो उसे निर्वाचित कार्यपालिका कहते हैं।

प्रश्न 49.
निर्वाचित कार्यपालिका के कोई दो उदाहरण लिखिए
उत्तर:

  1. संयुक्त राज्य अमेरिका
  2. भारत।

प्रश्न 50.
राजनीतिक कार्यपालिका से क्या आशय है?
उत्तर:
राजनीतिक कार्यपालिका उसे कहते हैं जो राजनीतिक आधार पर कुछ समय के लिए चुनाव द्वारा नियुक्त की जाती है, जैसे– भारत में केन्द्र व राज्यों का मन्त्रिमण्डल।

प्रश्न 51.
स्थायी कार्यपालिका क्या है?
उत्तर:
स्थायी कार्यपालिका वह होती है जिसकी नियुक्ति शैक्षणिक एवं तकनीकी योग्यता के आधार पर स्थायी रूप से की जाती है।

प्रश्न 52.
कार्यपालिका के दो प्रमुख कार्य बताइए।
उत्तर:

  1. प्रशासनिक कार्य
  2. राजनीतिक कार्य।

प्रश्न 53.
कार्यपालिका के राजनयिक कार्यों को बताइए।
उत्तर:
राजदूतों की नियुक्ति, विदेशी राजदूतों से भेंट, वैदेशिक सम्बन्धों का संचालन, अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों एवं व्यापारिक समझौते, युद्ध एवं शान्ति की घोषणा आदि कार्यपालिका के राजनयिक कार्य हैं।

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प्रश्न 54.
कार्यपालिका के कोई दो सैन्य कार्य लिखिए।
उत्तर:

  1. सैन्य अधिकारियों की नियुक्ति
  2. आन्तरिक शान्ति की स्थापना हेतु सेना का सहयोग लेना।

प्रश्न 55.
कार्यपालिका के कार्यों में वृद्धि के कोई दो कारण बताइए।
उत्तर:

  1. राज्य के कार्यभार में वृद्धि
  2. दलीय अनुशासन।

प्रश्न 56.
सरकार का तीसरा एवं महत्वपूर्ण अंग कौन-सा है?
उत्तर:
न्यायपालिका।

प्रश्न 57.
न्यायपालिका से क्या आशय है?
उत्तर:
न्यायपालिका सरकार का वह अंग है जो समाज में प्रचलित विधि की व्याख्या करने एवं उसका उल्लंघन करने वालों को दण्डित करने की संस्थागत व्यवस्था है।

प्रश्न 58.
लोकतान्त्रिक सरकार एवं सर्वाधिकारवादी सरकार में भेद का आधार क्या है?
उत्तर:
न्यायपालिका की उपस्थिति।

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प्रश्न 59.
न्यायाधीशों के चयन के दो मुख्य तरीके कौन-कौन-से हैं?
उत्तर:

  1. व्यवस्थापिका द्वारा न्यायाधीशों का निर्वाचन
  2. कार्यपालिका द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति।

प्रश्न 60.
किन्हीं दो देशों के नाम लिखिए जहाँ जनता न्यायाधीशों का निर्वाचन करती है?
उत्तर:

  1. संयुक्त राज्य अमेरिका
  2. स्विट्जरलैण्ड।

प्रश्न 61.
किन्हीं दो देशों के नाम लिखिए जहाँ व्यवस्थापिका न्यायाधीशों का निर्वाचन करती है?
उत्तर:

  1. स्विट्जरलैण्ड
  2. पूर्व सोवियत संघ।

प्रश्न 62.
न्यायपालिका के किन्हीं दो कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  1. न्याय करना,
  2. मौलिक अधिकारों की रक्षा करना।

प्रश्न 63.
न्यायपालिका किस प्रकार नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा करती है?
उत्तर:
न्यायपालिका बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, उत्प्रेषण एवं अधिकार पृच्छा लेख द्वारा नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा करती है।

प्रश्न 64.
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता से अभिप्राय है कि न्यायपालिका के कार्य में व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका का कोई हस्तक्षेप न हो एवं उसके द्वारा की गई कानून की व्याख्या को पर्याप्त मान्यता प्राप्त हो।

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प्रश्न 65.
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को बनाये रखने के कोई दो उपाय लिखिए।
उत्तर:

  1. न्यायाधीशों की लम्बी व सुरक्षित पदावधि
  2. पर्याप्त वेतन भत्ते एवं पेंशन।

प्रश्न 66.
भारतीय संविधान के कौन-से अनुच्छेद में यह अपेक्षा की गई है कि कार्यपालिका, न्यायपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप न करे?
उत्तर:
अनुच्छेद 50 (नीति निर्देशक तत्वों) में।

प्रश्न 67.
न्यायिक पुनरावलोकन क्या है?
उत्तर:
न्यायालय द्वारा व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका के कानूनों एवं आदेशों की वैधता की जाँच कर उनको वैध व अवैध घोषित करने की शक्ति को न्यायिक पुनरावलोकन कहते हैं।

