RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरण कारक-प्रकरणम्

Rajasthan Board RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरण कारक-प्रकरणम्

परिभाषा-‘क्रियाजनकत्वं कारकम्’ क्रिया को जो करता है। अथवा क्रिया के साथ जिसका सीधा अथवा परम्परा से सम्बन्ध होता है, वह ‘कारक’ कहा जाता है। क्रिया के साथ कारकों को साक्षात् अथवा परम्परा से सम्बन्ध कैसे होता है? यह समझने के लिए यहाँ एक वाक्य प्रस्तुत किया जा रहा है। जैसे हे मनुष्याः! नरदेवस्य पुत्रः जयदेवः स्वहस्तेन कोषात् निर्धनेभ्यः ग्रामे धनं ददाति।” (हे मनुष्यो! नरदेव का पुत्र जयदेव अपने हाथ से खजाने से निर्धनों के लिए गाँव में धन (को) देता है।)

यहाँ क्रिया के साथ कारकों का सम्बन्ध इस प्रकार प्रश्नोत्तर से जानना चाहिए-
Karak In Sanskrit Class 9 RBSE

इस प्रकार यहाँ ‘जयदेव’ इस कर्ता कारक का तो क्रिया से साक्षात् सम्बन्ध है और अन्य कारकों का परम्परा से सम्बन्ध है इसलिए ये सभी कारक कहे जाते हैं। किन्तु इसी वाक्य में ‘हे मनुष्याः!’ और ‘नरदेवस्य’ इन दो पदों का ददाति क्रिया के साथ साक्षात् अथवा परम्परा से सम्बन्ध नहीं है इसलिए ये दो पद कारक नहीं हैं। ‘सम्बन्ध’ कारक तो नहीं होता है, परन्तु उसमें षष्ठी विभक्ति होती है। अत: कारक एवं विभक्ति में गहरा सम्बन्ध होते हुए भी ये अलग-अलग हैं। ‘कारकाणां संख्या’-इत्थं ‘कारकाणां संख्या’ षड् भवति। यथोक्तम्

कर्ता कर्म च करणं च सम्प्रदानं तथैव च।
अपादानाधिकरणमित्याहुः कारकाणिषट्।।

(इस प्रकार ‘कारकों की संख्या’ छः होती है। जैसा कि कहा है-कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण-ये छः कारक कहे गये हैं।)
ध्यातव्य- संस्कृत में प्रथमा से सप्तमी तक सात विभक्तियाँ होती हैं। ये सात विभक्तियाँ ही कारक का रूप धारण करती हैं। सम्बोधन विभक्ति को प्रथमा विभक्ति के ही अन्तर्गत गिना जाता है। क्रिया से सीधा सम्बन्ध रखने वाले शब्दों को ही कारक माना गया है। षष्ठी विभक्ति का क्रिया से सीधा सम्बन्ध नहीं होता है, अतः ‘सम्बन्ध’ कारक को कारक नहीं। माना गया है। इस प्रकार संस्कृत में कारक छः ही होते हैं। तथा विभक्तियाँ सात होती हैं। कारकों में प्रयुक्त विभक्तियों तथा उनके चिह्नों का विवरण इस प्रकार है-
उपपद विभक्ति संस्कृत Class 9 RBSE

विभक्ति प्रयोग
विभक्ति-‘अपदं न प्रयुञ्जीत’ अर्थात् शब्दों को बिना प्रत्यय के प्रयुक्त नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि बिना प्रत्यय के शब्द ‘अपद’ होते हैं अर्थात् पद नहीं होते। इसलिए शब्दों में ‘सु’ और जस् आदि 21 प्रत्यय लगते हैं, इन्हीं प्रत्ययों के
आधार पर शब्दों के सात विभक्तियों में 21 रूप बनते हैं। इन प्रत्ययों को सुप् प्रत्यय कहते हैं। सम्बोधन विभक्ति के तीन रूप प्रथमा विभक्ति के प्रत्ययों से बनते हैं।

1. कर्ता कारक प्रथमा
विभक्ति-(कर्ताकारकस्यप्रयोगः) (अर्थात् कर्ता कारक का प्रयोग प्रथमा विभक्ति का है) परिभाषा-

  • “स्वतंत्रः कर्ता” ‘स्वतंत्रः कर्ता’ अर्थात् जो क्रिया के करने में स्वतन्त्र होता है, वह कर्ता कहा जाता है।
  • क्रियासम्पादक-क्रिया का सम्पादन करने वाला कर्ता होता है और कर्ता में प्रथमा विभक्ति होती है, जैसे-रामः पठति।

संस्कृत में कर्ता के तीन पुरुष, तीन वचन और तीन लिङ्ग होते हैं। यथा (जैसे)-
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प्रथम पुरुष के सर्वनाम रूपों की भाँति ही राम, लता, फल, नदी आदि के रूप तीनों वचनों में प्रयोग में लाये जाते हैं। कर्ता के तीन लिङ्ग-पुल्लिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग तथा नपुंसकलिङ्ग होते हैं। वाक्य में सामान्य रूप से कर्ता कारक को प्रथमा विभक्ति द्वारा व्यक्त करते हैं।

वाक्य में कर्ता की स्थिति के अनुसार संस्कृत में वाक्य तीन प्रकार के होते हैं
1. कर्तृवाच्य
2. कर्मवाच्य
3. भाववाच्य।

  1. कर्तृवाच्य- जब वाक्य में कर्ता की प्रधानता होती है, तो कर्ता में सदैव प्रथमा विभक्ति ही होती है। जैसे-मोहनः पठति। (मोहन पढ़ता है।)
  2. कर्मवाच्य- वाक्य में कर्म की प्रधानती होने पर कर्म में प्रथमा विभक्ति होती है और कर्ता में तृतीया। जैसे-रामेण ग्रन्थः पठ्यते। (राम के द्वारा ग्रन्थ पढ़ा जाता है।)
  3. भाववाच्य- वाक्य में भाव (क्रियातत्त्व) की प्रधानता होती है और कर्म नहीं होता है। कर्ता में सदैव तृतीया विभक्ति और क्रिया (आत्मनेपदी) प्रथम पुरुष एकवचन की प्रयुक्त होती है। जैसे-कमलेन गम्यते। (कमल के द्वारा जाया जाता है।)

2. कर्मकारक
कर्म कारक की परिभाषा-“कर्तुरीप्सिततमं कर्म-कर्ता की अत्यन्त इच्छा जिस काम को करने में हो, अर्थात् कर्ता। जिसे बहुत अधिक चाहता है, उसे कर्म कारक कहते हैं, जैसे-मोहनः चित्रं पश्यति। (मोहन चित्र देखता है) यहाँ ‘चित्रम्’ कर्म कारक है, क्योंकि कर्ता -‘मोहन’ के द्वारा इसको देखना चाहा जा रहा है।

  1. कर्मणि द्वितीया-कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे-सा पुस्तकं पठति। यहाँ ‘पुस्तकम्’ की कर्म संज्ञा है, अतः ‘पुस्तकम्’ में द्वितीया विभक्ति हुई है।
  2. तथायुक्त अनीप्सितम्-कर्ता जिसे प्राप्त करने की प्रबल इच्छा रखता है, उसे ईप्सितम् कहते हैं और जिसकी इच्छा नहीं रखता उसे अनीप्सित कहते हैं। अनीप्सित पदार्थ पर क्रिया का फल पड़ने पर उसकी कर्म संज्ञा होती है। जैसे-‘दिनेशः विद्यालयं गच्छन्, बालकं पश्यति’ (‘दिनेश विद्यालय को जाता हुआ, बालक को देखता है’) इस वाक्य में ‘बालक’ अनीप्सित पदार्थ है, फिर भी विद्यालयं’ की तरह प्रयुक्त होने से उसमें कर्म कारक का प्रयोग हुआ है।

3. करण कारक
परिभाषा- साधकतमं करणम् क्रिया की सिद्धि में जो सर्वाधिक सहायक होता है, उस कारक की करण संज्ञा (नाम) होती है।
यथा (जैसे)-

