RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम्

Rajasthan Board RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम्

किं तावत् व्याकरणम्?
भाषा के दो महत्वपूर्ण पक्ष हैं-

  1. लक्ष्य-पक्ष और
  2. लक्षण-पक्ष।

लक्ष्य-पक्ष पूर्व-पक्षे होता है और लक्षण-पक्ष उत्तर पक्ष होता है। अर्थात् भाषा पहले होती है और व्याकरण उसके बाद। जब तक लक्ष्यभूत भाषा का भलीभाँति अध्ययन नहीं होता है तब तक लक्षण-पक्ष-भूत व्याकरण की रचना नहीं होती। भाषा की जो मूल प्रकृति होती है, उसे जाने बिना कोई भी उसका व्याकरण नहीं जान सकता। भाषा की प्रकृति को जान करके ही उसके व्याकरण की रचना की जा सकती है। अत: इसी कारण से कहा जाता है कि पहले लक्ष्य ग्रन्थ रचे जाते हैं और उसके बाद लक्षण ग्रन्थों की रचना की जाती है।

किसी भी भाषा की प्रकृति व्याकरण का मूलभूत तत्व होता है। उसको जानकर उसकी शुद्धि और अशुद्धि के विषय में चिन्तन किया जाता है। इसी कारण से व्याकरण को विद्वान्। ‘शब्दानुशासन’ कहते हैं। अतः जहाँ भाषा के प्रकृति प्रत्ययों की कल्पना करके पदों और वाक्यों की शुद्धता और भाषा की रचना धर्मिता स्पष्ट की जाती है वहाँ व्याकरण जन्म लेती है। व्याकरण ही व्याकरण शास्त्र कहलाता है जो कि विश्लेषण अर्थात् जिसके द्वारा प्रकृति प्रत्यय आदि की (जहाँ) व्युत्पत्ति या विग्रह/विश्लेषण किया जाता है वह व्याकरण है।

(1) उच्चारण-स्थानानि (अल् प्रत्याहारस्य/ वर्णानाम्)
तो उच्चारण स्थान क्या है? यह प्रश्न पैदा होने पर कहा जाता है-ध्वनियों के उच्चारण के लिए जो वायु को कमती-बढ़ती (न्यूनाधिक) व्यवधान होता है वह स्थान कहलाती है। जैसाकि पारिशिक्षा में कहा गया है-अचां अर्थात् स्वरों का जहाँ उपसंहार (अवसान) होता है वह स्थान किया जाता है। व्यंजनों का स्थान तो वह है जहाँ स्पर्श किया जाता है। स्थान दो भागों में बँटे होते हैं-बाह्य और आभ्यन्तर। बाह्य स्थान ही ये प्रक्रम अथवा सवन स्थान कहलाते हैं आभ्यन्तर ही मुख स्थान होते हैं।

बाह्य स्थान कितने हैं? वे स्थान तीन होते हैं-

  1. उर (हृदय),
  2. कंठ (गला) और
  3. शिर (सिर)। फिर आभ्यन्तर कितने होते हैं? आभ्यन्तर स्थान पाँच हैं-
  4. जिह्वा मूल (जीभ की जड़),
  5. दन्ताः (दाँत),
  6. नासिका (नाक),
  7. ओष्ठौ (ऊपर-नीचे के दोनों ओठ),
  8. तालु (कठोर तालु–दाँतों से मूर्धा तक का स्थान)।

जैसा कि ‘पाणिनीय शिक्षा में कहा है-“वर्गों के उच्चारण स्थान आठ हैं-

  1. उर,
  2. कण्ठ,
  3. शिर,
  4. जिह्वामूल,
  5. दाँत,
  6. नासिका,
  7. कण्ठ और
  8. तालु (कठोर तालु, व कोमल तालु)।

यद्यपि यहाँ अर्थात् इस विषय में बहुत-सी विसंगतियाँ (पारम्परिक असंगतियाँ) हैं। भिन्न-भिन्न प्रदेशों की भेद की दृष्टि से कुछ विद्वान दस स्थान मानते हैं। अन्य पाँच या छः भेद मानते हैं। (स्वीकार करते हैं)। यहाँ भट्टोजी दीक्षित और वह सिद्धान्तकौमुदीकार कहता है कि-(सभी प्रकार के) अ, कवर्ग, ह और विसर्ग का उच्चारण स्थान कण्ठ है। इ, चवर्ग, ये श का उच्चारण स्थान तालु है। ऋ, ट वर्ग र और ष का उच्चारण स्थान मूर्धा है। लु, त वर्ग, और स् का उच्चारण स्थान दन्त है। उ, उपध्मानीय (प/फ) और पवर्ग के वर्षों का उच्चारण दोनों ओठों के मेल से होता है। ज् म् ङ् ण् न्।

पंचम वर्गों का उच्चारण अपने वर्ग के उच्चारण स्थान के साथ-साथ नासिका (नाक) के योग से किया जाता है। ए और ऐ का कण्ठ तालु से, ओ और औ का कण्ठोष्ठ से होता है। वे का उच्चारण दन्त + ओष्ठ (अर्थात् नीचे के ओठ और ऊपर की दन्त पंक्ति के स्पर्श से होता है। जिह्वामूलीय (क/ख) का उच्चारण जिह्वा की जड़ से तथा अनुस्वार (•) का नासिका से होती है। इस प्रकार सिद्धान्त कौमुदी के लेखक और लघु सिद्धान्त कौमुदी के लेखक (वरदराज) द्वारा सभी वर्गों का स्थान भेद ये स्वीकारे हैं-
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 1

ञ् म् ङ् ण् न् इन वर्गों का मुख नासिका स्थान होता है। अल् प्रत्याहार में स्थित वर्षों की यदि बात की जाय तब तो अनुस्वार (i) जिह्वामूलीय (क/ख) विसर्जनीयः (:) और उपध्मानीयः (प/फ) बाहर होती हैं। शेष अल् प्रत्याहार में स्थित वर्ण हैं।

अल् प्रत्याहार-‘अ से लेकर’ ल् पर्यंत सभी वर्गों का समादेश अर्थात्
अ इ उ ऋ ए ओ ऐ औ (अच्) ह य् व् र् ल् ज् म् ङ् ण न झू भ् घ् द् ध् ज् ब् ग् ड् द् ख् फ् छ् थ् च् र् त् क् प् श् ष् स्।

(2) सन्धिः (सन्धिः, सन्धिविच्छेदश्च)

सन्धि का अभिप्राय है?
सम् (उपसर्ग) + धा (धातु) + कि (प्रत्यय) + सु (विभक्ति) इनके मेल से ‘सन्धि’ शब्द बनता है। भाषा में जहाँ दो वर्षों (अक्षरों) के मेल से जो विकार पैदा होता है वह सन्धि होती है। यह विकार कभी पूर्व (पहले) वर्ण में, कभी पर (बाद वाले) वर्ण में कभी दोनों (पूर्व पर) वर्गों में होता है तो कभी कहीं नहीं होता है। सन्धि का दूसरा नाम संहिता है।।

सन्धि कहाँ होती है?
सन्धि एक पद में, धातु और उपसर्ग में और समास की स्थिति में नित्ये (अवश्य) होती है। वाक्य में जो सन्धि मिलती है वह तो वक्ता के बोलने की इच्छा की अपेक्षा करती है। अर्थात् वाक्य में प्राप्त सन्धि करनी चाहिए अथवा नहीं करनी चाहिए यह बोलने वाले की बोलने की इच्छा पर निर्भर करता है। जैसा कि कहा गया है-संहिता (सन्धि) एक पद में अवश्य होती है। धातु से पूर्व उपसर्ग लगाने पर सन्धि अवश्य होती है, समस्त पद बनाने पर अवश्य होती हैं, वाक्य में तो वह बोलने वाले की इच्छा की अपेक्षा करती है। महाकवि दण्डी कहते हैं कि श्लोक में यदि संधि की स्थिति हो किन्तु नहीं की जाये तो वहाँ ‘विसन्धि’ दोष होता है। सन्धि करने की इच्छा नहीं करता हूँ। ऐसा सोचकर सन्धि न करना इसे ‘असन्धि’ कहा जाता है।

