RBSE Solutions for Class 12 Hindi मंदाकिनी Chapter 5 डॉ. रामकुमार वर्मा से बातचीत (साक्षात्कार)

Rajasthan Board RBSE Class 12 Hindi मंदाकिनी Chapter 5 डॉ. रामकुमार वर्मा से बातचीत (साक्षात्कार)

RBSE Class 12 Hindi मंदाकिनी Chapter 5 पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर

RBSE Class 12 Hindi मंदाकिनी Chapter 5 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
डॉ. वर्मा की प्रथम रचना किस वर्ष प्रकाशित हुई
(अ) 1922
(ब) 1926
(स) 1950
(द) 1927
उत्तर:
(अ) 1922

प्रश्न 2.
डॉ. वर्मा की प्रथम कहानी थी
(अ) परीक्षा
(ब) सुखद सम्मिलन
(स) पाजेब
(द) इनमें कोई नहीं
उत्तर:
(ब) सुखद सम्मिलन

प्रश्न 3.
डॉ. वर्मा को अपनी किस काव्य कृति से सर्वाधिक संतोष हुआ
(अ) सप्तकिरण
(ब) चन्द्रकिरण
(स) एकलव्य
(द) चारुमित्रा
उत्तर:
(स) एकलव्य

RBSE Class 12 Hindi मंदाकिनी Chapter 5 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
डॉ. वर्मा की प्रारम्भिक शिक्षा किस भाषा में हुई?
उत्तर:
डॉ. वर्मा की प्रारम्भिक शिक्षा मराठी भाषा में हुई।

प्रश्न 2.
डॉ. वर्मा की प्रथम रचना पर कितनी राशि पुरस्कार में मिली?
उत्तर:
डॉ. वर्मा की प्रथम रचना पर 51 रुपए की राशि पुरस्कार में मिली।

प्रश्न 3.
आदिकाल से साहित्य के कौन से दो विभाग प्रचलित हैं?
उत्तर:
आदिकाल से साहित्य के आदर्श और यथार्थ दो विभाग प्रचलित हैं।

प्रश्न 4.
डॉ. वर्मा को गद्य-गीत की प्रेरणा कहाँ से मिली?
उत्तर:
डॉ. वर्मा को गद्य-गीत की प्रेरणा कश्मीर की सुन्दरता को देखकर मिली।

RBSE Class 12 Hindi मंदाकिनी Chapter 5 लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
बड़े भाई ने डॉ. वर्मा से क्या व्यंग्य किया?
उत्तर:
समाचार पत्र में छपे एक समाचार को पढ़कर डॉ. वर्मा के बड़े भाई ने उनसे व्यंग्य में कहा कि प्रतिदिन प्रभात फेरी के समय स्वराज्य-स्वराज्य के नारे लगाते रहते हो, तो इस अखिल भारतीय कविता प्रतियोगिता में भाग लेकर प्रथम पुरस्कार प्राप्त करके दिखाओ।

प्रश्न 2.
विश्व साहित्य के किन साहित्यकारों से डॉ. वर्मा प्रभावित हुए?
उत्तर:
विश्व साहित्य में डॉ. वर्मा शेक्सपियर, मिल्टन, कालिदास, कीट्स और टेनीसन से प्रभावित हुए। साथ ही साहित्य की नाटक विधा में वह मैटरलिंक, इत्सन, शेक्सपियर, बुड हाउस, सिंज डी. एल राय से और आलोचना विधा में स्काट जेम्स और जॉन ड्रिक्वाटर से प्रभावित हुए।

प्रश्न 3.
डॉ. वर्मा के अनुसार कौन-सा साहित्य वास्तव में साहित्य की संज्ञा से विभूषित होता है?
उत्तर:
डॉ. वर्मा के अनुसार अनुभूति के क्षेत्रों में बँधा हुआ साहित्य वास्तव में साहित्य की संज्ञा से विभूषित होता है।

प्रश्न 4.
साहित्य के अतिरिक्त डॉ. वर्मा की रुचि किन क्षेत्रों में थी?
उत्तर:
साहित्य के अतिरिक्त डॉ. वर्मा की रुचि अभिनय करने में, समीक्षा करने में, आलोचना करने में, निबन्ध लेखन में, रेडियो के लिए वार्ताएँ लिखने में, गद्य-गीत लेखन में, टेनिस खेलने व पाण्डुलिपियों के संग्रह करने में थी।

RBSE Class 12 Hindi मंदाकिनी Chapter 5 निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
डॉ. वर्मा को कौन से साहित्यिक पुरस्कार मिले?
उत्तर:
डॉ. वर्मा को काव्य के क्षेत्र में- ‘चित्रलेखा’ पर 2000 रुपये का देव पुरस्कार ‘चन्द्रकिरण’ पर 500 रुपये का चक्रधर पुरस्कार, ‘आकाश गंगा’ पर 800 रुपये का व एकलव्य’ पर 500 रुपये का पुरस्कार मिला। वहीं नाटकों के क्षेत्र में- ‘सप्तकिरण’ पर सम्मेलन का रत्नकुमार पुरस्कार मिला। रिमझिम एकांकी संग्रह पर केन्द्र से 2000 रुपये का पुरस्कार व विजय पर्व’ पर मध्य प्रदेश की ओर से 2500 रुपये का महाकवि कालिदास पुरस्कार प्राप्त हुआ। एकांकी संग्रह पर अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन पुरस्कार मिला। इनको भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण अलंकरण से विभूषित किया गया। उनके कृतित्व से प्रभावित होकर स्विटजरलैण्ड के मूर विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट की उपाधि से सम्मानित किया।

प्रश्न 2.
हिन्दी रंगमंच के विकास और उसकी भावी संभावनाओं के विषय में डॉ. वर्मा के क्या विचार थे?
उत्तर:
डॉ. वर्मा के अनुसार विदेशी शासन के समय हमारी सांस्कृतिक उन्नति और विकास की संभावनाएँ कम थीं, क्योंकि स्वतंत्रता से पूर्व के समय विदेशी सरकार कभी भी यह नहीं चाहती थी कि भारतीयों को किसी भी स्तर पर विकास हो, भारतीय हर क्षेत्र में पिछड़े रहें। उस समय यदि वह रंगमंच को बढ़ावा देते तो भारतीय उसका प्रयोग जनसंचार व अंग्रेजों के विरुद्ध प्रचार-प्रसार के लिए करते। इसलिए विदेशी शासन ने इसे बढ़ावा नहीं दिया, किन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् इसके विकास और उज्ज्वल भविष्य की अपार संभावनाएँ हैं। यह निश्चित है कि रंगमंच अपना अस्तित्व कायम करेगा और समय के अनुसार अपना निर्माण करेगा। रंगमंच के विकास में एक कुशल नाटककार का पूर्ण योगदान होता है। इसलिए यह आवश्यक है कि नाटकार रंगमंच की विधाओं व अन्य भाषाओं के रंगमंच का अध्ययन करें। वह भ्रमणशील हो और आवश्यकतानुसार अखिल भारतीय रूप से नाटक, साहित्य और रंगमंच का संयोजन करें।