प्रश्न 68.
भारत एवं संयुक्त अमेरिका में न्यायिक पुनरावलोकन के स्वरूप में क्या अन्तर है?
उत्तर:
भारत में न्यायिक पुनरावलोकन का आधार विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया है, जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका आधार कानून की उचित प्रक्रिया है।

प्रश्न 69.
न्यायिक पुनरावलोकन की कोई दो उपयोगिता लिखिए।
उत्तर:

  1. मौलिक अधिकारों की रक्षा
  2. शासन शक्ति को मर्यादित करना।

प्रश्न 70.
न्यायिक पुनरावलोकन की आलोचना के दो बिन्दु लिखिए।
उत्तर:

  1. शक्ति पृथक्करण सिद्धान्त के प्रतिकूल होना
  2. प्रगतिशीलता में बाधक।

प्रश्न 71.
वर्तमान में भारत में किन तत्वों ने न्यायपालिका की नवीन भूमिका को प्रकट किया है?
उत्तर:

  1. न्यायिक सक्रियता
  2. जनहित याचिका।

प्रश्न 72.
न्यायिक सक्रियता से क्या आशय है?
उत्तर:
जब न्यायपालिका, व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका का द्वारा किए जा रहे मनमाने कार्यों के विरुद्ध दिशा-निर्देश जारी करती है, तो ऐसी कार्यवाही को न्यायिक सक्रियता कहा जाता है।

प्रश्न 73.
भारत में न्यायिक सक्रियता का प्रारम्भ कब, किसने तथा किस रूप में किया?
उत्तर:
भारत में सन् 1986 में माननीय मुख्य न्यायाधीश पी.एन. भगवती ने एक पोस्टकार्ड पर प्रेषित जनहित याचिका पर सुनवाई कर न्यायिक सक्रियता को प्रारम्भ किया था।

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प्रश्न 74.
न्यायिक सक्रियता की किन्हीं दो विषयवस्तुओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  1. भ्रष्टाचार
  2. कार्यपालिका की अकर्मण्यता व निष्क्रियता।

प्रश्न 75.
भारत में न्यायपालिका ने किन – किन क्षेत्रों में सक्रिय भूमिका नेभायी है?
उत्तर:
भारत में न्यायपालिका ने राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक एवं पर्यावरणीय क्षेत्रों में सक्रिय भूमिका निभायी है।

RBSE Class 11 Political Science Chapter 11 लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
व्यवस्थापिका के कोई दो कार्य बताइए।
उत्तर:
व्यवस्थापिका के कार्य-व्यवस्थापिका के दो कार्य निम्नलिखित हैं–
1. कार्यपालिका पर नियन्त्रण सम्बन्धी कार्य – व्यवस्थापिका, कार्यपालिका पर नियन्त्रण का कार्य भी करती है। संसदीय एवं अध्यक्षीय व्यवस्थाओं में यह भिन्न-भिन्न उपायों से नियन्त्रण का कार्य करती है। संसदीय प्रणाली में कार्यपालिका प्रत्यक्ष रूप से अपने कार्यों के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी है।

संसद कार्यपालिका से प्रश्न पूछकर, ध्यानाकर्षण, स्थागन, कटौती, निन्दा व अविश्वास प्रस्तावों आदि के द्वारा कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखते है। अध्यक्षात्मक शासन व्यवस्था में व्यवस्थापिका महाभियोग प्रस्ताव के द्वारा कार्यपालिका पर नियन्त्रण करती है। इसके अतिरिक्त वह नियुक्तियों के अनुमोदन, धन की स्वीकृति, सन्धियों व समझौतों की स्वीकृति आदि के द्वार कार्यपालिका पर नियन्त्रण लगाती है।

2. विदेश नीति पर नियन्त्रण – व्यवस्थापिका राज्य के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की देखभाल करती है। मन्त्रिमण्डल को अपनी विदेश नीति व्यवस्थापिका से स्वीकृत करवानी पड़ती है। लोकतान्त्रिक राज्यों में तो युद्ध व शान्ति की घोषणा व्यवस्थापिका द्वारा ही की जाती है। संयुक्त राज्य अमेरिका में सीनेट राष्ट्रपति द्वारा की गई सन्धियों को स्वीकृति भी देती है।

प्रश्न 2.
व्यवस्थापिका के संगठन को समझाइए।
उत्तर:
व्यवस्थापिका को संगठन – संगठन की दृष्टि से व्यवस्थापिका दो प्रकार की होती है
1. एक सदनीय व्यवस्थापिका-एक सदनीय व्यवस्थापिका में एक ही सदन होता है। यह सदन प्राय: प्रतिनिधि सदन होता है जिसके सदस्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं। इनका चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर होता है।

2. द्विसदनीय व्यवस्थापिका-द्विसदनीय व्यवस्थापिका में दो सदन होते हैं। प्रथम सदन को निम्न सदन कहा जाता है और द्वितीय सदन को उच्च सदन कहा जाता है। सामान्यत: प्रथम सदन का निर्वाचन जनता द्वारा वयस्क मताधिकार के आधार पर किया जाता है और द्वितीय सदन के गठन का कोई एक सुनिश्चित आधार नहीं है। सामान्यत: यह सदन समाज के विभिन्न वर्गों, हितों व संघ की इकाइयों का प्रतिनिधित्व करता है।