संधि के कितने भेद हैं?
भट्टोजी दीक्षित ने सन्धि के पाँच भेद बताये हैं-

  1. अच्। सन्धि (स्वर-सन्धि),
  2. प्रकृति भाव (सन्धि न होना),
  3. हल् (व्यंजन) सन्धि,
  4. विसर्ग सन्धि,
  5. स्वादि सन्धि।

परन्तु वरदराज ने सन्धि के तीन भेद स्वीकार किए हैं-

  1. अच् (स्वर) सन्धि,
  2. हल् (व्यंजन) सन्धि और
  3. विसर्ग सन्धि

(क) स्वर-सन्धिः (अच् संधिः) दो स्वरों के अथवा स्वर व्यंजनों के मेल से पैदा हुआ वर्ण विकार स्वर-सन्धि होना चाहिए। यहाँ प्रथम शब्द या शब्दांश के अन्त में स्वर (आवश्यक होता है, तत्पश्चात् स्वर हो अथवा व्यंजन सामान्यतः अब तक विद्वान् केवल यही कहते थे कि दो स्वरों के मेल से स्वर सन्धि होती है यह उचित नहीं है। जैसे सुधी + उपास्य > सुध् ई + उ पास्य > सुध् य् + उ यास्य > सुध्युपास्य + सु = सुध्युपास्यः। इसी प्रकार गो + यत् > ग् ओ + य > ग् अव् य > गव्य + सु (अम्) = गव्यम् शब्द सिद्ध होता है। इस (स्वर सन्धि) के अनेक भेद होते हैं-अयादि, यण, गुण, वृद्धि तथा दीर्घ। यहाँ कुछ प्रमुख सूत्र दिये जा रहे हैं, जिनमें उनका स्वरूप निहित है।

यण्-सन्धिः
इको यणचि॥6/1/77 संहिता के विषय में अच् परे होने पर इक् के स्थान पर यण् आदेश होगा। अर्थात् इक् + अच् = यण् + अच् अथवा यों कहा जा सकता है कि इ उ ऋ लू + असवर्ण स्वर’ होने पर य् व् र ल् + असवर्ण’ हो जाता है। इकु का यण् क्रमशः होता है। अर्थात् पहले इक् (इ) के स्थान पर पहला यण् (य्), दूसरे इक् (उ) के स्थान पर दूसरा यण् (व), तीसरे इक् (ऋ) के स्थान पर तीसरा यण (र्) तथा चौथे इक् (लु) के स्थान पर चौथा यण् (ल्) होता है। आगे के सूत्रों में यह विधि या प्रक्रिया पूरी होगी।

तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य॥1/1/66
सूत्र में जो पद सप्तमी विभक्ति में निर्देश किया गया है उससे पूर्व के व्यवधान रहित छटी विभक्ति वाले वर्ण के स्थान पर
आदेश होगा अर्थात् ‘इको यण् अचि’ में अचि पद सप्तमी में निर्दिष्ट है तो आदेश (परिवर्तन या विकार) इसके पूर्व वाले जिसमें षष्ठी विभक्ति जाती है उस इक् के ही स्थान पर होगा, पर के स्थान पर या पूर्व-पर दोनों के स्थान पर नहीं होगा। परवर्ती वर्ण ज्यों का त्यों रहेगा। यहाँ अर्थात् इक् और अच् के मध्य ने तो किसी सवर्ण का व्यवधान हो। न किसी अन्य व्यंजन का। वहाँ पर इक् + अच् (असवर्ण) ऐसी स्थिति आवश्यक है। उदाहरणार्थ-‘सुधी उपास्य’ यह स्थिति है। चूँकि यहाँ सुधी के अन्त्य इक् (ई) के परे व्यवधान रहित उपास्य का आरम्भिक अच् (उ) है अत: (ई + उ) होने पर ई के स्थान पर यण् होगा। किन्तु यण् तो चार (य् व् र् ल्) होते हैं फिर इन चार में से ई के स्थान पर कौन-सा यण् होगा इसका उत्तर अगले सूत्र में है६)

स्थानेऽन्तरतमः॥1/1/50
पूर्व सुत्र ‘इको यणचि’ से इक; लेकर यदि इस सूत्र को पूरा करें तो सूत्र होगा-‘इकः स्थानेऽन्तरतमः’ जिसका अर्थ होगा-प्रसंग में एक से अधिक आदेश होने पर षष्ठी के स्थान पर वही आदेश होगा जो उसके अत्यन्त सदृश (समान) होगा। अर्थात् जब एक से अधिक वर्षों के स्थान पर एक से अधिक आदेश हों तो वे आदेश सदृशतम होंगे। यहाँ पर अर्थ-प्रयत्न और मात्राओं का ही सादृश्य (समानता) अपेक्षित होता है। इ (इक्) का उच्चारण तालु से होता है अत: इसके स्थान पर तालु से ही बोले जाने वाला यण् य् होगा। क्योंकि ‘इचुयशानांतालुः’ के अनुसार दोनों में स्थान सादृश्य है। अत: तालु से बोली जाने वाली ई के स्थान पर तालु से ही बोले जाने वाला ये होगा। उ के स्थान पर व्, ऋ के स्थान पर र् तथा लु के स्थान पर ले आदेश होगा। इन सभी में उच्चारण स्थान को सादृश्य है। जैसे-‘सुध् ई + उ पास्य’ इस अवस्था में ईकार के स्थान पर ‘स्थानेऽन्तरतम:’ सूत्र से (सूत्र के सहयोग से या सूत्र के अनुसार) अच् (उ) परे होने पर इक् (ई) के स्थान पर तालु से बोले जाने वाला य् (यण्) आदेश होगा। अब आप देखिए। सुध् ई+उ पास्य > सुध् य् + उ पास्य होने पर सुधी + उपास्य > सुध् ई + उ पास्य > सुध् य् + उ पास्य होगा।

अनचि च॥8/4/47
अच् परे न होने पर (अनचि) अच् के पश्चात् आये यर्। प्रत्याहार के वर्ण के स्थान पर विकल्प से द्वित्व (दो) होता है। जैसे-सुधू य् + उ पास्य होने पर सुधू के धू का द्वित्व होकर सुध् धय् + उ पास्य होता है क्योंकि यहाँ सुध् य् + उ पास्य में सुधू के धू से पूर्व तो अच् (उ) हैं परन्तु ध् के पश्चात् अनन्। ये है अतः ध् का द्वित्व होकर सु ध् ध् य् उ पास्य शब्द होगा।

झलां जश् झशि॥8/4/53
झर् अर्थात् वर्गों के तीसरे चौथे वर्ण (ग, घ, ज, झ, ड ढ, द ध, ब भ) परे होने पर झलु वर्ण (पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे वर्ण) के स्थान पर अपने ही वर्ग का तीसरा वर्ण (जश्) अर्थात् ग् ज् ड् द् ब् हो जाता है। जैसे–सु ध् ध् य् + उ पास्य। उक्त सूत्र से प्रथम ध् + झल् का झश् वर्ण (ध) परे होने पर जश् (द्) होकर सु द् ध् य् + उ पास्य हो जाता है

संयोगान्तस्य लोपः॥8/2/23
जो पद संयोगान्त होता है उसके अन्त्य का लोप हो जाता है। यहाँ जो वृत्ति दी गई है वह त्रुटिपूर्ण है। यदि यह सूत्र संयोगान्त वर्ण का लोप करता है तब तो ‘अलोऽन्त्यस्य’ (अन्त वाले अल् अर्थात् वर्ण का लोप हो जाता है) सूत्र बेकार हो जाता है। क्योंकि वृत्ति के अनुसार तो इस सूत्र से ‘सु द् ध् य्’ का ये लोप होने पर ‘सु द् ध्’ रूप बनता है तब तो ‘अलोऽन्त्यस्य सूत्र की कोई आवश्यकता नहीं। यदि इससे संयोगान्त जिस पद का लोप होगा तो इसके स्थान पर यह होना। चाहिए–संयोगान्त यत् पदं तस्य लोप: स्यात्’ अर्थात् जो संयोगान्त पद होता है उसका लोप हो जाता है। इससे तो सु द् ध् य् + उ पास्य इस सम्पूर्ण पद का ही लोप हो जाता है। तब …….. + उ पास्य शेष होनी चाहिए। परन्तु अलोऽन्त्यस्य’ सूत्र से अन्त्य वर्ण यकारान्त (यू) का लोप प्राप्त होता है। इसके बाद आगे की वार्तिक लागू होती हैं।