  1. मोहन: कलमेन लिखति। (यहाँ क्रिया ‘लिखति’ में सर्वाधिक सहायक ‘कलम’ है, अत: ‘कलमेन’ में तृतीया हुई।)
  2. रमेशः जलेन मुखं प्रक्षालयति। (यहाँ ‘प्रक्षालयति’ क्रिया की सिद्धि में सर्वाधिक सहायक जल है, अतः ‘जलेन’ में तृतीया हुई।)
    • ‘कर्तृकरणयोस्तृतीया’ अर्थात् अनभिहिते कर्तरिकरणे च तृतीया विभक्ति भवति। (अर्थात् कर्मवाच्य अथवा भाववाच्य वाक्य के अनुक्त कर्ता और करण कारक में तृतीया विभक्ति होती है।)  जैसे-रामेण बाणेन बाली हतः। (यहाँ ‘हतः’ कर्मवाच्य में क्त प्रत्यय हुआ है। अतः कर्ता राम अनुक्त है अर्थात् कर्मवाच्य। वाक्य का कर्ता है तथा बाण करण कारक है। अतः कर्ता राम तथा करण बाण दोनों शब्दों में तृतीया विभक्ति हुई।)
    • कर्मवाच्य भाववाच्यस्य वा अनुक्त कर्तरि अपि तृतीया विभक्तिः भवति। (कर्मवाच्य अथवा भाववाच्य के अनुक्त कर्ता में भी तृतीया विभक्ति होती है।) जैसे-
  3. रामेण लेखः लिख्यते (कर्मवाच्ये) (यहाँ कर्मवाच्य वाक्य में ‘राम’ अनुक्त कर्ता है, अतः ‘रामेण’ में तृतीया विभक्ति हुई।)
  4. मया जलं पीयते। (कर्मवाच्ये) (यहाँ कर्मवाच्य वाक्य में ‘अहम्’ अनुक्त कर्मवाच्य वाक्य का कर्ता है, अतः ‘मया’ में तृतीया विभक्ति हुई।)

4. सम्प्रदान कारक
सम्प्रदान कारक की परिभाषा-जिसको सम्यक (भली-भाँति) प्रकार से दान दिया जाये अथवा जिसको कोई वस्तु दी जाये, उसकी सम्प्रदान संज्ञा होती है, ‘कर्मणा यमभिप्रेति सः सम्प्रदानम्’ अर्थात् जिसको कोई वस्तु दी जाती है, वह सम्प्रदान कारक कहलाता है और सम्प्रदान कारक में चतुर्थी विभक्ति का ही प्रयोग होता है।

  1. सम्प्रदाने चतुर्थी’ अर्थात् सम्प्रदान कारक में चतुर्थी विभक्ति होती है। जिसे कुछ दिया जाता है, उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है।
    जैसे-

    • नृपः ब्राह्मणाय धेनुं ददाति।
    • धनिकः याचकाये वस्त्रं यच्छति।

यहाँ ऊपर दिये हुए वाक्यों के मोटे छपे शब्दों में सम्प्रदान कारक है; क्योंकि इन्हीं को कर्ता ने क्रमशः धेनु, वस्त्र देकर प्रसन्न किया है।

क्रिया यमभिप्रैति सोऽपि सम्प्रदानम्-अर्थात् केवल दान देना ही नहीं (देने की क्रिया) अपितु कर्म के द्वारा जो अभिप्रेत हो, उसे सम्प्रदान कारक कहा जाता है अर्थात् किसी क्रिया विशेष द्वारा भी जो कर्ता को अभिप्रेत इच्छित हो, सम्प्रदान कारक कहा जाता है। तात्पर्य यह हुआ कि किसी वस्तु को देकर प्रसन्न करने पर सम्बन्धित प्राणी में स-प्रदान कारक होता है, साथ ही किसी भी क्रिया द्वारा इच्छित प्राणी को सन्तुष्ट अथवा प्रसन्न किया जाता है तो उस सन्तुष्ट होने वाले प्राणी में सम्प्रदान कारक होता है।
जैसे-

  • सा बालकाय नृत्यति।
  • कमला कृष्णाय जलम् आनयति।

यहाँ पर कर्ता ‘सा’ नृत्य-क्रिया द्वारा अपने बालक को प्रसन्न करना चाहती है। अर्थात् वह अपना नृत्य बालक को देना (प्राप्त कराना) चाहती है अतः बालक में सम्प्रदान कारक है। अतः चतुर्थी विभक्ति हुई है। इसी प्रकार द्वितीय वाक्य में
कमला जल लाने की क्रिया कृष्ण की सन्तुष्टि (प्रसन्नता) के लिए कर रही है; अतः उसमें भी क्रिया द्वारा अभिप्रेत (इच्छित) कृष्ण में सम्प्रदान कारक है अतः चतुर्थी विभक्ति

5. अपादान कारक।
(क) ध्रुवमपायेऽपादानम्-अर्थात् किसी वस्तु या व्यक्ति के अलग होने में जो कारक स्थिर होता है अर्थात् जिससे वस्तु अलग होती है, उसकी अपादान संज्ञा होती है अर्थात् उस शब्द को अपादान कारक कहा जाता है।
(ख) अपादाने पञ्चमी-अर्थात् अपादान कारक में पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है।
जैसे-

  • वृक्षात् पत्रं पतति। (वृक्ष से पत्ता गिरता है।)
  • नृपःग्रामाद् आगच्छति। (राजा गाँव से आता है।)
  • बालकः गृहात् आगच्छति। (बालक घर से आता है।)
  • अहं विद्यालयात् आगच्छामि (मैं विद्यालय से आती हूँ।)

ऊपर कहे गये चारों उदाहरणों में क्रमशः वृक्ष, ग्राम, गृह और विद्यालय स्थिर कारक हैं और इनसे क्रमशः पत्रं, नृपः, बालकः और अहं अलग हो रहे हैं अतः वृक्ष, ग्राम, गृह और विद्यालय की अपादान कारक संज्ञा (नाम) होने से इनमें पञ्चमी विभक्ति आई है।

6. सम्बन्ध कारक
संस्कृत में ‘सम्बन्ध’ कारक को कारक नहीं माना गया है, जबकि हिन्दी में ‘सम्बन्ध’ कारक को कारक स्वीकारा गया है। इसका कारण यह है कि संम्बन्ध कारक में कर्ता (संज्ञा) का क्रिया के साथ सम्बन्ध व्यक्त नहीं होता, अपितु संज्ञा अथवा सर्वनाम के साथ केवल सम्बन्ध ही प्रकट होता है। संस्कृत में कारक उसे ही कहा जाता है जिसका क्रिया से सीधा सम्बन्ध होता है।

संज्ञा अथवा सर्वनामों का यह सम्बन्ध मुख्य रूप से चार प्रकार का है
(अ) स्वाभाविक सम्बन्ध; जैसे-बालकस्य क्रीडनम्। (बालक को खेलना)
(ब) जन्य-जनक भाव सम्बन्ध;-जैसे-मातुः तनया (माता की पुत्री)
(स) अवयवावयवि भाव सम्बन्ध;-जैसे शरीरस्य अङ्गानि (शरीर के अंग)
(द) स्थान्यदेश भाव सम्बन्धः, जैसे-नगरस्य आपणम् (नगर का बाजार) हिन्दी में सम्बन्धवाचक शब्दों के साथ ‘रा’, ‘री’, ‘रे’ तथा ‘का’, ‘की’, ‘के’ शब्दांश जुड़े होते हैं। संस्कृत में इस सम्बन्ध को वाक्य में षष्ठी विभक्ति द्वारा व्यक्त किया जाता है। जैसे-

  • रामस्य पिता श्री दशरथः आसीत्। (राम के पिता श्री दशरथ थे।)
  • सीता रामस्य पत्नी आसीत्। (सीता राम की पत्नी थी।)

