RBSE Solutions for Class 12 Hindi सृजन Chapter 17 मैं और मैं

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Rajasthan Board RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 17 मैं और मैं

RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 17 मैं और मैं पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 17 मैं और मैं वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
‘मैं और मैं पाठ के लेखक कौन हैं?
(क) जयशंकर प्रसाद
(ख) हजारी प्रसाद द्विवेदी
(ग) कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’
(घ) रामचंद्र शुक्ल
उत्तर:
(ग)

प्रश्न 2.
लेखक के मित्र श्री सिंहल अपनी गाड़ी क्यों बेचना चाहते थे?
(क) कर्जा चुकाने के लिए।
(ख) मौज-शौक के लिए।
(ग) पैसे कमाने के लिए
(घ) नया व्यापार आरंभ करने के लिए
उत्तर:
(घ)

RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 17 मैं और मैं अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
लेखक के मित्र अपनी गाड़ियाँ कितने में बेचने को राजी हो गए?
उत्तर:
लेखक के मित्र अपनी गाड़ियाँ छः-छ: हजार रुपये में बेचने को राजी हो गए।

प्रश्न 2.
लेखक की दृष्टि में कौशल जी अद्भुत क्यों थे?
उत्तर:
लेखक की दृष्टि में कौशल जी अद्भुत थे, क्योंकि अपने जीवन में अनेक बार असफल होने के बाद भी वह निराश नहीं हुए थे।

प्रश्न 3.
लेखक के लिए कौशल जी की अपराजित वृत्ति का रहस्य क्या था?
उत्तर:
कौशल जी की अपराजित वृत्ति का रहस्य यह था कि वह कभी निराश नहीं होते थे तथा नई ऊर्जा के साथ नया काम शुरू कर देते थे।
प्रश्न 4.

कौशल जी का प्रेस क्यों फेल हो गया?
उत्तर:
कौशल जी का साझीदार चालाक था। वह कर्जा प्रेस के नाम तथा आमदनी अपने नाम लिखता रहा। परिणामस्वरूप प्रेस फेल हो गया।

RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 17 मैं और मैं लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
पाँचों आदमी क्यों रो रहे थे?
उत्तर:
पाँचों आदमी घर से चले। रास्ते में एक मंदिर में पड़कर सो गए। सोने से पहले गिनती की, तो वे पाँच ही थे, किन्तु सवेरे जागने के बाद गिनने पर वे चार ही रह गए थे। प्रत्येक बार गिनने पर उनकी संख्या चार ही थी। अपने एक साथी के खोने के कारण वे रो रहे थे।

प्रश्न 2.
लेखक ने किन लोगों को पशु कहा?
उत्तर:
लेखक ने उन लोगों को पशु कहा है, जो सोचते-विचारते नहीं हैं। पहले सोचे फिर कोई काम करे, उसको मनुष्य कहते हैं, किन्तु बिना सोचे ही किसी भी काम को करने लगे, किसी भी दिशा में चलने लगे, उसे पशु कहते हैं। पशु होने के लिए पूँछ और सींगों का होना जरूरी नहीं है।

प्रश्न 3.
शेखशादी ने अपने बेटे को घर पर सोते रहने के लिए क्यों कहा?
उत्तर:
शेखशादी के बेटे ने अपने घरों में देर तक सोने वालों द्वारा नमाज न पढ़ने के कारण निन्दा की थी। दूसरों में दोष तलाशने को शेखशादी अच्छी बात नहीं मानते थे। उन्होंने अपने बेटे को घर पर सोते रहने को कहा, क्योंकि यदि वह सोता रहता, तो दूसरों की बुराई करने के पाप से बचा रहता।

प्रश्न 4.
कौशल जी की पुस्तकों का प्रकाशन क्यों बंद हो गया?
उत्तर:
कौशल जी ने पुस्तकों को प्रकाशन का कार्य आरम्भ किया। उनकी पुस्तकें खूब बिकती थीं। देश स्वतंत्र हुआ। कौशल जी किसी स्थान की यात्रा पर जा रहे थे। रास्ते में एक जाति के लोगों ने उनको उतार लिया। वह अनेक दिनों तक बन्दी रहे और अनेक स्थानों पर भटकते रहे। देखभाल के अभाव में उनका प्रकाशन-कार्य बन्द हो गया।

RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 17 मैं और मैं निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
पाँचों मँगेड़ियों वाली कथा के माध्यम से लेखक क्या संदेश देना चाहता है?
उत्तर:
पाँच लोग थे। वे सभी भाँग पीते और मस्त रहते थे। एक बार कमाई करने के इरादे से वे परदेश गए। रास्ते में एक मंदिर में सो गए। सवेरे गिना तो वे चार ही रह गए थे। गिनने वाला अपने को नहीं गिनता था।

इस कथा के माध्यम से लेखक बताना चाहता है कि संसार में लोग ऐसा ही करते हैं। वे अपने दोष तथा कमियाँ नहीं देखते। दूसरों की कमियाँ देखते हैं। उनकी बुराई करते हैं। वे दूसरों को सुधारना चाहते हैं। अपनी बुराइयों के बारे में वे जानते ही नहीं हैं, अत: उनमें सुधार के बारे में भी वे नहीं सोचते।

लेखक संदेश देना चाहता है कि मनुष्य स्वयं को ही बदल सकता है। वह दूसरों को नहीं बदल सकता। अपने अन्दर उसे सुधार करना चाहिए। दूसरों के दोष देखने, उनसे घृणा करने तथा अपने को दोष रहित समझने से उसमें अहंकार का भाव जागता है। इससे उसके मन में घृणा का भाव जन्म लेता है। मनुष्य को स्वयं को बदलना चाहिए। उसको ऐसे काम करने चाहिए कि दूसरे उससे प्रेरणा लें। उसका अधिकार अपने में परिवर्तन लाने का ही है। दूसरों के बदलने का उसको हक नहीं है।

प्रश्न 2.
शेखशादी वाली कथा से लेखक क्या समझना चाहता है?
उत्तर:
शेखशादी एक महान् कवि तथा विचारक थे। वह सवेरे उठकर नमाज पढ़ने गए। उनका पुत्र भी साथ था। लौटते समय रास्ते के घरों में कुछ लोगों को सोता हुआ देखकर उसने अपने पिता से कहा-‘अब्बा, ये लोग बड़े आलसी हैं। सवेरे नमाज पढ़ने नहीं गए। इनको पाप लगेगा।’ शेखशादी ने कहा-“यह अच्छा होता तू भी सोता रहता।” कारण पूछने पर उन्होंने कहा-“तब तू दूसरों को न देखता और उनकी बुराई करने के पाप से बचा रहता।”

इस कहानी का उल्लेख करके लेखक बताना चाहता है कि मनुष्य को अपनी भूलों की ओर ही देखना चाहिए तथा उनमें सुधार करना चाहिए। दूसरों के अवगुणों पर ध्यान देने से उसमें अहंकार पैदा होता है तथा वह घृणा की भावना से भर उठता है। मनुष्य को केवल अपने अन्दर ही सुधार करना चाहिए। उसको अच्छे काम करने चाहिए, जिनको देखकर दूसरों अहंकार को घृणा का पिता कहते हैं, अत: मनुष्य को अहंकारी नहीं होना चाहिए।

प्रश्न 3.
कौशल जी ने कौन-कौन से व्यापार किए?
उत्तर:
लेखक के एक मित्र कौशल जी थे। कक्षा नौ तक पढ़े फिर एक छोटा-सा प्रेस खोल दिया। साझीदार की बेईमानी के कारण प्रेस बन्द हो गया। फिर उन्होंने अपने पिता की पूँजी लगाकर बर्तनों का कारखाना खोल लिया। पत्नी बीमार हुई, तो उसको इरविन अस्पताल में दाखिल कराया। मजदूरों की लापरवाही के कारण कारखाना बन्द हो गया। उसमें भी घाटा उठाना पड़ा। उसके बाद आपने पंसारी की थोक की दुकान की। फिर रुपया बरसने लगा, पर उसमें भी लाभ नहीं हुआ और पत्नी के जेबर बेचने पड़े।

