RBSE Solutions for Class 12 Hindi सरयू Chapter 15 भारतीय संस्कृति (निबंध)

Rajasthan Board RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 15 भारतीय संस्कृति (निबंध)

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 15 पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 15 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
‘भारतीय संस्कृति’ निबंध के निबंधकार कौन हैं?
(क) बाबू घनश्यामदास
(ख) बाबू गुलाबराय
(ग) हरिश्चन्द्र
(घ) आचार्य हजारी प्रसाद
उत्तर:
(ख) बाबू गुलाबराय

प्रश्न 2.
‘गोरस बेचन हरि मिलन, एक पंथ दो काज’ लोकोक्ति का अर्थ है –
(क) दूध बेचने जाना
(ख) हरि से मिलना
(ग) एक समय में दो कार्य संपन्न होना
(घ) दो पक्षियों को मारना
उत्तर:
(ग) एक समय में दो कार्य संपन्न होना

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 15 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
संस्कृति शब्द का क्या अर्थ है?
उत्तर:
संस्कृति शब्द का अर्थ संशोधन करना, परिष्कार करना तथा उत्तम बनाना है।

प्रश्न 2.
संस्कृति के कितने पक्ष हैं?
उत्तर:
संस्कृति के दो पक्ष हैं – एक बाह्य तथा दूसरा आन्तरिक।

प्रश्न 3.
‘कुशल’ शब्द को क्या अर्थ है?
उत्तर:
कुशल शब्द का अर्थ है- कुश लाने वाला। इस कारण उसका अर्थ तन्दुरुस्त, स्वस्थ आदि हो गया है।

प्रश्न 4.
भाषा संस्कृति का कौन-सा अंग है?
उत्तर:
भाषा संस्कृति का बाहरी अंग है।

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 15 लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
मनुस्मृति में अच्छे मनुष्य के क्या लक्षण बताए गए हैं?
उत्तर:
मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण धृति, क्षमा, दया, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, धी, विद्या, सत्य तथा अक्रोध बताए गए हैं। ये ही अच्छे मनुष्य के लक्षण हैं।

प्रश्न 2.
रघुवंश में रघुकुल के राजाओं के कौन-से गुण बताए गए हैं?
उत्तर:
‘रघुवंश’ में कालिदास ने रघुकुल के राजाओं के गुण बताए हैं। उनका धन दान देने के लिए होता था। वे सत्य की रक्षा के लिए कम बोलते थे। वे यश पाने के लिए विजय प्राप्त करते थे। वे पितृऋण चुकाने के लिए गृहस्थ बनते थे। वे बाल्यावस्था में विद्याध्ययन, यौवन में भोग तथा वृद्धावस्था में मुनिवृत्ति धारण करते थे। योग द्वारा शरीर का त्याग करते थे।

प्रश्न 3.
मांगलिक कार्यों में किन पदार्थों को प्रमुख स्थान दिया जाता है?
उत्तर:
मांगलिक कार्यों में कमल पुष्प, आम्र, कदली, दूर्वादल, नारियल, श्रीफल और दूबघास तथा कमल का फूल पूजा के काम आते हैं।

प्रश्न 4.
साधना मार्ग में किन तीन गुणों को महत्ता प्रदान की गई है?
उत्तर:
साधना मार्ग में जिन तीन गुणों को महत्ता प्रदान की गई है, वे गुण हैं- (1) तप, (2) त्याग, (3) संयम। बौद्ध, जैन तथा वैष्णव सभी धर्मों में साधना के लिए इन गुणों को आवश्यक माना गया है।

प्रश्न 5.
भारतीय तथा पाश्चात्य दर्शन में प्रमुख अंतर क्या है?
उत्तर:
भारतीय दर्शन में आध्यात्मिकता मन और बुद्धि से परे है। उसमें आत्मा का साक्षात् अनुभव करने की लालसा है। आत्मा का साक्षात्कार ही भारतीय दर्शन का लक्ष्य है। पाश्चात्य दर्शन में आध्यात्मिकता केवल बौद्धिक तर्क-वितर्क और विचारों तक सीमित है।

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 15 निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
संस्कृति के बाह्य स्वरूप में किन बातों को स्थान दिया जाता है?
उत्तर:
संस्कृति के बाह्य पक्ष में रहन-सहन तथा पोशाक आदि पर ध्यान दिया जाता है। भारतीय संस्कृति में जमीन पर बैठना, हाथ से खाना, नहाकर खाना, लम्बे-ढीले तथा बिना सिले वस्त्र पहनना, नित्य स्नान करना आदि मान्य हैं। लम्बे तथा ढीले कपड़े शरीर को अच्छी तरह ढकते हैं। बेसिले कपड़े-धोती आदि सरलता से धोये जा सकते हैं। सिर ढककर रखने की मान्यता है। मांगलिक कार्यों में प्रकृति तथा वातावरण के अनुरूप वस्तुओं का प्रयोग होता है। आम तथा केले के पत्ते, आम, केला, नारियल, श्रीफल आदि फलों, कमल के फूलों, दूबघास आदि का प्रयोग पूजा-सामग्री के रूप में भारत में होता है। पीपल का वृक्ष, गंगा नदी, हिमालय पर्वत, गरुड़, वसंत ऋतु आदि को भारतीय संस्कृति में महत्ता प्राप्त है। हमारी भाषा में गो से संबंधित शब्दों को बाहुल्य उसी कारण है। भारत गरम देश है अतः यहाँ हृदय को शीतल करना मुहावरा प्रचलित है। ठंडे देशों में ‘Warm Reception’ तथा ‘Cold treatment’ बोला जाता है। हिंसक प्रवृत्ति वाले To kill two bird with one Stone कहावत का प्रयोग करते हैं तो भारतीय आध्यात्मिक जन गोरस बेचन हरि मिले, एक पंथ दो काज कहते हैं।

प्रश्न 2.
पतिगृह जाते हुए शकुन्तला ने किनसे और क्यों आज्ञा प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की ?
उत्तर:
महर्षि कण्व अपनी पालित पुत्री शकुन्तला को उसके पति के घर भेज रहे हैं। शकुन्तला तपोवन के निवासियों से तो विदाई ले ही रही है, वहाँ के पशु-पक्षियों तथा लताओं, पेड़-पौधों से भी जाने की आज्ञा चाहती है। तपोवन के पशु-पक्षी तथा लता, गुल्म वृक्ष आदि भी तपोवन के जीवन के अंग हैं। शकुन्तला तपोवन के पेड़-पौधों को पानी देने के बाद ही पानी पीती थी। वह श्रृंगार प्रिय होने पर भी उनके फूल तथा पत्ते नहीं तोड़ती थी। उनके फूलने-फलने के समय उसको उत्सव का सा आनन्द आता था। वह उनको अत्यन्त प्रेम करती थी। वे शकुन्तला के जीवन के साथी तथा अंग बन चुके थे। अत: तपोवन से अपने पति घर जाते समय वह उनसे भी विदा माँग रही है।

प्रश्न 3.
भारतीय संस्कृति के प्रमुख अंगों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
उत्तर:
भारतीय संस्कृति के प्रमुख अंग निम्नलिखित हैं

  1. आध्यात्मिकता – इसके अन्तर्गत नश्वर शरीर का तिरस्कार पर लोक सत्य, अहिंसा, तप, आवागमन की भावना तथा ईश्वरीय न्याय में विश्वास आदि सारी बातें हैं। तप, त्याग तथा संयम सभी जीवों को अपने समान मानना तथा सबका हित चाहना भी आध्यात्मिकता है।
  2. समन्वय की भावना – भारतीय संस्कृति में समन्वय की प्रधानता है। समन्वय के द्वारा विभिन्न संस्कृतियाँ मिल सकी हैं। तुलसीदास ने ज्ञान और भक्ति, शैव और वैष्णव, अद्वैत तथा विशिष्टाद्वैत का समन्वय किया है।
  3. वर्णाश्रम को मान्यता – भारतीय संस्कृति में चार वर्षों तथा चार आश्रमों में मानव जीवन तथा समाज को बाँटा गया है। इसका उद्देश्य कार्य-विभाजन द्वारा समाज में व्यवस्था तथा अनुशासन की स्थापना रहा है।
  4. अहिंसा, करुणा, मैत्री और विनय – करुणा छोटों, मैत्री बराबर वालों तथा विनय बेड़ों के प्रति होती है। सबके मूल में अहिंसा की भावना है। विनम्रता विद्या से भी श्रेष्ठ माना गया है।
  5. प्रकृति प्रेम – भारतीय संस्कृति में प्रकृति से प्रेम करने की शिक्षा दी गई है। पेड़-पौधे, पर्वत, नदियाँ, पशु-पक्षी सभी जीवन के अंग हैं।
  6. अन्य – भारतीय संस्कृति में अतिथि सत्कार की भावना है। इसमें शोक को नहीं आनन्द को महत्ता प्राप्त है।

प्रश्न 4.
भारतीय संस्कृति में प्रकृति-प्रेम की विशेषताओं को सोदाहरण समझाइए।
उत्तर:
प्रकृति की देन की दृष्टि से भारत अनुपम है। प्रकृति इस देश पर विशेष रूप में मेहरबान है। यहाँ सभी ऋतुएँ होती हैं तथा पर्याप्त समय तक ठहरती हैं। प्रत्येक ऋतु में उसके अनुकूल फल-फूल उत्पन्न होते हैं। यहाँ धूप और वर्षा का संतुलन रहता है। इस कारण भूमि पर नई-नई फसलें पैदा होती हैं तथा वह हरी-भरी रहती हैं। पर्वतों के राजा हिमालय का सौन्दर्य कवियों को सदा प्रेरित करता रहता है। भारत की नदियों को मोक्ष प्रदान करने वाली मानते हैं। यहाँ बनावटी ताप तथा प्रकाश की जरूरत नहीं होती, भारतीय विद्वान वनों में तपोभूमि बनाकर रहते हैं। वृक्षों में पानी देना धार्मिक कार्य माना जाता है। सूर्य और चन्द्रमा के नित्य दर्शन करना और अर्घ्य देना अच्छा माना जाता है। इससे निश्चित उद्देश्य की पूर्ति होती है। पेड़-पौधे, लतायें, पशु, पक्षी आदि तपोवनों के अंग माने जाते थे। इन सभी प्राकृतिक जीव-जन्तुओं को मनुष्य के समान ही महत्त्वपूर्ण माना जाता है।

प्रश्न 5.
पाठ में आए निम्नलिखित गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए
(क) हमारी संस्कृति इतने में ही संकुचित नहीं है…….. अतिथि को भी देवता माना गया है- अतिथि देवोभवः।’
(ख) हमारे यहाँ सामाजिकता की अपेक्षा …….. पारिवारिक एकता पर कुठाराघात हो।
उत्तर:
उपर्युक्त गद्यांशों की व्याख्या महत्वपूर्ण गद्यांशों की सन्दर्भ-प्रसंग सहित व्याखाएँ शीर्षक के अन्तर्गत देखिए।

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 15 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 15 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
‘संस्कृति ‘शब्द संबंधित है –
(क) संस्कार से
(ख) संस्कृत से
(ग) संस्करण से
(घ) संपादन से।
उत्तर:
(क) संस्कार से

प्रश्न 2.
गरम देश में पृथ्वी का स्पर्श –
(क) अच्छा नहीं लगता
(ख) बुरा नहीं लगता
(ग) ने अच्छा लगता है न बुरा
(घ) बुरा लगता है।
उत्तर:
(ख) बुरा नहीं लगता

प्रश्न 3.
मनुस्मृति में बताए गए धर्म के लक्षणों में नहीं है –
(क) शौच
(ख) धृति
(ग) अभय
(घ) क्षमा
उत्तर:
(ग) अभय

प्रश्न 4.
नगाधिराज के नाम से प्रसिद्ध है –
(क) विंध्याचल
(ख) हिमालय
(ग) नीलगिरि
(घ) अरावली
उत्तर:
(ख) हिमालय

प्रश्न 5.
भारतीय संस्कृति में धार्मिक साधना में अधिक बल दिया गया है –
(क) सामूहिक प्रार्थना पर
(ख) सामूहिक कीर्तन पर
(ग) एकान्त साधना पर
(घ) मंदिर जाने पर
उत्तर:
(ग) एकान्त साधना पर

प्रश्न 6.
धर्म-संस्कृति का आन्तरिक पक्ष नहीं है –
(क) पोशाक
(ख) एकान्त साधना
(ग) तप
(घ) प्राणायाम
उत्तर:
(क) पोशाक

प्रश्न 7.
पण्डित की पहचान है –
(क) विद्वान होना
(ख) बहुश्रुत होना
(ग) ज्ञान गर्वीला होना
(घ) समदर्शी होना
उत्तर:
(घ) समदर्शी होना