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प्रश्न 3.
व्यवस्थापिका की द्विसदनात्मक प्रणाली के पक्ष एवं विपक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
व्यवस्थापिका की द्विसदनात्मक प्रणाली के पक्ष में विपक्ष में तर्क-व्यवस्थापिका की द्विसदनात्मक प्रणाली के पक्ष में विपक्ष में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत हैं
(क) द्विसदनात्मक प्रणाली के पक्ष में तर्क-

  1. प्रथम सदन की निरंकुशता पर रोक
  2. लोकतान्त्रिक परम्परा के अनुरूप
  3. प्रथम सदन की सहायता
  4. जनमत निर्माण में सहायक
  5. अनुभवी एवं कार्यकुशल व्यक्तियों की सेवाओं का लाभ
  6. विवेकपूर्ण विचार का मंच
  7.  संघात्मक व्यवस्था के अनुकूल।
  8. जनमत निर्माण में सहायक।

(ख) द्विसदनात्मक प्रणाली के विपक्ष में तर्क-

  1.  अलोकतान्त्रिक व्यवस्था
  2.  संगठन की समस्या
  3.  धन का अपव्यय
  4.  दोनों सदनों में संघर्ष की सम्भावना
  5.  विलम्बकारी संस्था
  6. संघात्मक व्यवस्था के प्रतिकूल।

प्रश्न 4.
द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका के विपक्ष में कोई दो तर्क दीजिए।
उत्तर:
द्वि सदनात्मक व्यवस्थापिका के विपक्ष में तर्क – द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं
1. अलोकतान्त्रिक-लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था में सम्प्रभुता जनता में निवास में करती है तथा यह अविभाज्य है। जनता द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचित सदन ही सर्वसाधारण की इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है। इसके लिए प्रभुसत्ता भी एक सदन में ही निहित होनी चाहिए।

2. धन का अधिक व्यय – दो सदनों से राष्ट्रीय कोष पर अनावश्यक बोझ पड़ता है। दूसरे सदन के सदस्यों के वेतन, भत्ते व चुनाव पर धनराशि खर्च होती है जिससे जनता पर करों का बोझ बढ़ता है। द्वितीय सदन का लाभ उतना नहीं मिल पता जितना कि उस पर धन खर्च होता है। प्रो. लास्की के अनुसार, “आधुनिक राज्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति एक सदनात्मक व्यवस्थापिका से हो सकती है क्योंकि द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका में काम की पुनरावृत्ति होती है। समय नष्ट होता है और राष्ट्रीय कोष पर अनावश्यक भार पड़ता है।”

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प्रश्न 5.
द्विसदनात्मक विधायिका एक सदनात्मक व्यवस्थापिका से क्यों श्रेष्ठ है? कोई दो कारण बताइए।
उत्तर:
द्विसदनात्मक विधायिका निम्नलिखित कारणों से एक सदनात्मक व्यवस्थापिका से श्रेष्ठ है
1. एक सदन की निरंकुशता पर रोक – दूसरा सदन, प्रथम सदन की निरंकुशता एवं मनमानी पर रोक लगाता है। व्यवस्थापिका स्वेच्छाचारी एवं भ्रष्ट न हो, इसके लिए व्यवस्थापिका का द्विसदनीय होना आवश्यक है। द्वितीय सदन के होने से प्रथम सदन की स्वेच्छाचारिता पर स्वाभाविक रूप से रोक लगेगी। जैसा कि लीकॉक ने लिखा है कि “एक सदनात्मक व्यवस्थापिका उतावली और अनुत्तरदायी हो सकती है।”

2.  विवेकसम्मत पुनर्विचार की दृष्टि से श्रेष्ठ – पहला सदन जब जल्दबाजी में सम्यक् विचार किये बिना कानूनों को पारित कर देता है, तो दूसरे सदन में प्रथम सदन द्वारा पारित किये गये विधानों पर व्यापक तथा विवेक सम्मत ढंग से पुनर्विचार करने की पर्याप्त संभावना बनी रहती है।

प्रश्न 6.
व्यवस्थापिका के पतन से क्या आशय है? बताइए।
उत्तर:
व्यवस्थापिका के पतन से आशय – वर्तमान युग में व्यवस्थापिका की भूमिका में कमी हो रही है और इस प्रवृत्ति को व्यवस्थापिका का पतन कहा जाता है क्योंकि आधुनिक लोकतान्त्रिक राज्य की व्यवस्थापिका कार्यपालिका की तुलना में उतनी अधिक प्रभावशाली संस्था नहीं रही है, जितनी कि यह अतीत में हुआ करती थी।

के. सी. व्हेयर के अनुसार, “निरपेक्ष दृष्टिकोण से तो व्यवस्थापिका की शक्तियों में वृद्धि हुई है, किन्तु कार्यपालिका की तुलना में उसकी शक्तियाँ लगभग सभी आयामों में कम हुई हैं। इसके परिणामस्वरूप कार्यपालिका की तुलना में व्यवस्थापिका का महत्व कम होता जा रहा है। कार्यपालिका के बढ़ते प्रभाव, दलीय अनुशासन, प्रदत्त व्यवस्थापन, न्यायपालिका की भूमिका एवं संचार माध्यमों के प्रभाव ने व्यवस्थापिका के पतन में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है।

