RBSE Solutions for Class 12 Hindi मंदाकिनी Chapter 4 हमारी पुण्य भूमि और उसका गौरवमय अतीत (भाषण अंश)

Rajasthan Board RBSE Class 12 Hindi मंदाकिनी Chapter 4 हमारी पुण्य भूमि और उसका गौरवमय अतीत (भाषण अंश)

RBSE Class 12 Hindi मंदाकिनी Chapter 4 पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर

RBSE Class 12 Hindi मंदाकिनी Chapter 4 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
“हमारी पुण्य-भूमि और उसका गौरवमये अतीत” किस महापुरुष के भाषण का अंश है?
(क) स्वामी दयानंद सरस्वती
(ख) स्वामी रामतीर्थ
(ग) स्वामी अखण्डानन्द
(घ) स्वामी विवेकानंद
उत्तर:
(घ) स्वामी विवेकानंद

प्रश्न 2.
स्वामी विवेकानंद शिला स्मारक के आधार स्तम्भ हैं –
(क) दत्तोपंत ठेंगड़ी
(ख) चिन्मयानंद ।
(ग) एकनाथ रानाडे
(घ) राष्ट्र बंधु
उत्तर:
(ग) एकनाथ रानाडे

RBSE Class 12 Hindi मंदाकिनी Chapter 4 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
पृथ्वी पर ऐसा देश जो मंगलमयी पुण्यभूमि का अधिकारी है। कौन है? नाम लिखिए।
उत्तर:
पृथ्वी पर ऐसा देश जो मंगलमयी पुण्यभूमि कहलाने का अधिकारी है। वह भारत देश है।

प्रश्न 2.
सामान्य जन इतिहास का क्या अर्थग्रहण करते हैं?
उत्तर:
सामान्य जन ऐसे ग्रन्थ या पुस्तकों को इतिहास मान लेते हैं जिनमें राजाओं अथवा शासकों की कलुषित वासनाओं, उद्दण्डता और लोभवृत्ति का वर्णन हो अथवा शासकों के अच्छे-बुरे कर्मों और समाज पर उनके प्रभावों का वर्णन हो।

प्रश्न 3.
ऐसा कौन-सा तथ्य है जो आर्य जाति को भारत-भूमि के मूल से जोड़ता है?
उत्तर:
संस्कृत भाषा का कुछ यूरोपीय भाषाओं से निकटतम संबंध, एकमात्र ऐसा तथ्य है जो आर्य जाति को भारत-भूमि के मूल से जोड़ता है।

प्रश्न 4.
नासत: सत् जायते! का तात्पर्य क्या है?
उत्तर:
नासत: सत् जायते अर्थात् जिसका कोई अस्तित्व नहीं है, उससे किसी की उत्पत्ति संभव नहीं है और जिसका अस्तित्व है, उसका कोई न कोई आधार अवश्य है। वह आधारविहीन नहीं हो सकता है।

RBSE Class 12 Hindi मंदाकिनी Chapter 4 लघूत्तरात्मक प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
कार्य-कारण के सिद्धान्त को आर्य जाति ने अपने जीवन में कैसे प्रतिपादित किया?
उत्तर:
आर्य जाति ने इस सिद्धान्त को आधार बनाकर अपनी विकास यात्रा प्रारंभ की और अपनी जिज्ञासाओं को शांत किया। इसी के आधार पर उन्होंने अपने शास्त्रों को जाँचा-परखा और समाधान प्राप्त करके अपनी जिज्ञासाओं को व्यवस्थित रूप प्रदान किया। अनेक वैज्ञानिक शास्त्र, वाद्य यंत्र, शिशु-शिक्षा पद्धति और बौद्ध धर्म इसी कार्य-कारण सिद्धान्त के परिणाम हैं।

प्रश्न 2.
हिन्दू जाति की मनोरचना के दो महातत्व कौन-से हैं तथा इनके समन्वय का क्या परिणाम रहा? लिखिए।
उत्तर:
हिन्दू जाति की मनोरचना के दो महातत्व –
(i) विश्लेषणात्मक शक्ति,
(ii) साहसी कवित्व दृष्टिकोण अर्थात् काव्यात्मक नजरिया है। इन दोनों ने मिलकर राष्ट्रीय चरित्र के केन्द्रबिन्दु को स्वरूप धारण किया और आर्य जाति को सदैव इन्द्रियों से हटकर आगे की ओर बढ़ने की शक्ति और प्रेरणा प्रदान की। यही मनुष्य की लचीली कल्पनाओं का मूल रहस्य भी है, जिन्हें मनुष्य अपने अनुसार, प्रयोग भी कर सकता है।

प्रश्न 3.
भारत-भूमि पर मानव अंत:करण का विस्तार किस प्रकार हुआ?
उत्तर:
अंत:करण का आशय है- चेतना अथवा विचार का प्रसार । भारत में ही मनुष्य की इस चेतना ने इतना विस्तार किया कि उसके विचार और गहन अध्ययन का विषय केवल संपूर्ण मानव जाति, उसके क्रिया-कलाप करने के कारण उत्पत्ति, प्रकृति के साथ उसका संबंध आदि ने ही उसकी चेतना को प्रभावित नहीं अपितु इस संसार में विद्यमान प्रत्येक तत्व ने उसे अपनी ओर आकर्षित किया और उनके रहस्य जानने के लिए प्रेरित भी किया।

RBSE Class 12 Hindi मंदाकिनी Chapter 4 निबंधात्मक प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
पठित पाठ के आधार पर भारतीय गौरवमय अतीत पर अपने विचार लिखिए।
उत्तर:
भारत का प्राचीन अतीत अलौकिक है। यही वह देश है जहाँ सर्वप्रथम ज्ञान का उदय हुआ। विभिन्न शक्तियों को पराजित करके भारतीयों ने स्वयं को विजय के उन्नत शिखर पर स्थापित किया। यह विजय सैनिक बल से नहीं है अपितु स्वयं के अन्दर विद्यमान बुराइयों को जानकर उन पर नियन्त्रण करना ही विजय है। भारतीयों ने वेदों और शास्त्रों का गहन अध्ययन किया, परखा-जोड़ा और अपने सम्पूर्ण कर्मकाण्ड को शंका, अस्वीकृति एवं समाधान को प्राप्त किया। इस क्रम में भारत में अनेक शास्त्रों जैसे रेखागणित, गणित शास्त्र, रसायन शास्त्र, संगीत शास्त्र, वैद्यक शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करके उनका विकास किया । बौद्ध धर्म को प्रतिपादित किया। वर्तमान समय में विश्व के समस्त विद्यालयों के द्वारा अपनाई जाने वाली शिशु पद्धति का विकास भी भारत में हुआ था। भारतीयों ने ही इन कठिन शास्त्रों के जटिल तथ्यों एवं जीवन के प्रत्येक पहलुओं को संस्कृत की काव्यमय भाषा में अभिव्यक्त और प्रतिपादित किया।

