RBSE Solutions for Class 12 Hindi सरयू Chapter 4 घनानंद

Rajasthan Board RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 4 घनानंद

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 4 पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 4 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
‘कित प्यासनि मारत मोही’ पंक्ति का भाव है –
(क) क्यों प्यासा मारते हो
(क) क्यों मुझसे दूर रहते हो
(ग) क्यों निर्मोही बने हो
(ग) दर्शनों से वंचित क्यों किए हो
उत्तर:
(ग) क्यों निर्मोही बने हो

प्रश्न 2.
प्रेम-मार्ग किनके लिए कठिन है –
(क) कपटियों के लिए
(ख) सरल व्यक्तियों के लिए
(ग) भक्तों के लिए
(घ) संन्यासियों के लिए
उत्तर:
(क) कपटियों के लिए

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 4 अतिलघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
घनानंद किस बादशाह के मीर मुंशी थे ?
उत्तर:
घनानंद मोहम्मद शाह ‘रंगीले’ के मीरमुंशी थे।

प्रश्न 2.
प्रेम-मार्ग पर कौन सुगमता से चल सकता है ?
उत्तर:
सच्चा और निरभिमानी व्यक्ति ही प्रेम मार्ग पर सुगमता से चल सकता है।

प्रश्न 3.
घनानंद की कोई दो रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
घनानंद की दो रचनाएँ हैं- ‘सुजान सागर’ तथा ‘आनंदघन जू की पदावली’ ।

प्रश्न 4.
प्रेम की पीर के सिद्धहस्त कवि कौन थे ?

उत्तर:
प्रेम की पीर के सिद्धहस्त कवि घनानंद थे।

प्रश्न 5.
‘भोर ते साँझ कानन ओर निहारति’ विरही के वन की ओर निहारने का क्या कारण है ?
उत्तर:
प्रिय-दर्शन की लालसा में विरहिणी, उनके वन से लौटने की प्रतीक्षा करती हुई प्रात: से सायं तक वन की ओर निहारती रहती है।

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 4 लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
मनभावन प्रियतम के सम्मुख होने पर भी विरही को उसका दर्शन लाभ नहीं मिलता। कारण बताइए।
उत्तर:
कवि घनानंद की विरही अपने प्रियतम के दर्शन पाने को व्याकुल रहता है। उसका दिन सबेरे से शाम तक वन की ओर निहारते बीतता है और रात तारे गिनते हुए बीतती है। इस पर भी जब प्रिय दर्शन का अवसर आता है, तो उसकी आँखों से आँसुओं की गंगा-यमुना प्रवाहित होने लगती है। बेचारा विरही प्रिय के सामने होते हुए भी दर्शन लाभ से वंचित रह जाता है। इसे उसके दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है।

प्रश्न 2.
‘मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं उक्त पंक्ति के आधार पर विरही की पीड़ा स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कवि घनानंद छंद के आरम्भ में ही स्पष्ट कहते हैं।’अति सूधो सनेह को मारग है, जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं’ प्रेम का यह मार्ग सच्चों के लिए ही बना है। सयानों और कपटियों के लिए नहीं । पर घनानंद की प्रेयसी तो प्रेम को भी स्वार्थ तराजू पर तोलती है। वह प्रेमी का तो पूरा मन और तन चाहती है किन्तु बदले में छटाँक भी भी प्रेम देना नहीं चाहती। ऐसे कपटी से प्रेम करके विरही को जीवन भर पीड़ा ही झेलनी पड़ती है। वह पीड़ा ही कवि के हिस्से में आई है।

प्रश्न 3.
“मीत सुजान अनीत करौ जिन” छंद में कवि ने सुजान को उपालंभ क्यों दिया है?
उत्तर:
कवि घनानंद ने इस छंद में सुजाने के भावनात्मक अत्याचारों का कड़ा विरोध किया है। जिस प्रेमी ने प्रिय पर अपना सब कुछ लुटा दिया-पद-सम्मान-निवास स्थान वहीं निर्मोही उसे प्रेम के प्यासे को प्यासा मारे तो भी वह चुप रहे ! यह बड़ा अन्याय होगा। ऐसे विश्वासघाती को उपालम्भ (उलाहना) भी न दिया जाए ? यह कवि घनानंद के अति सहनशील प्रेम की उदारता ही है कि वह निष्ठुर सुजान को केवल उलाहना ही दे रहे हैं। वरना प्रेम में दगा के तो गम्भीर दुष्परिणाम देखे जाते हैं।

प्रश्न 4.
विरह की स्थिति अत्यंत करुणाजनक होती है। प्रथम छंद के आधार पर प्रमाणित कीजिए।
उत्तर:
प्रथम छंद में भुक्तभोगी घनानंद का उत्पीड़ित हृदय ही करुणा की मूर्ति के रूप में सामने आया है। बेचारी विरहिणी प्रिय दर्शन की आशा में सारा दिन वन के मार्ग को निहारती हुई बिता देती है और उसकी रातें एकटक तारों को ताकते बीत रही हैं। इस पर भी प्रियदर्शन का अवसर आता है, तो अपने आँसू ही बैरी बनकर आँखों को प्रिय दर्शन में असमर्थ बना देते हैं। इस विरहिणी की ‘मोहन-सोहन जोहन’ की प्रतीक्षा का अंत ही नहीं आता। भला इससे अधिक दयनीय स्थिति और क्या हो सकती है।

प्रश्न 5.
काहू कलपाय है सु कैसे कल पाय है ! पंक्ति का भावार्थ लिखिए।
उत्तर:
अपनी विकलता निष्ठुर प्रिय तक पहुँचाने के लिए घनानंद ने अनेक प्रयास किए हैं। कभी रो-कलप कर, कभी गिड़गिड़ाकर, कभी व्यंग्य का सहारा लेकर उन्होंने अपनी विरह-व्यथा सुजान तक पहुँचानी चाही है। प्रस्तुत पंक्ति एक प्रचलित लोकोक्ति है। जिसका भाव है कि जो दूसरों को कलपाएगा, तड़पाएगा वह स्वयं भी चैन से नहीं रह पाएगा। लगता है कवि के घायल हृदय ने इन शब्दों के माध्यम से निर्मोही सुजान को ‘मृदुल शाप’ दिया है। मुझे तुमने बहुत सताया है, कलपाया है, एक दिन तुम भी ऐसी तड़पोगी। कबीर भी कहे गए हैं- दुरबल को न सताइए ताकी मोटी आहे।