प्रश्न 7.
नाममात्र की कार्यपालिका एवं वास्तविक कार्यपालिका में क्या अन्तर है?
उत्तर:
नाममात्र की कार्यपालिका एवं वास्तविक कार्यपालिका में अन्तर – नाममात्र की कार्यपालिका एवं वास्तविक कार्यपालिका में निम्नलिखित अन्तर हैं
1. नाममात्र की कार्यपालिका – नाममात्र की कार्यपालिका में व्यावहारिक रूप से वास्तविक शक्तियाँ नहीं हो। सैद्धान्तिक रूप से या संवैधानिक रूप से यद्यपि उसे समस्त प्रशासनिक शक्तियाँ प्रदान कर दी जाती हैं। नाममात्र की कार्यपालिका का प्रधान राज्य का प्रधान होता है, शासन का नहीं। उदाहरण के लिए, भारत का राष्ट्रपति और इंग्लैण्ड का सम्राट नाममात्र की कार्यपालिका हैं। यहाँ वास्तविक रूप से शक्तियों का प्रयोग प्रधानमन्त्री के नेतृत्व में मन्त्रिपरिषद् करती है।

2. वास्तविक कार्यपालिका – वास्तविक कार्यपालिका में राज्य को प्रधान नाममात्र का न होकर राज्य की समस्त शक्तियों का प्रयोग स्वयं करता है। उदाहरण – संयुक्त राज्य अमेरिका का राष्ट्रपति।

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प्रश्न 8.
कार्यपालिका के किन्हीं तीन कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
कार्यपालिका के कार्य – कार्यपालिका के तीन प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं
1. विधायी कार्य – कार्यपालिका, व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित कानूनों को लागू करती है। वह संसद का अधिवेशन बुलाने, उसका उद्घाटन करने, उसका सत्रावसान करने तथा आवश्यकता पड़ने पर अध्यादेश जारी करती है। प्रदत्त व्यवस्थापन के कारण कार्यपालिका की विधि निर्माण शक्तियों में वृद्धि हुई है।

2. सैनिक कार्य – राज्याध्यक्ष सशस्त्र सेनाओं का प्रधान सेनापति होता है। सेना की सर्वोच्च कमान उसके हाथ में होती है। सैन्य अधिकारियों की नियुक्ति तथा युद्ध के आदेश आदि कार्य कार्यपालिका द्वारा किये जाते हैं।

3.  न्यायिक कार्य – प्रत्येक राज्य में कार्यपालिका कुछ न्यायिक कार्यों को भी सम्पन्न करती है जिनमें न्यायाधीशों की नियुक्ति तथा क्षमादांन जैसे कार्य शामिल हैं। भारत में उच्च तथा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है। भारत, ब्रिटेन तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के कार्यपालिका प्रधान को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए दण्ड को कम करने, समाप्त करने तथा अपराधियों को क्षमादान देने का अधिकार है।

प्रश्न 9.
वर्तमान में कार्यपालिका के कार्य एवं शक्तियों में वृद्धि के कोई तीन कारण लिखिए।
उत्तर:
कार्यपालिका के कार्य एवं शक्तियों में वृद्धि के कारण – वर्तमान समय में कार्यपालिका के कार्य एवं शक्तियों में वृद्धि के तीन प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं
1. राज्य के कार्यभार में वृद्धि-लोककल्याणकारी एवं समाजवादी राज्य की अवधारणा ने राज्य के कार्यभार में वृद्धि की है। समाजवादी राज्यों में सामाजिक और आर्थिक सुधारों की अधिकांश जिम्मेदारी कार्यपालिका निभा रही है।

2. प्रदत्त व्यवस्थापन – प्रदत्त व्यवस्थापन की व्यवस्था के तहत अनेक कारणों से व्यवस्थापिका ने स्वेच्छा से कानून निर्माण का कुछ कार्य कार्यपालिका के विभिन्न विभागों को सौंप दिया है इससे कार्यपालिका की शक्तियों में वृद्धि

3. औद्योगिक क्रान्ति – वर्तमान युग औद्योगिक क्रान्ति का युग है, जिसके फलस्वरूप राज्य के कार्यक्षेत्र में वृद्धि हुई है। अधिकांश प्रगतिशील देश आर्थिक नियोजन की पद्धति को अपना रहे हैं। औद्योगिक क्रान्ति ने राज्य को सामाजिक, आर्थिक एवं औद्योगिक कार्यों में संलग्न कर दिया है। इससे भी कार्यपालिका की शक्तियों में वृद्धि हुई है।

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प्रश्न 10.
कार्यपालिका के विधायी कार्य को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कार्यपालिका के विधायी कार्य – कार्यपालिका के विधायी कार्य शासन प्रणाली के स्वरूप पर निर्भर करते हैं। सभी प्रकार की शासन व्यवस्थाओं में कार्यपालिका को संसद का सत्र (अधिवेशन) बुलाने एवं स्थागित करने का अधिकार होता है। प्रथम सदन को भंग करने एवं वित्तीय विधेयक सहित समस्त महत्वपूर्ण विधेयकों को प्रस्तुत करने की अनुमति कार्यपालिका ही देती है।

