RBSE Solutions for Class 12 Hindi सरयू Chapter 16 शिरीष के फूल (निबंध)

Rajasthan Board RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 16 शिरीष के फूल (निबंध) (निबंध)

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 16 पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 16 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
‘हाय, वह अवधूत आज कहाँ है?’ इस पंक्ति में अवधूत शब्द का प्रयोग किसके लिए हुआ है –
(क) कबीर
(ख) शिरीष
(ग) आरग्वध
(घ) गाँधी
उत्तर:
(घ) गाँधी

प्रश्न 2.
‘मेघदूत’ किसकी रचना है?
(क) कबीर
(ख) तुलसी
(ग) कालिदास
उत्तर:
(ग) कालिदास

प्रश्न 3.
‘शिरीष के फूल’ निबन्ध है –
(क) ललित निबन्ध
(ख) वस्तुनिष्ठ निबन्ध
(ग) आलोचनात्मक निबन्ध
(घ) ऐतिहासिक निबन्ध
उत्तर:
(क) ललित निबन्ध

प्रश्न 4.
प्राचीन ‘कर्णाट राज्य’ का आधुनिक नाम क्या है?
(क) कर्नाटक
(ख) तमिलनाडु
(ग) केरल
(घ) आसाम
उत्तर:
(क) कर्नाटक

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 16 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘धरित्री निर्धूम अग्निकुंड बनी हुई थी’ पंक्ति से क्या आशय है?
उत्तर:
आशय यह है कि धरती किसी अग्निकुंड की तरह तप रही थी। बस उसमें से धुआँ नहीं निकल रहा था।

प्रश्न 2.
शिरीष का फूल संस्कृत साहित्य में कैसा माना जाता है?
उत्तर:
शिरीष का फूल संस्कृत साहित्य में अत्यन्त कोमल माना जाता है।

प्रश्न 3.
‘कबीर बहुत कुछ इस शिरीष के समान ही थे,’ लेखक ने ऐसा क्यों कहा?
उत्तर:
शिरीष भीषण गर्मी से प्रभावित होकर फूलता रहता है, उसी प्रकार कबीर सांसारिक सुख-दुःख से परे तथा मस्तमौला थे।

प्रश्न 4.
ऊधो को लेना न माधो का देना का अर्थ लिखिए।
उत्तर:
ऊधो को लेना न माधो का देना’ का अर्थ है – संसार के राग-द्वेष से मुक्त अनासक्त जीवन बिताना।

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 16 लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
दिन दस फूला फूलिके खंखड़ भया पलास’ इस पंक्ति को भावार्थ लिखिए।
उत्तर:
वसंत के आने पर पलाश दस-पन्द्रह दिन फूलकर मुरझा जाता है। संसार के माया-मोह, राग द्वेष सभी को प्रभावित करते हैं। लोग कुछ दिन अपनी छटा बिखेरकर चले जाते हैं। अनासक्त रहकर जीना सभी के बस की बात नहीं होती है।

प्रश्न 2.
‘धरा को प्रमान यही तुलसी जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना’ इस पंक्ति में तुलसीदास जी ने क्या संदेश दिया है?
उत्तर:
तुलसीदास ने इस पंक्ति में संसार के शाश्वत अटल सत्य वृद्धावस्था तथा मृत्यु के बारे में बताया है। जो फलता है, वह झड़ जाता है तथा जो बूढ़ा हो जाता है, वह मर जाता है। यह प्रकृति का नियम है। इसका उल्लंघन नहीं हो सकता। तुलसी ने संदेश दिया है। कि इसको स्वीकार करके निर्लिप्त जीवन बिताना चाहिए।

प्रश्न 3.
लेखक के अनुसार कवि के लिए कौन से गुण आवश्यक हैं?
उत्तर:
लेखक के अनुसार कवि के लिए फक्कड़ और मस्तमौला होना आवश्यक है। उसमें अनासक्त योगी के साथ ही एक विदग्ध प्रेमी के गुणों का मेल होना जरूरी है। जो योगी के समान विरक्त भाव रख सकता है तथा प्रेम आन्तरिक सच्चे स्वरूप को जानता है, वही कवि हो सकता है।

प्रश्न 4.
लेखक ने ‘शिरीष के फूल’ को कालजयी अवधूत की तरह क्यों बताया है?
उत्तर:
अवधूत अनासक्त होता है। वह संसार के सुख-दु:ख में समरस होकर जीता है। इसी कारण वह काल जीतने में समर्थ होता है। शिरीष का फूल भी ऐसा ही है। जब चारों ओर भीषण गर्मी पड़ती है। लू के थपेड़े लगते हैं, धरती निधूम अग्निकुंड बन जाती है। तब भी शिरीष हरा-भरा तथा फूलों से लदा रहता है। जब कोई फूल खिलने का साहस नहीं करता, उस समय भी शिरीष फूलों से लदा रहता है।

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 16 निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
लेखक के अनुसार कोमल और कठोर दोनों भाव किस प्रकार गाँधी के व्यक्तित्व की विशेषता बन गए?
उत्तर:
द्विवेदी जी ने गाँधी जी में एक अवधूत के दर्शन किए हैं। अवधूत मस्तमौला होता है। वह अनासक्त होता है। कठोर सांसारिक स्थितियाँ भी उसको प्रभावित नहीं कर पार्ती। गाँधी जी साधारण मनुष्य नहीं थे। उनका व्यक्तित्व असाधारण था। उनके सामने अनेक प्रकार की परिस्थितियाँ आईं किन्तु वे उनको प्रभावित नहीं कर सकीं। जब भारत स्वतंत्र हुआ तो देश का विभाजन हुआ। उस समय भीषण साम्प्रदायिक दंगे हुए, लोग भयभीत हुए, काँपते रहे। जब दिल्ली स्वतंत्रता का उत्सव मना रही थी तब गाँधी ने नोआखाली में दंगाइयों के बीच हिंसा की आग को अकेले ही बुझाने में लगे थे। उन्होंने अपने लिए सरकारी सुरक्षा का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया था और कहा था- मेरा रक्षक तो राम है।

गाँधी जी के व्यक्तित्व में कोमल और कठोरता का समन्वय था। वह सुख-दु:ख, राग-द्वेष, अपना-पराया आदि में समान रूप से रम सकते थे। वह इन बातों से ऊपर उठ चुके थे। उनमें आसक्ति नहीं थी। वह इनसे अप्रभावित रह सकते थे। सुख उनको सुख नहीं देता था तो दु:ख उनको दु:खी नहीं करता था। वह संकट के समय भी अविचलित रह सकते थे। यह तटस्थता और स्थितप्रज्ञता ही उनकी शक्ति थी। गाँधी जी जब स्वदेश की स्वतंत्रता के लिए आन्दोलन चलाते थे तो उनका व्यवहार कठोर होता था। यद्यपि वह अंग्रेजों के प्रति अमानवीय नहीं था किन्तु उसमें अनुचित के प्रति दृढ़तापूर्ण विरोध था। गान्धीजी अपने देश के लोगों के प्रति ही नहीं सभी के प्रति अत्यन्त कोमल थे। एक ही धोती होने के कारण मलिन रहने के लिए विवश स्त्री को देखकर गाँधी जी ने वस्त्रों का परित्याग कर दिया था तथा केवल एक लँगोटी धारण करते थे।

प्रश्न 2.
‘शिरीष के फूल’ ललित निबन्ध के माध्यम से द्विवेदी जी ने क्या संदेश दिया है? अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
‘शिरीष के फूल’ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित ललित निबन्ध है। द्विवेदी जी शांति निकेतन में किसी वृक्ष की छाया में बैठकर लिख रहे हैं, वहाँ चारों तरफ शिरीष के वृक्ष हैं। ग्रीष्म ऋतु है। भीषण गर्मी पड़ रही है तथा लू चल रही है। इस भयानक गर्मी में भी शिरीष का वृक्ष हरा-भरा है तथा वह पूरी तरह पुष्पों से लदा है। इस ऋतु में जब अन्य पुष्प खिलने का साहस नहीं करते, शिरीष पुष्प-गुच्छों से लदा-फदा है। उसकी यह जीवनी-शक्ति द्विवेदी जी को विस्मित करती है। ‘शिरीष के फूल’ द्विवेदी जी का एक संदेशपरक निबन्ध है। इसमें लेखक ने शिरीष के माध्यम से निस्पृह जीवन जीने का संदेश दिया है। कठोर तथा विपरीत परिस्थितियों में भीषण ताप तथा लू में शिरीष का हरीतिमा युक्त पुष्पित होना देखकर, इसका कारण जानने के लिए व्यग्र लेखक को पता चलता है कि जीवन के प्रति स्पृहता, तटस्थता, अनासक्ति, स्थितप्रज्ञता आदि गुणों वाला शिरीष एक अवध [त है। शिरीष के माध्यम से लेखक संदेश देना चाहता है कि जीवन का सच्चा आनन्द एक अवधूत के समान जीवन बिताने में ही है।

मनुष्य को लोलुपता का त्याग करना चाहिए। न उसको अर्थ लोलुप होना चाहिए और न पद लोलुप । उसको समझना चाहिए कि जरा और मृत्यु परिवर्तनशील है पुरानी पीढ़ी को नई पीढ़ी के हित में स्थान छोड़ना चाहिए तथा उसको उस स्थान पर स्थापित करना चाहिए। यदि पुरानी पीढ़ी के लोग ऐसा नहीं करेंगे तो नई पीढ़ी उनको बलात् उनके स्थान से हटा देगी। अतः जीवन का सच्चा आनन्द पाने के लिए मनुष्य को सुख-दु:ख तथा राग-द्वेष में समत्व भाव प्रदर्शित करना चाहिए तथा त्यागमय जीवन बिताना चाहिए। द्विवेदी जी ‘शिरीष के फूल’ शीर्षक निबन्ध में यही संदेश दे रहे हैं।

प्रश्न 3.
ललित निबंध के स्वरूप को ध्यान में रखते हुए ‘शिरीष के फूल’ निबन्ध की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
शुक्लोत्तर युग में निबन्ध का एक नया स्वरूप सृजित हुआ। इसको ललित निबन्ध नाम दिया गया। साहित्य, संस्कृति, दर्शन आदि के परिप्रेक्ष्य में ललित निबन्धों की रचना हुई । ललित निबन्धकारों में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का नाम उल्लेखनीय है। शिरीष के फूल द्विवेदी जी के कल्पलता निबन्ध संग्रह में संकलित ललित निबन्ध है। ‘शिरीष के फूल’ निबन्ध में मानवतावादी दृष्टिकोण तथा कवि हृदय की छाप है। इससे उनके पांडित्य, बहुज्ञता तथा विविध विषयों से सम्बन्धित ज्ञान का पता चलता है। द्विवेदी जी के अन्य निबंधों की तरह इसमें भी प्रकृति को माध्यम बनाकर मानवीय आदर्शों को व्यंजित किया गया है। निबन्धकार ने भीषण गर्मी और लू में भी हरे-हरे और फूलों से लदे रहने वाले शिरीष की तुलना अवधूत से की है।

तथा इसके माध्यम से जीवन के संघर्षों में अविचलित रहकर लोकहित में लगे रहने तथा कर्तव्यशील बने रहने के श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों पर जोर दिया। जरा और मृत्यु संसार के अटल सत्य हैं। उनको स्वीकार कर धन और पद की तृष्णा से मुक्त रहकर ही जीवन का सुख प्राप्त किया जा सकता है। शिरीष के अपने स्थान पर जमे रहने वाले कठोर फलों के द्वारा भारत के सत्ता लोलुप नेताओं पर व्यंग्य प्रहार किया गया है।

अनासक्ति तथा फक्कड़ाना मस्ती को जीवन के लिए आवश्यक माना गया है। कबीर को मस्तमौला तथा कालिदास को अनासक्त कहने के बाद लेखक को गाँधी जी की याद आती है। गाँधी अवधूत थे। रक्तपात, उपद्रव, लूट-खसोट और खून-खच्चर में अविचलित रह सके थे। ललित निबन्ध में विषय की अपेक्षा भाषा-शैलीगत लालित्य महत्त्वपूर्ण होता है। शिरीष के फूल में बुद्धि की अपेक्षा उनके मन को प्रभावित किया गया है। इसकी भाषा सरल और सरस है तथा शैली कवित्वपूर्ण तथा लालित्य युक्त है।

प्रश्न 4.
“सुनता कौन है? महाकाल देवता सपासप कोड़े चला रहे हैं, जीर्ण और दुर्बल झड़ रहे हैं। जिनमें प्राण-कण थोड़ा भी ऊर्ध्वमुखी है, वे टिक जाते हैं” द्विवेदी जी के इस कथन में क्या संकेत निहित है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
संसार के दो अति प्रामाणिक सत्य हैं – वृद्धावस्था तथा मृत्यु। भगवान श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में कहा है कि जो जन्म लेता है, वह मरता अवश्य है। अपने पुत्र की मृत्यु पर एक स्त्री ने गौतम बुद्ध से उसे जीवित करने की प्रार्थना की। बुद्ध ने कहा- अवश्य, परन्तु तुम एक ऐसे घर से एक मुट्ठी सरसों माँग लाओ जिसमें कभी कोई मरा न हो। उस स्त्री ने हर घर में पूछा किन्तु उसको ऐसा कोई घर न मिला। मृत्यु की सच्चाई उसकी समझ में आ गई थी। सन्त कबीर ने कहा है- ‘मौत बुढ़ापा आपदा सब काहू को होय” मृत्यु निरन्तर प्रहार कर रही है। वृद्ध, कमजोर मनुष्य तो यमलोक नित्य प्रस्थान कर रहे हैं। जिनकी जीवनी शक्ति थोड़ा प्रबल होती है, वे बच जाते हैं किन्तु समयानुसार जब वृद्धावस्था और दुर्बलता उनको घेर लेते हैं तो वे भी मृत्यु के सामने परास्त हो जाते हैं।