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 4 निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
घनानंद के काव्य में विरह की प्रधानता है। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पाठ्यपुस्तक में संकलित घनानंद के सभी छंद विरहिणी पीर के करुण गीत हैं। पहले छंद में तो कवि ने विरह को मूर्तिमान ही कर दिया है। विरहिणी के रूप में कवि ने विरह की ही दिनचर्या प्रस्तुत कर दी है। विरही के हृदय का संताप पंक्ति-पंक्ति से झलक रहा है। कहीं विरही ‘गुमानी’ प्रिय के व्यवहार से ग्लानि का पान करते हुए घुटघुट कर जी रहा है। व्याकुलता के विषैले बाणों को छाती पर झेल रहा है। अंगारों की सेज पर सोना अपनी नियति मानकर, अपने भाग्य को कोस रहा है। निर्दयी और विश्वासघाती प्रिय जब पहचानने से भी इंकार कर दे तो प्रेमी की अवस्था बड़ी दयनीय हो जाती है। जिसकी मीठी-मीठी बातों में आकर प्रेमी ने अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया। उसी के द्वारा ऐसी असहनीय उपेक्षा पाकर विरही की क्या दशा होती है। यह कवि घनानंद ने अपने छंद में उजागर कर दिया है।

विरह व्यथा की चरम अवस्था चौथे छंद में सामने आती है। बेचारा विरही, निष्ठुर प्रिय के व्यवहार से व्याकुल होकर, गिड़गिड़ाता हुआ, दया की याचना कर रहा है। ‘मीत सुजान अनीत करो जनि, हा हा न हूजिए मोहि अमोही। परन्तु निर्मोही ‘सुजान’ को उसके ‘प्राण-बटोही’ को प्यासा मारने में तनिक भी संकोच नहीं हो रहा है। अंत में यही कह सकते हैं कि जो प्रिय, ‘मन’ लेकर ‘छटाँक’ भी देना नहीं चाहता, उसके आगे कोई वश नहीं चलता। घनानंद का काव्य विरह प्रधान है, इसमें कोई संशय नहीं रह जाता।

प्रश्न 2.
पठित छंदों के आधार पर घनानंद की काव्य-कला का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पाठ्यपुस्तक में संकलित घनानंद के छंदों के आधार पर उनकी काव्य-कला की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं कला पक्ष-भाषा-शैली-कवि ने ब्रजभाषा के मानक स्वरूप का प्रयोग करते हुए, भाषा की सामर्थ्य से ब्रजभाषा प्रेमियों की प्रशंसा अर्जित की है। घनानंद ब्रज भाषा के मर्मज्ञ हैं। भाव प्रकाशन के लिए आवश्यक सटीक शब्द उनकी वाणी में स्वयं खिंचे चले आते हैं। कवि ने ब्रज भाषा के मुहावरों का तथा लोकोक्तियों का कलात्मक रूप से प्रयोग किया है। कुछ उदाहरण दर्शनीय हैं ‘प्राने घट घोटिबौ’, ‘आगे उर ओटिबो’, ‘अँगारन पे लोटिबौ’, “लागी हाय-हाय है’, ‘जिय जारत’, ‘टेक गहै’, ‘प्यासनि मारत’ आदि मुहावरे तथा काहू कलपाय है, से कैसे कल पाय है। ‘अति सूधौ सनेह को मारग है, जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं। कवि की कथन शैली भाव प्रधान है। मन की कोमल भावनाओं को प्रभावी रूप से प्रकाशित करने में कवि सफल है। रस, छंद तथा अलंकार-घनानंद की रचनाओं का प्रधान रस वियोग श्रृंगार है। वियोग की सभी अवस्थाएँ तथा अनुभाव इन छंदों में उपस्थित हैं।

कवि ने कवित्त तथा सवैया छंदों का सफल निर्वाह किया है। छंदों में गेयता और सहज प्रवाह है। कवि अलंकारों के चमत्कार प्रदर्शन से बचा है। अनुप्रास, रूपक, यमक आदि अलंकार सहज भाव से आते रहे हैं। भाव पक्ष-कवि का भावपक्ष ही काव्य रसिकों को मुग्ध करता रहा है। निरंतर विरह की गाथाएँ सुनते हुए भी पाठक या श्रोता ऊबता नहीं है। कवि ने वियोग की अनेक अवस्थाओं को शब्दों में उतारा है। कवि के भाव-प्रकाशन में कातरता है, अश्रु प्रवाह है, दीन उचित है, हाय-हाय है, उपालम्भ है और व्यंग्य तथा शाप भी है। इस प्रकार कवि घनानंद की काव्य कला में प्रौढ़ता और मार्मिकता दोनों का सुखद संतुलन मिलता है।

प्रश्न 3.
घनानंद के व्यक्तित्व तथा कृतित्व पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
व्यक्तित्व – कवि घनानंद बादशाह मोहम्मद शाह ‘रंगीले’ के दरबार के मीर मुंशी हुआ करते थे। गुणी व्यक्ति थे। बादशाह के कृपापात्र थे। बड़े अधिकारी थे। लेकिन थे तो मनुष्य ही। दरबार की नर्तकी और गायिका को हृदय दे बैठे। इस ‘सुजान के अंध-प्रेम ने उनको इतना कुप्रभावित कर डाला कि उन्होंने फरमाइश किए जाने पर ‘सुजान’ की ओर मुख और बादशाह की ओर पीठ करके अपना गायन पेश किया।

दरबारी अदब का यह अपमानजनक उल्लंघन घनानंद को बहुत महँगा पड़ा। पद तो छिन ही गया, देश-निकाला भी मिल गया। यह भी बादशाह का उन पर बड़ा अहसान था। अन्यथा निरंकुश शासक कुछ भी दण्ड दे सकता था। जिस ‘सुजान’ पर घनानंद ने अपना मान, सम्मान, पद सब कुछ दाव पर लगाया था, उसी विलास की पुतली ने उनके साथ जाने से साफ मना कर दिया। टूटा दिल लेकर घनानंद वृन्दावन चले आए और अहमद शाह द्वितीय के आक्रमण के समय मचे कत्लेआम में काट डाले गए। घनानंद का काव्यपरक व्यक्तित्व एक परिपक्व प्रेमी के वियोगी हृदय का मंद-मंद विलाप है। ऐसे गुणी व्यक्ति का ऐसा करुण अंत हृदय को बड़ी पीड़ा पहुँचाता है।

कृतित्व – कवि घनानंद ब्रज भाषा के टकसाली कवि हैं। रीतिकालीन कवि होते हुए भी उनकी रचनाओं में संयमित विरह वर्णन हुआ है। उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ इस प्रकार हैं सुजान सागर, विरह लीला, कोकसार, कृपाकंद निबन्ध, रसकेलि वल्ली, सुजान हित, सुजान हित प्रबंध, घन आनंद कवित्त, इश्कलता, आनन्द घन जू की पदावली आदि।

