RBSE Class 11 Sanskrit व्याकरणम् वर्ण परिचय

Rajasthan Board RBSE Class 11 Sanskrit व्याकरणम् वर्ण परिचय

[कक्षा XI के पाठ्यक्रम में वर्ण परिचय (संस्कृत वर्णमाला) से सम्बन्धित प्रश्न पूछे जावेंगे। विद्यार्थियों को ह्रस्व, दीर्घ, स्पर्श व्यञ्जन, अन्त:स्थ व्यञ्जन, ऊष्म व्यञ्जन, माहेश्वर सूत्र, संस्कृत वर्णमाला, वर्णो के उच्चारण स्थान, आभ्यन्तर एवं बाह्य प्रयत्न आदि का ज्ञान होना अपेक्षित है।]

भारतीय आर्य भाषाओं का मूल संस्कृत भाषा है। संस्कृत शब्द ‘सम् + कृ + क्त’ के योग से बना है, जिसका अर्थ है-शुद्ध एवं परिमार्जित भाषा। प्राचीनकाल में संस्कृत का वैदिक रूप भी रहा है, जिसमें वैदिक साहित्य लिखा गया है, किन्तु आज जिसे संस्कृत भाषा कहते हैं, वह लौकिक संस्कृत है। इस भाषा के आदिकवि महर्षि वाल्मीकि थे और महर्षि पाणिनि ने इसे पहली बार एक आदर्श व्याकरण के साँचे में ढाला था।

लौकिक संस्कृत का आधारस्तम्भ महर्षि पाणिनि द्वारा रचित ‘अष्टाध्यायी’ ही है, जिसकी रचना निम्नलिखित् चौदह ‘माहेश्वर सूत्रों के आधार पर की गई है। इनकी उत्पत्ति भगवान् शिव के डमरू से मानी जाती
है। ये माहेश्वर सूत्र हैं

(1) अ इ उ। (2) ऋ लू क्। (3) ए ओ। (4) ए औ च्। (5) ह य व र ट्। (6) ल ण्। (7) अ म ङ ण न म्।। (8) झ भ। (9) घ ढ ध। (10) ज ब ग ड द श्। (11) ख फ छ ठ थ च ट त। (12) क प य्। (13) श ष स र्। (14) ह ले।

इन सूत्रों के भिन्न-भिन्न खण्ड ‘प्रत्याहार’ कहलाते हैं। इनमें प्रमुख प्रत्याहार हैं-‘अच्’ और ‘हल्’।

‘अच्’ प्रत्याहार के अन्तर्गत सभी स्वर आते हैं और ‘हल् प्रत्याहार के अन्तर्गत सभी व्यञ्जन परिगणित होते हैं। इसलिए जिन शब्दों के अन्त में व्यञ्जन होता है, उन्हें हलन्त’ और जिन शब्दों के अन्त में स्वर होता है, उन्हें ‘अजन्त’ कहा जाता है।

कुल मिलाकर प्रत्याहार सूत्रों की संख्या 42 है जिनमें संस्कृत की सम्पूर्ण वर्णमाला समाहित हो जाती है। ये निम्न निम्नलिखित हैं

(1) अण् (2) अक् (3) अच् (4) अट् (5) अण् (6) अम् (7) अश् (8) अल् (9) इक् (10) इच् (11) इण् (12) उक् (13) एङ् (14) एच् (15) ऐच् (16) हश् (17) हल् (18) यण् (19) यम् (20) यञ् (21) यय् (22) यर् (23) वश् (24) वल् (25) रल् (26) मय् (27) भ् (28) झs (29) हश् (30) झय् (31) झर् (32) झल् (33) भष् (34) जश् (35) वश् (36) खय् (37) खर् (38) छ्व् (39) चय् (40) चर् (41) शर् (42) शल्।।

प्रत्याहार बनाने की रीति-‘प्रत्याहार’ का अर्थ है-संक्षेप में कथन। माहेश्वर सूत्रों से प्रत्याहार बनाने के नियम निम्नलिखित हैं-
(1) सूत्रों के अन्तिम अक्षर (ण् क् आदि) प्रत्याहार में नहीं गिने जाते हैं। अन्तिम अक्षर प्रत्याहार बनाने में साधन हैं।
(2) जो प्रत्याहार बनाना हो, उसके लिए प्रथम अक्षर सूत्र में जहाँ हो, वहाँ ढूँढ़ना चाहिए। अन्तिम अक्षर सूत्र के अन्तिम अक्षरों में ढूंढ़िए। प्रत्याहार के प्रथम वर्ण से लेकर अन्तिम वर्ण तक पहले के सभी वर्ण उस प्रत्याहार में गिने जायेंगे।

जैसे-अच् प्रत्याहार में प्रथम वर्ण अ है, जो कि माहेश्वर सूत्र के प्रथम सूत्र का प्रथम वर्ण है। ‘च’ चौथे सूत्र का अन्तिम वर्ण है।

अतः अच् में अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, लू, ए, ऐ, ओ, औ, अर्थात् सारे स्वर समाहित होंगे।

इतना ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि मध्य वर्गों में यदि अन्त में इत् भी आ जाये तो भी उनका प्रत्याहार में ग्रहण नहीं होता। जैसे अच् प्रत्याहार में ए, क्, ङ, का ग्रहण नहीं होता।

नोट-

  1. संस्कृत के विद्यार्थियों को प्रत्याहार का ज्ञान आवश्यक है।
  2. माहेश्वर सूत्रों के निश्चित क्रम को किसी भी स्थिति में भंग नहीं करें।