द्विवेदी जी ने इस कथन में मृत्यु की अटलता को व्यक्त किया है। संसार में जिस किसी को भी जन्म होता है। वह मृत्यु की अवहेलना नहीं कर सकता, वृद्धावस्था से बच नहीं सकता। यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा संसार में आश्चर्य क्या है? युधिष्ठिर को उत्तर था- हर दिन प्राणी यमलोक जाते हैं। जो शेष रह गए हैं वे सोचते हैं कि उनको सदा इस धरती पर ही रहना है। इससे बड़ा आश्चर्य कुछ नहीं है। लेखक का कहना है कि मनुष्य को समझना चाहिए कि संसार परिवर्तनशील है। वृद्धावस्था की ओर बढ़ रही पुरानी पीढ़ी को आने वाली पीढ़ी के लिए स्थान छोड़ देना चाहिए। वृद्धत्व और मृत्यु अवश्य आती हैं। अतः अधिकार लिप्सा उचित नहीं है। जीवन को तटस्थतापूर्वक जीने तथा सुख-दुःख में समभाव रखने में ही जीवन का सुख है। अत: काल के संकेत की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।

प्रश्न 5.
पाठ में आए निम्नलिखित गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए
(क) “जो कवि अनासक्त …………. क्या कवि है।”
(ख) “दु:ख हो कि सुख ………… अनासक्ति थी।”
(ग) “क्यों मेरा मन ………. आज कहाँ है।”
(घ) “जब उमस से प्राण ………… प्रचार करता रहता है।”
उत्तर:
उपर्युक्त गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या के लिए महत्त्वपूर्ण गद्यांशों की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्याएँ’ शीर्षक देखिए।

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 16 अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 16 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
‘शिरीष के फूल’ शीर्षक निबन्ध किस निबन्ध संग्रह से संकलित है?
(क) कल्पलता
(ख) अशोक के फूल
(ग) कुञ्ज
(घ) विचार-प्रवाह

प्रश्न 2.
“मैं तुंदिल नरपतियों की बात नहीं कह रहा हूँ। वे चाहें तो लोह के पेड़ बनवा लें।” इस कथन में निहित भाव
(क) प्रशंसा
(ख) व्यंग्य
(ग) उपेक्षा
(घ) निन्दा

प्रश्न 3.
“फूल है शिरीष” द्विवेदी जी के इस कथन में निहित है
(क) सूचना
(ख) निन्दा
(ग) प्रशंसा
(घ) स्नेह

प्रश्न 4.
‘हाय वह अवधूत कहाँ है? में ‘अवधूत’ शब्द में किसकी ओर संकेत है?
(क) गौतम बुद्ध की ओर
(ख) भगवान श्रीकृष्ण की ओर
(ग) सरदार पटेल की ओर
(घ) महात्मा गाँधी की ओर

प्रश्न 5.
‘शकुन्तला कालिदास के हृदय से निकली थी’- का अर्थ है
(क) वह शकुन्तला कालिदास की पुत्री थी।
(ख) शकुन्तला कालिदास का कल्पित चरित्र थी।
(ग) कालिदास ने शकुन्तला का चित्र बनाया था।
(घ) शकुन्तला की सुंदरता पर कालिदास ने हृदय में विचार किया था।

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 16 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
लेखक (हजारी प्रसाद द्विवेदी) जहाँ बैठकर लिख रहा है वहाँ कौन-से पेड़ हैं?
उत्तर:
द्विवेदी जी जहाँ बैठकर लिख रहे हैं, वहाँ शिरीष, अमलतास तथा कनेर के पेड़ हैं।

प्रश्न 2.
शिरीष कब फूलता है?
उत्तर:
शिरीष वसन्त से लेकर आषाढ़ तक फूलता है। यदि उसका मन हुआ तो वह भादों तक फूला रहता है।

प्रश्न 3.
शिरीष किस मंत्र का प्रचार करता है?
उत्तर:
शिरीष अजेयता के मंत्र का प्रचार करता है।

प्रश्न 4.
कालिदास ने शिरीष के फूल की कोमलता के बारे में क्या कहा है?
उत्तर:
कालिदास ने कहा है कि शिरीष का फूल भौंरों के पैरों का दबाव ही सह सकता है, पक्षियों के पैरों का भार नहीं सह सकता।

प्रश्न 5.
शिरीष के पुराने फलों को देखकर लेखक को किनकी याद आती है?
उत्तर:
शिरीष के पुष्प-फलों को देखकर लेखक को उन भारतीय नेताओं की याद आती है जो मरते दम तक अपना पद नहीं छोड़ते।।

प्रश्न 6.
लेखक ने शिरीष को अद्भुत अवधूत क्यों कहा है?
उत्तर:
शिरीष एक अवधूत की भाँति सुख या दु:ख से अप्रभावित तथा विरक्त रहता है, हार नहीं मानता।

प्रश्न 7.
कवि होने के लिए किस गुण का होना आवश्यक है? उत्तर- कवि होने के लिए अनासक्ति का होना आवश्यक है। प्रश्न 8. कवि कालिदास और शिरीष के वृक्ष में क्या समानता है?
उत्तर:
कवि कालिदास तथा शिरीष वृक्ष अनासक्त हैं। इसी कारण कालिदास मेघदूत की रचना कर सके तथा भीषण गर्मी में शिरीष पर फूल आ सकते हैं।

प्रश्न 9.
राजा दुष्यन्त द्वारा बनाए हुए शकुन्तला के चित्र में क्या कमी थी?
उत्तर:
राजा दुष्यन्त शकुन्तला के कानों में शिरीष पुष्प के कर्णफूल तथा गले में मृणालहार पहनाना भूल गए थे।

प्रश्न 10.
हिन्दी के किस कवि में अनासक्ति का गुण है?
उत्तर:
हिन्दी-कवि सुमित्रानन्दन पंत में अनासक्ति का गुण है।

प्रश्न 11.
‘शिरीष के फूल’ हिन्दी गद्य की किस विधा की रचना है?
उत्तर:
‘शिरीष के फूल’ हिन्दी गद्य की निबन्ध नामक विधा की रचना है। यह ललित निबन्ध है।

प्रश्न 12.
लेखक ने गाँधीजी को किस कारण अवधूत बताया है?
उत्तर:
महात्मा गांधी विरक्त, अनासक्त, राग द्वेष से अलग थे। इस कारण अवधूत की श्रेणी में आते हैं।

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 16 लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
द्विवेदी जी शिरीष के फूल के प्रति आकर्षित क्यों हैं?
उत्तर:
शिरीष पुष्प भीषण गर्मी तथा लू में भी खिला रहता है। वह वसन्त से खिलना शुरू करता है और आषाढ़ तक (कभी-कभी भादों तक भी) खिला रहता है। जब दूसरे फूल खिलने की हिम्मत नहीं दिखाते तब शिरीष खिला रहता है। कठोर प्राकृतिक वातावरण में शिरीष को खिलता देखकर द्विवेदी जी उसके प्रति आकर्षित होते हैं। वह शिरीष की जीवनी-शक्ति को मनुष्य के लिए उपादेय तथा मार्गदर्शक मानते हैं।

प्रश्न 2.
आरग्वध के साथ शिरीष की तुलना क्यों नहीं की जा सकती है?
उत्तर:
शिरीष वसन्त से फूलना आरम्भ करता है तथा आषाढ़ तक निर्बाध खिलता है। कभी-कभी तो वह भादों तक खिलता है। आरग्वध अर्थात् अमलतास वसन्त ऋतु में फूलता है। वह दस-पन्द्रह दिन फूलता है फिर सूख जाता है। इस कारण शिरीष के साथ उसकी तुलना नहीं हो सकती।

प्रश्न 3.
आरग्वध और पलाश में क्या समानता है?
उत्तर:
आरग्वध को लोक में अमलतास कहते हैं। अमलतास वसन्त आने पर दस-पन्द्रह दिन ही फूल देता है। पलाश भी वसंत भाने पर दस-पन्द्रह दिन ही खिलता है, फिर सूख जाता है। कबीर ने लिखा है- दिन दस फूला फूलिके खंखड़ भया पलास। दोनों में ही समानता है।

प्रश्न 4.
प्राचीन भारत में वृक्ष-वाटिका में किन मंगलकारी वृक्षों को लगाने का उल्लेख है? इनके कारण वाटिका कैसी लगती थी?
उत्तर:
प्राचीन भारत में धनवान लोग वाटिका में अशोक, अरिष्ट, पुन्नाग और शिरीष के वृक्ष लगाते थे। ये वृक्ष खूब छायादार तथा हरे-भरे होते थे। इनके कारण वाटिका अत्यन्त मनोहर दिखाई देती थी।

प्रश्न 5.
प्राचीन भारत में घने छायादार वृक्ष लगाये जाते थे। इनसे क्या लाभ था? आजकल भारत में वृक्षारोपण की अधिक आवश्यकता क्यों है?
उत्तर:
प्राचीन भारत में घने छाया देने वाले वृक्ष लगाने की परिपाटी थी। ये वृक्ष सदा हरे-भरे रहते थे। भारत की जलवायु गरम है। इनकी घनी छाया आनन्ददायक होती थी। आजकल भारत का ऋतुचक्र बिगड़ गया है। विकास के कार्यों के लिए वृक्षों को धड़ाधड़ काटा जा रहा है। इससे वर्षा न होने अथवा कम होने की समस्या पैदा हो गई। समस्याओं के समाधान के लिए वृक्षारोपण जरूरी है।

प्रश्न 6.
शिरीष की क्या विशेषताएँ हैं?
उत्तर:
शिरीष एक बड़ा तथा घनी छाया देने वाला वृक्ष है। यह भीषण गर्मी तथा लू में भी फूलता है। इस पर वसन्त से आषाढ़ और कभी-कभी तो भादों तक फूल आते हैं। इसके फूल कोमल होते हैं किन्तु फल कठोर होते हैं। प्राचीन भारत में धनी लोग अपनी वाटिका में शिरीष के पेड़ लगाते थे।

प्रश्न 7.
शिरीष के फल कैसे होते हैं? लेखक ने उनकी तुलना नेताओं से क्यों की है?
अथवा
शिरीष के फलों को देखकर द्विवेदी जी को किनकी याद आती है तथा क्यों?
उत्तर:
शिरीष के फल अत्यन्त कठोर होते हैं। नए फलों के निकल आने पर भी वे अपने स्थान पर जमे रहते हैं और अपना स्थान तब तक नहीं छोड़ते जब तक नए फल उनको धकेलकर हटा नहीं देते। भारत के नेता भी पदलोलुप होते हैं। वे वृद्ध हो जाने पर भी अपने पद पर जमे रहते हैं और नवयुवक को तथा नवयुवतियों के लिए स्थान खाली नहीं करते। वे तभी हटते हैं जब नई पीढ़ी उनको बलात् वहाँ से हटा देती है। इन फलों को देखकर द्विवेदी जी को इन नेताओं की याद आती है।

प्रश्न 8.
शिरीष के फूलों की कोमलता देखकर परवर्ती कवियों को क्या भ्रम हुआ? ये परवर्ती कवि कौन थे?
उत्तर:
शिरीष के फूल कोमल होते हैं। वे भौंरों के पदों का दबाव तो सहन कर सकते हैं किन्तु पक्षियों के पैरों का भार नहीं सह सकते। कालिदास के इस मत को सुनकर परवर्ती कवियों को भ्रम हुआ कि शिरीष का सब कुछ कोमल होता है। कालिदास के बाद वाले कवियों को लेखक ने परवर्ती कवि कहा है।

प्रश्न 9.
प्राचीन कवि किस वृक्ष पर झूला लगाना पसंद करते थे? शिरीष पर झूला लगाना उनको क्यों पसंद नहीं था? द्विवेदी ने इस इस विषय में क्या कहा है?
उत्तर:
प्राचीन कवि बबूल (मौलसिरी) के वृक्ष पर झूला डालना पसन्द करते थे। शिरीष के वृक्ष पर झूला डालना उनको पसन्द नहीं था। उनका कहना था कि शिरीष की डाल बहुत कोमल होती है। द्विवेदी जी कहते हैं कि ऐसा मानना ठीक नहीं है। उन कवियों को यह भी देखना चाहिए था कि उन पर झूला झूलने वाली नारियाँ भी तो अधिक वजन की नहीं होतीं। द्विवेदी जी की टिप्पणी से उनका व्यंग्य-विनोद तथा सरलता का भाव प्रगट हुआ है।