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 15 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
संस्कृति किसको कहते हैं?
उत्तर:
भारतीय संस्कारों को संस्कृति कहते हैं।

प्रश्न 2.
‘भारतीय संस्कृति’ पाठ से छाँटकर ‘गो’ से सम्बन्धित दो शब्द लिखिए।
उत्तर:
‘गो’ से सम्बन्धित दो शब्द हैं-
1. गोष्ठी
2. गोपुच्छ।

प्रश्न 3.
भारत में नहाना किसका अंग बन गया है?
उत्तर:
भारत में नहाना धर्म का अंग बन गया है।

प्रश्न 4.
भारत में हाथ से खाने का रिवाज क्यों है?
उत्तर:
भारत गरम देश है। अत: हाथ हर समय धोये जा सकते हैं। यहाँ अन्न को देवता माना गया है, उससे सीधा संपर्क अधिक सुखद है।

प्रश्न 5.
‘रघुवंश’ क्या है?
उत्तर:
‘रघुवंश’ संस्कृत भाषा के महान् कवि कालिदास द्वारा रचित महाकाव्य है।

प्रश्न 6.
भगवान बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति कहाँ हुई थी?
उत्तर:
भगवान बुद्ध को अश्वत्थ वृक्ष के नीचे बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी।

प्रश्न 7.
महाराज दिलीप के गुरु की गाय का नाम क्या था?
उत्तर:
महाराज दिलीप के गुरु की गाय का नाम नंदिनी थी।

प्रश्न 8.
प्रसाद जी द्वारा रचित महाकाव्य का नाम क्या है?
उत्तर:
प्रसाद जी द्वारा रचित महाकाव्य का नाम कामायनी है।

प्रश्न 9.
भारतीय संस्कृति में हिंसा का क्या आशय है?
उत्तर:
भारतीय संस्कृति में किसी का वध करना ही हिंसा नहीं है किसी का देय नहीं देना तथा मन दुखाना भी हिंसा है।

प्रश्न 10.
जातिवाद तथा सामाजिक असमानता के विरुद्ध आवाज उठाने वाले किन भारतीयों के नाम प्रमुख हैं?
उत्तर:
जातिवाद तथा सामाजिक असमानता के विरुद्ध आवाज उठाने वाले भारतीयों में गौतम बुद्ध, संत कबीर तथा महात्मा गाँधी प्रमुख हैं।

प्रश्न 11.
भारत में किस प्रकार के नाटकों का निषेध है तथा क्यों?
उत्तर:
भारत में शोकान्त नाटकों का निषेध है, क्योंकि भारतीय संस्कृति में आनन्द की भावना की प्रधानता है।

प्रश्न 12.
‘अतिथि देवोभवः’ का क्या आशय है?
उत्तर:
भारतीय संस्कृति में अतिथि सत्कार का बहुत महत्व है। हमारे यहाँ अतिथि को देवता माना गया है।

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 15 लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
अंग्रेजी शब्द ‘कल्चर’ तथा ‘एग्रीकल्चर’ में क्या समानता है? इनको अर्थ क्या है?
उत्तर:
अंग्रेजी भाषा के कल्चर तथा एग्रीकल्चर शब्दों में एक ही धातु है। इनका अर्थ पैदा करना, सुधार करना है।

प्रश्न 2.
“जातीय संस्कारों को ही संस्कृति कहते हैं- क्यों?
उत्तर:
संस्कृति समूहवाचक शब्द है। जाति भी समूह को ही कहते हैं। जलवायु आदि के अनुकूल रहन-सहन की विधियाँ और विचार-परम्पराएँ जब जाति के लोगों में जड़ जमा लेती हैं तो जातिगत संस्कार बन जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को ये संस्कार अपने पूर्वजों से प्राप्त होते हैं तथा उसके घरेलु तथा सामाजिक जीवन में दिखाई देते हैं। इसी को जातीय संस्कृति कहते हैं।

प्रश्न 3.
संस्कृति के कितने पक्ष होते हैं? बाह्य पक्ष आन्तरिक पक्ष से किस प्रकार सम्बन्धित होता है?
उत्तर:
संस्कृति के दो पक्ष होते हैं- बाह्य तथा आन्तरिक। आन्तरिक पक्ष यदि बाह्य पक्ष में प्रतिबिम्बित नहीं होता तो उससे सम्बन्धित अवश्य होता है। किसी जाति के बाहरी आचार उसकी मनोवृत्तियों तथा विचारों के अनुरूप ही होते हैं, किसी की वेशभूषा-पोशाक आदि पर उसके विचारों का प्रभाव अवश्य होता है।

प्रश्न 4.
भाषा को संस्कृति का बाहरी अंग कैसे कह सकते हैं ?
उत्तर:
भाषा संस्कृति का बाहरी अंग ही है। वह हमारी जातीय मनोवृत्ति की परिचायिका होती है। उदाहरणार्थ ‘कुशल’ शब्द को देखें। इसका सम्बन्ध कुश घास है। हमारी संस्कृति में पूजा के कार्य में कुश का प्रयोग होता है। ‘कुश’ लाना दैनिक कार्य था, जो कुश लाता था। वह तन्दुरुस्त तो होता ही था। कुशल शब्द ‘स्वस्थ’ के अर्थ में ही प्रयुक्त होता है।

प्रश्न 5.
‘गो’ से प्रारम्भ होने वाले पाँच शब्द लिखिए तथा प्रत्येक का अर्थ भी स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
‘गो’ से प्रारम्भ होने वाले शब्द तथा उनके अर्थ निम्नलिखित हैं –

  1. गोधूलि – शाम के समय जब गायें चरागाह से लौटती थीं और उनके पैरों से धूल उड़ती थी। इस वेला में विवाह आदि शुभ कार्य सपन्न होते हैं।
  2. गवाक्ष – झरोखा या खिड़की। संभवत: खिड़की पहले गोल होती थी। वह गवाक्ष अर्थात् गाय की आँख की तरह होती थी।
  3. गुरसी – गोरस गाय का दूध है। जिस अँगीठी में दूध गरम किया जाता है, उसको गुरसी कहते हैं।
  4. गोमुखी – गाय के मुख जैसी एक थैली होती है, जिसमें हाथ अन्दर डालकर माला जपी जाती है।
  5. गोधन – छिपाना। पालतू गाय को सुरक्षा के विचार से छिपाकर रखा जाता है।

प्रश्न 6.
“जलवायु से भी किसी देश की भाषा प्रभावित होती है। उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जलवायु का प्रभाव किसी देश की भाषा पर पड़ता है। भारत की जलवायु गर्म है। गर्मी में ठंडी चीजें सुखदायक लगती हैं। अत: हिन्दी में ‘‘हृदय या मन को शीतल करना अथवा ठंडक पहुँचाना” मुहावरे प्रचालित हैं। उसी प्रकार इंग्लैण्ड ठंडा मुल्क है। वहाँ गर्म चीजें सुखदायक लगती हैं और ठंडी चीजें दु:खदायी। अंग्रेजी भाषा में Warm Reception हार्दिक स्वागत के लिए तथा Cold Treatment अनमने ढंग से मिलने के अर्थ में होता है।

प्रश्न 7.
”नहाना धर्म का अंग हो गया है।” भारतीय संस्कृति में नहाना धर्म क्यों माना जाता है? कोई दो कारण लिखिए।
उत्तर:
भारतीय संस्कृति में नहाना धार्मिक कृत्य माना जाता है। प्रतिदिन स्नान के साथ धार्मिक पर्यों-त्यौहारों आदि पर भी स्नान होते हैं। इसके दो कारण हैं –

  1. नहाने के लिए भारत में पर्याप्त पानी मिल जाता है।
  2. भारत एक गरम देश है। यहाँ नहाने की आवश्यकता अधिक होती है।

प्रश्न 8.
“कमल ही सब प्रकार के शारीरिक सौन्दर्य का उपमान बनता है”- पाठ से उदाहरण देकर सिद्ध कीजिए।
उत्तर:
उपमा अलंकार में किसी शारीरिक अंग के सौन्दर्य की तुलना प्रकृति की किसी वस्तु से की जाती है। उन चीजों को उपमान कहते हैं। कमल पुष्प को मानव शरीर के विभिन्न अंगों के लिए उपमान स्वीकार किया जाता है। उदाहरणार्थ – चरण-कमल, मुख कमल, नेत्र कमल इत्यादि में कमल ही उपमान है। गोस्वामी तुलसीदास ने श्री रामचन्द के शारीरिक अंगों के लिए कमल को ही उपमान चुना है- “नवकंज लोचन कंज मुख कर कंज पद कंजारुणम्”।

प्रश्न 9.
भारतीय संस्कृति में मांगलिक कार्यों में प्रयुक्त होने वाली दो चीजों के नाम लिखकर बताइए कि उनका प्रयोग किस तरह किया जाता है?
उत्तर:
भारतीय संस्कृति में मांगलिक कार्यों में अनेक वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है। उनमें आम तथा केला प्रमुख हैं। आम को आम्र तथा रसाल भी कहते हैं। फलों का उपयोग प्रसाद के लिए तथा पत्रों का उपयोग साज-सज्जा के लिए किया जाता है।

प्रश्न 10.
आम्र तथा अश्वत्थ की महत्ता प्रतिपादित कीजिए।
उत्तर:
आम्र अर्थात् आम पूरे भारत में पाया जाता है। इसका कच्चा फल खट्टा होता है। जो पकने पर मीठा हो जाता है। बसन्त ऋतु आने से पूर्व इस पर बौर अर्थात् मंजरी आ जाती है। अश्वत्थ को पीपल कहते हैं। भारतीय संस्कृति में उसकी विशेष महिमा है। श्रीमद्भगवद् गीता में अश्वत्थ को भगवान की विभूतियों में माना गया है। अश्वत्थ वृक्ष के नीचे ही भगवान बुद्ध को बुद्धत्व प्राप्त हुआ था।

प्रश्न 11.
भारतीय संस्कृति के अनुसार सभ्य और शिष्ट पुरुष के लक्षण क्या हैं?
उत्तर:
मनुस्मृति में धैर्य, क्षमा, दया, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध धर्म बताए गए हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में बताए गए दैवी सम्पदा वालों के अभय आदि लक्षण, स्थितप्रज्ञ के लक्षण तथा सात्विक चीजों के लक्षण आदि सब भारतीय संस्कृति के अनुसार सभ्य और शिष्ट पुरुष के लक्षण हैं।

प्रश्न 12.
रघुकुल के राजाओं के गुणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
रघुकुल के राजा दूसरों को दान देने के लिए सम्पन्न बनते थे। सत्य की रक्षा के लिए मितभाषी थे। यश प्राप्ति के लिए विजयी होते थे। पितृऋण चुकाने के लिए गृहस्थ बनते थे। वे बाल्यावस्था में विद्याध्ययन, यौवन में सुखोपभोग तथा वृद्धावस्था में मुनि वृत्ति धारण करते थे। वे योग द्वारा शरीर को त्यागते थे।

प्रश्न 13.
नश्वर शरीर के तिरस्कार का क्या तात्पर्य है? इससे बलिदान की प्रेरणा किस प्रकार मिलती है?
उत्तर:
भारतीय संस्कृति में शरीर को नाशवान् माना गया है। अत: उसको अधिक महत्त्व न देकर उसकी उपेक्षा करने के लिए कहा गया है। इस कारण लोगों को आत्मबलिदान की प्रेरणा प्राप्त हुई है। शिवि, दधीचि, मोरध्वज, दिलीप इत्यादि अनेक पुरुषों ने परहित के लिए अपना शरीर प्रस्तुत किया है।

प्रश्न 14.
यश शरीर और पंचभूतों से बने शरीर का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
शिष्ट पुरुष यशस्वी होकर जीना चाहते थे। अपनी मृत्यु के पश्चात भी वे जीवित रहते थे। उनका यश शरीर मरता नहीं था। पंचभूत अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश तथा वायु से निर्मित भौतिक शरीर पंचभूत से बना शरीर है। यह नाशवान है। इसका मोह न करने का उपदेश तथा यश शरीर की रक्षा की प्रेरणा भारतीय संस्कृति में दी गई है।

प्रश्न 15.
नश्वरं शरीर का तिरस्कार करना आपकी दृष्टि में कैसा कार्य है? क्या नश्वर शरीर यश शरीर के लिए आवश्यक नहीं है?
उत्तर:
नश्वर शरीर के लिए ‘तिरस्कार’ का प्रयोग उसको महत्त्वहीन सिद्ध करने में कुछ अतिवादी प्रयोग है। मेरी दृष्टि में भौतिक शरीर नश्वर तो है, नश्वर तो संसार में सब कुछ है। कुछ चीजें जल्दी तो कुछ देर में नष्ट होती हैं। किन्तु वह तिरस्कार के योग्य नहीं है। उसके बिना यश शरीर न बन सकता है और न उसकी रक्षा हो सकती है। तप, त्याग, दान सबको यही साधन है।

