RBSE Class 11 Hindi काव्यांग परिचय अलंकार

Rajasthan Board RBSE Class 11 Hindi काव्यांग परिचय अलंकार

काव्य की शोभा बढ़ानेवाले तत्त्वों को अलंकार कहते हैं। दूसरे शब्दों में, “जिस प्रयोग-विशेष के कारण काव्य के शब्द और अर्थ चमत्कारपूर्ण हो जायें, उसे अलंकार की संज्ञा दी जाती है।”

अलंकार के मुख्य दो भेद हैं-शब्दालंकार और अर्थालंकार। जहाँ शब्दों के कारण चमत्कार आ जाता है वहाँ शब्दालंकार तथा जहाँ अर्थ के कारण रमणीयता आ जाती है वहाँ अर्थालंकार होता है।

शब्दालंकार भेद-अनुप्रास, यमक, श्लेष व वक्रोक्ति प्रमुख शब्दालंकार हैं।

1. अनुप्रास–जहाँ व्यंजनों की बार-बार आवृत्ति हो, चाहे उनके स्वर मिलें या न मिलें, वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है। अनुप्रास के पाँच भेद होते हैं
(क) छेकानुप्रास,
(ख) वृत्यानुप्रास,
(ग) श्रुत्यानुप्रास,
(घ) लाटानुप्रास,
(ङ) अन्त्यानुप्रास।

(क) छेकानुप्रास-जहाँ एक या अनेक वर्षों की आवृत्ति केवल एक बार होती है, वहाँ छेकानुप्रास होता है; जैसे

राधा के बर बैन सुनि चीनी चकित सुभाइ।
दाख दुखी मिसरी मुई सुधा रही सकुचाइ।

यहाँ ब, च, द, ख, म और स वर्षों की एक बार आवृत्ति हुई है। अत: यहाँ छेकानुप्रास है।

(ख) वृत्यानुप्रास-जहाँ एक अथवा अनेक वर्षों की आवृत्ति दो या दो से अधिक बार हो, वहाँ वृत्यानुप्रास होता है; जैसे-

तरनि-तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये।।

यहाँ ‘त’ वर्ण की आवृत्ति अनेक बार होने के कारण वृत्यानुप्रास है।

(ग) श्रुत्यानुप्रास-जहाँ कण्ठ-तालु आदि एक स्थान से बोले जाने वाले वर्षों की आवृत्ति होती है, वहाँ श्रुत्यानुप्रास होता है। जैसे-

तुलसीदास सीदत निसिदिन देखत तुम्हारि निठुराई।

इसमें दन्त्य वर्णो त, स, द, र, न की आवृत्ति हुई है। अत: इसमें श्रुत्यानुप्रास है।

(घ) लाटानुप्रास-जब शब्द और उसका अर्थ वही रहे, केवल अन्वय करने से अर्थ में भेद हो जाय, उसे लाटानुप्रास कहते हैं;

तीरथ-व्रत-साधन कहा, जो निस दिन हरिगान।
तीरथ-व्रत-साधन कहा, बिन निस दिन हरिगान।

इसमें शब्द और अर्थ वही हैं, परन्तु अन्वय करने से अर्थ में भिन्नता आ जाने के कारण लाटानुप्रास है।
विशेष-लाट प्रदेश के कवियों द्वारा खोजे और फिर प्रचलित किए जाने के कारण यह अलंकार लाटानुप्रास कहलाता है। गुजरात में भौंच और अहमदाबाद के पास यह प्रदेश था।

(ङ) अन्त्यानुप्रास-जहाँ चरण या पद के अन्त में स्वर या व्यंजन की समानता होती है, वहाँ अन्त्यानुप्रास होता है; जैसे-

गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन।
नयन अमिय दृग दोष विभंजन।

इसमें अन्त में न वर्ण की समानता के कारण अन्त्यानुप्रास है।

2. यमक-जहाँ भिन्न-भिन्न अर्थों वाले शब्दों की आवृत्ति हो वहाँ यमक अलंकार होता है; जैसे-

इकली डरी हौं, घन देखि के डरी हौं,
खाय बिस की डरी हौं घनस्याम मरि जाइ हौं।

दिए गए पद में ‘डरी’ शब्द तन बार आया है-अर्थ भिन्न-भिन्न हैं। पहली डरी का अर्थ ‘पड़ी’ है, दूसरी डरी को अर्थ ‘ भयभीत’ है तथा तीसरी डरी का अर्थ ‘विष की डली’ या ‘टुकड़ी’ है।

3. श्लेष-जहाँ एक शब्द का एक ही बार प्रयोग होता है और उसके एक से अधिक अर्थ होते हैं, वहाँ श्लेषालंकार होता है; जैसे