लिपि-देववाणी कही जाने वाली संस्कृत भाषा जिस लिपि में लिखी जाती है, उसका नाम ‘देवनागरी लिपि है। यह बायें से दायें लिखी जाती है। प्राचीनकाल में संस्कृत भाषा ‘ब्राह्मी लिपि में लिखी जाती थी।
वर्ण-(1) वर्ण उस मूल ध्वनि को कहते हैं, जिसके टुकड़े न हो सकें। जैसे-क, ख, ग आदि। इनके टुकड़े नहीं किये जा सकते। इन्हें अक्षर भी कहते हैं-‘न क्षीयते, न क्षरति वा इति अक्षरम्’। अर्थात् जिसके टुकड़े न हो सकें, उसे वर्ण कहते हैं।

वर्ण भेद-संस्कृत में वर्ण दो प्रकार के माने गये हैं
(क) स्वर वर्ण, इन्हें अच् भी कहते हैं।
(ख) व्यञ्जन वर्ण, इन्हें हल भी कहा जाता है।

(क) स्वर वर्ण-जिन वर्गों की उच्चारण करने के लिए अन्य किसी वर्ण की सहायता नहीं लेनी पड़ती है, उन्हें ‘स्वर वर्ण’ कहते हैं। भाव यह है कि जिन वर्णो अथवा अक्षरों का उच्चारण स्वतन्त्र रूप से अपने आप होता है, किसी अन्य वर्ण की सहायता नहीं लेनी पड़ती है, उन्हें स्वर वर्ण कहते हैं। जैसे-अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, लू, ए, ऐ, ओ, औ। इनकी संख्या 13 है।

स्वरों का वर्गीकरण-उच्चारण काल अथवा मात्रा के आधार पर स्वर तीन प्रकार के माने गये हैं
(1) ह्रस्व स्वर
(2) दीर्घ स्वर
(3) प्लुत स्वर।

(1) ह्रस्व स्वर-जिन स्वरों के उच्चारण में केवल एक मात्रा का समय लगे, अर्थात् कम से कम समय लगे, उन्हें ह्रस्व स्वर कहते हैं। जैसे-अ, इ, उ, ऋ, लु। इनकी संख्या 5 है। इनमें कोई अन्य स्वर या वर्ण मिश्रित नहीं होता, इन्हीं को मूल स्वर भी कहते हैं।

(2) दीर्घ स्वर-जिन स्वरों के उच्चारण काल में ह्रस्व स्वरों की अपेक्षा दुगना समय लगे, अर्थात् दो मात्राओं का समय लगता है, वे दीर्घ स्वर कहलाते हैं। जैसे-आ, ई, ऊ, ऋ, ए, ओ, ऐ, औ। इनकी संख्या 8 है।

विशेष ध्यातव्य
(i) अ, इ, उ, ऋ। आदि ह्रस्व स्वर हैं। इनका उच्चारण काल एक मात्रा है। इन्हीं में जब दुगना समय लगा दिया जाये, तो आ, ई, ऊ, ऋ ये दीर्घ स्वर बन जाते हैं।
(ii) ए, ओ, ऐ, औ भी दीर्घ स्वर हैं। ये निम्न रूप से दो स्वरों के मेल से बनते हैं। इन्हें मिश्र-विकृत या संध्यक्षर कहते हैं। जैसे-
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(3) प्लुत स्वर-जिन स्वरों के उच्चारण में दीर्घ स्वरों से भी अधिक समय लगता है, वे प्लुत स्वर कहलाते हैं। इनमें तीन मात्राओं का उच्चारण काल होता है। इनके उच्चारण काल में दो मात्राओं से अधिक समय लगता है। प्लुत का ज्ञान कराने के लिए 3 अंक स्वर के आगे लगाते हैं। इसका प्रयोग अधिकतर वैदिक संस्कृत में होता है। जैसे-अ, 3, इ 3, उ 3, ऋ 3, लू 3, ए 3, ओ 3, ऐ 3, औ 3।।

इन स्वरों को ठीक से याद रखने के लिए यह श्लोक याद रखना चाहिए
“एक मात्रो भवेत् ह्रस्वो, द्विमात्रो दीर्घमुच्यते।
त्रिमात्रस्तु प्लुतोज्ञेयो व्यञ्जनं चार्धमात्रकम्।।”

ध्यातव्य-
(1) संस्कृत भाषा में अधिकतर ह्रस्व एवं दीर्घ स्वरों का ही प्रयोग किया जाता है। इनकी संख्या तेरह है।
(2) ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत स्वरों को मिलाकर कुल संख्या 22 है, जिसमें 5 ह्रस्व, 8 दीर्घ और 9 प्लुत हैं। संस्कृत भाषा में जिन स्वरों का प्रयोग होता है, वे निम्न हैं–
अ, इ, उ, ऋ, लु-ह्रस्व (सादे),
आ, ई, ऊ, ऋ-दीर्घ (सादे),

ए, ए, ओ, औ–दीर्घ संख्यक्षर (मिश्र-विकृत)। वैदिक स्वर भी तीन प्रकार के होते हैं- उदात्त, अनुदात्त और स्वरित।।