प्रश्न 3.
साहित्य में प्रचलित वाद के सम्बन्ध में डॉ. वर्मा का क्या दृष्टिकोण था?
उत्तर:
डॉ. वर्मा के अनुसार आदिकाल से ही साहित्य के दो विभाग रहे हैं- पहला है सिद्धान्त पक्ष और दूसरा अनुभूति पक्ष जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है- सिद्धान्त पर आधारित साहित्य सिद्धान्तों से प्रेरणा लेकर जो साहित्य, जीवन में प्रकट हुआ। उसके भी दो भाग हो गए-पहला आदर्श और दूसरा यथार्थ । साहित्य के सज़न में जब इन दोनों रूपों का मेल हुआ तब साहित्य आदर्शोन्मुख यथार्थ बन गया। किन्तु डॉ. वर्मा ने सदैव यथार्थोन्मुख आदर्श अर्थात् यथार्थ की ओर उन्मुख आदर्श को अपनाया। उनका मानना था कि सिद्धान्तवादी साहित्य की अपेक्षा, अनुभूति के क्षणों में बँधा हुआ साहित्य ही वास्तव में सच्चा साहित्य है। इसमें जीवन-दर्शन है और भविष्य के जीवन की प्रेरणा है। अनुभूति का विषय किसी वाद में बँधकर नहीं चलता, जबकि वाद विशिष्ट सिद्धान्तों का निश्चित समूह है। इसलिए वह किसी वाद को नहीं मानते और न ही पूरी तरह उसका विरोध करते हैं क्योंकि वादों के माध्यम से विद्यार्थियों को काव्य की दिशाओं का ज्ञान हो जाता है।

प्रश्न 4.
शैशव के संस्कारों ने मुझे नाटकार बना दिया’ कैसे ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
बाल्यकाल में डॉ. वर्मा को अभिनय करने का बहुत शौक था। उनके पिता घर पर ही रामलीला का आयोजन करवाया करते थे। डॉ. वर्मा सदैव ही रामलीला में अभिनय करने की इच्छा रखा करते थे और साथ ही रामलीला के किसी एक पात्र के बीमार पड़ने की प्रार्थना भी किया करते थे, जिससे उन्हें रामलीला में अभिनय करने का अवसर प्राप्त हो सके, किन्तु उनकी यह अभिलाषा कभी पूर्ण नहीं हो सकी। इसलिए वह अपने मोहल्ले के मित्रों को एकत्र करके घर पर पिता के समक्ष भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा लिखित ‘अंधेर नगरी और भारत दुर्दशा’ नाटकों पर अभिनय किया करते थे। उन्होंने यूनिवर्सिटी में आकर अनेकानेक अभिनय किए। वह यूनिवर्सिटी ड्रामेटिक एसोसिएशन के सभापति बने गए और उन्होंने देशी-विदेशी नाटककारों के नाटकों का अभिनय किया तथा करवाया। इन सभी परिस्थितियों और आकांक्षाओं ने उनके मन में एकांकी नाटक के गुणों का अंकुरण करके उन्हें एक एकांकीकार बना दिया।

RBSE Class 12 Hindi मंदाकिनी Chapter 5 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

RBSE Class 12 Hindi मंदाकिनी Chapter 5 लघूत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
उस घटना का वर्णन कीजिए जिसके परिणामस्वरूप डॉ. वर्मा ने अपनी पहली कविता लिखी?
उत्तर:
सन् 1922 में जब डॉ. वर्मा मात्र 17 वर्ष के थे और प्रभात फेरी में भाग लिया करते थे। उस समय समाचार पत्रों के माध्यम से कानपुर के बेनी प्रसाद माधव ने कवियों की ‘देशसेवा’ शीर्षक पर कविताएँ आमंत्रित की। साथ ही सर्वश्रेष्ठ कविताओं को 51 रुपए का पुरस्कार देने की भी घोषणा की। इस समाचार को पढ़कर उनके बड़े भाई ने व्यंग्य में उनसे इस प्रतियोगिता में भाग लेने वे पुरस्कार जीतने की बात कही। इस प्रकार छेड़े जाने पर डॉ. वर्मा ने अपनी पहली कविता लिखी।

प्रश्न 2.
डॉ. वर्मा द्वारा रचित ‘देशसेवा’ शीर्षक कविता की प्रारंभिक पंक्तियाँ लिखिए।
अथवा
डॉ. वर्मा की प्रथम कविता की प्रारंभिक पंक्तियाँ लिखिए। उत्तर- डॉ. वर्मा की प्रथम कविता की प्रारंभिक पंक्तियाँ जिस भारत की धूल लगी है मेरे तन में, क्या मैं उसको भूल सकता जीवन में? चाहे घर में रहूँ अथवा मैं वन में, पर मेरा मन लगा हुआ है इसी वतन में। सेवा करना देश की, बस मेरा उद्देश्य, मैं भारत का हूँ सदा, भारत मेरा देश

प्रश्न 3.
लोग समाचार पत्र में छपे किस समाचार को पढ़कर क्यों आश्चर्यचकित रह गए? इसे समाचार का प्रयाग के श्री रामरख सिंह सहगल पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
डॉ. वर्मा चुने गए सर्वश्रेष्ठ कवियों में से सबसे कम उम्र के थे। इसलिए इस समाचार को पढ़कर लोगों को यह आश्चर्य हुआ कि इतनी कम उम्र के बालक को सर्वश्रेष्ठ कवि पुरस्कार कैसे प्राप्त हुआ। इसी प्रकार जब प्रयाग के श्री रामरख सिंह सहगल ने समाचार पत्र में यह समाचार पढ़ा तो उन्होंने डॉ. वर्मा को अपने नव सम्पादित मासिक पत्र के लिए कविताएँ लिखने के लिए आमंत्रित किया।

प्रश्न 4.
डॉ. वर्मा द्वारा स्कूल छोड़े जाने पर पिताजी ने अपना क्रोध किस प्रकार प्रकट किया? डॉ. वर्मा पर उस क्रोध (फटकार) का क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
डॉ. वर्मा ने असहयोग आन्दोलन के समय जब स्कूल छोड़ दिया तो उनके पिताजी ने उन्हें बहुत फटकारा। इस फटकार ने उन्हें राष्ट्रीय दृष्टिकोण पर आधारित एक कहानी लिखने के लिए प्रेरित किया। इस कहानी का शीर्षक ‘सुखद सम्मिलन’ था। यह कहानी सन् 1922 ई. में हिन्दी साहित्य प्रसारक कार्यालय से पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुई। यह उनके जीवन की पहली और अन्तिम कहानी थी।