प्रश्न 4.
पाठ में आए निम्नलिखित पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए
(क) ‘भए अति निठुर …… सु कैसे कल पाय।
(ख) अति सूधो सनेह को मारग है ……. छटाँक नहीं।
उत्तर:
(संकेत – छात्र ‘सप्रसंग व्याख्याएँ प्रकरण में इन पद्यांशों की व्याख्याओं का अवलोकन करें तथा स्वयं व्याख्याएँ लिखें।)

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 4 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 4 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
विरहिणी प्रातःकाल से सायंकाल तक निहारती रहती है
(क) अपने भवन के द्वार को
(ख) श्रीकृष्ण के चित्र को
(ग) वन की दिशा को
(घ) अपनी सखी-सहेलियों को
उत्तर:
(ग) वन की दिशा को

प्रश्न 2.
कवि घनानंद के भाग में आया है
(क) अंगारों पर लेटना
(ख) अपने प्रिय का प्रेम
(ग) सुख से जीना
(घ) लोगों की उपेक्षा
उत्तर:
(क) अंगारों पर लेटना

प्रश्न 3.
सुजान ने घनानंद को ठग लिया था
(क) अपने सौन्दर्य से।
(ख) अपनी मीठी बातों से
(ग) सदा साथ देने के आश्वासन से
(घ) प्रेम के नाटक से।
उत्तर:
(ख) अपनी मीठी बातों से

प्रश्न 4.
कवि घनानंद के ‘प्रान बटोही’ बसे हुए थे
(क) सुजान पर विश्वास करके
(ख) मिलन की आशा में
(ग) सच्चे प्रेम के बल पर
(घ) मित्रों के धीरज बँधाने पर
उत्तर:
(क) सुजान पर विश्वास करके

प्रश्न 5.
“सनेह के मारग’ की सबसे बड़ी विशेषता है|
(क) अत्यन्त कठिन होना
(ख) पग-पग पर परीक्षाएँ होना
(ग) निष्कपट होना।
(घ) बहुत लम्बा होना
उत्तर:
(ग) निष्कपट होना।

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 4 अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
घनानंद की विरहिणी का दिन कैसे कटता है?
उत्तर:
विरहिणी का दिन निरंतर वन की ओर देखते हुए बीतता है।

प्रश्न 2.
विरहिणी की रातें कैसे कटती हैं?
उत्तर:
विरहिणी की रातें एकटक तारों की ओर ताकते हुए कटती हैं।

प्रश्न 3.
श्रीकृष्ण के सामने आने पर उनके दर्शन में कौन बाधक बन जाता है ?
उत्तर:
श्रीकृष्ण के सामने आने पर विरहिणी की आँखों के आँसू दर्शन में बाधक हो जाते हैं।

प्रश्न 4.
विरहिणी के नेत्रों को सदा किस बात की लालसा बनी रहती है ?
उत्तर:
विरहिणी की आँखों को श्रीकृष्ण के सुन्दर और मनमोहक रूप को देखने की लालसा बनी रहती है।

प्रश्न 5.
कवि घनानंद को दिन-रात क्या करना पड़ता है ?
उत्तर:
कवि को सुजान के अहंकारपूर्ण विषैले व्यवहार को सहन करते हुए अपने प्राणों को भीतर-ही-भीतर दबा कर रखना पड़ता है।

प्रश्न 6.
‘हेत-खेत’ से कवि का आशय क्या है ?
उत्तर:
हेत-खेत से कवि का आशय प्रेम को एक रणभूमि के समान बताना है। जहाँ प्रेमी को हर मूल्य पर टिका रहना पड़ता है।

प्रश्न 7.
कवि को अपमी छाती पर क्या झेलना पड़ता है ?
उत्तर:
कवि अपनी छाती पर व्याकुलतारूपी विष के बाणों को झेलना पड़ता है।

प्रश्न 8.
कवि के अनुसार उसके भाग में क्या आया है ?
उत्तर:
कवि के कथनानुसार उसके हिस्से में अंगारों की शय्या पर सोना अर्थात् विरह की घोर पीड़ा सहते रहना आया है।

प्रश्न 9.
कवि घनानंद ने सुजान को ‘अतिनिष्ठुर क्यों कहा है?
उत्तर:
सुजान अति निष्ठुर इसलिए हैं कि उसने तो घनानंद को पहचानने से भी इन्कार कर दिया है।

प्रश्न 10.
कवि क्या नहीं भुला पा रहा है ?
उत्तर:
कवि निर्मोही सुजान द्वारा किए गए कठोर व्यवहार की काँटों से छेदने जैसी पीड़ा को नहीं भुला पा रहा है।

प्रश्न 11.
कवि ने सुजान के किस व्यवहार को ‘अन्याय’ कहा है ?
उत्तर:
कवि ने सुजान द्वारा पहले मीठी-मीठी बातों से ठगने और अब रूखे व्यवहार से उसके जी को जलाने को अन्याय कहा है।
प्रश्न 12.
हा हा न हूजिए मोहि अमोही’ पंक्ति से कवि घनानंद के मन की किस दशी का बोध होता है ?
उत्तर:
इस पंक्ति में सुजाने के हृदय को लगे आघात के कारण उसके मन की कातरता तथा दयनीय दशा का बोध होता है।

प्रश्न 13.
‘प्रान-बटोही’ में कौन-सा अलंकार है ? लिखिए।
उत्तर:
प्रान बटोही में रूपक अलंकार है।

प्रश्न 14.
कवि घनानंद को कौन प्यासा मार रहा है ?
उत्तर:
अपने निष्ठुर व्यवहार से सुजान ही कवि को प्यासा मरते व्यक्ति के समान तड़पा रही है।

प्रश्न 15.
प्रेम के मार्ग को ‘अति सूधो’ बताने का आशय क्या है ?
उत्तर:
आशय है कि प्रेम-संबंध में चतुराई और कुटिलता का कोई स्थान नहीं होता । सीधा-सच्चा व्यक्ति प्रेम मार्ग पर चलने का अधिकारी है।

प्रश्न 16.
“यहाँ एक ते दूसरो आँक नहीं’ इस कथन का भाव क्या है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सच्चा प्रेम, प्रिय और प्रेमी दोनों के तन-मन के भेद को मिटाकर उन्हें एकाकार कर देता है। वे दो नहीं रह जाते हैं। यही इस कथन का भाव है।

प्रश्न 17.
“तुम कौन धौं पाटी पढ़े हो’ इस प्रश्न में छिपा व्यंग्य क्या है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
इस प्रश्न में घनानंद ने व्यंग्य किया है कि सुजान ने केवल सब कुछ लेकर, कुछ न देने का पाठ पढ़ा है। वह कभी प्रेम की पात्र नहीं हो सकती।