प्रश्न 16.
“कीरी और कुंजर में एक ही आत्मा का विस्तार देखा जाता है?” कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
छोटे कीट तथा विशाल हाथी में एक ही आत्मा है। इस दृष्टि से दोनों समान हैं। ज्ञानी पुरुष उनमें भेद नहीं करते। वे सभी प्राणियों को अपने समान तथा एक जैसा समझते हैं। इसी से गाँधी जी की सर्वोदय की भावना का जन्म हुआ है। पण्डित सभी प्राणियों को समान मानकर उनकी हित कामना वाले होते हैं।

प्रश्न 17.
समन्वय की भावना क्या है?
उत्तर:
भारतीय मनीषी सभी प्राणियों में एक ही आत्मा के दर्शन करते हैं। बाह्य आकार-प्रकार में अलग-अलग दिखाई देने पर भी उनमें आन्तरिक एकता है। आत्मा की यह एकता अनेकता में एकता देखने की भावना को उत्पन्न करने वाली है। समन्वय की भावना भी इसी से मिलती-जुलती है। भारतीय विचारकों ने सभी चीजों में सत्य के दर्शन किए हैं।

प्रश्न 18.
“हिन्दी के साहित्यकारों ने समन्वय बुद्धि से काम किया है।” कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
हिन्दी के महान् रामभक्त कवि तुलसीदास ने समन्वय बुद्धि से काम लिया है। उन्होंने अपने समय में प्रचलित आध्यात्मिक विचारधाराओं में समन्वय की चेष्टा की है। तुलसी ने शैव और वैष्णव, ज्ञान और भक्ति-अद्वैत और विशिष्टाद्वैत में समन्वय स्थापित किया है। प्रसाद जी ने ‘कामायनी’ महाकाव्य में ज्ञान, इच्छा और क्रिया का समन्वय किया है।

प्रश्न 19.
भारतीय संस्कृति में कार्य विभाजन किस प्रकार किया गया है?
उत्तर:
भारतीय संस्कृति में वर्ण और आश्रम की व्यवस्था द्वारा कार्यविभाजन किया गया है। समाज तथा मानव जीवन को चार भागों में बाँटा गया है। जीवन को सौ वर्ष का मानकर ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास नामक चार आश्रमों की व्यवस्था है। इनमें प्रत्येक के कर्तव्य निर्धारित हैं। इसी प्रकार कर्म की दृष्टि से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-चार वर्षों की व्यवस्था है।

प्रश्न 20.
‘सामाजिक विभाजन बढ़ते-बढ़ते संकुचित और अपरिवर्तनीय बन गया”- लेखक के ऐसा कहने का कारण क्या है?
उत्तर:
भारतीय संस्कृति में समाज को व्यवस्थित रखने की दृष्टि से कार्य विभाजन की व्यवस्था थी। समाज तथा जीवन को चार आश्रमों तथा चार वर्षों में बाँटा गया था। इसको वर्णाश्रम व्यवस्था कहते हैं। यह विभाजन बढ़कर जाति प्रथा में बदल गया और समाज में ऊँच-नीच की भावना उत्पन्न हो गई। इस प्रकार सामाजिक हित में की गई वर्णाश्रम व्यवस्था उसके लिए हानिप्रद बन गई।

प्रश्न 21.
वर्ण-व्यवस्था के सम्बन्ध में लेखक का क्या मत है? आप इस विषय में अपनी सहमति अथवा असहमति सकारण व्यक्त कीजिए।
उत्तर:
गुलाबराय जी का मानना है कि वर्णाश्रम व्यवस्था में सामाजिक संगठन का बहुत ऊँची आदर्श रखा गया था। बाद में बुराई यह हुई कि कुछ लोग ने स्वयं को श्रेष्ठ घोषित कर दिया। यह बात उन्होंने भुला दी कि विद्वान समदर्शी होता है। पुरुष सूक्त में चारों वर्षों को एक ही शरीर का अंग माना गया है। वैदिक ऋषियों की यह भावना भुला दी गई। वर्णाश्रम व्यवस्था कभी अच्छी रही होगी और सामाजिक व्यवस्था के लिए आवश्यक भी किन्तु वर्तमान में उसमें अनेक दोष उत्पन्न हो गए हैं और वह समाज के विघटन का कारण बन गई है। अत: मैं इससे सहमत नहीं हूँ।

प्रश्न 22.
भारतीय संस्कृति में किन चार प्रमुख गुणों को महत्ता प्रदान की गई है?
उत्तर:
भारतीय संस्कृति में अहिंसा, करुणा, मैत्री तथा विनय को महत्त्वपूर्ण माना गया है। करुणा, मैत्री तथा विनय अहिंसा व्रत पालन में सहायक होते हैं। किसी की अपनी वाणी अथवा व्यवस्था से पीड़ा न पहुँचाना अहिंसा है। करुणा प्राय: छोटों के प्रति, मैत्री बराबर वालों के प्रति तथा विनय बड़ों के प्रति होती है। शिष्टतापूर्ण व्यवहार सभी के प्रति अपेक्षित है। ब्राह्मण का विद्वान होने से पूर्व विनम्र होना आवश्यक है।

प्रश्न 23.
भारतीय संस्कृति में सत्य बोलने के सम्बन्ध में क्या कहा गया है?
उत्तर:
भारतीय संस्कृति में बताया गया है कि प्रिय सत्य बोलना चाहिए, अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए। सत्य यदि कटु है और उसके बोलने से यदि किसी का मन दु:खी होने की संभावना है तो उसको नहीं बोलना चाहिए।

प्रश्न 24.
अप्रिय सत्य बोलने से निषेध करने के पीछे आपके मत में क्या कारण है?
उत्तर:
अप्रिय सत्य बोलना हमारी संस्कृति में निषिद्ध है। मेरे मत में इसका कारण यह है कि इससे करुणा, मैत्री और विनय की भावना को हानि पहुँचती है। अप्रिय सत्य बोलना एक प्रकार की हिंसा है तथा इससे अहिंसा की भावना को चोट लगती है। अप्रिय सत्य से श्रोता का मन दु:खता है और हिंसा का रूप ले लेता है।

प्रश्न 25.
“भारतवर्ष पर प्रकृति की विशेष कृपा रही है” इस कथन के आधार पर भारत के प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारत प्राकृतिक सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ वस्तुएँ समय पर आती हैं और फल-फूलों को उत्पन्न करती हैं। धूप और वर्षा यथासमय होने के कारण धरती शस्य-श्यामला है। उत्तर में स्थित पर्वतों का राजा हिमालय कवियों को प्रेरणा देता है। यहाँ की नदियाँ मोक्षदायिनी हैं। कृत्रिम धूप और प्रकाश की जरूरत नहीं पड़ती है। यहाँ के ऋषि वन में रहते हैं। सूर्य-चन्द्र का दर्शन शुभ माना जाता है। वृक्षों को पानी देना पुण्य माना जाता है। पशु-पक्षी, पेड़-पौधे जीवन के अंग हैं।

प्रश्न 26.
भारत में विभिन्न जातियों के आने से क्या समस्या उत्पन्न हुई है? आप उसका क्या समाधान सुझायेंगे?
उत्तर:
भारत में समय-समय पर विभिन्न जातियों के आने से संस्कृति की समस्या जटिल हुई है। पुराने समय में आर्य तथा द्रविड़ संस्कृतियों के सम्पर्क से हुई समस्या समन्वय द्वारा हल हो चुकी है। वर्तमान में मुस्लिम तथा आँग्ल संस्कृतियों से हमारा सम्पर्क हुआ है। उससे उत्पन्न समस्या का हल भी समन्वय है। किन्तु समन्वये का अर्थ अपनी अच्छाइयों को खो देना नहीं है। दूसरी संस्कृतियों की अच्छी बातों को ही अपनाना चाहिए।

प्रश्न 27.
कपड़े और जूतों की सभ्यता और कम से कम कपड़ा पहनने और नंगे पैर रहने की सभ्यता में भी समन्वय की भावना है। इस कथन में किन दो सभ्यताओं की ओर संकेत है? उनमें किन बातों का मेल होना जरूरी है।
उत्तर:
“कपड़े और जूतों की सभ्यता” पाश्चात्य सभ्यता है तथा कम से कम कपड़ा पहनने और नंगे पैर रहने की सभ्यता” भारतीय सभ्यता है। इन दोनों सभ्यताओं का मेल पाश्चात्य सभ्यता की अच्छी बातों को ग्रहण करके हो सकता है।

प्रश्न 28.
कुल्हड़ों का प्रयोग स्वास्थ्य के लिए कैसा है? इनके प्रयोग में क्या समस्या है?
उत्तर:
कुल्हड़ों को प्रयोग स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छा है क्योंकि उसका प्रयोग एक बार होता है तथा प्रयोग के बाद उसको फेंक दिया जाता है। इसमें समस्या यह है कि उनके टूटने पर मिट्टी बिखर जाती है तथा गन्दगी होती है। इसको समाधान करके उनका प्रयोग निश्चित भाव से किया जा सकता है।

प्रश्न 29.
भारतीय संस्कृति तथा अन्य संस्कृतियों के धार्मिक कार्यों में क्या अन्तर है?
उत्तर:
भारतीय संस्कृति में एकान्त साधना को महत्त्वपूर्ण माना गया है। अन्य संस्कृतियों में सामूहिक प्रार्थना की जाती है। सामूहिक प्रार्थना धर्म में एकता की सामाजिक भावना उत्पन्न करती है। भारत में सामाजिकता की अपेक्षा पारिवारिकता को महत्त्व दिया गया है।

प्रश्न 30.
‘अंग्रेजी सभ्यता में जूतों का विशेष महत्व है, किन्तु उसे अपने यहाँ के चौका और पूजा गृहों की सीमा पर आक्रमण न करना चाहिए।” आपका इस सम्बन्ध में क्या कहना है?
उत्तर:
अंग्रेजी सभ्यता ठण्डे मुल्कों की सभ्यता है। वहाँ रसोईघर तथा चर्च में भी जूते पहने जाते हैं। परन्तु भारत गरम देश है। हमारी सभ्यता में रसोईघर तथा पूजाघर में जूते पहनकर जाना निषिद्ध है। मेरा मानना है कि यदि रसोईघर आधुनिक तथा पाश्चात्य शैली में बना है तो जूते पहनकर वहाँ जाया जा सकता है। बशर्ते कि उनसे गन्दगी न हो। पूजाघर के सम्बन्ध में भी विचार करके उचित निर्णय किया जा सकता है।

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 15 निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
हमारे किन कार्यों और व्यवहार में भारतीय संस्कृति परिलक्षित होती है?
उत्तर:
हमारा रहन-सहन, पोशाक आदि बातें संस्कृति का बाह्य स्वरूप हैं। भारत में भूमि पर बैठना, हाथ से खाना खाना, स्नान करने के बाद खाना खाना, ढीले तथा लम्बे कपड़े पहनना तथा बिना सिले कपड़ों जैसे धोती आदि का प्रयोग करना प्रचलित है। भारत गरम देश है। अत: पृथ्वी का स्पर्श बुरा नहीं लगता, जमीन पर बैठा-लेटा जा सकता है। हर समय तथा हर स्थान पर जूते पहनना तथा अधिक और कसे हुए वस्त्र पहनना भारत की जलवायु के अनुसार जरूरी नहीं है। हाथ धोने में असुविधा नहीं होती। अत: हाथ से खाना खाने का रिवाज है। अन्न को देवता माना जाता है, उससे सीधा सम्पर्क अधिक सुखदायक तथा स्वाभाविक माना जाता है। भारत में नहाना धर्म का अंग है। यहाँ पानी की कमी नहीं है तथा नहाने की आवश्यकता भी अधिक होती है। हमारे इन सभी कार्य-व्यवहारों में भारतीय संस्कृति परिलक्षित होती है।