कौशल जी खाली नहीं बैठ सकते थे। घर से दूर जाकर होटल खोल लिया। चला, चमका, फिर ठप हो गया। अब क्या करें? फिर वह अपने एक रिश्तेदार की सोडा वाटर की फैक्टरी में बैठने लगे। इसको छोड़कर एक बीमा कम्पनी में चले गए। खूब चमके। बीमा कम्पनी के डायरेक्टरों में कुछ झमेला मचा, तो उसे छोड़कर उन्होंने शर्बत की एक दुकान खोल ली और एक अखबार निकाला। ये दोनों काम भी चले, लेकिन टिक न सके।

इसके पश्चात् आप एक कम्पनी के मैनेजर डायरेक्टर बन गए। कुछ दिन खूब सफलता मिली, परन्तु कुछ ऐसी घटनाएँ हुईं कि कम्पनी में ताला पड़ गया। अब उन्होंने पुस्तक प्रकाशन का काम आरम्भ किया। पुस्तकें छप रही थीं, बिक भी रही थीं। तभी देश स्वतंत्र हुआ। वे एक यात्रा पर गए थे। एक जाति के लोगों ने उनको उतार लिया। बहुत दिनों तक बन्दी रहे। जाने कहाँ-कहाँ भटकते रहे। बहुत दिनों बाद वह एक पत्रकार के रूप में प्रकट हुए। अब वह शांति, प्रतिष्ठा और सम्मान की व्यवस्थित जिन्दगी बिता रहे हैं।

प्रश्न 4.
हमारा हमारे प्रति क्या अधिकार है?
उत्तर:
हमारा हमारे प्रति यह अधिकार है कि यदि मैं हार जाऊँ, तो हार कर भागू नहीं। यदि मैं थक जाऊँ, तो थक कर बैठा न रहूँ। यदि मैं गिर जाऊँ, तो गिरा ही न रहूँ उठकर चलें भी। यदि मैं अपने जीवन में और भूल करूं, तो भूल और भ्रम में ही न फंसा रहूँ। शीघ्र ही सही रास्ता तलाश कर उस पर चलने लगूं। धरना, थकना, गिरना तथा भूल करना एक मनुष्य के नाते स्वाभाविक बातें हैं तथा ऐसा होना असंभव नहीं है।

हमारा यह अधिकार है कि हम अपनी कमियों को देखें और उनमें सुधार करें। हम कभी निराश न हों और अपना काम करते रहें। एक कामे रुकने पर नया काम आरम्भ करू, नया स्टार्ट करूं, क्योंकि रुक जाना ही मृत्यु है।

RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 17 मैं और मैं अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 17 मैं और मैं वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. पाँच गहरे दोस्त थे। काम-धाम कुछ नहीं। खाने को दोनों वक्त रोटी और पीने को –

(क) दूध चाहिए
(ख) शराब चाहिए।
(ग) मट्ठा चाहिए।
(घ) भाँग चाहिए।

2. पाँचों दोस्त रात होने पर कहाँ सोए?

(क) पेड़ के नीचे
(ख) मंदिर में
(ग) धर्मशाला में
(घ) होटल में

3. पशु बनने के लिए जरूरत नहीं होती-

(क) पूँछ और सींग की
(ख) घास की
(ग) पशुशाला की
(घ) दाँत और नाखूनों की

4. शेखशादी कौन थे?

(क) इमाम
(ख) काजी
(ग) महाकवि
(घ) सन्त

5. ‘नया ताजा आरम्भ’ के लिए मैं और मैं’ निबन्ध में प्रयुक्त अंग्रेजी शब्द है

(क) न्यू बिगिनिंग
(ख) फ्रेश स्टार्ट
(ग) फ्रेश बिगिनिंग
(घ) न्यू फ्रेश स्टार्ट

उत्तर:

  1. (घ)
  2. (ख)
  3. (क)
  4. (ग)
  5. (ख)

RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 17 मैं और मैं अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘अक्ल आए भी तो कहाँ से?’ अक्ल किसमें नहीं है तथा क्यों?’
उत्तर:
लेखक के मित्र में अक्ल नहीं है। उसने कभी किसी मास्टर से शिक्षा नहीं पाई।

प्रश्न 2.
पाँचों दोस्तों ने परदेश जाने और रोजगार करने का फैसला क्यों किया?
उत्तर:
पाँचों दोस्तों की स्त्रियों ने काम न करने के लिए उनको बुरा-भला कहा तथा दस-पाँच अन्य लोगों ने उनकी बातों का समर्थन किया।

प्रश्न 3.
पाँचों दोस्त सवेरे उठे, तो मामला संगीन कैसे हो गया?
उत्तर:
वे सवेरे उठे और गिनती की, तो चार ही दोस्त थे। एक कम हो गया था।

प्रश्न 4.
समझदार आदमी ने उनसे क्या कहा?
उत्तर:
समझदार आदमी ने कहा- अरे भोंदू, अपने को तो गिन

प्रश्न 5.
जो सोचता नहीं, उसे क्या कहते हैं?
उत्तर:
जो सोचता नहीं, उसे पशु कहते हैं।

प्रश्न 6.
घृणा किसकी पुत्री है?
उत्तर:
घृणा अहंकार की पुत्री है।

प्रश्न 7.
घृणा किसकी दुश्मन है?
उत्तर:
घृणा जीवन की सम्पूर्ण ऊँचाइयों की दुश्मन है।

प्रश्न 8.
लेखक किनके व्यक्तित्व का रहस्य न समझ पाता?
उत्तर:
लेखक कौशल जी के व्यक्तित्व का रहस्य न समझ पाता।

प्रश्न 9.
हर नए प्रारम्भ के साथ हमें क्या प्राप्त होता है?
उत्तर:
हर नए प्रारम्भ के साथ हमें ताजगी, तेजी तथा स्फुरण प्राप्त होता है।

प्रश्न 10.
काम करने से रुक जाना क्या है?
उत्तर:
काम करने से रुक जाना मृत्यु है।

RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 17 मैं और मैं लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘ओ हो, तुम कहाँ से आ टपके इस समय?’ यह किसने कहा है तथा क्यों?
उत्तर:
यह कथन लेखक का है। लेखक अपने विचारों में मग्न है। वह शांत और गम्भीर भाव धारण किए हुए है तथा कुछ सोच रहा है। उसी समय उसका मित्र आकर उससे कहता है कि यह गुम-सुम क्यों बैठा है? सुबह का सुहाना समय है। उसे उठकर प्रसन्नतापूर्वक कुछ काम करना चाहिए। उसकी बातों से लेखक क़ी एकाग्रता भंग होती है और वह उससे कहता है कि उसके चिन्तन में बाधा न डाले। कोई गम्भीर मूड में हो, तो उसका ध्यान भंग करना अच्छी बात नहीं है।

प्रश्न 2.
“मियाँ, खोये हुए हो, तो डौंडी पिटवाओ या पुलिस में रिपोर्ट लिखाओ”-यह सलाह किसने दी है तथा इसका कारण क्या है?
उत्तर:
लेखक ने अपने मित्र से कहा कि वह गम्भीरतापूर्वक कुछ विचार कर रहा था। उसने अपने गप्प-सटाके छोड़कर उसका ध्यान भंग कर दिया। सच तो यह है कि वह अपने में खो गया था। उस पर हास्यपूर्ण मुद्रा अपनाते हुए लेखक के मित्र ने उसको यह सलाह दी।

प्रश्न 3.
पाँचों दोस्त कहाँ गए थे तथा क्यों?
उत्तर:
पाँचों दोस्त परदेश गए थे। वे सुबह-शाम खुब खाते तथा भाँग पीते थे। काम कुछ करते नहीं थे। एक बार उनकी पत्नियों ने उनसे इस बारे में बुरा-भला किया। आठ-दस लोग भी वहाँ थे। उन्होंने उनकी बातों का समर्थन किया। इस कारण, वे पाँचों बड़े लज्जित हुए और कमाई के इरादे से परदेश गए।

प्रश्न 4.
पाँचों दोस्तों ने रास्ते में क्या सलाह की?
उत्तर:
पाँचों दोस्त घर से चल दिए। रास्ते में उन्होंने सलाह की कि सभी सावधानीपूर्वक चलें। कहीं ऐसा न हो कि कोई रास्ते में कहीं भटक जाये या रह जाये। घर लौटकर उसकी पत्नी को भी जवाब देना है।