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 4 लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
कवि घनानंद ने प्रेम पीर वर्णन पाठ के प्रथम छंद में विरहिणी की दशा का वर्णन किया है। उसे संक्षेप में अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
घनानंद की इस विरहिणी की दशा बड़ी दयनीय है। यह बेचारी सारे दिन वन की ओर देखते हुए नहीं थकती । प्रिय के वने से लौटने की प्रतीक्षा, इसे वन का मार्ग निहारते रहने को बाध्य करती रहती है। इसकी रातें भी तारे गिनते बीत रही हैं। इस सबसे अधि कि कष्टदायक बात यह है कि यदि कभी इसके मनभावने इसके सामने आ भी जाते तो बैरी आँसू आँखों में उमड़ पड़ते और प्रियतम के सामने होते हुए भी यह उन्हें नहीं देख पाती। यही कारण है कि इसके नेत्रों में मनमोहन को देखने की लालसा सदा बनी रहती है।

प्रश्न 2.
कवि घनानन्द ने अपने प्रिय के ‘गुमान’ को क्यों बताया है और उसे इसका क्या परिणाम भोगना पड़ रहा है ?
उत्तर:
कवि ने अपनी प्रिया सुजान के गुमान को विष के तुल्य बताया है। इस मन को ग्लानि से भर देने वाले, गला देने वाले गरल का उसे निरंतर पान करना पड़ता है। सुजाने के निष्ठुर व्यवहार को सहना पड़ता है। इस अपमानजनक दशा को वह घुट-घुट कर सहन किया करता है। शिकायत करे तो किससे ?

प्रश्न 3.
‘विष-समुदेग-बान’ आगें उर ओटिबौ’ कवि के इस कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
किसी कवि ने प्रेम को कठिन परीक्षा मानते हुए कहा है-(यह) आग का दरिया है और डूब के जाना है-प्रेम आग की नदी है, जिसे किसी नाव द्वारा नहीं, बल्कि तैर कर पार करना होता है। कवि घनानंद ने इसी सच्चाई को अपने शब्दों में, दो सदी से भी पहले कह दिया था। उपर्युक्त पंक्ति का भाव यही है कि विरह की व्याकुलता एक प्राणघाती विष है, जिसमें बुझे बाणों (प्रिय के कठोर व्यवहार) को कवि को अपनी छाती पर झेलना पड़ रहा है। पर जब प्रेम किया है तो कठोर से कठोर परीक्षा भी देनी ही होगी। कवि ने इसे प्रेमी की नियति माना है।

प्रश्न 4.
“तिन्हें ये सिराति छाती’ तोहि वै लगति ताती’ इस पंक्ति द्वारा कवि ने क्या कहना चाहा है ? सम्बद्ध छंद के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कवि घनानंद का अपने प्रेम पथ पर चलते हुए प्रिय सुजान की कृपा से अनेक कष्ट झेलने पड़ रहे हैं। सुजान पर उनकी इस दशा को कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है। कवि ने उपर्युक्त पंक्ति द्वारा इस कष्ट का सारा दोष अपनी नियति पर डाल दिया है। वह कह रहा है कि उसकी इस दुर्दशा से उसकी सुजान की छाती में तो ठण्डक पड़ रही है और यह दशा उनको संताप से जला रही है। इससे तो यही लगता है कि कवि उसके (कवि के) भाग्य में अंगारों पर लेटना विरह की ज्वाला में जलते रहना ही लिखा है।

प्रश्न 5.
कवि घनानंद निरंतर हाय-हाय क्यों पुकारते रहते हैं ? कारण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कोई भी व्यक्ति हाय-हाय तभी पुकारता है जब उसे कोई मर्मभेदी कष्ट सता रहा होता है। घनानंद भी उस ‘निपट निरदई विश्वासघाती के द्वारा चुभाए गए आघातों के काँटों से छलनी हो चुके हैं। यह पीड़ा, यह चुभने ही उन्हें हाय-हाय पुकारने को विवश कर रही है। वह प्रेम का अभिनय करने वाली तो उनको भूल गई, पर वह उसके लिए आघातों को कैसे भूल जाएँ ?

प्रश्न 6.
“काहु कलपाय है सु, कैसे कल पाय है? कवि घनानंद ने यह कहावत किसे और क्यों याद दिलाई है ? लिखिए।
उत्तर:
कवि ने यह कहावत उसे कलपाने, तड़पाने वाली सुजान को याद दिलाई है। उस ठगिनी ने पहले तो मीठी-मीठी बातें करके, उस सरल हृदय प्रेमी का मन वश में कर लिया और अब अपने निष्ठुर व्यवहार से उसके जी को जला रही थी। कवि ने अत्यन्त खिन्न होकर उसे उपालम्भ दिया है। वह आज उसे कलपा तो रही है, पर वह भी चैन से नहीं रह पाएगी । एक दिन वह भी उसी की तरह तड़पेगी।

प्रश्न 7.
दई कित प्यासनि मारत मोही’ कवि घनानंद ने यह किससे और क्यों कहा है ? लिखिए।
उत्तर:
घनानंद ने यह व्यंग्य मिश्रित उलाहना, सुजाने को लक्ष्य करके दिया है। सुजान ने घनानंद के विश्वास को भंग करके उनकी आशाओं को चूर-चूर कर डाला। उस निष्कपट, पर प्रेम पथिक को दयनीयता के मरुस्थल में प्यासा मरने को छोड़ दिया। कवि ने पलटवार करते हुए उससे पूछा है- तुम तो आनन्द का घन (बादल) र्थी, जीवन (जल) का आधार र्थी, तो फिर दुर्देव बनकर मुझे प्यासा क्यों मार रही हो। सुजान जैसी स्त्रियाँ भला ऐसे प्रश्नों का क्या उत्तरे दे सकती हैं।

प्रश्न 8.
प्रेम के मार्ग को कवि घनानन्द ने कैसी परिचय दिया है ? क्या आप इसे सही मानते हैं ? अपना मत लिखिए।
उत्तर:
प्रेम के मार्ग का तात्पर्य है- दो व्यक्तियों के बीच प्रेम सम्बन्ध का निभाया जाना । प्रेम को निभाने के लिए पहली शर्त होती है, प्रिय और प्रेमी का निष्कपट व्यवहार । जहाँ दोनों के बीच चतुराई और दुराव आया, प्रेम का यह सफर असफल हो जाएगी। सच्चे प्रेमी प्रेम के पथ पर अहंकार का त्याग करके चला करते हैं। प्रेम में एक दूसरे को सब कुछ देने की होड़ रहा करती है। लेने की नहीं । कवि का यह मत, भले ही आज-कल के प्रेम को मात्र मनोरंजन या खेल मानने वाले, युवाओं को स्वीकार न हो, परन्तु प्रेम का आदर्श और निभाने वाला रूप यही है।