चिरजीवी जोरी जुरै क्यों न सनेह गैंभीर।
को घटि ए वृषभानुजा ए हलधर के वीर॥

यहाँ ‘वृषभानुजा’ दो अर्थों में प्रयुक्त है, पहला वृषभानु की पुत्री राधा, दूसरा वृषभ की अनुजा गाय।
इसी प्रकार ‘हलधर के वीर’ के भी दो अर्थ हैं-
(1) हलधर अर्थात् बलराम के भाई कृष्ण तथा
(2) हल को धारण करने वाले बैल का भाई साँड़। ‘वृषभानुजा’ तथा ‘हलधर’ के एक से अधिक अर्थ होने के कारण यहाँ श्लेष अलंकार है।

4. वक्रोक्ति-जहाँ शब्द में श्लेष के कारण या काकु अथवा स्वर के भेद के कारण सुनने वाला व्यक्ति कहने वाले के शब्द का दूसरा अर्थ कल्पित कर ले वहाँ ‘वक्रोक्ति’ अलंकार होता है; जैसे-

“कौ तुम? हैं घनश्याम हम, तो बरसो कित जाय”

यहाँ श्रीकृष्ण व राधिका का संवाद है। राधिका घर के भीतर से बाहर खड़े श्रीकृष्ण से पूछती है”बाहर तुम कौन ?” श्रीकृष्ण कहते हैं “हम घनश्याम हैं।” ‘राधिका’ ‘घनश्याम’ शब्द का श्लेष के कारण जल से भरा हुआ “काला बादल” अर्थ लगाकर उत्तर देती है-” घनश्याम हो तो कहीं जाकर जल बरसाओ।

♦ अर्थालंकार

1. उपमा-समान धर्म के आधार पर जहाँ एक वस्तु की समानता या तुलना किसी दूसरी वस्तु से की जाती है, वहाँ उपमा अलंकार होता है। इसके चार अंग हैं
(क) उपमेय-जिसकी उपमा दी जाय अर्थात् वह वर्त्य विषय, जिसके लिए उपमा की योजना की जाती है, उसे उपमेय कहते हैं।
(ख) उपमान-जिससे उपमा दी जाय वह उपमान होता है।
(ग) साधारण धर्म-उपमेय एवं उपमान के बीच जो भाव, रूप, गुण, क्रिया आदि समान धर्म हों, उसे साधारण धर्म कहते हैं।
(घ) वाचक-उपमेय और उपमान की समानता को प्रकट करने वाले-सा, इव, सम, समान, सों आदि शब्दों को वाचक कहते हैं।

उदाहरणार्थ- हरिपद कोमल कमल से।
इस एक पंक्ति में उपमा के चारों अंग उपस्थित हैं। हरिपद का वर्णन किया जा रहा है, वे उपमेय हैं। उनकी समता कमल से की गई है, अत: कमल उपमान है। कोमलता वाले गुण में ही दोनों के बीच समानता दिखाई गई है, अत: यह साधारण धर्म है तथा ‘से’ शब्द वाचक है। इस पंक्ति में पूर्णोपमा है क्योंकि इसमें चारों अंग हैं। जहाँ उपमा के चारों अंगों में से कोई अंग लुप्त रहता है, वहाँ लुप्तोपमा होती है।

उपमेय लुप्तोपमा-जहाँ केवल उपमेय लुप्त हो, वहाँ उपमेय लुप्तोपमा अलंकार होता है।
यथा-

साँवरे गोरे घन छटा से फिरें मिथिलेस की बाग थली में।

उपमान लुप्तोपमा-जहाँ उपमान का लोप हो, वहाँ उपमान लुप्तोपमा अलंकार होता है।
यथा-

सुन्दर नन्द किशोर सो, जग में मिलै न और।

साधारण-धर्म लुप्तोपमा-जहाँ साधारण धर्म का लोप हो, वहाँ साधारण धर्म लुप्तोपमा अलंकार होगा।
यथा-

कुन्द इन्दु सम देह उमा रमन करुना अयन।।

वाचक लुप्तोपमा-जहाँ वाचक शब्द का लोप हो, वहाँ वाचक लुप्तोपमा अलंकार होता है;
जैसे-

नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन।

जहाँ उपमेय का उत्कर्ष दिखाने हेतु अनेक उपमान एकत्र किए जायँ, वहाँ मालोपमा अलंकार होता है;
जैसे-

इन्द्र जिमि जम्भे पर बाड़व सुअंभ पर,
रावण सदम्भ पर रघुकुल राज हैं।

2. रूपक-जहाँ उपमेय में उपमान का आरोप हो, वहाँ रूपक अलंकार होता है।
(क) सांगरूपक-जहाँ उपमेय पर उपमान का सर्वांग आरोप हो, वहाँ सांगरूपक होता है। यथा-

उदित उदय गिरि मंच पर रघुवर बाल पतंग।
बिगसे सन्त सरोज सब हरखे लोचन शृंग॥

यहाँ रघुवर, मंच, संत, लोचन आदि उपमेयों पर बाल सूर्य, उदयगिरि, सरोज तथा भुंग आदि उपमानों का आरोप किया गया है। अत: यहाँ सांगरूपक है।
(ख) निरंग रूपक-जहाँ उपमेय पर उपमान का आरोप सर्वांग न हो, वहाँ निरंग रूपक होता है।