वा० यणः प्रतिषेधो वाच्यः॥सुद्धपास्यः। मद्ध्वरिः। धात्त्रंशः। लाकृतिः। यदि संयोगन्ति पद का अन्तिम वर्ण यण् (य् व् र् ल्) यण हो तो उसका लोप नहीं होता। अत: य् का लोप नहीं होगा। जैसे-सु द् ध् य् + उ पास्य। यहाँ य कार (य्) लोप होना चाहिए परन्तु चूँकि अन्त में यण् है अत: उक्त वार्तिक से ‘य्’ का लोपन नहीं होगा तथा सुद्ध्युपास्य शब्द सिद्ध होगा। इसी प्रकार–मद्ध्वरिः = मधु + अरिः। धात्त्रंश = धातृ + अंशः। लाकृतिः = ल + आकृतिः। शब्द सिद्ध होते हैं।

अयादिसन्धिः एचोऽयवायावः 6/1/78॥
संहिता के विषय में अच् (स्वर) परे होने पर एच् (ए, ओ, ऐ, औ) के स्थान पर अय्, अव्, आय्, आव् आदेश होता है। किस एच् के स्थान पर कौन-सा अयादि आदेश होगा। इसका निर्णय अग्र सूत्र से स्पष्ट होता है

यथासङ्ख्य मनुदेशः समानाम् 1/3/10॥
जहाँ उद्देश्य (स्थानी) और विधेय (आदेश) समान संख्या में हों वहाँ विधेय (आदेश) क्रमानुसार (क्रमश:) होता है। अतः ए का अय्, ओ का अव्, ऐ का आय् तथा औ का आव् आदेश होता है। जैसे–

हरये-हरे + ए > हर् ए + ए हर् अय् + ए = हरये शब्द सिद्ध होता है।
विष्णवे–विष्णो + ए विष्णु ओ + ए > विष्णु अव् ए = विष्णवे शब्द बनता है।
नायकः–नै + अक:-न् ऐ + अक:-ऐ के स्थान पर आय् आदेश होकर न आय् अक नायक शब्द सिद्ध होता है।
पावकः-पौ + अकः-५ औ + अक:-औ का आव् आदेश होकर प् आव् अक: होकर-पावकः शब्द सिद्ध होता है।

वान्तो यि प्रत्यये 6/1/79॥संहिता के विषय में यकरादि (य से आरम्भ होने वाला) प्रत्यय परे होने पर ओ औ का क्रमश: वकारान्त अव्, आव् अदि होता है। अर्थात् किसी पद के अन्त में ओ अथवा औ हो उसके पश्चात् य से आरम्भ होने वाला कोई प्रत्यय हो तो ओ के स्थान पर अव् और औ के स्थान पर आव् आदेश होता है। जैसे—

गव्यम्-गो + य (यत् प्रत्यय) ” ओ + य–ओ को अव् आदेश होकर ग् अव् य तथा सु (अम्) होकर गव्यम् शब्द बना।
नाव्यम्-नौ + य (यत् प्रत्यय) > न् औ + य–औ का आव् आदेश होकर तथा सु (अम्) होकर-न् औ यम् > न्। आव् यम् = नाव्यम् शब्द सिद्ध होता है।

वा० अध्वपरिमाणे च॥‘वान्तो यि प्रत्यये’ से ‘वान्तः’ तथा ‘गोयूतो०:आदि वार्तिक से गौः’ की अनुवृत्ति करने के पश्चात् वार्तिक का अभिप्राय होगा। मार्ग के परिमाण अर्थ में पूर्ति परे होने पर ‘गो’ शब्द के ओकार के स्थान पर वकारान्त ‘अव्’ आदेश होता है। जैसे-

गव्यूतिः–गो + यूति-यहाँ गो शब्द के परे मार्ग परिमाणवाचक यूति शब्द है। अत: ‘वा० अध्वपरिमाणे च’ से गकारोत्तरवर्ती ओ के स्थान पर वकारान्त अव् आदेश होकर ग् अव् पूर्ति तथा सु होकर ‘गव्यूति:’ शब्द सिद्ध होता है।

गुण-सन्धिः
अदेङ्गुणः 1/12॥
यह संज्ञा सूत्र है। इसके अनुसार गुण की संज्ञा निर्धारित की गई हैं अत् (अ) एवं एङ (ए. ओ.) को गुण कहते हैं अर्थात् अ,, ए, ओ इन तीन वर्षों की गुण संज्ञा होती है। ध्यान रखना चाहिए कि जब ये विकार रूप में मिलते हैं तभी इनकी गुण संज्ञा होती है अन्यथा नहीं।

आद्णः 6/1/87॥
अवर्ण के परे अच् होने पर पूर्व पर दोनों के स्थान पर एक ही गुण आदेश होता है और अधिक स्पष्ट करें तो-अ/आ के परे जब अच् (इ उ ऋ लु) आये तो पूर्व-पर दोनों के स्थान पर गुण एकादेश होता है। ये वर्ण ह्रस्व अथवा दीर्घ हो सकते हैं परिणाम एक ही होगा। यह विकार ही गुण सन्धि कहलाता है। चूंकि इ उ ऋ लु चार हैं तथा गुण तीन (ए, ओ, अ) ही होते हैं तो विकार किस प्रकार होता है। अ/आ/ + इ/ई = ए अ/ओ + उ/ऊ = ओ, अ/आ + ऋ। ऋ = अ तथा अ/आ + लू = अ होगा। यथा-

उपेन्द्रः-उप + इन्द्रः > उ प अ + इन्द्र = अ + इ = ए होकर उप् अ + इन्द्रः = उपेन्द्र शब्द सिद्ध होता है। सु होकर उपेन्द्रः हो जाता है। इसी प्रकार गोदकम्–गङ्गा + उदकम् > गङ् + अ + उदकम्—अ + उ = ओ होकर, गङ्ग ओ दकम् = गङ्गोदकम् शब्द सिद्ध होता है।

उरण रपरः 1/1/51॥
ऋ के स्थान पर जो अणु (अ इ उ) होता है वह र परक होता है। ऋ 30 प्रकार की होती हैं जिनमें 18 प्रकार की ऋ तथा 12 प्रकार की लू सम्मिलित हैं। र प्रत्याहार में भी र और लु सम्मिलित है। अतः स्पष्ट है कि किसी सूत्र से जब ऋ अथवा ल् के स्थान पर अ इ उ आदेश होता है वह क्रमशः अर् और अल् होता है अर्थात् ऋ के स्थान पर अर् और लू के स्थान पर अल् होगा। ऋ वर्ण लू का बोधक होता है। जैसे- आद्गुणः में ऋ के स्थान पर यदि अ होगा तो वह रपरक अर्थात् अर् होगा। जैसे-

कृष्णद्धि- कृष्ण + ऋद्धिः > कृष्ण अ + ऋ द्धिः-कृष्ण अ द्धिः तथा उरण रपर:’ से र् परक होकर कृष्ण् अर् द्धिः तथा सु होकर कृष्णद्धिः शब्द सिद्ध होता है।
तवल्कार– तव + लृकार: > तव् अ + लू कारः–तव् अ कारः तथा ‘उरण रपरः’ से र परक ‘स्थानेऽन्तरतमः’ से लु परक होकर तथा सु होकर तव् अल्कारः = तवल्कारः शब्द सिद्ध होता है। इसी प्रकार
गजेन्द्र- गज + इन्द्रः > गज् अ + इ न्द्रः > गज् ए न्द्रः > गजेन्द्र सु होकर गजेन्द्रः।।
परीक्षोत्सव- परीक्षा + उत्सवः > परीक्ष् आ + उत्सव > परीक्ष ओ त्सव = परीक्षोत्सव + सु = परीक्षोत्सवः।
गणेश- गण + ईशः > गण् अ + ई शः > गण ए शः > गणेश + सु = गणेशः
रमेश- रमा + ईशः > रम् आ + ई श: > रम् ए शः > रमेशः। तथेति-तथा + इति > तथ् आ + इ ति > तथ् ए ति > तथेति।
वसन्तर्तु- वसन्त + ऋतु > वसन्त् अ + ऋ तु–वसन्त अ तु ‘उरण रपर:’ से रपरक होकर वसन्त् अर् तु तथा से होकर
वसन्तर्तु- शब्द सिद्ध हुआ।
देवर्षि- देव + ऋषिः > देव् अ + ऋ षि-देव् अ षि तथा ‘उरण रपरः’ से रपरक होकर देव् अर् षि तथा सु होकर
देवर्षि- शब्द सिद्ध होता है।