प्रश्न 10.
संसार का अतिप्रामाणिक सत्य क्या है? इनकी उपेक्षा कौन तथा किस कारण करता है?
उत्तर:
वृद्धावस्था तथा मृत्यु संसार के दो परिचित तथा अतिप्रामाणिक सत्य हैं। पुराने लोग इनकी उपेक्षा करते हैं। इसका कारण उनकी जिजीविषा तथा अधिकार लिप्सा है। भारत के पुराने वृद्ध नेता अपना पद छोड़ना नहीं चाहते। वे युवकों-युवतियों के लिए स्थान खाली करना नहीं चाहते। वे तभी अपने पद से हटते हैं जब या तो नई पीढ़ी उनको हटा देती है या मृत्यु उनको वहाँ नहीं रहने देती।

प्रश्न 11.
काल के कोड़ों की मार से कौन बच सकता है?
उत्तर:
कालदेवता निरन्तर कोड़े बरसा रहे हैं। कुछ लोग समझते हैं कि वे जहाँ हैं, वहीं बने रहें तो काल देवता की आँख से बच जायेंगे। लोग भोले और अज्ञानी हैं। जो बचना चाहते हैं उनको निरन्तर गतिशील रहना चाहिए। एक स्थान पर जमे नहीं कि गए नहीं तात्पर्य यह है कि निरन्तर कर्मरत और प्रगतिशील रहना ही काल की मार से बचने के लिए जरूरी है।

प्रश्न 12.
लेखक के अनुसार कबीर और कालिदास सरस रचनाएँ कैसे कर सके?
उत्तर:
कबीर मस्तमौला थे। कबीरदास का मन सरस तथा मादक था। वह निरन्तर कर्मरत थे। संकटों से जूझते हुए भी थे। अविचलित रहते थे। कालिदास भी विरक्त तथा अनासक्त थे। उनको समदर्शी, निर्विकार योगी तथा विदग्ध प्रेमी का हृदय प्राप्त हुआ था। इन विशेषताओं के कारण दोनों सरस रचनाएँ कर सके।

प्रश्न 13.
‘ऐसे दुमदारों से तो लंडूरे ही भले- इस उक्ति का आशय प्रकट कीजिए।
उत्तर:
पलाश वसन्त में दस-पन्द्रह दिन ही खिलता है, उसके बाद मुरझा जाता है। उसकी यह व्यवस्था किसी ऐसे पक्षी की तरह है, जो अपनी सुन्दर पूँछ का सौन्दर्य कुछ समय दिखाकर गायब हो जाता है अथवा उसकी पूँछ ही टूट जाती है। ऐसे दुमदम पक्षी से तो बिना पूँछ वाला होना अच्छा है। कबीर को उसका कुछ समय के लिए पुष्पित होना पसंद नहीं उनका कहना है- दस दिन फूला फूलि के खंखड़ भया पलास । इससे तो शिरीष अच्छा है। जो वसन्त से आषाढ़ तक निर्बाध फूलता है।

प्रश्न 14.
‘अब मैं इतने बड़े कवि की बात का विरोध कैसे करूँ?’ द्विवेदी जी ने यह बात क्यों कही है?
उत्तर:
कालिदास एक महान कवि थे। शिरीष पुष्प को अत्यन्त कोमल बताते हुए उन्होंने लिखा है- पद सहित भ्रमरस्य पेलव। शिरीष पुष्प न पुनः पतत्रिणाम् अर्थात् शिरीष का पुष्प भौंरों के पदों का दबाव तो सह सकता है किन्तु पक्षियों के पैरों की नहीं। शिरीष पुष्प की कोमलता का यह वर्णन अतिशयोक्ति है किन्तु महाकवि कालिदास का विरोध करने की इच्छा द्विवेदी जी के मन में नहीं है।

प्रश्न 15.
“कालिदास वजन ठीक रख सकते थे, क्योंकि वे अनासक्त योगी की स्थितप्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हदय पा चुके थे।” उपर्युक्त कथन का उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
लेखक कहना चाहते हैं कि कालिदास एक महान कवि थे। महान् कवि होने का कारण यह है कि उनमें सांसारिकता से विरक्त योगी की स्थिर बुद्धि थी तथा उनका हृदय एक विदग्ध प्रेमी का था। इन दो परस्पर विरोधी गुणों को आत्मसात करने वाला ही श्रेष्ठ कवि हो सकता है। कालिदास एक श्रेष्ठ कवि कैसे थे, यह बताना ही इस कल्पना उद्देश्य है।

प्रश्न 16.
महाकाल देवता सपासप कोड़े चला रहे हैं- इसका निहितार्थ क्या है?
उत्तर:
महाकाल देवता सपासप कोड़े चला रहे हैं- का निहितार्थ है कि मृत्यु हर क्षण प्राणियों को चिरनिद्रा में सुला रही है। वृद्ध होना और फिर मृत्यु होना संसार का चिरंतन सत्य है। बूढ़े और कमजोर समाप्त हो रहे हैं। जिनमें प्राणशक्ति प्रबल है वे कुछ देर तक टिके रह जाते हैं। मनुष्य की दुरन्त जिजीविषा तथा अटल मृत्यु में निरन्तर संघर्ष चल रहा है। मनुष्य जीना चाहता है और मृत्यु जीवन का अन्त करना चाहती है।

प्रश्न 17.
यद्यपि कवियों की भाँति हर फूल-पत्ते को देखकर मुग्ध होने लायक हृदय विधाता ने नहीं दिया है। पर नितांत हूँठ भी नहीं हूँ-”द्विवेदी जी की इस आत्मस्वीकृति का आशय क्या है?
उत्तर:
कवियों को ईश्वर-प्रदत्त नैसर्गिक गुण होता है कि वे प्रकृति की छोटी-छोटी चीजों पर भी मुग्ध हो जाते हैं। यह विशेषता जन्मजात होती है। द्विवेदी जी में यह गुण नहीं है। परन्तु उनका हृदय इतना शुष्क भी नहीं है कि प्रकृति की सुन्दर वस्तुओं पर मुग्ध न हो सके। भीषण गर्मी में भी शिरीष की हरीतिमा तथा पुष्पाच्छादित मोहकता उनको अपनी ओर आकर्षित करती है।

प्रश्न 18.
शकुन्तला कालिदास के हृदय से निकली थी। द्विवेदी जी के इस कथन का तात्पर्य क्या है?
उत्तर:
कालिदास के विश्वविख्यात नाटक’ अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ की नायिका शकुन्तला उर्वशी की पुत्री होने के कारण अवश्य ही परम रूपवती रही होगी। किन्तु नाटक की नायिका शकुन्तला कालिदास की कल्पना से उत्पन्न हुई है। वह कालिदास की अपनी रचना है। उसने उसको अपनी मनोरम कल्पना से सुसज्जित किया है। कालिदास की कल्पना से प्रसूत होने के कारण लेखक ने कहा है कि शकुन्तला कालिदास के हृदय से निकली थी।

प्रश्न 19.
”शकुन्तला बहुत सुन्दर थी। सुन्दर क्या कोई होने से हो जाता है।” द्विवेदी जी के इस कथन का आशय क्या है?
उत्तर:
कालिदास के नाटक की नायिका जन्मजात सुन्दरी थी। कालिदास ने उसको अपने नाटक की नायिका बनाया तो अपनी कल्पना के सहारे उसकी रूप-सज्जा की। इससे उसके सौन्दर्य में अपूर्व वृद्धि हुई। कालिदास एक सौन्दर्य पारखी कवि थे। उनके चित्रण ने अपनी नायिका को अनुपम सुन्दरी बना दिया। आशय यह है कि शकुन्तला को सौन्दर्य प्रकृति प्रदत्त कवि की कल्पना का सहारा पाकर वह दूना खिल उठा।

प्रश्न 20.
दुष्यन्त कौन था? उसने शकुन्तला को चित्र बनाया तो उसका मन किस कारण खीज उठा?
उत्तर:
दुष्यन्त कालिदास कृत शकुन्तला नाटक का नायक तथा शकुन्तला का प्रेमी था। उसने शकुन्तला का चित्र बनाया। उसको लग रहा था कि चित्र बनाने में उससे कोई चूक हो गई। परन्तु उसको पता नहीं चल रहा था कि क्या भूल हुई है। बहुत देर सोचने के बाद समझ में आया कि उसने शकुन्तला के कानों में शिरीष पुष्प के कर्णफूल नहीं पहनाये हैं तथा गले में शुभ्र मृणालहार पहनाना भी वह भूल गया है।

प्रश्न 21.
लेखक ने शिरीष वृक्ष से किसे महापुरुष की तुलना की है तथा किस प्रकार? क्या आज के वातावरण में शिरीष जैसा जीवन बिताना संभव है?
उत्तर:
लेखक ने गाँधी जी को शिरीष के समान बताया है। शिरीष तेज गर्मी तथा लू में भी अप्रभावित रहकर हराभरा रहता है तथा फूलों से लदा रहता है। उसी प्रकार गाँधी जी भी विषम परिस्थितियों में अविचलित रहकर देश को सन्मार्ग दिखाते रहे थे। आज मनुष्य धन के पीछे पागल है। उसको श्रेष्ठ जीवन-मूल्यों की परवाह नहीं है। केवल गाँधी बनकर ही शिरीष के समान जीवन बिताना संभव है।

प्रश्न 22.
अधिकार लिप्सा किसको कहते हैं? ‘शिरीष के फूल’ पाठ के आधार पर बताइए इसका समाज पर क्या दुष्प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
अधिकारों के प्रति लालच की भावना को अधिकार लिप्सा कहते हैं। पद छोड़ने पर ये अधिकार भी समाप्त हो जाते हैं। इसको पद लिप्सा भी कह सकते हैं। इससे समाज का संतुलन बिगड़ता है। पुरानी पीढ़ी के लोग अपना स्थान नहीं छोड़ते तो युवकों में असंतोष पैदा होता है। शिरीष के पुराने फलों को नए फल धकेलकर गिरा देते हैं। इसी प्रकार युवक पुराने नेताओं को पद से बलपूर्वक हटा देते हैं।

प्रश्न 23.
‘शिरीष के फूल’ नामक पाठ में लेखक ने शिरीष के वृक्ष, उसके फल तथा फूलों की विशेषताएँ बताई हैं। आप इन विशेषताओं से क्या शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं?
उत्तर:
शिरीष भीषण गर्मी की ऋतु में भी हरा-भरा तथा फूलों से लदा रहता है, इससे हम सीख सकते हैं कि जीवन में कठिनाइयाँ आने पर भी निराश नहीं होना चाहिए तथा अपना काम करते रहना चाहिए, विपरीत परिस्थिति में मन में प्रसन्नता बनाए रखनी चाहिए। शिरीष के फल कठोर होते हैं तथा तब तक अपने स्थान पर डटे रहते हैं जब तक नए फल उनको वहाँ से हटा नहीं देते। इससे हम सीख सकते हैं कि पदलिप्सा ठीक नहीं है। हमें समय रहते ही अपना पद छोड़ देना चाहिए। कुर्सी से चिपके नहीं रहना चाहिए।

प्रश्न 24.
शिरीष को एक अद्भुत अवधूत क्यों कहा गया है? ‘शिरीष के फूल’ पाठ के आधार पर बताइए।
उत्तर:
शिरीष का वृक्ष भीषण गर्मी, धूप और लू में हराभरा रहता है, वह वसन्त से आषाढ़ तक फूलों से लदा रहता है। उस पर गर्मी की भीषणता का प्रभाव नहीं होता। अवधूत उस संन्यासी को कहते हैं जो संसार में निस्पृह तथा तटस्थ रहता है। जो सब प्रकार के मोह तथा लिप्साओं दूर रहता है। जो विघ्न-बाधाओं से विचलित नहीं होता। अवधूत से इसकी समानता को देखकर लेखक ने उसको अवधूत कहा है।

प्रश्न 25.
‘शिरीष के फूल’ नामक पाठ से लेखक ने साहित्य, समाज और राजनीति में पुरानी और नई पीढ़ी के किस द्वन्द्व की ओर संकेत किया है?
उत्तर:
लेखक ने शिरीष के फलों का उदाहरण दिया है। पुराने फल तब तक डाली पर रहते हैं जब तक नये फल उनको वहाँ से नीचे नहीं गिरा देते। पुरानी पीढ़ी अपने पद तथा अधिकारों को छोड़ना नहीं चाहती। नई पीढ़ी उस पद और अधिकारों को पाना चाहती हैं। अत: दोनों में संघर्ष होता है। अंत में नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी को बलात् उसके पद और अधिकारों से वंचित कर देती है। दोनों पीढ़ियों के बीच यह संघर्ष सदा चलता है। साहित्य, समाज तथा राजनीति में उसको स्पष्ट देखा जा सकता है।

प्रश्न 26.
‘शिरीष के फूल’ शीर्षक निबन्ध के लेखक ने शिरीष के माध्यम से किन मानवीय मूल्यों की स्थापना की है?
उत्तर:
‘शिरीष का फूल’ निबन्ध एक उद्देश्यपूर्ण रचना है। इसमें लेखक ने शिरीष को माध्यम बनाकर मानवीय मूल्यों की स्थापना की है। बताया है कि हमको जीवन में विपरीत परिस्थितियों में भी अविचलित रहना चाहिए तथा अपने कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ते रहना चाहिए, हमें निराश नहीं होना चाहिए तथा सदैव प्रसन्न रहना चाहिए। हमें सुख-दु:ख में तटस्थ तथा अनासक्त रहना चाहिए।