प्रश्न 5.
डॉ. रामकुमार वर्मा की प्रमुख रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
डॉ. रामकुमार वर्मा की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं चित्रलेखा, चन्द्रकिरण, आकाशगंगा, एकलव्य, सप्तकिरण, रिमझिम, विजयपर्व, चारुमित्रा, अंजलि, अभिशाप, निशीथ, जौहर, चित्तौड़ की चिता, साहित्य समालोचना, हिन्दी गीतिकाव्य, पृथ्वीराज की आँखें, दीपदान, दुर्गावती, औरंगजेब की आखिरी रात आदि।

प्रश्न 6.
साहित्य की नाटक एवं आलोचना विधा में डॉ. रामकुमार वर्मा किन साहित्यकारों से प्रभावित हुए? इनसे प्रेरणा ग्रहण करके उन्होंने क्या कार्य किया?
उत्तर:
डॉ. वर्मा साहित्य की नाटक विधा में मैटरलिंक, इब्सन, शेक्सपियर, वुडहाउस, सिंज डी. एल. राय से वे आलोचना विधा में स्काट जेम्स और जॉन ड्रिक्वाटर से प्रभावित हुए। उन्होंने इन साहित्यकारों के साहित्य से उपादान ग्रहण करके उन्हें भारतीय रस सिद्धान्त के आधार पर मौलिक रूप प्रदान किया।

प्रश्न 7.
हिन्दी रंगमंच के विकास में नाटककार के योगदान को स्पष्ट कीजिए।
अथवा
डॉ. वर्मा के अनुसार एक नाटककार किस प्रकार हिन्दी रंगमंच के विकास में अपना योगदान दे सकता है?
उत्तर:
डॉ. वर्मा के अनुसार नाटककार ही रंगमंच के वास्तविक निर्माण और उसके विकास में सहायक हो सकता है इसलिए यह आवश्यक है कि वह जिस प्रकार जीवन की परिस्थितियों का अध्ययन करता है उसी प्रकार रंगमंच की विधाओं का अध्ययन करे। वह भम्रणशील बने व अन्य भाषाओं के रंगमंच का भी समान रूप से अध्ययन करे और आवश्यकतानुसार अखिल भारतीय रंगमंच का आयोजन करे।

प्रश्न 8.
डॉ. वर्मा के अनुसार साहित्यकार किस प्रकार विश्व में शांति और कल्याणकारी जीवन-मूल्यों का निर्माण कर सकता है?
अथवा
आज का साहित्यकार किस प्रकार एक आदर्श एवं शांतिपूर्ण विश्व की संरचना में अपना सहयोग दे सकता है?
उत्तर:
‘आज के साहित्यकार को अपनी व्यक्तिगत समस्याओं से ऊपर उठकर विश्व की समस्याओं को अपने साहित्य का विषय बनाना होगा। उसे साहित्य के सुन्दर पक्ष के साथ-साथ उसके शिव अर्थात् कल्याणकारी पक्ष को प्रकट करना होगा। तब ही उसका साहित्य संघर्ष और स्वार्थ से मुक्त होकर सच्चा साहित्य बन पाएगा। ऐसे साहित्य के आधार पर ही वह विश्व में शांत और कल्याणकारी जीवन-मूल्यों का निर्माण कर सकता है।

प्रश्न 9.
डॉ. वर्मा को साहित्यिक दृष्टिकोण कैसा है? उनके अनुसार कैसा साहित्य वास्तविक में साहित्य की संज्ञा से विभूषित होता है क्यों?
उत्तर:
डॉ. वर्मा का साहित्यिक दृष्टिकोण यथार्थोन्मुख आदर्श है। उनके अनुसार सिद्धान्तवादी साहित्य की अपेक्षा, अनुभूति के क्षणों में बँधा हुआ साहित्य वास्तव में साहित्य की संज्ञा से विभूषित होता है। क्योंकि ऐसे साहित्य में जीवन दर्शन होता है जो भविष्य जीवन की प्रेरणा देता है। ऐसा साहित्य संघर्ष और स्वार्थ से मुक्त लोक कल्याणकारी होता है।

प्रश्न 10.
डॉ. वर्मा में अभिनय के प्रति रुचि किस प्रकार उत्पन्न हुई? संक्षेप में उत्तर लिखिए।
उत्तर:
डॉ. वर्मा के पिता घर पर ही रामलीला करवाया करते थे। घर पर होने वाली रामलीला में पात्रों को अभिनय करते देखकर उनके मन में भी अभिनय के प्रति रुचि उत्पन्न हुई। वह अक्सर रामलीला के पात्रों के बीमार पड़ने की प्रार्थना करते, जिससे उन्हें इसमें अभिनय करने का अवसर प्राप्त हो सके।

प्रश्न 11.
अपने अभिनय के शौक को पूरा करने के लिए डॉ. वर्मा क्या किया करते थे?
उत्तर:
रामलीला में अभिनय करने का अवसर न प्राप्त होने पर डॉ. वर्मा अपने मोहल्ले के लड़कों को इकट्ठा कर लिया करते थे। रंगमंच तैयार करने के लिए वह अपने बिस्तर की चादर और बहनों की ओढ़नी का प्रयोग किया करते थे। वह अपने पिता को प्रसन्न करने के लिए भारतेन्दु द्वारा रचित भारत दुर्दशा और अंधेर नगरी नाटक का अभिनय किया करते थे।

प्रश्न 12.
लेखक ने किस नाटक में किसका अभिनय किया? उनका यह पार्ट क्यों असफल रहा?
उत्तर:
लेखक ने जबलपुर में अपनी मित्र मंडली के द्वारा अभिनीत और बद्रीनाथ भट्ट द्वारा रचित ‘चन्द्रगुप्त’ नाटक में अभिनय किया। इसमें उन्होंने रणधीर के पुत्र का पार्ट अदा किया। इस नाटक में उन्हें केवल यह वाक्य बोलना था कि-माँ, प्यास लगी है, पानी दो। लेकिन वह यह वाक्य नहीं बोल पाए क्योंकि माँ के रोल में उनके सामने एक लड़का था और एक लड़के को अपनी माँ मानना उनके लिए सहज नहीं था। इसलिए उनका यह पार्ट असफल रहा।

प्रश्न 13.
‘एकांकी’ किसे कहते हैं? डॉ. वर्मा द्वारा कृत प्रमुख एकांकियों के नाम लिखिए।
उत्तर:
रंगमंच पर अभिनय द्वारा प्रस्तुत करने के लिए रचित एक अंकीय दृश्यात्मक प्रस्तुति ‘एकांकी’ कहलाती है। इसमें जीवन की किसी एक घटना, उसके उद्देश्य या भाव को केवल एक ही अंक में प्रस्तुत किया जाता है। डॉ. वर्मा द्वारा कृत प्रमुख एकांकी एवं एकांकी संग्रह निम्न हैं- चारूलेखा, दीपदान, रिमझिम, रीढ़ की हड्डी आदि।