7. अधिकरण कारक
‘आधारोऽधिकरणम्’ अर्थात् जिस वस्तु अथवा स्थान पर कार्य किया जाता है, उस आधार में अधिकरण कारक होता है। इसके चिह्न ‘में’ या ‘पर’ हैं। ध्यान रखे जाने योग्य है कि अधिकरण क्रिया का साक्षात् आधार नहीं होता है, वह तो कर्ता और कर्म का आधार होता है। क्रिया कर्ता अथवा कर्म में रहती है। अधिकरण तीन प्रकार का होता है-

  • उपश्लेषमूलक आधार
  • वैषयिक आधार
  • अभिव्यापक आधार।

उपश्लेष मूलक आधार का अर्थ है-संयोगादि सम्बन्ध। जैसे-मोहनः आसन्दिकायाम् आस्ते। मोहन कुर्सी पर बैठा है, यहाँ कर्ता मोहन है, उसमें बैठने की क्रिया है। मोहन का आधार है कुर्सी, उसके साथ मोहन का संयोग सम्बन्ध है। अतः कुर्सी औपश्लेषिक आधार है। इसी प्रकार ‘यतिः वने वसति’ में वन’ उपश्लेषमूलक आधार है। विषयता सम्बन्ध से सम्पन्न होने वाला आधार वैषयिक आधार कहलाता है। उदाहरण के लिए ‘देवदत्तस्य’ मोक्षे इच्छा अस्ति’। इस वाक्य में कर्ता देवदत्त है, उसकी मोक्ष में इच्छा है; अर्थात् उसकी इच्छा का विषय मोक्ष है; अतः यह वैषयिक आधार है। जिस आधार पर कोई वस्तु समस्त अवयवों में लीन होकर रहती है, वह आधार अभिव्यापक आधार कहलाता है। जैसे-सर्वस्मिन् आत्मा अस्ति। आत्मा समस्त प्राणियों में रहती है; अतः ‘सर्व’ शब्द में अभिव्यापक आधार है। अतः ‘सर्व’ शब्द में सप्तमी विभक्ति हुई है।

वाक्य में अधिकरण कारक को सप्तमी विभक्ति द्वारा व्यक्त किया जाता है, जैसे

  • ग्रामेषु जनाः निवसन्ति।
  • छात्राः विद्यालये पठन्ति।
  • सिंहः वने वसति।
  • सिंहाः वनेषु गर्जन्ति।
  • गङ्गायां जलं वर्तते।
  • शिक्षकः पाठशालायां पाठयति।
  • आकाशे तारामण्डलमस्ति।
  • भवनेषु जनाः वसन्ति।

8. सम्बोधन कारक

  1. जिसको पुकारा जाता है, उसमें सम्बोधन कारक होता है। सम्बोधन कारक में प्रायः प्रथमा विभक्ति होती है।
  2. सम्बोधन के चिह्न हे भो अरे आदि हैं। कभी ये छिपे भी होते हैं।
  3. सम्बोधन में प्रथमा विभक्ति के रूपों में कुछ शब्दों के एकवचन के रूप में कुछ परिवर्तन भी हो जाता है। जैसे-सीते! त्वं कुत्र असि? (हे सीता! तुम कहाँ हो?)

अन्य उदाहरण-

  • रे सोहन! त्वं किम् अपश्यः?
  • भो छात्रा:! यूयं विद्यालयं गच्छत।

उपपद विभक्ति
संस्कृत में कारकों के अतिरिक्त किसी विशेष अर्थ को व्यक्त करने के लिए अथवा किसी ‘पद’ विशेष के साथ विभक्ति विशेष को लगाये जाने का नियम भी है। नियम के अनुसार प्रयुक्त होने वाली विशेष विभक्ति को ही ‘उपपद विभक्ति’ के नाम से जाना जाता है।

प्रथमा विभक्ति
सूत्र- प्रातिपदिकार्थलिङ्गपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा। प्रातिपदिक का अर्थ बतलाने में, लिङ्ग का ज्ञान कराने में, परिमाण का बोध कराने में और वचन की जानकारी कराने में प्रथमा विभक्ति आती है।

  1. प्रातिपदिकार्थ में किसी पद (शब्द) के उच्चारण करने पर जिस अर्थ की निश्चित जानकारी होती है उसे प्रातिपदिकार्थ कहते हैं। अर्थात् जाति और व्यक्ति की प्रतीति जिससे होती है उसे प्रातिपदिकार्थ कहते हैं। उदाहरणार्थ-कृष्णः, श्रीः, ज्ञानम् आदि पद प्रातिपदिकार्थ रूप में प्रयुक्त हुए हैं, अतः इनमें प्रथमा विभक्ति है।
  2. लिंग मात्र में किसी पद में लिंग बतलाने के लिए प्रथमा विभक्ति का प्रयोग करते हैं। जैसे-तटः, तटी, तटम्। यहाँ ये तीनों पद (शब्द) क्रमशः पुल्लिग, स्त्रीलिंग एवं नपुंसकलिंग का ज्ञान करा रहे हैं। अतः इन तीनों में प्रथमा विभक्ति है।
  3. परिमाण मात्र में-नाप या भार का बोध कराने के लिए भी प्रथमा विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। जैसे-द्रोणः (एकं तोलने का बाँट), आढकम् (एक तोल विशेष) आदि में प्रथमा विभक्ति है।
  4. वचन मात्र में-एकवचन, द्विवचन और बहुवचन का ज्ञान कराने हेतु भी प्रथमा विभक्ति प्रयुक्त होती है, जैसे-एकः द्वौ, बहवः, क्रमशः एकवचन, द्विवचन तथा बहुवचन में हैं। तथा प्रथमा विभक्ति में हैं।
  5. अभिधेयमात्र में-अभिधेय का अर्थ है नाम। केवल नाम व्यक्त करना हो तो उसमें प्रथम विभक्ति लगती है। जैसे-रामः, कृष्णः, गजः देवः। यहाँ ये चारों पद (शब्द) नाम हैं अतः इनमें प्रथमा विभक्ति लगी है।
  6. अव्ययमात्र में-अव्यय शब्दों के योग में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे-कृष्णः इति सखा अस्ति। (‘कृष्ण’ यह (नामवाला) मित्र है)
  7. सम्बोधन में-सम्बोधन में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे-हे कृष्ण! यहाँ ‘इति’ अव्यय शब्द से पूर्व वाले ‘कृष्णः’ पद (शब्द) में ‘इति’ अव्यय शब्द के योग के कारण प्रथमा विभक्ति लगी है। यहाँ ‘हे कृष्ण!’ में सम्बोधन विभक्ति (प्रथमा विभक्ति) है।
  8. प्रयोजक कर्ता में-प्रयोजक कर्ता में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे-पिता पुत्रं मेघं दर्शयति। यहाँ प्रयोजक कर्ता ‘पिता’ पद (शब्द) में प्रथमा विभक्ति है।
  9. कर्म कारक में-कर्मवाच्य के वाक्य में कर्म कारक में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे-मया कृष्णः दृश्यते। (मेरे द्वारा कृष्ण को देखा जा रहा है) यहाँ कर्म कारक ‘कृष्णः पद (शब्द) में प्रथमा विभक्ति लगी है।

द्वितीया विभक्तिः (कर्मकारकस्य प्रयोगः)
परिभाषा-“कर्तुरीप्सिततमं कर्म” कर्ता की अत्यन्त इच्छा जिस काम को करने में हो, अर्थात् कर्ता जिसे बहुत अधिक चाहता है, उसे कर्म कारक कहते हैं। जैसे-मोहनः चित्रं पश्यति। (मोहन चित्र को देखता है) यहाँ ‘चित्रम्’ कर्म कारक है, क्योंकि कर्ता ‘मोहन’ के द्वारा इसका देखना चाहा जा रही है।