प्रश्न 5.
“अब इन लोगों की समझ में आया कि मामला यह है”-“पाँचों दोस्तों को क्या मामला समझ में आया?
उत्तर:
सवेरा होने पर एक दोस्त ने गिनती की–एक, दो, तीन, चार। उसने कहा-घर से हम पाँच दोस्त चले थे। एक रात में कहाँ गायब हो गया? फिर एक-एक करके सबने गिना, पर वे संख्या में चार ही थे। अब मामला संगीन हो गया। वे रोते हुए अपने घर लौट रहे थे। एक समझदार आदमी ने गिनती की, तो वे पूरे पाँच थे, तब उनमें से एक ने पुन: गिना-एक, दो, तीन, चार। समझदार आदमी ने कहा- अरे मूर्ख, अपने को भी तो गिन, तब उनकी समझ में आया कि मामला यह है कि गिनने वाला अपने को भूल जाता है।

प्रश्न 6.
“अब आई तुम्हारी समझ में मेरी बात?” लेखक ने अपने मित्र को क्या बात समझाई?
उत्तर:
लेखक ने कहा कि हम दूसरों के बारे में तो सोचते हैं, परन्तु अपने बारे में नहीं सोचते, जो पहले सोचे-विचारे फिर कोई काम करें, तो उसको मनुष्य कहते हैं। सोच-समझकर चलने और करने वाला मनुष्य कहलाता है, जो बिना सोचे-विचारे हवा के साथ बह जाय, उसको पशु कहते हैं। बिना सोचे दूसरों की देखा-देखी काम करने वाला पशु कहलाता है। अन्त में, लेखक ने उससे पूछा-अब आई तुम्हारी समझ में मेरी बात?

प्रश्न 7.
अपने बारे में सबसे पहले सोचने की बात क्या है? क्या आज लोग ऐसे ही सोचते हैं?
उत्तर:
अपने बारे में सबसे पहले सोचने की बात यह है कि मेरा अधिकार है कि मैं अच्छे काम करूं और अपने जीवन को ऊँचा उठाऊँ, परन्तु मेरा कर्तव्य यह है कि जो लोग किसी कारण से अच्छे काम नहीं कर रहे हैं, उनको अपने अच्छे कामों से ऊँचे उठने की प्रेरणा दें, परन्तु उनको अच्छे कामों के लिए प्रेरित करके अपने मन में अहंकार से न भर जाऊँ। आज, इस तरह बहुत कम लोग सोचते हैं। यदि कोई किसी को सच्चा मार्ग दिखाता है, तो उसके मन में अहंकार अवश्य पैदा होता है। वह दूसरों को अपनों से छोटा और नीचा समझता है तथा उनसे घृणा करता है।

प्रश्न 8.
घृणा की भावना को रोकना जरूरी क्यों है?
उत्तर:
घृणा की भावना को रोकना जरूरी है। घृणा जीवन की समस्त श्रेष्ठ बातों तथा गुणों को नष्ट कर देती है। वह उन्नत जीवन की शत्रु है। घृणा उसको ही हानि पहुँचाती है, जिसके मन में वह उत्पन्न होती है, घृणा करने वाला ही घृणा का शिकार होता है, जिसकी मन में घृणा की भावना का जन्म होता है, उसकी मन की सुख-शान्ति नष्ट हो जाती है तथा दूसरों के प्रति प्रेम, सहानुभूति आदि के भाव उसके मन में पैदा ही नहीं होते। इस तरह, वह मानवता के उच्च स्थान से नीचे गिर जाता है।

प्रश्न 9.
कौशल जी कौन थे? उनका क्या रहस्य था, जो लेखक की समझ में नहीं आता था?
उत्तर:
कौशल जी लेखक के एक मित्र थे। उन्होंने अपने जीवन में एक के बाद एक बहुत से काम किए। कुछ वह कोई काम शुरू करते, कुछ दिन उसमें सफलता भी मिलती। असफल होने पर उसको छोड़कर कोई नया काम शुरू कर देते। लेखक ने उनको निराश नहीं देखा। उनमें काम करने की जो अटूट क्षमता थी, उसका रहस्य लेखक की समझ से बाहर था।

प्रश्न 10.
श्री सिंहल लेखक से मिलने क्यों आए? उन्होंने लेखक से क्या कहा?
उत्तर:
श्री सिंहल लेखक के एक अन्य मित्र थे। उनका कारखाना बन्द हो चुका था। वह अपनी दो मोटरों को बेचना चाहते थे।

इस सम्बन्ध में वह लेखक की मदद चाहते थे। उन्होंने लेखक से कहा कि गाड़ियाँ जितने में बिकती हों, उतने ही में उनको बेच दे। वह छ:-छ: हजार रुपयों में भी अपनी गाड़ियाँ बेचने को तैयार थे। उनका बेचकर वह फ्रेश स्टार्ट अर्थात् नया काम आरम्भ करना चाहते थे।

प्रश्न 11.
कौशल जी की सफलता का रहस्य क्या है?
उत्तर:
कौशल जी कभी निराश नहीं होते थे। एक काम में असफल होने पर वह उत्साहपूर्वक दूसरा काम आरम्भ कर देते थे। उनकी सफलता का रहस्य उनके मन की अपराजित वृत्ति थी । वह कठिनाइयों और असफलता से विचलित होकर निराश नहीं होते थे। इससे उनके मन में एक प्रकार की नई ऊर्जा उत्पन्न होती थी।

प्रश्न 12.
लेखक ने मृत्यु किसको कहा है तथा क्यों?
उत्तर:
मनुष्य को सदा काम में लगे रहना चाहिए। थक-हार कर बैठना उसके लिए अच्छा नहीं है। यदि किसी काम में असफल होकर वह निराश होकर चुपचाप बैठ जायेगा, तो उसके जीवन में आगे बढ़ने की सभी संभावनाएँ मिट जायेंगी। अकर्मण्यता तथा निष्क्रियता को लेखक ने मृत्यु कहा है। जीवन चलते रहने का नाम है। रुक जाना ही मृत्यु है।

प्रश्न 13.
लेखक के अनुसार मनुष्य जीवन में क्या होना स्वाभाविक तथा संभव है? आप बतायें इस संभावना से मुक्ति कैसे पाई जा सकती है?
उत्तर:
लेखक के अनुसार मनुष्य-जीवन में चलते-चलते गिर जाना, थक जाना, हार जाना तथा भूल करना आदि स्वाभाविक है। ये सभी बातें संभव भी हैं। उसके जीवन में सब कुछ मन के अनुकूल ही नहीं होता। इन संभावनाओं से मुक्ति पाने का उपाय यही है कि हम अपने मन को निराश न होने दें। उसमें आशा और विश्वास बनाए रखें। पुन: नया काम आरम्भ करें तथा उसको पूरी मेहनत तथा लगन से पूरा करें।

प्रश्न 14.
निराशा का मनुष्य के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है? इससे बचने के लिए आप क्या करेंगे?
उत्तर:
निराशा मनुष्य के मन में उत्पन्न होकर उसको निस्तेज बना देती है। इससे मनुष्य का आत्मविश्वास डगमगा जाता है। नया काम करने की उसकी शक्ति इससे प्रभावित होती है। वह निष्क्रिय हो जाता है। वह गिर जाता है, तो फिर उठ नहीं पाता और इस प्रकार उसका जीवन नष्ट हो जाता है। इससे बचने के लिए हम अपना आत्मविश्वास बनाए रखेंगे और नया काम पूरी शक्ति के साथ करेंगे।

प्रश्न 15.
कल्पना कीजिए कि आप व्यापारी हैं और व्यापार में आपको घाटा होने की संभावना है। संभावित हानि से बचने के लिए आप क्या उपाय करेंगे?
उत्तर:
यदि मैं व्यापार कर रहा हूँ और मुझको लगता है कि उसमें हानि होने की संभावना है, तो मैं पहले की अपेक्षा अधिक सावधानी रखेंगा। मैं अपने व्यापार की व्यवस्था को उत्तम बनाऊँगा तथा अपने कर्मचारियों के कामों पर भी ध्यान देंगा। मैं अधिक-से-अधिक समय अपने व्यापार में लगाऊँगा तथा कोई काम दूसरों पर नहीं छोडूंगा। इस प्रकार, उत्तम प्रबन्ध और सतर्कता के द्वारा मैं हानि से बचूँगा।