RBSE Class 12 Hindi सरयू Chapter 4 निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
कवि घनानंद के विरह वर्णन की प्रमुख विशेषताएँ संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
हमारी पाठ्यपुस्तक में कवि घनानंद के पाँच छंद संकलित किए गए हैं। इन पाँचों छंदों का विषय विरह वर्णन है। इन छंदों से कवि के विरह वर्णन की अनेक विशेषताएँ सामने आती हैं। घनानंद ने इस विरह को स्वयं भोगा था। यद्यपि उनका लौकिक प्रेम, आघात लगने पर भक्तिपरक बन गया, परन्तु वह अपने लौकिक प्रेम की आधार सुजान को हृदय से पूरी तरह नहीं निकाल पाए। उन्होंने अपने इष्ट को भी सुजान, प्यारे सुजान, जान आदि नामों से संबोधित किया है।

घनानंद के विरह वर्णन की सर्वोपरि विशेषता उसकी सादगी और मार्मिकता है। उसमें अन्य रीतिकालीन कवियों के समान विरह को शब्द जाल का तमाशी नहीं बनाया गया है। प्रथम छंद में कवि ने प्रिय वियोग में व्याकुल एक विरहिणी की दिनचर्या को वर्णन किया है। ‘मोहन, सोहन’ संबोधन से अनुमान होता है कि वह कृष्ण-मिलन को व्याकुल, एक ब्रजबाला का चित्रांकन है। निरंतर वन की ओर ताकना, रातें तारे गिनते ही बिताना, सामने आने पर भी अपने मनभावन को जी भर कर न देख पाना और निरंतर उनकी प्रतीक्षा में आँखें बिछाए रहना आदि चेष्टाएँ वियोग अथा विप्रलंभ श्रृंगार का सर्वांगपूर्ण चित्र प्रस्तुत कर रही हैं।

अन्य छन्दों में कवि ने स्वयं को ही रस (वियोग श्रृंगार) का आश्रय बनाया है। सुजान आलम्बन है। कवि की उक्तियाँ अनुभाव हैं, पल-पल बदलती मनोभावनाएँ संचारी भाव हैं। घनानंद के विरह-वर्णन की एक विशेषता कवि द्वारा प्रयुक्त मर्मोक्तियाँ भी हैं। तिन्हें ये सिराति छाती ………. अंगरानि पै लोटिबौ” मिटाय पहिचानि डारी, अब जिय जारत ………. न्याय है दई, कित प्यासनि मारत मोही ” तथा “मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं आदि ऐसे ही मर्म को छू लेने वाले कथन हैं। घनानंद का विरह-वर्णन अपने आप में अनूठा है, ब्रज भाषा की अनुपम निधि है।

प्रश्न 2.
घनानंद का विरह-वर्णन आपको किस रूप में प्रभावित करता है। अपने विचार संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
घनानंद का विरह वर्णन एक असफल प्रेम-कथा की प्रतिक्रिया कहा जा सकता है। प्यार में धोखा खाना और एक दूसरे पर अरोप लगाना एक सामान्य घटना है। परन्तु यह विरह-वर्णन एकपक्षीय है। दूसरा पक्ष ‘सुजान’ यहाँ अनुपस्थित है। यदि घनानंद के आरापों और उपालम्भों को सही मान भी लिया जाय तो भी ‘सुजान’ को अरोपी सिद्ध कर पाना आज की कसौटियों पर कठिन ही होगा। आज के युवावर्ग को इन कविताई प्रेम परम्परा में कोई रुचि नहीं है। धोखा खाने पर होने वाली प्रतिक्रिया भी कहीं उग्र और वीभत्स हो गई है। मारपीट, दुर्वचन पर ही नहीं रुकती बल्कि नारी के जीवन को बरबाद करने वाले एसिड अटैक तक जा पहुँचती है।

फिर भी इस सच्चाई से इन्कार नहीं किया जा सकता है। प्रेम बड़ा पवित्र और दोनों ही पक्षों से समर्पण की अपेक्षा रखने वाला, जीवनव्यापी रिश्ता होता है। तू नहीं, और सही जैसी मौजमस्ती या मजाक नहीं होता। पर आज तो तलाक का ‘तड़ाक से पड़ने वाला तमाचा’ इस पवित्र बंधन को तार-तार कर रहा है। घनानंद का विरह वर्णन इस रूप में आज भी प्रासंगिक है और गम्भीर विचार-विमर्श आमंत्रित करता है।

कवि – परिचय :

कवि घनानंद रीतिकाल की रीति-मुक्त काव्य धारा प्रवाहित करने वाले सक्षम और मौलिक उद्भावनाएँ प्रस्तुत करने वाले उल्लेखनीय कवि हैं। घनानंद का जन्म सन् 1746 ई. में माना जाता है। यह मुहम्मद शाह रंगीले के दरबार में ‘मीर मुंशी’ पद पर कार्यरत रहे। वहाँ ‘सुजान’ नामक एक वेश्या पर मुग्ध रहने के कारण मुहम्मदशाह ने इनको देशनिकाला दे दिया। आग्रह करने पर भी सुजान ने इनका साथ नहीं दिया। आहत होकर घनानंद वृन्दावन चले गए परन्तु सुजान को फिर भी न भुला पाए और अपनी कविता में उसे सम्बोधित करते हुए अनेक मर्मस्पर्शी रचनाएँ की। कहा जाता है कि अहमदशाह के आक्रमण के समय यह मथुरा में मारे गए।

रचनाएँ – ‘घनानंद कवित्त’, ‘सुजान सागर’, वियोग बेलि, विरह लीला, कृपाकंद निबन्ध, कोकसार, रसकेलि वल्ली, सुजान विनोद, सुजान हित प्रबन्ध, सुजान हिते, इश्कलती, जमुनाजस, ‘आनंदघन जू की पदावली आदि इनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। घनानंद की रचनाएँ प्रेम की पीर को आधार करने में बेजोड़ रही हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इनको प्रेम-मार्ग का प्रवीण पथिक कहा है। भाषा पर अधिकार के मामले में ब्रज भाषा के कम ही कवि इनकी समता में आते हैं।

पाठ – परिचय :