यही वह भारत है, जिसके आध्यात्मिक प्रवाह का प्रमाण यहाँ प्रवाहित विशाल नदियों और स्वर्ग के रहस्यों को जानने के लिए उत्सुक हिममण्डित शिखरों वाला हिमालय इसकी गौरव गाथा का गान करता है। यहीं स्त्री-पुरुष ने समान रूप से धर्म के व्यावहारिक और सच्चे अर्थ को जानने के लिए समान रूप से प्रयास किया। यहीं मनुष्य ने अपने कर्ता होने के आवरण को त्यागकर आत्मसाक्षात्कार किया और आत्मा-परमात्मा और प्रकृति के रहस्य और सत्ता को जाना। मोह-माया को त्यागकर वैराग्यरूपी परम और दिव्य शांति को प्राप्त किया। यहीं मानव की चेतना ने इतना विस्तार प्राप्त किया कि सब कुछ उसकी चेतना में समाहित हो गया। भारत एकमात्र ऐसा देश है जिसने कभी अपने विचारों का आदान-प्रदान सैन्य बल के आधार पर नहीं किया जिसके कारण इसकी सभ्यता और संस्कृति ज्यों की त्यों विद्यमान है और सम्पूर्ण विश्व को ज्ञान प्रदान कर रही है।

प्रश्न 2.
भारतीय आर्य जाति की विश्व को क्या देन है? लिखिए।
उत्तर:
यह भारतीय आर्य जाति ही है जिसने अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने के प्रयास में विश्व को रेखागणित, ज्योतिष, रसायन, वैद्यक और संगीत जैसे वैज्ञानिक शास्त्र प्रदान किए। अनेक वाद्य यंत्रों और शिशुओं को संस्कारित करने वाली शिक्षा पद्धति को आविष्कार किया, जिसका अनुसरण विश्व के समस्त विद्यालयों द्वारा किया जा रहा है। इसी आर्य जाति ने जब अपने देवता और प्रजापति को अनुपयोगी पाया तो बौद्ध जैसे विश्वधर्म की संस्थापना की जिसके विश्वभर में अनेक अनुयायी हैं। इन्होंने ही कार्य-कारण का ऐसा सिद्धान्त दिया जिस पर समस्त हिन्दू धर्म टिका हुआ है। इन्होंने ही अपने काव्यात्मक दृष्टिकोण के आधार गणित जैसे कठिन और जटिल तथ्यों वाले विषय को संस्कृत की काव्यात्मक भाषा में निरूपित किया।

इतना ही नहीं जीवन के जटिल पहुलओं को भी अपने काव्य का अंश बनाया। इनकी ही विश्लेषणात्मक शक्ति और कवित्व अन्तर्दृष्टि ने समन्वित होकर राष्ट्रीय केन्द्रबिन्दु का स्वरूप धारण किया, जो प्रत्येक हिन्दू को इन्द्रियों से उठाकर देवत्व की ओर ले जाता है। इन्हीं के प्रयासों का ही परिणाम है जो मानव स्वयं का साक्षात्कार करने में सक्षम हुआ है। उसने न केवल स्वयं को पहचाना अपितु प्रकृति और परमात्मा तक के रहस्यों को जानने में समर्थ हुआ। मानसिक शांति की प्राप्ति के लिए इसी आर्य जाति ने मनुष्य को वैराग्य का मार्ग दिखाया। अध्यात्म और दर्शन भी विश्व को इसी आर्य जाति की देने हैं। संपूर्ण विश्व के ज्ञान का एक बहुत बड़ा भाग इसी आर्य जाति की देन है। यह इस आर्य जाति के ही सनातन विचारों का प्रभाव है जिसके कारण भारत आज भी धर्मगुरु के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 3.
भारतीय जीवन दर्शन विश्लेषणात्मक मेधा से संचालित है।” कैसे लिखिए?
उत्तर:
‘नासत सत् जायते।’ अर्थात् जिसका अस्तित्व नहीं है, उसमें से किसी की भी उत्पत्ति संभव नहीं है और जिसका अस्तित्व है। उसका आधार भी निश्चित होगा। शून्य में से ‘कुछ’ संभव नहीं। यह सिद्धान्त विश्लेषणात्मक मेधा (बुद्धि) का ही परिणाम है, जिस पर समस्त हिन्दू धर्म और भारतीय जीवन दर्शन आधारित और संचालित है। इसी कार्य-कारण सिद्धान्त के कारण ही प्राचीन मनुष्य में अनेक जिज्ञासाओं का जन्म हुआ, जिन्हें शांत करने के लिए उसने अपने ग्रन्थों-शास्त्रों और कर्मकाण्डों को जाँचा-परखा और उनका गहन अध्ययन किया। इसी विश्लेषणात्मक बुद्धि के आधार पर उसने अपनी यज्ञवेदी की संरचना को जानने का प्रयास किया और यज्ञ के निश्चित समय को जानने का प्रयत्न भी किया।

अपने विश्लेषण और तर्क के आधार पर उसने अपनी शंकाओं का समाधान प्राप्त किया। साथ ही अनेक वैज्ञानिक शास्त्रों की रचना, वाद्य यंत्रों और शिशु शिक्षा पद्धति का आविष्कार किया। बौद्ध जैसे विश्व धर्म की संस्थापना इसी विश्लेषणात्मक बुद्धि का ही परिणाम है। इतना ही नहीं इन शास्त्रों के जटिल तथ्यों का वर्णन किसी अन्य भाषा में संभव न होने पर संस्कृत की काव्यमयी भाषा में करना, भारतीय आर्य जाति की विश्लेषणात्मक मेधा ही है जिसके परिणामस्वरूप भारतीय दर्शन मात्र काल्पनिक कथा-कहानियाँ नहीं अपितु विश्लेषित ज्ञान के भंडार हैं जो मनुष्य को पशुत्व.से देवत्व की ओर अग्रसर करते हैं। उसे मानसिक शांति प्राप्त करने के लिए वैराग्य का मार्ग दिखाते हैं। संसार में विद्यमान प्रत्येक वस्तु जीव प्राणी के रहस्य को जानने का तरीका बताते हैं। भारतीय आर्य जाति के विश्लेषणात्मक शक्ति के ज्योति पुंज के रूप में यह भारतीय दर्शन न केवल भारत को अपितु विश्वभर को प्रकाशित कर रहा है।

RBSE Class 12 Hindi मंदाकिनी Chapter 4 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

RBSE Class 12 Hindi मंदाकिनी Chapter 4 लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
प्रस्तुत पाठ किसका अंश है और कहाँ से लिया गया है?
उत्तर:
प्रस्तुत पाठ स्वामी विवेकानंद द्वारा शिकागो में हुए धर्म सम्मेलन में दिए गए भाषण का अंश है। यह एकनाथ रानाडे द्वारा संकलित तथा देवेन्द्र स्वरूप अग्रवाल द्वारा अनुवादित रचना ‘उत्तिष्ठत ! जाग्रत !!’ में से लिया गया है।