प्रश्न 14.
‘एकांकी’ और ‘रेडियो नाटक’ में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
‘एकांकी’ हिन्दी साहित्य की वह विधा है, जिसमें रचनाकार किसी एक उद्देश्य, भाव या घटना को एक अंक में प्रस्तुत करता है। इस विधा की रचना रंगमंच पर अभिनय द्वारा प्रस्तुत करने के उद्देश्य से की जाती है। जबकि ‘रेडियो नाटक’ वह विधा है, जिसे ध्वनियों और संवादों के माध्यम से रेडियो पर प्रस्तुत करने के उद्देश्य से लिखा जाता है।

प्रश्न 15.
‘नाटक’ और ‘एकांकी’ का अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
‘नाटक’ एवं एकांकी दोनों ही रंगमंच पर अभिनय के लिए लिखे गए दृश्यात्मक साहित्य के अन्तर्गत आते हैं। अन्तर बस यह है कि नाटक में विस्तृत कथानक को कई अंकों में प्रस्तुत किया जाता है। इसमें किसी व्यक्ति, घटना या प्रसंग का सर्वांगीण वर्णन होता है, जबकि एकांकी में एक ही अंक होता है। इसमें किसी व्यक्ति, घटना या प्रसंग के विशेष अंग का वर्णन होता है।

प्रश्न 16.
‘गद्यगीत’ किसे कहते हैं? गद्यगीत की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
गद्यगीत एक छन्दमुक्त एवं कविता के गुणों पर आधारित रचना होती है। गद्यगीत की प्रमुख विशेषताएँ

  1. गद्यगीत में अनुभूति की सघनता होती है।
  2. यह भावात्मकता से परिपूर्ण होते हैं।
  3. यह संक्षिप्त एवं संकेतिक होते हैं।
  4. इनमें रहस्यमयता भी होती है।

प्रश्न 17.
‘भेटवार्ता’ अथवा ‘साक्षात्कार’ से आप क्या समझते हैं? प्रस्तुत पाठ में किसने किसका साक्षात्कार लिया है?
उत्तर:
जब रचनाकार किसी विशिष्ट व्यक्ति से भेंट (मुलाकात) करके उसके व्यक्तित्व, भावों, क्रिया-कलापों आदि से संबंधित प्रश्नोत्तर रूप में साहित्य रचना करता है तो वह रचना’ भेटवार्ता’ अथवा ‘साक्षात्कार’ कहलाती है। प्रस्तुत पाठ में लेखक शैवाल सत्यार्थी ने प्रसिद्ध एकांकीकार डॉ. रामकुमार वर्मा का साक्षात्कार लिया है।

प्रश्न 18.
साहित्यकार और उसके शासकीय संरक्षण पर डॉ. वर्मा के विचार स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
डॉ. वर्मा के अनुसार यदि किसी साहित्यकार को शासकीय संरक्षण प्राप्त होता है तो उसे सर्वप्रथम अपने दायित्वों एवं आत्मसम्मान का संरक्षण करना चाहिए। उसे शासन तंत्र की शक्ति का प्रयोग ऐसे साहित्य के निर्माण में करना चाहिए जिसमें जनता-जनार्दन के कल्याण की कामना हो एवं वह साहित्यिक सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित हो।

प्रश्न 19.
लेखक ने डॉ. वर्मा से किस विषय पर अपने विचार स्वहस्तलिपि में देने को कहा और डॉ. वर्मा ने किन शब्दों में अपने विचार व्यक्त किए।
उत्तर:
लेखक ने डॉ. वर्मा से जीवन के प्रति अपने विचार उसे अपने हाथों से लिखकर देने को कहा। डॉ. वर्मा ने उसकी इस बात को स्वीकार करते हुए लिखा- “यह जीवन सदैव हरा-भरा है, सुन्दर है, मधुर है, जैसे चाँद की हँसी, फूल की सुगन्धी, पक्षी का कलरव, नदी की लहर जो हमेशा आगे बढ़ाना जानती है। फैलती है तो जैसे पलक खुल रही है और वह पलभर में संसार का तट छू लेती है। मेरे विचार से जीवन की परिभाषा इससे अधिक क्या हो सकती है? इसमें सुख है, सुगन्धी है, रूप है और है ऐसी प्रगतिशीलता जो अपने से निकलकर संसार को छू लेती है।”

प्रश्न 20.
डॉ. वर्मा के इन विचारों को पढ़कर लेखक कैसा अनुभव करता है?
उत्तर:
लेखक अनुभव करता है जैसे उसके चारों ओर फूल खिल रहे हैं, झरने बहे चले जा रहे हैं और पहाड़ अपना माथा उठाकर उससे मौन भाषा में कह रहे हों कि उनके हृदय में गुफारूपी गहरे घाव हैं फिर भी वे आकाश से बात कर रहे हैं। लेखक को लगता है कि ये सभी उसका पथ प्रदर्शन कर रहे हैं और उसे जीवन का रास्ता दिखा रहे हैं। अब उसका जीवन निश्चय ही फूल के समान खिला हुआ और निर्झर के समान प्रगतिशील बन जाएगा।

RBSE Class 12 Hindi मंदाकिनी Chapter 5 निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
लेखक शैवाल सत्यार्थी का जीवन परिचय लिखिए।
उत्तर:
बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार शैवाल सत्यार्थी का जन्म 27 जुलाई 1933 भिंड (मध्यप्रदेश) में हुआ। वे कवि, कथाकार, भेटवार्ताकार व पत्रकार थे। इनकी रचनाएँ प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के साथ-साथ आकाशवाणी से भी प्रसारित होती रही हैं। सत्यार्थी जी को साक्षात्कार विधा में महारथ हासिल है। इन्होंने पंत, निराला, बच्चन, वृन्दावन लाल वर्मा, अश्क, यश्पाल, भगवतीचरण वर्मा, सियारामशरण गुप्त, रामकुमार वर्मा, कृशनचन्दर क्षेमचन्द, सुमन, नीरज जैसे प्रतिष्ठित साहित्यकारों को साक्षात्कार लिया है। इनके समस्त साक्षात्कार बातें, मुलाकातें नामक संग्रह में प्रकाशित हैं।

साक्षात्कार लेखन के साथ-साथ सत्यार्थी जी ने कहानी एवं कविता लेखन में भी अपना बहुमूल्य योगदान दिया है। इनके कहानी संग्रह ‘और पहिये घूम रहे थे’ को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पुरस्कृत भी किया गया है।’ ओस और अंगारे’ व ‘सप्तसिंधु’ इनके प्रसिद्ध काव्य संग्रह हैं। इन्होंने ‘इंगित’ पत्रिका का सफल संपादने भी किया। साहित्य की पत्र लेखन विधा को विकसित करने का श्रेय भी सत्यार्थी जी को ही जाता है। इनके द्वारा कृत’ धर्म पिता के पत्र : धर्म पुत्र के नाम’ अर्थात् ‘महाकवि बच्चन के सौ पत्र शैवाल के नाम’ विशेष उल्लेखनीय हैं।