  1. उदात्त (उच्चैरुदात्त:) कण्ठ, तालु आदि सखण्ड स्थानों के ऊपर के भाग से जिस ‘अच्’ की उत्पत्ति होती है। उसको (उदात्त:) उदात्त कहते हैं।
  2. अनुदात्त (नीचैरनुदात्तः) कण्ठ, तालु आदि सखण्ड स्थानों के नीचे के भाग से जिस ‘अच्’ का उच्चारण होता है। वह (अनुदात्तः) अनुदात्त होता है।
  3. स्वरित (समाहारः स्वरितः) उदात्त और अनुदात्त दोनों धर्मों का मेल जिस वर्ण में हो वह (स्वरितः) स्वरित होता है अर्थात् तालु आदि स्थानों के मध्य भाग से जिस ‘अच्’ का उच्चारण होता है उसे ‘स्वरित’ कहते हैं।

(मुख के भीतर कण्ठ, तालु आदि स्थान हैं। उन पर जब भीतर से प्रेरित वायु का आघात होता है तब वर्गों की उत्पत्ति होती है। वे स्थान सखड हैं। उनके दो भाग ऊपर और नीचे के हैं। जब स्वर ऊपर के भाग से उत्पन्न होता है तब वह कुछ ऊँचा सा मालूम होता है उसे उदात्त कहते हैं और जब नीचे के भाग से उच्चरित होता है तो उसे अनुदात्त कहते हैं। यदि उदात्तता और अनुदात्तता दोनों धर्म एक ही स्वर में प्रतीत हों तो, उसे ‘स्वरित’ कहा जाता है।)

(ख) व्यञ्जन-व्यञ्जन उन्हें कहते हैं, जो बिना स्वर की सहायता के उच्चरित नहीं किये जाते हैं। व्यञ्जन का उच्चारण काल अर्ध मात्रा काल है। जिस व्यञ्जन में स्वर को योग नहीं होता उसमें हलन्त का चिह्न लगाते हैं। यथा-क्, ख्, ग्, घ, ङ्। संस्कृत भाषा में इनकी संख्या 33 है।

यथा– क् ख् ग् घे ड, च् छ् ज् झ् ञ्, ट् ठ् ड् ढ् ण, प् फ् ब् भ् म्, य् र् ल् व् श्, ष् स्।

ये ऊपर लिखे गये सभी व्यञ्जन स्वर रहित हैं। इनके स्वर रहित रूप को समझने की दृष्टि से इनमें हल् का चिह्न लगाया गया है। जब किसी व्यञ्जन का किसी स्वर के साथ मेल करते हैं, तब हल् का चिह्न हटा देते हैं। व्याकरण में व्यञ्जन का अभिप्राय स्वर रहित हल् व्यञ्जन से ही लिया जाता है। व्यञ्जन के साथ स्वरों का संयोग-
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व्यञ्जन के भेद-उच्चारण की भिन्नता के आधार पर व्यञ्जनों को निम्न तीन भागों में विभाजित किया गया है

  1. स्पर्श
  2. अन्त:स्थ
  3. ऊष्म।

(1) स्पर्श-जिन व्यञ्जनों का उच्चारण करने में जिह्वा मुख के किसी भाग को स्पर्श करती है और वायु कुछ क्षण के लिए रुककर झटके से निकलती है, वे स्पर्श संज्ञक व्यञ्जन कहलाते हैं। ‘कादयो मावसाना: स्पर्शा:’ अर्थात् क से म पर्यन्त व्यञ्जन स्पर्श संज्ञक हैं। इनकी संख्या 25 है। ये निम्न पाँच वर्गों में विभक्त हैं-
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(2) अन्तःस्थ-जिन व्यञ्जनों का उच्चारण वायु को कुछ रोककर अल्प शक्ति के साथ किया जाता है, वे अन्त:स्थ व्यञ्जन कहलाते हैं। ‘यणोऽन्तःस्थाः’ अर्थात् यण् (य्, व, र, ल्) अन्त:स्थ व्यञ्जन हैं। इनकी संख्या चार है।।

(3) ऊष्म-जिन व्यञ्जनों का उच्चारण वायु को धीरे-धीरे रोककर रगड़ के साथ निकालकर किया जाता है, वे ऊष्म व्यञ्जन कहे जाते हैं। ‘शल ऊष्माण:’ अर्थात्- शल्-श्, ७, स्, ह ऊष्म संज्ञक व्यञ्जन हैं। इनकी संख्या भी चार है।

इनके अतिरिक्त तीन व्यञ्जन और हैं, जिन्हें संयुक्त व्यञ्जन कहा जाता है, क्योंकि ये दो-दो व्यजनों के मूल से बनते हैं।
जैसे-

  1. क् + ष् = क्ष,
  2. त् + र् = त्रा,
  3. ज् + ञ् = ज्ञ।

नोट-उपर्युक्त वर्गों के अतिरिक्त संस्कृत भाषा में अन्य वर्गों का भी प्रयोग किया जाता है, जिन्हें अयोगवाह कहते हैं। इनके अन्तर्गत-अनुस्वार, अनुनासिक, विसर्ग, जिह्वामूलीय और उपध्मानीय आते हैं।
(1) अनुस्वार-स्वर के ऊपर जो बिन्दु (–) लगाया जाता है, उसे अनुस्वार कहते हैं। स्वर के बाद न् अथवा म् के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग किया जाता है।
जैसे-
(i) इयम् गच्छति-इयं गच्छति। यहाँ पर म् के स्थान में अनुस्वार को प्रयोग है। जैसे-अंश, अवतंस, हंस आदि।
(2) अनुनासिक-अ, म, ङ, ण, न्-ये पाँच व्यञ्जन अनुनसिक माने जाते हैं। इन्हें अर्द्ध अनुस्वार भी कहा जाता है, जिसे चन्द्रबिन्दु (*) के नाम से भी जाना जाता है। यथा-कहाँ, वहाँ, यहाँ, पाँच आदि।
(3) विसर्ग-स्वरों के आगे आने वाले दो बिन्दुओं (;) को विसर्ग कहते हैं। विसर्ग का उच्चारण आधे ह की तरह किया जाता है। इसका प्रयोग किसी स्वर के बाद किया जाता है। यह र् और स् के स्थान पर आता है। जैसे- रामः, भानुः, हरिः इत्यादि।
(4) जिह्वामूलीय-(°क “ ख) इसका प्रयोग क् एवं ख् से पहले किया जाता है। अर्थात् क् एवं ख् से पूर्व अर्द्ध विसर्ग सदृश चिह्न को जिह्वामूलीय कहते हैं। जैसे- क°ख।।
(5) उपध्मानीय-(° प °फ) इसका प्रयोग प् एवं फ् से पूर्व अर्द्ध विसर्ग के समान किया जाता है। जैसे*प फ।।