प्रश्न 2.
एकनाथ रानाडे के अनुसार भारतीय युवा पीढ़ी किससे प्रभावित होकर हीनता का शिकार होती जा रही है? वह किसके माध्यम से सदमार्ग और नवीन बोध को प्राप्त करेगी?
उत्तर:
एकनाथ रानाडे के अनुसार भारतीय युवा पीढ़ी पश्चिमी विचारों और रहन-सहन से प्रभावित होकर हीनता का शिकार होती जा रही है। वह स्वामी विवेकानन्द द्वारा दिये गए इस भाषण के माध्यम से भारत के द्वारा प्रत्येक क्षेत्र में दिये गए उसके अतुलनीय योगदान को जानकर सदमार्ग और नवीन बोध प्राप्त करेगी।

प्रश्न 3.
स्वामी जी के अनुसार भारत भूमि कैसी है?
उत्तर:
स्वामी जी के अनुसार भारत भूमि मंगलमयी पुण्य भूमि है क्योंकि यह एकमात्र देश है जो अंतिम लक्ष्य अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति तक आत्मा के आवागमन और परमात्मा के रहस्य को जानता व मानता है। यहीं मानवता ने पवित्रता, उदारता और शांति के चरम शिखर को प्राप्त किया और यहीं से धर्म और दर्शन विश्वभर में फैला । भारत एक ऐसा देश है जो अन्तर्दृष्टि एवं आध्यात्मिकता का घर है।

प्रश्न 4.
साधारण इतिहास में हमें किनका और कैसा वर्णन प्राप्त होता है?
उत्तर:
साधारण इतिहास में हमें तत्कालीन राजा-महाराजाओं और शासकों का वर्णन प्राप्त होता है, जिन्होंने अपनी अपवित्र वासनाओं, धृष्टता और लालच के कारण सामान्य जन और इस भूमि को पद-दलित किया। साधारण इतिहास में इन शासकों द्वारा किये गए कार्यों का व उस समय के समाज पर पड़े इनके प्रभावों का वर्णन प्राप्त होता है।

प्रश्न 5.
हमारे प्राचीन और विशिष्ट राजाओं का वास्तविक परिचय कहाँ से प्राप्त होता है? उन्होंने सभ्यता के उदय से पूर्व ही किन भावों से प्रेरित होकर परमावस्था को प्राप्त किया था?
उत्तर:
हमारे प्राचीन और विशिष्ट राजाओं और उनकी वंशावलियों का वास्तविक परिचय हमें हमारे दर्शन, काव्य ग्रन्थों से प्राप्त होता है। उन्होंने सभ्यता के उदय से पूर्व ही अपनी भूख-प्यास, लोभ-मोह और सौन्दर्य, तृष्णा जैसे भावों से प्रेरित होकर ऐसे मार्ग और उपाय खोजे जिन पर चलकर उन्होंने पूर्णता और परमावस्था को प्राप्त किया।

प्रश्न 6.
अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए आर्य जाति ने क्या-क्या प्रयास किये?
उत्तर:
अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए आर्य जाति ने अपने शास्त्रों के प्रत्येक तथ्य को जाँचा-परखा, उस पर अध्ययन और चिंतन किया। अपनी यज्ञवेदी की रचना को जाना और यज्ञ करने के निश्चित समय का रहस्य समझा। इतना ही नहीं वह जिस देवता और प्रजापति को सर्वव्याप्त और सर्वशक्तिमान मानते थे, उसके रहस्य को जाना और उसे अपने लिए अनुपयोगी पाया।

प्रश्न 7.
अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने के प्रयास में आर्य जाति ने क्या-क्या आविष्कार किए और संसार को कौन-कौन से वैज्ञानिक शास्त्र प्रदान किये?
उत्तर:
अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने के प्रयास में आर्य जाति ने वाद्य यंत्र, शिशु शिक्षा पद्धति और बौद्ध जैसे विश्व धर्म की खोज की। यज्ञ वेदी की रचना और यज्ञ के निश्चित समय को जानने के प्रयास में रेखागणित, ज्योतिष शास्त्र और संगीत, वैद्यक, सायन जैसे वैज्ञानिक शास्त्र प्रदान किए।

प्रश्न 8.
स्वामी जी ने आर्य जाति की विश्लेषणात्मक शक्ति और कवित्व दृष्टि को किसके समान बताया है?
उत्तर:
स्वामी जी ने आर्य जाति की विश्लेषणात्मक शाक्ति और कवित्व दृष्टि को हमारी लचीली कल्पनाओं और लौहपत्रों के समान बताया है जो लौह स्तंभों से काटकर अर्थात् वेद और शास्त्रों के गहन अध्ययन और मंथन के बाद प्राप्त किए गये हैं। जिन्हें मानव के द्वारा अपने अनुरूप भी प्रयोग किया जा सकता है।

प्रश्न 9.
वेदों में हमें किनका वर्णन उपलब्ध होता है?
उत्तर:
वेदों में हमें विस्तृत कर्मकाण्ड एवं विविध व्यवसायों की आवश्यकता की पूर्ति के लिए जन्मगत-वर्गों पर आधारित अर्थात् जन्म के आधार पर व्यवसाय करने वाले समाज एवं जीवन की अनेक आवश्यकताओं तथा अनेक विलासिताओं का वर्णन उपलब्ध होता है।

प्रश्न 10.
भारत को आध्यात्मिकता का आदिस्रोत क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
भारत को आध्यात्मिकता का आदिस्रोत इसलिए कहा जाता है क्योंकि यहीं सर्वप्रथम ज्ञान का उदय हुआ। सर्वप्रथम 
मानव-प्रकृति एवं सांसारिक रहस्यों को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। यहीं पर आत्मा की अमरता, एक परमपिता की सत्ता और प्रकृति, मनुष्य व परमात्मा के आपसी संबंध के सिद्धान्ते का जन्म हुआ। यहीं धर्म और दर्शन के उच्चतम सिद्धान्तों ने अपने चरम शिखर को प्राप्त किया।

प्रश्न 11.
भारत का वातावरण कैसा है? इसके सान्निध्य में आने का क्या परिणाम होता है?
उत्तर:
भारत का वातावरण अत्यंत धार्मिक, आध्यात्मिक और दार्शनिक है। इसके सान्निध्य में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह भारतीय हो अथवा विदेशी स्वयं को भारत के श्रेष्ठतम और तेजस्वी महापुरुषों और ऋषि-मुनियों के उच्चतम विचारों से घिरा हुआ अनुभव करेगा। यहाँ का वातावरण उसे निम्नतम कार्य करने से रोककर देवत्व की प्राप्ति कराता है।

प्रश्न 12.
भारतीय आर्य जाति ने किन गंभीर समस्याओं का सामना किया और उसका कैसा समाधान प्राप्त किया?
उत्तर:
भारतीय आर्य जाति के समक्ष जन्म-मरण की कठिन समस्या थी। जीवन की तृष्णा अर्थात् जीवित रहने की इच्छा को बनाए रखने के लिए उसने अनेक बेकार प्रयास किये, जिनसे उसे केवल दु:ख की प्राप्ति हुई। उसने इन सब समस्याओं का सामना करते हुए उनका ऐसा समाधान किया जैसे यह समस्या कभी थी ही नहीं और न आगे कभी रहेगी।