प्रश्न 27.
लेखक ने शिरीष के वृक्ष, कबीर तथा कालिदास में क्या समानताएँ देखी हैं तथा क्यों?
उत्तर:
लेखक ने शिरीष के वृक्ष, कबीर तथा कालिदास में अनासक्ति का भाव देखा है। शिरीष भीषण धूप-ताप में भी हरा-भरा तथा पुष्पित रहता है। कबीर तथा कालिदास भी जीवन की कठिन परिस्थितियों से अविचलित रहते थे। वे अनासक्त कर्मयोगी थे। वे व्यक्तिगत राग-द्वेष से दूर थे। वे मस्तमौला थे तथा भावनाओं के रस में गहरी डुबकी लगाते थे।

प्रश्न 28.
“शिरीष तरु सचमुच पक्के अवधूत की भाँति मेरे मन में ऐसी तरंगें जगा देता है जो ऊपर की ओर उठती रहती हैं?” उपर्युक्त कथन के आधार पर बताइए कि शिरीष लेखक के मन पर क्या प्रभाव डालता है?
उत्तर:
शिरीष भीषण ताप में भी हराभरा रहता है। वह फूलों से लदा रहता है। लेखक को वह एक अवधूत प्रतीत होता है। वह लेखक को मानवता तथा देश के हित में काम करने की प्रेरणा देता है। वह उसके मन में जनहितकारी तथा उच्च विचार उत्पन्न करता है। उसके मन में देश और समाज के उत्थान की भावना जगाता है।

प्रश्न 29.
लेखक ने महात्मा गाँधी को शिरीष के समान क्यों बताया है?
उत्तर:
लेखक ने शिरीष को एक अवधूत कहा है। वह भीषण धूप, वर्षा, गर्मी, लू में भी हराभरा रहता है तथा फूलों से लदा रहता है। महात्मा गाँधी को शिरीष के समान बताया गया है, क्योंकि वह अनासक्त थे। देश में हुए भयानक दंगों, आगजनी, मारकाट , लूट-खसोट, खून-खराबा आदि में भी वह अविचलित और स्थिर रह सके थे। शिरीष तथा गाँधी जी दोनों में ही अवधूत जैसी अनासक् है। कोमलता तथा कठोरता दोनों ही गाँधी जी के व्यक्तित्व में पाए जाते हैं।

प्रश्न 30.
“मैं जब-जब शिरीष की ओर देखता हूँ। तब-तब हूक उठती है हाय! वह अवधूत अब कहाँ है?” लेखक के मन में टीस क्यों होती है?
उत्तर:
लेखक के मन में टीस होती है कि शिरीष के समान ही अनासक्त महात्मा गाँधी आज नहीं हैं। यदि वह होते तो आज देश में फैले अनाचार से देशवासियों को बचाते। देश में निर्धनता और शोषण का बोलबाला है। यदि गाँधी जी होते तो देश की जनता को सच्चा मार्ग दिखाते। वह हिंसा से लोगों को विरत कर उनको अहिंसा के लिए प्रेरित करते। आज सर्वत्र देहबल को महत्व दिया जा रहा है। गाँधी होते तो आत्मबल का प्रसार कर सभ्यता को पतन से बचा लेते।

प्रश्न 31.
“आन्तरिक कोमल भावों की रक्षा के लिए कभी-कभी बाह्य कठोर व्यवहार अपेक्षित होता है”- ‘शिरीष के फूल’ पाठ के आधार पर इस कथन पर विचार कीजिए।
उत्तर:
द्विवेदी जी ने शिरीष को अन्दर से कोमल तथा सरस तथा बाहर से कठोर माना है। उसकी आन्तरिक सरलता उसके हरे-भारे पत्तों तथा कोमल पीले फूलों में प्रकट होती है। इस सरसता की रक्षा वह कठोर सहनशीलता से करता है। भीषण गर्मी में भी वह हराभरा तथा पुष्पित रहता है। उसके कठोर आवरण में ही सरसता सुरक्षित रहती है।

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 16 निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘शिरीष के फूल’ द्विवेदी जी का एक संदेशपरक निबन्ध है। इसमें लेखक ने जो संदेश दिया है, उसको अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
‘शिरीष के फूल’ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की एक उद्देश्यपूर्ण निबन्धात्मक रचना है। इसमें लेखक ने बताया है कि विपरीत परिस्थितियों में रहकर भी शान्त और सुखद जीवन जिया जा सकता है। लेखक जब शिरीष को देखता है तो विस्मयपूर्ण आनन्द से भर जाता है। भीषण गर्मी है, धूप-ताप है, लू चल रही है। पेड़-पौधे सूखे जा रहे हैं। इधर शिरीष है कि हरे-हरे पत्तों से लदा है तथा उस पर पीले फूल खिले हुए हैं। वह भीषण गर्मी से अप्रभावी है। लेखक को लगता है कि वह अवधूत है। सांसारिक सुख-दुख, राग-द्वेष, माया-मोह आदि से विरक्त रहना चाहिए। जीवन में कठिनाइयाँ आयें किन्तु उनसे अप्रभावित रहकर अपने कर्तव्यपथ पर दृढ़ता से चलना चाहिए। स्वार्थमुक्त रहकर परहित में लगे रहना चाहिए। लेखक संदेश देता है कि मनुष्य जीवन के चरम सत्य को समझे।

संसार परिवर्तनशील है। आज जन्म लेने वाला कल वृद्ध होता है। फिर मृत्यु आती है। यह अनिवारणीय है। प्रकृति के इस नियम के अनुकूल स्वयं को बनाना ही अच्छा है। जो किसी पद पर आसीन हैं, अधिकार प्राप्त जन हैं, उनको युवा पीढ़ी के लिए स्थान छोड़ना चाहिए। उनको पद, अधिकार तथा धन लिप्सा से मुक्त रहना चाहिए। शिरीष समदर्शी तथा अनासक्त है। गाँधी अनासक्त कर्मयोगी थे। कालीदास योगी के समान विरक्त किन्तु विदग्ध प्रेमी थे। उनको संसार के संताप प्रभावित नहीं कर पाते थे, मनुष्य को इसी प्रकार का अनासक्त जीवन जीना चाहिए।

प्रश्न 2.
कालिदास एक सफल कवि थे। महान् और सफल कवि बनने में उनके कौन-कौन से गुण सहायक थे? ‘शिरीष के फूल’ के आधार पर उत्तर दीजिए।
उत्तर:
कालिदास संस्कृत साहित्य के सफल कवि थे। वह महाकवि थे। जीवन को देखने की उनकी दृष्टि उनकी महती सफलता के लिए उत्तरदायी है। कालिदास एक अनासक्त योगी थे। वह संसार के सुख-दु:ख से अप्रभावित रहते थे। शिरीष के समान वह भी एक अवधूत थे। शिरीष भीषण गर्मी में भी फूल देता है, शिरीष के फल फक्कड़ाना मस्ती से ही पैदा होते हैं। कालिदास का मेघदूत भी अनासक्त और पवित्र मन से प्रगट हुआ था। कालिदास वजन ठीक रख सकते थे क्योंकि वह अनासक्त और स्थितप्रज्ञ योगी थे। वह प्रेम की सरसता में मग्न एक विदग्ध प्रेमी थे। ये दोनों पर स्पष्ट विरोधी गुण उनके व्यक्तित्व को अनुपम बनाने के लिए पर्याप्त थे। इनकी उनके मन की उपस्थिति ने भी उनको एक महान तथा सफल कवि बनाया था।

अभिज्ञान शाकुन्तलम् कालिदास की विश्व प्रसिद्ध रचना है। उसकी नायिका शकुन्तला यद्यपि प्रकृतिप्रदत्त सौन्दर्य से सुसज्जित थी किन्तु वह सुन्दर इस कारण थी कि सौन्दर्य पारखी महान कवि कालिदास ने उसको अपनी कल्पना के रंगों से सजाया था। कालिदास उसके साहित्यिक पिता थे ऐसी रचना कालिदास जैसा योगी और प्रेम के समन्वित गुणों वाला कवि ही कर सकता है। कालिदास में बाहरी सौन्दर्य के आवरण को भेदकर उसके भीतर स्थित सच्चे सौन्दर्य तक पहुँचने की क्षमता थी। वह एक सफल कृषक की भाँति थे जो गन्ने में निहित मधुर रस को बाहर खींच लेता है। उनकी महानता का कारण उनकी अनासक्ति थी। वह एक अवधूत थे तथा संसार के दु:ख-दोष उनको प्रभावित नहीं करते थे।

प्रश्न 3.
“जरो और मृत्यु, ये दोनों ही जगत के अति परिचित और अति प्रामाणिक सत्य हैं।” द्विवेदी जी ने इनका उल्लेख किस उद्देश्य से किया है? शिरीष के फूल’ के आधार पर उत्तर दीजिए।
उत्तर:
सुमित्रानन्दन पंत ने ‘परिवर्तन’ शीर्षक कविता में लिखा है- ‘खोलता इधर जन्म लोचन। मूंदती उधर मृत्यु क्षण-क्षण।’ महाकवि तुलसीदास लिखते हैं- धरा को प्रमान यही तुलसी जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना। तुलसी और पन्त ने इन पंक्तियों में संसार के दो अटल सत्यों का वर्णन किया है। ये दो सत्य हैं वृद्धावस्था तथा मृत्यु । कबीर भी इस मामले में पीछे नहीं हैं। अपने मस्तमौलापन का परिचय देते हुए वह कहते हैं- कबिरा मैं तो तब डरूँ जो मोही को होय। मौत, बुढ़ापा, आपदा सब काहूँ को होय।” मौत और बुढ़ापा तो सब को आता है, यह अनिवार्य है। इससे बचा नहीं जा सकता। संसार परिवर्तनशील है। ये दोनों सत्य संसार । की इसी परिवर्तनशीलता का प्रमाण है। कोई इनसे अपरिचित नहीं है।

द्विवेदी जी ने इनका उल्लेख अकारण नहीं किया है। इनके उल्लेख का भी उद्देश्य है। द्विवेदी जानते हैं कि मनुष्य संसार के राग-द्वेष में पड़कर विस्मृति का शिकार हो जाता है। वह प्रकृति के इस ध्रुव सत्य को भूल जाता है और सोचता है कि उसे सदा यहाँ ऐसा ही युवा रहना है। द्विवेदी जी सावधान करना चाहते हैं कि परिवर्तन के सत्य को स्वीकार करो। समय रहते पद और अधिकार की लिप्सा का त्याग करो। नई पीढ़ी स्वदेश के नवनिर्माण के पथ पर बढ़ रही है। उनको उनका अधिकार सौंपो। पद से चिपके मत रहो, कहीं ऐसा न हो कि ये नवयुवक तुमको बलपूर्वक तुम्हारे आसन से नीचे गिराने को बाध्य हों। नागार्जुन ने पीपल के पत्तों को सम्बोधित कर कहा है- ‘ओ पीपल के पीले पत्ते।’ आचार्य द्विवेदी जी ने जरा और मृत्यु का उल्लेख इसी उद्देश्य से किया है।

प्रश्न 4.
शिरीष के फलों की क्या विशेषता है? जिसको देखकर द्विवेदी जी को नेताओं की याद आती है। ‘शिरीष के फूल’ पाठ के आधार पर उत्तर दीजिए।
उत्तर:
‘शिरीष के फूल’ कोमल होते हैं। कालिदास ने कहा था कि वे भौंरों के पदों का भार तो सह सकते हैं किन्तु पक्षियों के पैरों का भार नहीं सह सकते। यह कथन अतिशयोक्ति हो सकता है, किन्तु बाद के कवियें ने इससे यह मान लिया कि शिरीष का सब कुछ कोमल होता है। किन्तु ऐसा है नहीं, शिरीष के फल अत्यन्त कठोर होते हैं। जब नए फल आ जाते हैं, तब भी पुराने फल सूखकर डालियों पर खड़खड़ाते रहते हैं। वे अपना स्थान तब तक नहीं छोड़ते जब तक नए फल उनको धक्के देकर वहाँ से नीचे नहीं गिरा देते। ऐसी लिप्सा अच्छी नहीं होती। शिरीष के इन फलों को देखकर लेखक को नेताओं की याद आ जाती है।

वे समय के रुख को नहीं पहचानते। उनकी पद और अधिकार की लिप्सा शान्त नहीं होती। द्विवेदी जी लिखते हैं- मैं सोचता हूँ पुरानों की यह अधिकार लिप्सो क्यों नहीं समय रहते सावधान हो जाती ? …… मैं शिरीष के फूलों को देखकर कहता हूँ कि क्यों नहीं फलते ही समझ लेते बाबा कि झड़ना निश्चित है। नेताओं में पद तथा अधिकार के प्रति प्रबल लिप्सा होती है। वे अपना पद छोड़ना नहीं चाहते। वे मृत्युपर्यन्त उस पर जमे रहना चाहते हैं। वे समय के परिवर्तन पर ध्यान नहीं देते तथा जानबूझकर असावधान बने रहते हैं। वे अपना स्थान तभी छोड़ते हैं जब मृत्यु आकर उपस्थित होती है अथवा नई पीढ़ी उनको बलपूर्वक उनके स्थान से हटा देती है। द्विवेदी जी ऐसे पद-लोलुप नेताओं को सावधान करना चाहते हैं कि उनको समय के परिवर्तन को पहचानना चाहिए तथा अधिकार लिप्सा का त्याग करना चाहिए। यही उनके लिए सम्मानजनक है।