अवसि चलिय बेन राम पहुं भरत मंत्र भल कीन्ह।
सोक सिन्धु बूड़त सबहिं, तुम अवलम्बन दीन्ह॥

यहाँ सिन्धु उपमान का शोक उपमेय में आरोप मात्र है, अत: यहाँ निरंग रूपक है।

(ग) परम्परित रूपक-जहाँ मुख्य रूपक किसी दूसरे रूपक पर अवलम्बित हो या जहाँ एक आरोप दूसरे का कारण बनता हुआ दिखाया जाय, वहाँ परम्परित रूपक होता है। यथा-

बन्द पवन कुमार खल बन पावक ज्ञान घन।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सरचाप धर॥

यहाँ हनुमान में जो अग्नि का आरोप प्रदर्शित किया गया है, उसका कारण खलों में वन का आरोप है। अत: इस आरोप पर ही प्रथम आरोप अवलम्बित है।

3. उत्प्रेक्षा-जहाँ उपमेय में उपमाने की सम्भावना की जाय वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। इसके तीन भेद हैं

  1. वस्तूत्प्रेक्षा
  2. हेतूत्प्रेक्षा
  3. फलोत्प्रेक्षा।

(क) वस्तूत्प्रेक्षा-जहाँ किसी वस्तु में किसी अन्य वस्तु की सम्भावना की जाती है वहाँ वस्तूत्प्रेक्षा होती है। यथा-

सखि सोहति गोपाल के उर गुंजन की माल।
बाहिर लसति मनो पिये दावानल की ज्वाल॥

यहाँ गुंजन की माल उपमेय में दावानल ज्वाल उपमान की सम्भावना की गई है।

(ख) हेतूत्प्रेक्षा-जहाँ अहेतु में अर्थात् जो कारण न हो, उसमें हेतु की सम्भावना की जाय, वहाँ वस्तूत्प्रेक्षा होती है।
यथा-

रवि अभाव लखि रैनि में दिन लखि चन्द्र विहीन।
सतत उदित इहिं हेतु जन यश प्रताप मुख कीन॥

यहाँ राजा के यश प्रताप के सतत दैदीप्यमान होने का हेतु रात्रि में सूर्य का और दिन में चन्द्र का अभाव बताया गया है। अत: अहेतु में हेतु की सम्भावना की गई है।

(ग) फलोत्प्रेक्षा-जहाँ अफल में फल की सम्भावना की गई हो, वहाँ फलोत्प्रेक्षा होती है। यथा-

तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये।।
झुके कूल सों जल परसन हित मनहुँ सुहाये॥

यहाँ तमालों को झुके हुए होने का पवित्र जमुना जल स्पर्श का पुण्यलाभ प्राप्त करना फल या उद्देश्य बताया गया है। यहाँ अफल। को फल मान लेने के कारण फलोत्प्रेक्षा है।

4. अतिशयोक्ति-जहाँ किसी वस्तु की इतनी अधिक प्रशंसा की जाय कि लोकमर्यादा का अतिक्रमण हो जाय, वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है। यथा-

अब जीवन की है कपि आसे न कोय।
कनगुरिया की मदुरी कँगना होय॥

यहाँ शरीर की क्षीणता को व्यंजित करने के लिए अँगूठी को कंगन होना बताया गया है, अत: यहाँ अतिशयोक्ति अलंकार है।

5. सन्देह-जहाँ किसी वस्तु की समानता अन्य वस्तु से दिखाई पड़ने से यह निश्चित न हो पाए कि यह वस्तु वही है या कोई अन्य, वहाँ सन्देह अलंकार होता है।

लंका-दहन के वर्णन में हनुमान की पूँछ को देखकर यह निश्चित ज्ञात नहीं हो पाता कि यह आकाश में अनेक पुच्छल तारे हैं या पर्वत से अग्नि की नदी-सी निकल रही है

कैधों व्योम बीथिका भरे हैं भूरि धूमकेतु
कैथों चली मेरु औं कृसानुसारि भारी है।

सन्देह अलंकार का एक और उदाहरण-

नारी बीच सारी है कि सारी बीच नारी है।
कि सारी ही की नारी है कि नारी ही की सारी है।

6. भ्रान्तिमान-सन्देह में तो यह संदेह बना रहता है कि यह वस्तु रस्सी है या सर्प है, परन्तु भ्रान्तिमान में तो अत्यन्त समानता के कारण एक वस्तु को दूसरी समझ लिया जाता है और उसी भूल के अनुसार कार्य भी कर डाला जाता है।
यथा-

बिल बिचारि प्रविसन लग्यौ नाग कुंड में ब्याल।
ताहू कारी ऊख भ्रम लियो उठाय उत्ताल।।

यहाँ सर्प को हाथी की सँड़ में बिल होने की भ्रान्ति हुई और वह उसी भूल के अनुसार क्रिया भी कर बैठा, उसमें घुसने लगा। उधर हाथी को भी सर्प में काले गन्ने की भ्रान्ति हुई और उसने तत्काल उसे गन्ना समझ कर उठा लिया।

महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तत्त्वों को कहा जाता है
(क) रस
(ख) छन्द
(ग) अलंकार
(घ) गुण।
उत्तर:
(ग) अलंकार

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में शब्दालंकार है
(क) उपमा
(ख) श्लेष
(ग) सन्देह
(घ) रूपक।
उत्तर:
(ख) श्लेष

प्रश्न 3.
जिस अलंकार में वर्षों की आवृत्ति होती है, वह है–
(क) यमक
(ख) श्लेष
(ग) अनुप्रास
(घ) रूपक।
उत्तर:
(ग) अनुप्रास

प्रश्न 4.
तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए। झुके कुल सो जल परसन हित मनहुँ सुहाए। इन पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकार है
(क) यमक
(ख) अनुप्रास
(ग) रूपक
(घ) श्लेष।
उत्तर:
(ख) अनुप्रास

प्रश्न 5.
‘अम्बर पनघट पर डुबा रही तारा घट ऊषा नागरी।’ इस पंक्ति में अलंकार है
(ख) रूपक
(ग) भ्रान्तिमान।
(घ) अनुप्रास।
उत्तर:
(ख) रूपक

प्रश्न 6.
हरिपद कोमल कमल से’ में अलंकार है।
(क) अनुप्रास
(ख) उपमा
(ग) उत्प्रेक्षा.
(घ) यमक।।
उत्तर:
(ख) उपमा

प्रश्न 7.
जहाँ एक शब्द एक से अधिक बार प्रयुक्त होता है और हर बार उसका अर्थ भिन्न होता है, वहाँ अलंकार होता है
(क) यमक
(ख) श्लेष
(ग) अनुप्रास
(घ) रूपक।
उत्तर:
(ग) अनुप्रास

प्रश्न 8.
जहाँ उपमेय में उपमान की सम्भावना की जाए, वहाँ अलंकार होता है
(क) रूपक
(ख) उत्प्रेक्षा
(ग) भ्रान्तिमान
(घ) उपमा।
उत्तर:
(ख) उत्प्रेक्षा

प्रश्न 9.
‘अब जीवन की कपि आस न कोई, कनगुरिया की मुदरी कँगना होय।’ में अलंकार है
(क) दृष्टान्त
(ख) उत्प्रेक्षा
(ग) उपमा
(घ) अतिशयोक्ति।
उत्तर:
(घ) अतिशयोक्ति।

प्रश्न 10.
जहाँ एक उपमेय के विषय में अनेक उपमानों का संशय व्यक्त किया जाता है, वहाँ अलंकार होता है
(क) भ्रान्तिमान
(ख) सन्देह
(ग) अतिशयोक्ति
(घ) दृष्टान्त।
उत्तर:
(ख) सन्देह

प्रश्न 11.
तुलसी सुरेश चाप, कैंधो दामिनी कलाप, कैंधो चली मेरु ते कृसानु सरि भारी है। इन काव्य-पंक्तियों में अलंकार है
(क) रूपक
(ख) प्रतीप
(ग) सन्देह
(घ) भ्रान्तिमान।
उत्तर:
(ग) सन्देह

प्रश्न 12.
भोगता है दुःख जगत में, असत को सत मान। काँच में प्रतिबिम्ब को लख, भूकता ज्यों श्वान। इस पद्य में अलंकार है
(क) उपमा
(ख) सन्देह
(ग) भ्रान्तिमान।
(घ) प्रतीप।
उत्तर:
(ग) भ्रान्तिमान।

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न।

प्रश्न 1.
अलंकार की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
काव्य की शोभा में वृद्धि करने वाले प्रयोगों (तत्वों) को अलंकार कहा गया है।
(क) यमक

प्रश्न 2.
अलंकार को कितने भागों में बाँटा गया है?
उत्तर:
अलंकार दो प्रकार के माने गए हैं-

  1. शब्दालंकार
  2. अर्थालंकार।

प्रश्न 3.
शब्दालंकार का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जहाँ उक्ति में चमत्कार (चारुता, सुंदरता) शब्द पर निर्भर हो, वहाँ शब्दालंकार होता है।

प्रश्न 4.
अर्थालंकार से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
जहाँ उक्ति में चमत्कार किसी शब्द पर निर्भर न होकर शब्द के अर्थ पर निर्भर हो, वहाँ अर्थालंकार होता है।

प्रश्न 5.
अनुप्रास अलंकार की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
एक वर्ण या अनेक वर्ण जब दो या दो से अधिक बार एक ही क्रम में आएँ, भले ही उन वर्षों में स्वर की समानता न हो, वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है।

प्रश्न 6.
अनुप्रास अलंकार के भेदों के नामोल्लेख कीजिए।
उत्तर:
छेकानुप्रास, वृत्यानुप्रास, श्रुत्यानुप्रासं, अन्त्यानुप्रास एवं लाटानुप्रास।