प्रस्तुत पाठ ‘प्रेम-पीर-वर्णन’ में कवि घनानंद के पाँच छंद संकलित हैं। इन छन्दों में कवि के वियोगी हृदय की पीड़ा प्रवाहित हुई है। प्रातः से शाम तक और शाम से प्रात: तक घनानंद के हृदय में बैठी विरहिणी अपने प्रिय के ध्यान में ही डूबी रहती है। कवि ने बड़े मार्मिक शब्दों में वियोग-विष की आग के संताप का वर्णन किया है। उसे लगता है कि उसके भाग्य में तो बस अंगारों की सेज पर लेटना ही आया है। कभी कवि को विश्वासघाती प्रिय की निष्ठुरता, मधुरवाणी का छल और फिर मुँह फेर लेना, याद आता है, तो कभी वह प्रिय को उलाहना देता है कि उसे कष्ट देकर, वह स्वयं भी सुखी न रह पा सका। कभी वह अनीतिकर्ता सुजान को, तो कभी दैव को कोसता है। अंत में वह, प्रिय ‘लता’ को उलाहना देते हुए-मन लेहु पै देहु छटांक नहीं चुप रह जाता है।

पद्यांशों की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्याएँ

1. भोर ते साँझ लौं कानन ओर, निहारति बाबरी नैकु न हारति।
साँझते भोर लो तारनि ताकिबौ, तारनि सों इकतार न टारति।
जौ कहूँ भावतौ दीठि परै, घन-आनन्द आँसुनि औसर गारति।।
मोहन, सोहन, जोहन की लगियै रहै आँखिने के उर आरति।।1।।

कठिन शब्दार्थ – भोर = सबेरा । साँझ = संध्या, शाम। लौं = तक। कानन = वन। ओर = तरफ। निहारति = देखती रहती। नैंकु = तनिक भी। निहारित = नहीं थकती। तारनि = तारों को। ताकिबौ = ताकना, देखते रहना। तारिन = आँखों के तारे, पुतलियाँ । इकतार = एकटक, निरंतर । न टारति = नहीं हटाती। जो कहूँ = यदि कभी । भावतो = प्रिय, मन को सुहाने वाला। दीठिपरै = दिखाई पड़ता है। घन आनंद = कवि घनानंद, अत्यन्त प्रसन्नता । औसर = अवसर। गारति = गला देती है, सुअवसर पूँवा देती है। मोहन = प्रिय कृष्ण । सोहन = शोभन, सुंदर, सामने । जोहन की = देखने की। लगियै रहै = लगी ही रहती है। उर = हृदय। आरति = करुण, इच्छा, लालसा ।।

सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत छंद हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कवि घनानंद के छंदों से लिया गया है। इस छंद में प्रेम की पीर के विशेषज्ञ घनानंद ने एक विरहिणी की आकुलता और अनुभावों का बड़ा सजीव और मार्मिक वर्णन किया है।

व्याख्या – कवि घनानंद कहते हैं-यह बावली विरहिणी प्रात:काल से सायंकाल तक, प्रिय कृष्ण की प्रतीक्षा करती हुई, वन की ओर, देखते हुए थकती नहीं है। इसी प्रकार सायं से प्रात: तक आकाश में तारों को एकटक निहारती हुई, पल के लिए भी अपनी दृष्टि नहीं हटाती है। यदि कृष्ण-दर्शन को लालायित इस विरहिणी को कभी इसके मनभावन सामने दिख जाते हैं तो यह पगली उस सुअवसर को अपने आँसुओं में आँवा देती है। इसके नेत्रों से बहते आँसू इसे जी भरकर अपने प्रियतम को देखने नहीं देते। यही कारण है कि इसकी आँखों को सुन्दर मनमोहन को देखने की अथवा मनमोहन को सामने देखने की इच्छा-लालसा कभी संतुष्ट नहीं हो पाती । इसके नेत्र अपने परम प्रिय को सदा अपने सामने ही देखते रहना चाहते हैं।

विशेष –

  1. वियोगी घनानंद ने इस छंद में स्वयं को ही एक व्यथित वियोगिनी का रूप प्रदान किया है।
  2. भुक्तभोगी कवि से अधिक एक विरही हृदयी दशा और कौन वर्णन कर सकता है।
  3. ‘अपलक बाट जोहना’, ‘रात’ को तारे देखते हुए बिताना, ‘प्रियदर्शन होते ही अविरल अश्रुधार बहाना’ और ‘आँखों में सदैव प्रिय को सामने देखने की अतृप्त लालासा बनी रहना’ आदि अनुभावों से छंद में वियोग श्रृंगार को साकार कर दिया है।
  4. ब्रज भाषा का अविकल स्वरूप और सहज प्रवाह, कवि की विशेषता है।
  5. वर्णन शैली भावुकता से ओत-प्रोत है। शब्द चित्र अंकित करने में कवि की निपुणता शैली को चित्रांकनमयी बना रही है।

2. गरल गुमान की गरावनि दसा को पान
करि करि द्यौस-रैनि प्रान घट घोटिबो।।
हेत-खेत-धूरि चूर-चूरि साँस पाँव राखि,
बिष-समुदेग-बान आगें र ओटिबो।
जान प्यारे जौ न मन आनँ, तौ आनंदघन,
भूलि तू न सुमिरि परेखै चख चोटिबो।
तिन्हैं ये सिराति छाती तोहि वै लगति ताती,
तेरे बाँटें आयौ है, अँगारनि पै लोटिबो।।2।।

कठिन शब्दार्थ – गरल = विष। गुमान = गर्व, अहंकार। गरावनि = गलाने वाली, पीड़ादायक। दसा = दशा, अवस्था । पान = पीना, सहन करना। द्यौस-रैनि = दिन-रात । घट = हृदय में, भीतर ही भीतर। घोटिबो = घोटना, घुटे रहना। हेत-खेत-धूरि = प्रेमरूपिणी रणभूमि। चूर-चूर = अत्यन्त थकी हुई । पाँव राखि = पैर रखना, संघर्ष करना। विष समुदेग बान = व्याकुलतारूपी विष के बाण, पीड़ादायिनी व्याकुलता का कष्ट। उर ओटिबो = हृदय या छाती को आगे करना, झेलना। जान = सुजान, कवि की प्रेमिका । मन आवें = मन में स्थान दें, ध्यान दें। सुमिरि = स्मरण कर। परेखें = पछतावे को। चख = नेत्र। चोटिबो = आघात, चोट पहुँचाना। सिराति = शीतल करती । वै = वह, वे। ताती = तप्त, पीड़ादायक। बाँटे = भाग्य में । अँगारन = अंगारों पर । लोटिबो = लेटना, सोना।

सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत छंद हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कवि घनानंद के छंदों से लिया गया है। इस छंद में वियोगी कवि की वेदना, प्रिय की उपेक्षा तथा कवि को अपने प्रिय के सारे पीड़ादायक व्यवहारों को चुपचाप सहन कर लेने को संकल्प, बड़ी मार्मिकता से व्यक्त हुए हैं।