प्रश्न 2.
भारत में मांगलिक कार्यों में प्रयुक्त होने वाली वस्तुओं पर यहाँ के वातावरण तथा लोगों की रुचि का प्रभाव है। उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारत में मांगलिक कार्यों में जो वस्तुएँ प्रयुक्त होती हैं, उन पर वातावरण तथा लोगों की रुचि का प्रभाव है। पूजा में फूलों का प्रयोग होता है। उनमें सबसे अधिक महत्व कमल का है। वह जल में रहता है तथा सूर्य को देखकर खिलता है। जल और सूर्य दोनों की ही कमल को आवश्यकता है। आम्र, कदली, दूर्वादल, नारियल, श्रीफल आदि का मांगलिक कार्यों में प्रमुख स्थान है। आम भारत का विशेष फल है। वह वसन्त का अग्रदूत है। भारत में अश्वत्थ (पीपल) को भी विशेष महत्त्व प्राप्त है। वह भगवान की विभूतियों में से एक है। बुद्ध को बुद्धत्व अश्वत्थ के नीचे ही प्राप्त हुआ था। स्थावर वस्तुओं में हिमालय, नदियों में गंगा, पक्षियों में गरुड़ तथा ऋतुओं में वसन्त की महत्ता है। स्त्रीलिंग चीजों में कीर्ति, वाणी, स्मृति, बुद्धि तथा धृति को महत्व देना हमारी जातीय मनोवृत्ति का परिचायक है। हिमालय शिवजी का स्थान है। उसकी शुभ्रता मन में पवित्रता का भाव पैदा करती है। गंगा पतितपावनी है। गरुड़ विष्णु का वाहन है भारतीयों के मन में इन सबको विशेष स्थान प्राप्त है।

प्रश्न 3.
‘‘रघुकुल के राजाओं के जो गुण बतलाए गए हैं, वे केवल भारत के सांस्कृतिक आदर्शों के परिचायक हैं, बल्कि उनसे अतीत का भव्य चित्र हमारे सम्मुख आ जाता है।” इसके समर्थन में आप क्या कहना चाहेंगे?
उत्तर:
महान् कवि कालिदास ने अपने महाकाव्य ‘रघुवंश’ में रघुकुल के राजाओं का वर्णन किया है। महाराज दिलीप अपने गुरु की गाय नन्दिनी की सिंह से रक्षा के लिए अपने प्राणोत्सर्ग के लिए तैयार हो गए थे। रघु, अज, दशरथ, राम आदि राजा अपनी वंश परम्परा के अनुरूप ही गुणवान थे। वे जो धन अर्जित करते थे उसका उपयोग दान के लिए करते थे। वे परम दानी थे। वे मितभाषी थे। कभी कोई असत्य बात उनके मुख से न निकल जाय, इस कारण सावधानीवश वे बहुत कम बोलते थे, अभिमान के कारण नहीं, वे किसी का राज्य छीनने के लिए नहीं, यश प्राप्ति के लिए वे अपना राज्य, धन-सम्पत्ति तथा शरीर भी त्यागने में पीछे नहीं हटते थे। वे पितृऋण चुकाने के लिए अर्थात् समाज को अच्छे नागरिक देने के लिए विवाह करके गृहस्थ बनते थे, भोगविलास के लिए नहीं।

बचपन में विद्याध्ययन, यौवन में विषय-भोग तथा वृद्धावस्था में मुनिवृत्ति धारण करने वाले थे। वे योग द्वारा अपना शरीर त्यागते थे। इन रघुवंशी राजाओं के चारित्रिक गुणों से भारत की संस्कृति में बताए गए आदर्शों का पता चलता है। भारतीय संस्कृति में उपार्जित धन का सर्वोत्तम उपयोग उसको सुपात्रों को दान देना ही है। सत्याचरण, मितभाषिता, यश प्राप्त करना, सम्पत्ति, शरीर आदि के प्रति निर्मोह आदि भारतीय संस्कृति के आदर्श रहे हैं। बचपन, यौवन और वृद्धावस्था में निर्धारित आचरण, विद्याध्ययन, सुखोपभोग तथा सामाजिक हित साधन अपनाना भी भारतीय संस्कृति से प्रेरित है। भारत का अतीत इन सब बातों के अपनाये जाने के कारण भव्य तथा समुन्नत, पुरातन संस्कृति का ही प्रतिबिम्ब था।

प्रश्न 4.
“विस्तार के वातावरण में आत्मा का संकुचित रूप नहीं रह सकता था, इसी के अनुकूल आत्मा का सर्वव्यापक विस्तार माना गया है।” उपर्युक्त के आधार पर भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिकता के स्वरूप को स्पष्ट कीजिए। क्या आपके विचार में इससे भारतीय समाज में व्याप्त असमानता की समस्या का समाधान संभव है।
उत्तर:
भारत में आत्मा को सर्वव्यापी परमात्मा का ही रूप माना गया है। आत्मा सभी प्राणियों में व्याप्त है। विभिन्न जीव-जन्तुओं में व्याप्त आत्मा एक ही है तथा उसमें किसी प्रकार का भेद नहीं है। यह भावना आध्यात्मिकता का मूल है। भारत में उसी व्यक्ति को विद्वान् माना गया है। जो सभी प्राणियों को अपने समान समझता है, सबसे अपनी ही आत्मा के दर्शन करता है।

भारत में छोटे कीट तथा विशाल हाथी में एक ही आत्मा का होना मान्य है। उनके शारीरिक आकार में अन्तर होने से उनमें व्याप्त आत्मा में अन्तर नहीं हो जाता। सबमें एक ही आत्मा का विस्तार है। भारतीय विचारक इसी कारण सबके सुखी होने और नीरोग होने की कामना करते थे। भारत में ऊँच-नीच, धनी-निर्धन तथा जाति-वर्ग के भेदभाव से सम्बन्धित अनेक समस्यायें हैं। मेरे विचार से यदि हम भारतीय संस्कृति के सब प्राणियों में एक ही आत्मा होने के विचार को मानकर आचरण करें, तो इन समस्याओं के समाधान में आसानी हो सकती है। जब सब में एक ही आत्मा है तो उनमें भेदभाव कैसा?

प्रश्न 5.
समन्वय की भावना का आशय क्या है? भारत में समन्वये बुद्धि से काम लेना क्यों आवश्यक है? तर्कपूर्ण उत्तर दीजिए।
उत्तर:
समन्वय का अर्थ है- सम्यक् रूप से मिलना। जब दो विचारधाराओं की अविरोधी बातों को एक-दूसरे से ग्रहण किया जाता है, तो इस आदान-प्रदान को समन्वय कहते हैं। भारत में शक, हूण, कुषाण, द्रविड़ आदि अनेक जातियों का सम्पर्क हुआ है तथा भारतीय संस्कृति ने उनको आत्मसात करने में सफलता पाई है। जिस प्रकार खाये हुए भोजन के पाचन से शरीर सशक्त होता है, उसी। प्रकार इन संस्कृतियों के गुणों को अपनाकर भारतीय संस्कृति बलवती हुई है। भारत की सांस्कृतिक पाचन-शक्ति अत्यन्त प्रबल है।

भारत एक ऐसा देश है, जिसमें अनेक जातियाँ आई हैं तथा इस देश में ही बस गई हैं। भारत में मुस्लिम, आँग्ल आदि संस्कृतियाँ आई हैं। इनके आने से हमारे देश के सामने कुछ समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं तथा उनको मानने वालों के साथ संघर्ष की स्थितियाँ बनी हैं। इस समस्या का एकमात्र सही समाधान इन संस्कृतियों को भारतीय संस्कृति में समन्वय होना ही है। विज्ञान तथा तकनीक ने विश्व को एक परिवार बनाया है। अतः समन्वय बुद्धि से काम लेना आज हमारी आवश्यकता बन गया है।

प्रश्न 6.
“वैदिक ऋषियों की तो यही भावना थी, लेकिन हम उसको भुला बैठे।” गुलाबराय जी के इस कथन के आधार पर बताइए कि हम वैदिक ऋषियों की किस भावना को भुला बैठे तथा इससे क्या हानि हुई?
उत्तर:
वैदिक ऋषियों ने भारत में वर्णाश्रम धर्म की स्थापना की थी। उन्होंने समाज में कार्य-विभाजन का प्रयास किया था। जीवन को चार आश्रमों में विभाजित करने का उद्देश्य समयोचित कर्तव्यों के पालन के लिए अवसर तथा प्रेरणा देना था। ब्रह्मचर्य में विद्याध्ययन और गृहस्थ धनोपार्जन के साथ वानप्रस्थ में समाज सेवा के कर्तव्य निर्धारित थे। संन्याश्रम आत्म-कल्याण के कार्यों के लिए निर्धारित था। इसी प्रकार वर्ण व्यवस्था में रोजगार तथा कार्यों की समुचित व्यवस्था थी।

इस सबके पीछे वैदिक ऋषियों को भावना समाज को सुचारु रूप से संचालित कर उसको आत्मनिर्भर बनाने की थी। दुर्भाग्यवश भारतीयों ने इसको भुला दिया। वर्ण जातियों में बदल गए और उनके ऊँच-नीच, छूत-अछूत की अवांछित भावनाएँ उत्पन्न हुई। ब्राह्मण समदर्शी होता है, यह भुला दिया गया। कुछ लोगों ने श्रेष्ठता पर अधिकार जमा लिया। इससे समाज में असमता, गरीबी तथा घृणा-द्वेष की भावनाएँ पैदा हो गईं। इस कारण सामाजिक संगठन छिन्न-भिन्न हो गया। यद्यपि भारतीय समाज सुधारकों ने इन बातों के विरुद्ध आवाज उठाई है और अब समाज इन दोषों से मुक्त हो रहा है।

प्रश्न 7.
“हम इन संस्कृतियों से अछूते नहीं रह सकते” में किन संस्कृतियों की ओर संकेत है, इनके सम्पर्क में आने पर क्या करना अपेक्षित है?
उत्तर:
प्राचीन भारत में आर्य और द्रविड़ संस्कृतियाँ एक दूसरे के सम्पर्क में आई थीं। इससे उत्पन्न समस्या का उचित समाधान समन्वय की भावना के द्वारा किया जा चुका है। आजकल भारतीय संस्कृति का सम्पर्क मुस्लिम तथा आँग्ल संस्कृतियों से हुआ है। भारत के लोग इन संस्कृतियों के प्रभाव से बचकर नहीं रह सकते। इनका प्रभाव उनकी वेशभूषा, खान-पान तथा भाषा-बोली पर पड़ना अवश्यंभावी है। इनका विरोध करना अथवा परित्याग करना न उचित है और न संभव है। इससे उत्पन्न समस्याओं का समाधान समन्वय का भाव अपनाने से ही हो सकता है। इन संस्कृतियों की आवश्यक, उचित तथा अविरोधी वस्तुओं को हमें नि:संकोच ग्रहण करना चाहिए, किन्तु उनकी सभी बातों को स्वीकार करना ठीक नहीं है। उनके प्रभाव से हमें अपनी संस्कृति की उपेक्षा भी नहीं करनी है। अपनी संस्कृति अच्छी हो या बुरी उस पर लज्जित होने की जरूरत नहीं है। समन्वय की यह क्रिया चल भी रही है। अरबी, फारसी, अंग्रेजी आदि भाषाओं के अनेक शब्द हमने अपनी भाषा में अपना लिए हैं।

बेसिले कपड़ों के स्थान पर सिलाई वाले वस्त्रों का प्रयोग बढ़ रहा है। भारत की समाज व्यवस्था तथा परिवार प्रणाली पर भी उनका प्रभाव पड़ रहा है। सूचना तकनीक से संबंधित अंग्रेजी भाषा के शब्दों को अपनाना आवश्यक हो गया है। आँग्ल संस्कृति के विस्तार से जो विश्व संस्कृति बन रही है, उसको अपनाना ही उचित है।

प्रश्न 8.
“समन्वय द्वारा ही संस्कृति क्रमशः उन्नति करती रही है और आज भी हमें उसे समन्वयशील बनाना है।” इस कथन का समर्थन ‘भारतीय संस्कृति’ से उदाहरण देकर कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है कि वह समन्वयशील है। आरम्भ से ही भारत में अनेक जातियाँ आईं और फिर यहीं की होकर रह गई हैं। शक, हूण, कुषाण संस्कृतियाँ भारतीय संस्कृति के सम्पर्क में आकर उसमें दूध और शक्कर की तरह घुल-मिल गई हैं। आर्य संस्कृति जब द्रविड़ संस्कृति से मिली थीं तो कुछ समस्या हुई, किन्तु समन्वय की उचित रीति को अपनाने के कारण इसका समाधान ठीक प्रकार हो चुका है। उससे हमारी संस्कृति मजबूत हुई है तथा उसकी जीवनी-शक्ति भी बढ़ी है।