क वर्ग से प वर्ग तक पाँचों वर्गों के प्रथम और द्वितीय अक्षरों (क, ख, च, छ आदि) तथा ऊष्म वर्णो (श, ष, स, ह) को ‘परुष’ व्यञ्जन और शेष वर्णो (ग, घ आदि) को ‘कोमल’ व्यञ्जन कहते हैं। व्यञ्जनों के दो प्रकार और हैं– अल्पप्राण तथा महाप्राण। पाँचों वर्गों के पहले और तीसरे वर्ण (क, ग, च, ज आदि) ‘अल्पप्राण’ हैं तथा दूसरे और चौथे वर्ण (ख, घ, छ, झ आदि) ‘महाप्राण’ हैं। वर्गों के पञ्चम वर्ण (ङ, ञ, ण, नृ,म्) अनुनासिक व्यञ्जन कहलाते हैं। ध्वनि के विचार से वर्गों के कण्ठ आदि स्थान हैं।

वर्गों के उच्चारण स्थान-सभी वर्गों का उच्चारण मुख से होता है। उच्चारण में मुर्ख के जिसे अवयव की सहायता ली जाती है, उसे उच्चारण स्थान कहते हैं। मुख में अनेक अवयवे होते हैं; जैसे-कण्ड, तालु, मूर्धा, दन्त, नासिका आदि। वर्गों का उच्चारण इन्हीं अवयवों की सहायता से होता है। स्थान विभाजन निम्न रूप से किया जाता है.

  1. कण्ठ-‘अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः’ अर्थात् अकार (अ, आ), क वर्ग (क्, ख, ग, घ, ङ) और विसर्ग का उच्चारण स्थान कण्ठ होता है। कण्ठ से उच्चारण किये गये वर्ण ‘कण्ठ्य’ कहलाते हैं।
  2. तालु–’इचुयशानां तालु’ अर्थात् इ, ई, च वर्ग (चु, छ, त्, झ, ञ्), य् और श् का उच्चारण स्थान तालु है। तालु से उच्चरित वर्ण ‘तालव्य’ कहलाते हैं। इन वर्गों का उच्चारण करने में जिह्वा तालु (दाँतों के मूल से थोड़ा ऊपर) का स्पर्श करती है।
  3. मूर्धा ‘ऋटुरषाणां मूर्धा’ अर्थात् ऋ, ऋ, ट वर्ग (ट, ३, ड्, द्, ण), र और का उच्चारण स्थान मूर्धा है। इस स्थान से उच्चरित वर्ण ‘मूर्धन्य’ कहे जाते हैं। इन वर्गों का उच्चारण जिह्वा मूर्धा (तालु से भी ऊपर गहरे गड्ढेनुमा भाग) का स्पर्श करती है।
  4. दन्त-नृतुलसानां दन्ताः ‘ अर्थात् लु, त वर्ग (त्, थ, द्, धु, न्), ल् और स् का उच्चारण स्थान दन्त होता है। दन्त स्थान से उच्चरित वर्ण ‘दन्त्य’ कहलाते हैं। इन वर्गों का उच्चारण करने में जिह्वा दाँतों का स्पर्श करती है।
  5. ओष्ठ उपूपध्मानीयानामोष्ठी’ अर्थात् उ, ऊ, प वर्ग (प, फ, ब, भू, म्) तथा उपध्मानीय का उच्चारणस्थान ओष्ठ होते हैं। ये वर्ण ‘ओष्ठ्य’ कहलाते हैं। इन वर्गों का उच्चारण करते समय दोनों ओष्ठ आपस में मिलते हैं।
  6. दन्तौष्ठ-‘वकारस्य दन्तौष्ठम्’ अर्थात् व् का उच्चारण स्थान दन्तौष्ठ होता है। इस कारण ‘व्’ ‘दन्तौष्ठ्य’ कहलाता है। इसका उच्चारण करते समय जिह्वा दाँतों का स्पर्श करती है तथा ओष्ठ भी कुछ मुड़ते हैं। अत: दोनों के सहयोग से वकार का उच्चारण किया जाता है।
  7. जिह्वामूल-जिह्वामूलीयस्य जिह्वामूलम्’ अर्थात् जिह्वामूलीय (°क “ ख) का उच्चारणस्थान जिह्वामूल होता है।
  8. कण्ठौष्ठ ‘ओदौतोः कण्ठौष्ठम्’ अर्थात् ओ तथा औ का उच्चारणस्थान कण्ठौष्ठ होता है। अ + उ = ओ तथा अ + ओ = औ बनते हैं। अतः इनके उच्चारण में कण्ठ तथा ओष्ठ दोनों का उपयोग किया जाता है। ये वर्ण ‘कण्ठौष्ठ्य’ कहलाते हैं।
  9. कण्ठतालु’एदैतोः कण्ठतालु’ अर्थात् ए तथा ऐ का उच्चारणस्थान कण्ठतालु होता है। अतः ये वर्ण ‘कण्ठतालव्य’ कहे जाते हैं। अ, ई के संयोग से ए तथा अ, ए के संयोग से ऐ बनता है। अतः ए तथा ऐ के उच्चारण में कण्ठ तथा तालु दोनों का सहयोग लिया जाता है।
  10. नासिका–२, म्, ङ, ण, न् तथा अनुस्वार का उच्चारण स्थान नासिका है। इस स्थान से उच्चारित वर्ण ‘नासिक्य’ कहलाते हैं। इन वर्गों के पूर्वोक्त अपने-अपने वर्ग के अनुसार कण्ठादि उच्चारण स्थान भी होते हैं, अर्थात् वर्गों का उच्चारण करते समय क्रमशः कण्ठ, मूर्धा, तालु, दन्त और ओष्ठ के साथ नासिका को भी सहयोग लिया जाता है।