प्रश्न 5.
“लेकिन अनुभव ने मुझे बताया है कि कोई किसी की सुनता नहीं। मरने दो।” द्विवेदी जी के इस कथन पर विचार करने के बाद बताइए कि क्या जनहितकारी बात कहना बन्द कर दिया जाना चाहिए। अपना मत व्यक्त कीजिए।
उत्तर:
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘शिरीष के फूल’ निबन्ध में बताया है कि कवि होने के लिए फक्कड़ बनना चाहिए। शिरीष की मस्ती की ओर देखना चाहिए। कबीर मस्तमौला थे और कालिदास अनासक्त थे। कवि होने के लिए निर्लिप्तता का गुण होना जरूरी है। द्विवेदी जी कहते हैं कि किसी को कोई सलाह देना अथवा उसका मार्गदर्शन करना बेकार है। उनका अनुभव कहता है कि कोई किसी की बात नहीं सुनता। अतः वह इस सम्बन्ध में वह कुछ नहीं कहना चाहते। द्विवेदी जी का कहना अनुचित नहीं है। वह एक विद्वान अनुभवी व्यक्ति हैं। वह जानते हैं कि बहुत कम लोग दूसरों सलाह माँगते हैं। और उस पर चलते हैं। यह नीति बताई है कि बिना पूछे किसी को सलाह देनी नहीं चाहिए।“अनाहूतो प्रविशति, अपृष्टो बहुभाषते” को सही बताया भी नहीं गया है।

किन्तु संसार में सुधारक तथा उपदेशक हुए हैं। उनको संभवत: आचार्य द्विवेदी का यह कथन उचित न लगे। वे तो अपमान सहकर भी दूसरों को सन्मार्ग दिखाते रहे हैं। स्वामी दयानन्द सस्वती को सत्यार्थ प्रकाश के लिए विष देकर उनके प्राण ले लिए गए थे। अहिंसा के दूत महात्मा गाँधी को हिंसा का शिकार होना पड़ा था जो महापुरुष परहित के कठिन कार्य में लगा है, वह संभवत: द्विवेदी जी के कथन के अनुकूल आचरण न कर सके।

प्रश्न 6.
“हाय वह अवधूत आज कहाँ है।” लेखक ने अवधूत किसको कहा है? आज उसकी आवश्यकता लेखक को क्यों महसूस हो रही है?
उत्तर:
“हाय वह अवधूत आज कहाँ है” द्विवेदी जी महात्मा गाँधी को अवधूत कह रहे हैं तथा उनको स्मरण करा रहे हैं। गाँधी जे। शिरीष की तरह अनासक्त थे। शिरीष भीषण गर्मी, धूप आदि से अप्रभवित रहता है। तथा हरा-भरा बना रहता है। वसंत से आषाढ़ तव फूलों से लदा रहता है। जब अन्य पुष्प खिलने का साहस नहीं करते तब शिरीष पर पुष्प गुच्छ लटके रहते हैं। गाँधी जी अहिंसा के अग्रदूत थे। उस समय विश्व में सर्वत्र हिंसा तथा अन्याय, अत्याचार और शोषण फैला हुआ था उस सबसे अविचलित महात्मागाँधी सत्य और अहिंसा के मार्ग पर दृढ़ता से चल रहे थे। आज गाँधी जी जीवित नहीं हैं। आज भी भारत तथा अन्य विश्व के सभी देशों में उपद्रव, मारकाट, खूनखराबा, लूटपाट का वातावरण है।

आतंकवाद विश्व के सभी देशों में फैल चुका है। धर्म के नाम पर दूसरे धर्म के मानने वालों की हत्यायें हो रही हैं। प्रेम और सद्भाव नष्ट किया जा रहा है। मानवता का खून बहाया जा रहा है। आज विश्व को इस वातावरण से मुक्ति दिलाने का सामर्थ्य केवल एक ही व्यक्ति में है और वह व्यक्ति महात्मा गाँधी है। अत: लेखक को गाँधी जी की याद आ रही है। उसका मन उनकी अनुपस्थिति को लेकर व्याकुल है। उसमें एक पीर, एक टीस उठ रही है। हाय, अहिंसा का वह अग्रदूत आज नहीं है? काश आज गाँधी होते तो लोगों से कहते- तुम मनुष्य हो, उसी एक परमपिता की संतान हो। तुम में कोई भेद नहीं है फिर क्यों लड़ते हो, क्यों एक दूसरे की जान लेते हो? जिसे तुम धर्म समझते हो वह धर्म नहीं है। धर्म तो मनुष्यता से प्रेम करना है, मनुष्यता की पूजा करना है। गाँधी आज भी प्रासंगिक हैं। वह लेखक को याद आते हैं।

प्रश्न 7.
कई बार मुझे मालूम होता है कि यह शिरीष एक अद्भुत अवधूत है, द्विवेदी जी ने ऐसा क्यों कहा है? ‘शिरीष के फूल’ पाठ के आधार पर उत्तर दीजिए।
उत्तर:
द्विवेदी जी जब भी शिरीष को देखते हैं तो उनको उसमें एक अवधूत की छवि दिखाई देती थी। जहाँ बैठकर द्विवेदी जी लिख रहे हैं। वहाँ चारों ओर अनेक शिरीष के वृक्ष हैं। भीषण गर्मी पड़ रही है। लू चल रही है। धूप है। ऐसे में पेड़-पौधे सूखे जा रहे हैं, प्राण मुँह को आ रहे हैं किन्तु शिरीष अप्रभावित और अविचलित है। वह हरा-भरा है तथा उस पर फूलों के गुच्छे लटके हुए हैं। द्विवेदी जी सोच रहे हैं कि आखिर शिरीष की इस जीवनी-शक्ति का रहस्य क्या है? वह शिरीष के इस अद्भुत स्वरूप से प्रभावित होकर सोचते हैं तो उनको बहुत बार लगता है कि यह शिरीष एक अवधूत है। दु:ख हो या सुख वह उससे अप्रभावित रहता है।

वह परेशानियों के सामने हार नहीं मानता। इस भयंकर तपन में न जाने कहाँ से जीवन रस खींचकर उल्लसित बने रहते हैं। अपनी मस्ती में हर वक्त मस्त बने रहते हैं। एक वनस्पति विज्ञानी ने लेखक से कहा कि शिरीष उस वृक्ष-जाति का पेड़ है जो वायुमंडल से भी अपना जीवन-रस खींच लेता है। लेखक इससे असहमत नहीं हो पाता। जब चारों ओर आग फैली है तो वह पानी कहाँ है। इस जलती धरती और दग्ध वातावरण में भी शिरीष जीवित ही नहीं रहता, पुष्पित-पल्लवित भी होता है। यह साधारण होने का लक्षण नहीं है। इसी से लेखक को प्रतीत होता है कि शिरीष एक अनासक्त अवधूत है।

लेखक – परिचय :

प्रश्न:
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जीवन परिचय देकर उनकी साहित्य साधना का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
जीवन परिचय – आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म उत्तर प्रदेश के दुबे का बलिया जिले के छपरा नामक गाँव में सन् 1907 ई. में हुआ था। आपके पिता अनमोल द्विवेदी ज्योतिष के विद्वान थे। आपकी माता ज्योतिष्मती थीं। आपका जन्म का नाम बैजनाथ था। इनके जन्म पर एक मुकदमे में एक हजार रुपये प्राप्त होने पर इनके पिता ने उनका नाम हजारी प्रसाद रख दिया। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई। सन् 1930 में आपने काशी विश्वविद्यालय से ज्योतिषाचार्य की उपाधि प्राप्त की। आपने लखनऊ विश्वविद्यालय से डी. लिट् की उपाधि ली। सन् 1950 तक आप शांति निकेतन में हिन्दी भवन’ के निदेशक रहे। आप काशी विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग में अध्यापक तथा अध्यक्ष रहे। पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ में हिन्दी विभागाध्यक्ष बने। आपकी साहित्य सेवा के सम्मान के लिए आपको भारत सरकार ने ‘पद्म भूषण’ से अलंकृत किया। सन् 1958 में आप ‘राष्ट्रीय ग्रंथ न्यास’ के सदस्य बने तथा उत्तर प्रदेश हिन्दी समिति तथा हिन्दी ग्रन्थ अकादमी से भी सम्बद्ध रहे। 19 मई सन् 1979 को आप दिवंगत हुए।

साहित्यिक परिचय – द्विवेदी जी ने हिन्दी जगत को अपने साहित्य से समृद्ध बनाया है। आप मूर्धन्य ललित निबन्धकार हैं। ‘कुटज” अशोक के फूल’ आदि आपके प्रसिद्ध निबंध हैं। आपने इतिहास, समालोचना, उपन्यास आदि क्षेत्रों में अपनी साहित्यिक प्रतिभा का परिचय दिया है। भारतीय संस्कृति, इतिहास, दर्शन आदि आपके प्रिय विषय रहे हैं। आपकी भाषा में तत्सम शब्दों की प्रधानता है। किन्तु भावाभिव्यक्ति की आवश्यकतानुसार आपने देशज एवं उर्दू, फारसी, अंग्रेजी भाषाओं के शब्दों के प्रयोग में संकोच नहीं किया है, जैसे – अजीब सी अदा, हजरत, सोशल सैक्शन आदि। आपने वर्णनात्मक, विचारात्मक, भावात्मक, व्यंग्य-विनोद, उद्धरणात्मक, समीक्षात्मक आदि शैलियों का प्रयोग अपनी रचनाओं में किया है। साहित्य आपके लिए मनुष्यों के मानसिक और चारित्रिक उन्नयन का साधन है। जो साहित्य मनुष्य को उदार, परदुःखकातर, संवेदनशील तथा तेजोदीप्त न बना सके वह उनकी दृष्टि में वाग्जाल से अधिक कुछ नहीं है।

  • कृतियाँ – द्विवेदी जी की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं:निबन्ध संग्रह- अशोक के फूल, कुटज, कल्पलता, विचार-प्रवाह, आलोक पर्व, विचार और वितर्क आदि। उपन्यास- वाणभट्ट की आत्मकथा, चारु चन्द्रलेख, पुनर्नवा, अनामदास का पोथा इत्यादि।
  • समीक्षा – कबीर, सूर-साहित्य, कालिदास की लालित्य योजना, साहित्य का मर्म, हमारी साहित्यिक समस्यायें इत्यादि।
  • इतिहास तथा संस्कृति – हिन्दी साहित्य की भूमिका, हिन्दी साहित्य का आदिकाल, हिन्दी साहित्य, प्राचीन भारत का कला – विलास, प्राचीन भारत का कला विनोद, सहज साधना, मध्यकालीन धर्म साधना आदि।
  • सम्पादन – संक्षिप्त पृथ्वीराज रासो, सन्देश रासक, नाथसिद्धों की बानियाँ, शांति निकेतन पत्रिका (विश्वभारती) आदि। अनुवाद- प्रबन्ध चिन्तामणि, लाल कनेर, मेरा बचपन, प्रबन्ध संग्रह इत्यादि।

पाठ-सार

प्रश्न 1.
‘शिरीष के फूल’ पाठ का सारांश लिखिए।
उत्तर:
परिचय – ‘शिरीष के फूल’ एक ललित निबन्ध है। इसके रचयिता आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं। यह निबंध उनके ‘कल्पलता’ संग्रह में संकलित है तथा लेखक ने इस निबन्ध के माध्यम से कर्तव्यपरायणता तथा अनासक्त रहते हुए समाज सेवा में लगने का संदेश दिया है। परिवर्तन संसार का नियम है। इस सत्य को स्वीकार करते हुए ही जीवन का सच्चा आनन्द प्राप्त किया जा सकता है।

ग्रीष्मऋतु और शिरीष – द्विवेदी जी का लेखन-कार्य चल रहा है। गर्मी बहुत है। वहाँ चारों तरफ शिरीष के अनेक वृक्ष हैं। वे भीषण ताप तथा लू में भी फूलों से लदे हुए हैं। जेठ की तपन में फूलने वाले वृक्ष बहुत कम होते हैं। कनेर और अमलतास भी जेठ में फूलते हैं। अमलतास वसन्त ऋतु में फूलने वाले पलास की तरह दस-पन्द्रह दिनों के लिए ही फूलता है। किन्तु शिरीष वसंत आने से फूलना शुरू होता है और आषाढ़ तक फूलों से लदा रहता है। मन हुआ तो भादों तक फूलता है।

प्राचीन साहित्य में शिरीष – शिरीष के वृक्ष बहुत छायादार होते हैं। वृहद्संहिता में लिखा है कि प्राचीन भारत में वाटिका की चहारदीवारी के पास शिरीष के वृक्ष लगाए जाते थे। पुराने कवि बबूल के पेड़ पर झूला डालने की बात कहते हैं। शिरीष पर भी तो झूला डाला जा सकता है। माना शिरीष की डाल कमजोर होती है किन्तु झूला झूलने वालियों का भार कौन-सा अधिक होता है। कालिदास ने कहा है- शिरीष पुष्प केवल भौंरों के पदों का भार झेल सकते हैं, पक्षियों का बिल्कुल नहीं । कालिदास के बाद के कवियों ने समझा कि शिरीष का सब कुछ कोमल है। यह भूल है। शिरीष के फल इतने मजबूत होते हैं कि नए फूलों के निकलने पर भी अपना स्थान तब तक नहीं छोड़ते जब तक नए फूल उनको धकेलकर निकाल न दें। भारत के नेता भी ऐसे ही हैं। जब तक नई पीढ़ी के युवक उनको धक्का देकर न हटा दें तब तक वे अपने पदों पर जमे रहते हैं।