वृद्धि-सन्धिः

वृद्धिरादैच् 1/1/1॥
यह संज्ञा सूत्र है। इसके अनुसार वृद्धि की संज्ञा बताई गई है। (आत्) आ तथा (ऐच्) ऐ एवं औ की वृद्धि संज्ञा होती है। अर्थात् जब किसी सूत्र के अनुसार ये विकार रूप में मिलते हैं। तभी ऐ, औ और आ की वृद्धि संज्ञा होती अर्थात् इन तीनों स्वरों को वृद्धि कहते हैं।

वृद्धिरेचि 6/1/88॥
‘आद्गुणः सूत्र से आद् लेकर यह सूत्र पूरा होगा। आद् एचि (परे) पूर्व परयोः वृद्धि एकादेशः स्यात्’-अ/आ के परे ए ऐ ओ औ (एच) में से कोई आये तो पूर्व पर के स्थान पर वृद्धि (ऐ, औ, आ) एकादेश होता है। इस प्रकार अ/आ + ए /ऐ = ऐ तथा अ/आ + ओ/औ = औ और अधिक स्पष्ट-अ + ए = ऐ, अ+ ओ = औ, अ + ऐ = ऐ, अ+ औ = औ, आ + ए = ऐ, आ + औ = औ, आ + ऐ = ऐ तथा आ + औ = औ होगा। यह गुण सन्धि का अपवाद है। क्योंकि आंद्गुणः’ के अनुसार अ/आ के परे अच् आने पर गुण. एकादेश होना चाहिए परन्तु गुण होने के लिए इ, उ, ऋ, लू होना चाहिए शेष स्वरों को इस सूत्र के द्वारा पृथक् करे अ/आ के पर ए ओ ऐ औ आने पर पूर्व-पर वृद्धि एकादेश होता है। यथा-

कृष्णैकत्वम्-कृष्ण + एकत्वम् > कृष्ण् अ + ए। कत्वम्-‘वृद्धिरेचि’ से पूर्व-पर के स्थान पर वृद्धि एकादेश। तथा स्थानेऽन्तरतमः से अ + ए = ऐ आदेश होकर कृष्ण ऐ कत्वम् = कृष्णैकत्वम् शब्द सिद्ध होता है।

गङ्गौघः–गङ्गा + ओघः > गङ्गा आ + ओ घः–वृद्धिरेचि से पूर्व-पर वृद्धि एकादेश तथा स्थानेऽन्तरतमः से आ + ओ =
औ आदेश होकर गङ्गऔघ तथा सु होकर गङ्गौघः शब्द सिद्ध होता है।

देवैश्वर्यम्-देव + ऐश्वर्यम् > देव् अ + ऐ श्वर्यम्-‘वृद्धिरेचि से पूर्व-पर-वृद्धि एकादेश तथा ‘स्थानेऽन्तरतमः’ से अ + ऐ = आदेश होकर देव् ऐ श्वर्यम् = देवैश्ववर्यम् शब्द बनता है।

कृष्णौत्कण्ठ्यम्-कृष्ण + औत्कण्ठयम् > कृष्ण् अ + औ त्कण्ठ्यम्-वृद्धिरेचि से पूर्व-पर वृद्धि एकादेश तथा ‘स्थानेऽन्तरतम:’ से अ + औ = औ आदेश होकर कृष्ण औ त्कण्ठयम् = कृष्णौत्कण्ठ्यम् शब्द होता है।

इस संधि के अन्य उदाहरण भी देखने योग्य हैं-
पञ्च + एते = पञ्चैते। जन + एकता = जनैकता सु = जनैकता। तण्डुल + ओदन = तण्डुलौदन (सु > अम्) तण्डुलौदनम्। राम + औत्सुक्य = रामौत्सुक्य सु > अम् = रामौत्सुक्यम्। नृप + ऐश्वर्य = नृपैश्वर्य सु > अम् = नृपैश्वर्यम्। महा + औषध = महौषध सु > अम् = महौषधम्। राजा + एषः = राजैषः। महा + ऋषि = महर्षि सु = महर्षिः। उमा + ईश = उमेश सुं = उमेशः। हित + उपदेश = हितोपदेश सु = हितोपदेशः। न + इति = नेति। मम + लूकारः = ममल्कारः।

(ख) व्यञ्जन-सन्धिः व्यञ्जन के साथ व्यंजन अथवा स्वर के मेल के कारण व्यंजन में होने वाले विकार को व्यंजन या हल् सन्धि कहते हैं। यहाँ प्रथम शब्द या शब्दांश का अन्तिम वर्ण हल होना आवश्यक है, उसके पश्चात् स्वर हो या व्यंजन, विकार पूर्व व्यंजन में ही होता है। यदा-कदा पर व्यंजन में भी होता है। उसे व्यंजन। सन्धि कहते हैं। जैसे-सच्चित् सत् + चित्।। सन्नच्युत् सन् + अच्युत।

(ग) विसर्ग-सन्धिः। विसर्ग के परे स्वर अथवा व्यंजन होने पर जब विसर्ग में * विकार होता है तो वहाँ विसर्ग सन्धि होती है। यहाँ प्रथम शब्द
या शब्दांश के अन्त में विसर्ग होना परमावश्यक है, तत्पश्चात्। स्वर हो या व्यंजन, विसर्ग में विकार होता है।। जैसे-विष्णुस्त्राता = विष्णु: + त्राता। शिवोऽर्थ्यः शिवः + अर्ध्यः।

(3) समासज्ञानम्
समास क्या है? ऐसा कहने पर प्रायः कहा जाता है-संक्षेप। जहाँ अनेक समर्थ पदों की विभक्ति लोप करके एक पद (शब्द) बना दिया जाता है, वहाँ समासे होता है। अत: कहा गया है-वहाँ संकुचित या संक्षेप करना समास है। – जैसे- भूतपूर्वः। समास को वृत्ति भी कहा जाता है। पदार्थ का। नाम और वृत्ति।

तो फिर समास विग्रह क्या है? वृत्ति के अर्थ का अवबोध – (ज्ञान) कराने वाला वाक्य विग्रह है। विग्रह दो प्रकार का है-लौकिक तथा अलौकिक। जैसे ‘पूर्वभूतः’ लौकिक है-पूर्व अम् भूत सु पद अलौकिक है।

समास कितने प्रकार का होता है? समास पाँच प्रकार का होता है

1. केवल,
2. अव्ययी भाव,
3. तत्पुरुष,
4. बहुव्रीहि और
5. द्वन्द्व।

  1. केवल-समास-विशेष नाम से मुक्त (रहित) केवल समास कहलाता है। पद पहला है।
  2. अव्ययीभावः-प्राय पूर्व का अर्थ प्रधान होता है, प्रथम पद अव्यय होता है उसे अव्ययी भाव कहते हैं। यह दूसरा है।
  3. तत्पुरुषः-प्राय: उत्तर (बाद वाला) शब्दार्थ प्रधान होता है अत: तीसरा तत्पुरुष है।
  4. बहुव्रीहिः-प्रायः अन्य पदार्थ, प्रधान होता है। यह चौथा बहुव्रीहि है।
  5. द्वन्द्वः-दोनों पद प्रधान होते हैं, बहुव्रीहि चौथा है। आइये अब इनके विषय में विस्तार से जानें