इसकी स्वीकृति के बिना कोई भी विधेयक कानून नहीं बन सकता। प्रदत्त व्यवस्थापन ने कार्यपालिका की विधायी शक्ति में और अधिक वृद्धि की है। विशेष परिस्थिति में कार्यपालिका अध्यादेश भी जारी करती है, जिन्हें व्यवस्थापिका द्वारा बनाए गए कानून के समान ही महत्व प्राप्त होता है।

प्रश्न 11.
लोकतन्त्र में स्वतन्त्र न्यायपालिका के महत्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
लोकतन्त्र में स्वतन्त्र न्यायपालिका का महत्व:

  1. लोकतान्त्रिक शासन पद्धति स्वतन्त्र और निष्पक्ष न्यायपालिका पर ही टिकी हुई है। लोकतन्त्र के आधारभूत सिद्धान्तों-स्वतन्त्रता व समानता की रक्षा एक सक्रिय, सक्षम तथा स्वतन्त्र न्यायपालिका द्वारा ही सम्भव है।
  2. स्वतन्त्र न्यायपालिका विधि के शासन की स्थापना करती है। शासन की निरंकुशता को रोकती है तथा नागरिकों के अधिकारों व स्वतन्त्रताओं की रक्षा करती है।
  3. स्वतन्त्र न्यायपालिका जहाँ एक ओर व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित कानूनों की व्याख्या करती है, वहीं परस्पर विवादों को निपटाकर न्याय भी प्रदान करती है।
  4. स्वतन्त्र न्यायपालिका संघीय लोकतान्त्रिक राज्यों में केन्द्रीय एवं राज्य की सरकारों के मध्य उत्पन्न विवादों को निपटाकर संविधान की पवित्रता की रक्षा करती है। यह संविधान की व्याख्या तथा रक्षा का कार्य भी करती है।

प्रश्न 12.
न्यायपालिका के संगठन को बताइए।
उत्तर:
न्यायपालिका का संगठन:
1. जनता द्वारा निर्वाचित न्यायाधीश – विश्व के कुछ देशों में न्यायाधीशों का निर्वाचन जनता द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली से होता है। उदाहरण के रूप में, संयुक्त राज्य अमेरिका तथा स्विट्जरलैण्ड के कुछ केन्टस्। लेकिन यह प्रणाली दोषपूर्ण है क्योंकि इसमें योग्य व्यक्तियों का निर्वाचन संदिग्ध है। न्यायाधीश दलबन्दी के शिकार भी हो सकते हैं।

2. कार्यपालिका द्वारा नियुक्त न्यायाधीश – विश्व के अधिकांश देशों में न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका द्वारा होती है। इस व्यवस्था से राजनैतिक गुटबाजी पर रोक लगती है तथा योग्य व्यक्तियों को न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति प्रदान की जाती है। भारत में इसी प्रक्रिया द्वारा न्यायाधीश नियुक्त होते हैं।

3. व्यवस्थापिका द्वारा निर्वाचित न्यायाधीश – इस प्रकार की व्यवस्था में व्यवस्थापिका द्वारा न्यायाधीशों का निर्वाचन किया जाता है। स्विट्जरलैण्ड के कुछ केन्ट्स एवं पूर्व सोवियत संघ में व्यवस्थापिका द्वारा इसी प्रकार से न्यायाधीशों की नियुक्ति होती रही है। इस प्रणाली का सबसे बड़ा दोष यह है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति योग्यता के आधार पर न होकर दलगत राजनैतिक मान्यताओं के आधार पर हो सकती है, जिससे न्यायपालिका का व्यवस्थापिका की कठपुतली बनने की संभावना बढ़ जाती है।

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प्रश्न 13.
न्यायपालिका के प्रमुख कार्य संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
न्यायपालिका के मुख्य कार्य-न्यायपालिका के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं

  1. न्याय करना – न्यायपालिका का मुख्य कार्य देश की मूलभूत विधि के अनुसार न्यायिक कार्यों को सम्पन्न करना है। यह दीवानी, फौजदारी तथा संवैधानिक मुकदमों को सुनकर व्यक्तियों के आपसी विवादों व सरकार तथा नागरिकों के बीच हुए विवादों का निर्णय करती है तथा अपराधियों को दण्ड देने की व्यवस्था करती है।
  2.  विधि की व्याख्या करना – यह संविधान तथा व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित विधि की व्याख्या कर उनकी अस्पष्टता का निवारण करती है।
  3. संविधान तथा मौलिक अधिकारों की संरक्षक – यह व्यक्ति के मौलिक अधिकारों, स्वतन्त्रताओं तथा संविधान के संरक्षण का महत्वपूर्ण कार्य करती है।
  4. संघीय व्यवस्था की संरक्षक – न्यायपालिका ही संघीय शासन व्यवस्था में दो या दो से अधिक राज्यों या संघ, और राज्यों के क्षेत्राधिकार सम्बन्धी विवादों का भी निपटारा करती है।
  5. न्यायिक पुनरावलोकन – न्यायपालिका, व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका द्वारा किये गए कार्यों की संवैधानिकता और वैधता का परीक्षण करती है तथा उन्हें संविधान या विधि के सिद्धान्तों के विपरीत होने पर अवैध और शून्य घोषित करती है।