जीवन का ध्रुव सत्य – मृत्यु और बुढ़ापा जीवन के अटल सत्य हैं। परन्तु पुरानों में अधिकार की जो भावना है वह समय रहते सावधान नहीं होती। वे अपना अधिकार छोड़ना नहीं चाहते। तुलसी ने इस सत्य को इन शब्दों में स्वीकार किया है ‘धरा को प्रमान यही तुलसी जो फरा सो झरा जो बरा सो बुताना” शिरीष के फूल फलते ही क्यों नहीं समझ लेते कि कि झड़ना निश्चित है। काल देवता के प्रहार से वृद्ध और दुर्बल झड़ रहे हैं, सबल कुछ टिके हुए हैं। जिजीविषा और मृत्यु में निरन्तर संघर्ष चल रहा है।

अवधूत शिरीष – शिरीष अवधूत है, फक्कड़ है। दुःख हो या सुख वह अप्रभावित रहता है, मस्त रहता है, जब धरती-आकाश जल रहे होते हैं, तब भी वह सरस रहता है, पुष्पित होता है। कबीर भी बेपरवाह और फक्कड़ थे। कालिदास अनासक्त योगी थे। इसी कारण उन्होंने मेघदूत की रचना की होगी। मस्त और फक्कड़ हुए बिना कोई कवि नहीं बन सकता। लेखक की इस सलाह पर कोई ध्यान नहीं देता।

अनासक्त योगी और विदग्ध प्रेमी – कालिदास एक योगी की भाँति मोह से मुक्त थे। उनको प्रेम का गहरा अनुभव था। उनका प्रत्येक श्लोक मोहक है। शकुन्तला परम सुन्दरी थी। वह यों ही सुन्दरी नहीं बन गई थी। वह कालिदास के हृदय से निकली थी। विधाता ने भी सौन्दर्य देने में कंजूसी नहीं की थी। उसके प्रेमी दुष्यन्त ने उसका चित्र बनाया। उसे लगा कि कुछ छूट गया है बहुत देर बाद समझ में आया कि उसके कानों में शिरीष के फूल के कर्णफूल तथा गले में शरद पूर्णिमा के चन्द्रमा की किरणों के समाने कोमल मृणालहार नहीं पहनाया। कालिदास महान् कवि थे। जिस प्रकार किसान पेरे हुए गन्ने से रस निकाल लेता है, उसी प्रकार वह सुख या दु:ख से अपना भाव रस खच लेते थे। वर्तमान हिन्दी कवि सुमित्रानन्दन पंत में भी ऐसी अनासक्ति थी। कवीन्द्र रवीन्द्र भी अनासक्त थे। उन्होंने अपनी कला को अन्तिम नहीं माना, आगे बढ़ने की प्रेरणा माना है। फूल हो या पेड़ वह अपने आप में अंतिम नहीं है, वह किसी वस्तु को दिखाने के लिए उँगली का इशारा है।

शिरीष की प्रेरणा – शिरीष का वृक्ष एक पक्के अवधूत की तरह लेखक के मन में ऐसी तरंगें जगा देता है, जो ऊपर की ओर उठती रहती हैं। वह सोचता है कि इतनी तेज धूप में भी वह हरा-भरा क्यों है? क्या धूप, लू और वर्षा आदि बाह्य परिवर्तन सत्य नहीं हैं? तभी इनसे अप्रभावित रहकर वह हरा-भरा रहता है। हमारे देश में जो मारकाट, आगजनी, लूट-पाट और खून-खराबा हुआ उसके भीतर भी क्या स्थिर रहा जा सकता है? अपने देश को एक बूढ़ा (महात्मा गाँधी) रह सका था। गाँधी जी शिरीष की भाँति वायुमण्डल से रस खींचकर इतना कोमल इतना कठोर हो सके थे। लेखक जब-जब शिरीष को देखता है, तब-तक उसके मन में प्रश्न उठता है- आज ऐसे अवधूत कहाँ हैं।

कठिन शब्दों के अर्थ :

(पृष्ठ -82) धरित्री = धरती, पृथ्वी। निर्धूम = बिना धुआँ के। कर्णिकार = कनेर। आरग्वध = अमलतास। पलाश = टेसू । लहक उठना = खिल उठना। खंखड़ = ठ, सूखा हुआ। दुमदार = पूँछ वाले। लँडूरे = बिना पूँछ के। निर्घात = बाधाहीन । उमस = पसीना बहाने वाली तेज गर्मी, जिसमें हवा नहीं चलती। प्राण उबलना = जीवन संकट में पड़ना। कालजयी = समय पर विजय पाने वाला। अवधूत = अनासक्त, संसार के सुख-दु:ख, विषय-भोग आदि से अप्रभावित मनुष्य। अजेयता = कभी हार न मानना। नितांत = पूरी तरह। ढूँठ = हृदयहीन। (अभिधा में किसी पौधे का वृक्ष को काटने के बाद जमीन पर शेष रह गया उसका हिस्सा)। हिल्लोल = लहर, उत्साह। मंगल = कल्याण, भलाई । वृहत् संहिता = एक प्राचीन ग्रन्थ । अरिष्ट = रीठा का पेड़। पुन्नाग = एक बड़ा सदाबहार पेड़। घन = घना । मसृण = चिकना। हरीतिमा = हरियाली। परिवेष्टित = लिपटी हुआ। कामसूत्र = वात्स्यायन द्वारा रचित ग्रंथ । सघन = घने । दोला = झूला। बकुल = मौलश्री । तुंदिल = बड़ी तोंद वाला । नरपति = राजा। प्रचारित की होगी = प्रगट की होगी। पद = पैर। पेलवं = कोमल। पतत्रिणाम् = पक्षियों के।

(पृष्ठ-83) परवर्ती = बाद के समय के। धकियाकर = धक्के देकर । वनस्थली = वन प्रदेश। पुष्प-पत्र = फूल-पत्ते । मर्मरित = पत्तों के आपस में टकराने से उत्पन्न ध्वनि वाले। खड़खड़ना = आपस में टकराने से उत्पन्न आवाज । रुख = दिशा । पौधा = पीढ़ी। लिप्सा = लालच । जरा = बुढ़ापा । जरा = वृद्ध । बुताना = मर गया। धरा = धरती। सपासप = कोड़े मारने से उत्पन्न आवाज, जल्दी। जीर्ण = पुराने, बूढ़े। प्राण कण = जीवनीशक्ति । ऊर्ध्वमुखी = ऊपर की ओर मुख वाला, उन्नतिशील । दुरंत = जिसका अन्त कठिन हो । प्राणधारा = जीवनी । सर्वव्यापक = सब जगह व्याप्त । कालाग्नि = मृत्यु की आग। हजरत = श्रीमान, माननीय मनुष्य (यहाँ शिरीष वृक्ष के लिए प्रयुक्त व्यंग्य) । रस = जल । याम = प्रहर। तन्तुजाल = तिनकों का समूह। अनासक्त = भोग-विलास में रुचि न लेने वाला । फक्कड़ाना = संसार के माया-मोह से मुक्त रहने की भावना। अनाविले = पवित्र। उन्मुक्त = निर्द्वन्द्व, द्वन्द्व से मुक्त । कर्णाट =कर्नाटक। मूर्धिन = सिर पर। ददामि वाम चरणं = बायाँ पैर रखती हूँ। उपालंभ = उलाहना।

(पृष्ठ -84) स्थिर-प्रज्ञता = अविचलित बुद्धि की दशा। विदग्ध = अच्छी तरह तपा हुआ। सहृदय = उदार, साहित्यप्रेमी। विस्मय-विमूढ़ = आश्चर्यचकित । विधाता = ईश्वर । कार्पण्य = कृपणता, कंजूसी । खीझा = झुंझलाहट । गंडस्थल = कपोल, गाल।
शरच्चन्द्र (शरत्च न्द्र) = शरद पूर्णिमा का चन्द्रमा। शुभ्र = श्वेत, स्वच्छ। मृणाल = कमलदण्ड। आवरण = पर्दा । कृषीबल = किसान। निर्दलित = निचुड़ा हुआ। ईक्षुदंड = पन्ना। सिंहदार = मुख्य दरवाजा । अभ्रभेदी = आकाश को छूने वाला । गन्तव्य = जहाँ जाना हो वह स्थान, लक्ष्य। अतिक्रम = पार । तरंग = लहर । चिलकती = तेजी से चमकती । बाह्य = बाहरी। अग्निदाह = आगजनी। खून-खच्चर = खून बहाना, लड़ाई-झगड़ा करना। बवंडर = तूफान। रस = पानी । हूक उठना = वेदना, रोने की इच्छा होना।

महत्त्वपूर्ण गद्यांशों की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्याएँ

1. जहाँ बैठ के यह लेख लिख रहा हूँ उसके आगे पीछे दाँए-बाएँ, शिरीष के अनेक पेड़ हैं। जेठ की जलती धूप में, जबकि धरित्री निर्धूम अग्निकुंड बनी हुई थी, शिरीष नीचे से ऊपर तक फूलों से लद गया था। कम फूल इस प्रकार की गरमी में फूल सकने की हिम्मत करते हैं। कर्णिकार (वनचंपा) और आरग्वध (अमतलास) की बात मैं भूल नहीं रहा हूँ। वे भी आस-पास बहुत हैं। लेकिन शिरीष के साथ आरग्वध की तुलना नहीं की जा सकती। वह पन्द्रह-बीस दिन के लिए फूलता है, वसंत ऋतु के पलाश की भाँति । कबीर दास को इस तरह पन्द्रह दिन के लिए लहक उठना पसंद नहीं था। यह भी क्या कि ‘दस दिन फूल । और फिर खंखड़-के-खंखड़’ ‘‘दिन दस फूला, फूलिके खंखड़ भया पलास”। फूल है शिरीष। वसन्त के आगमन के साथ । लहक उठता है, आषाढ़ तक तो निश्चित रूप से मस्त बना रहता है। मन रम गया तो भरे भादों में भी निर्धात फूलता रहता है। : जब उमस से प्राण उबलता रहता है और लू से हृदय सूखता रहता है, एकमात्र शिरीष कालजयी अवधूत की भाँति जीवन की अजयेता का मंत्र-प्रचार करता है। (पृष्ठ 82)

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित ‘शिरीष के फूल’ शीर्षक निबन्ध से उद्धृत है। इसके लेखक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं।
प्रसंग – शिरीष के वृक्ष को माध्यम बनाकर लेखक ने पाठकों को अनेक मानवीय मूल्यों को अपनाने को संदेश दिया है। प्रकृति की प्रत्येक वस्तु आकर्षक होती है तथा पेड़-पौधे भी, परन्तु लेखक का शिरीष के ऊपर विशेष पक्षपात है।

व्याख्या – लेखक बता रहा है कि तेज गर्मी पड़ रही है। जहाँ बैठकर वह लिख रहा है, उसके चारों तरफ शिरीष के बहुत से पेड़ हैं। गर्मी के तीव्र ताप के कारण पृथ्वी ऐसी प्रतीत हो रही है जैसे कोई बिना धुआँ वाला आग का समूह हो। इतनी गर्मी में भी शिरीष पूरी तरह फूलों से लदा हुआ है। इतनी तेज गर्मी में बहुत कम वृक्षों पर ही फूल लगते हैं। कनेर और अमलतास को लेखक ने भुलाया नहीं है। वहाँ उनके भी अनेक वृक्ष उगे हुए हैं। किन्तु शिरीष की अमलतास से समानता नहीं की जा सकती। जिस प्रकार पलाश अर्थात् टेसू वसंत ऋतु में पन्द्रह दिन के लिए फूल देता है उसी प्रकार अमलतास भी पन्द्रह-बीस दिनों के लिए ही पुष्पित होता है। कबीरदास ने लिखा है कि पलाश दस दिन फूलों से लदने के बाद पुन: वैसे का वैसा खंखड़ हो जाता है। यह फूलना भी कोई फूलना है।

कबीर को यह पसंद नहीं कि पन्द्रह दिन फूलकर फिर वैसे का वैसा हूँठ हो जाय। अतः अमलतास तथा पलास से शिरीष की तुलना नहीं की जा सकती। वृक्ष तो शिरीष है। वसन्त आते ही उस पर फूल लद जाते हैं और आषाढ़ तक वह पुष्पित बना रहता है। कभी-कभी तो भादों उसका मनमौजीपन उसे फूलों से लदे रहने के लिए बाध्य कर देता है। उस समय की तेज गर्मी तथा उमस लोगों का जीना मुश्किल कर देती है। तथा तेज गरम लू से हृदय तक सूख जाता है, तब भी शिरीष समय पर विजय पाने वाले अनासक्त कर्मयोगी की तरह लोगों को संदेश देता है कि जीवन में किसी भी परिस्थिति में निराश न हो, हारो मत।