प्रश्न 2.
डॉ. रामकुमार वर्मा का जीवन परिचय लिखिए।
उत्तर:
डॉ. रामकुमार वर्मा का जन्म मध्यप्रदेश के सागर जिले में 15 सितंबर सन् 1905 ई. में हुआ। इनके पिता लक्ष्मी प्रसाद वर्मा नागपुर में डिप्टी कलेक्टर थे। पिता के पास रहने के कारण इनकी प्रारंभिक शिक्षा मराठी भाषा में हुई। इनकी माता श्रीमती राजरानी देवी ने इन्हें घर पर ही हिन्दी और संस्कृत का प्रारंभिक ज्ञान प्रदान किया। यही कारण है कि बचपन से ही इनको रुझान हिन्दी भाषा की ओर बढ़ा। डॉ. वर्मा को बाल्यकाल से ही अभिनय का भी शौक था। इन्होंने कई नाटकों में एक सफल अभिनेता का कार्य भी किया। सन् 1922 में इनकी पहली रचना को सर्वश्रेष्ठ कविता के रूप में चुना गया, जिस पर उन्हें 51 रुपये का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ।

इस समय इनकी आयु मात्र 17 वर्ष थी। दसवीं कक्षा में आने पर इन्होंने गाँधीजी के असहयोग आन्दोलन से प्रभावित होकर पढ़ाई छोड़ दी, जिसके लिए इनके पिता ने इन्हें बहुत फटकारा। पिता की इस फटकार से प्रभावित होकर इन्होंने अपने जीवन की प्रथम और अंतिम कहानी ‘सुखद सम्मिलन’ लिखी। बाद में इन्होंने पुनः अध्ययन प्रारंभ कर दिया और नागपुर विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। अनेक वर्षों तक डॉ. वर्मा प्रयाग विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग में प्राध्यापक और फिर अध्यक्ष रहे। ये एक प्रसिद्ध एकांकीकार के साथ-साथ एक समीक्षक, आलोचक, सुप्रसिद्ध कवि हैं। इन्हें अपनी अनेक रचनाओं द्वारा पद्म भूषण अलंकरण से भी विभूषित किया गया।

प्रश्न 3.
डॉ. वर्मा के जीवन की उस घटना का विस्तार से वर्णन कीजिए जो उनके साहित्यिक जीवन की पहली मंजिल को प्राप्त करने का कारण बनी।
उत्तर:
यह घटना सन् 1922 की है जब डॉ. वर्मा मात्र सत्रह वर्ष के थे। वह प्रात: निकलने वाली प्रभात फेरी में भाग लेते थे और स्वराज्य के नारे लगाया करते थे। इन्हीं दिनों समाचार पत्रों में कानपुर के बेनीमाधव खन्ना ने समाचार प्रकाशित करके ‘देश-सेवा’ शीर्षक पर देश के प्रमुख कवियों की कविताएँ आमंत्रित कीं और साथ ही यह भी घोषणा प्रकाशित की कि सर्वश्रेष्ठ चार कविताओं को 51-51 रुपए का पुरस्कार भी प्रदान किया जाएगा। यह समाचार जब डॉ. वर्मा के बड़े भाई ने पढ़ा तो उन्होंने बालक रामकुमार को छेड़ते हुए व व्यंग्य भरे स्वर में उन्हें ‘देश-सेवा’ शीर्षक पर कविता लिखने व प्रथम पुरस्कार प्राप्त करने की चुनौती दी।

इस समय तो उन्होंने (डॉ. वर्मा) अपने बालक होने की बात कहकर बात को टाल दिया, किन्तु जिस प्रकार से उन्हें छेड़ा गया था, उससे प्रेरित होकर उन्होंने कविता लिखी और उसे चुपचाप बेनी माधव के पते पर भेज दी। दो माह बाद जब इस प्रतियोगिता का परिणाम आया तो उनकी कविता को भी चुना गया था और उन्हें पुरस्कार के 51 रुपए भी मिले। इस प्रकार यह घटना बालक रामकुमार के साहित्यिक जीवन की पहली मंजिल प्राप्त करने का कारण बनी।

प्रश्न 4.
उन परिस्थितियों एवं गुणों (योग्यताओं) का उल्लेख कीजिए जिन्होंने डॉ. वर्मा को हिन्दी साहित्य की विभिन्न विधाओं की ओर उन्मुख किया?
उत्तर:
घर में होने वाली रामलीला के कारण डॉ. वर्मा के अन्दर अभिनय के प्रति रुझान बढ़ा। वह बचपन से ही अभिनय किया करते थे। उन्होंने अनेक नाटकों में सफल अभिनय किया। यूनिवर्सिटी में आने पर वह यूनिवर्सिटी ड्रामेटिक एसोसिएशन के सभापति भी बने और उन्होंने अनेक देशी-विदेशी नाटकों में अभिनय किया तथा कराया। इस प्रकार घर के वातावरण व यूनिवर्सिटी के ड्रामेटिक क्रियाकलापों ने उन्हें एक नाटककार (एकांकीकार) के रूप में उभारा और वे एक सफल एकांकीकार बन गए। अध्यापक होने के कारण उनके मन में साहित्य की समीक्षा करने की प्रवृत्ति उत्पन्न हुई। फलस्वरूप वह समीक्षक और आलोचक भी बने।

ऑल इण्डिया रेडियो पर अधिकाधिक वार्ताएँ लिखने के कारण उनमें निबन्धकार की प्रतिभा का उदय हुआ तो कश्मीर की सुन्दरता ने उन्हें गद्यगीतकार भी बनाया। इस प्रकार उनके साहित्यरूपी आकाश में काव्य, एकांकी, आलोचना, निबंध, गद्यगीत रूपी सितारे स्वत: ही जगमगाने लगे। वे एक प्रसिद्ध कवि के साथ-साथ एक समीक्षक, आलोचक, नाटककार, एकांकीकार, निबन्धकार और गद्यगीतकार के रूप में भी प्रसिद्ध हुए। इस प्रकार इन सब परिस्थितियों ने डॉ. वर्मा के व्यक्तित्व को प्रसार प्रदान किया और उन्हें हिन्दी साहित्य की विभिन्न विधाओं की ओर उन्मुखे किया।

प्रश्न 5.
छायावाद एवं रहस्यवाद के क्षेत्र में डॉ. वर्मा के योगदान को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
रामकुमार वर्मा आधुनिक हिन्दी साहित्य में एकांकी सम्राट के रूप में जाने जाते हैं। डॉ. वर्मा ने नाटककार और कवि के। साथ-साथ समीक्षक, अध्यापक तथा हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखक के रूप में भी हिन्दी साहित्य में अपनी भूमिका निभाई है। इनके काव्य में रहस्यवाद और छायावाद की झलक है। डॉ. वर्मा का कवि व्यक्तित्व द्विवेदीयुगीन प्रवृत्तियों से उदित होकर छायावाद के क्षेत्र में मूल्यवान उपलब्धि सिद्ध हुआ है। इनकी काव्यगत विशेषताओं में कल्पनावृत्ति, संगीतात्मकता, रहस्यमय सौन्दर्य दृष्टि को अन्य स्थान है। छायावादकाल की कविताएँ इनकी कवि प्रतिभा का सुन्दर प्रतिनिधित्व करती हैं।