व्याख्या – कवि अपनी वियोगजनित दुर्दशा का वर्णन करते हुए कह रहा है कि उसे तो निष्ठुर प्रिय के सभी व्यवहारों को सिर झुकाकर झेलना है। हृदय को गला देने वाले, उसके विषतुल्य गर्व को पीते हुए, दिन-रात अपने प्राणों को भीतर-ही-भीतर घोटते रहना है। उफ भी नहीं करना है, इस प्रेमरूपी रणभूमि में चोटों से चूर-चूर साँसों के साथ पाँव जमाए रहना है और व्याकुलतारूपी विष के वाणों को अपनी छाती पर झेलना है। कोई छूट नहीं माँगनी है, तेरे सब प्रकार से समर्पित हो जाने पर भी यदि वे प्यारे जान (सुजान) तेरी ओर स्थान न दें, तो अभागे आनंद घन (कवि)! तू भूलकर भी उनके आँखों को चोट पहुँचाने वाले व्यवहार पर मत पछताना। ये सारी बातें यदि उनके मन को ठंडक पहुँचाती हैं और तुझे तपाती हैं, तो इसमें प्राणप्रिय का कोई दोष नहीं है। अरे अभागे ! तेरे हिस्से में तो अँगारों की सेज पर सोना ही आया है। अतः तुझे वियोग की ये सारी क्रूरताएँ सहन करनी ही पड़ेगी।

विशेष –

  1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का कवि घनानंद के विषय में यह कथन-“प्रेम मार्ग का ऐसा प्रवीण और धीर पथिक तथा जवाँदानी दूसरा कवि नहीं हुआ। इस छंद पर शत-प्रतिशत सही प्रमाणित हो रहा है।”
  2. कवि ‘जान प्यारे के सारे भावनात्मक अत्याचार सहन करते हुए प्रेम के रण को सत्याग्रह के रूप में लड़ रहा है। उसे वार करना नहीं सिर्फ झेलना है।
  3. कवि का ब्रजभाषा पर असाधारण अधिकार पंक्ति-पंक्ति से प्रमाणित हो रहा है लगता है जैसे कवि ने एक-एक शब्द भावानुकूल चुना है।
  4. वर्णन शैली भावुकता में भीगी है।
  5. वियोग श्रृंगार को कवि ने अपनी सशक्त लेखनी से साकार कर दिया है।
  6. “गरल गुमान की गरावनि’, ‘हेत-खेत-धूरि-चूरि’ में अनुप्रास अलंकार है। ‘गरल-गुमान’ ‘विष समुदेग बान’ में रूपक अलंकार
  7. ब्रज भाषा के मुहावरों और लोकोक्तियों द्वारा कवि ने अपने काव्य को प्रभावशाली बनाया है।

3. भए अति निठुर, मिटाय पहिचानि डारी,
याही दुख हमैं जक लागी हाय-हाय है।
तुम तौ निपट निरदई, गई भूलि सुधि,
हमें सूल-सेलनि सो क्यौं हूँ न भुलाय है।
मीठे-मीठे बोल बोलि, ठगी पहिलें तौ तब,
अब जिय जारत, कहौ धौं कौन न्याय है।
सुनी है कि नाहीं, यह प्रगट कहावति जू,
काहू कलपाय है, सु कैसे कल पाय है।

कठिन शब्दार्थ – निठुर = निष्ठुर, निर्दय। जक = रट । निपट = पूर्णतः। सूल-सेलन = शूलों की चुभन, उपेक्षा की पीड़ा। क्यों हुँन = कैसे भी नहीं । जिय = जी, मन । जारत = जलाते हो। प्रगट = प्रचलित, सुपरिचित । का = किसी को। कलपाय = कष्ट देकर। कल पाय = सुख पा सकता है।

सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत छंद हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कवि घनानंद के छंदों में से लिया गया है। कवि अपने प्रिय की निष्ठुरता और उपेक्षा से दु:खी होकर उसे ताने दे रहा है।

व्याख्या – कवि अपने प्रिय (सुजान) को उलाहना देते हुए कहता है कि वह बहुत निष्ठुर हो गया है। उसने तो उसको पहचानना भी भुला दिया है। पुराने मधुर सम्बन्ध को उसने हृदय से निकाल दिया है। यही कारण है कि बेचारा कवि दिन रात हाय-हाय पुकारता रहता है। कवि कहता है-तुम तो पूरी तरह निर्दयता पर उतर आए, हमें भुला दिया, परन्तु तुमने हमें जो उपेक्षा के काँटों से छेदा है। उस असहनीय चुभन को हम कैसे भूल जाएँ। पहले तो हमें बड़ी मधुर-मुधर बातों से ठग लिया और अब ऐसे निष्ठुर व्यवहार से हमारे जी को जला रहे हो। भला यह कैसा न्याय है ? यह तो सरासर घोर अन्याय है। तुमने यह सुपरिचित कहावत तो सुनी होगी कि जो दूसरों को कलपाता है, पीड़ा पहुँचाता है, वह स्वयं भी सुखी नहीं रह पाता।

विशेष –

  1. जब कोई प्रिय प्रेमी को पहचानने से भी इन्कार कर दे तो मधुर अतीत को छाती से लगीकर जीने वाले प्रेमी पर क्या बीतेगी ? कवि का हाल कुछ ऐसा ही है। निष्ठुर प्रिय ने पहचान भी भुला दी है।
  2. अन्य रीतिकालीन कवियों के कल्पित वियोग वर्णन और घनानंद के इस स्वयं भोगे गए, वियोग वर्णन में भला क्या समानता हो सकती है? इसकी हर वेदना में सचाई है।
  3. सरल शब्दों में हृदय की घनी पीड़ा को सम्पूर्णता से व्यक्त कर पाना, घनानंद की ही सामर्थ्य है। मुहावरों और लोकोक्तियों से भाव प्रकाशन प्रभावशाली बन गया है।
  4. ‘हाय-हाय’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार, ‘निपट निरदई गई’, सूल सेलनि’, बोल बोलि’, ‘जिय जारत’ में अनुप्रास अलंकार, तथा ‘कलपाय’ में यमक अलंकार है।

4. मीत सुजान, अनीत करौ जिन, हा हा न हूजियै मोहि अमोही।
दीठि कौं और कहूँ नहिं ठौर फिरी दृग रावरै रूप की दोही।।
एक विसास की टेक गहें, लगि आस रहे बसि प्रान बटोही।
हौ घन आनन्द जीवन मूल दई ! कित प्यासनि मारत मोही।।