विशेष –

  1. गर्मी की ऋतु में भी शिरीष हरा-भरा रहता है तथा फूलों से लदा रहता है।
  2. दूसरे लोगों को कठिन परिस्थिति में भी कर्मशील तथा संघर्षरत रहने की प्रेरणा मिलती है।
  3. भाषा तत्सम शब्दों से युक्त है। देशज, खंखड तथा हिम्मत आदि अन्य भाषाओं के शब्द भी उसमें मिलते हैं।
  4. शैली विचारात्मक है तथा संदेशपूर्ण है।

2. शिरीष का फूल संस्कृत-साहित्य में बहुत कोमल माना गया है। मेरा अनुमान है कि कालिदास ने यह बात शुरू-शुरू में प्रचारित की होगी। उनका कुछ इस पुष्प पर पक्षपात था (मेरा भी है) कह गए हैं, शिरीष पुष्प केवल भौंरों के पदों का कोमल दबाव सहन कर सकता है, पक्षियों का बिलकुल नहीं- पदं सहेत भ्रमरस्य पेलवं शिरीष पुष्पं नः पुनः पतत्रिणाम्। अब मैं इतने बड़े कवि की बात का विरोध कैसे करूँ? सिर्फ विरोध करने की हिम्मत न होती तो भी कुछ कम बुरा नहीं था। यहाँ तो इच्छा भी नहीं है। खैर, दूसरी बात कह रहा था। शिरीष के फूलों की कोमलता देखकर परवर्ती कवियों ने समझा कि उसका सब-कुछ कोमल है। यह भूल है।

इसके फल इतने मजबूत होते हैं कि नए फूलों के निकल आने पर भी स्थान नहीं छोड़ते। जब तक नए फल-पत्ते मिलकर धकियाकर उन्हें बाहर नहीं कर देते तब तक वे डटे रहते हैं। वसंत के आगमन के समय जब सारी क्नस्थली पुष्प-पत्र से मर्मरित होती रहती है, शिरीष के पुराने फल बुरी तरह खड़खड़ाते हैं। मुझे इनको देखकर उन नेताओं की बात याद आती है, जो किसी प्रकार जमाने का रुख नहीं पहचानते और जब तक नयी पौध के लोग उन्हें धक्का मारकर निकाल नहीं देते तब तक जमे रहते हैं। (पृष्ठ 82-83)

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘शिरीष के फूल’ शीर्षक ललित निबन्ध से उद्धृत है। इसके लेखक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं।
प्रसंग – लेखक कहता है कि पुराने कवियों ने मौलश्री के पेड़ पर झूला डारने की बात कही है। उनकी दृष्टि में शिरीष की डाल मजबूत नहीं होती। महान कवि कालिदास ने शिरीष के पुष्प को बहुत कोमल माना है।

व्याख्या – द्विवेदी जी बता रहे हैं कि संस्कृत साहित्य में शिरीष के फूल को अत्यन्त कोमल बताया गया है। लेखक का अनुमान है कि संस्कृत के प्रसिद्ध कवि कालिदास ने शिरीष के बारे में यह बात आरम्भ में कही होगी। शिरीष का फूल उनको इतना प्रिय था कि इसके प्रति पक्षपात का भाव उनके मन में था। लेखक भी शिरीष को विशेष महत्त्व देता है। कालिदास ने लिखा है कि शिरीष का फूल इतना कोमल होता है कि वह केवल भौंरों के पैरों का कोमलतापूर्ण दबाव ही सहन कर पाता है वह पक्षियों के पैरों का दबाव नहीं सह पाता। कालिदास एक महाकवि थे। उनके कथन का विरोध करना लेखक उचित नहीं मानता। यदि उनको विरोध करने की हिम्मत की ही बात होती तो भी यह ठीक न होता।

परन्तु वास्तव में तो लेखक की इच्छा ही नहीं है कि उनकी बात का विरोध करे। लेकिन एक दूसरी बात कह रहा था। वह कह रहा था कि कवियों ने इस बात से यह मान लिया कि शिरीष की सभी चीजें कमजोर और कोमल हैं। फूलों की कोमलता के सवाल पर उन्होंने उसके अन्य हिस्सों को भी कोमल मान लिया। यह उनकी भूल है। इसके फल बहुत मजबूत होते हैं। नए फूल आ जाते हैं तब भी वे फल अपने स्थान पर बने रहते हैं। जब नए पत्ते और फल मिलकर उनको वहाँ से हटा दें, तभी वह अपनी जगह, से हटते हैं। वसंत आती है तो पूरे वन प्रदेश में फूलों तथा पत्तों की आवाज आती है। उसके साथ ही शिरीष के पुराने फलों की खडखड़ की आवाज भी आती रहती है। उन पुराने फलों को देखकर लेखक को भारत के उन बूढ़े नेताओं का ध्यान आता है जो नई पीढ़ी के. युवकों-युवतियों को काम करने तथा आगे बढ़ने को अवसर नहीं देते तथा बदलते समय का ध्यान नहीं रखते। वे अपनी मृत्यु तक अपने पद पर बने रहते हैं।

विशेष –

  1. लेखक का कहना है कि मनुष्य को समय के परिवर्तन को पहचानना चाहिए तथा उसके अनुरूप ही आचरण करना चाहिए।
  2. पदलिप्सा से मुक्त रहकर ही जीवन का सच्चा सुख प्राप्त किया जा सकता है।
  3. भाषा में तत्सम शब्दों के साथ देशज तथा अन्य भाषाओं के प्रचलित शब्द ही ग्राह्य हैं।
  4. शैली विचारात्मक है। अन्तिम पंक्ति में व्यंग्य है।

3. मैं सोचता हूँ पुराने की यह अधिकार-लिप्सा क्यों नहीं समय रहते सावधान हो जाती है? जरा और मृत्यु, ये दोनों ही जगत के अति परिचित और अतिप्रामाणिक सत्य हैं। तुलसीदास ने अफसोस के साथ इनकी सच्चाई पर मुहर लगाई थी‘धरा को प्रमान यही तुलसी जो फरा, सो झरा जो बरा, सो बुताना।’ मैं शिरीष के फूलों को देखकर कहता हूँ कि क्यों नहीं फलते ही समझ लेते बाबा कि झड़ना निश्चित है। सुनता कौन है? महाकाल देवता सपासप कोड़े चला रहे हैं, जीर्ण और दुर्बल झड़ रहे हैं, जिनमें प्राणकण थोड़ा भी ऊर्ध्वमुखी है, वे टिक जाते हैं। दुरन्त प्राणधारा और सर्वव्यापक कालाग्नि का संघर्ष निरन्तर चल रहा है। मूर्ख समझते हैं कि जहाँ बने हैं वहीं देर तक बने रहें तो काल देवता की आँख बचा जाएँगे। भोले हैं वे। हिलते-डुलते रहो, स्थान बदलते रहो, आगे की ओर मुँह किए रहो तो कोड़े की मार से बच भी सकते हो। जमें कि मरे। (पृष्ठ 83)

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘शिरीष के फूल’ शीर्षक पाठ से लिया गया है। यह आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित एक ललित निबन्ध है।
प्रसंग – लेखक कहते हैं कि लोग यह ध्यान रखते कि संसार परिवर्तनशील है तथा उसके अनुसार ही मनुष्य को स्वयं को बदलना चाहिए। पुराने लोगों को आने वाली नई पीढ़ियों के लिए स्थान त्यागना चाहिए तथा अधिकार की लोलुपता से बचना चाहिए।

व्याख्या – लेखक कहता है जो जिस पद पर है उसको वह कभी छोड़ना नहीं चाहता। पद और अधिकार का लालच उनको यह बात भी याद नहीं रहने देता कि वे वहाँ सदैव नहीं रह सकते। सभी जानते हैं कि बुढ़ापा तथा मृत्यु जीवन की दो अटल अवस्थायें हैं। इस प्रामाणिक सत्य से सभी परिचित हैं। महाकवि तुलसीदास जी ने अत्यन्त खेदपूर्वक इस सच्चाई को प्रकट किया था। तुलसी ने लिखा था कि संसार का यह प्रामाणिक सच है कि फल आता है तो उसके बाद वह टूटकर नीचे गिरता भी है। जो बूढ़ा हो जाता है उसकी मृत्यु भी अवश्य होती है। फलने-फूलने के बाद पतझड़ होना भी सुनिश्चित है। लेखक शिरीष के फूलों को सावधान करता है कि वे फूल आते ही यह क्यों नहीं समझ लेते कि डाली से टूटना अवश्यंभावी है। लेकिन लेखक की चेतावनी कोई नहीं सुनता।

मृत्यु पल-पल आघात कर रही है। बूढ़े और दुर्बल उसके शिकार हो रहे हैं। जिनमें थोड़ी बहुत प्राणशक्ति शेष है, वे कुछ समय मृत्यु से बच जाते हैं। मनुष्य की अटूट जीवनी-शक्ति तथा सभी को प्रभावित करने वाली मृत्यु से लगातार टकराहट चल रही है। जो समझते हैं कि जहाँ हैं वहीं पर देर तक स्थिर बने रहें तो मृत्यु से बच जायेंगे, वे मूर्ख हैं, जीवन गतिशील है और वह मत्यु की ओर बढ़ रहा है। ऐसे लोग बड़े अज्ञानी हैं। हिलने-डुलने, चलने-फिरने, स्थान बदलने, आगे की ओर मुँह करने से मृत्यु के कोड़ों की मार से बचा जा सकता है। एक स्थान पर स्थिर रहना तो निश्चित मृत्यु है।

विशेष –

  1. लेखक शिरीष के माध्यम से बता रहा है कि बुढ़ापा और मृत्यु जीवन के दो परम सत्य हैं। इनसे बचना संभव नहीं है। अतः अधिकार लिप्सा प्रकृति विरुद्ध है।
  2. चलना ही जीवन है। स्थिर रहकर मृत्यु से नहीं बचा जा सकता।
  3. भाषा साहित्यिक तथा प्रवाहपूर्ण है। वह संस्कृत अवधूत निष्ठ है।
  4. शैली विचारात्मक तथा व्याकरणात्मक है।

4. कई एक बार मुझे मालूम होता है कि यह शिरीष एक अद्भुत है दुःख हो सुख, वह हार नहीं मानता। न ऊधो का लेना, न माधो का देना। जब धरती और आसमान जलते रहते हैं, तब भी यह हजरत न जाने कहाँ से अपने लिए रस खींचते रहते हैं। मौज में आठों याम मस्त रहते हैं। एक वनस्पतिशास्त्री ने मुझे बताया है कि यह उस श्रेणी का पेड़ है जो वायुमंडल से अपना रस खींचता है। जरूर खींचता होगा, नहीं तो भयंकर लू के समय इतने कोमल तंतुजाल और ऐसे सुकुमार केसर को कैसे उगा सकता था, अवधूतों के मुँह से ही संसार की सबसे सरस रचनाएँ निकली हैं और कबीर बहुत-कुछ इस शिरीष के समान ही थे मस्त और बेपरवाह, पर सरस और मादक। कालिदास भी जरूर अनासक्त योगी रहे होंगे। शिरीष के फूल फक्कड़ाना मस्ती से ही उपज सकते हैं और मेघदूत का काव्य उसी प्रकार के अनासक्त अनाविल उन्मुक्त हृदय में उमड़ सकता है। जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जो किए-कराए का लेखा-जोखा मिलाने में उलझ गया, वह भी क्या कवि है? (पृष्ठ 83)

सन्दर्भ – पुस्तक गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘शिरीष के फूल’ शीर्षक ललित निबन्ध से उद्धृत है। इसके लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं।
प्रसंग – लेखक शिरीष के माध्यम से जीवन का रहस्य बताना चाहता है। जरा तथा मृत्यु जीवन के दो परम लक्ष्य हैं। इनको सदा अटल मानते हुए जीवन के सुख-दुःख को तटस्थभाव से ग्रहण करना मनुष्य के लिए ठीक है। शिरीष इसी सत्य की सीख देता है।

व्याख्या – लेखक कहता है कि कभी-कभी उसको ऐसा लगता है कि शिरीष का यह वृक्ष एक अनासक्त पुरुष है, वह एक विचित्र अवधूत है। वह सुख-दु:ख से अप्रभावित रहकर निरन्तर कर्म करता है तथा कभी हारता नहीं है। वह दोनों विरोधी भावों के बीच तटस्थ तथा अप्रभावित बना रहता है। भयानक गर्मी है। पृथ्वी और आकाश इसके ताप से जले जा रहे हैं। लेकिन ये शिरीष महाशय निश्चिंत हैं। ये न जाने धरती की किस गहराई से अपने लिए जल प्राप्त कर रहे हैं। इस भीषण गर्मी में भी ये मस्त और हरे-भरे बने रहते हैं। वनस्पति विज्ञान के एक विद्वान ने लेखक को बताया था कि शिरीष उन वृक्षों की जाति का है जो वायुमंडल से अपने जीवन की आवश्यक चीजें प्राप्त करते हैं। लेखक उस विज्ञान से सहमत हैं।