प्रश्न 16.
लेखक के अनुसार रुक जाना ही मृत्यु है, तो आपके अनुसार जीवन क्या है?
उत्तर:
लेखक के अनुसार रुक जाना ही मृत्यु है, तो मेरे अनुसार न रुकना अर्थात् चलते ही जाना जीवन है। चलते रहने का नाम ही जीवन है। रात-दिन चलते रहो, रुको नहीं। भगवान बुद्ध ने भिक्षुओं से कहा था–चरैवेति चरैवेति’ इसका अर्थ है-निरन्तर चलते रहो, चलते रहो। भ्रमण करते रहो। एक स्थान पर मत रुको। जीवन की महत्ता चलते रहने में ही है, अत: रुकने को मृत्यु कहा गया है।

प्रश्न 17.
“मैं ओर मैं” किस गद्य विधा की रचना है?
उत्तर:
“मैं और मैं” निबन्ध नामक गद्य विधा की रचना है। यह कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’ जी द्वारा रचित एक ललित निबन्ध है। ललित निबन्ध में विषय की अपेक्षा भाषा तथा शैलीगत लालित्य का अधिक महत्व होता है। मिश्र जी ने इस निबन्ध में जीवन के एक परम सत्य को अपनी लेखन पटुता के माध्यम में समझाया है।

प्रश्न 18.
मनुष्य का अधिकार क्या है? उसका कर्तव्य क्या बताया गया है?
उत्तर:
मनुष्य का अधिकार अपने जीवन को ठीक तरह चलाने का है। उसको अधिकार है कि अच्छे काम करे, परन्तु हारना, थकना, गिरना, भूल करना भी उसके लिए संभव है। उसका कर्तव्य है कि अच्छे काम करके लोगों के सामने उदाहरण प्रस्तुत करे, जिससे लोग अच्छे काम करें। उनका अच्छे काम सिखाने का अहंकार उसको अपने में पैदा नहीं होने देना चाहिए।

RBSE Class 12 Hindi सृजन Chapter 17 मैं और मैं निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
पाँच दोस्तों की कहानी संक्षेप में लिखिए तथा उसके लेखक द्वारा उल्लेख का उद्देश्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पाँच दोस्त थे। काम कुछ करते नहीं थे। सुबह-शाम खाना तथा पीने को भाँग जरूरी थी। एक दिन उनकी पत्नियों तथा कुछ लोगों ने उनसे कहा-सुना, तो शर्म के कारण उन्होंने परदेश जाकर कुछ काम करने का विचार किया। रास्ते में रात होने पर एक मंदिर में सो गए। सुबह उठकर उनमें से एक ने गिनती की, तो वे चार थे। उनका एक साथी नहीं था। वे रोते हुए जा रहे थे। एक समझदार आदमीने उनसे कारण पूछा फिर गिनकर बताया कि वे पूरे पाँच थे। सच्चाई यह थी कि गिनने वाला अपने को नहीं गिनता था। इस कहानी का उल्लेख लेखक ने निरुद्देश्य नहीं किया है। वह बताना चाहता है कि मनुष्य घर-परिवार के बारे में सोचता है, समाज के बारे में सोचता है, देश के बारे में सोचता है और पूरी दुनियां के बारे में भी सोचता है, परन्तु वह अपने बारे में नहीं सोचता। मनुष्य का अधिकार है कि वह अपने बारे में सोचे। अच्छे काम करे, जिनको देखकर दूसरे लोग प्रेरित हों । सोच-विचार कर काम करना ही मनुष्य की पहचान है, जो बिना विचारे जैसी हवा चल रही हो, उसी के अनुसार बह जाता है, वह पशु होता है। अत: मनुष्य का कोई काम करने से पहले सोचना चाहिए।

इस कहानी का लेखक ने इसी उद्देश्य से उल्लेख किया है।

प्रश्न 2.
कौशल जी एक काम में असफल होने पर तुरन्त दूसरे काम में लग जाते थे। उनकी इस कार्यशीलता का क्या रहस्य आपकी समझ में आता है?
उत्तर:
कौशल जी अद्भुत व्यक्ति थे। उनकी शिक्षा कक्षा नौ तक ही हुई थी। इसके बाद, वे अर्थोपार्जन के काम में जुटे। पहले प्रेस खोला। फिर बर्तनों का कारखाना खोल लिया। उसके बाद पंसारी की थोक की दुकान शुरू की। फिर होटल खोला, एक रिश्तेदार की सोडावाटर की फैक्टरी में बैठने लगे, बीमा कम्पनी में गए, शर्बत की दुकान खोली और अखबार निकाला। अब वह एक बड़ी कम्पनी के मैनेजिंग डायरेक्टर थे। फिर पुस्तक प्रकाशन का कार्य आरम्भ किया और अन्त में एक पत्रकार बन गए। जब उनको किसी काम में सफलता नहीं मिलती थी, तब भी वह निराश नहीं होते थे और दूसरे नए काम में लग जाते थे।

कौशल जी की कार्यशीलता अटूट थी। वह एक छोड़ दूसरे काम में लग जाते थे। अनेक असफलताओं के बाद भी वह निराश नहीं हुए थे। उनकी कार्यशीलताका रहस्य यही था कि विपरीत स्थिति में भी वह निराश नहीं होते थे। उनका अपने ऊपर विश्वास डगमगाता नहीं था। वह अपनी पूरी ऊर्जा का संग्रह कर उसको किसी नवीन कार्य में लगा देते थे। प्रत्येक बार फ्रेश स्टार्ट अर्थात् एक ताजा नया आरम्भ करने में उनका विश्वास था। जब व्यक्ति निराश हो जाता है, तो उसका आत्मविश्वास नष्ट हो जाता है और उसकी कार्य-क्षमता समाप्त हो जाती है। कठिन परिस्थिति में भी निराश न होना और नए सिरे से काम आरम्भ करना ही कौशल जी की कर्मशीलता के अटूट रहने का रहस्य है।

प्रश्न 3.
‘फ्रेश स्टार्ट’ का क्या तात्पर्य है? सिंहल साहब फ्रेश स्टार्ट क्यों करना चाहते थे?
उत्तर:
‘फ्रेश स्टार्ट’ अंग्रेजी भाषा का शब्द है। इसका अर्थ है ताजा नया आरम्भ। किसी नए काम को अपनी पूरी शक्ति और दक्षता के साथ आरम्भ करना फ्रेश स्टार्ट है। जीवन में आगे बढ़ने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य अपनी असफलता से दु:खी और निराश न हो। वह नया काम आरम्भ करके और लगन के साथ उसमें जुट जाए। वह गिर गया हो, तो गिरा ही नहीं पड़ा रहे, उठे औरव पुन: चलने लगे। यही फ्रेश स्टार्ट है।

लेखक के एक मित्र थे श्री सिंहल। उनका एक कारखाना था। परिस्थितियाँ ऐसी हुईं कि उनको कारखाना बन्द करना पड़ा। वह लेखक के पास आए और उससे सहयोग चाहा। वह चाहते थे कि लेखक उनकी दो मोटरों को बिकवाने में सहायता करे। मोटरों की कीमत दस-दस हजार थी। कोई ग्राहक इतनी कीमत देने को तैयार नहीं था, तब सिंहल ने लेखक से कहा कि वह मोटरों को जीतने में भी बिके, बेच दे। लेखक ने बताया कि दस हजार की मोटर को वह छः हजार में कैसे बेच दे ? किन्तु सिंहल छः हजार में भी बेचने को तैयार थे। उन्होंने लेखक से कहा- कि मोटरों को बेचकर वह कारखाने के मामले से मुक्त होना चाहते थे, जिससे कि एक फ्रेश स्टार्ट कर सकें। कारखाने को फिर से पहले की तरह चला पाना संभव नहीं था। इसलिए वह फ्रेश स्टार्ट करना चाहते थे अर्थात् वह चाहते थे कि कोई ताजा नया काम पुन: प्रारम्भ करें और उसमें अपनी शक्ति लगाएँ।