प्रश्न 13.
सम्पूर्ण विश्व पर किसका ऋण है? उसके लिए तिरस्कारस्वरूप किस शब्द का प्रयोग किया जाता है? वह सदैव से किसकी प्रिय सन्तान है?
उत्तर:
सम्पूर्ण विश्व पर हमारी मातृभूमि और सहिष्णु एवं सौम्य हिन्दू जाति का सर्वाधिक ऋण है। उसके लिए कभी-कभी तिरस्कार स्वरूपं निरीह’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। यही निरीह हिन्दू सदैव से जगत्पिता परमेश्वर की प्रिय सन्तान रहा है।

प्रश्न 14.
प्राचीन काल से वर्तमान तक एक जाति से दूसरी जाति में विचारों का आदान-प्रदान कैसे होता रहा है?
उत्तर:
प्राचीन काल से वर्तमान समय तक अनेक महान जातियों के विचारों का जन्म हुआ, किन्तु उनके इन विचारों के आदान-प्रदान की मार्ग सदैव रक्त, हाहाकार, चीत्कार और अश्रुओं की अविरल धारा से परिपूर्ण रहा है। इन जातियों ने सदैव सैन्य-शक्ति और युद्ध बल के आधार पर अपने विचारों को दूसरी जाति पर थोपा और उन्हें आक्रान्त ( भयभीत) करके उन्हें मानने के लिए मजबूर किया ।

प्रश्न 15.
युद्ध और सैन्यबल के आधार पर विचारों का आदान-प्रदान करने वाली जातियों को क्या परिणाम रहा?
उत्तर:
संसार में उत्पन्न अनेक जातियाँ जैसे ग्रीकस, रोमन व अन्य जिन्होंने सदैव सैन्यबल और युद्ध को अपने विचारों, विजय और राज्य–विस्तार का संबल बनाया और लोगों को आक्रांत किया। ऐसी जातियों का अस्तित्व इस संसार से सदैव के लिए मिट गया। जिस स्थान पर कभी उनके भव्य महल खड़े हुए थे, आज वहाँ मकड़ियाँ जाला बुन रही हैं। आज उनकी गाथाएँ गाने वाला भी कोई शेष नहीं है।

प्रश्न 16
भारत सदैव से आशीर्वाद का पात्र क्यों रहा है?
उत्तर:
भारत आरंभ से शांति, प्रेम और सद्भाव का प्रणेता और अनुयायी है। इसने कभी भी युद्ध और सैन्यबल को अपने विजय और विचारों के आदान-प्रदान का जरिया नहीं बनाया। भारत सदा से ही अपने विचारों के आगे शांति और पीछे आशीर्वाद लेकर चलता रहा है। यही कारण है यह सदैव से आशीर्वाद का पात्र बनकर आज भी पूर्व की भाँति दृढ़ और स्थायी है और सदा रहेगा।

प्रश्न 17.
स्वामी जी ने ऐसा क्यों कहा कि हमारे पुराण-ऋषि यदि वापस लौट आएँ तो उन्हें आश्चर्य नहीं होगा?
उत्तर:
स्वामीजी ने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि हमारे पुराणों के ऋषि-मुनियों द्वारा अपने अनुभव एवं चिंतन से निष्पन्न करके जो विधान (नियम) हमें प्रदान किए थे, वे हजारों वर्षों के बाद आज भी ज्यों के त्यों विद्यमान हैं। ये सनातन विचार अनेक आघातों को झेलकर कमजोर होने के स्थान पर और अधिक मजबूत और स्थायी हो गए।

प्रश्न 18.
संपूर्ण संसार के पर्यटन के पश्चात् स्वामी विवेकानंद ने हिन्दू धर्म के विषय में क्या कहा?
उत्तर:
स्वामी जी ने हिन्दू धर्म को सब विधानों और आचारों का केन्द्र और राष्ट्रीय जीवन का मूल स्रोत कहा। हिन्दू धर्म ही वह धर्म है जो कितने ही आघातों को झेलकर स्थायी है, जिसने आरंभ काल से ही सत्य, धर्म, ज्ञान और विज्ञान के रहस्य को जाना। मनुष्य को उसने वास्तविक उद्देश्य अर्थात् परम सत्ता की प्राप्ति का मार्ग दिखाया।

प्रश्न 19.
स्वामी जी के अनुसार हमें किसका गौरव प्राप्त है?
उत्तर:
स्वामी जी के अनुसार हमें भारत जैसे पावन देश की संतान होने का गौरव प्राप्त है, जिसने न केवल सर्वप्रथम ज्ञान प्राप्त किया, अपितु संसारभर में ज्ञान का प्रकाश फैलाया। जिसकी सभ्यता और संस्कृति आज भी जीवित है और सदा रहेगी। विश्वभर के लोगों को आत्मसाक्षात्कार करके स्वयं को जानने और अपने परम लक्ष्य को प्राप्त करने का मार्ग दिखाया।

RBSE Class 12 Hindi मंदाकिनी Chapter 4 निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
लेखक एकनाथ रानाडे का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर:
मनस्वी, सेवा-समर्पण की प्रतिमूर्ति तथा मूक व्यक्तित्व श्री एकनाथ रानाडे का जन्म महाराष्ट्र के अमरावती जिले के टिटोली ग्राम में हुआ। इनके ग्राम में शिक्षा की पर्याप्त व्यवस्था नहीं होने के कारण एकनाथ रानाडे अध्ययन करने के लिए अपने बड़े भाई के पास नागपुर आ गए। यहाँ रहते हुए इन्होंने माध्यमिक शिक्षा परीक्षा उत्तीर्ण की और इसी समय इनका मन संगठनात्मक कार्यों की ओर प्रवृत्त हुआ। सन् 1936 में इन्होंने अपनी शिक्षा पूर्ण की और संगठन कार्य हेतु प्रवासी कार्यकर्ता बनकर मध्य प्रदेश में रहे।

इसी अवधि में उन्होंने हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय (सागर विश्वविद्यालय)-से तत्त्वज्ञान विषय में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने जीवनपर्यन्त अपने सभी दायित्वों को निभाते हुए समाज और राष्ट्र की सेवा में स्वयं को समर्पित रखा। एकनाथ रानाडे कुशल संगठनकर्ता, प्रभावी वक्ता, योजनाकार, सत्याग्रही तथा स्वामी विवेकानंद शिला स्मारक के योजनाकार, वास्तुविद् एवं निर्माता के रूप में लोगों के हृदय में निवास करते हैं। आपने ही स्वामी विवेकानंद के विचारों को संकलित करके युवा पीढ़ी को हीन भावना से उबारने और सदमार्ग की ओर प्रेरित करने का सफल प्रयास किया है।