आज भारतीयों के सामने पाश्चात्य संस्कृति के प्रसार के कारण अनेक सामाजिक तथा पारिवारिक समस्यायें पैदा हो रही हैं। पाश्चात्य संस्कृति को प्रभाव विश्वव्यापी है तथा उससे भारतीय भी प्रभावित हो रहे हैं। भारतीयों की वेशभूषा तथा पहनावा बदल रहा है। भाषा में अनावश्यक रूप से अंग्रेजी शब्द बढ़ रहे हैं। इससे उसका रूप हास्यास्पद हो जाता है। संस्कृति समन्वय से उन्नति करती है और उसको समन्वयशील बनाना है, किन्तु ऐसा करते समय हमें विद्वान लेखक की चेतावनी को ध्यान में रखना चाहिए। भारतीय संस्कृति की समन्वयशीलता अपेक्षित है किन्तु समन्वय में अपना न खो बैठना चाहिए।

लेखक – परिचय :

प्रश्न 1.
बाबू गुलाबराय का जीवन-परिचय दीजिए तथा उनकी साहित्यिक गतिविधियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
जीवन-परिचय – बाबू गुलाबराय का जन्म सन् 1888 ई. में इटावा (उ.प्र.) में हुआ था। आपके पिता भवानी प्रसाद थे। मैनपुरी के मिशन स्कूल से एन्ट्रेस परीक्षा पास की। तत्पश्चात् आगरा के आगरा कालेज से बी.ए. और एल.एल.बी. तथा सेट जॉन्स कॉलेज से एम.ए. (दर्शनशास्त्र) परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं। पढ़ाई के बाद आप छतरपुर के महाराजा के प्राइवेट सेक्रेट्री रहे। वहाँ से लौटकर आगरा के सेंट जॉन्स कॉलेज में हिन्दी के प्राध्यापक हो गए। सन् 1963 में आपका देहावसान हो गया।

साहित्यिक परिचय – गुलाबराय उच्चकोटि के विचारक तथा गद्यकार थे। आपने दर्शन शास्त्र, तर्क शास्त्र, धर्म शास्त्र, राजनीति तथा इतिहास पर अपनी लेखनी चलाई। आप हिन्दी के सफल निबन्धकार तथा समालोचक थे। आपने व्यक्तिपरक, विचारात्मक तथा संस्मरणात्मक निबन्धों की रचना की है। आपने विषयानुकूल सरल किन्तु परिष्कृत भाषा का प्रयोग किया है। उसमें तत्सम शब्दों के साथ उर्दू-अंग्रेजी के शब्दों और मुहावरों का प्रयोग मिलता है। विचार विवेचनात्मक तथा समीक्षात्मक शैली के साथ यत्र-तत्र हास्य-व्यंग्य शैली को भी अपनाया है।

कृतियाँ-निबन्ध – ठलुआ क्लब, मेरी असफलताएँ, कुछ उथले कुछ गहरे, मन की बातें, मेरे निबन्ध इत्यादि। समालोचना, काव्य के रूप, सिद्धान्त और अध्ययन, हिन्दी नाट्य विमर्श, नवरस, प्रसाद की कला, साहित्य और समीक्षा, आलोचक रामचन्द्र शुक्ल इत्यादि। अन्य- हिन्दी साहित्यकला का सुबोध इतिहास, हिन्दी गद्य का विकास और प्रमुख शैलीकार, भारत का सांस्कृतिक इतिहास, बौद्ध धर्म, कर्तव्य शास्त्र, तर्कशास्त्र, पाश्चात्य दर्शनों का इतिहास इत्यादि।
सम्पादन – साहित्य संदेश, युगधारा इत्यादि।

पाठ-सार

प्रश्न 1.
‘भारतीय संस्कृति’ पाठ का सारांश लिखिए।
उत्तर:
परिचय – ‘भारतीय संस्कृति’ बाबू गुलाबराय द्वारा लिखित प्रसिद्ध निबन्ध है। इसमें लेखक ने भारत की संस्कृति की विशेषताओं पर विचार व्यक्त किए हैं।

संस्कृति क्या है? – संस्कृति शब्द संस्कार से जुड़ा है। संस्कार का अर्थ है- सुधार करना, संशोधन और परिष्कार करना। अंग्रेजी
भाषा में उसके लिए ‘कल्चर’ शब्द है, जिसका अर्थ पैदा करना, सुधार करना है। संस्कार व्यक्ति तथा समाज दोनों के होते हैं। जातीय संस्कारों को संस्कृति कहते हैं। किसी देश की जलवायु के अनुसार रहन-सहन की विधियों तथा विचार – परम्पराओं से जातीय संस्कार बनते हैं। ये परम्परा से प्राप्त होते हैं तथा व्यक्ति के पारिवारिक और सामाजिक जीवन में दिखाई देते हैं। संस्कृति के दो पक्ष होते हैंबाह्य तथा आन्तरिक, संस्कृति किसी देश-विशेष के भौतिक वातावरण तथा विचारों से जुड़ी होती है।

भाषा और संस्कृति – भाषा का सम्बन्ध किसी देश की जातीय संस्कृति से होता है। ‘कुशल’ शब्द पूजा के लिए कुश लाने तथा ‘प्रवीण’ शब्द ‘वीणा बजाने से जुड़े हैं। ‘गोधूलि, गवेषणा, गोष्ठी, गवाक्ष, गुरसी आदि शब्द गौ’ से सम्बन्धित हैं। गौ अर्थात् गाय का हमारी संस्कृति में विशेष महत्त्व है। ठंडे देशों में Warm Reception और Cold Treatment प्रयुक्त होते हैं, तो भारत में हृदय को शीतल करना कहा जाता है। अंग्रेजी भाषा का ”Killing two birds one stone” हिंसा का सूचक है। हिन्दी में इसके लिए एक पंथ दो काज’ मुहावरा प्रचलित हैं।

संस्कृति का बाह्य स्वरूप – भारतीय संस्कृति में जमीन पर बैठना, हाथ से खाना, नहाकर खाना, लम्बे ढीले कपड़े पहनना, बेसिले कपड़े पहनना अच्छा माना जाता है। यह भारत की जलवायु तथा आवश्यकता के अनुकूल है। यहाँ हर समय तथा स्थान पर जूते। पहनने की मान्यता नहीं है। नहाने को धर्म का अंग माना जाता है। बिना सिले कपड़े धोने में सुविधा की दृष्टि से पवित्र माने जाते हैं। सिर ढकना अच्छा माना जाता है। मांगलिक वस्तुओं का विधान देश के वातावरण तथा रुचि के अनुरूप है। फूलों में कमल को विशेष महत्त्व प्राप्त है। कमल शारीरिक सौन्दर्य का उपमान है

‘नव कंज लोचन कंज मुख कर कंज पद कंजारुणम्।” आम, कदली, दूर्वादल, नारियल, श्रीफल को पूजा-पाठ में स्थान दिया गया है। अश्वत्थ (पीपल) को वृक्षों में विशेष महत्ता प्राप्त है। हिमालय, गंगा, गरुड़, बसन्त ऋतु तथा कीर्ति-वाणी-स्मृति-बुद्धि-धृति आदि गुणों को प्राप्त महत्ता भारत की जातीय मनोवृत्ति की परिचायक है।

संस्कृति के आंतरिक अंग – भारतीय संस्कृति में धृति, क्षमा, दया, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध ये दस (मनुस्मति में) धर्म के लक्षण बताये गये हैं। सभ्य तथा शिष्ट मनुष्यों में इन लक्षणों के साथ अभय, स्थित-प्रज्ञता, सात्विकता आदि का होना भी जरूरी है! दान देना, मितभाषी होना, यश के लिए विजय प्रात करना, पितृऋण चुकाने के लिए गृहस्थ बनना आदि जीवन के आवश्यक कर्तव्य हैं। बचपन में विद्याध्ययन, यौवन में धनोपार्जन तथा सुखभोग, वृद्धावस्था में मुनि वृत्ति धारण करना तथा योग द्वारा शरीर त्यागना भी भारतीय संस्कृति में बताया गया है। भारतीय संस्कृति के प्रमुख अंग निम्नलिखित हैं

1. आध्यात्मिकता – इसमें सत्य, अहिंसा, समस्त जीवों को अपने समान समझना, सबका हित चाहना, ईश्वर के न्याय तथा परलोक में विश्वास, आवागमन की मान्यता, नश्वर शरीर का तिरस्कार इत्यादि बातें सम्मिलित हैं। नश्वर शरीर का मोह न होने के कारण भारतीय बड़े से बड़े बलिदानों के लिए तैयार रहे हैं। हमारे यहाँ त्याग, तप तथा संयम की महत्ता रही है।

2. समन्वय बुद्धि – आत्मा की एकता के कारण भारत में अनेकता में एकता देखी गई है। इसी से.मिलती-झुलती समन्वय की भावना है। भारतीय विचारकों ने सभी वस्तुओं में सत्य के दर्शन किए हैं। हमारे यहाँ धर्म-परिवर्तन को महत्त्व नहीं दिया गया। तुलसीदास ने शैव और वैष्णव, ज्ञान और भक्ति, अद्वैत और विशिष्टाद्वैत का समन्वय किया था। प्रसाद की कामायनी में ज्ञान, इच्छा और क्रिया का समन्वय हुआ है।

3. वर्णाश्रम – भारतीय संस्कृति में चार वर्गों तथा चार आश्रमों की व्यवस्था है। इसके अन्तर्गत कार्य विभाजन को महत्त्व दिया गया है। स्वार्थवश कुछ लोगों ने सामाजिक विभाजन को संकुचित और अपरिवर्तनीय बना दिया। हमारे सभी प्रचारकों तथा सुधारकों ने इसका विरोध किया है। पुरुष सूक्त ने चारों वर्गों को एक ही विराट शरीर का अंग माना है। एक ही शरीर के अंगों में कोई ऊँची-नीचा नहीं होता।

4. अहिंसा, करुणा, मैत्री और विनय – अहिंसा को हमारी संस्कृति में विशेष महत्व प्राप्त है। करुणा, मैत्री तथा विनय के मूल में अहिंसा की भावना है। किसी की हत्या करना ही हिंसा नहीं है, उसका जी दुखाना भी हिंसा है। भारत में सत्य बोलने किन्तु प्रिय बोलने की शिक्षा दी गई है। करुणा छेटों के प्रति, मैत्री बराबर वालों के साथ तथा विनय बड़ों के प्रति होती है, किन्तु सभी के प्रति शिष्टता का व्यवहार अपेक्षित है।
विद्या से पूर्व विनय आवश्यक है। विनय भारतीय संस्कृति की विशेषता है।

5. प्रकृति-प्रेम – भारत पर प्रकृति की विशेष कृपा रही है। भारत में विभिन्न ऋतुएँ सुखद तथा आकर्षक रही हैं। यहाँ की नदियाँ मोक्षदायिनी तथा हिमालय प्रेरणा का स्रोत है। प्रकृति मानव जीवन का अंग तथा साथी रही है। महर्षि कण्व शकुंतला के पति के घर जाते समय तपोवन के पशु-पक्षियों, लताओं और वृक्षों से उसकी विदाई की आज्ञा चाहते हैं।

6. अन्य – भारतीय संस्कृति में विश्व को एक परिवार माना गया है। अतिथि को देवता मानते हैं। शोक के स्थान पर आनन्द को अधिक महत्व प्राप्त है। धार्मिक कार्यों में एकान्त साधना को महत्व प्राप्त है। यद्यपि सामूहिक प्रार्थना भी अमान्य नहीं है। हमारे यहाँ सामाजिकता की तुलना में पारिवारिकता का विशेष महत्व है। सम्मिलित परिवार की प्रथा को व्यक्तित्व के विकास में बाधक नहीं बनने देता है किन्तु व्यक्ति वयोवृद्धों के आदर तथा पारिवारिक एकता का विरोधी भी नहीं बनने देता है।

7. समन्वय की आवश्यकता – भारत में विभिन्न संस्कृतियों का पारस्परिक सम्पर्क हुआ है। इनसे उत्पन्न समस्या का समन्वय द्वारा समाधान करना ही उचित है। इस समय अंग्रेजी तथा मुस्लिम संस्कृतियों के साथ समन्वय अपेक्षित है। इस समन्वय का अर्थ अपनः खो देना नहीं है। दूसरी संस्कृतियों की उन्हीं चीजों को स्वीकार करना चाहिए, जिनको अपनाकर हमारी संस्कृति समुद्ध हो सके। भाषा, पोशाक, रहन-सहन आदि में अपनी चीजों को त्यागना जातीय व्यक्तित्व को हानि पहुँचायेगा।

कठिन शब्दों के अर्थ

(पृष्ठ 74) परिष्कार = सुधार। परम्परा = रीति। दृढमूल होना = जड़ जमाना। प्रकृति = स्वभाव। न्यूनाधिक = कम या अधिक मात्रा = माप। पैतृक = पूर्वजों से प्राप्त। परिलक्षित होना = दिखाई देना। बाह्य = बाहरी। आंतरिक = भीतरी। प्रतिबिम्ब = छाया। मनोवृत्ति = धारणा। परिचायक = बताने वाले। भौतिक = सांसारिक।