प्रश्न 7.
यमक अलंकार की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
जहाँ सार्थक किन्तु भिन्नार्थक का निरर्थक वर्ण समुदाय की एक से अधिक बार आवृत्ति की जाती है अर्थात् कोई शब्द अनेक बार आए और अर्थ प्रत्येक बार भिन्न हो, वहाँ यमक अलंकार होता है।

प्रश्न 8.
श्लेष अलंकार को समझाइए।
उत्तर:
जब वाक्य में एक शब्द केवल एक ही बार आए और उस शब्द के दो या अधिक अर्थ निकलें तब वहाँ श्लेष अलंकार होता है।

प्रश्न 9.
वक्रोक्ति अलंकार को स्पष्ट करें।
उत्तर:
जहाँ शब्द में श्लेष के कारण या काकु अथवा स्वर के भेद के कारण सुनने वाला व्यक्ति कहने वाले शब्द का दूसरा अर्थ कल्पित कर ले, वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता है।

प्रश्न 10.
उपमा अलंकार की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
जहाँ उपमेय और उपमान में भेद रहते हुए भी उपमेय के साथ उपमान के सादृश्य का वर्णन हो, वहाँ उपमा अलंकार होता है।

प्रश्न 11.
रूपक अलंकार से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
जहाँ उपमेय का उपमान के साथ अभेद आरोपित किया गया हो, वहाँ रूपक अलंकार होता है।

प्रश्न 12.
उत्प्रेक्षा अलंकार की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
जहाँ उपमेय को उपमान से भिन्न मानते हुए भी उपमेय में उपमान की बलपूर्वक संभावना की जाती है, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।

प्रश्न 13.
अतिशयोक्ति अलंकार की परिभाषा लिखिए।
उत्तर:
जहाँ पर किसी वस्तु का वर्णन इतना बढ़ा-चढ़ाकर किया जाए कि वह लोक मर्यादा का उल्लंघन कर जाए, वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है।

प्रश्न 14.
संदेह अलंकार को स्पष्ट कीजिए।’
उत्तर:
जब सादृश्य के कारण एक वस्तु में अनेक वस्तुओं के होने की संभावना दिखाई पड़े और निश्चय न हो, वहाँ संदेह अलंकार होता है।

प्रश्न 15.
भ्रान्तिमान अलंकार की परिभाषा लिखें।
उत्तर:
जब सादृश्य के कारण उपमेय में उपमान का भ्रम हो, अर्थात् जब उपमेय को भूल से उपमान समझ लिया जाय, वहाँ भ्रान्तिमान अलंकार होता है।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
यमक अलंकार की परिभाषा तथा उदाहरण लिखिए।
उत्तर:
जब एक ही शब्द की एक से अधिक बार आवृत्ति हो किन्तु अर्थ भिन्न हों तो वहाँ यमक अलंकार होता है;

यथा-

उठा बगूला प्रेम का, तिनका उड़ा आकाश।
तिनका तिनके से मिला, तिनका तिनके पास॥

यहाँ ‘तिनका’ शब्द की एक से अधिक अर्थों में आवृत्ति हुई है ‘तिनका’ का अर्थ ‘तृण’ तथा ‘उनका’ है। यहाँ यमक अलंकार है।

प्रश्न 2.
श्लेष अलंकार की परिभाषा तथा उदाहरण लिखिए।
उत्तर:
जब एक शब्द अनेक अर्थ व्यक्त करते हुए केवल एक बार ही प्रयुक्त होता है तो वहाँ श्लेष अलंकार होता है; यथा-

सुबरन को खोजत फिरत, कवि व्यभिचारी चोर।

यहाँ ‘सुबरन’ शब्द के क्रमशः सुन्दर वर्ण, सुन्दर रूप तथा स्वर्ण अर्थ हैं, अत: यहाँ श्लेष अलंकार है।

प्रश्न 3.
अतिशयोक्ति अलंकार की परिभाषा और उदाहरण लिखिए।
उत्तर:
जहाँ किसी के रूप, गुण या कार्य को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर वर्णित किया जाए, वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है; यथा-

‘दल के दरारन ते कमठ करारे फूटे, केरा के से पात बिहराने फन सेस के।’

शिवाजी की सेना के चलने से कच्छपावंतार की पीठ का तड़क जाना और शेषनाग के फनों का केले के पत्तों के समान फट जाना, दिखाया गया है। यह वर्णन बहुत ही बढ़ा-चढ़ाकर किया गया है। अत: यहाँ अतिशयोक्ति अलंकार है।

प्रश्न 4.
सन्देह अलंकार का लक्षण और परिभाषा लिखिए।
उत्तर:
जहाँ उपमेय में एक से अधिक उपमानों का संशय प्रकट किया जाता है, वहाँ संदेह अलंकार होता है। इसे कै, कैधों, अथवा या आदि शब्दों से प्रकट किया जाता है; यथा-