अतः ‘चित्रम्’ में द्वितीया विभक्ति है।

  1. कर्मणि द्वितीया-कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे-सा पुस्तकं पठति। यहाँ ‘पुस्तक’ शब्द ‘पठति’ क्रिया का कर्म है, अतः ‘पुस्तकम्’ में द्वितीया विभक्ति हुई है।
  2. तथायुक्त अनीप्सितम्-कर्ता जिसे प्राप्त करने की प्रबल इच्छा रखता है, उसे ईप्सिततम कहते हैं और जिसकी इच्छा नहीं रखता उसे अनीप्सित कहते हैं। अनीप्सित (अनिच्छित) पदार्थ पर क्रिया का फल पड़ने पर उसकी कर्म संज्ञा होती है। जैसे-‘दिनेश: विद्यालयं गच्छन्, बालकं पश्यति’ (दिनेश विद्यालय जाते हुए, बालक को देखता है) इस वाक्य में ‘बालकं’ अनीप्सित (अनिच्छित) पदार्थ है, फिर भी ‘विद्यालयं’ की तरह प्रयुक्त होने से उसमें कर्म कारक का प्रयोग हुआ है।

‘अकथितं च सूत्र से निम्न सोलह धातुओं तथा इन अर्थों की अन्य धातुओं के होने पर इनके साथ दो कर्म होते हैं, अतः दोनों में द्वितीया विभक्ति ही लगायी जाती है।
जैसे-

  1. दुह (दुहना),
  2. याच् अथवा भिक्षु (माँगना),
  3. पच् (पकाना),
  4. दण्ड् (दण्ड देना),
  5. रुध् (रोकना),
  6. प्रच्छ् (पूछना),
  7. चि (चुनना),
  8. ब्रू अथवा भाष् (बोलना),
  9. शास् (बताना),
  10. जि (जीतना),
  11. मथ् (मथना),
  12. मुष्। अथवा चुर् (चुराना),
  13. नी (ले जाना),
  14. ह (हरण करना),
  15. कृष् (खींचना),
  16. वह् (ढोना या ले जाना)। ये सोलह द्विकर्मक (दो कर्मों वाली) क्रियाएँ हैं।

इनके उदाहरण निम्नवत् हैं

  1. कृषक: अजां दुग्धं दोग्धि।
  2. सेवकः नृपं क्षमा याचते भिक्षते वा।
  3. पाचकः तण्डुलान् ओदनं पचति।
  4. नृपः दुर्जनं शतं दण्डयति।
  5. कृष्णः ब्रजं गां रुणद्धि।
  6. शिष्यः गुरु धर्मं पृच्छति।
  7. मालाकारः लतां पुष्पाणि चिनोति।
  8. शिक्षकः छात्रं धर्मं ब्रूते भाषते वा। जनकः पुत्रं धर्मं शास्ति।
  9. मोहनः रामं शतं जयति।
  10. हरिः सागरं सुधां मथ्नाति।
  11. रामः देवदत्तं शतं मुष्णाति चोरयति वा।
  12. कृषकः ग्रामम् अजां नयति।
  13. नराः वसुधां रत्नानि कर्षन्ति।
  14. कृषक: भारं ग्रामं कर्षति।
  15. कृषक: भारं ग्रामं वहति।

नोट-यहाँ ऊपर दिये गये वाक्यों में गहरे काले पदों में (शब्दों में) कर्म कारक होने के कारण द्वितीया विभक्ति प्रयुक्त हुई है।

द्वितीया उपपद विभक्ति

  1. ‘अधिशीस्थासां कर्म’-इस सूत्र के अनुसार अधि उपसर्ग पूर्वक शीङ् (सोना), स्था (ठहरना) एवं आस् (बैठना) धातु के आधार की कर्म संज्ञा होती है। अर्थात् सप्तमी विभक्ति के अर्थ में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे-हरिः बैकुण्ठम् अधिशेते। (हरि बैकुण्ठ में सोते हैं।) यहाँ बैकुण्ठ में सप्तमी विभक्ति न होकर उक्त अधि उपसर्ग के प्रयोग के कारण द्वितीया विभक्ति हुई है।
  2. उभयतः (दोनों ओर), सर्वतः (सभी ओर या चारों ओर), धिक् (धिक्कार है), उपर्युपरि (उपरि + उपरि = ऊपर-ऊपर), अध्यधि (अधि + अधि = अन्दर-अन्दर) और अधोऽधः (अधः + अधः = नीचे-नीचे) इन शब्दों का योग होने पर द्वितीया विभक्ति ही होती है।

जैसे-

  • कृष्णम् उभयतः गोपाः सन्ति। (कृष्ण के दोनों ओर ग्वाले हैं।)
  • ग्रामं सर्वतः जलम् अस्ति। (गाँव के सब ओर जल है।)
  • दुर्जनं धिक्। (दुर्जन को धिक्कार है।)
  • हरिः लोकम् उपर्युपरि अस्ति। (हरि संसार के ऊपर-ऊपर हैं।)
  • हरिः लोकम् अध्यधि वर्तते। (हरि संसार के अन्दर-अन्दर हैं।)
  • पातालः लोकम् अधोऽधः वर्तते। (पाताल संसार के नीचे-नीचे है।)

(3) अभितः परितः समया निकषा हा प्रतियोगेऽपि-इस वार्तिक के अनुसार अभितः (दोनों ओर), परितः (चारों ओर), समया (समीप में), निकषा (समीप में), हा (अफसोस) तथा प्रति (ओर) का योग होने पर भी द्वितीया विभक्ति होती है।
जैसे-

  • प्रयागम् अभितः नद्यौ स्तः।
  • ग्रामं समया विद्यालयोऽस्ति।
  • ग्राम परितः जलम् अस्ति।
  • विद्यालयः ग्रामं निकषा अस्ति।
  • हा शठम्।
  • बालकः विद्यालयं प्रति गच्छति।

(4) गत्यर्थक अर्थात् गति (चलना, हिलना, जाना) अर्थ वाली क्रियाओं के साथ द्वितीया विभक्ति होती है।
जैसे-

  • रामः ग्रामं गच्छति (राम गाँव को जाता है।
  • सिंहः वनं विचरति। (सिंह वन में विचरण करता है।)
  • सः स्मृति गच्छति (वह स्मृति को प्राप्त करता है।)
  • स परं विषादम् अगच्छत्। (वह परम विषाद को प्राप्त हुआ।)

(5) अन्तराऽन्तरेण युक्ते-अर्थात् अन्तरा (बीच या मध्य में), अन्तरेण (बिना) और (विना) के योग में द्वितीया विभक्ति होती है।
जैसे-

  • त्वां मां च अन्तरा रामोऽस्ति।
  • रामम् अन्तरेण न गतिः।
  • ज्ञानं विना न सुखम्।

(6) ‘कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे’ अर्थात् अत्यन्त संयोग हो और कालवाची अथवा मार्गवाची शब्दों का प्रयोग हो तो कालवाची अथवा मार्गवाची शब्दों में द्वितीया विभक्ति आती है।
जैसे-

  • रामः मासम् अधीते पठति वो।
  • इयं नदी क्रोशं कुटिला अस्ति।
  • सः क्रोशं पुस्तकं पठति अधीते वा।
  • सः दश दिनानि लिखति।

(7) ‘उपान्वध्यावसः’ अर्थात् वस् धातु से पहले उप, अनु, अधि और आ उपसर्गों में से कोई भी उपसर्ग लगा हो, तो वस् धातु के आधार की कर्म संज्ञा हो जाती है अर्थात् सप्तमी के स्थान पर द्वितीया विभक्ति ही लगती है।
जैसे-

  • हरिः। बैकुण्ठम् उपवसतिं।
  • हरिः बैकुण्ठम् अनुवसति।
  • हरि: बैकुण्ठम् अधिवसति।
  • हरिः बैकुण्ठम् आवसति। अर्थात् हरि बैकुण्ठ में निवास करता है।

(8) ‘अभुक्तर्थस्य न’ अर्थात् जब उपसर्गपूर्वक वस् धातु का अर्थ उपवास करना (भूखा रहना) होता है, तब उसके आधार की कर्म संज्ञा नहीं होती तथा द्वितीया विभक्ति नहीं आती है। बल्कि सप्तमी विभक्ति हो जाती है। जैसे-रामः वने उपवसति। राम वन में उपवास करता (भूखा रहता) है। अनु (ओर या पीछे) के योग में द्वितीया विभक्ति आती है। जैसे-नृपः चौरम् अनुधावति। (राजा चोर के पीछे दौड़ता है।)