(पृष्ठ75) परिवर्द्धित = बढ़े हुए। जातीय = सामाजिक, सामूहिक। सम्पन्नता = पूरा करना। कुश = घास। प्रवीण = चतुर। गो = गाय। बाहुल्य = अधिकता। गोधूलि = गायों के पैरों से उड़ने वाली धूल। बेला = समय। गोधूलि-बेला = शाम। गवेषणी = खोज। गवाक्ष = खिड़की। गुरसी = अँगीठी। गोमुखी = थैला, जिसमें रखकर माला फेरी जाती है। गोपन = छिपाना। द्योतक = प्रतीक। गोरस = दूध, दही इत्यादि। पोशाक = कपड़े। बेसिले = बिना सिलाई के। मान = महत्त्व। चलन = रिवाज। सहज = आसानी, सरलता। सीवन = सिलाई का स्थान। सांस्कृतिक = संस्कृति के अनुकूल, सभ्यतीपूर्ण। मांगल्य = कल्याणकारी।

(पृष्ठ76) उपमान = उपमा अलंकार का अंग। कंज = कमल। आम्र = आम। कदली = केला। दूर्वादल = दूब घास। बौर = मंजरी। बुद्धत्व = ज्ञान। स्थावर = निर्जीव। कीर्ति = यश। लक्षण = पहचान। धृति = धैर्य। अस्तेय = चोरी न करना। शौच = पवित्रता, सफाई। धी = बुद्धि। अक्रोध = क्रोध न करना। अभय = निर्भीकता। स्थितप्रज्ञा = अविचलित बुद्धि का। सात्विक = शुद्ध, पवित्र। दानाय = देने के लिए। मितभाषी = कम बोलने वाला। रघुवंशी = राजा रघु के वंश में जन्म लेने वाला। नश्वर = नाशवान। तिरस्कार = उपेक्षा। आवागमन = जन्म और मृत्यु।

(पृष्ठ77) तपोवन = वन में तप करने का स्थान। सर्वभूत हित = सभी प्राणियों की भलाई। कीरी = कीट। कुंजर = हाथी। मनीषी = विद्वान। ज्वलन्त = चमकीला। उत्सर्ग = त्याग। पंचभूत = क्षिति (पृथ्वी), जल, पावक, गगन और समीर। आस्था = विश्वास। सराहना = प्रशंसा। समन्वय = मेल। अनेकता = भिन्नता। अविरोधी = मेल। शैव = शिव के उपासक। अद्वैत तथा विशिष्टाद्वैत = दर्शन शास्त्र के सिद्धान्त, इसमें आत्मा-परमात्मा की एकता को माना जाता है। पार्थक्य = प्रथकता। विडंबना = दुर्भाग्य। वर्णाश्रम = वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास)। संकुचित = अनुदार। समदर्शी = सबको समान मानने वाला।

(पृष्ठ78) वैदिक = वेदों से सम्बन्धित। मैत्री = मित्रता। बध = हत्या। ब्रूयात् = बोलो। शिष्टता = विनम्रता, सभ्यता। शील= शिष्टता। विनय = नम्रता। असांस्कृतिक = असभ्य। उद्दत = उद्दण्ड। सृजन = उत्पति। शस्य श्यामला = हरी-भरी। नगाधिराजे = पर्वतों का राजा। मोक्ष = मुक्ति। कृत्रिम = बनावटी। नैमित्तिक = किसी विशेष प्रयोजन की सिद्धि के लिए। नीर = पानी। शोकान्त = दु:खद अन्त वाला। निषेध = मनाही। आतिथ्य = मेहमानदारी। सम्पर्क = मिलन। पारस्परिक = आपसी। जटिल = कठिन, उलझी हुई। अछूते = अप्रभावित। समन्वयशीलता = मेल का भाव। अविरोध = मेल।।

(पृष्ठ 79) एकान्त = अकेलापन। साधना = उपासना। सामूहिक = समूह में होने वाला काम। एकत्व = एकता। श्रेयस्कर = अच्छा। तिलांजलि देना = त्याग देना। कुठाराघात = चोट। चौका = रसोईघर। समय की पाबन्दी = ठीक समय पर काम करना।

महत्त्वपूर्ण गद्यांशों की सन्दर्भ-प्रसंग सहित व्याख्याएँ

1. ‘संस्कृति’ शब्द का संबंध संस्कार से है जिसका अर्थ है संशोधन करना, उत्तम बनाना, परिष्कार करना। अंगरेजी शब्द ‘कल्चर’ में वही धातु है जो ‘एग्रीकल्चर’ में है। इसका भी अर्थ ‘पैदा करना, सुधारना’ है। संस्कार व्यक्ति के भी होते हैं और जाति के भी। जातीय संस्कारों को ही संस्कृति कहते हैं। संस्कृति एक समूहवाचक शब्द है। जलवायु के अनुकूल रहन-सहन की विधियाँ और विचार-परंपराएँ जाति के लोगों में दृढमूल हो जाने से जाति के संस्कार बन जाते हैं। इनको प्रत्येक व्यक्ति अपनी निजी प्रकृति के अनुकूल न्यूनाधिक मात्रा में पैतृक संपत्ति के रूप में प्राप्त करता है। ये संस्कार व्यक्ति के घरेलू जीवन तथा सामाजिक जीवन में परिलक्षित होते हैं। मनुष्य अकेला रहकर भी इनसे छुटकारा नहीं पा सकता। ये संस्कार दूसरे देश में निवास करने अथवा दूसरे देशवासियों के संपर्क में आने से कुछ परिवर्तित भी हो सकते हैं और कभी-कभी दब भी जाते हैं; किंतु अनुकूल वातावरण प्राप्त करने पर फिर उभर आते हैं। (पृष्ठ74)

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘भारतीय संस्कृति’ शीर्षक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक बाबू गुलाबराय हैं।
प्रसंग – संस्कृति संस्कार शब्द से बनी है। किसी जाति के संस्कार ही संस्कृति का रूप धारण करते हैं। संस्कार देश के वातावरण तथा पूर्वजों से प्राप्त होते हैं तथा मनुष्य से स्थायी रूप से जुड़े रहते हैं।

व्याख्या – लेखक कहता है कि संस्कृति शब्द संस्कार से संबंधित है। संस्कार का अर्थ संशोधन करना, सुधार करना तथा अच्छा बनाना है। अंग्रेजी भाषा में कल्चर तथा एग्रीकल्चर शब्द है। इनमें एक ही धातु है। इसका अर्थ भी सुधार करना या उत्पन्न करना है। संस्कार व्यक्ति तथा जाति दोनों के होते हैं। जाति के संस्कार ही संस्कृति बन जाते हैं, इनको ही संस्कृति कहते हैं। संस्कृति शब्द से किसी समूह की विचारधारा का पता चलता है। यह समूह के संस्कारों से बनती है। अतः एक समूहवाचक शब्द है। जब किसी स्थान की जलवायु, रहन-सहन के ढंग और विचार-परम्पराएँ किसी जाति में स्थायी और मजबूत हो जाती हैं तो उनके संस्कार बन जाती हैं। ये संस्कार मनुष्य के स्वभाव के अनुकूल होते हैं तथा कम या अधिक पूर्वजों से प्राप्त सामाजिक जीवन में ये संस्कार दिखाई देते हैं। अकेला रहने पर भी मनुष्य का इनसे पीछा नहीं छूटता। जब कोई मनुष्य परदेश में जाकर रहता है अथवा किसी विदेशी के सम्पर्क में आता है, तब भी ये संस्कार उसमें बने रहते हैं। ये थोड़े-बहुत बदल सकते या दब सकते हैं परन्तु अनुकूल अवसर पाकर पुन: प्रकट हो जाते हैं।

विशेष –

  1. संस्कृति शब्द की उत्पत्ति के बारे में बताया गया है।
  2. संस्कृति जाति अथवा समूह के संस्कारों से बनती है।
  3. भाषा तत्सम शब्द युक्त, साहित्यिक तथा विषयानुकूल है।
  4. शैली विचार-विवेचनात्मक है।

2. इसी प्रकार देश के वातावरण और रुचि के अनुकूल ही मांगल्य वस्तुओं का विधान किया जाता है। फूलों में हमारे यहाँ कमल को सबसे अधिक महत्त्व दिया जाता है। इसका संबंध जल और सूर्य दोनों से है। वह जल में रहता है और सूर्य को देखकर प्रसन्न होता है। जल और सूर्य देश की महती आवश्यकताओं में से हैं, इसका दोनों से संबंध है। कमल ही सब प्रकार के शारीरिक सौंदर्य का उपमान बनता है- चरण-कमल, नेत्र-कमल, मुख-कमल आदि कमल की महत्ता के द्योतक हैं। “नव कंज लोचन कंज मुख कर कंज पद कंजारुणम्” इस छंद में सभी अंग कमल बन गए हैं। (पृष्ठ 75-76)

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘ भारतीय संस्कृति’ शीर्षक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक बाबू गुलाबराय हैं।
प्रसंग- लेखक ने बताया है कि संस्कृति के दो रूप होते हैं- बाह्य तथा आन्तरिक। भाषा, वेशभूषा, पोशाक आदि उसके बाह्य रूप हैं। आध्यात्मिकता का बाहरी स्वरूप पूजा-पाठ तथा उसके उपकरणों में प्रकट होता है। मांगलिके वस्तुएँ देश के वातावरण तथा लोगों की रुचि के अनुकूल होती हैं।

व्याख्या – लेखक का कहना है कि पूजा-पाठ अर्थात् कल्याणकारी चीजों का निर्धारण किसी देश के वातावरण तथा वहाँ के निवासियों की रुचि के अनुसार होता है। उदाहरणार्थ, भारत में कमल के फूल का महत्व सबसे अधिक है। कमल जल में पैदा होता है। तथा सूर्य को देखकर खिलता है। उसका दोनों से सम्बन्ध है। जल तथा सूर्य दोनों की ही हमारे देश में विशेष आवश्यकता होती है। कविताओं में कमल का प्रयोग उपमा प्रकट करने वाले उपमान के लिए होता है। वह शारीरिक सौन्दर्य का सर्वाधिक प्रिय उपमान है। चरण, मुख, नेत्र सभी अंगों को उपमान कमल ही है। तुलसीदास जी ने राम के सौन्दर्य का चित्रण करते समय लिखा है- नवकंज लोचन कंज मुख कर कंज पद कंजारुणम् । अर्थात् राम के नेत्र, मुख, हाथ तथा पैर कमल के समान हैं। इससे कमल का महत्व सिद्ध होता है।

विशेष –

  1. भाषा तत्सम शब्द प्रधान है।
  2. शैली विवेचनात्मक है।।
  3. भारत में मांगल्य वस्तुओं में कमल की महत्ता बताई गई है।
  4. कमल कविता में शारीरिक अंगों का उपमान है।

3. संस्कृति के आंतरिक अंगों पर भारत में विशेष बल दिया गया है। धर्म-ग्रंथों में अच्छे मनुष्यों के जो लक्षण बतलाए गए हैं, मनुस्मृति में जो धृति, क्षमा, दया, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, थी, विद्या, सत्य और अक्रोध धर्म के दस लक्षण बतलाए गए हैं, वे सब भारतीयों की मानसिक और आध्यात्मिक संस्कृति के अंग हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में दैवी सम्पदा वालों के लक्षण दिए गए हैं, जिनमें ‘अभय’ को सबसे पहला स्थान दिया गया है। स्थितप्रज्ञ के लक्षण (दूसरा अध्याय), सात्विक चीजों के लक्षण (सत्रहवाँ अध्याय) आदि सब भारतीय संस्कृति के अनुकूल, सभ्य और शिष्ट पुरुष के लक्षण हैं। (पृष्ठ76)

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘भारतीय संस्कृति’ शीर्षक पाठ से उधृत है। इसके लेखक बाबू गुलाबराय हैं।
प्रसंग – लेखक ने मांगलिक वस्तुओं को संस्कृति का बाह्य रूप बताया है। संस्कृति का आध्यात्मिक रूप किसी देश के मनुष्यों के चरित्रगत गुणों में प्रकट होता है। भारत में मनुस्मृति और श्रीमद्भागवद् गीता में इसका उल्लेख हुआ है।