3.1. अव्ययीभाव-समासः
(अ) यहाँ प्रायः पूर्व पद की प्रधानता होती है अर्थात् पहला पर्दै प्रधान होता है।
(आ) यहाँ पहला पद प्रायः अव्यय होता है।
(इ) जहाँ पहले पद अव्यय के साथ संज्ञादि समर्थ सुबन्त का समास होता है, पूर्वपद और अव्यय विभक्ति, समीप, अर्थाभाव, अत्यय (नाश), असम्प्रति (अनौचित्य), शब्द का प्रकाश, पश्चात् (पीछे, बाद में) यथा (अनति क्रम्य अनुसार) अनुपूर्व्यम् (क्रम बद्धता) यौगपद्य (एकसाथ होना) सादृश्य (समान) सम्पत्ति (योग्यतानुसार सम्पत्ति) साकल्य (सबको शामिल कर लेना, अन्त (तक के अर्थ में) वचनों (अर्थों) में वर्तमान होता है। वहाँ जो समास होता है वह अव्ययीभाव होता है।
(ई) अव्ययीभाव के रूप नहीं चलते क्योंकि यहाँ अर्थात् अव्ययी भाव समास में समस्त पद (समास कर बना हुआ शब्द) अव्यय होता है।
(उ) इस समास में यदि अन्तिम स्वर दीर्घ होता है तो वह ह्रस्व कर दिया जाता है। जैसे-अन्त्य ए, ऐ के स्थान पर इ तथा ओ, औ के स्थान पर उ तथा अ, आ के स्थान पर अम् हो जाता है। जैसे-उप + नदी > उपनदि, उप + वधू > उप + वधु > उपवधु। उप + गो > उप + गु> उपगु। उप + कृष्ण > उप + कृष्णम् > उपकृष्णम्। उप + गङ्गा > उप + गङ्ग > उपगङ्गम्।
(ऊ) अव्ययी भाव के अन् में अन्त होने वाली संज्ञाओं में समासान्त टच् प्रत्यय (पुल्लिग और स्त्रीलिंङ्ग में नित्य तथा नपुंसक में विकल्प) से होता है। जुड़ने से अन् का लोप हो जाता है और टच् का अच् जुड़ जाता है। जैसे-उप + राजन्। > उपराज् अ(टच्) उप + राज सु (उपराजम्) उपचर्मन् टच् > उपचम् + अ (टच्) > उपचर्म सु (अम्) उपचर्मम्।।
(ऋ) अव्ययी भाव समास के समस्त पद के अन्त में यदि झय् तो विकल्प से टच् (अ) प्रत्यय होता है। उपसमिधम्-उप + समिध् > उप + समिध् अ (टच्) उपसमिध सु (अम्) उपसमिधम् टच् न होने पर उपसमित्।।
(लु) नदियों के नामों के साथ संख्यावाचक पदों का समास अव्ययी भाव होता है और यह समाहार में देखा जाता है।

अव्ययीभाव समास के कुछ और उदाहरण-
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 2

2. तत्पुरुष-समासः जहाँ प्रायः उत्तर पद का अर्थ प्रधान होता है वह तत्पुरुष समास होता है। प्रथम दृष्टि से वह दो प्रकार का होता है-(अ)-समानाधिकरण तत्पुरुष तथा (आ) व्यधिकरण तत्पुरुष। समानाधिकरण तत्पुरुष ही कर्मधारय समास होता है। यहाँ दोनों शब्द एक ही अधिकरण अर्थात् वाच्य को कहते हैं। जैसे-नीलम् कमलम् इति नीलकमलम्, नीलम् उत्पलम् इति नीलोत्पलम्। स्पष्ट है दोनों पदों में समान रूप होता है जो उत्तरपद के अनुसार होता है। जैसे कृष्णः सर्प:-कृष्णसर्पः (पुंल्लिङ्ग) रम्या वाटिका-रम्यवाटिका (स्त्रीलिंग) ये पद प्रथमा में ही होते हैं।) कर्मधारय का भेद द्विगु होता है। इसका वर्णन आगे किया जायेगा। व्यधिकरण तत्पुरुष समास छ: प्रकार का होता है-द्वितीया तत्पुरुष, तृतीया तत्पुरुष, चतुर्थी तत्पुरुष, पंचमी तत्पुरुष, षष्ठी तत्पुरुष, सप्तमी तत्पुरुष। इस समास के कुछ अन्य उदाहरण है-
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 3

3.3. द्विगुः इसकी परिभाषा है-‘जिस का पहला पद संख्या हो वह द्विगु है।’ अर्थात् द्विगु का प्रथम पद संख्या वाचक (और दूसरा पद संज्ञा) होता है। उसका संज्ञा पद के साथ जब समास होता है, वह द्विगु होता है। यह द्वितीय पद के समूह का बोधक होता है। द्विगु समास तभी होता है-जब बाद में तद्धित प्रत्यय हो अथवा किसी अन्य शब्द के समास में आता है। यह समास कर्मधारय का भेद है। द्विगु समूह के अर्थ में होता है इसलिए वह हमेशा नपुंसकलिङ्ग के एकवचन में ही होता है। तो उसके कुछ उदाहरण देखिए।
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 4

(4) कारक-प्रकरणम्
तो कारक क्या है?
क्रिया के साथ जिसका सम्बन्ध होता है, वह कारक होता है। अर्थात् क्रिया की निष्पत्ति में जिसका योग होता है, अथवा क्रिया की निष्पत्ति जिसके बिना नहीं होती, वह कारक है। और कहा गया है कि-क्रिया की अन्विति करना कारक है। इस कारण से क्रिया पैदा या उत्पन्न होती है, अत: कारक में क्रियाजनकत्व भी स्वीकार किया जाता है, जैसा कि कहा गया है-क्रिया को पैदा करना कारक है। कारक छः होते हैं-

  1. कर्ता
  2. कर्म
  3. करण
  4. सम्प्रदान
  5. अपादान
  6. अधिकरण।

‘सम्बन्ध कारक नहीं होता है क्योंकि उसका क्रिया के साथ (कोई सीधा) सम्बन्ध नहीं होता है।

फिर विभक्ति क्या है? विभाजन ही विभक्ति है। सामान्यत: इसके द्वारा एक कारक तीन भागों में विभाजित किया जाता है। विभक्तियाँ सात होती हैं-प्रथमा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पञ्चमी, षष्ठी, सप्तमी। विद्वान् कहते हैं कि कारक चिह्न विभक्तियाँ होती हैं। कुछ तो कहते हैं कि कारक ही विभक्तियाँ है। लेकिन यह उचित नहीं। सम्बन्ध तो कारक नहीं है फिर वह विभक्ति क्यों है? कहीं और किसी भी विशेष पद से ही विभक्ति प्राप्त होती है। इसलिए विभक्तियाँ दो प्रकार की होती हैं-

  1. कारक-विभक्तियाँ,
  2. उपपद-विभक्तियाँ।)।

कारक के कारण जहाँ विभक्ति प्रयोग की जाती है वहाँ कारक विभक्ति होती है। अर्थात् वहाँ पहले कारकत्व आता है और फिर वहाँ अनुकूल विभक्ति लगाई जाती है। और कहीं विशेष पद के प्रयोग से विभक्ति लगाई जाती है, वहाँ उपपदविभक्ति होती है। जिस वाक्य में कारक विभक्ति और उपपद विभक्ति, दोनों ही होती हैं वहाँ कारक विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। क्योंकि कारक विभक्ति उपपद विभक्ति से अधिक शक्तिशाली (बलवती) होती है। जैसा कि कहा गया है–उपपद विभक्ति से कारक विभक्ति बलवती होती है। उप पद विभक्ति द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पञ्चमी, षष्ठी, सप्तमी विभक्तियों में प्रायः देखी जाती है।। उपपद विभक्ति को उदाहरणों सहित स्पष्ट किया जा रहा है-

4. 1. द्वितीयाविभक्तिः
(i) उभसर्वतसोः कार्याधिगुपर्यादिषु त्रिषु।
द्वितीयामेडितान्तेषु ततोऽन्यत्रापि दृश्यते॥
(उभयत: (दोनों ओर) सर्वत: (सभी ओर) धिक् (धिक्कार) उपर्युपरि (ठीक ऊपर, सबसे ऊपर, ऊपर ही ऊपर) अधोऽधः (ठीक नीचे, सबसे नीचे, नीचे ही नीचे) अध्यधि (ऊपर, अन्दर-अन्दर, नीचे-नीचे) ये जर्ब आम्रडित अर्थात् दो बार आये तब इनके योग में द्वितीया विभक्ति होती है। अर्थात् जब वाक्य में जिस शब्द से इनका संयोग होता है तो उन शब्दों में द्वितीया होती है चाहे हिन्दी का कोई चिह्न लगा हो। जैसे-