तुलसी सुरेस चाप, कैथों दामिनी कलाप, कैधों, चली मेरु ते कृसानु सरि भारी है।

यहाँ हनुमान की जलती हुई पूँछ में सुरेश-चाप (इन्द्र-धनुष), दामिनी-कलाप (बिजलियों के समूह) तथा कृसानु-सरि (अग्नि की नदी) का संशय प्रकट किया गया है। इसी प्रकारनारी बीच सारी है कि सारी बीच नारी है। सारी ही की नारी है कि नारी ही की सारी है।

कनारा हा का सारा है। यहाँ वस्त्र से घिरी द्रोपदी में साड़ी या नारी का संदेह व्यक्त किया जा रहा है। अतः संदेह अलंकार है।

प्रश्न 5.
भ्रान्तिमान अलंकार का लक्षण और परिभाषा लिखिए।
उत्तर:
जहाँ उपमेय में उपमान का भ्रमपूर्ण निश्चय व्यक्त किया जाए, वहाँ भ्रान्तिमान अलंकार होता है। संदेह में तो संशय बना रहता है, निश्चय नहीं हो पाता परन्तु भ्रान्तिमान में भ्रम के कारण अन्य समान वस्तु की कल्पना कर ली जाती है; यथा-

बादल से काले-काले, केशों को देख निराले। नाचा करते हैं निशि-दिन, पालतू मोर मतवाले।

यहाँ नायिका के काले केशों में मोरों को बादलों का भ्रम हो गया है और वे नोचते रहते हैं। कुछ प्रमुख अलंकारों में अंतर।

प्रश्न 6.
यमक और श्लेष अलंकार में भेद बताइए।
उत्तर:
यमक और श्लेष, ये दोनों ही शब्दालंकार हैं परन्तु यमक अलंकार में एक ही शब्द अनेक बार आता है और भिन्न-भिन्न अर्थ देता है, यथा-

एक मनमोहन तौ बसि कै उजायौ मोहि, हिय में अनेक मनमोहन बसावो ना॥

यहाँ ‘मनमोहन’ शब्द दो बार आया है। प्रथम ‘मनमोहन’ का अर्थ है श्रीकृष्ण और दूसरे का मन को मोहने वाले’। अतः यहाँ यमक अलंकार है। परन्तु श्लेष में एक ही शब्द, एक से अधिक अर्थ प्रकट करता है; यथा-

पानी गए न उबरै, मोती, मानुस, चून।

यहाँ ‘पानी’ शब्द तीन अर्थ प्रकट कर रहा है। मोती’ के साथ ‘चमक’, ‘मानुस’ के साथ प्रतिष्ठा’ और ‘चून’ के साथ में ‘जल’। इस प्रकार यहाँ श्लेष अलंकार है। यही दोनों अलंकारों में अन्तर है।

प्रश्न 7.
उपमा तथा रूपक का भेद उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
ये दोनों अर्थालंकार हैं। उपमा में उपमेय को उपमान के समान बताया जाता है और साधारण ‘धर्म’ तथा ‘वाचक शब्द’ का प्रयोग होता है; यथा-

लघुतरणि हंसिनी-सी सुन्दर

यहाँ लघु तरणि (छोटी-सी नौका) को हंसिनी जैसी सुन्दर बताया गया है। अत: यहाँ उपमा अलंकार है; किन्तु
लघु तरणि हंसिनी तैर रही।

इस उदाहरण में ‘लघु तरणि’ में हंसिनी का सीधा आरोप किया गया है। अत: यहाँ रूपक अलंकार होगा। रूपक में उपमेय में। उपमान का भेद रहित आरोप किया जाता है।

प्रश्न 8.
‘सन्देह’ तथा ‘भ्रान्तिमान’ अलंकार का अन्तर स्पष्ट करते हुए दोनों के उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
सन्देह अलंकार में उपमेय में एक से अधिक उपमानों का संशय बना रहता है किन्तु भ्रान्तिमान में उपमेय में किसी उपमान का भ्रमपूर्ण निश्चय हो जाता है।

‘दिग्दाहों से धूम उठे, या जलधर उठे क्षितिज तट के।’ (सन्देह):
‘धूम समूह देख चातक, उड़ चला मेघ के भ्रम से’ (भ्रान्तिमान)

प्रश्न 9.
उपमा तथा उत्प्रेक्षा अलंकार में अन्तर बताइए।
उत्तर:
उपमा अलंकार में दो वस्तुओं की समानता प्रस्तुत की जाती है; जैसे-

‘पीपर पात सरिस मन डोला।’

यहाँ ‘मन’ उपमेय की ‘पीपर पात’ उपमान से समानता दिखाई गई है। परन्तु उत्प्रेक्षा अलंकार में उपमेय में उपमान की सम्भावना व्यक्त की जाती है; यथा-

मकराकृति गोपाल के सोहत कुंडल कान। धरयौ मनौ हिय घर समरू ड्योढ़ी लसत निसान।

यहाँ ‘कुंडल’ उपमेय में ‘निसान’ (झण्डा) उपमान की सम्भावना प्रकट की गई है।

प्रश्न 10.
वक्रोक्ति अलंकार का लक्षण उदाहरण सहित लिखिए।
उत्तर:
जहाँ शब्द में श्लेष के कारण या काकु अथवा स्वर के भेद के कारण सुनने वाला व्यक्ति कहने वाले के शब्द का दूसरा अर्थ कल्पित कर ले, वहाँ ‘वक्रोक्ति अलंकार होता है।
जैसे-