प्रश्न 14.
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता से अभिप्राय – न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ यह है कि वह अपने न्यायिक कार्यों को करने में कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका के नियन्त्रण से पूर्णतया मुक्त हो तथा न्यायाधीश अपना निर्णय अपने विवेक से दे सके। उन पर किसी भी प्रकार का दबाव न हो।

डॉ. गनर ने न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में कहा है कि, “यदि न्यायाधीशों में प्रतिभा, सत्यता और निर्णय देने की स्वतन्त्रता न हो, तो न्यायपालिका का सम्पूर्ण ढाँचा खोखला प्रतीत होगा और उस उद्देश्य की सिद्धि नहीं होगी, जिसके लिए उसका निर्माण किया गया है।” हेमिल्टन ने न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के महत्व के बारे में लिखा है कि, “किसी भी राज्य का कानून कितना ही अच्छा क्यों न हो, एक स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिका के बिना वह निष्प्राण है।”

प्रश्न 15.
न्यायिक पुनरावलोकन का महत्व बताइए।
उत्तर:
न्यायिक पुनरावलोकन का महत्व:

  1. मौलिक अधिकारों की रक्षा – सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक पुनरावलोकन शक्ति के प्रयोग से व्यवस्थापिका और कार्यपालिका की निरंकुशता पर रोक लगाकर नागरिक स्वतन्त्रता एवं अधिकारों की रक्षा की है।
  2. संघात्मक ढाँचे की रक्षा – न्यायिक पुनरावलोकन द्वारा केन्द्र-राज्यों के बीच हुए शक्ति के बँटवारे की रक्षा सम्भव है। दोनों के मध्य तत्सम्बन्धी विवाद होने पर उनका सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निराकरण किया जा सकता है।
  3. शासन शक्ति को मर्यादित रखना – न्यायिक पुनरावलोकन ने शासन के प्रत्येक अंग का अधिकृत क्षेत्र में कार्य करना सुनिश्चित किया है।
  4. संविधान के गौरव की रक्षा – न्यायिक पुनरावलोकन के आधार पर ही न्यायालय संविधान के आधिकारिक व्याख्याता तथा रक्षक के रूप में कार्य करता है।
  5. संविधान का आधारभूत लक्षण – न्यायिक पुनरावलोकन को शक्ति संविधान का आधारभूत लक्षण है। संसद संविधान संशोधन द्वारा भी इस शक्ति को सीमित नहीं कर सकती।

प्रश्न 16.
न्यायिक पुनरावलोकन की आलोचना के दो बिन्दु लिखिए।
उत्तरे:
न्यायिक पुनरावलोकन की आलोचना के दो बिन्दु निम्नलिखित हैं
1. शक्ति पृथक्करण सिद्धान्त के प्रतिकूल – लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था में शासन के तीनों अंगों में सन्तुलन रखते हुए शक्ति पृथक्करण पर बल दिया गया है। न्यायिक पुनरावतीकन की शक्ति न्यायपालिका को व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप के अवसर उपलब्ध कराकर शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त की अवहेलना करती है।

2. प्रगतिशीलता में बाधक – लोकतन्त्र में अन्तिम शक्ति जनता में निहित होती है। संसद जनता की शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है। न्यायपालिका की न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति अनेक बार संसद द्वारा जनहितकारी कानूनों को अवैध घोषित कर प्रगतिशीलता में बाधा पहुँचाती है। भारत में भूमि सुधार कानून, प्रिवीपर्स की समाप्ति, बैंकों के राष्ट्रीयकरण जैसे लोक कल्याणकारी कानून को समाप्त कर दिया गया।

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प्रश्न 17.
न्यायिक सक्रियता के लिए उत्तरदायी तत्वों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
न्यायिक सक्रियता के लिए उत्तरदायी तत्व – जब न्यायपालिका, व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका द्वारा किए जा रहे मनमाने कृत्यों के विरुद्ध दिशा-निर्देश जारी करती है तो ऐसी कार्यवाही को न्यायिक सक्रियता के नाम से जाना जाता है। कार्यपालिका की अकर्मण्यता, निष्क्रियता एवं उदासीनता के कारण जन सामान्य को होने वाली हताशा ने न्यायिक सक्रियता को आवश्यक बना दिया है। न्यायिक सक्रियता के लिए उत्तरदायी तत्वों की संख्या निरन्तर बढ़ रही है, जिसमें प्रमुख निम्नलिखित हैं