  1. मार्गम् उभयतः वृक्षाः।
  2. नगरं सर्वतः प्राकारः।
  3. माम् अधन्यं धिक्।
  4. धिक्त्वां जाल्म।
  5. उपरि उपरि दुर्गं राष्ट्रपताका चलति।
  6. दुर्जनं छात्रं धिक्। (दुष्ट छात्र को धिक्कार है।)

(ii) अभितः परितः समया निकषा हा प्रति योगेऽपि॥(अभितः, परितः, समया, निकषा, हो और प्रति के योग में द्वितीया है।) अभितः (चारों ओर या सब ओर) परितः (चारों ओर) समया (समीप) निकषा (समीप) हा (खेद, अफशोस) प्रति (ओर) शब्द जिस शब्द के योग में प्रयुक्त हों उस शब्द में द्वितीया विभक्ति लगती है। जैसे-

  1. अभितः कृष्णं गोपाः।
  2. परितः कृष्ण गोपाः।
  3. ग्रामम् समया वनम्।
  4. निकष लङ्कां सागरः।
  5. हा कृष्णाऽभक्तम्।
  6. बुभुक्षितं न प्रतिभाति किञ्चित्।
  7. परिजनः राजानम् अभितः तस्थौ।
  8. रक्षांसि वेदी परितो निरास्थत्।
  9. हा शठम्।।
  10. मातुः हृदयं कन्यां प्रति स्निग्धं भवति।
  11. हा नास्तिक् वेद निन्दकम्।।
  12. रक्त नीलाभ नभोमण्डलं प्रति अक्षिनिमेषं पश्यत् स्थितवत्।
  13. अवहितो भव सदाचारं प्रति विशेषतः।
  14. ग्रामं परितः वृक्षाः सन्ति।
  15. दुर्गं परितः परिखा।

(iii) अन्तराऽन्तरेण युक्ते॥(अन्तरा-(बीच में) तथा अन्तरेण (बिना) के योग में द्वितीया होती है?) (अर्थात् जिस वाक्य में अन्तरा (बीच में) अथवा अन्तरेण (बिना) पद का प्रयोग होता है और जिस पद के साथ उसका सम्बन्ध होता है, उसमें द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे-

  1. अन्तरा त्वां मां हरिः।
  2. राममन्तरेण न सुखम्।
  3. त्वाम् अन्तरेण कोऽन्यः प्रति कर्तुं समर्थः।
  4. अन्तरेण हरिं न सुखम्।
  5. रामं कृष्णं च अन्तरा श्यामः।।
  6. किन्नु खलु माम् अन्तरेणं चिन्तयति वैम्पायनः।
  7. न च शरीरम् अन्तरेण कर्म सम्भवति।।

4. (2) तृतीया-विभक्तिः
(i) सहयुक्तेऽप्रधाने॥अर्थात्-सह (साथ) अर्थ वाले साकम्, सार्धम्, समम् अव्यय पदों के साथ योग होता है, वहाँ तृतीया होनी चाहिए। जैसे-

  1. पुत्रेण सह आगतः पिता।
  2. रामः जानक्या सह गच्छति।
  3. हनुमान् वानरैः सह जानकी मार्गयामास।
  4. उपाध्यायः छात्रैः सह स्नाति।
  5. अहं शिष्यैः समं क्रीडामि।
  6. राधा उमया साकं विद्यालयं गमिष्यति।
  7. शिशुः मात्रा सार्ध सह वा आपणं गच्छति।
  8. अस्माकं कविः शिष्यवर्गेण सार्धं गच्छति।
  9. गुरु शिष्यैः समं स्नाति।
  10. नृपः कविना सह अचरत्।

(ii) पृथग्विनानानाभिस्तृतीयाऽन्यतरस्याम्॥
पृथक् (अलग) विना, नाना (बिना) के योग में तृतीया होती है। अर्थात्-पृथक् (अलग) विना, नाना (बिना) इन शब्दों के योग में सम्बद्ध पद में तीसरी विभक्ति विकल्प से होती है। दूसरे पक्ष में द्वितीया अथवा पंचमी भी होती है। जैसे-

  1. रामेण/रामात्/रामं वा पृथक्।
  2. रामेण/रामात्/रामं विना दशरथो नाजीवत्।
  3. जलं/जलेन/जलात् वा विना कमलं स्थातुं न शक्नोति।
  4. कौरवाः पाण्डवेभ्यः पृथक् अवसन्।
  5. नाना नारीं निष्फला लोकयात्रा।।
  6. सूच्यग्रं नैव दास्यामि विना युद्धेन केशव।
  7. ज्ञानं भारं क्रियां विना।

(iii) चतुर्थी-विभक्तिः
नमः स्वस्ति स्वाहा स्वधाऽलं वषड् योगाच्च॥(नमः, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा, अलं और वषट् के योग में चतुर्थी होती है।)

अर्थात्-नमः (नमस्कार) स्वस्ति (कल्याण) स्वाहा, स्वधा (आहुति) अलम् (पर्याप्त, काफी) और वषट् इन शब्दों के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे-

  1. हरये नमः।
  2. प्रजाभ्यः स्वस्ति।
  3. अग्नये स्वाहा।
  4. पितृभ्यः स्वधा।
  5. दैत्येभ्यः हरिः अलम्।
  6. तस्मै श्रीगुरवे नमः।
  7. रामाय नमः।
  8. स्वस्ति भवते।
  9. इन्द्राय वषट्।
  10. दैत्येभ्यः हरिः अलम्, प्रभुः, समर्थः, शक्तः।
  11. अलं मल्लो मल्लाय।
  12. सर्वेभ्यः शिष्येभ्यः स्वस्ति।
  13. अतस्तुभ्यं दूरादेव नमः।

(iv) पञ्चमी-विभक्तिः
अन्यारादितरतेर्दिक्शब्दाञ्चूत्तरपदाजाहियुक्ते॥अर्थात्-अन्य, भिन्न, इतर (अलावा) ऋते (बिना) दिशावाची (पूर्व दक्षिण आदि) अञ्च प्रत्ययान्त धातु से युक्त दिशावाची (प्रत्यक्, उदक् आदि) आदि प्रत्यय युक्त दिशावाची (उत्तराहि, दक्षिणाहि) आदि शब्दों के योग में पञ्चमी विभक्ति होती है।

  1. अन्यः भिन्नः इतरः वा कृष्णात्।
  2. आरात् वनात्।
  3. ऋते कृष्णात्।।
  4. चैत्रात् पूर्वः फाल्गुनः।।
  5. प्राक्, प्रत्यक् वा ग्रामात्।
  6. दक्षिणाहि ग्रामात्।।
  7. ऋते ज्ञानात् न मुक्तिः।

(v) षष्ठी-विभक्तिः–दूरान्तिकाथैः षष्ठ्यन्यतरस्याम्॥(दूर और अन्तिक (पास) अर्थ वाले शब्दों के योग में भी विकल्प से षष्ठी अथवा पञ्चमी का प्रयोग होता है।) अर्थात् दूरम् (दूर पर) अन्तिकम् (पास) तथा इन अर्थों वाले शब्दों के योग में षष्ठी विभक्ति होती है और पञ्चमी भी।
अर्थात् षष्ठी और पंचमी विकल्प में होती है। जैसे-

  1. वनं ग्रामस्य ग्रामात् वा दूरम्।
  2. वनं ग्रमस्य ग्रामाद् वा अन्तिकम्।
  3. प्रत्यासन्नः माधवी मण्डपस्य।
  4. कर्णपुरं प्रयागस्य प्रयागात् वा समीपम्।

(vi) सप्तमी विभक्तिः साध्वसाधुग्रयोगे च॥
(साधु और असाधु के प्रयोग में भी सप्तमी विभक्ति होती है।) अर्थात्-साधुः (अच्छा) और असाधु (बुरा) इन दोनों ही पदों का जब वाक्य में प्रयोग होता है तब सम्बद्ध पद में सप्तमी विभक्ति होती है। जैसे-