“कौ तुम? हैं घनश्याम हम, तो बरसो कित जाय”

यहाँ श्रीकृष्ण व राधिका का संवाद है। राधिका घर के भीतर से बाहर खड़े श्रीकृष्ण से पूछती है”बाहर तुम कौन ?” श्रीकृष्ण कहते हैं”हम घनश्याम हैं। राधिका घनश्याम शब्द का श्लेष के कारण जल से भरा हुआ “काला बादल” अर्थ लगाकर उत्तर देती है-“घनश्याम हो तो कहीं जाकर जल बरसाओ।

प्रश्न 11.
उपमा अलंकार की परिभाषा तथा उदाहरण लिखिए।
उत्तर:
जहाँ कविता में दो वस्तुओं की उनके रूप, गुण तथा व्यवहार आदि के आधार पर समानता व्यक्त की जाती है, वहाँ उपमा। अलंकार होता है। यह समानता यो तुलना चार अंगों की सहायता से व्यक्त की जाती है। ये अंग हैं

  1. उपमेय-जिस व्यक्ति या वस्तु का वर्णन होता है, उसे उपमेय कहते हैं।
  2. उपमान-जिस व्यक्ति या वस्तु से तुलना की जाती है, उसे उपमान कहते हैं।
  3. साधारण धर्म-वह गुण जिसकी तुलना की जाती है, साधारण धर्म कहा जाता है।
  4. वाचक-समानता को व्यक्त करने वाला शब्द वाचक कहा जाता है।

उदाहरण-
‘नीले फूले कमल दल-सी गात की श्यामता है।’

यहाँ ‘गात’ का वर्णन हो रहा है, अत: यह उपमेय है। गात की समानता ‘नीले फूले कमल-दल’ से की गई है अतः यह उपमान हुआ। इस समानता को व्यक्त करने वाला शब्द ‘सी’ है। अतः यह ‘वाचक’ है तथा ‘श्यामता’ तुलना की जा रही है। अतः यह समान धर्म है।

“जहाँ उपमा के चारों अंग विधमान होते हैं, उसे पूर्णोपमा कहा जाता है। जहाँ कोई एक अंग अनुपस्थित रहता है, उसे लुप्तोपमा कहा जाता है।

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
अलंकार की परिभाषा देते हुए शब्दालंकार तथा अर्थालंकार का अन्तर बताइए।
उत्तर:
काव्य की शोभा में वृद्धि करने वाले तत्वों (प्रयोगों) को अलंकार कहा गया है। जिस प्रकार आभूषण पहनने से शरीर की शोभा बढ़ जाती है, इसी प्रकार अलंकारों के प्रयोग से काव्य अधिक चित्ताकर्षक हो जाता है।

शब्दालंकार तथा अर्थालंकार में अन्तर-जहाँ काव्य का अलंकरण शब्द-विशेष के प्रयोग पर आधारित होता है, वहाँ शब्दालंकार माना जाता है और जब अलंकार अर्थगत चमत्कार पर आधारित होता है, तो वहाँ अर्थालंकार माना जाता है; जैसे-

कनक कनक ते सौगुनी मादकता अधिकाय।।

इस उदाहरण में ‘कनक’ शब्द के दो बार भिन्न अर्थों में प्रयुक्त होने से चमत्कार या अलंकरण हुआ है। यदि यहाँ ‘कनक’ का कोई अन्य समानार्थी प्रयोग किया जाएगा तो अलंकार समाप्त हो जायगा; यथा-

स्वर्ण स्वर्ण ते सौगुनी मादकता अधिकाय।

इससे स्पष्ट है कि उपर्युक्त पंक्ति में अलंकार शब्द-विशेष पर आधारित था और शब्द के बदलते ही समाप्त हो गया। अतः यहाँ यमक नामक ‘शब्दालंकार’ है।
अर्थालंकार में कविता का आकर्षण उसके अर्थ पर आधारित होता है। अतः समान अर्थ वाले छन्द शब्द रखने पर भी अलंकार की शोभा यथावत् रहती है; यथा-

वाणी के द्वार पर कोमल कपाट जैसे, अधर तुम्हारे मानो दल हैं गुलाब के।

इन पंक्तियों में ‘वाणी’ के स्थान पर ‘भाषा’ तथा ‘अधर’ के स्थान पर ‘होठ’ कर देने पर भी आलंकारिक शोभा यथावत् रहेगी। अत: यहाँ अर्थालंकार है।