वर्ण उच्चारण-स्थान तालिका
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प्रयत्न के आधार पर वर्ण-भेद
वर्गों के उच्चारण में जो चेष्टा करनी पड़ती है, उसे प्रयत्न कहते हैं। ये प्रयत्न दो प्रकार के होते हैं।
(1) आभ्यन्तर प्रयत्न।
(2) बाह्य प्रयत्न।

(1) आभ्यन्तर प्रयत्न–मुख के भीतरी अवयवों द्वारा किया गया यत्न आंभ्यन्तर प्रयत्न कहलाता है। यह पाँच प्रकार का होता है

  1. स्पृष्ट-इसका अर्थ है, उच्चारण के समय जीभ द्वारा मुख के अन्दर विभिन्न उच्चारण स्थानों का किया गया स्पर्श। इस प्रयत्न द्वारा सभी 25 स्पर्श व्यञ्जन क् से म् तक उच्चरित होते हैं। पाँचों वर्गों के अक्षरों का स्पृष्ट प्रयत्न होता है।
  2. ईषत्स्पृष्ट–अर्थात् थोड़ा स्पर्श। जब जीभ मुख के अन्दर तालु आदि उच्चारण स्थानों का कम स्पर्श करती है, तो इस प्रयत्न को ईषत्स्पृष्ट प्रयत्न कहा जाता है। अन्त:स्थ व्यञ्जन वर्णो (य् र् ल् व्) का ईशत्स्पृष्ट प्रयत्न होता है।
  3. विवृत—इसका अर्थ है, उच्चारण के समय कण्ठ का खुलना। जब विभिन्न उच्चारणों में कण्ठ-विवर खुलता है, तो इस प्रयत्न को विवृत प्रयत्न कहा जाता है। सभी स्वर वर्गों का विवृत प्रयत्न होता है।
  4. ईषद् विवृत–ज़ब वर्गों के उच्चारण काल में कण्ठ पूरी तरह न खुलकर स्वल्प (थोड़ा सा) खुलता है तब ऐसे प्रयत्न को ईषद् विवृत प्रयत्न कहा जाता है। ऊष्म वर्णो (श् ष् स्) का ईषद् विवृत प्रयत्न होता है।
  5. संवृत–संवृत का अर्थ है–बन्द। ह्रस्व अकार का उच्चारण संवृत-प्रयत्न है।

(2) बाह्य प्रयत्न वर्गों के उच्चारण में जिस प्रकार मुख के अन्दर प्रयत्न अथवा चेष्टाएँ होती हैं, उसी प्रकार कुछ चेष्टाएँ बाहर से भी होती हैं, जिन्हें हम बाह्य प्रयत्न कहते हैं। ये निम्न हैं