(9) अनुर्लक्षणे-अनु का लक्षण-अर्थ व्यक्त होने पर ‘अनु’ के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे लक्ष्मणः रामम् अनुगच्छति (लक्ष्मण राम के पीछे जाता है।), यज्ञम् अनुप्रावर्षत् (यज्ञ के पश्चात् वर्षा हुई।)

(10) एनपा द्वितीया-एनप प्रत्ययान्त शब्द की जिससे निकटता प्रतीत होती है उसमें द्वितीया या षष्ठी होती है। जैसे-नगर नगरस्य वा दक्षिणेन (नगरे के दक्षिण की ओर)। नोट-यहाँ 1 से 10 तक के नियमों के वाक्यों में गहरे काले पदों (शब्दों) में द्वितीया विभक्ति हुई है। तृतीया विभक्ति ‘कर्तृकरणयोस्तृतीया’ अर्थात् उक्त कर्तृवाच्यं वाक्य के करण कारक में तथा कर्मवाच्य अथवा भाववाच्य वाक्य के कर्ता कारक में तृतीया विभक्ति आती है।
जैसे-

  1. शीलया सुप्यते। यह भाववाच्य का वाक्य है, अतः कर्ता *शीलया’ में तृतीया विभक्ति आयी है।
  2. ममतया भोजनं पच्यते। यह भाववाच्य का वाक्य है। अतः कर्ता ‘ममतया’ में तृतीया विभक्ति आयी है।

तृतीया उपपद विभक्ति।
(1) ‘प्रकृत्यादिभिः उपसंख्यानम्’-अर्थात् प्रकृति, प्रायः, गोत्र आदि शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति होती है।
जैसे-

  • रामः प्रकृत्या दयालुः।
  • सोमदत्तः प्रायेण याज्ञिकोऽस्ति।
  • सेः गोत्रेण गाग्र्योऽस्ति।

(2) ‘सहयुक्तेऽप्रधाने’ -अर्थात् सह (साथ), साकं (साथ), समं (साथ) और सार्धं (साथ) के योग में अप्रधान (कर्ता का साथ देने वाले) में तृतीया विभक्ति आती है। जैसे– सीता रामेण सह गच्छति। (सीता राम के साथ जाती है।) यहाँ प्रधान कर्ता सीता है और राम अप्रधान है, अतः सह (साथ) का योग होने के कारण ‘राम’ में तृतीया विभक्ति हुई है।
जैसे-

  • पिता पुत्रेण साकं गच्छति।
  • रामः पादेन खञ्जः।
  • मोहनः कर्णाभ्यां बधिरः।
  • सः शिरसा खल्वाटः।

(3) येनाङ्ग विकारः-शरीर के जिस अंग में विकार हो उस विकार युक्त अंग में तृतीया विभक्ति होती है।
जैसे-

  • कर्णेन बधिरः।
  • पादेन खञ्जः
  • हस्तेन लुञ्जरः।

(4) ऊन .(कम), हीन (रहित), अलम् (बस या मना के अर्थ में) तथा किम् आदि न्यूनतावाचक और निषेधवाचक शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति होती है।
जैसे-

  • अलं विवादेन।
  • विद्यया हीनः जनः पशुः।
  • एकेन ऊनः।
  • कलहेन किम्।

(5) तुल्य, सम और सदृश शब्दों के योग में विकल्प से तृतीया और षष्ठी विभक्तियाँ होती हैं। तुल्य, सदृश और सम तीनों शब्दों का अर्थ ‘समान’ है।
जैसे-

  • कृष्णेन/कृष्णस्य वा तुल्यः।
  • सत्येन/सत्यस्य वा समः।
  • रामेण/रामस्य वा सदृशः।

(6) ‘इत्थं भूतलक्षणे’ अर्थात् जिस लक्षण या चिह्न विशेष से किसी वस्तु या व्यक्ति का बोध होता है, उसमें तृतीया विभक्ति का प्रयोग किया जाता है।
जैसे-

  • जटाभिः तापसः प्रतीयते।
  • दण्डेन यतिः ज्ञायते।
  • स्वरेण रामभद्रम् अनुहरति।

(7) कार्य, अर्थ, प्रयोजन, गुण तथा उपयोगिता को प्रकट करने वाले अन्य पदों के योग में भी उपयोग में आने वाली वस्तु में इसी नियम से तृतीया विभक्ति होती है।
जैसे-

  • धनेन किं प्रयोजनम्?
  • कोऽर्थः पुत्रेण जातेन?
  • मूर्खेण पुत्रेण किम्?

(8) ‘अपवर्गे तृतीया’-अर्थात् फलप्राप्ति या कार्यसिद्धि का बोध कराने के लिए सम्यवाची तथा मार्गवाची शब्दों में अत्यन्त संयोग होने पर तृतीया विभक्ति होती है। यहाँ अपवर्ग का अर्थ फल की प्राप्ति है।
जैसे-

  • मासेन शास्त्रम् अधीतवान्।
  • क्रोशेन पुस्तकं पठितवान्।
  • सप्तभिः दिनैः चितवान्।

(9) पृथग्विनानागिभस्तृतीयान्यतरस्याम्। अर्थात् पृथक्, विना, नाना शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति, द्वितीया विभक्ति और पञ्चमी विभक्ति होती है; जैसे-दशरथः रामेण/रामात्/रामं वा विना/पृथक/नाना प्राणान् अत्यजत्।

(10) हेतौ-हेतु अर्थात् कारण वाचक शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति होती है।
जैसे-

  • रमेशः अध्ययनेन नगरे वसति। (रमेश अध्ययन हेतु नगर में रहता है।)
  • विद्यया यशः भवति। (विद्या के द्वारा/के कारण यश होता है।)

(11) किम्, अपि, प्रयोजनं, अर्थः, लाभः आदि के योग में तृतीया विभक्ति होती है।
जैसे-

  • धनेन किं भवति?
  • सद्व्यवहारेण अपि यशः भवति।
  • अत्र मोदकैः प्रयोजनं न अस्ति।
  • अधार्मिकः पुत्रेण कः अर्थः?
  • अन्धस्य दीपेन कः लाभ:?

(12) सुख, दुःख, प्रकृति, प्रायः के योग में तृतीया विभक्ति होती है।
जैसे-

  • सज्जनाः सुखेन जीवन्ति।
  • अस्मिन्। संसारे सर्वो: दुःखेन जीवनं यापयन्ति।
  • कोमलः प्रकृत्या/स्वभावेन साधुः भवति।
  • स प्रायेण यज्ञं करोति। नोट-यहाँ 1 से 12 तक के नियमों के वाक्यों में गहरे काले पदों (शब्दों) में तृतीया विभक्ति हुई है।

चतुर्थी विभक्ति।
(1) सम्प्रदाने चतुर्थी-अर्थात् सम्प्रदान कारक में चतुर्थी विभक्ति होती है। जिसे कुछ दिया जाता है, उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है।
जैसे-

  • नृपः ब्राह्मणाय धेनुं ददाति।
  • धनिकः याचकाय वस्त्रं यच्छति।

चतुर्थी उपपद विभक्ति
(1) ‘रुच्यर्थानां प्रीयमाणः’ अर्थात् रुच् (अच्छा लगना) अर्थ वाली धातुओं (क्रियाओं) के साथ चतुर्थी विभक्ति होती है। जिसे कोई वस्तु अच्छी लगती है, उस व्यक्ति में चतुर्थी विभक्ति आती है और जो वस्तु अच्छी लगती है, उसमें प्रथमा विभक्ति होती है।
जैसे-

  • बालकाय मोदकं रोचते।
  • हरये भक्तिः रोचते।

इस प्रकार के वाक्यों में प्रथमा विभक्ति वाला पद कर्ता कारक माना जाता है, अतः क्रिया प्रथमा विभक्ति वाले पद के पुरुष के अनुसार होती है। रुच् धातु (क्रिया) के समान अर्थ वाली ‘स्वद्’ (अच्छा लगना) धातु भी है। अतः स्वद् धातु के साथ भी प्रसन्न होने वाले में चतुर्थी विभक्ति आती है।
जैसे-