प्रश्न 2.
भारतीय आर्य जाति की उत्पत्ति, विकास प्रक्रिया और उपलब्धियों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
भारतीय आर्य जाति की उत्पत्ति के विषय में कोई ऐसा ठोस प्रमाण प्राप्त नहीं होता है जिसके आधार पर यह ज्ञात किया जा सके कि इस महान जाति ने अपने मूल स्थान से निकलकर प्राचीनकाल में यूरोप व अन्य स्थानों को अपना निवास स्थान बनाया। न ही उनके वर्ण अर्थात् रंग का ही ज्ञान है कि वे काले थे अथवा सफेद उनकी आँखें नीली थीं या काली। इस विषय में कोई भी आधार नहीं है, केवल एक संस्कृत भाषा ही ऐसे प्रमाण के रूप में प्राप्त होती है जिसका कुछ यूरोपीय भाषाओं से संबंध दिखाई देता है। 
इस आर्य जाति ने अपने विकास की प्रक्रिया जिज्ञासाओं को आधार बनाकर आरंभ की और कार्य-कारण के सिद्धान्त के आधार पर अपनी जिज्ञासाओं को शांत करना और अपनी शंकाओं का समाधान प्राप्त करना आरंभ कर दिया।

अपनी इन जिज्ञासाओं और उत्कंठाओं को शांत करने के लिए उसने अपने ग्रन्थों और शास्त्रों को जाँचा-परखा, उनका गहन चिंतन और अध्ययन किया। उसने अपनी यज्ञ वेदी की रचना को समझने के लिए उसकी ईंटों को उखाड़ा और यज्ञ के निश्चित नियम और वेदी के आकार के रहस्य को समझा। वह इतने पर ही नहीं रुका और उसने अपने देवता जिसे वह सर्वाधिक शक्तिशाली और सर्वव्यापक मानता था उसके रहस्यों को जाना और उसे अनुपयोगी पाने पर गौण रूप प्रदान करके बौद्ध जैसे विश्वधर्म की संस्थापना की। अपनी इस विकास प्रक्रिया के दौरान अनेक वैज्ञानिक शास्त्र जैसे-रेखागणित वे ज्योतिष संस्कृत की. काव्यमयी भाषा में निरूपित किए। इन्होंने अनेक वाद्य यंत्रों का आविष्कार किया और शिशु मन को संस्कारित बनाने वाली शिक्षा पद्धति का आविष्कार किया।

प्रश्न 3.
वेद आधारित समाज व्यवस्था का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर:
वैदिक कालीन समाज व्यवस्था वर्गों पर आधारित थी। उस समय सम्पूर्ण समाज चार वर्षों पर आधारित था। ये चार वर्ण थे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । ब्राह्मण उसे तत्कालीन समाज व्यवस्था का सर्वोच्च और श्रेष्ठ वर्ण माना जाता था। इस वर्ण के लोगों को शिक्षा प्रदान करने और यज्ञ-अनुष्ठान करने का पूर्ण अधिकार था। यह लोग उस समय के शासकों को भी सलाह दिया करते थे और अपनी ज्योतिष गणना के आधार पर उन्हें प्रत्येक कर्म करने का उपदेश दिया करते थे।

क्षत्रीय इस समाज व्यवस्था का दूसरा और सबसे प्रभावशाली वर्ण था। इस वर्ण में शासक, राजा, महाराजा, मंत्री, सैनिक आदि सम्मिलित थे, जो युद्ध, शासन, रक्षा तथा राज्य विस्तार जैसे कार्य किया करते थे। इनका जीवन विलासिताओं से परिपूर्ण था। यह अपने मनोरंजन के लिए शिकार, संगीत और विद्वानों के शास्त्रार्थ भी करवाया करते थे।

तीसरा वर्ण है- वैश्य। यह वर्ण समाज में व्यापार व्यवस्था को सँभालता था। तत्कालीन समाज में होने वाली समस्त व्यापारिक गतिविधियाँ इसी वर्ण और इनके वंशजों द्वारा की जाती थी। चौथा और सबसे निम्न वर्ण है-शूद्र वर्ण। इस वर्ण के लोग केवल सेवाकार्य किया करते थे। इन्हें समाज की सबसे निम्न जाति माना जाता था। अत: इस वर्ष के लोगों को ज्ञान प्राप्त करने का अधिकारी भी नहीं माना जाता था और इसे सभी धार्मिक और सार्वजनिक स्थानों से दूर रखा जाता था। इन वर्गों में जन्म लेने वाली पीढ़ियों को अपने जन्म के आधार पर अपना व्यवसाय अर्थात् कर्म करना पड़ता था। इस प्रकार वेदों में विस्तृत कर्मकाण्ड विविध व्यवसायों की आवश्यकता की पूर्ति के लिए जन्मगत-वर्गों पर आधारित समाज व्यवस्था का रूप देखने को मिलता है।

प्रश्न 4.
आर्य जाति की कवित्वमय अन्तर्दृष्टि का संक्षेप में परिचय दीजिए। किसने समन्वय से हिन्दू जाति की मनोरचना की और कैसे?
उत्तर:
आर्य जाति द्वारा निरूपित सभी शास्त्र, दर्शन और ग्रन्थ हमें उनकी कवित्वमय अन्तर्द्रष्टि अर्थात् उनके काव्यात्मक दृष्टिकोण से परिचित कराते हैं। उन्होंने अपने विश्लेषित ज्ञान भंडार को काव्यात्मक रूप में इस प्रकार प्रस्तुत किया जो अतुलनीय है। उन्होंने अपने दर्शन, इतिहास, नीतिशास्त्र और राज्यशास्त्र सभी को संस्कृत की काव्यमयी भाषा में प्रस्तुत किया। संस्कृत उस समय की 
वह संस्कारित भाषा है, जिसके अतिरिक्त अन्य किसी भाषा में इन शास्त्रों के जटिल तथ्यों को वर्णन करना संभव नहीं था। संस्कृत की इसी काव्यमय भाषा ने गणित के जटिल तथ्यों को अच्छे प्रकार से अभिव्यक्त किया।

इसी कवित्वमय अन्तर्दष्टि ने आर्यों की विश्लेषणात्मक शक्ति के साथ समन्वय स्थापित करके हिन्दू जाति की मनोरचना की। इनके समन्वित रूप ने हिन्दू जाति को आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। इनके समन्वय ने ही आर्य जाति को इन्द्रियों से ऊपर उठकर स्वयं को जानने और आत्म-साक्षात्कार करने की प्रेरणा दी। आर्यों ने अपने सम्पूर्ण शास्त्रों, कलाओं और पारिवारिक जीवन की कठोर वास्तविकताओं को इन कवित्वमयी धारणाओं के बल पर तब तक आगे बढ़ाया जब तक इस जाति ने उस अतेन्द्रिय (जिसे इंद्रियों के माध्यम से पाना संभव न हो।) को प्राप्त नहीं कर लिया।