प्रश्न 4.
“मनुष्य स्वयं को ही सुधार सकता है, दूसरों को सुधारने की बातें करना बेईमानी है”-‘मैं और मैं’ पाठ के आधार पर इस पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
उत्तर:
“मैं और मैं” पाठ का शीर्षक बताता है कि मनुष्य को केवल अपने सम्बन्ध में ही सोचने का अधिकार है, लेकिन वह सदा से दूसरों के विषय में सोचता रहा है। विशेषतः जब दोष देखने का समय होता है, तो मनुष्य को दूसरों के दोष तो दिखाई देते हैं, परन्तु अपने नहीं। दूसरों के दोष देखकर वह उनको सुधारना चाहता है, परन्तु अपनी बुराइयों पर ध्यान नहीं देता। इस प्रकार, सुधार काम-काम कभी पूरा नहीं होता और वह अधूरा ही बना रहता है।

कहते हैं जब आदमी धरती पर आया, तो ईश्वर ने उसको दो थैले दिए। पहले में उसके दोष भरे थे तथा दूसरे में उसके पड़ौसी के । ईश्वर ने कहा कि वह पहला थैला अपनी छाती पर तथा दूसरा पीठ पर लटकाए । मनुष्य ने सोचा कि देखें दूसरे थैले में क्या है? उसने उसको आगे तथा पहले थैले को पीछे लटकाया। तभी से उसको अपने नहीं दूसरों के दोष ही दिखाई देते हैं। आशय यह है कि परदोष देखना मनुष्य का स्वभाव है।

जब दोषों को सुधारने का प्रश्न उठता है, तो दूसरों के दोष ही सामने होते हैं। लेखक के अनुसार, यह मनुष्य के अधिकार से बाहर की बात है। उसको अपने बारे में ही सोचना चाहिए तथा अपना ही सुधार करना चाहिए। मनुष्य को अच्छे काम करने चाहिए, जो दूसरों के लिए प्रेरणा स्रोत बने । मनुष्य अपने में ही सुधार कर सकता है। दूसरों को सुधारने की बात निरर्थक है। यदि वह स्वयं सुधर जायेगा, तो दूसरे उसको देखकर स्वयं ही सुधर जायेंगे। उसे सुधार के लिए कोई आन्दोलन नहीं चलाता है। केवल ऐसे काम अच्छे काम करने हैं, जो दूसरों को वैसा ही करने की प्रेरणा दें और उनमें सुधार होने का आधार बने।

प्रश्न 5.
‘मैं और मैं’ शीर्षक निबन्ध की विशेषताओं के बारे में लिखिए।
उत्तर:
‘मैं और मैं’ कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’ द्वारा लिखित ललित निबन्ध है। इस निबन्ध की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

भाव पक्ष – इस निबन्ध में मनुष्य की अपने दोष न देखने, अपने बारे में न सोचने की कमजोरी के बारे में बताया गया है। मनुष्य को अपने बारे में सोचने का अधिकार है। उसको अच्छे काम करने चाहिए। उनको देखकर दूसरे भी वैसा ही करेंगे और उनके दोष भी दूर हो जायेंगे, तब किसी को सुधारने की कोई जरूरत ही नहीं रह जायेगी। मनुष्य को अपनी कमजोरियों से घबराना नहीं चाहिए। यदि गिरना मनुष्य के जीवन का हिस्सा है, तो गिरकर उठना भी उसको स्वभाव है। उसको अहंकार से मुक्त रहना चाहिए तथा किसी से घृणा नहीं करनी चाहिए।

कला-पक्ष – ‘मैं और मैं’ एक ललित निबन्ध है। ललित निबन्ध में विषय-वस्तु की अपेक्षा उसका शिल्प तथा वाक्यों की संरचना ऐसी है कि निबन्ध में आकर्षण उत्पन्न हो जाता है। शैली की लाक्षणिकता ने ‘मैं और मैं’ के विषय को एक नवीन और आकर्षक ढंग से पाठकों के सामने रखा है। लाक्षणिक के साथ ही सूक्ति कथन शैली भी इस निबन्ध में मिलती है। जैसे-“अहंकार घृणा का पिता है। …….” निबन्ध का प्रारम्भ दो मित्रों के व्यंग्य-विनोदपूर्ण वार्तालाप से होता है तथा उसका अन्त गम्भीर चिन्तनपूर्ण विचारों के साथ होता है-“पर मेरा यह कर्तव्य है कि हार कर भार्गे नहीं, थककर बैटू नहीं, गिरकर गिरा ही न रहूँ और भूल-भटक कर भरमाता ही न फिरू, जल्दी से अपनी राह पर आ जाऊँ। अपने काम में लग जाऊँ और एक नया आरम्भ करू, क्योंकि रुक जाना ही मेरी मृत्यु है ……”

प्रश्न 6.
‘मैं और मैं’ निबन्ध का प्रतिपाद्य क्या है?
उत्तर:
‘मैं और मैं’ कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’ द्वारा रचित एक ललित निबन्ध है। इसमें लेखक ने मनुष्य की कुछ स्वाभाविक भावनाओं और कमजोरियों के बारे में बताया है। लेखक और उसके मित्र वार्तालाप कर रहे हैं। लेखक अपने मित्र को बताता है कि वह गम्भीर चिन्तन में खोया हुआ था। वह अपने ही विषय में सोच रहा था। मनुष्य का स्वभाव है कि वह दूसरों के बारे में ज्यादा सोचता है। तथा उनमें कमियाँ देखकरे स्वयं उच्च होने के गर्व से फूल उठता है तथा उनको नीचा समझकर उनसे घृणा करता है। यह घृणा की भावना उसका ही सबसे अधिक अहित करती है तथा जीवन की उच्चता में बाधक होती है।

मनुष्य को अधिकार है कि वह अपने ही बारे में सोचे। वह अच्छे काम करे, जिससे दूसरे लोग उससे प्रेरित हों। मनुष्य को अच्छे काम करने का अहंकार अपने मन में नहीं पालना चाहिए, न दूसरों पर इसका अहसान लादना चाहिए। अहंकार से घृणा का जन्म होता है तथा घृणा जीवन की उन्नति में बाधक होती है।

मनुष्य को अधिकार है कि वह हार जाए, गिर जाए, थक जाए अथवा भूल करे। यह संभव है तथा स्वाभाविक भी, परन्तु उसका यह कर्तव्य भी है कि वह हारकर भागे नहीं, गिरकर गिरी ही न रहे, थक कर बैठा ही न रहे तथा भूलकर उसी में भ्रमित न होता रहे। वह सामना करे, उठे, चले और भ्रम से मुक्त हो । चलना तथा काम करना ही जीवन है। थककर बैठ जाना मृत्यु है।

मैं और मैं लेखक-परिचय

प्रश्न 1.
कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’ की जीवनी पर प्रकाश डालते हुए उनका साहित्यिक परिचय दीजिए।
उत्तर-
जीवन-परिचय-कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’ का जन्म सन् 1906 में सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) जिले के देवबंद नामक गाँव में हुआ था। आपके पिता पं. रमादत्त मिश्र पुरोहित थे। पिता शांत तथा संतोषी प्रकृति के थे, किन्तु इनकी माता का स्वभाव उग्र था। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा ठीक प्रकार नहीं हो सकी। खुर्जा की संस्कृत पाठशाला में कुछ समय अध्ययन करने के पश्चात् आप भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े और अनेक बार जेल यात्राएँ की। स्वाध्याय के बल पर ही आपने ज्ञानवर्द्धन किया।

साहित्यिक परिचय-प्रभाकर जी ने पत्रकारिता के माध्यम से साहित्यिक जीवन में प्रवेश किया है। स्वतंत्रता आन्दोलन तथा साहित्य-साधना साथ-साथ चलते रहे हैं। आपने हिन्दी गद्य की निबन्ध, संस्मरण, रिपोर्ताज आदि विधाओं में स्तुत्य योगदान किया है। आपकी भाषा सरल, साहित्यिक तथा व्यावहारिक है। आपने तत्सम शब्दों के साथ उर्दू, अंग्रेजी आदि भाषाओं के शब्दों तथा मुहावरों का सफल प्रयोग किया है। शब्दों की लाक्षणिकता दर्शनीय है। आपने वर्णनात्मक, भावात्मक, नाटकीय, आलंकारिक आदि शैलियों में रचनाएँ की हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में भी आपका कार्य स्मरणीय है।