  1. कृष्णः मातरि साधुः।
  2. कृष्णः मातुले असाधु।
  3. राम: मुनिषुः साधुः।।

(5) उपसर्गाः
उपसर्ग पद उप उपसर्ग पूर्वक सृज् धातु से घञ् प्रत्यय लगाकर बनाया जाता है। ये शब्दांश क्रिया, संज्ञा, विशेषण शब्दों के आरम्भ में जोड़े जाते हैं, वे प्र आदि उपसर्ग होते हैं। प्रादयास्तूपसर्गकाः अर्थात् प्र आदि उपसर्ग हैं। इस विषय में किसी ने कहा है कि उपसर्गों की गति तीन प्रकार की होती है। उपसर्ग से कभी अर्थ में बाधा पहुँचाई जाती है,.कभी अनुगत अर्थ ही प्रस्तुत करता है, अन्यत्र उस की विशेषता कही गई है-“कोई धातु के अर्थ को बाधा पहुंचाता है तो कोई अनुगत ही बताता है कोई उसी अर्थ को बताता है अतः उपसर्ग की गति तीन प्रकार की बताई गई है। उदाहरणार्थ-‘जय:’ का अर्थ है जीत परन्तु परा उपसर्ग जोड़ने पर उसका अर्थ उल्टा अर्थात् पराजय यानि ‘हार’ हो जाता है। ‘भू’ धातु का अर्थ होना होता है परन्तु अभि उपसर्ग जोड़ने पर अभिभू होकर ‘हराना’ अर्थ होता है। कृष् का अर्थ खींचना किन्तु प्रकृष् का अर्थ ‘खूब जोर से खींचना हो जाता है।

वे (उपसर्ग) बलपूर्वक धातु पूर्व से जुड़कर उस के अर्थ को प्रायः बदल देते हैं। जैसा कि सिद्धान्त कौमुदीकार भट्टोजी दीक्षित ने कहा है-“उपसर्ग के द्वारा धातु का अर्थ बलपूर्वक दूसरी ओर ले जाया जाता है अर्थात् बदल दिया जाता है- प्रहार, आहार, संहार, विहार और परिहार की तरह है।

प्रहारः = प्र + ह + घञ् + सु (चोट करना]
आहारः = आ + हृ + घञ् + सु [भोजन करना)
संहारः = सम् + हृ + घञ् + सु [विनाश करना, मारना]
विहारः = वि + हृ + घञ् + सु [भ्रमण या सैर करना।
परिहारः = परि + हृ + घञ् + सु त्यागना, निराकरण करना]

संस्कृत में उपसर्ग 22 (बाईस) होते हैं-प्र, परा, अप, सम्, अनु, अव, निस्, निर्, दुस्, दुर्, वि, आङ (आ) नि, अधि, अपि, अति, सु, उद्, अभि, प्रति, परि और उप। जैसे प्र + भू = प्रभवति, उद् + गम् = उद्गच्छति आदि।
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 5

(6) प्रत्ययाः
क्तक्तवर्तुं निष्ठा॥3.1.25.॥
ये दोनों निष्ठा संज्ञक होते हैं अर्थात् क्त-क्तवतु को निष्ठा कहते हैं। अर्थात् ‘क्त’ प्रत्यय और क्तवतु प्रत्यय इन दोनों प्रत्ययों का नाम या संज्ञा निष्ठा होता है। निष्ठा ऐसा कहने पर इन दोनों का बोध होता है। इन दोनों के प्रयोग किस अर्थ में होते हैं? ऐसा प्रश्न पैदा होने पर कहा जाता है।

भूतकाल अर्थ में धातु से निष्ठा (क्त, क्तवतु) होगा। भूतकाल अर्थ में ‘क्त और क्तवतु प्रत्यय धातु से लगाये जाते हैं। अर्थात् इन दोनों प्रत्ययों के प्रयोग से धातु का भूतकाल, अर्थ प्रस्तुत होता है। क्त प्रत्यय का प्रयोग भाव वाच्य और कर्म वाच्य में किया जाता है। अतः जहाँ क्त प्रत्यय का प्रयोग होता है वहाँ कर्ता में तीसरी विभक्ति होती है। क्तवतु प्रत्यय का प्रयोग धातु के कर्ता में किया जाता है। अत: जहाँ क्तवतु प्रत्यय का प्रयोग होता है वहाँ कर्ता में प्रथमा होती है। जैसे
त्वया विष्णुः स्तुतः। (तेरे द्वारा विष्णु की स्तुति की गई।) (कर्मवाच्य)
मया स्नातम्। (मेरे द्वारा स्नान किया गया।) (भाववाच्य)
विश्वं कृतवान् विष्णुः। (विष्णु ने संसार बनाया।) (कर्तृ वाच्य।)
यहाँ दोनों प्रत्ययों के पुंल्लिग में कुछ रूप दिए गये हैं-
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 6

(2) तुमुन्
(i) तुमुण्ण्वुलो क्रियायां क्रियार्थायाम् ॥3.3.10॥
(तुमुन्। और ण्वुल क्रिया के लिए क्रिया करने के अर्थ में लगते हैं।) क्रिया के लिए क्रिया के उप पद (होने पर) होगा, अर्थ में धातु में ये दोनों प्रत्यय होते हैं। अर्थात् जब एक क्रिया के लिए दूसरी क्रिया की जाती है तब धातु का उसमें होना (भविष्य) अर्थ में तुमुन् प्रत्यय लगाया जाता है। अर्थात् तुमुन् प्रत्यय जिस धातु के साथ लगाया जाता है, उसकी क्रिया पश्चात् वर्तिनी होती है। मकारान्त होने के कारण यह अव्यय होता है। ‘तुमुन्’ इसका ‘तुम्’ शेष रहता है। तुम् के अन्त में म् (मकार) है। अत: वह (तुमुन्) प्रत्ययान्त शब्द अव्यय होगा। जैसे-दृश् + तुमुन् = द्रष्टुम्। कृष्णं द्रष्टुं याति-कृष्ण को देखने के लिए जाता है। इसी प्रकार धातु ण्वुल् प्रत्यय भी होता है। अनुबन्ध ‘ए’ और ‘लु’ लोप होने पर इसका वु शेष रहता है जो अक हो। जाता है। जैसे-दृश + ण्वुल् = दर्शक सु (अम्) दर्शकम्। दर्शकः। कृष्णं दर्शको याति। कृष्ण को देखने जाता है।

(ii) कालसमयवेलासु तुमुन् ॥3.3.167॥
कालार्थेषुपपदेषु तुमुन्। कालः समयो वेला वा भोक्तुम्। काल, समय और वेला शब्दों के योग में तुमुन् प्रत्यय होता है। अर्थात् काल अर्थ वाले (समय, काल, वेला) पदों में तुमुन् प्रत्यय होता है।
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 7

(3) क्त्वा-ल्यप्
(i) अलङ्घल्वोः प्रतिषेधयोः प्राचां क्त्वा ॥3.4.18॥
(प्रतिषेध अर्थात् निषेधवाचक अलं और खलु के उपपद रहने पर धातु से विकल्प से क्त्वा प्रत्यय होता है।)

प्रतिषेध अर्थात् निषेध अर्थ में आये ‘अलम्’ और ‘खलु’ जब उपपद हों अर्थात् धातु से पूर्व हों तो धातु के विकल्प से क्त्वा प्रत्यय होता है। अनुबन्ध (क) लोप होने पर इसका ‘त्वा’ ही शेष रहता है। प्राचां पद को ग्रहण विकल्पार्थ हुआ है। वा अव्यय होने पर उपपद समास नहीं होता। तकारादि (त से आरम्भ होने वाला) प्रत्यये परे होने पर घु संज्ञक दा धातु के स्थान पर दद् आदेश होता है। जैसे-अलं दत्त्वा (मत दो) दा और धा धातुओं की धु संज्ञा होती है। पीत्वा खलु = मत पीओ। अलम् खलु क्या है? जैसे-मा कार्षीत् में कृ धातु से क्त्वा नहीं हुआ है। प्रतिशेष अलं में क्या है। अलंकार में प्रतिषेध नहीं है।

(ii) समासेऽनपूर्वे क्वो ल्यप् ॥3.4.21॥
(यदि नञ् अव्यय पूर्व पद न हो तो समास में क्त्वा के स्थान पर ल्यप् आदेश होता है।)