वह हिन्दी के रहस्यवाद के क्षेत्र में भी इनका विशेष योगदान है। अपनी रहस्यवादी कृतियों में इन्होंने प्रकृति और मानवीय हृदय के सूक्ष्म तत्वों का सहारा लिया है। इन्होंने प्रकृति की विराट सत्ता में सर्वत्र ईश्वरीय संकेत की अनुभूति की है। इन्होंने एक ओर जहाँ मानव आत्मा के प्रेममय प्रवृत्तियों को टटोला है तो वहीं प्रकृति के तत्वों का सफल अन्वेषण भी किया है। अपने साहित्य में इन्होंने प्राय: रूपकों का सहारा लिया है जिनमें आध्यात्मिकता भी है।

प्रश्न 6.
एक सफल नाटककार एवं आलोचक के रूप में डॉ. रामकुमार वर्मा का परिचय दीजिए।
उत्तर:
नाटककार रामकुमार वर्मा का व्यक्तित्व उनके कवि व्यक्तित्व से अधिक शक्तिशाली और लोकप्रिय सिद्ध हुआ है। नाटककार धरातल से उनका एकांकीकार स्वरूप ही उनकी विशेष महत्ता है और इस दिशा में वे आधुनिक एकांकी के जनक कहे जाते हैं, जो पूर्णत: सत्य है। प्रारंभिक प्रभाव की दृष्टि से इन पर शा, इब्सन, मैटरलिंक, चैखव आदि लेखकों का विशेष प्रभाव पड़ा। किन्तु यह सत्य है कि डॉ. वर्मा इस क्षेत्र में विशेषकर मनोवेगों की अभिव्यक्ति में सदैव मौलिक और भारतीय रहे हैं।

रामकुमार वर्मा एकांकीकार के साथ-साथ एक आलोचक भी हैं। आलोचना के क्षेत्र में रामकुमार वर्मा की कबीर विषयक खोज और उनके पदों का प्रथम शुद्ध पाठ तथा कबीर के रहस्यवाद और योगसाधना की पद्धति की समालोचना विशेष उपलब्धि है। उनके प्रसिद्ध ग्रंथ हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास का विशेष महत्त्व है। सामाजिक तथा शक्तियों के अध्ययन के परिप्रेक्ष्य में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है।

प्रश्न 7.
साहित्य में प्रचलित वादों पर डॉ. वर्मा के विचारों पर विस्तार से प्रकाश डालिए।
उत्तर:
डॉ. रामकुमार वर्मा के अनुसार साहित्य के दो विभाग हैं- प्रथम सिद्धान्त पक्ष और दूसरा अनुभूति पक्ष। उनका मानना है। कि सिद्धान्तों से प्रेरणा ग्रहण लेकर साहित्य जीवन में उदय हुआ है। इसी तथ्य के आधार पर साहित्य के दो रूप बन गए- पहला आदर्श और दूसरा यथार्थ। जब ये दोनों रूप आपस में मिलते हैं तब आदर्शोन्मुख यथार्थ प्रभाव में आया और आदर्शों की ओर उन्मुख साहित्य की रचना हुई। इसके विपरीत डॉ. वर्मा का दृष्टिकोण यथार्थोन्मुख आदर्श है। उन्होंने अपने साहित्य की रचना इसी दृष्टिकोण के आधार पर की। उनका मानना था कि सिद्धान्तवादी साहित्य की अपेक्षा, अनुभूति के क्षणों में बँधा हुआ साहित्य वास्तव में साहित्य की संज्ञा से विभूषित होता है।

वे कभी भी वाद के बन्धन में बँधकर साहित्य रचना नहीं करना चाहते हैं। उनका मानना था कि साहित्य को मलय-समीर के समान बहने देना चाहिए, फिर भले ही आगे चलकर हम उसे कोई भी नाम दे दें। साहित्य अनुभूति का विषय है, जबकि वाद विशिष्ट सिद्धान्तों को सुनिश्चित समूह है। इसलिए वह वाद को नहीं मानते हैं। उन्हें अन्तरानुभूति के काव्य की मानसिक राशि में वादों के दर्शन हो जाते हैं। वह इन वादों को पूर्णतः बुरा भी नहीं मानते हैं क्योंकि यह वाद ही है जिसकी सहायता से विद्यार्थियों को काव्य की दिशाओं का ज्ञान हो जाता है।

प्रश्न 8.
हिन्दी एकांकी के जनक के रूप में डॉ. रामकुमार वर्मा का परिचय दीजिए।
उत्तर:
हिन्दी की लघु नाट्य परंपरा को एक नया मोड़ देने वाले डॉ. वर्मा आधुनिक हिन्दी साहित्य में ‘एकांकी सम्राट’ के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने हिन्दी नाटक को एक नया संरचनात्मक आदर्श सौंपा। नाट्य कला के विकास की संभावनाओं के नए पट खोलते हुए उसे जन-जीवन के निकट पहुँचा दिया। नाटककार के रूप में उन्होंने मनोविज्ञान के अनेकानेक स्तरों पर मानव-जीवन की विविध संवेदनाओं को स्वर प्रदान किया। डॉ. वर्मा के साहित्यिक व्यक्तित्व को नाटककार और कवि के रूप में अधिक प्रमुखता मिली। इस समय उनका पहला फेंटेसी एकांकी ‘बादल की मृत्यु’ प्रकाश में आया। यह उनका अत्यंत लोकप्रिय एकांकी था।

भारतीय आत्मा और पाश्चात्य तकनीक के समन्वय से उन्होंने हिन्दी एकांकी को नया और निखरा हुआ रूप प्रदान किया। उन्होंने सामाजिक और ऐतिहासिक दो प्रकार के एकांकियों की रचना की। उनके नाटक भारतीय संस्कृति और राष्ट्रीय उद्बोधन के स्वर को समेटे हुए है। सामाजिक एकांकियों में इनकी आदर्शवादी सोच ईतनी गहरी है कि वह आदर्शवादी सोच में यथार्थ को मनमाना नाटकीय रूप दे सकने में भी पूर्णतः सफल हुए।