कृतियाँ-प्रभाकर जी की प्रमुख रचनाएँ हैंनिबन्ध संग्रह-जिन्दगी मुस्करायी, माटी हो गयी सोना, बाजे पायलिया के धुंघुरू, महके आँगन, चहके द्वार, जिए तो ऐसे जिए, दीप जले शंख बजे इत्यादि।
लघु कथा-संग्रह-आकाश के तारे, धरती के फूल। रिपोर्ताज-क्षण बोले कण मुस्काये। संस्मरण-भूले-बिसरे चेहरे। संपादन-ज्ञानोदय, नया जीवन, विकास।

मैं और मैं पाठ-सारांश

प्रश्न 2.
‘मैं और मैं’ पाठ का सारांश लिखिए।
उत्तर-
परिचय–’मैं और मैं’ प्रभाकर जी की ‘जिए तो ऐसे जिए’ शीर्षक कृति ‘ऐल्मिया गया’ निबंध है। इसमें लेखक ने बताया है कि मनुष्य को अपने विषय में सोचना चाहिए तथा अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। दूसरों के बारे में सोचकर दुःखी या सुखी होना ठीक नहीं है।

आरम्भ-निबन्ध का आरम्भ लेखक और उसके मित्र के वार्तालाप से होता है। लेखक शांत और गम्भीर है तथा उसका मित्र बातूनी और गप्पी। लेखक को उसकी मनगढंत बातें अच्छी नहीं लगती हैं, तो बातूनी मित्र उससे कुछ बोलने-करने को कहता है। लेखक बताता है कि आज वह कोई गहरी बात सोच रहा है। सोच क्या रहा हूँ? मैं अपने में खोया हूँ, तब मित्र उसको सलाह देता है कि खोया है, तो वह डौंडी पिटवाए या पुलिस में रिपोर्ट लिखाए।

पाँच दोस्तों की कहानी-लेखक ने कहा कि वह सन्त स्वभाव से बात कह रहा है और वह, उसका मित्र, उसका मजाक उड़ा रहा है। उसमें अक्ल नहीं है। अक्ल कहाँ से आए? कभी किसी मास्टर से पढ़ाई तो की नहीं? तब उसने उसको पाँच दोस्तों की कहानी सुनाई। वे कोई काम नहीं करते थे। दोनों वक्त खाते-पीते, भाँग छानते और मस्त पड़े रहते। एक बार अपनी पत्नियों तथा पड़ोसियों से अपमानित होकर वे काम की तलाश में निकले। रास्ते में एक मंदिर में सो गए। सवेरे जागने पर गिनती को बार-बार गिनते पर संख्या वही चार-की-चार रहती, तब एक बुद्धिमान व्यक्ति ने उनको गिना और बताया कि ये पाँच थे। उसने गिनने वाले से कहा- ‘मूर्ख अपने आपको भी तो गिन।’

अपने बारे में सोचना-कहानी का निष्कर्ष यह है कि मनुष्य दूसरों के बारे में तो सोचता है, अपने बारे में नहीं। अपने बारे में सोचना-मेरा क्या अधिकार और कर्तव्य है, यह सोचना ही मनुष्य की पहचान है, जो विचारशील नहीं है, वह सींग-पूँछ रहित पशु है। मनुष्य घर, पड़ोस, समाज, देश और दुनियां के बारे में सोचता है, अपने को भूल जाता है। उसे अपने बारे में सबसे पहले सोचना चाहिए।

दूसरों के बारे में सोचने से हानि-महाकवि शेखशादी सुबह की नमाज पढ़कर लौट रहे थे। साथ में बेटा भी था। उसने रास्ते में घरों में कुछ लोगों को सोते देखा और पिता से कहा-अब्बा, ये लोग कितने पापी हैं, सो रहे हैं, नमाज पढ़ने नहीं गए। शेखशादी ने कहा-अच्छा होता तू भी सोता रहता, तब तू दूसरों के दोष खोजने के पाप से तो बचा रहता। मनुष्य का कर्तव्य और अधिकार-मनुष्य का अधिकार है कि वह अपने बारे में सोचे और स्वयं के दोष दूर करे, अपने को ऊँचा उठाये। उसका कर्तव्य है कि अपने अच्छे कामों से दूसरों को सत्कर्म की प्रेरणा दे, परन्तु उन पर सुधारक होने का अहसान का बोझ न लादे। वह अपनी श्रेष्ठता का अहंकार न करे। अहंकार के कारण घृणा उत्पन्न होती है, जो मनुष्य को पतित बनाती है।

कौशल जी और सिंहल जी-लेखक के एक परिचित मित्र हैं कौशल जी। उन्होंने अपने जीवन में एक के बाद अनेक काम किए। किसी काम में असफल होने पर वह निराश नहीं होते थे और शीघ्र ही नया काम शुरू कर देते थे। अन्त में एक पत्रकार बने और अब सफल जीवन बिता रहे हैं। निराश न होना और निरन्तर कर्मशील रहना ही उनकी सफलता का रहस्य है। लेखक के दूसरे मित्र हैं सिंहल जी। अपना कारखाना फेल होने पर उन्होंने अपनी मोटरें छ:-छ: हजार रुपयों में बहुत कम कीमत में ही बेच दीं। वह कारखाने के झंझट से मुक्त होकर ‘फ्रेश स्टार्ट’ अर्थात् नए सिरे से कोई काम करना चाहते थे। फ्रेश स्टार्ट अर्थात् बार-बार असफल होकर भी न थकना, न निराश होना और नई ऊर्जा के साथ नए काम में लगना।

यह अपराजेय वृत्ति ही दोनों की सफलता के मूल में निहित है। मैं और मैं-जीवन में थकना, हारना, गिर पड़ना और भूलना-भटकना तो संभव है। यह स्वाभाविक है और मनुष्य का अधिकार है, किन्तु मनुष्य का कर्तव्य इन परिस्थितियों में निराश न होना ही है। उसका अपने प्रति कर्तव्य है कि वह थक कर बैठा न रहे, हार कर भागे नहीं, गिर कर पड़ा ही न रहे तथा भूल होने पर भूला ही न रहे, भटके नहीं, भूल सुधार कर सही रास्ते पर आ जाए। वह नया आरम्भ करे, क्योंकि रुक जाना ही मृत्यु है।

मैं और मैं महत्त्वपूर्ण गद्यांशों की सन्दर्भ-प्रसंग सहित व्याख्याएँ

1. जब देखो गुमसुम, जब देखा गुमसुम! अरे भाई, तुम्हें क्या साँप सूंघ गया है कि सुबह के सुहावने समय में यों चुपचाप बैठे हो? तुमसे अच्छे तो देवीकुंड के कछुवे ही हैं कि तैरते नजर तो आ रहे हैं। उठो, दो-चार किलकारियाँ भरो और अँगीठी के पेट में गोला डालो, जिससे अपना भी पेट गरमाए। ओ हो, तुम कहाँ से आ टपके इस समय? कोई कितने ही गंभीर मूड में हो, विचारों की कितनी ही गहराइयों में उतर रहें हो, तुम्हारी आदत है बीच में आ कूदना और फैलाने लगना लन्तरानियों के लच्छे-एक के बाद एक। यह सच है कि यह बहुत बुरी आदत है।
(पृष्ठ सं. 91)

कठिन-शब्दार्थ-गुम-सुम = शान्त, मूक । साँप सूंघना = कुछ न करना, चुप-चाप बैठे रहना। किलकारी = प्रसन्नतापूर्ण चीत्कार। आ टपकना = उपस्थित होना। मूड = मनःस्थिति। गहराई = गम्भीरता। लन्तरानी = मन गढ़त बातें।

सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘सृजन’ में संकलित “मैं और मैं” शीर्षक निबन्ध से लिया गया है। इसके रचयिता कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’ हैं।

लेखक गम्भीर विचारों में मग्न है, तभी उसका मित्र वहाँ आता है। वह विनोद की मुद्रा में है। वह लेखक से बातें करता है तथा लेखक उसको उल्टी-सीधी बातें करने से रोकता है।