  1. विवार वर्ण के उच्चारण के समय मुख के खुलने को विवार कहा जाता है। वर्गों के पहले तथा दूसरे वर्ण एवं श् ष् स् विवार प्रयत्न द्वारा उच्चरित होते हैं।
  2. संवार—जब वर्ण के उच्चारण में मुख कुछ संकुचित होता है, तब ऐसे प्रयत्न को संवार प्रयत्न कहा जाता है। इसके अन्तर्गत सभी वर्गों के तीसरे, चौथे तथा पाँचवें वर्ग एवं अन्त:स्थ व्यञ्जन आते हैं।
  3. श्वास–जिनके उच्चारण में श्वास की गति विशेष रूप से प्रभावित होती है, उन्हें श्वास वर्ण की संज्ञा दी जाती है, इसके अन्तर्गत सभी वर्गों के पहले, दूसरे तथा ऊष्म वर्ण आते हैं।
  4. नाद-वर्णो के उच्चारण में विशेष प्रकार की अव्यक्त ध्वनि को नाद कहते हैं, किसी भी वर्ग के तीसरे, चौथे और पाँचवें वर्ण तथा शल् वर्ण (श् ष् स्) नाद प्रयत्न द्वारा उच्चरित होते हैं।
  5. घोष—उच्चारण में होने वाले विशेष शब्द को घोष कहा जाता है। वर्गों के तीसरे, चौथे व पाँचवें वर्ण घोष प्रयत्न द्वारा बोले जाते हैं।
  6. अघोष-जिन वर्णो के उच्चारण में घोष ध्वनि नहीं होती, उन्हें अघोष प्रयत्न द्वारा उच्चरित किया जाता है। इनमें वर्गों के पहले, दूसरे तथा अन्त:स्थ व्यञ्जन आते हैं।
  7. अल्पप्राण-जिन वर्गों के उच्चारण में कम मात्रा में वायु मुख के भीतरी भाग से बाहर निकलती है, उन वर्गों को अल्पप्राण वर्ण कहा जाता है। वर्गों के पहले, तीसरे और पाँचवें वर्ण अल्पप्राण कहलाते हैं।
  8. महाप्राण—जिन वर्गों के उच्चारण में अधिक प्राणवायु का उपयोग होता है, ऐसे वर्गों को महाप्राण वर्ण कहा जाता है। वर्गों के दूसरे और चौथे वर्ण महाप्राण कहलाते हैं।
  9. उदात्त–तालु आदि उच्चारण स्थानों के ऊपरी भाग से उच्चरित स्वर वर्ण या स्वरमिश्रित व्यंजनों को उदात्त कहा जाता है।
  10. अनुदात्त–तालु आदि उच्चारण स्थानों के निचले भाग से उच्चरित स्वर-वर्गों को अनुदात्त प्रयत्न वाला कहा – जाता है।
  11. स्वरित–जब वायु तालु आदि उच्चारण स्थलों के मध्य भाग से निकलती है, तो ऐसे प्रयत्न स्वरित प्रयत्न कहे जाते हैं। सवर्ण-जिन वर्गों के उच्चारण
  12. स्थान तथा प्रयत्न दोनों एक हों उन वर्गों को सवर्ण अथवा समान वर्ण कहते हैं। असमान वर्ण-जब वणो के उच्चारण स्थान या प्रयत्न भिन्न-भिन्न हों, तो ऐसे वर्गों को असमान वर्ण कहते हैं।

महत्वपूर्ण प्रश्नोतराणि

अभ्यास 1

वस्तुनिष्ठ प्रश्नाः
शुद्ध-उत्तरस्य क्रमाक्षरं चित्वा लिखत। (सही उत्तर का क्रमाक्षर चुनकर लिखिए।)

प्रश्न 1.
‘ग्’ वर्णस्य उच्चारणस्थानम् अस्ति-(‘ग्’ वर्ण का उच्चारण स्थान है-)
(अ) तालु
(ब) नासिका.
(स) कण्ठः
(द) ओष्ठौ।
उत्तर:
(स) कण्ठः

प्रश्न 2.
‘द्’ वर्णस्य उच्चारणस्थानम् अस्ति-(‘द्’ वर्ण का उच्चारण स्थान है-)।
(अ) कण्ठः
(ब) तालुः
(स) दन्तः
(द) मूर्धाः।
उत्तर:
(स) दन्तः

प्रश्न 3.
अनुस्वारस्य उच्चारणस्थानं भवति-(अनुस्वार का उच्चारण स्थान होता है-)
(अ) नासिका
(ब) कण्ठः
(स) ओष्ठौः
(द) दन्तः।
उत्तर:
(अ) नासिका

प्रश्न 4.
‘छ’ वर्णस्य उच्चारणस्थानम् अस्ति-(‘छ’ वर्ण का उच्चारण स्थान है-)
(अ) कण्ठः।
(ब) तालु।
(स) मूर्धा
(द) ओष्ठौ।
उत्तर:
(ब) तालु।

प्रश्न 5.
‘ड्’ वर्णस्य उच्चारणस्थानम् अस्ति-(‘ड्’ वर्ण का उच्चारण स्थान है-)
(अ) मूर्धा
(ब) कण्ठतालु
(स) तालु।
(द) ओष्ठौ।
उत्तर:
(अ) मूर्धा

प्रश्न 6.
हकारस्य उच्चारणस्थानं भवति-(हकार का उच्चारण स्थान होता है-)
(अ) कण्ठः
(ब) तालु
(स) मूर्धा
(द) ओष्ठौ।
उत्तर:
(अ) कण्ठः

प्रश्न 7.
‘५’ वर्णस्य उच्चारणस्थानम् अस्ति-(‘५’ वर्ण का उच्चारण स्थान है-)
(अ) तालु।
(ब) मूर्धा
(स) कण्ठः
(द) ओष्ठौ।
उत्तर:
(ब) मूर्धा

प्रश्न 8.
‘जश्’ प्रत्याहारान्तर्गतं परिगणिताः वर्णाः सन्ति-(‘जश्’ प्रत्याहार में परिगणित होने वाले वर्ण हैं-)
(अ) ह य् व् र् ल्
(ब) क् प् श् ष् स्
(स) ज् ब् ग् ड् द्
(द) झ् भ् घ् द् ध्।
उत्तर:
(स) ज् ब् ग् ड् द्

प्रश्न 9.
“एच् प्रत्याहारान्तर्गताः वर्णाः सन्ति-(‘एच’ प्रत्याहार में आने वाले वर्ण हैं-)
(अ) अ, इ, उ, ऋ, लु
(ब) ए, ओ, ऐ, औ
(स) ए, ओ
(द) ऐ, औ।
उत्तर:
(ब) ए, ओ, ऐ, औ

प्रश्न 10.
‘अक्’ प्रत्याहारान्तर्गताः वर्णाः सन्ति-(‘ अक्’ प्रत्याहार में आने वाले वर्ण हैं-)
(अ) अ, इ, उ, ऋ, लु।
(ब) अ, इ, उ
(स) इ, उ, ऋ, लु।
(द) अ, इ, उ, ऋ, लू, ए, ओ, ऐ, औ।
उत्तर:
(अ) अ, इ, उ, ऋ, लु।