पूर्व काल अर्थ में होने पर धातुओं के अर्थों में समान कर्ता होने पर धातु से क्त्वा होगा। जब पूर्व कालिक एक धातु का या पूर्व कालिक दोनों धातुओं का कर्ता एक ही होता है तब पूर्व कालिक धातु से अथवा पूर्व कालिक दोनों धातुओं से क्त्वा प्रत्यय होता है। जैसे भुक्त्वा व्रजति = खाना खाकर घूमता है। द्वित्वमतन्त्रम्। जैसे-भुक्त्वा पीत्वा व्रजति–खा पीकर जाता है। (परन्तु) उपसर्ग पूर्वक धातु से ‘क्त्वा’ के स्थान पर ‘ल्यप् प्रत्यय होता है। अथवा क्त्वा का ल्यप् (आदेश) होता है। जैसे-सम् + भू + ल्यप् = सम्भूय। यहाँ क्त्वा का ल्यप् आदेश हो गया है। नीचे कुछ उदाहरण दिये जा रहे हैं।
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 8
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 9

4. तद्धित।
(i) तरप्-प्रत्ययः-दो वस्तुओं में एक की अतिशय (अधिक) दिखाने के लिए प्रातिपदिकों में तरप् प्रत्यय लगाया जाता है। जैसा कि महर्षि पाणिनि के कहा है-द्वयर्थवाची और विभज्य (जिसका विभाग किया जाये) उपपद रहते प्राप्तिपदिक और तिङन्त से अतिशय (अतिशय, प्रकर्ष) अर्थ में तरम् (तर) प्रत्यय और ईयसुन् (ईयस्) प्रत्यय होते हैं। तरप् का अनुबन्ध (प्) लोप होने पर केवल तर ही शेष रहता है। यह तद्धित प्रत्यय है। इसके उदाहरण हैं-
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 10

(ii) तमप्-प्रत्ययः-बहुत-सी वस्तुओं में से किसी एक की अतिशयता दिखाने के लिए प्रातिपदकों में तमप् प्रत्यय लगाया जाता है जैसा कि पाणिनि मुनि ने कहा है-अतिशायनीतमप् और इष्ठन् प्रत्यय लगाये जाते हैं। इसका (अनुबन्ध प् लोप होकर) तम शेष रहता है। यह तद्धित प्रत्यय है। इस प्रत्यय के उदाहरण हैं-
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 11

(7) शब्द-रूपाणि (सुबन्तरूपाणि)
संस्कृत में सामान्यत: दो पद स्वीकार किए गये हैं-सुबन्त और तिङन्त। जैसा कि महर्षि पाणिनी ने कहा है-‘सुप्तिङन्तं पदम्’ अर्थात् सुप् या तिप्रत्यय जिनमें लगा हो अर्थात् सुप् और तिङ अर्थ वाले शब्दों को पद कहते हैं। जिनके प्रातिपदिकों के अन्त में सुप् विभक्तियाँ हों वे सुबन्त हैं। सुबन्त पद क्रिया पद से भिन्न होता है। संज्ञा विशेषण आदि पद सुबन्त होते हैं। जैसे-राम सु = रामः, हर सु = हरः। गीता सु = गीता, सुन्दर सु > सुन्दरः, शुभ सु > शुभः आदि होते हैं। सुप् प्रत्याहार होता है। जिसमें 21 विभक्तियाँ होती हैं। वे ये हैं

इक्कीस विभक्तियाँ
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 12
इन विभक्तियों का प्रयोग सभी प्रातिपदिकों के साथ किया जाता है। जब इनका प्रयोग होता है तब ही इनको पद संज्ञा (नाम) मिलता है। जब तक विभक्ति नहीं जोड़ी जाती है तब तक पद न होने के कारण वह वाक्य में प्रयोग के योग्य नहीं होता।

1. अकारान्तम् ‘राम’ (पुं)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 13

2. उकारान्तम् ‘भानु’ (पुं०)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 14
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 15

3. ‘पितृ ऋकारान्तम् (पुं०)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 16

4. इकारान्तम् ‘हरि’ (पुं०)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 17

5. तकारान्तम् ‘ भवत्’ (पुं०)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 18

6. ‘नदी’ ईकारान्तम् (स्त्री)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 19
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 20

7. ‘मति’ इकारान्तम् (स्त्री०)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 21

8. ‘रमा’ आकारान्तम् (स्त्री)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 22

9. ‘मातृ’ ऋकारान्तम् (स्त्री०)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 23

10. ‘फल’ अकारान्तम् (नपुं०)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 24
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 25

11. ‘अस्मद्’ दकारान्तम् (सर्वनाम)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 26
ये उत्तम पुरुष के रूप हैं।

12. विभक्तिः
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 27
ये मध्यम पुरुष के रूप हैं।
प्रथम पुरुष सर्वनाम

13. ‘इदम्’ पुंल्लिङ्गम् (यह)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 28
यहाँ द्वितीया, तृतीया, षष्ठी, सप्तमी विभक्तियों के रूप सावधानी पूर्वक याद करने चाहिए।

14. ‘इदम्’ स्त्रीलिंङ्गम् (यह)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 29
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 30
यहाँ द्वितीया, तृतीया, षष्ठी, सप्तमी के रूप सावधानी के साथ याद करने चाहिए।

15. ‘इदम्’ नपुंसकलिंङ्गम् (यह)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 31
यहाँ द्वितीया, तृतीया, षष्ठी और सप्तमी के रूप सावधानी के साथ याद करें।

16. ‘तत्’ पुँल्लिङ्गम् (वह)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 32
प्रथमा-द्वितीया पंचमी विभक्तियों में जश्त्वे होने पर विकल्प से तकार का दकार होता है।

17. ‘तत्’ नपुंसकलिंङ्गम् (वह)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 33
प्रथमा-द्वितीया पंचमी विभक्तियों में जश्त्वे होने पर विकल्प से। तकार का दकार होता है।

18. ‘तत्’ स्त्रीलिङ्गम् (यह)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 34
अस्मद् और युष्मद् पदों का प्रयोग सभी के लिए होता है। नर नारी सभी अस्मद् और युष्मद् पदों का प्रयोग कर सकते हैं। किन्तु इदम् यद् तत् (वह) किम् (क्या, कौन) इत्यादि सभी रूप सभी के लिए नहीं होते हैं। स्त्री पुरुष आदि के लिए अलग-अलग निर्धारित हैं।

(8) धातुरूपाणि
जिन धातुओं के अन्त में तिङ विभक्तियाँ होती हैं वे पद तिङन्त होते हैं। क्रिया पद ही तिङन्त होते हैं। जैसे-गम् + तिप् = गच्छति। धातुएँ दो प्रकार की होती हैं
1. परस्मैपदी और
2. आत्मनेपदी। इसलिए वहाँ प्रत्येक वर्ग में नौ-नौ विभक्तियाँ होती हैं।)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 35
परस्मैपदी धातुओं में तिप् आदि नौ प्रत्यय (तिस) लगते हैं। तथा आत्मनेपदी धातुओं से त आदि नौ तङ लगते हैं। यहाँ कुछ धातुओं के रूप 5 लकारों में दिए जा रहे हैं

(1) भू (होना) लट् (वर्तमानः)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 36
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 37

(2) हस् (हँसना)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 38

(3) पठ्(पढ़ना)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 39

(4) रक्ष् (रक्षा करना)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 40
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 41

(5) वद् (बोलना)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 42

(6) गम् (जाना)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 43
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 44

(7) दृश् (देखना)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 45

(8) पा (पीना)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 46
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 47

(9) स्था (रुकना)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 48

(10) वस् (रहना)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 49
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 50

(11) त्यज् (छोड़ना)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 51

(12) अस् (होना)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 52
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 53

(13) इ(जाना)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 54

(14) हन् (मारना)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 55
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 56

(15) भक्ष् (खाना)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 57

आत्मनेपद- (16) सेव् (सेवा करना)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 58

(17) लभ् (पाना)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 59
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 60

(18) वृध्(बढ़ना)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 61

(19) पच् (पकाना)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 62
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 63

(20) नम् (नमस्कार करना)
RBSE Class 9 Sanskrit व्याकरणम् 64

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