पाठ-सारांश

प्रस्तुत पाठ’डॉ. रामकुमार वर्मा से बातचीत’ साक्षात्कार विधा पर आधरित है। इस पाठ के लेखक शैवाल सत्यार्थी ने साक्षात्कार के माध्यम से प्रसिद्ध एकांकीकार व नाटककार डॉ. वर्मा के जीवन व साहित्यिक दृष्टिकोण से पाठकों का परिचय करवाया है। लेखक शैवाल सत्यार्थी नवम्बर के महीने में एक दिन सुबह डॉ. वर्मा के बंगले ‘साकेत’ पर उनका इन्टरव्यू (साक्षात्कार) लेने पहुँचे। उस समय डॉ. वर्मा शेव करने की तैयारी कर रहे थे। उन्होंने उसी स्थिति में लेखक से उनका साक्षात्कार लेने को कहा। अपने इस साक्षात्कार के अन्तर्गत लेखक ने डॉ. वर्मा से उनकी सर्वप्रथम उस रचना के विषय में पूछा जो उनके साहित्यिक जीवन में नींव का पत्थर बनी। लेखक के इस प्रश्न पर उन्होंने बताया कि सन् 1922 में जब उनकी आयु मात्र सत्रह वर्ष थी, तब एक दिन समाचार-पत्रों में कानपुर के बेनी प्रसाद माधव ने देश सेवा’ विषय पर प्रमुख कवियों की कविताएँ आमंत्रित र्की और साथ ही सर्वश्रेष्ठ चार कविताओं को 51 रुपए का पुरस्कार देने की भी घोषणा की। इन्हीं दिनों में वह (डॉ.वर्मा) प्रभात फेरी के लिए भी जाया करते थे।

तब इसे समाचार को पढ़कर उनके बड़े भाई ने उन्हें ‘देश-सेवा’ विषय पर कविता लिखने के लिए उकसाया। इस प्रकार व्यंग्य के साथ छेड़े जाने पर उन्होंने ‘देश-सेवा’ विषय पर कविता लिखकर चुपचाप बेनी प्रसाद माधव के पते पर भेज दी। उनकी इस कविता की प्रारंभिक पंक्तियाँ थीं जिस भारत ….. मेरा देश है। साथ ही उन्होंने लेखक को यह भी बताया कि पिताजी के पास नागपुर में रहने के कारण उनकी प्रारंभिक शिक्षा मराठी में हुई थी। हिन्दी व संस्कृत का ज्ञान उनकी माताजी ने उन्हें घर पर ही दिया। इसी कारण उनका रुझान हिन्दी की ओर बढ़ा और उन्होंने हिन्दी साहित्य सम्मेलन की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इसी मध्य समाचार पत्र में कविता लेखन का परिणाम सर्वश्रेष्ठ चुनी गई कविताओं के लेखकों के नाम के साथ छपा।

इसी समाचार को पढ़कर सन् 1922 में ही प्रयाग के श्री रामरख सिंह सहगल ने उन्हें अपने नव सम्पादित मासिक पत्र में कविता लिखने के लिए आमंत्रित किया। इस प्रकार यह कविता उनके साहित्यिक जीवन की मंजिल बनी। उन्होंने ‘सुखद-सम्मिलन’ नामक एक क़हानी भी लिखी। यह उनके जीवन की पहली और अंतिम कहानी थी। यह कहानी उन्होंने अपने पिता की फटकार से प्रेरित होकर लिखी थी। इसके बाद लेखक ने उनसे उस रचना के विषय में पूछा जिसे लिखकर उन्हें सबसे अधिक प्रसन्नता और सन्तोष प्राप्त हुआ हो।

तब डॉ. वर्मा ने कहा कि वह अपनी प्रत्येक रचना को पूरे मन से लिखते हैं। उनकी कुछ कृतियों पर उन्हें पुरस्कार भी प्राप्त हुए हैं। इनमें से भी उन्हें सर्वाधिक सन्तोष और प्रसन्नता ‘एकलव्य’ नामक महाकाव्य और ‘दीपदान’ व ‘औरंगजेब की आखिरी रात’ नामक नाटक लिखकर हुई। अपने अगले प्रश्न में लेखक ने डॉ. वर्मा से हिन्दी साहित्य, विश्व साहित्य तथा अन्य भारतीय भाषाओं में उनके पसंदीदा कवि और लेखकों के विषय में पूछा, जिनसे वह प्रभावित हुए हों। डॉ. वर्मा ने बताया कि विश्व साहित्य में शेक्सपीयर, मिल्टन, कालिदास, कीट्स, टेनीसन, तो हिन्दी साहित्य में तुलसी, भारतेन्दु,

प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त, बंगला में रवीन्द्रनाथ टैगोर और तमिल में कम्ब उनके पसंदीदा कवि व लेखक हैं। इनके अतिरिक्त साहित्य की नाटक विधा में मैटरलिंक, इब्सन, शैक्सपीयर, बुड हाउस, सिंज डी, एल राय व आलोचना विधा में स्काब जेम्स और जॉन ड्रिक्वाटर ने उन्हें बहुत प्रभावित किया। इस प्रकार इन सब विदेशी कवि और लेखकों से प्रेरणा ग्रहण करके उन्होंने विदेशी साहित्य को भारतीय रस सिद्धान्त के आधार पर उसे मौलिक रूप प्रदान किया। लेखक शैवाल सत्यार्थी ने उनके हिन्दी रंगमंच के विकास और उसकी भावी संभावनाओं के विषय में पूछा तो उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले तक हिन्दी रंगमंच के विकास की संभावनाएँ न के बराबर थीं, किन्तु अब इसके विकास की पूर्ण संभावनाएँ हैं।

हिन्दी रंगमंच के विकास में सर्वाधिक योगदान एक नाटककार का होता है। अतः यह आवश्यक है कि नाटककार अपनी क्षमताओं का विकास करे, अन्य भाषाओं के रंगमंचों का अध्ययन करे व भ्रमणशील बने। तभी इसका भविष्य उज्ज्वल होगा। अपने अगले प्रश्न में लेखक ने डॉ. वर्मा से पूछा कि क्या आज का साहित्यकार संसार के विनाश की ओर उन्मुख होती संघर्ष एवं स्वार्थ की प्रवृत्ति को त्यागकर एक आदर्श और शांतिपूर्ण संसार की रचना में अपना सहयोग दे सकता है?

लेखक के इस प्रश्न के उत्तर में डॉ. वर्मा ने उससे कहा कि एक साहित्यकार अवश्य ही ऐसा कर सकता है। इसके लिए उसे व्यक्तिगत समस्याओं से हटकर विश्व की समस्याओं को अपने साहित्य का विषय बनाना होगा। उसे साहित्य के सुन्दर पक्ष के साथ-साथ उसके शिव अर्थात् कल्याणकारी पक्ष को भी उभारना होगा। ऐसा करने पर ही साहित्यकार विश्व में शांति और कल्याणकारी जीवन मूल्यों का निर्माण कर सकेगा। इसके पश्चात् लेखक ने हिन्दी साहित्य में प्रचलित वादों के विषय में डॉ. वर्मा का दृष्टिकोण जानना चाहा। इस विषय में डॉ. वर्मा ने उन्हें बताया कि आदिकाल से साहित्य के दो रूप प्रचलित हैं- आदर्श और यथार्थ। जब इन दोनों का मेल होता है तब साहित्य आदर्शोन्मुख हो जाता है। इसके विपरीत उनकी दृष्टि यथार्थोन्मुख है। उनके अनुसार साहित्य अनुभूति का विषय है, जबकि वाद उसे (साहित्य) बाँधने का कार्य करते हैं। वह पूर्ण रूप से इसके विरोधी भी नहीं हैं, क्योंकि वादों के माध्यम से विद्यार्थियों को काव्य की दिशाओं का ज्ञान हो जाता है।