  1. कार्यपालिका की कर्तव्य विमुखता व उत्तरदायित्व विमुखता,
  2. अत्यधिक भ्रष्टाचार,
  3. जनहित याचिका पद्धति,
  4. न्यायिक पुनरावलोकन,
  5. न्यायाधीशों की प्रखरता, निर्भीकता और कर्तव्य परायणता,
  6.  राजनीतिक नेतृत्व द्वारा की जाने वाली दूषित राजनीति,
  7. अस्थिर राजनीतिक परिदृश्य,
  8.  जनसामान्य का कार्यपालिका के प्रति घटता विश्वास व परिस्थितियों की व्यावहारिकता आदि

RBSE Class 11 Political Science Chapter 11 निबन्धात्मक प्रश्न:

प्रश्न 1.
न्यायिक पुनरावलोकन से आप क्या समझते हैं? इसके महत्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
न्यायिक पुनरावलोकन से अभिप्राय न्यायिक पुनरावलोकन सर्वोच्च न्यायालय को संविधान की रक्षा करने का अधिकार प्रदान करता है। यदि संघ तथा राज्यों की व्यवस्थापिका अपनी संवैधानिक मर्यादाओं का उल्लंघन करती हैं अथवा मौलिक अधिकारों में किसी प्रकार की कमी करती हैं तो संसद अथवा व्यवस्थापिका द्वारा बनाये गए ऐसे किसी भी कानून को सर्वोच्च न्यायालय अवैध घोषित कर सकता है।

साथ ही सर्वोच्च न्यायालय अपने पूर्व में दिए गए निर्णय की समीक्षा कर नये तथ्यों के आलोक में निर्णय परिवर्तित कर सकता है। एम. वी. पायली के अनुसार, “विधायी नियमों को संवैधानिक या असंवैधानिक घोषित करने की क्षमता ही न्यायिक पुनरावलोकन का सार तत्व है।” न्यायिक पुनरावलोकन का प्रारम्भ सर्वप्रथम संयुक्त राज्य अमेरिका में हुआ था। संयुक्त राज्य अमेरिका में न्यायिक पुनरावलोकन का आधार विधि की उचित प्रक्रिया है जब कि भारत में इसका आधारे विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ है।

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न्यायिक पुनरावलोकन का आधार – संविधान मुख्य रूप से दो आधारों पर कार्य करता है-

  1. व्यवस्थापिका की सर्वोच्चता के आधार पर
  2. संविधान की सर्वोच्चता के आधार पर।

ब्रिटेन में व्यवस्थापिका सर्वोच्च है और उसको कानून निर्माण की असीमित शक्तियाँ प्राप्त हैं जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका व भारत में संविधान की सर्वोच्चता है।. भारतीय संविधान में शासन की सभी इकाइयों तथा केन्द्र व राज्य को शक्तियाँ संविधान से प्राप्त होती हैं। शासन की कोई इकाई यदि अपनी शक्तियों का अतिक्रमण करती है, तो न्यायपालिका को उसे अवैध घोषित करने का अधिकार दिया गया है।

न्यायिक पुनरावलोकन का महत्व न्यायिक पुनरावलोकन का महत्व निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है–
1. मौलिक अधिकारों की रक्षा – सर्वोच्च न्यायालय ने इस शक्ति के प्रयोग से व्यवस्थापिका व कार्यपालिका की निरंकुशता पर रोक लगाकर नागरिकों के मौलिक अधिकारों एवं स्वतन्त्रता की रक्षा की है। यदि सर्वोच्च न्यायालय का नियन्त्रण न हो, तो नागरिकों के मौलिक अधिकार एवं स्वतन्त्रताएँ खतरे में पड़ सकती हैं।

2. संविधान की रक्षा – सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का सीमित मात्रा में ही प्रयोग किया है। सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हीं कानूनों को अवैध घोषित किया है जो वास्तव में संविधान के विरुद्ध थे। इस तरह से न्यायपालिका की इस शक्ति ने समय-समय पर संविधान की रक्षा की है।

3. संघात्मक शासन को स्थिरता – संघात्मक शासन की स्थिरता के लिए सर्वोच्च न्यायालय के पास न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का होना आवश्यक है। सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार संघीय सरकार को राज्य के कार्यों में हस्तक्षेप करने से रोका है। इस तरह न्यायिक पुनरावलोकन ने इकाइयों के अधिकारों की रक्षा कर संघात्मक शासन को सफल बनाया।

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4. शासन की शक्तियों को मर्यादित रखने का साधन – सर्वोच्च न्यायालय ने शासन के प्रत्येक अंग को एक-दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप करने से रोका है तथा क़िसी को तानाशाह बनने का मौका नहीं दिया है। शासन की शक्तियों को मर्यादित रखने में सर्वोच्च न्यायालय की न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति महत्वपूर्ण है।

प्रश्न 2.
वर्तमान समय में न्यायपालिका के स्वरूप एवं कार्यप्रणाली में आधुनिक प्रवृत्तियों के रूप में लोकहित याचिका तथा न्यायिक सक्रियता का उदय हुआ है। इनका विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर:
वर्तमान समय में न्यायपालिका के स्वरूप एवं कार्यप्रणाली में बहुत अधिक परिवर्तन आया है। न्यायपालिका के क्षेत्र में कई आधुनिक प्रवृत्तियों का उदय हुआ है जिनमें लोकहित (जनहित) याचिका एवं न्यायिक सक्रियता प्रमुख है।