प्रश्न 5.
देवत्व की प्राप्ति के लिए प्राचीन भारतीय मनुष्य ने क्या-क्या संघर्ष किये और किन समस्याओं को झेला और इस संघर्ष के परिणामस्वरूप उसे क्या प्राप्त हुआ?
उत्तर:
भारत का वातावरण आरंभ से ही आध्यात्मिक रहा है। यहाँ का मनुष्य सदैव ही ईश्वर-प्राप्ति और उसके रहस्यों को जानने व आत्मसाक्षात्कार के लिए प्रेरित रहा है। 
आरंभ में स्वयं को कर्ता मानकर जीवनयापन करने वाले मनुष्य को जब अपनी वास्तविकता का ज्ञान हुआ तो उसने सर्वप्रथम अपने कर्ता होने की अवधारणा को त्याग दिया और अजर-अमर, आदि-अन्त से रहित आत्मा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए आत्म-साक्षात्कार का मार्ग खोजा। जब उसे सांसारिक मोह-माया का सत्य ज्ञात हुआ तो उसने अपनी भोग-विलास और माया की जंजीरों को तोड़ डाला और मानवतारूपी समुद्र में आनन्द और पीड़ा, सुख और दु:ख, हास्य और रुदन जैसी जीवन की शक्तिशाली भावनाओं का त्याग करके परम और शाश्वत शांति की प्राप्ति के लिए वैराग्य का मार्ग खोजा।

जिससे न केवल उसे शाश्वत शांति प्राप्ति हुई, अपितु देवत्व की ओर भी अग्रसर हुआ। उसने जन्म-मरण की सबसे कठिन समस्या, जीने की तीव्र इच्छा और जीवित रहने के लिए व्यर्थ किए जाने वाले प्रयासों से दु:खी होकर ऐसा समाधान प्राप्त किया जिसने इस समस्या को जड़ से मिटा दिया। वह समाधान था- शरीर को नश्वर मानना और आत्मा को अजर, अमर और परमपिता का अंग मानना, जिसका कभी नाश नहीं होगा।

प्रश्न 6.
प्राचीन समय से वर्तमान समय तक एक जाति से दूसरी जाति में विचारों के आदान-प्रदान पर अपने विचार लिखिए।
अथवा
रोमन और ग्रीक जातियों ने किस प्रकार अपना अस्तित्व स्थापित किया था? उनका व उनके ही समान विचारों का आदान-प्रदान करने वाली जातियों को क्या परिणाम हुआ?
उत्तर:
प्राचीन समय से वर्तमान समय तक इस संसार में अनेक महान जातियों के अनेक महान विचारों का जन्म हुआ। समय-समय पर ये विचार एक जाति से दूसरी जाति में प्रवाहित होते रहे हैं। परंतु इन विचारों का रास्ता सदैव युद्ध और सैन्य बल रहा है, जिसने लाखों मनुष्यों को मौत के घाट उतारा। इन विचारों के पीछे अनाथों की चीत्कार और विधवाओं की अविरल अश्रुधारा रही है। इसी रक्तरंजित मार्ग से होकर ये विचार इस संसार में पहुँचे।

ग्रीक और रोमन भी ऐसी ही जातियाँ हैं जिन्होंने युद्ध और सैन्य बल के आधार पर पृथ्वी पर अपने साम्राज्य और विचारों का विस्तार किया। एक समय ऐसा था जब ग्रीक सैनिकों के कदमताल से पृथ्वी काँप जाती थी और रोम का नाम सुनते ही लोग आक्रान्त हो उठते थे। दोनों ने ही अपने दबदबे और शक्ति के आधार पर विचारों का आदान-प्रदान किया। यही शक्ति और कठोर विचार उनके विनाश के कारण बने और वर्तमान में उनके केवल खण्डहर ही शेष रह गए। इसके अतिरिक्त और अन्य गौरवशाली जातियाँ संसार में आर्थी, जिन्होंने अपने कलुषित जातीय जीवन से दूसरों को भयभीत किया किंतु पानी के बुलबुले के समान सदा के लिए उनका अस्तित्व समाप्त हो गया।

प्रश्न 7.
भारत सदैव से ही आशीर्वाद का पात्र क्यों रहा है?
उत्तर:
भारत ने कभी भी अन्य जातियों के समान दूसरों को कुचलकर उन्हें भयभीत करके अपना दबदबा कायम नहीं किया और न ही कभी सैन्य बल और युद्ध को आधार बनाकर अपने विचारों को फैलाया और उनका समर्थन करने के लिए किसी को प्रताड़ित किया। उसने सदैव ही अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए शांति का मार्ग अपनाया। इससे (भारत से) उठने वाली प्रत्येक विचार तरंग और उन विचारों का प्रत्येक शब्द अपने आगे शांति और अपने पीछे आशीर्वाद लेकर आगे बढ़ा । संसार की सभी जातियों में केवल भारत की आर्य जाति ही एक ऐसी जाति है जिन्होंने कभी दूसरों पर सैनिक विजय प्राप्ति का रास्ता नहीं अपनाया। यही कारण है कि भारत सदैव से ही आशीर्वाद का पात्र रहा है।

प्रश्न 8.
यदि हमारे पुराण ऋषि-मुनि वापस लौट आएँ तो उन्हें आश्चर्य न होगा, उन्हें ऐसा नहीं लगेगा कि वे किसी नए देश में गये। स्वामी जी ने ऐसा क्यों कहा? उनके कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारत एक ऐसा देश है जिस पर समय-समय पर सैकड़ों विदेशी आघात हुए हैं। विदेशियों ने आकर यहाँ शासन किया। यहाँ की भूमि को पद्दलित करने का प्रयास किया। अपने आचार-विचार और व्यवहार को लोगों पर जबरदस्ती थोपा । अपने बल और शक्ति के आधार पर आध्यात्मिक और धार्मिक हस्तक्षेप करके भारतीयों को उनके प्राचीन आध्यात्मिक और धार्मिक विचारों से दूर करने का पुरजोर प्रयास किया, किन्तु उनके सभी प्रयास विफल हुए और भारतीय विचार को टस से मस न कर सके अपितु वे भी यहाँ के आध्यात्मिक वातावरण से स्वयं को अछूता न रख सके। इस प्रकार विभिन्न आघातों को झेलते हुए भी हमारे पुराण ऋषि-मुनियों के सनातन विचार आज भी ज्यों के त्यों विद्यमान हैं। अपितु वे इन आघातों से और भी अधिक दृढ़ और स्थायी हो गए हैं। इसीलिए स्वामी जी ने उपर्युक्त कथन कहा होगा।

पाठ – सारांश :

प्रस्तुत पाठ’हमारी पुण्य भूमि और इसका गौरवमय अतीत’ स्वामी विवेकानंद द्वारा शिकागो में हुए धर्म सम्मेलन में दिए गए भाषण का अंश है। यह अंश ‘एकनाथ रानाडे’ द्वारा संकलित व देवेन्द्र स्वरूप अग्रवाल द्वारा अनुवादित ‘उत्तिष्ठत ! जाग्रता !!’ में से लिया गया है। एकनाथ रानाडे के अनुसार इस धर्म सम्मेलन में स्वामी विवेकानन्द ने भारत और हिन्दू की महानता और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में दिए गए भारत के योगदानों का अपनी तेजस्वी भाषा में ऐसा वर्णन किया है, जो पश्चिमी विचारों से प्रेरित होकर भारतीय संस्कृति से मुँह फेरती युवा पीढ़ी को सद्मार्ग दिखाएगा।