व्याख्या – लेखक कहता है कि भारत में संस्कृति के आंतरिक अंगों पर बहुत अधिक बल दिया गया है। धर्मग्रन्थों में अच्छे मनुष्यों के गुण बताये गये हैं। मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण बताये गये हैं। ये हैं- धैर्य, क्षमा, दया, चोरी न करना, इन्द्रियों को अपने वश में रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना। ये धर्म के लक्षण ही श्रेष्ठ मनुष्य के लक्षण हैं। ये सभी भारत के लोगों की मानसिक तथाआध्यात्मिक संस्कृति के भी द्योतक हैं। श्रीमद्भगवद्गीता भारत का प्रसिद्ध धार्मिक ग्रन्थ है। इसमें दैवी सम्पदा वालों के जो लक्षण बताये गये हैं, उनमें अभय अथवा निर्भीकता को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। इस ग्रन्थ के दूसरे अध्याय में स्थितप्रज्ञ के लक्षण तथा सत्रहवें अध्याय में सात्विक चीजों के लक्षण बताये गये हैं। ये सभी लक्षण भारतीय संस्कृति में मान्य सभ्य तथा सुसंस्कृत मनुष्यों के लक्षण हैं।

विशेष –

  1. संस्कृति के आंतरिक पक्ष का उल्लेख करते हुए भारतीय संस्कृति के आध्यात्मिक स्वरूप के बारे में बताया गया है।
  2. भारतीय संस्कृति में श्रेष्ठ-सुसंस्कृत पुरुषों के नौ लक्षण मान्य हैं। वे सभी मनुस्मृति तथा श्रीमद्भगवद् गीता में बताए गए हैं।
  3. भाषा सुसंस्कृत, तत्सम शब्द प्रधान तथा प्रवाहपूर्ण है।
  4. शैली विषयानुरूप है।

4. आध्यात्मिकता – इसके अन्तर्गत नश्वर शरीर का तिरस्कार, परलोक, सत्य, अहिंसा, तप आदि आध्यात्मिक मूल्यों को अधिक महत्त्व देना, आवागमन की भावना, ईश्वरीय न्याय में विश्वास आदि बातें हैं। हमारे यहाँ की संस्कृति तपोवन-संस्कृति रही है जिसमें विस्तार ही विस्तार थी- ‘प्रथम साम रव तव तपोवने प्रथम प्रभात तवगमने।’ विस्तार के वातावरण में आत्मा का संकुचित रूप नहीं रह सकता था। इसी के अनुकूल आत्मा का सर्वव्यापक विस्तार माना गया है। इसीलिए हमारे यहाँ सर्वभूत हित पर अधिक महत्त्व दिया गया है- ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति सः पश्यति।’ कीरी और कुंजर में एक ही आत्मा का विस्तार देखा जाता है। इसी से गाँधीजी की सर्वोदय की भावना को बल मिला। हमारे यहाँ के मनीषी ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः’ का पाठ पढ़ते थे। (पृष्ठ 76-77)

सन्दर्भ – उपर्युक्त गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘ भारतीय संस्कृति’ शीर्षक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक बाबू गुलाबराय हैं।
प्रसंग – संस्कृति के बाहय पक्ष भी होते हैं और आन्तरिक भी। रहन-सहन, पोशाक, मांगलिक वस्तुएँ संस्कृति के बाह्य पक्ष की सूचक होती हैं तो लोगों के विचार, आध्यात्मिक चिन्तन, गुण-अवगुण इत्यादि उसके आन्तरिक पक्ष होते हैं।

व्याख्या – भारतीय संस्कृति के अंगों में आध्यात्मिकता मुख्य है। इसमें शरीर को नाशवान मानकर उसको अधिक महत्व नहीं दिया जाता अपितु उसके प्रति उपेक्षा का भाव ही रहता है। परलोक, सत्य, अहिंसा, तप इत्यादि आध्यात्मिक बातों को ज्यादा महत्व दिया जाता है। ईश्वर न्यायकारी है, जन्म और मृत्यु अटल हैं- आदि में विश्वास भारतीय संस्कृति में स्वीकार्य है। भारत की संस्कृति में तपोवनों की मान्यता है। ऋषि-मुनि वन में रहकर तपस्या करते थे। तपोवन की संस्कृति में विस्तार का भाव है। उसमें आत्मा का संकुचित रूप भी स्वीकार्य नहीं है। अत: आत्मा को सर्वव्यापी माना जाता है। जो सभी प्राणियों में व्याप्त है। भारतीय संस्कृति में समस्त जीव-जन्तुओं के हित पर जोर दिया जाता है। जो सभी प्राणियों में अपने समान आत्मा के दर्शन करता है, उसी को पंडित अर्थात् विद्वान माना जाता है।

छोटे-छोटे कीट-पतंगों तथा विशाल हाथी में एक ही आत्मा है, दोनों ही में वह व्याप्त है, उसका स्वरूप विस्तृत है। अत: सबका समान भाव से हितसाधन होना चाहिए। यह विचार ही गाँधी जी के सर्वोदय अर्थात् सबको समान भाव में आगे बढ़ने का अवसर मिलना चाहिए। इस विचार का मूल तथा आधार है। सर्वोदय की भावना इसी से बलवती हुई है। भारतीय विद्वान सभी के सुखी और निरोग दोनों की कामना रखते थे। इस सर्वजन हित के पीछे आत्मा की व्यापकता ही कारण है।

विशेष –

  1. भारतीय संस्कृति में आत्मा को सर्वव्यापी माना जाता है। वह छोटे-बड़े सभी जीवों में समान रूप से व्याप्त है।
  2. आत्मा के इस विस्तार के कारण सभी प्राणियों को समान मानकर उनके कल्याण की कामना करना हमारी संस्कृति का प्रमुख तत्व है।
  3. भाषा तत्सम शब्दावली युक्त है। वह विषयानुकूल तथा गम्भीर है।
  4. विवेचनात्मक तथा उद्धरण शैली का प्रयोग हुआ है। सूक्ति कथन शैली भी प्रयुक्त हुई है।

5. तुलसीदासजी जैसे महात्मा ने, जो भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि कहे जा सकते हैं, समन्वय बुद्धि से ही काम लिया था। उन्होंने शैव और वैष्णवों का, ज्ञान और भक्ति तथा अद्वैतविशिष्टाद्वैत का समन्वय किया था। आधुनिक कवियों में प्रसादजी ने अपनी कामायनी’ में ज्ञान, इच्छा और क्रिया का समन्वय किया है। मानव-कल्याण में ज्ञान, इच्छा, क्रिया का पार्थक्य ही बाधक होता है। (पृष्ठ 77)

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित पाठ ‘ भारतीय संस्कृति’ से लिया गया है। इसके लेखक बाबू गुलाबराय हैं।
प्रसंग – लेखक ने भारतीय संस्कृति के बाह्य अंगों के साथ-साथ उसके आंतरिक अंगों का भी वर्णन किया है। भारत की संस्कृति का सम्पर्क अनेक जातियों की संस्कृति से हुआ है। उसने उनको सफलतापूर्वक आत्मसात् कर लिया है। यह सफलता उसको अपने समन्वयवादी गुणों के कारण प्राप्त हुई है।

व्याख्या – लेखक कहते हैं कि समन्वय का विचार भारत की संस्कृति का आन्तरिक गुण है। उसके साथ उसके सम्पर्क में आईं अनेक संस्कृतियों का विलय हो चुका है। महान् संत एवं कवि तुलसीदास समन्वयवादी थे। अपने महाकाव्य रामचरितमानस में उन्होंने समन्वय बुद्धि से ही भक्ति तथा अद्वैत और विशिष्टाद्वैत का समन्वय किया है। हिन्दी के एक अन्य महान् कवि जयशंकर प्रसाद भी समन्वय में विश्वास रखते हैं। उनके प्रसिद्ध महाकाव्य ‘कामायनी’ में ज्ञान, इच्छा और क्रिया का समन्वय मिलता है। मनुष्य का कल्याण इनके समन्वय से ही होता है। इनकी पृथकता मानव-कल्याण में बाधा डालती है।

विशेष –

  1. समन्वय का विचार भारतीय संस्कृति का आंतरिक गुण है।
  2. यह विचार उसमें व्याप्त है। इसी के कारण अनेक विचारों, विश्वासों का हमारी संस्कृति में समन्वय हुआ है।
  3. भाषा तत्सम शब्दों से युक्त तथा विषयानुकूल गम्भीर है।
  4. शैली विवेचनात्मक है।

6. इन चार गुणों को इसलिए ही रखा गया है कि इनके मूल में अहिंसा की भावना है और करुणा, मैत्री तथा विनय अहिंसा व्रत के पालन में सहायक होते हैं। हिंसा केवल वध करने में ही नहीं होती है वरन् किसी का उचित भाग ले लेने और दूसरों का जी दुखाने में भी। इसीलिए हमारे यहाँ ‘सत्यं ब्रूयात्’ के साथ ‘प्रियं ब्रूयात्’ का पाठ पढ़ाया गया है। करुणा प्रायः छोटों के प्रति होती है, मैत्री बराबर वालों के प्रति और विनय बड़ों के प्रति किंतु हमको सभी के प्रति शिष्टता का व्यवहार करना चाहिए। विनय शील का एक अंग है, उसको बड़ा आवश्यक माना गया है। भगवान् कृष्ण ने ब्राह्मण के विशेषणों में विद्या के साथ विनय भी लगाया- ‘विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे’। विनय भारतीय संस्कृति की एक विशेषता है। असांस्कृतिक लोग ही उद्धत होते हैं। (पृष्ठ 78)

सन्दर्भ – उपर्युक्त गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘भारतीय संस्कृति’ शीर्षक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक बाबू गुलाबराय हैं।
प्रसंग – लेखक ने भारतीय संस्कृति के बाह्य तथा आंतरिक गुणों का उल्लेख किया है। उसके आन्तरिक गुणों में आध्यात्मिकता प्रमुख है। इसमें चार गुणों को विशेष महत्व तथा आदर प्राप्त है।

व्याख्या – लेखक कहता है कि अहिंसा भारत की संस्कृति का मुख्य गुण है। अहिंसा की भावना बहुत व्यापक है तथा अनेक गुण इसके मूल में आ जाते हैं। करुणा, मैत्री तथा विनय भी इसके अंग हैं। इनका संबंध भी अहिंसा से है। ये गुण अहिंसा का पालन करने में सहायक होते हैं। अहिंसा का अर्थ किसी की हत्या करना नहीं है। अपने कार्यों तथा व्यवहार से किसी का मन दु:खी करना भी हिंसा है। किसी को उसके उचित अधिकार से वंचित करना भी हिंसा है। इस कारण भारत में अप्रिय सत्य बोलने का निषेध है, प्रिय सत्य ही बोलना चाहिए। छोटों के प्रति दया भाव रखना करुणा है। मैत्री समान लोगों के साथ आचार-व्यवहार के भाव का नाम है। यह समान लोगों में होती है। विनय अर्थात् विनम्रता अपनों से बड़ों के प्रति प्रदर्शित की जाती है। विनय शिष्टाचार का एक अंग है। उसको अत्यन्त आवश्यक माना गया है। शिष्टाचार का व्यवहार सभी के प्रति करना उचित है। भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में ब्राह्मण के लिए विद्यावान् होने के साथ ही विनयशील होना भी आवश्यक माना है। विद्या से पूर्व भी विनय आवश्यक है। विनय भारतीय संस्कृति का विशेष गुण है। विनय सभ्य और सुसंस्कृत होने का प्रमाण है। असभ्य लोग ही उद्दण्ड और अविनयी होते हैं।

विशेष –

  1. अहिंसा, करुणा, मैत्री, विनय भारतीय संस्कृति के मूल में स्थित गुण है।
  2. इससे अहिंसा की भावना के पालन में सहायता मिलती है।
  3. भाषा तत्सम शब्द प्रधान, साहित्यिक तथा गम्भीर है।
  4. शैली विचार-विवेचनात्मक है।

7. भारतवर्ष पर प्रकृति की विशेष कृपा रही है। यहाँ सभी ऋतुएँ समय पर आती हैं और पर्याप्त काल तक ठहरती हैं। ऋतुएँ अपने अनुकूल फल-फूलों का सृजन करती हैं। धूप और वर्षा के समान अधिकार के कारण यह भूमि शस्यश्यामला हो जाती है। यहाँ का नगाधिराज हिमालय कवियों को सदा से प्रेरणा देता आ रहा है और यहाँ की नदियाँ मोक्षदायिनी समझी जाती रही हैं, यहाँ कृत्रिम धूप और रोशनी की आवश्यकता नहीं पड़ती। भारतीय मनीषी जंगल में रहना पसंद करते थे। वृक्षों में पानी देना एक धार्मिक कार्य समझते हैं। सूर्य और चंद्र दर्शन नित्य और नैमित्तिक कार्यों में शुभ माना जाता है। यहाँ के पशु-पक्षी, लता-गुल्म और वृक्ष तपोवनों के जीवन का एक अंग बन गए थे, तभी शकुन्तला के पतिगृह जाते समय जाने की उन सबों से आज्ञा चाहते हैं। (पृष्ठ 78)