अभ्यास 2

प्रश्न 1.
‘शल्’ प्रत्याहारान्तर्गताः वर्णाः सन्ति-(‘शल्’ प्रत्याहार में आने वाले वर्ण हैं-)
(अ) श् ष् स्
(ब) श् ष् स् ह
(स) क् प् श् ष स ह
(द) ज् ब् ग् ड् द्।
उत्तर:
(ब) श् ष् स् ह

प्रश्न 2.
“यण’ प्रत्याहारान्तर्गताः वर्णाः सन्ति-(‘यण’ प्रत्याहार में आने वाले वर्ण हैं-)
(अ) ह य् व् र् ल्
(ब) श् ष् स् ह
(स) य् व् र् ल्
(द) ज् ब् ग् ड् द्।
उत्तर:
(स) य् व् र् ल्

प्रश्न 3.
‘इक्’ प्रत्याहारान्तर्गताः वर्णाः सन्ति-(‘इक्’ प्रत्याहार में आने वाले वर्ण हैं-)
(अ) अ, इ, उ ,
(ब) अ, इ, उ, ऋ, लू
(स) ए, ओ, ऐ, औ
(द) इ, उ, ऋ, लू।
उत्तर:
(द) इ, उ, ऋ, लू।

प्रश्न 4.
‘हल्’ प्रत्याहारस्य वर्णाः कथ्यन्ते- (‘ हल्’ प्रत्याहार के वर्गों को कहते हैं-)
(अ) स्वर।
(ब) स्पर्श
(स) व्यञ्जन
(द) ऊष्म।
उत्तर:
(स) व्यञ्जन

प्रश्न 5.
स्पर्शवर्णानां आभ्यान्तरप्रयत्नं भवति- (स्पर्श वर्गों का आभ्यान्तर प्रयत्न होता है-)
(अ) विवृत
(ब) संवृत।
(स) स्पृष्ट
(द) ईषत् स्पृष्ट।
उत्तर:
(स) स्पृष्ट

प्रश्न 6.
महाप्राणप्रयत्नंः केषां वर्णानां भवति-(‘महाप्राण’ प्रयत्न वाले कौन-से वर्ण हैं-)
(अ) शल्
(ब) यण्
(स) अच्
(द) जश्।।
उत्तर:
(अ) शल्

प्रश्न 7.
‘घोष’ वर्णाः सन्ति-(‘घोष’ वर्ण हैं-)
(अ) ग, घ, ङ
(ब) त, के, न
(स) य, र, त
(द) न, ङ, क।।
उत्तर:
(अ) ग, घ, ङ

प्रश्न 8.
” वर्णस्य उच्चारणस्थानम् अस्ति-(‘ धु’ वर्ण का उच्चारण स्थान है-)
(अ) ओष्ठौ
(ब) दन्ताः।
(स) तालु
(द) मूर्धा।
उत्तर:
(ब) दन्ताः।

प्रश्न 9.
‘थ्’ वर्णस्य उच्चारणस्थानम् अस्ति-(‘ थ्’ वर्ण का उच्चारण स्थान है-)
(अ) मूर्धा
(ब) ओष्ठौ
(स) कण्ठः
(द) दन्ताः।
उत्तर:
(द) दन्ताः।

प्रश्न 10.
‘ओ’ वर्णस्य ‘औ’ वर्णस्य च उच्चारणस्थानम् अस्ति (ओ तथा औ वर्गों का उच्चारण स्थान है-)
(अ) कण्ठ:तालु
(ब) कण्ठनासिका
(स) कण्ठजिह्वा
(द) कण्ठोष्ठम्।
उत्तर:
(द) कण्ठोष्ठम्।

अभ्यास 3

प्रश्न 1.
‘ब’ वर्णस्य उच्चारणस्थानम् अस्ति-(‘ब’ वर्ण का उच्चारण स्थान है-)
(अ) मूर्धा।
(ब) दन्ताः
(स) ओष्ठौ
(द) कण्ठः।
उत्तर:

प्रश्न 2.
‘ओ’ वर्णस्य उच्चारणस्थानम् अस्ति-(‘ओ’ वर्ण का उच्चारण स्थान है-)
(अ) कण्ठोष्ठौ।
(ब) दन्तोष्ठौ।
(स) मूर्धा
(द) दन्ताः।
उत्तर:

प्रश्न 3.
ऐकारस्य उच्चारणस्थानम् अस्ति-(‘ऐकार’ का उच्चारण स्थान है-)
(अ) नासिका
(ब) कण्ठतालु
(स) कण्ठोष्ठौ
(द) दन्ताः।।
उत्तर:

प्रश्न 4.
ऋकारस्य उच्चारणस्थानम् अस्ति-(‘ऋकार’ का उच्चारण स्थान है-)
(अ) मूर्धा।
(ब) तालु
(स) कण्ठः
(द) दन्ताः।
उत्तर:

प्रश्न 5.
वकारस्य उच्चारणस्थानम् अस्ति-(‘वकार’ का उच्चारण स्थान है-)
(अ) कण्ठोष्ठौ
(ब) दन्तोष्ठौ।
(स) जिह्वामूल
(द) दन्ताः
उत्तर:

प्रश्न 6.
‘न्’ वर्णस्य उच्चारणस्थानम् अस्ति-(‘न्’ वर्ण का उच्चारण स्थान है-)
(अ) ओष्ठौ
(ब) दन्ता
(स) नासिका
(द) कण्ठः।
उत्तर:

प्रश्न 7.
‘आ’ वर्णस्य उच्चारणस्थानम् अस्ति-(‘आ’ वर्ण का उच्चारण स्थान है-)
(अ) दन्ताः
(ब) तालु।
(स) नासिका
(द) कण्ठः।
उत्तर:

प्रश्न 8.
‘ई’ वर्णस्य उच्चारणस्थानम् अस्ति-(‘ई’ वर्ण का उच्चारण स्थान है-)
(अ) तालु।
(ब) मूर्धा
(स) दन्ताः
(द) ओष्ठौ।
उत्तर:
(अ) तालु।

प्रश्न 9.
रकारस्य उच्चारणस्थानम् अस्ति-(‘रकार’ का उच्चारण स्थान है-)
(अ) तालु
(ब) मूर्धा
(स) ओष्ठौ
(द) कण्ठः।
उत्तर:
(ब) मूर्धा

प्रश्न 10.
लकारस्य उच्चारणस्थानम् अस्ति-(‘लकार’ का उच्चारण स्थान है-):
(अ) ओष्ठौ।
(ब) दन्ताः
(स) तालु
(द) कण्ठोष्ठौ।
उत्तर:
(ब) दन्ताः

अति लघूत्तरात्मक प्रश्नाः
प्रश्न 1.
तालु कस्य वर्गस्य उच्चारणस्थानं भवति? (तालु किस वर्ग का उच्चारण स्थान होता है?)
उत्तर:
चवर्गस्य।

प्रश्न 2.
कण्ठः कस्य वर्गस्य उच्चारणस्थानं भवति? (कण्ठ किस वर्ग का उच्चारण स्थान होता है?)
उत्तर:
कवर्गस्य।

प्रश्न 3.
मूर्धा कस्य वर्गस्य उच्चारणस्थानं भवति? (मूर्धा किस वर्ग का उच्चारण स्थान है?)
उत्तर:
वर्गस्य।

प्रश्न 4.
ओष्ठौ कस्य वर्गस्य उच्चारणस्थानं भवति? (ओष्ठ किस वर्ग के उच्चारण स्थान हैं?)
उत्तर:
पवर्गस्य।।

प्रश्न 5.
दन्ताः कस्य वर्गस्य उच्चारणस्थानं भवति? (दाँत किस वर्ग के उच्चारण स्थान होते हैं?)
उत्तर:
तवर्गस्य।

प्रश्न 6.
नासिका केषां वर्णानाम् उच्चारणस्थानं भवति? (नासिका किन वर्गों की उच्चारण स्थान होती है?)
उत्तर:
अ, म्, ङ, ण, न्।

प्रश्न 7.
उच्चारणस्थानानि कति सन्ति? (उच्चारण स्थान कितने हैं?)
उत्तर:
अष्टौ।

प्रश्न 8.
वर्णोच्चारणे कस्याः परमसहयोगो भवति? (वर्ग उच्चारण में किसका परम सहयोग होता है?)
उत्तर:
जिह्वायाः।

प्रश्न 9.
पवर्गस्य उच्चारणस्थानं किं भवति? (प वर्ग का उच्चारण स्थान क्या है?)।
उत्तर:
ओष्ठौ।

प्रश्न 10.
दन्तोष्ठम् उच्चारणस्थानं कस्य वर्णस्य अस्ति? (दन्तोष्ठ किस वर्ण का उच्चारण स्थान है?)
उत्तर:
‘व्’ वर्णस्य।

प्रश्न 11.
‘अ इ उ ए’ कस्य सूत्रस्य वर्णाः सन्ति? (‘अ इ उ ण’ किस सूत्र के वर्ण हैं?)
उत्तर:
माहेश्वरसूत्रस्य।

प्रश्न 12. प्रयत्नानि कति भवन्ति? (प्रयत्न कितने होते हैं?)
उत्तर:
द्वे।

प्रश्न 13.
आभ्यान्तरप्रयत्नस्य कति भेदाः सन्ति? (आभ्यान्तर प्रयत्न के कितने भेद हैं?)
उत्तर:
पञ्च।

प्रश्न 14.
बाह्यप्रयत्नस्य कति भेदाः सन्ति? (बाह्य प्रयत्न के कितने भेद हैं?)
उत्तर:
एकादशः।

प्रश्न 15.
स्पर्शवर्णानाम् अन्य नाम किमस्ति? (स्पर्श वर्णो का दूसरा नाम क्या है?)
उत्तर:
उदितवर्णाः।

प्रश्न 16.
स्पर्शवर्णाः कानि-कानि सन्ति? (स्पर्श वर्ण कौन-कौन से हैं?)
उत्तर:
क् ख् ग् घ् ङ् च् छ् ज् झ् ञ् ट् ठ् ड् ढ् ण् त् थ् द् ध् न् प् फ् ब् भ् म्।

प्रश्न 17,
महाप्राणाः के भवन्ति? (महाप्राण कौन हैं?)।
उत्तर:
वर्गस्य द्वितीयचतुर्थवर्णाः।

प्रश्न 18.
ऊष्मसंज्ञकाः वर्णाः के सन्ति? (ऊष्मसंज्ञक वर्ण कौन हैं?)
उत्तर:
श् ष स ह।

प्रश्न 19.
अन्तःस्थव्यंजनानि कानि सन्ति? (अन्त:स्थ व्यंजन कौन हैं?)
उत्तर:
य्, र्, ल्, त्।

प्रश्न 20.
अनुस्वारस्य उच्चारणस्थानस्किम् अस्ति? (अनुस्वार का उच्चारण स्थान क्या है?)
उत्तर:
नासिका

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