यदि ऐसा न होता तो इतनी भीषण धूप-ताप में यह शिरीष इस तरह हरा-भरा नहीं रह सकता था। इतनी भयानक लू में भी उसके ऊपर कोमल पीले तंतुजाल से फूल नहीं खिल सकते थे। अवश्य ही यह अवधूत है। अवधूत ने ही संसार में सबसे सरस रचनाएँ की हैं। कबीर बहुत कुछ इस शिरीष की तरह ही बेपरवाह तथा मस्तमौला थे परन्तु उनमें सरलता तथा मादकता थी। इसी प्रकार महाकवि कालिदास भी अवश्य ही अनासक्त कर्मयोगी रहे होंगे। फक्कड़ों के समान मस्ती के कारण ही शिरीष का पेड़ विपरीत परिस्थिति में भी फूलता रहता है। कालिदास ने मेघदूत नामक काव्य की रचना की थी। ऐसे श्रेष्ठ काव्य की रचना पवित्र और मुक्त हृदय वाला कवि ही कर सकता है। जो कवि आसक्ति से मुक्त तथा मस्त नहीं हो पाता और अपने साहित्य का लेखा-जोखा रखने में ही उलझा रहता है वह लेखक के मत में कवि कहलाने के योग्य नहीं है।

विशेष –

  1. लेखक कहता है कि शिरीष का वृक्ष वायुमंडल से जीवन-रस खींचकर विरुद्ध स्थिति में भी हरा-भरा रहता है। एक अवधूत जैसा दृष्टिकोण उसकी जीवनी शक्ति का कारण है।
  2. एक सच्चा होने के लिए अवधूत होना, अनासक्त होना, मस्तमौला होना, फक्कड़ होना बहुत आवश्यक है।
  3. भाषा सांस्कृतनिष्ठ तथा साहित्यिक है।
  4. शैली विचारात्मक है।’हजरत’ शब्द में व्यंग्य निहित है।

5. मैं तो मुग्ध और विस्मय-विमूढ़ होकर कालिदास के एक-एक श्लोक को देखकर हैरान हो जाता हूँ। अब इस शिरीष के फूल का ही एक उदाहरण लीजिए। शकुन्तला बहुत सुंदर थी। सुंदर क्या होने से कोई हो जाता है? देखना चाहिए कि कितने सुंदर हृदय से वह सौन्दर्य डुबकी लगाकर निकला है। शकुन्तला कालिदास के हृदय से निकली थी। विधाता की ओर से कोई कार्पण्य नहीं था, कवि की ओर से भी नहीं। राजा दुष्यन्त भी अच्छे-भले प्रेमी थे। उन्होंने शकुन्तला का एक चित्र बनाया था; लेकिन रह-रहकर उनका मन खीझ उठता था। उहूँ, कहीं-न-कहीं कुछ छूट गया है। बड़ी देर के बाद समझ में आया कि शकुन्तला के दोनों कानों में उस शिरीष पुष्प को देना भूल गए हैं, जिसके केसर गंडस्थल तथा लटके हुए थे, और रह गया है। शरच्चन्द की किरणों के समान कोमल और शुभ्र मृणाल का हार। (पृष्ठ 84)

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘शिरीष के फूल’ नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं।
प्रसंग – लेखक कहता है कि कालिदास एक महान कवि इस कारण बन सके कि उनमें एक ओर अनासक्त योगी की स्थितप्रज्ञता का गुण था तो दूसरी ओर एक विदग्ध प्रेमी का हृदय था। केवल तुक जोड़ने से कोई कवि नहीं बन जाता।

व्याख्या – लेखक कहता है कि वह कालिदास के एक-एक श्लोकों को पढ़ता है तो उसको विस्मय होता है। वह उनकी काव्य-कला पर मुग्ध हो जाता है। उनका प्रत्येक श्लोक अनुपम है। उदाहरण के रूप में शिरीष के फूल की बात की जा सकती है। कालिदास के नाटक की नायिका शकुन्तला बहुत सुंदर थी। अकारण ही सुन्दर नहीं थी। देखने की बात यह है कि उस सौदर्य की रचना करने वाले का हृदय कितना सुन्दर है। शकुन्तला का चित्रण कालिदास ने अपने हृदय के समस्त सुन्दर मनोभावों की सहायता से किया था। वह उनके हृदय से उत्पन्न हुई रचना थी। ईश्वर ने उसे सुन्दरता देने में कोई कंजूसी नहीं दिखाई थी।

उसे उदारता के साथ सौंदर्य प्रदान किया था और कवि ने भी उसके चित्रण में कोई कमी नहीं रहने दी थी। राजा दुष्यन्त एक गम्भीर प्रेमी थे। उन्होंने शकुन्तला का एक चित्र बनाया था किन्तु उनको लगता था कि चित्र में वह कुछ बनाना भूल गए हैं। वह रह-रहकर खीझ उठते थे। बहुत देर तक सोचते रहने के बाद उनको ध्यान आया कि वह शकुन्तला के कानों में शिरीष के फूल के कर्णफूल पहनाना भूल गए हैं, जिसके केसर जैसे पीले तंतु उसके गालों तक लटके हुए थे। इसके अतिरिक्त वह उसके गले में शरद पूर्णिमा के चन्द्रमा की किरणों के समान कोमल और श्वेत कमल नाल का हार पहनाना भी भूल गए हैं।

विशेष –

  1. शकुन्तला तपोवन की कन्या थी, वहाँ वह शिरीष के फूलों तथा कमलनाल से बने आभूषण से रूप सज्जा करती थी।
  2. शकुन्तला के इस सौन्दर्य के चित्रण से कवि की गहन सौन्दर्य खोजी दृष्टि का परिचय मिलता है।
  3. भाषा सरस तथा संस्कृतनिष्ठ है।
  4. शैली भावात्मक है।

6. कालिदास सौन्दर्य के बाह्य आवरण को भेदकर उसके भीतर तक पहुँच सकते थे, दुःख हो कि सुख, वे अपना भाव-रस उस अनासक्त कृषीवल की भाँति खींच लेते थे, जो निर्दलित ईक्षुदंड से रस निकाल लेता है। कालिदास महान् थे, क्योंकि वे अनासक्त रह सके थे। कुछ इस श्रेणी की अनासक्ति आधुनिक हिन्दी के कवि सुमित्रानंदन पंत में है। कवियर रवीन्द्रनाथ में यह अनासक्ति थी। एक जगह उन्होंने लिखा है- ‘राजोद्यान का सिंहद्वार कितना ही अभ्रभेदी क्यों न हो, उसकी शिल्पकला कितनी ही सुन्दर क्यों न हो, वह यह नहीं कहता कि हममें आकर ही सारा रास्ता समाप्त हो गया। असल गंतव्य स्थान उसे अतिक्रम करने के बाद ही है। यही बताना उसका कर्तव्य है। फूल हो या पेड़, वह अपने-आप में समाप्त नहीं है। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई अँगुली है, एक इशारा है। (पृष्ठ 84)

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘शिरीष के फूल’ शीर्षक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं। यह एक ललित निबन्ध है।
प्रसंग – द्विवेदी जी का कहना है कि एक अच्छा कवि बनने के लिए अनासक्ति की भावना का होना आवश्यक है। कालिदास संस्कृत साहित्य के एक श्रेष्ठ कवि बन सके, उसके पीछे यही कारण था।

व्याख्या – द्विवेदी जी कहते हैं कि कालिदास श्रेष्ठ कवि थे। वह सौन्दर्य के चितेरे थे। वह सौन्दर्य के बाहरी स्वरूप के पीछे छिपे आन्तरिक सौन्दर्य को देखने में समर्थ थे। वह सुख अथवा दु:ख के प्रति तटस्थ भाव अपनाते हुए उसके भीतर स्थित भाव को इसी प्रकार बाहर निकाल लेते थे जिस प्रकार कोई किसान निचोड़े हुए गन्ने से भी रस निकाल लेता है। सांसारिक सुख-दु:ख से विरक्त तथा अप्रभावित होने के कारण ही कालिदास महान् हो सके। कुछ इसी स्तर का अनासक्त भाव हिन्दी के कवि सुमित्रानन्दन पंत में मिलता है। कविश्रेष्ठ रवीन्द्र नाथ ठाकुर में भी यह अनासक्ति भाव था। एक स्थान पर रवीन्द्र ने लिखा है – किसी राजसी उद्यान का सौन्दर्य उसके गगनचुम्बी प्रमुख द्वार में ही नहीं है, न वह उसके सुन्दर शिल्प में ही शामिल है। उसके सौन्दर्य की सीमा वहीं तक नहीं है। असली सौन्दर्य तो उस विशाल भव्य द्वार को पार करने के पश्चात् ही देखने को मिलता है। उसकी स्थापना यही बताने के लिए की गई है। फूल हो अथवा पेड़, सब कुछ उसके साथ ही समाप्त नहीं हो जाता। वह तो एक उँगली है जो किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए और उसकी ओर संकेत करने के लिए है।

विशेष –

  1. बाह्य सौन्दर्य ही सब कुछ नहीं हैं। असली सौन्दर्य तो आन्तरिक सौन्दर्य ही है।
  2. बाह्य सौन्दर्य को बेधकर ही भीतरी सौन्दर्य को देखा जा सकता है। अनासक्त भावना वाला कवि ही ऐसा कर पाता है।
  3. भाषा संस्कृतनिष्ठ तथा गम्भीर साहित्यिक है।
  4. शैली विचारात्मक है।

7. शिरीष तरु सचमुच पक्के अवधूत की भाँति मेरे मन में ऐसी तरंगें जगा देता है जो ऊपर की ओर उठती रहती हैं। इस चिलकती धूप में इतना सरस वह कैसे बना रहता है? क्या ये बाह्य परिवर्तन- धूप, वर्षा, आँधी, लू, अपने आप में सत्य नहीं हैं? हमारे देश के ऊपर से जो यह मारकाट, अग्निदाह, लूट-पाट, खून-खच्चर का बवंडर बह गया है, उसके भीतर भी क्या स्थिर रहा जा सकता है? शिरीष रह सका है। अपने देश का एक बूढ़ा रह सका था। क्यों, मेरा मन पूछता है कि ऐसा क्यों सम्भव हुआ? क्योंकि शिरीष भी अवधूत है, शिरीष वायुमंडल से रस खींचकर इतना कोमल और इतना कठोर हो सका था। मैं जब-जब शिरीष की ओर देखता हूँ तब-तब हूक उठती है- हाय वह अवधूत आज कहाँ है? (पृष्ठ 84)

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘शिरीष के फूल’ शीर्षक ललित निबन्ध से उद्धृत है। इसके लेखक प्रसिद्ध निबन्धकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं।
प्रसंग – लेखक का मानना है कि जीवन का सच्चा आनन्द उसके सुख-दु:ख आदि भावों के प्रति तटस्थता तथा अविचलित रहने से ही प्राप्त होता है। जिसमें यह गुण होता है उसको अवधूत कहते हैं। शिरीष भी एक अवधूत है।

व्याख्या – लेखक का कहना है कि शिरीष एक अवधूत की तरह उसके मन को प्रेरित करता है और उसमें सच्चे आनन्द की ऐसी लहरें पैदा करता है जो सदैव ऊपर की ओर उठती रहती हैं। आशय यह है कि जब व्यक्ति के मन में सुख-दु:ख के प्रति समता भाव उत्पन्न हो जाता है तो उसका आनन्द अन्तहीन हो जाता है। इतनी तेज चिलचिलाती धूप में भी शिरीष हरा-भरा रहता है, फूलों से लदा रहता हैं। प्रकृति के बाहरी परिवर्तन धूप, वर्षा, आँधी, लू आदि कुछ नहीं होते ? क्या इनका कोई प्रभाव नहीं होता। तब शिरीष इनसे अप्रभावित कैसे रह पाता? इसका उत्तर यही है कि उसके भीतर एक अवधूत का मन है।

भारत की स्वाधीनता प्राप्ति के समय भीषण दंगे हुए। एक दूसरे का खून बहाना, लूट-खसोट, दंगों का यह भीषण तूफान देश को हिलाकर गुजर गया। क्या ऐसे अवसर पर भी कोई अविचलित रह सकता है। शिरीष रह सका है अर्थात अवधूत की मन:स्थिति वाला मनुष्य रह सका है। अपने देश के वृद्ध नेता महात्मा गाँधी दंगों से विचलित नहीं हुए थे। लेखक जानना चाहता है कि ऐसा कैसे संभव हो सका? वह स्वयं ही उत्तर देता है कि तब ऐसा इस कारण संभव हो सका कि गाँधी जी संसार के राग-द्वेष से परे थे। शिरीष भी ऐसा है वह वायुमण्डल से अपना जीवन-रस खींचता है और इतना कोमल तथा इतना कठोर रह पाता है। ऐसा वह कर पाता है जो सुख-दु:ख, राग-द्वेष आदि के प्रति विरक्त भाव अपना लेता है। जब भी लेखक शिरीष वृक्ष की ओर देखता है तब तब उसको महात्मा गाँधी की याद आती है और उसके हृदय में एक टीस, एक वेदना उत्पन्न होती है, उसका मन पूछता है- आज गाँधी जैसे संयत मन वाले लोग देश में क्यों नहीं हैं।

विशेष –

  1. राग-द्वेष, सुख-दु:ख के प्रति विरक्ति और संयम ही मन का सच्चा बल है। इसी से जीवन का सच्चा आनन्द प्राप्त होता है।
  2. भाषा तत्सम प्रधान, गम्भीर तथा साहित्यिक है।
  3. शैली भावात्मक है।

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