व्याख्या-लेखक के मित्र ने आकर उससे कहा कि जब भी वह देखता है, तो उसको चुपचाप बैठा पाता है। उसे क्या साँप सूंघ गया है कि वह कुछ नहीं बोल रहा और सवेरे के इतने अच्छे आनन्ददायक समय में भी शान्त बैठा है। उससे तो देवी कुण्ड में रहने वाले कछुए अच्छे हैं, जो कुण्ड के पानी में तैर रहे हैं। उसने लेखक से कहा कि वह उठे। कुछ प्रसन्नतापूर्ण बातें करे और अँगीठी सुलगाए, जिससे उसको भी कुछ खाने-पीने को मिल सके।

लेखक ने उसे रोकना चाहा और पूछा कि वह इतने सवेरे-सवेरे वहाँ कैसे आ गया? कोई मनुष्य कितनी ही गम्भीर मन:स्थिति में हो अथवा कितने ही गहन विषय पर विचार कर रहा हो, परन्तु वह अपने स्वभाव के अनुसार बीच में अवश्य टोका-टाकी, पूछताछ करता है। वह तरह-तरह की मनगढंत बातें करने लगता है और यह नहीं सोचता कि कोई कितनी गम्भीर बातें सोच रहा है। उसकी यह आदत अच्छी नहीं है। यह एक सच्चाई है। ..

विशेष-
(i) लेखक गम्भीर तथा उसका मित्र विनोदी स्वभाव का है।
(ii) लेखक उससे कहता है कि गम्भीर विषय पर बातें करते समय ऊल-जलूल बातें करना ठीक नहीं होता।
(iii) भाषा सरल तथा प्रवाहपूर्ण है।
(iv) शैली वार्तालाप तथा संवाद की है।

2. पाँचों चल पड़े। चलते-चलते आपस में सलाह की कि, भाई होशियारी से चलियो, कहीं रास्ते में ऐसा न हो कि साँझ हो जाए, जरा गहरी और कोई खोया जाये-लौटकर उसकी घरवाली को क्या जवाब देंगे। फिर कुछ दूर गए, रात हुई, एक मंदिर में पड़कर सो गए। सुबह उठते ही तब पाया कि भाई, पहले गिन लो, सब चौकस भी हैं।

उनमें से एक ने सबको गिना : एक, दो, तीन, चार। फिर गिना : एक, दो, तीन, चार। जोर से चिल्लाकर कहा-अरे, हम तो घर से पाँच चले थे, ये तो रात भर में ही चार रह गए। दूसरे ने दुबारा सबको गिना, पर वे ही चार। तीसरे ने गिना, तब भी चार ही रहे। मामला संगीन हो गया और तब पाया कि लौटकर घर चलें-शायद पाँचवां आदमी रात को घर लौट गया हो। (पृष्ठ सं. 92)

कठिन-शब्दार्थ-साँझ = शाम। पड़कर = लेटकर। चौकस = सही-सलामत। संगीन = गम्भीर। पाया = तय किया।

सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘सृजन’ में संकलित “मैं और मैं” शीर्षक निबन्ध से लिया गया है। इसके लेखक कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’ हैं।

पाँच दोस्त थे। काम कुछ करते नहीं थे। दोनों वक्त खाना और पीने को भाँग उनको जरूर चाहिए थी। एक दिन उनकी पत्नियों ने बुरा-भला कहा, तो लज्जित होकर उन्होंने परदेश जाकर कुछ कामधाम करने का विचार किया।

व्याख्या-पाँचों दोस्त परदेश के लिए चले। रास्ते में चलते हुए आपस में विचार किया कि सँभल कर चलना है। ऐसा न हो कि शाम को गहरा अँधेरा हो जाये और कोई खो जाये। यदि ऐसा हुआ, तो उसकी पत्नी को क्या बतायेंगे? कुछ दूर जाने पर रात हो गई, तो एक मंदिर में लेट गए और सो गए। सुबह उठे, तो तय किया कि पहले गिनती करके देख लें कि सब बात ठीक-ठाक है और पाँचों दोस्त सही सलामत हैं।

उनमें से एक ने गिना तो वे चार थे। दोबारा गिनने पर भी चार ही थे। वह तेज आवाज में बोला-हम घर से चले थे, तो पाँच थे। रास्ते में ही चार रह गए हैं, तब दूसरे दोस्त ने सबकी गिनती की। तब भी वे चार ही थे। तीसरे ने गिना तभी चार ही थे। अब बात गम्भीर रूप ले चुकी थी। अब उन्होंने तय किया कि घर वापस चला जाए। संभव है एक आदमी रात को ही घर लौट गया हो।

विशेष-
(i) पाँचों दोस्त परदेश के लिए चल दिए और एक मंदिर में रात बिताई।
(ii) सवेरा होने पर एक ने सबको गिना, तो उनकी संख्या चार थी।
(iii) भाषा सरल तथा रोचक है। ‘चलियो’, ‘खोया जाये’, ‘तब पाया’ आदि पर लौकिक बोली का प्रभाव है।
(iv) शैली वर्णनात्मक तथा चुटीली है।

3. समझदार ने कहा-अरे भोंदू, अपने को तो गिन। अब इन लोगों की समझ में आया कि मामला यह है कि जो गिनता है, अपने को भूल जाता है। वही हाल मेरा हो रहा है कि मैंने घर की सोची, पड़ौसी की सोची, देश की सोची और यों समझो कि दुनिया बातें सोच मारी, पर अपनी बात भूल गया और कभी यह न सोचा कि आखिर मेरा मेरे प्रति क्या कर्तव्य है और क्या अधिकार है। आज मैं यही सोच रहा था कि तुम आ गए। कहो फिर, मैं गहरे चिंतन में था या नहीं? (पृष्ठ सं. 193)

कठिन-शब्दार्थ-भोंदू = मूर्ख। सोच मारी = सोच ली। चिंतन = विचार करना।

सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘सृजन’ में संकलित “मैं और मैं” शीर्षक पाठसे लिया गया है। इसके रचयिता कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’ हैं। _ पाँचों मित्रों ने एक-दूसरे की गणना की, परन्तु संख्या चार ही रही। एक मित्र गायब हो गया था। वे रोने लगे, तब एक समझदार आदमी ने उनकी गणना की और बताया तुम पाँच घर से चले थे, अब भी पाँच हो। फिर रो क्यों रहे हो, तब उनमें से एक ने फिर गिना तो संख्या चार ही रही।

व्याख्या-उस समझदार आदमी ने गिनने वाले से कहा-मूर्ख! तू अपने को भी तो गिन। अब उन लोगों ने समझा कि गलती यह हो रही थी कि जो गिनता था, वह अपनी गिनती नहीं करता था। इससे उनकी संख्या पाँच से घटकर चार रह जाती थी। लेखक की दशा भी उसी प्रकार की थी। उसने अब तक घर, पास-पड़ौस, देश और दुनियां सबके बारे में विचार किया, परन्तु कभी-भी अपने बारे में नहीं सोचा। वह अपने को भूल ही गया। उसने यह नहीं सोचा कि उसके अपने प्रति क्या कर्तव्य और क्या अधिकार हैं? जिस समय लेखक का मित्र आया, उस समय वह इसी के बारे में सोच रहा था। लेखक ने उससे पूछा कि वह बताए कि लेखक गहराई से विचार कर रहा था अथवा नहीं?