  • बालकाय मोदकं स्वदते।
  • गोपालाय दुग्धं स्वदते।

(2) ‘क्रुधदुहेष्यसूयार्थानां ये प्रति कोपः’ अर्थात् क्रुध्। (क्रोध करना), द्रुह (द्रोह करना), ई (ईष्र्या करना) और असूय् (जलन करना) धातुओं के योग में तथा इन धातुओं के समान अर्थ वाली अन्य धातुओं के योग में जिसके ऊपर क्रोध आदि किया जाता है, उसकी सम्प्रदान संज्ञा होने से उसमें चतुर्थी विभक्ति आती है।
जैसे-

  • स्वामी सेवकाय क्रुध्यति कुप्यति वा।
  • दुर्जनः सज्जनाय द्रुह्यति।
  • राक्षसः हरये ईर्थ्यति।
  • दुर्योधनः युधिष्ठिराय असूयति।

किन्तु अभि, अधि और सम् उपसर्गपूर्वक क्रुध्, दुह धातु के साथ द्वितीया विभक्ति होती है।
जैसे-

  • राक्षस: रामम् अभिक्रुध्यति।
  • पिता पुत्रं संक्रुध्यति।

(3) ‘नमः स्वस्तिस्वाहास्वधाऽलंवषड्योगाच्च’ अर्थात् नमः (नमस्कार), स्वस्ति (कल्याण), स्वाहा (अग्नि में आहुति), स्वधा (पितरों के लिए अन्नादि का दान), अलं (पर्याप्त, समर्थ) और वषट् (आहुति) के साथ चतुर्थी विभक्ति का ही प्रयोग होता है।
जैसे-

  • श्रीगणेशाय नमः।
  • रामाय स्वस्ति।
  • अग्नये स्वाहा।
  • पितृभ्यः स्वधा।
  • हरिः दैत्येभ्यः अलम्।
  • इन्द्रायै वषट्।

विशेष-यहाँ ‘अलम्’ को अर्थ पर्याप्त या समर्थ है, अतः चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त हुई है। यदि ‘अलम्’ का प्रयोग मना (निषेध) के अर्थ में होगा, तो वहाँ तृतीया विभक्ति ही होगी।

(4) ‘स्पृहेरीप्सितः’ अर्थात् स्पृह (स्पृहा करना) धातु के योग में चाही जाने वाली वस्तु की सम्प्रदान कारक संज्ञा हो जाती है और उसमें चतुर्थी विभक्ति आती है। जैसेबालकः पुष्पेभ्यः स्पृह्यति।

(5)‘ताद चतुर्थी’ अर्थात् जिस प्रयोजन के लिए कोई कार्य किया जाता है, उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है।
जैसे-

  • भक्तः मुक्तये हरि भजति।
  • शिशुः दुग्धाय क्रन्दति।

(6) ‘हितयोगे च’ (वार्तिक) अर्थात् हित और सुख शब्दों के योग में चतुर्थी विभक्ति आती है।
जैसे-

  • विप्राय हितं भूयात्।
  • बालकाय सुखं भूयात्।

(7) कथ् (कहना), उपदिश् (उपदेश देना), नि उपसर्गपूर्वक विद् (निवेदन करना), आचक्ष (कहना) के साथ चतुर्थी आती है।
जैसे-

  • शिक्षकः छात्राय कथयति।
  • शिष्यः गुरवे निवेदयति।
  • गुरुः शिष्याय उपदिशति।
  • बालकाय कथाम् आचक्षते।

(8) प्रत्याभ्यां श्रुतः पूर्वस्य कर्ता-प्रति या आ उपसर्गपूर्वक श्रु (प्रतिज्ञा करना) धातु के योग में जिससे प्रतिज्ञा की जाती है, उसमें सम्प्रदान कारक होता है।
जैसे-

  • विप्राय गां प्रतिशृणोति।
  • याचकाय वस्त्रम् आशृणोति।

(9) धारेरुत्तमर्णः-धृ (ऋण लेना) धातु के योग में ऋण देने वाले में चतुर्थी विभक्ति होती है।
जैसे-

  • गणेशः सोमदत्ताय शतं धारयति।
  • जनाः कोषाय धनं धारयन्ति।

(10) चतुर्थी विधाने तादर्थ्य उपसंख्यानम्-तादर्थ्य अर्थात् जिस कार्य के लिए कारणवाची शब्द का प्रयोग किया जाता है, उस कारणवाची शब्द में चतुर्थी विभक्ति होती है।
जैसे-

  • मोक्षाय हरिं भजति।
  • धनाय श्रमं करोति।

(11) कथ् (कहना), ख्या (बोलना), ‘नि’ उपसर्गपूर्वक विद्-निवेदय् (निवेदन करना) उपदिश् (उपदेश देना), सम्पद् (होना), कल्प् (होना), भू (होना) आदि धातुओं तथा ‘सुख’ एवं ‘हित’ आदि शब्दों के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है।
जैसे-

  • पिता पुत्राय कथयति।
  • शिक्षकः बालकेभ्यः ख्याति।
  • भक्ताः ईश्वराय निवेदयन्ति।
  • आचार्यः शिष्येभ्यः उपदिशति।
  • भक्तिः मोक्षीय सम्पद्यते।
  • विद्या सुखाय कल्पते।
  • पुस्तकं ज्ञानाय अस्ति।
  • सर्वेभ्यः भूतेभ्यः सुखं भवेत्।
  • मानवीय हितं भवेत्।

नोट-यहाँ 1 से 10 तक नियमों के वाक्यों में गहरे काले पदों (शब्दों) में चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त हुई है।

पञ्चमी विभक्ति
‘अपादाने पञ्चमी’ अर्थात् अपादाने पञ्चमी विभक्तिः भवति। अपादान कारक में पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है।
जैसे-

  1. वृक्षात् पत्रं पतति। (वृक्ष से पत्ता गिरता है।)
  2. नृपः ग्रामाद् आगच्छति। (राजा गाँव से आता है।) उपर्युक्त दोनों उदाहरणों में क्रमशः ‘वृक्ष’ और ‘ग्राम’ स्थिर कारक हैं और इनसे क्रमशः ‘पत्र’ और ‘नृपः’ अलग हो रहे हैं। अतः ‘वृक्ष’ और ‘ग्राम’ की अपादान संज्ञा होने से इनमें पञ्चमी विभक्ति आयी है।

पञ्चमी उपपद विभक्ति
(1) भीत्रार्थानां भयहेतुः-अर्थात् भय अर्थ की और रक्षा अर्थ की धातुओं के साथ, जिससे भय हो अथवा रक्षा हो, उसकी अपादान संज्ञा होती है और अपादान में पञ्चमी विभक्ति आती है।
जैसे-

  • बालकः सिंहात् बिभेति। (‘भी’ धातोः प्रयोगे पंचमी विभक्तिः)
  • नृपः दुष्टात् रक्षति/त्रायते। (‘रक्ष्’ धातोः प्रयोगे पंचमी विभक्तिः)

(2) आख्यातोपयोगे-अर्थात् जिससे नियमपूर्वक विद्या ग्रहण की जाती है उस शिक्षक आदि की अपादान संज्ञा होती है। और अपादान में पंचमी विभक्ति होती है। यथा

  • शिष्यः उपाध्यायात् अधीते। (‘अधि + इ’ धातोः प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः)
  • छात्रः शिक्षकात् पठति। (‘पठ्’ धातोः प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः।)

(3) जुगुप्साविरामप्रमादार्थानामुपसंख्यानम्-जुगुप्सा (घृणा करना), विराम (रुकना) और प्रमाद (असावधानी करना) अर्थ वाली धातुओं (क्रियाओं) के प्रयोग में जिससे घृणा आदि की जाती है, उसकी अपादान संज्ञा होती है और अपादान में पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग होता है।
जैसे-

  • महेशः पापात् जुगुप्सते। (‘जुगुप्स्’ धातोः प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः।)
  • कुलदीप: अधर्मात् विरमति। (‘विरम्’ धातोः प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः)
  • मोहनः अध्ययनात् प्रमाद्यति। (‘प्रमद्’ धातोः प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः)