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के भारतीय संस्कृति’ शीर्षक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक बाबू गुलाबराय हैं।
प्रसंग – लेखक ने भारतीय संस्कृति के बाह्य तथा आन्तरिक गुण बतलाए हैं। आंतरिक गुणों में आध्यामिकता की भावना, समन्वय बुद्धि, वर्णाश्रम विभाग, प्रकृति आदि का उल्लेख है। प्रकृति के प्रति प्रेम भारतीय संस्कृति में महत्वपूर्ण गुण माना जाता है।

व्याख्या – लेखक बता रहे हैं कि प्रकृति ने भारत के प्रति अपार कृपा तथा उदारता का प्रदर्शन किया है। प्राकृतिक सुषमा की दृष्टि से भारत एक सम्पन्न देश है। भारत में छ: ऋतुएँ मान्य हैं। ये सभी ऋतुएँ अपने समय पर आती हैं तथा बहुत समय तक यहाँ बनी रहती हैं। प्रत्येक ऋतु में उसके अनुसार फूल और फल वृक्षों पर उत्पन्न होते हैं। भारत में सूर्य की धूप बहुतायत में प्राप्त होती है तथा वर्षा ऋतु में खूब बरसात होती है। इस कारण हमारी धरती हरी-भरी रहती है तथा नई-नई फसलें यहाँ उत्पन्न होती हैं। भारत के उत्तर में पर्वतराज हिमालय स्थित है। इसका सौन्दर्य कवियों को सदा आकर्षित करता रहा है और काव्य-रचना के लिए उत्साहित करता रहता है। भारत की नदियों में स्वच्छ जल बहता है। इन नदियों को मुक्ति देने वाली माना जाता है।

भारत में बनावटी प्रकाश तथा ताप की आवश्यकता नहीं होती । प्रकृति से ये दोनों चीजें पर्याप्त मात्रा में मिलती हैं। भारतीय ऋषि-मुनि वनों में तपस्या करते तथा रहते थे। वहाँ पर उनके आश्रम होते थे। यहाँ वृक्षों को सींचना पवित्र तथा धर्म का काम माना जाता है। सूर्य और चन्द्रमा का नित्य दर्शन करना अच्छा माना जाता है तथा किसी विशेष कार्य में सिद्धि प्रदान करने वाला माना जाता है। भारत में पशु, पक्षी, पेड़-पौधे तथा केले तपोवनी के जीवन के अंग के रूप में मान्य हैं। तपोवनों में उनको वहाँ के निवासी मनुष्यों के समान ही महत्वपूर्ण माना जाता था तथा उनसे प्रेम किया जाता था। इसी कारण जब शकुन्तला अपने पति के घर जाने के लिए तपोवन के लोगों से विदा ले रही थी तो महर्षि कण्व ने वहाँ के पशु-पक्षियों तथा वृक्षों और लताओं से भी उसको वहाँ से जाने की आज्ञा देने के लिए कहा था। कालिदास के इस वर्णन में भारतीयों के प्रकृति के प्रति प्रेम का प्रमाण मिलता है।

विशेष –

  1. प्रकृति से प्रेम भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है।
  2. प्रकृति की वस्तुएँ भारत में मनुष्यों के समान ही प्रिय मानी जाती हैं। प्रकृति यहाँ सजीव है।
  3. भाषा में तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है, वह प्रवाहपूर्ण है।
  4. शैली विचारात्मक है।
  5. शकुन्तला के प्रकृति प्रेम को राजा लक्ष्मण सिंह के शकुन्तला नाटक के काव्यानुवाद से उदाहरण देकर व्यक्त किया गया है।

8. हमारी संस्कृति इतने में ही संकुचित नहीं है। पारिवारिकता पर हमारी संस्कृति में विशेष बल दिया गया है। भारतीय संस्कृति में शोक की अपेक्षा आनंद को अधिक महत्त्व दिया गया है। इसलिए हमारे यहाँ शोकान्त नाटकों का निषेध है। भारत में आतिथ्य को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया है। अतिथि को भी देवता माना गया है- ‘अतिथि देवोभव।’ (पृष्ठ 78)
सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘भारतीय संस्कृति’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है। इसके लेखक बाबू गुलाबराय हैं।
प्रसंग – लेखक ने भारतीय संस्कृति को उदारता के भावों से परिपूर्ण बताया है। आध्यात्मिकता, वर्णाश्रम, समन्वयभाव, प्रकृति-प्रेम के अतिरिक्त उसकी अन्य अनेक विशेषताएँ भी हैं।

व्याख्या – लेखक कहते हैं कि भारत की संस्कृति की विशेषताएँ इतने तक ही सीमित नहीं हैं, जितना कि वर्णन किया जा चुका है। उसमें और भी अनेक विशेषताएँ हैं। भारत की संस्कृति में परिवार की भावना पर बहुत जोर दिया गया है। सामाजिकता की अपेक्षा पारिवारिकता विशेष महत्त्वपूर्ण है। विश्व को एक कुटुम्ब माना गया है। हमारी संस्कृति में आनन्द की भावना की प्रधानता है। शोक को उतना महत्त्व प्राप्त नहीं है जिनता आनन्द को प्राप्त है। यही कारण है कि भारत में शोकपूर्ण घटना के साथ नाटकों को समाप्त करने की मनाही है। शोकान्त नाटक भारत में नहीं लिखे जाते थे। अतिथि-सत्कार भी भारत की संस्कृति का महत्त्वपूर्ण गुण है। अतिथि को देवता मानकर उसकी पूजा तथा सत्कार करने का निर्देश भारतीय संस्कृति देती है।

विशेष –

  1. भारतीय संस्कृति के परिवारवाद, आनन्दवाद तथा अतिथि सत्कार आदि गुणों के बारे में यहाँ बताया गया है।
  2. भारत में शोकान्त नाटकों को मान्यता प्राप्त नहीं है।
  3. भाषा तत्सम शब्दों से युक्त साहित्यिक है।
  4. शैली विचार-विवेचनात्मक है।

9. यहाँ सामाजिकता की अपेक्षा पारिवारिकता को महत्त्व दिया गया है। पारिवारिकता को खोकर सामाजिकता को ग्रहण करना तो मूर्खता होगी किन्तु पारिवारिकता के साथ-साथ सामाजिकता बढ़ाना श्रेयस्कर होगा। भाषा और पोशाक में अपनत्व खोना जातीय व्यक्तित्व को तिलांजलि देना होगा। हमें अपनी सम्मिलित परिवार की प्रथा को इतना न बढ़ा देना चाहिए कि व्यक्ति का व्यक्तित्व ही न रह जाए और न व्यक्ति को इतना महत्त्व देना चाहिए कि गुरुजनों का आदर-भाव भी न रहे और पारिवारिक एकता पर कुठाराघाते हो। (पृष्ठ 79)

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘ भारतीय संस्कृति’ नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक बाबू गुलाबराय हैं।
प्रसंग – भारतीय संस्कृति की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए लेखक ने सामूहिकता की अपेक्षा वैयक्तिकता को इस संस्कृति में अधिक मान्य बताया है।

व्याख्या – भारतीय संस्कृति में पारिवारिकता को महत्वपूर्ण माना गया है। उसमें सामाजिकता को उतना महत्व नहीं दिया गया है, जितना परिवार की भावना को प्राप्त है। पारिवारिकता को त्यागकर सामाजिकता को अपनाना लेखक की दृष्टि से बुद्धिमानी का काम नहीं है। वह पारिवारिकता के साथ-साथ सामाजिकता को बढ़ाने का पक्षपाती है। लेखक चाहता है कि हम अपनी भाषा को ही महत्त्वपूर्ण मानकर उसके प्रयोग को बढ़ावा दें। उसको छोड़ना तथा विदेशी भाषा को अपनाना ठीक नहीं है। यही सिद्धान्त वस्त्रों के बारे में माना जाना चाहिए। भारतीय वस्त्रों को त्यागकर विदेशी वस्त्र पहनना प्रशंसनीय नहीं है। इससे हमारा जातीय गौरव नष्ट होता है। लेखक सामाजिकता तथा वैयक्तिकता के समन्वये की सलाह दे रहा है। भारतीय सम्मिलित परिवार की प्रथा अच्छी है, उसको बनाए रखना चाहिए किन्तु उसके कारण मनुष्य के व्यक्तित्व को हानि नहीं पहुँचनी चाहिए। न व्यक्ति को ही इतना महत्व देना चाहिए कि परिवार की भावना नष्ट हो तथा वयोवृद्ध का अनादर हो।

विशेष –

  1. भारत में पारिवारिकता को अधिक महत्त्व दिया जाता है।
  2. लेखक पारिवारिकता तथा सामाजिकता में समन्वय स्थापित करने की प्रेरणा दे रहा है।
  3. भाषा सरल, प्रवाहपूर्ण तथा विषय अनुरूप है।
  4. शैली विचारात्मक है।

10. अंग्रेजी सभ्यता में जूतों का विशेष महत्त्व है, किंतु उसे अपने यहाँ के चौका और पूजागृहों की सीमा पर आक्रमण न करना चाहिए। हमारी सभ्यता मिट्टी और पीतल के बर्तनों की है। हमारी सभ्यता स्वास्थ्य विज्ञान के नियमों के अधिक अनुकूल है। यदि हम कुल्हड़ों के कूड़े का अच्छा बन्दोबस्त कर सकें उससे अच्छी कोई चीज नहीं है। आलस्य को वैज्ञानिकता पर विजय न पाना चाहिए। अँग्रेजी संस्कृति से भी सफाई और समय की पाबन्दी की बहुत-सी बातें सीखी जा सकती हैं, किंतु अपनी संस्कृति के मूल अंगों पर ध्यान रखते हुए समन्वय बुद्धि से काम लेना चाहिए। समन्वय द्वारा ही संस्कृति क्रमशः उन्नति करती रही है और आज भी हमें उसे समन्वयशील बनाना है। (पृष्ठ 79)

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘ भारतीय संस्कृति’ पाठ से उधृत है। इसके लेखक बाबू गुलाबराय हैं।
प्रसंग – लेखक ने समन्वय को भारतीय संस्कृति का गुण बताया है। वह चाहता है कि अंग्रेजी संस्कृति के साथ भारतीय संस्कृति का समन्वय हो किन्तु यह समन्वय सावधानीपूर्वक किया जाय। हमें अपनी संस्कृति की अच्छी बातों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।

व्याख्या – लेखक चाहते हैं कि भारतीय संस्कृति तथा पाश्चात्य संस्कृति में समन्वय स्थापित हो। अंग्रेजी संस्कृति में जूतों को बहुत महत्त्व दिया जाता है। किन्तु भारत के रसोईघरों तथा मन्दिरों आदि में जूते पहनकर जाने को मान्यता नहीं दी जानी चाहिए। भारतीय सभ्यता में पीतल के बने तथा मिट्टी से बने बर्तनों का प्रयोग होता है। भारत की सभ्यता में स्वास्थ्य के नियमों का ध्यान रखा जाता है। मिट्टी के बने कुल्हड़ स्वास्थ्य को हानि नहीं पहुँचाते तथा उनसे रोग फैलने की समस्या उत्पन्न नहीं होती है। उनसे उत्पन्न होने वाले कूड़े की व्यवस्था हो जाय तो उनका प्रयोग करने में लाभ ही लाभ है। वैज्ञानिकता बहुत अच्छी बात है।

किन्तु विज्ञान द्वारा बनाए गए उपकरणों को हमें आलसी बनाने वाला नहीं होना चाहिए। हम मशीनों का उतना ही सीमित प्रयोग करें जिनसे हम आलसी न बन जायें । अंग्रेजी संस्कृति में सफाई का बहुत महत्त्व है। वह गुण भारतीयों को उनसे सीखना चाहिए। समय पर काम करने का गुण भी अंग्रेजी सभ्यता से सीखा जा सकता है। अंग्रेजी सभ्यता के साथ समन्वय करते समय ध्यान रखना चाहिए कि भारतीय सभ्यता की अच्छी बातों की उपेक्षा न हो। समन्वय से संस्कृति की उन्नति होती है। अत: आज हमें अपनी संस्कृति में समन्वय का गुण पैदा करना चाहिए।

विशेष –

  1. लेखक ने समन्वय पर जोर दिया है किन्तु अपनी अच्छी बातों की उपेक्षा के प्रति सचेत किया है।
  2. भारतीय संस्कृति की बातों का त्याग समन्वय नहीं कहा जायगा, वह मूर्खता ही होगी।
  3. भाषा तत्सम शब्द प्रधान तथा साहित्यिक है।
  4. शैली विचार-विवेचनात्मक है।

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