विशेष-
(i) हम सबके सम्बन्ध में सोचते हैं, किन्तु स्वयं को भूल जाते हैं।
(ii) हम अपने प्रति अपने अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में नहीं सोचते।
(iii) भाषा सरल तथा प्रवाहपूर्ण है।
(iv) शैली संवादात्मक है।

4. मतलब यह कि अपने बारे में सबसे पहले जो बात सोचने की है, वह यह कि मेरा यह अधिकार है कि मैं अच्छे काम करूँ, अपने जीवन को ऊँचा उठाऊँ, पर मेरा यह कर्तव्य भी है कि जो किसी कारण से अच्छे काम नहीं कर रहे हैं, या साफ शब्दों में गिरे हुए हैं, उन्हें अपने कामों से ऊँचे उठने की प्रेरणा देते हुए भी, उन पर अपने अहंकार का बोझ न लादूँ, क्योंकि अहंकार घृणा का पिता है और घृणा जीवन की संपूर्ण ऊँचाइयों की दुश्मन है।

खास बात यह है कि घृणा उसका घात करती है, जो घृणा करता है और इस तरह मैं दूसरों से घृणा करके अपना ही घात करता हूँ। (पृष्ठ सं. 93.94)

सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘सृजन’ में संकलित “मैं और मैं” शीर्षक निबन्ध से लिया गया है। इसके रचयिता कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’ हैं। शेखशादी ने अपने पुत्र को शिक्षा दी कि दूसरों के दोष देखकर उनकी बुराई करना ठीक नहीं

व्याख्या-लेखक कहता है कि शेखशादी की शिक्षा का आशय यह है कि मनुष्य यह सोचे कि उसका अधिकार है कि वह अच्छे काम करे और अपने जीवन को ऊँचा उठाये। उसका यह कर्तव्य भी है कि वह अपने ऊँचे कामों से उन लोगों को प्रेरणा देकर अच्छा बनाये तथा ऊँचा उठाये, जो पिछड़ गए हैं अथवा नीचे गिर गए हैं और जिनके कर्म अच्छे नहीं हैं। उसको अपने अच्छे कामों पर घमंड नहीं होना चाहिए तथा जो उससे अच्छा काम करने की प्रेरणा लेते हैं, उन पर कोई अहसान नहीं जताना चाहिए। अहंकार अथवा घमंड से मन में घृणा उत्पन्न होती है। घृणा जीवन की सभी उच्च बातों के विरुद्ध है तथा घृणा करने से मनुष्य का पतन होता है। मुख्य तथा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जो घृणा करता है वही घृणा से हानि उठाता है। इसके कारण उसका ही पतन होता है।

विशेष-
(i) मनुष्य को अपने जीवन में अच्छे काम करने चाहिए।
(ii) उसे अपने प्रेरणाप्रद कामों से दूसरों को सत्कर्म करने तथा ऊँचा उठने के लिए उत्साहित करना चाहिए।
(iii) भाषा सरल तथा भावानुकूल है।
(iv) शैली विचारात्मक है।

5. मेरे कानों में पड़ा फ्रेश स्टार्ट-इनका अर्थ होता है-नया ताजा आरंभ। सुनते ही एक नई ताजगी अनुभव हुई और मैंने सोचा कि हर नया आरंभ अपने साथ एक ताजगी, एक तेजी, एक स्फुरण लिए आता है।

तभी याद आ गए मुझे फिर कौशल जी, जो जीवन में बार-बार असफल होकर भी थके नहीं, ऊबे नहीं, और बराबर आगे बढ़ते रहे और आज ही पहली बार मेरी समझ में आया उनकी उस अपराजित वृत्ति का रहस्य। यह रहस्य है-नया ताजा आरंभ। वे हारे, पर हार कर रुके नहीं और इस न रुकने में ही उनकी सफलता का रहस्य छिपा हुआ है। (पृष्ठ सं. 95)

कठिन-शब्दार्थ-ताजगी = फुर्ती। स्फुरण = स्फूर्ति, ताजगी। ऊबना = बेचैन होना। अपराजित = कभी न थकने वाला। वृत्ति = स्वभाव। रहस्य = भेद।

सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘सृजन’ में संकलित “मैं और मैं” शीर्षक पाठ से लिया गया है। इसके रचयिता कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’ हैं।

श्री सिंहल ने लेखक से कहा कि वह उनकी मोटरें जितने में बिकें उतने में बेच दे, जिससे वह कारखाने के मामले से निपट कर फ्रेश स्टार्ट ले सके। व्याख्या-लेखक कहता है कि उसने अपने कानों से फ्रेश स्टार्ट शब्द सुना। इस शब्द का अर्थ है नया और ताजा कार्य आरम्भ करना। फ्रेश स्टार्ट शब्द सुनकर लेखक को ताजापन का अनुभव हुआ तथा उसका आलस्य भाव दूर होता दिखा। उसने विचार किया कि प्रत्येक नवीन कार्य के साथ मनुष्य को एक प्रकार की ताजापन, तेजी तथा स्फूर्ति प्राप्त होती है। उसी समय लेखक को कौशल जी को याद आ गई। वह जीवन में अनेक बार असफल हुए, किन्तु न थके न ऊबे अपितु बराबर आगे ही बढ़ते रहे। कौशल जी की इस कभी भी हार न मानने वाली प्रवृत्ति का रहस्य लेखक सिंहल जी के फ्रेश स्टार्ट शब्द को सुनकर समझा। ताजा आरम्भ में ही कौशल जी की अथक वृत्ति का रहस्य छिपा है। वह थके और हारे, परन्तु हारकर रुके नहीं। नए कार्य आरम्भ किए और आगे बढ़ते रहे। न रुकने में ही उनकी कभी हार न मानने की प्रवृत्ति का रहस्य छिपा है।

विशेष-
(i) नया कार्य आरम्भ होने पर मनुष्य का मन स्फूर्ति से भर जाता है। उसमें नवीन ऊर्जा पैदा होती है।
(ii) हार कर भी न रुकने वाला मनुष्य जीवन में कभी परास्त नहीं होता।
(iii) भाषा सरल तथा प्रवाहपूर्ण है।
(iv) शैली विचारात्मक है।

6. मैंने सोचा-मेरा अपने प्रति यह अधिकार है कि मैं हार जाऊँ, थक जाऊँ, गिर भी पडूं और भूलूँ-भटकूँ भी, क्योंकि यह सब एक मनुष्य के नाते मेरे लिए स्वाभाविक है, संभव है, पर मेरा यह कर्तव्य है कि मैं हार कर भागू नहीं, थक कर बैलूं नहीं, गिर कर गिरा ही न रहूँ और भूल-भटक कर भरमता ही न फिरूँ, जल्दी-से-जल्दी अपनी राह पर आ जाऊँ। अपने काम में लग जाऊँ और एक नया आरंभ करूँ, क्योंकि रुक जाना ही मेरी मृत्यु है और न मरने से पहले, न मेरा अधिकार है और न कर्तव्य। (पृष्ठ सं. 95)

कठिन-शब्दार्थ-स्वाभाविक = प्राकृतिक, स्वभाव के अनुकूल। भरमता = भ्रम के कारण भटकता। राह = रास्ता।

सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘सृजन’ में संकलित “मैं और मैं” शीर्षक निबन्ध से उद्धृत है। इसके रचयिता कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’ हैं।

सिंहल तथा कौशल को स्मरण करके तथा फ्रेश स्टार्ट की बात से अनुप्राणित लेखक विचारमग्न हो गया। वह सोचने लगा मनुष्य होने के कारण उसकी क्या-क्या खामियाँ और खूबियाँ हैं।

व्याख्या-लेखक ने सोचा कि अपने जीवन में वह चलते-चलते थक और हार सकता है। वह गिर भी सकता है तथा भ्रम में पड़कर रास्ता भटक सकता है। वह एक मनुष्य है तथा ऐसा होना न असंभव है और न अस्वाभाविक । इन बातों को लेखक अपना अधिकार मानता है, परन्तु वह हमें अपने कर्तव्यों के बारे में भी बताता है। वह कहता है कि उसका कर्तव्य यह है कि वह हारे, तो अवश्य पर भागे नहीं, थक जाय, किन्तु बैठे नहीं। यदि गिर जाए, तो गिरा ही न रहे, उठे भी। वह भूले और भ्रमित हो, किन्तु सदा भ्रम से ग्रस्त न रहे। वह जल्दी ही अपने सही रास्ते पर आ जाए। वह एक नवीन काम में लग जाए और एक नया आरम्भ करें। रुक जाना उसकी मृत्यु है और मरने से पहले उसका अधिकार और कर्तव्य कुछ नहीं है।

विशेष-
(i) लेखक की चिन्तनशील प्रवृत्ति का परिचय इस परिच्छेद में मिलता है।
(ii) निरन्तर चलना, कर्म करना ही जीवन है। थक-हार कर बैठ जाना मृत्यु है।
(iii) भाषा साहित्यिक, किन्तु सुबोध है।
(iv) शैली विचारात्मक है।

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