(4) भुवः प्रभवः-अर्थात् भू (होना) धातु के कर्ता का जो उद्गम स्थान होता है, उसकी अपादान संज्ञा होती है और अपादान में पञ्चमी विभक्ति होती है।
जैसे-

  • गंगा हिमालयात् प्रभवति। (‘प्रभव्’ धातोः प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः।)
  • कश्मीरात् वितस्तानदी प्रभवति। (‘प्रभवः’ धातोः योगे पञ्चमी विभक्तिः)

(5) जनिकर्तुः प्रकृतिः-‘जन्’ (उत्पन्न होना) धातु का जो कर्ता है, उसके हेतु (कारण) की अपादान संज्ञा होती है और अपादान में पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग होता है।
जैसे-

  • गोमयात् वृश्चिकः जायते। (‘जन्’ धातोः प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः)
  • कामात् क्रोधः जायते। (‘जन् ‘ धातोः प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः)

उपर्युक्त दोनों वाक्यों में जन्’ धातु के कर्ता क्रमशः ‘लोक’ और ‘अग्नि’ हैं और इनके हेतु क्रमशः ‘प्रजापति’ और ‘मुख’ हैं। अतः ये अपादान कारक हुए, जिससे इनमें पञ्चमी विभक्ति आयी है।

(6) अन्तर्षी येनादर्शनमिच्छति-जब कर्ता जिससे अदर्शन (छिपना) चाहता है, तब उस कारक की अपादान संज्ञा होती है और अपादान कारक में पञ्चमी विभक्ति होती है।
जैसे-

  • बालक: मातुः निलीयते।
  • महेशः जनकात् निलीयते।

(7) वारणार्थानामीप्सितः-वारण (हटाना) अर्थ की धातु के योग में अत्यन्त इष्ट (प्रिय) वस्तु की अपादान संज्ञा होती है। और उसमें पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसेकृषक: यवेभ्यः गां वारयति। (‘वृ’ धातोः प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः।) यहाँ इष्ट वस्तु यव (जौ) है, अतः इष्ट कारक यव (जौ) की अपादान कारक संज्ञा होने से पञ्चमी विभक्ति आयी है।

(8) पञ्चमी विभक्ते- जब दो पदार्थों में से किसी एक पदार्थ की विशेषता प्रकट की जाती है, तब विशेषण शब्दों के साथ ‘ईयसुन्’ अथवा ‘तरप्’ प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है और जिससे विशेषता प्रकट की जाती है उसमें पञ्चमी विभक्ति होती है।
यथा-

  • राम: श्यामात् पटुतरः अस्ति। (‘तरप्’ प्रत्ययप्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः)।
  • माता भूमेः गुरुतरा अस्ति। (‘तरप्’ प्रत्ययप्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः।)
  • जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गात् अपि गरीयसी। (‘ईयसुन्’ प्रत्यय प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः।)

(9) अधोलिखितशब्दानां योगे पञ्चमी विभक्तिः भवति।
जैसे-

  • ऋते (बिना) शब्दस्य प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः ज्ञानात् ऋते मुक्तिः न भवति।
  • प्रभृति (से लेकर) शब्दस्य प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः स: बाल्यकालात् प्रभृति अद्यावधिः अत्रैव पठति।
  • बहिः (बाहर) शब्दस्य प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः छात्राः विद्यालयात् बहिः गच्छन्ति।
  • पूर्वम् (पहले) शब्दस्य प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः विद्यालयगमनात् पूर्वं गृहकार्यं कुरु।
  • प्राक् (पूर्व) शब्दस्य प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः ग्रामात् प्राक् आश्रमः अस्ति।
  • अन्य (दूसरा) शब्दस्य प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः रामात् अन्यः अयं कः अस्ति?
  • अनन्तरम् (बाद) शब्दस्य प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः यशवन्तः पठनात् अनन्तरं क्रीडाक्षेत्रं गच्छति।
  • पृथक् (अलग) शब्दस्य प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः नगरात् पृथक् आश्रमः अस्ति।
  • परम् (बाद) शब्दस्य प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः रामात् परं श्यामः अस्ति।

नोट- यहाँ 1 से 9 तक के नियमों के वाक्यों में गहरे काले पदों (शब्दों) में पञ्चमी विभक्ति प्रयुक्त हुई है।

सम्बन्धकारकस्य प्रयोगः (षष्ठी विभक्तिः)।
षष्ठी शेषे-सम्बन्ध कारक में षष्ठी विभक्ति प्रयुक्त होती है। जैसे-रमेशः संस्कृतस्य पुस्तकं पठति। (रमेश संस्कृत की पुस्तक पढ़ती है।) (‘सम्बन्धे’ षष्ठी विभक्ति 🙂 (सम्बन्ध कारक में षष्ठी विभक्ति)।

षष्ठी उपपद विभक्ति
(1) यतश्च निर्धारणम्-जब बहुत में से किसी एक की जाति, गुण क्रिया के द्वारा विशेषता प्रकट की जाती है, तब विशेषण शब्दों के साथ ‘इष्ठन्’ अथवा ‘तमप्’ प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है और जिससे विशेषता प्रकट की जाती है, उसमें षष्ठी विभक्ति अथवा सप्तमी विभक्ति का प्रयोग होता है।
जैसे-

  • कवीनां कालिदासः श्रेष्ठः अस्ति। (इष्ठन्’ प्रत्ययस्य प्रयोगे षष्ठी विभक्तिः।)
  • कविषु कालिदासः श्रेष्ठः अस्ति। (‘इष्ठन्’ प्रत्ययस्य प्रयोगे सप्तमी विभक्तिः।)
  • छात्राणां सुरेशः पटुतमः अस्ति। (‘तमप्’ प्रत्ययस्य प्रयोगे षष्ठी विभक्तिः।)
  • छात्रेषु सुरेशः पटुतमः अस्ति। (‘तमप्’ प्रत्ययस्य प्रयोगे सप्तमी विभक्तिः।)

(2) अधोलिखितशब्दानां योगे षष्ठी विभक्तिः भवति। (निम्नलिखित शब्दों के योग में षष्ठी विभक्ति होती है।)
जैसे-

  • नीचे’ अर्थ वाले’ अधः शब्द के प्रयोग में षष्ठी विभक्ति वृक्षस्य अधः बालकः शेते।
  • ‘ऊपर’ अर्थ वाले ‘उपरि’ शब्द के प्रयोग में षष्ठी विभक्ति भवनस्य उपरि खगाः सन्ति।
  • ‘सामने’ अर्थ वाले ‘पुरः’ शब्द के प्रयोग में षष्ठी विभक्ति विद्यालयस्य पुरः मन्दिरम् अस्ति।
  • ‘सामने’ अर्थ वाले ‘समक्षम्’ शब्द के प्रयोग में षष्ठी विभक्ति अध्यापकस्य समक्षं शिष्यः अस्ति।
  • ‘समीप’ अर्थ वाले ‘समीपम्’ शब्द के प्रयोग में षष्ठी विभक्ति नगरस्य समीपं ग्रामः अस्ति।
  • ‘बीच में अर्थ वाले ‘मध्ये’ शब्द के प्रयोग में षष्ठी विभक्ति पशूनां मध्ये ग्वालः अस्ति।
  • ‘लिए’ अर्थ वाले ‘कृते’ शब्द के प्रयोग में षष्ठी विभक्ति बालकस्य कृते दुग्धम् आनय।
  • ‘अन्दर’ अर्थ वाले अन्त:’ शब्द के प्रयोग में षष्ठी विभक्ति गृहस्य अन्तः माता विद्यते।
  • ‘विभक्ति में अर्थ-वाले ‘अन्तिकम्’ शब्द के प्रयोग में षष्ठी-विभक्ति। एवम् आलोच्य सः पितुः अन्तिकम् आगच्छत्।
  • ‘अन्त में अर्थ वाले (अन्ते) शब्द के प्रयोग में षष्ठी विभक्ति) सेः कार्यस्य अन्ते अत्र आगच्छति।