स्वामी जी के अनुसार संपूर्ण पृथ्वी पर भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जो पुण्यभूमि अर्थात् पवित्र कहलाने के योग्य है। यह वह देश है जहाँ समस्त जीवों को अपने किए हुए कर्मों का फल भुगतने जाना पड़ता है। वे भारत को आध्यात्मिकता का घर मानते हैं। । उनके अनुसार भारत का इतिहास कोई साधारण इतिहास नहीं है, जो तत्कालीन समाज की राजनैतिक और सामाजिक उठा-पटक बताता है, अपितु विशाल ग्रन्थ और शास्त्र हैं जिनमें भारत के महान राजाओं और उनकी वंशावलियों का महान जीवन चरित्र प्राप्त होता है। जिन्होंने सभ्यता के विकास से पूर्व ही लोभ-मोह, भूख-प्यास से ऊपर उठकर उस परमावस्था अर्थात् ईश्वर को प्राप्त करने के उपायों को खोजा। यद्यपि समय की विपरीत परिस्थितियों ने इसके प्रमाणों को नष्ट कर दिया। फिर भी उनकी जीर्ण-शीर्ण विजय पताकाएँ आज तक उनके चिह्न आज भी भारत के महान अतीत की कहानियाँ सुना रहे हैं।

आर्य जाति के उद्गम और विकास के विषय में ठोस प्रमाण नहीं मिलते हैं। जिनके आधार पर यह कह पाना सम्भव नहीं है कि हम सभी उन्हीं के वंशज हैं अथवा नहीं, केवल संस्कृत भाषा ही ऐसा प्रमाण है जो कुछ यूरोपीय भाषाओं से संबंधित है, उनके कुछ उत्तराधिकारी हमारे मध्य हैं, जिनका गहन चिंतन देशकाल की बाधाओं को पार करता पृथ्वी पर रहने वाली सभी जातियों को ज्ञान प्रदान करता रहता है और आज भी कर रहा है।

आर्यों ने अपनी विकास प्रक्रिया जिज्ञासाओं के साथ आरंभ की। अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए उन्होंने अपने शास्त्रों का गहन अध्ययन और चिंतन किया। अपने यज्ञ की वेदियों की रचना को समझा और यज्ञ करने के निश्चित समय को जाना। इन सब प्रयासों में उसने गणित, रेखागणित, ज्योतिष, रसायन, वैद्यक और संगीत जैसे अनेक शास्त्रों की रचना की। वह इतने पर ही नहीं रुके। उन्होंने अपने सर्वशक्तिमान देवता और प्रजापति को भी परखा और उसे अनुपयोगी मानते हुए बौद्ध जैसे विश्वधर्म की संस्थापना की जिसके विश्वभर में अनेक अनुयायी हैं। इसी आर्य जाति ने ऐसी शिक्षा पद्धति का आविष्कार किया जो शिशुओं को संस्कारित बनाती है। जिसका अनुसरण विश्व के समस्त देशों में किया जा रहा है। अन्य किसी भाषा में शास्त्रों के कठोर तथ्यों का वर्णन संभव न होने पर इन्होंने इनकी रचना संस्कृत की काव्यमयी भाषा में की।

स्वामी जी ने आर्यों की इसी विश्लेषणात्मक शक्ति और काव्यात्मक दृष्टि को ही हिन्दू जाति की मनोरचना और राष्ट्रीय चरित्र का केन्द्र बताया। यही विश्लेषणात्मक शक्ति और काव्यात्मक दृष्टि मिलकर हिन्दूजाति को इंद्रियों से ऊपर उठने की प्रेरणा देती है। इसी काव्यात्मक दृष्टिकोण के आधार पर इस जाति ने अपनी सम्पूर्ण कलाओं, शास्त्रों और मानव जीवन के कठोर पहलुओं को तब तक आगे बढ़ाया, जब तक उसने अतेन्द्रिय अर्थात् जिसे इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जा सकता, उसका ज्ञान प्राप्त नहीं कर लिया। वेदों में प्राप्त वर्णन से पहले ही यह जाति, धर्म और समाज के अनेक रूपों एवं अवस्थाओं को पार कर चुकी थी।

स्वामी जी कहते हैं भारत ही वह देश है, जहाँ सर्वप्रथम ज्ञान को उदय हुआ और जिसकी भूमि को अनेक महान ऋषियों ने अपने ज्ञान से पावन किया। यहीं पर सर्वप्रथम मानव-प्रकृति के सांसारिक रहस्यों को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। यही आत्मा की अमरता, परमात्मा-प्रकृति के संबंध, रहस्य और सत्ता के सिद्धान्त को प्रतिपादित किया गया। भारत में ही धर्म और दर्शन ने सर्वप्रथम अपने चरम शिखर को प्राप्त किया और संसारभर में फैल गया। भारत का आध्यात्मिक वातावरण प्रत्येक व्यक्ति पर अपनी समान प्रभाव डालता है। वह उन्हें पशुत्व से उठाकर देवत्व की ओर बढ़ाता है। यहीं मनुष्य ने अपनी वास्तविकता को पहचानकर आत्म-साक्षात्कार किया। मोह-माया के बंधनों को तोड़कर पूर्ण वैराग्य

प्राप्त किया और जन्म-मरण जैसी जटिल संमस्या का समाधान प्राप्त किया। यहीं मानव के अंत:करण अर्थात् विचारों का इतना विस्तार हुआ कि सम्पूर्ण मानव जाति के साथ-साथ पशु-पक्षी, पेड़-पौधे सभी उसके चिंतन क्षेत्र में समाहित हो गए। भारत में ही मनुष्य ने ब्रह्माण्ड के रहस्य को जाना और उसे अपने अंदर भी महसूस किया। हिन्दू जाति की श्रेष्ठता को सिद्ध करते हुए स्वामी जी ने आगे कहा कि सम्पूर्ण विश्व पर हमारी मातृभूमि की श्रेष्ठ हिन्दू जाति का ऋण है। यही हिन्दू सदैव से ईश्वर की प्रिय सन्तान रहा है।

प्राचीन काल से वर्तमान समय में अनेक महान और शक्तिशाली जातियों से महान् विचार का जन्म हुआ। यह विचार समय-समय पर एक जाति से दूसरी जाति तक पहुँचे किन्तु इन विचारों के पहुँचने का मार्ग सदैव रक्त से पूर्ण अर्थात् युद्ध अथवा सैन्य बल रहा है। अर्थात् इन जातियों ने अपनी शक्ति के बल पर लोगों को डराकर अपने विचारों को उन तक पहुँचाया। इसके विपरीत भारत ने सदैव शांति के आधार पर अपने विचारों का प्रसार किया ।