इनका वर्णन निम्नानुसार है:
लोकहित (जनहित) याचिका – लोकहित (जनहित) याचिका से अभिप्राय ऐसी याचिकाओं से है जिन्हें सामान्य हित। में पीड़ित व्यक्ति के स्थान पर कोई भी अन्य व्यक्ति साधारण पोस्टकार्ड के माध्यम से वाद दायर कर सकता है। जिस पर न्यायालय तत्परता से विचार कर पीड़ित पक्ष को न्याय प्रदान करता है।

न्यायपालिका ने औपचारिकताओं से हटकर ऐसी, व्यवस्था प्रतिपादित की कि कोई भी व्यक्ति, जो उस विवाद से सम्बन्धित है अथवा नहीं, सार्वजनिक हित में पीड़ित व्यक्ति अथवा समूह की ओर से न्यायालय में याचिका भेज सकता है। जनहित याचिका के माध्यम से ही अभावग्रस्त, पीड़ित, शोषित और निर्धन व्यक्तियों के लिए न्याय सुलभ हो सका है।

इन याचिकाओं से जहाँ एक ओर न्यायपालिका की शक्ति में वृद्धि हुई है वहीं दूसरी ओर न्यायिक सक्रियता भी बढ़ी है। उदाहरण के रूप में ताजमहल को प्रदूषण से बचाने का विषय हो या हवाला कांड, कावेरी जल विवाद तथा दिल्ली में स्वच्छता जैसे विषयों में न्यायपालिका ने जनहितकारी याचिकाओं के माध्यम से ही महत्वपूर्ण निर्णय दिये हैं। इस प्रकार लोकहितवाद के माध्यम से न्यायालय ने समाज के कमजोर वर्गों को न्याय प्रदान करने के अवसर उपलब्ध कराया है। न्यायिक सक्रियता – न्यायिक सक्रियता को जन्म जनहित याचिकाओं के कारण ही हुआ है।

जब न्यायालय व्यवस्थापिका व कार्यपालिका द्वारा दिये जा रहे मनमाने कृत्यों के विरुद्ध दिशा – निर्देश जारी करता है तो ऐसी कार्यवाही को न्यायिक सक्रियता कहा जाता है। विगत कुछ वर्षों से न्याय के कुछ क्षेत्रों में ‘न्यायिक सक्रियता’ की प्रवृत्ति उजागर हुई है। इसके अन्तर्गत यह धारणा निहित है कि जन सामान्य के हित के दृष्टिकोण से आवश्यक होने पर शासन को निर्देश देना और शासन की स्वेच्छाचारिता पर रोक लगाना न्यायपालिका का दायित्व है। न्यायिक सक्रियता के आधार पर न्यायपालिका को निषेधात्मक भूमिका के साथ-साथ सकारात्मक भूमिका भी प्राप्त हो जाती है।

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न्यायिक सक्रियता का प्रारम्भ सन् 1986 से माना जाता है और इसका श्रेय माननीय पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री पी. एन. भगवती को जाता है। उन्होंने मात्र एक पोस्टकार्ड पर जनहित याचिका की सुनवाई की। न्यायपालिका की सक्रियता का आशय यह नहीं है कि पहले न्यायपालिका निष्क्रिय थी बल्कि न्यायपालिका ने संविधान द्वारा प्रदत्त समस्त शक्तियों का सक्रिय रूप से प्रयोग करके कार्यपालिका व व्यवस्थापिका को सही मार्ग दिखाया है।  मानवाधिकारों के युग में ‘न्यायिक सक्रियता’ कार्यपालिका की अकर्मण्यता के कारण विकसित हुई है। माननीय न्यायाधीश पी.वी. सावंत के अनुसार, जिनका कर्तव्य विधि को लागू करना है। जब वे लोग ही विधि को सम्मान नहीं करते है।

तो ऐसी परिस्थिति न्यायपालिका को हस्तक्षेप करने और कानून के रूप में दृढ़तापूर्वक अपनी भूमिका निभाने के लिए विवश करती है। न्यायिक सक्रियता के लिए उत्तरदायी तत्वों की संख्या निरन्तर बढ़ रही है जिसमें प्रमुख हैं – कार्यपालिका की कर्तव्य विमुखता एवं उत्तरदायित्व विमुखता, अत्यधिक भ्रष्टाचार, जनहित याचिका पद्धति, न्यायिक पुनरावलोकन, न्यायाधीशों की प्रखरता, निर्भीकता, प्रदूषित राजनीति, अस्थिर राजनीतिक परिदृश्य, जनसामान्य का कार्यपालिका के प्रति घटता विश्वास एवं परिस्थितियों की व्यावहारिकता आदि। न्यायिक सक्रियता के परिणामस्वरूप भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था की दीर्घायु की कामना की जा सकती है। आवश्यकता इस बात की है कि जनहित याचिका तथा न्यायिक सक्रियता की नवीन प्रवृत्तियों का उपयोग रचनात्मक एवं सकारात्मक दिशा में होना चाहिए।

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