(3) तुल्यार्थैरतुलोपमाभ्यां तृतीयान्यतरस्याम्-तुलनावाची शब्दों के योग में षष्ठी अथवा तृतीया विभक्ति होती है।
यथा-

  • सुरेशः महेशस्य तुल्यः अस्ति। (तुल्यार्थे षष्ठी विभक्तिः।)
  • सुरेशः महेशेन तुल्यः अस्ति। (तुल्यार्थे तृतीया विभक्तिः।)

नोट-यहाँ वाक्यों में गहरे काले पदों (शब्दों) में षष्ठी विभक्ति प्रयुक्त हुई है।

सप्तमी विभक्ति आधारोऽधिकरणम्-अर्थात् क्रियायाः सिद्धौ यः आधारः भवति तस्य अधिकरणसंज्ञा भवति अधिकरणे च सप्तमी विभक्तिः भवति। (क्रिया की सिद्धि में जो आधार होता है, उसकी अधिकरण संज्ञा होती है और अधिकरण में सप्तमी विभक्ति होती है।)
यथा-

  • नृपः सिंहासने तिष्ठति। (सिंहासने सप्तमी)

सप्तमी उपपद विभक्ति
(1) जिसमें स्नेह किया जाता है उसमें सप्तमी विभक्ति होती है। जैसे-पिता पुत्रे स्निह्यति। (स्निह् धातोः योगे सप्तमी विभक्तिः।)
(2) संलग्नार्थक और चतुरार्थक शब्दों के योग में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग होता है।
जैसे-

  • बलदेवः स्वकार्ये संलग्नः अस्ति। ‘संलग्न’ अर्थ में सप्तमी-विभक्ति।
  • जयदेवः संस्कृते चतुरः अस्ति। ‘चतुर’ अर्थ में सप्तमी विभक्ति।

(3) निम्नलिखित शब्दों के योग में सप्तमी विभक्ति होती है।
जैसे-

  • ‘श्रद्धा’ शब्दस्य प्रयोगे सप्तमी विभक्तिः बालकस्य पितरि श्रद्धा अस्ति।
  • ‘विश्वासः’ शब्दस्य प्रयोगे सप्तमी महेशस्य स्वमित्रे विश्वासः अस्ति।

(4) यस्य च भावेन भावलक्षणम्-जब एक क्रिया के बाद दूसरी क्रिया होती है तब पूर्व क्रिया में और उसके कर्ता में सप्तमी विभक्ति होती है।
जैसे-

  • रामे वनं गते दशरथः प्राणान् अत्यजत्। एक क्रिया के बाद दूसरी क्रिया के प्रयोग में सप्तमी विभक्ति
  • सूर्ये अस्तं गते सर्वे बालकाः गृहम् अगच्छन्। एक क्रिया के बाद दूसरी क्रिया के प्रयोग में सप्तमी विभक्ति

नोट-यहाँ सभी गहरे काले पदों (शब्दों) में सप्तमी विभक्ति प्रयुक्त हुई है।

अभ्यास
Karak In Sanskrit Class 9 प्रश्न 1.
स्थूल शब्दों में नियम-निर्देशपूर्वक विभक्ति बताइए।

  1. गोपालः धेनुं दुग्धं दोग्धि।
  2. हरिः बैकुण्ठम् अधिशेते।
  3. विद्यालयं परितः वृक्षाः सन्ति।
  4. क्रोशं कुटिला नदी।
  5. रामेण सुप्यते।
  6. गिरधरः पादेन खञ्जः।
  7. धर्मेण हीनः पशुभिः समानः।
  8. सुशीलः प्रकृत्या साधुः अस्ति।
  9. मोक्षाय हरि भजति।
  10. गोमयाद् वृश्चिक: जायते।
  11. गङ्गा हिमालयात् प्रभवति।
  12. अल्पस्य हेतोर्बहुहातुमिच्छन्
  13. तिलेषु तैलम्।

उत्तर:

  1. द्विकर्मक धातु के योग में द्वितीया।
  2. ‘अधि’ उपसर्गपूर्वक ‘शीङ’ धातु के योग में द्वितीया विभक्ति होती है।
  3. परितः (चारों ओर) के योग में द्वितीया विभक्ति होती है।
  4. ‘गति’ अर्थ में द्वितीया विभक्ति होती है।
  5. कर्म वाच्य के कर्ता में तृतीया विभक्ति होती है।
  6. विकृत अंग में तृतीया विभक्ति होती है।
  7. ‘हीन’ के योग में तृतीया विभक्ति होती है।
  8. प्रकृति/स्वभाव के योग में तृतीया विभक्ति होती है।
  9. वैषयिक सम्प्रदान के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है।
  10. ‘जन्’ धातु एवं इसका अर्थ रखने वाली ‘उद्भव’ धातु के योग में पंचमी विभक्ति होती है।
  11. ‘उद्गम’ जन्’ धातु के योग में पञ्चमी विभक्ति होती है।
  12. हेतु’ के योग में षष्ठी विभक्ति होती है।
  13. ‘आधार’ के योग में सप्तमी विभक्ति होती है।

उपपद विभक्ति संस्कृत Class 9 प्रश्न 2.
समुचितविभक्तिपदेन वार्तालापं पूरयत
मोहनः-त्वं कस्मिन् विद्यालये पठसि?
हरीशः-अहं नवोदयविद्यालये पठामि।
मोहनः-तव विद्यालयः कीदृशः अस्ति?
हरीशः- मे ……….(i) (विद्यालय) परितः वनानि सन्ति।
मोहनः-त्वं विद्यालयं कदा गच्छसि?।
हरीशः अहं विद्यालयं दशवादने गच्छामि।
मोहनः-तव मित्र
महेशः तु खञ्जः अस्ति।
हरीशः-आम् सः……….. (ii) (दण्ड) चलति।
मोहनः-हरीश! तव माता प्रातः काले कुत्र गच्छति?
हरीशः-मम माता प्रात:काले…………..(iii) (भ्रमण) गच्छति।
मोहनः अतिशोभनम्…………..(iv) (स्वास्थ्यलाभ) मा प्रमदितव्यम्।
सहसा शिक्षकः कक्षे प्रवेशं करोति वदति च अलम्…………. (v) (वार्तालाप)
उत्तर:
(i) विद्यालयं
(ii) दण्डेन
(iii) भ्रमणाय
(iv) स्वास्थ्यलाभात्
(v) वार्तालापेण।

उपपद विभक्ति Class 9 प्रश्न 3.
कोष्ठकगतपदेषु उचितविभक्तिं प्रयुज्य वाक्यानि पूरयतपुरा
(i) …………….(हस्तिनापुर) शान्तनुः नाम नृपतिः अभवत्।
देवव्रत: (ii) ………………(शान्तनु) गंगायाः च पुत्रः आसीत्।
एकदा शान्तुनः (iii) ……………(यमुना) तीरे सत्यवतीम्। अपश्यत्।
यदा देवव्रतः इदं सर्व (iv) ……………….(वृत्तान्त) अवागच्छत् से धीवरस्य गृहम् अगच्छत्।
धीवरः सत्यवत्याः विवाहं (v) ………….(नृपति) सह अकरोत्।
उत्तर:
(i) हस्तिनापुरे
(ii) शान्तनोः
(iii) यमुनायाः
(iv) वृत्तान्तम्
(v) नृपतिना।

कारक विभक्ति संस्कृत में प्रश्न 4.
कोष्ठान्तर्गतशब्देषु उचितां विभक्ति प्रयुज्य वाक्यानि पूरयत
(i) ……………अभितः नद्यौ स्तः (ग्राम)
(ii) पिता………….स्निह्यति। (पुत्र)
(iii) ………..मोदकं रोचते। (बालक)
(iv) धिक्…………ये वेदान् न पठन्ति। (ब्राह्मण)
(v) ………..योगेशः पटुः। (बालक)
उत्तर:
(i) ग्रामम्
(ii) पुत्रे
(iii) बालकाय
(iv) ब्राह्मणान्
(v) बालकेषु।

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