इसी का परिणाम है कि भारत आज भी अपने महान रूप में विद्यमान है और युद्ध के आधार पर विचारों का आदान-प्रदान वाले ग्रीस और रोम जैसे देश मिट्टी में मिल गए। भारत में आज भी अनंत शताब्दियों के सनातन विचार ज्यों के त्यों विद्यमान हैं। समय-समय पर इन विचारों पर अनेक प्रहार हुए हैं, किन्तु उन्होंने इन्हें कमजोर करने के स्थान पर और अधिक मजबूती प्रदान की। स्वामी जी के अनुसार इन सभी विचारों के मूल में हिन्दू धर्म है, जो सैकड़ों विदेशी आक्रमण झेलने के बावजूद भारतवर्ष की जीवन शक्ति आत्मा के समान अजर और अमर है और हम ऐसे सभी को महान देश की संतान होने का गौरव प्राप्त है।

कठिन शब्दार्थ :

(पा.पु.पृ. 25) अंश = भाग, खंड। पुण्यभूमि = पवित्र स्थान (भारत) । गौरवमय = महान, वैभवशाली । अतीत = बीता हुआ समय । अनुवादित = अनुवाद या भाषांतर किया हुआ। उत्तिष्ठ = उठो। जाग्रत = जागो । अवधारणा = मन में किसी धारणा, कल्पना अथवा विचार का उदय होना । मेधा = बुद्धि, योग्यता, प्रतिभा । कालजयी = अनश्वर, मृत्यु विजेता । सौम्य = मधुर । सृष्टि = ब्रह्माण्ड। अर्वाचीन = आधुनिक। विराट = भव्य, विशाल । कालखण्ड = समय अंतराल । आध्यात्मिक = आत्माविषयक। अनुकरणीय = अनुकरण करने योग्य । परमुखापेक्षिता = प्रत्याशित विमुखता। हीनता = अभावग्रस्तता। ग्रस्त = पीड़ित। आत्मबोध = स्वयं की पहचान। ओजयुक्त = तेजस्वी। गहन = गंभीर।

(पा.पु. पृ. 26) अनिवार्य = निश्चित । ऋजुता = अवक्रता, छलहीनता। शुचिता = पवित्रता, सच्चरित्रता। अलौकिक = ईश्वरकृत। उद्यम = परिश्रम। बहुविध = अनेक प्रकार से। असीम = जिसकी सीमा न हो। अप्रतिहत = बिना रुकावट, अपराजित । समन्वय = मेल। परे = हटकर। अपूर्व = महान । गाथा = कहानी। कलुषित = दुश्चरित्र, मलिन । उद्दण्डता = धृष्टता । कृत्य = कार्य । विहान = प्रात:काल। परिचालित = संचालित होने वाली। झंझावात = तूफान। जर्जर – टूटा-फूटा, कमजोर । निष्क्रमण = निकलना, बाहर आना । वर्ण = रंग। श्वेत = सफेद । कृष्ण = काला। घनिष्टता = समीपती । निष्कर्ष = निर्णय। रक्त = खून।।

(पा.पु.पृ. 27) उदित होना = उगना। आभा = तेज, चमक। प्रसारित करना = फैलाना। कालातीत = प्राचीन अपरिवर्तनशील। अनिर्वचनीय = अकथनीय, अवर्णनीय। पुरातन = प्राचीन। बहुतांश = बहुत बड़ा भाग ! सर्वशक्तिमान = सबसे शक्तिशाली। निरस्तित्व = जिसका अस्तित्व न हो । प्रसाद = महल। परिणत होना = बदल जाना। सुघड़ता = सुन्दरता, सफाई । शंका = संदेह। सर्वदृष्टा = सब कुछ देखने वाला । गौण = अप्रधान, अस्वाभाविक। श्रीगणेश करना = आरंभ करना। अनुयायी = मानने वाले। प्रयास = प्रयत्न । वाद्य यंत्र = संगीत बजाने वाले यंत्र।

(पा.पु.पु. 28) शिशु = बालक । संस्कारित करना = संस्कारवान बनाना। आवरण = घेरा, परदा । कवित्वमय = काव्यात्मक, कविता से पूर्ण । पुष्पकुंज = गुलदस्ता । समन्वय = मेल। सरलतापूर्वक = आसानी से । वृत्ताकार = गोलाकार । स्वप्न = सपना। जगत -: संसार। वैशिष्ट्य = विशेषताएँ। धारणा = विचार। अतीन्द्रिय = जिसे इन्द्रियों के माध्यम से न जाना जा सके। अदृश्य = जो दिखाई न दे। सुगन्ध = महक। पूर्व = पहले। सुगठित = ठीक प्रकार से रचा या बनाया गया। विविध = विभिन्न । पुरातन = प्राचीन। नई = नदी। चिरन्तन = अनश्वर, शाश्वत । हिममण्डित = बर्फ से ढके हुए। | (पा.पु.पृ. 29) धरा = धरती । चरणरज = पैरों की धूल । अन्तर्जगत = सांसारिक। जिज्ञासा = (किसी चीज या तथ्य के विषय में) जानने की इच्छा। चरम = उन्नत, परम। स्पर्श करना = छूना । दुर्दान्त = अदम्य । धाम = स्थल, स्थान । सतत् = निरन्तर । मिथ्या = झूठ, असत्य। आसीन = बैठा हुआ। पीड़ा = दर्द, कष्ट। सामर्थ्य = योग्यता, शक्ति । दौर्बल्य = दुर्बलता। वैभव = ऐश्वर्य, धन-संपदा। दारिद्र्य = गरीबी । रुदन = रोना । शाश्वत = अनश्वर, सदैव रहने वाली। निस्तब्धता = शान्ति। आकांक्षा = इच्छा। प्रतिच्छाया = परछाँईं। अन्त:करण = विचार चेतना।

(पा.पु.पृ. 30) अविच्छिन्न = अविभाजित। अखण्ड = समग्र । ऋण = कर्ज, उधार। सौम्य = मधुर । निरीह = कमजोर, दीन। जगत्पिता = ईश्वर। अर्वाचीन = आधुनिक । प्रादुर्भाव = जन्मं । विचार संक्रमण = विचारों का लेन-देन । रणभेरी = युद्धघोष । रक्त = खून। चीत्कार = चीख। अजस्र = निरन्तर चलने वाली। अश्रुपात = आँसुओं का गिरना। किंवदन्ती = कहावत, लोकोक्तियाँ। सुदूर = बहुत अधिक दूर। पथ = रास्ता। पात्रे = योग्य। संचलन = चलना। पदाघात = पैरों की ठोकर। गाथा = कहानी। अस्त होना = डूबना । गर्व = घमंड। कलुषित = बुरे विचार। आक्रान्त करना = भयभीत करना, डराना। छाप = प्रभाव।

(पा.पु.पृ. 31) सहस्र = हजार । निष्पन्न = पूर्ण, सम्पन्न । विधान = विचार । अभिज्ञता = जानकारी। सनातन = सदैव रहने वाला। आघात = चोट । दृढ़ = मजबूत । स्थायी = टिका हुआ । पुष्ट = मजबूते । पर्यटन = भ्रमण । शत-शत = सैकड़ों । अक्षय = जो कभी न टूटे। पौरुष = पुरुषार्थ । अनादि = जिसका प्रारम्भ न हो।

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