कठिन शब्दार्थ – मीत = मित्र, प्रिय ! सुजान = सज्जन, कवि की प्रेमिका का नाम । अनीत = अन्याय । जीन = मत, नहीं। मोहि = मोहित करके। अमोही = निष्ठुर । दीठि = दृष्टि। ठौर = स्थान। दृग = नेत्र। रावरै = आपके। दोही = दुहाई, प्रशंसात्मक घोषणा। विसास = विश्वास। टेक = आधार। आस = आशा । प्रान-बटोही = प्राणरूपी यात्री। घन आँनद = कवि घनांनद, आनंदरूपी बादल। जीवन मूरि = जीवन के आधार पर जल के भण्डार। दई = दैव, भाग्य । कित = कहाँ, क्यों। मोही = मुझको।

सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत छंद हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित कवि घनानंद के छंदों से लिया गया है। कवि अपने निष्ठुर प्रिय के उपेक्षा से पूर्ण व्यवहार से आहत होकर उसकी ‘हा हा खा रहा है कि वह ऐसा अन्याय न करे।

व्याख्या – कवि घनानंद अपने प्रिय से कहते हैं- हे मेरे मीत, सुजान ! आप नाम से तो सज्जन हो, फिर मेरे साथ ऐसी अनीति क्यों कर रहे हो। मैं याचना करता हूँ कि पहले मुझे अपने रूप पर मुग्ध करके, अब इतने निष्ठुर मत बनो। मेरी आँखों के लिए आपके अतिरिक्त और कोई दूसरा स्थान या व्यक्ति भी नहीं है। जिसे देखकर ये जीवित रह सकें, मेरे नेत्र तो आपके सौन्दर्य की दुहाई सुनकर ही आप पर मुग्ध बने हुए हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि मुझ पर कृपा करोगे। इसी आशा पर मेरे प्राणरूपी यात्री मेरे शरीर में अब तक टिके हुए हैं, अन्यथा यह कब के निकल गए होते। आप तो आनंद घन हो, जिसमें जीवन का आधार जल भरा है। फिर यह दुष्ट दैव मुझे इस प्रकार प्यासा क्यों मार रहा है ? अपना प्रेम-जल बरसाकर मेरे प्यासे प्राण-बटोही की रक्षा करो।

विशेष –

  1. प्रिय की उपेक्षा से कवि बहुत व्याकुल है। प्रिय ने उसके साथ विश्वासघात किया है। कवि की व्यथा हा हा न हूजियै मोहि अमोही। शब्दों में तड़पकर ऐसा अन्याय न करने की याचना कर रहा है।
  2. ‘आनंद के घन’ और ‘जीवन मूल’ जैसा ‘प्रिय’ होते हुए भी प्रेमी प्यासा मरे, इससे बढ़कर और क्या अन्याय हो सकता है।
  3. मनोभावों को मूर्त करने में कवि की भाषा पूर्ण सक्षम है।
  4. हा हा न हूजिए मोहि अमोही में अनुप्रास अलंकार है। हौं घन आनंद तथा जीवन मूल में श्लेष अलंकार है। ‘प्रान-बटोही’ में यमक अलंकार है।

5. अति सूधो सनेह को मारग है, जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।
तहाँ साँचे चलें तजि आपनप, झिझकै कपटी जे निसांक नहीं।
घन आनंद प्यारे सुजान सुनौ, यहाँ एक ते दूसरो आँक नहीं।
तुम कौन-धौं पाटी पढ़े हो कहौ, मन लेहु पै देहू छटाँक नहीं ।।

कठिन शब्दार्थ – अति = अत्यन्त, बहुत । सूधो = सीधा, छल रहित । सनेह = प्रेम। नेकु = थोड़ा भी। सयानप = सयानापन, चतुराई। बाँक = टेढ़ापन, सरल स्वभाव न होना। तहाँ = उस, प्रेम पथ पर। साँचे = सच्चे, निष्कपट । तजि = त्याग कर। आपनपौ = अहंकार। झझकें = झिझकते हैं, चलने से डरते हैं। कपटी = मन स्वच्छ नहीं, दुराव या छिपाव रखने वाले । निसांक = जिनके मन में शंका रहती है। यहाँ = इस प्रेम सम्बन्ध में । एक ते दूसरो = एक से आगे, दो की संख्या । आँक = अंक, संख्या । पाटी = शिक्षा, गणित । मन = एक पुरानी तोल जो लगभग 37 किलो के बराबर होती थी। छटाँक = लगभग पचास ग्राम की तोल ।

सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत छंद हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कवि घनानंद के छंदों से लिया गया है। कवि ने इस छंद में अपनी प्रिया सुजान को उसके स्वार्थी स्वभाव पर व्यंग्य करते हुए, तीखा उलाहना दिया है।

व्याख्या – कवि सुजान को सम्बोधित करते हुए कहता है-प्यारे सुजान ! यह प्रेम का मार्ग बड़ा सीधा है। इसमें सयानेपन और छल-कपट को कोई स्थान नहीं है। यही कारण है कि सच्चे प्रेमी इस पथ पर अहंकार को त्यागकर चला करते हैं। वे अपने अस्तित्व को अपने प्रिय से एकाकार कर देते हैं। इसके विपरीत, जिनके मन में कपट होता है, वे छलिया इस प्रेमपथ बढ़ते हुए घबराते हैं, उन्हें शंका रहती है कि कहीं उनका भेद न खुल जाय। प्यारे सुजान ! इस प्रेम के गणित में एक से आगे कोई अंक ही नहीं होता है। प्रिय और प्रेमी में कोई भेद ही नहीं रह जाता है। दोनों एक हो जाते हैं परन्तु लगता है तुमने तो किसी महागुरु से कोई नई ही पाटी पढ़ी है। जो मन भर लेना तो सिखाती है पर छटाँक भर लौटाना नहीं सिखाती। भाव यह है कि कवि सुजान के स्वार्थमय व्यवहार से अत्यन्त आहत है। जिसने उससे तो सर्वस्व समर्पण चाहा पर स्वयं उसे बदले में केवल पछतावा ही दिया है। उसके साथ विश्वासघात किया। वह प्रेम का नाटक ही करती रही।

विशेष –

  1. कवि घनानंद का असफल प्रेम-प्रसंग बड़ा मर्मभेदी है। उन्होंने एक ऐसी नारी से प्रेम चाहा, जो प्रेम का व्यापार करने वाली दरबारी सुंदरी थी। घनानंद उसे नहीं भुला पाए, किन्तु उसने कभी उन्हें भूलकर भी याद नहीं किया। प्रेम की यही पीर कवि के छंदों में सर्वत्र छलक रही है।
  2. भाषा भावानुकूल है। प्रस्तुतीकरण भावुकता में सराबोर है।
  3. सरल भाषा में, प्रेम के मार्ग की ऐसी मार्मिक व्याख्या कम ही कवियों ने की होगी ।

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