लेखक ने आगे डॉ. वर्मा से उनकी अन्य क्षेत्रों में रुचियों के विषय में पूछा, तो उन्होंने बताया कि साहित्य के अतिरिक्त उनकी रुचि बाल्यकाल से ही अभिनय में रही थी। उनके पिता घर पर ही रामलीला करवाया करते थे। डॉ. वर्मा बचपन से ही इसमें भाग लेना चाहते थे, किन्तु उन्हें कभी इसका अवसर ही नहीं मिला। इसलिए वह अपने मित्रों को एकत्र करके घर पर ही भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के अंधेर नगरी या भारत दुर्दशा नाटकों का अभिनय किया करते थे। आगे चलकर उन्होंने बद्रीनाथ भट्ट लिखित चन्द्रगुप्त’ नामक नाटक में अभिनय किया जो असफल रहा।

इसके बाद उन्होंने हाईस्कूल में आकर माखनलाल चतुर्वेदी जी के ‘श्रीकृष्णार्जुन युद्ध’ में श्रीकृष्ण का सफल अभिनय किया। अभिनय के शौक के ही कारण उनमें नाटक (एकांकी) लेखन का गुण विकसित हुआ और वे एक सफल एकांकीकार बन गए। अध्यापक होने के कारण वे एक समीक्षक और आलोचक के रूप में उभरे। वहीं ऑल इण्डिया रेडियो पर वार्ताएँ लिखने के गुण ने उन्हें एक निबन्धकार का स्वरूप दिया। कश्मीर की प्राकृतिक सुन्दरता ने उन्हें गद्य-गीत लिखने की प्रेरणा दी। इस प्रकार अनेक प्रकार की विधाओं में साहित्य रचना ने उनके साहित्यिक जीवन को इंद्रधनुषी रंग प्रदान किए। साथ ही बाल्यकाल में उन्हें टेनिस खेलने व पाण्डुलिपियों को संग्रहीत करने का भी शौक था।

लेखक ने साहित्यकार और उसके शासकीय संरक्षण पर उनका मत जानना चाहा तो उन्होंने कहा कि साहित्यकार को विश्व कल्याण की कामना से परिपूर्ण वातावरण का निर्माण करना चाहिए। यदि किसी साहित्यकार को शासन तंत्र का सहयोग मिलता है, तो उसे उसकी शक्ति का प्रयोग जनकल्याण और साहित्य सांस्कृतिक मूल्यों के निर्माण के लिए करना चाहिए। साथ ही उसे अपने आत्मसम्मान को भी संरक्षण करना चाहिए। अंत में लेखक ने डॉ. वर्मा से जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण जानना चाहा। साथ ही उन्होंने डॉ. वर्मा से यह प्रार्थना की कि वह अपना दृष्टिकोण उसे अपनी हस्तलिपि अर्थात् अपने हाथ से लिखकर दें।

लेखक की प्रार्थना को स्वीकार करते हुए उन्होंने जीवन के प्रति अपना दृष्टिकोण व्यक्त करते हुए लिखा कि ‘यह जीवन सदैव हरा-भरा है और सुन्दर मधुर है। जैसे चाँद की हँसी, फूल की सुगन्ध, पक्षी का कलरव, नदी की लहर, जो हमेशा आगे बढ़ना जानती है। फैलती है तो, जैसे पलक खुल रही है और वह पलभर में संसार का तट छू लेती है। मेरे विचार से जीवन की परिभाषा इससे अधिक क्या हो सकती है? इसमें सुख है, सुगन्धि है, रूप है और है ऐसी प्रगतिशीलता जो अपने से निकलकर सारे संसार को छू लेती है।” डॉ. वर्मा के इस दृष्टिकोण को पढ़कर लेखक स्वयं को जीवन के प्रति सकारात्मक व उत्साहित महसूस करता है।

कठिन शब्दार्थ :

(पा, पु.पृ. 34) प्रथम = पहली। चर्चित = चर्चा में रहने वाली। सर्वश्रेष्ठ = सभी में श्रेष्ठ। आग्रह = अनुरोध, पुनः दोबारा। अखिल = सम्पूर्ण। कच्ची उमर = छोटी उम्र। बलवती = मजबूत, दृढ़। आकांक्षा = इच्छा। उत्तीर्ण = पास, सफल। नव = नए। आमंत्रित करना = बुलाना। प्रोत्साहित = कार्य करने के लिए जोश में आना। भर्त्सना = फटकार। दृष्टिकोण =नज़रिया। प्रकाशित होना = छपना।

(पा. पु.पृ. 35) कुतूहल = जिज्ञासा । कृति = रचना । सर्वाधिक = सबसे अधिक। मनोयोग = मन से। उत्कृष्ट = उत्तम। अभिनय = नाटक। ऐतिहासिक = इतिहास से संबंधित । लोकप्रिय = लोगों में प्रिय। समस्त = सभी। विश्व = संसार। शिल्प = रचना। नितान्त = पूरी तरह से। संवेदनाओं = भावनाओं । सम्बलित = मजबूत। भ्रमर = भरा। नाना = विभिन्न । पुष्प = फूल। मधु = शहद । उपादान = उदाहरण। उत्थान = उन्नति।

(पा.पु.पृ. 36) भाँति = प्रकार। भ्रमणशील = घूमने वाला। सम्यक्रूपेण = समान रूप से पूरी तरह से। संयोजन = आयोजन । विनाशोन्मुख = विनाश की ओर उन्मुख। शिव = कल्याण । हित = भलाई। सम्बलित = दृढ़, मजबूत । दशाब्दियाँ = दस शताब्दी । अनुसंधान = खोज। दृष्टिकोण = नजरिया। अवतरित होना = प्रकट होना । यथार्थ = वास्तविकता। विभूषित= सुशोभित । पाश = बन्धन । अनुभूति = एहसास। सृष्टि = रचना।

(पा.पु.पृ. 37) अतिरिक्त = अलग से। शैशव = बाल्यकाल। अभिलाषा = इच्छा। अभिनीत = अभिनय किया हुआ। पार्ट = चरित्र। अनेकानेक = बहुत सारे । प्रवृत्ति = आदत । उदित होना = उत्पन्न होना। काश्मीर = कश्मीर । प्राकृत = प्राकृतिक। शोभा = सुन्दरता। कमलनयन = कमल के समान नेत्र। अस्फुट = बिना खिली हुई । साहित्याकाश = साहित्यरूपी आकाश । हस्तलिपी = हाथ से लिखी हुई।

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