प्रश्न 2.
अनुप्रास अलंकार की परिभाषा तथा उदाहरण लिखिए।
उत्तर:
जहाँ काव्य में व्यंजनों की बार-बार आवृत्ति होने से चमत्कार उत्पन्न होता है, वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है। स्वरों की आवृत्ति आवश्यक नहीं होती। यथा- झाँक न झंझा के झोके से, झुककर खुले झरोखे से।
यहाँ ‘झ’ वर्ण की बार-बार आवृत्ति हुई है, अत: यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
अनुप्रास के पाँच भेद-
(1) छेकानुप्रास-जहाँ एक या अनेक वर्षों की केवल एक बार आवृत्ति हो, वहाँ छेकानुप्रास होता है; यथा-

मन-मधुकर पद के पंकज ये क्षण में क्षीण करें भव-भीति।

यहाँ म, प, क्ष तथा भ वर्णो की केवल एक बार आवृत्ति हुई है। अत: यहाँ छेकानुप्रास है।

(2) बृत्यानुप्रास-जहाँ एक या अनेक वर्षों की अनेक बार आवृत्ति होती है, वहाँ वृत्यानुप्रास अलंकार होता है; यथा-

तन तड़प तड़प कर तप्त तात ने त्यागी।

यह ‘त’ वर्ण की अनेक बार आवृत्ति हुई है। अत: यहाँ वृत्यानुप्रास अलंकार है।

(3) श्रुत्यानुप्रास-काव्य में जहाँ एक ही उच्चारण स्थान से बोले जाने वाले वर्षों की आवृत्ति होती है, वहाँ श्रुत्यानुप्रास होता है; यथा-

केका कलापी कुंज कुंज में कलित कीनी, गगन गॅभीर गरजे हैं घन घोर ते।।

यहाँ एक ही स्थान से उच्चरित होने वाले क, ग, घ वर्गों की आवृत्ति होने से श्रुत्यानुप्रास अलंकार है।

(4) लाटानुप्रास-जहाँ अर्थ अपरिवर्तित होते हुए एक या अनेक शब्दों की या पूरे चरण की आवृत्ति होती है, वहाँ लाटानुप्रास अलंकार होता है; ग्रथा-

पूत जो कपूत तौ वृथा ही धन संचै नर, पूत जो सपूत तौ वृथा ही धन संचनौ।

यहाँ पूरे चरण की आवृत्ति बिना अर्थ-परिवर्तन के होने से लाटानुप्रास अलंकार है।

(5) अन्त्यानुप्रास–जहाँ छन्द के चरणों की समाप्ति एक ही वर्ण से होती है, उसे अन्त्यानुप्रास कहते हैं। इसे तुक मिलना भी कहा जाता है; यथा-

भीष्म हों अथवा युधिष्ठिर, या कि हों भगवान, बुद्ध हों कि अशोक, गाँधी हों कि ईश महान।।

यहाँ छन्द के अंत में एक ही वर्ण ‘न’ की आवृत्ति होने से अन्त्यानुप्रास अलंकार है।

प्रश्न 3.
उत्प्रेक्षा अलंकार की परिभाषा तथा उदाहरण लिखिए।
उत्तर:
जहाँ उपमेय में उपमान की चमत्कारपृ सम्भावना व्यक्त की जाती है, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। उत्प्रेक्षा अलंकार के ‘तीन भेद हैं
(1) वस्तूत्प्रेक्षा-जब किसी वस्तु में किसी अन्य वस्तु की सम्भावना व्यक्त की जाती है, तो वहाँ वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार होता है;।
यथा-

बालधी बिसाल बिकराल ज्वाल-जाल मानो, लंक लीलिबे को काल रसना पसारी है।।

यहाँ हनुमान की विशाल जलती हुई पूँछ में काल की रसना (जीभ) की सम्भावना व्यक्त की गई है। अत: यहाँ वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार

(2) हेतूत्प्रेक्षा-जहाँ अहेतु में हेतु की सम्भावना व्यक्त की जाती है, वहाँ हेतूत्प्रेक्षा अलंकार होता है; यथा—

‘लोहू पियौ जू वियोगिनि कौ सुकियो मुख लाल पिसाचिन प्राची।’

यहाँ पूर्व दिशा के लाल होने का कारण वियोगिनी का लोहू पीना बताया गया है जो वास्तविक कारण नहीं है। अत: यहाँ हेतूत्प्रेक्षा अलंकार है।

(3) फलोत्प्रेक्षा-जहाँ अफले में फल की सम्भावना व्यक्त की जाए, वहाँ फलोत्प्रेक्षा अलंकार होता है; यथा-

तब पद समता को कमल, जल सेवत इक पाँय।

अर्थात् मानो कमल तुम्हारे चरण की समता पाने को एक पैर से जल में खड़ा तप कर रहा है। यहाँ कमल के जल में उगने का फल अरणों की ममता बताया जा रहा है, जबकि वास्तविकता यह नहीं है। अत: अफल में फल की सम्भावना किए जाने के 32 यहाँ। फलोत्प्रेक्षा अलंकार है।

प्रश्न 4.
रूपक अलंकार की परिभाषा और उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
जहाँ उपमेय में उपमान का भेद-रहित आरोप, किया जाता है, वहाँ रूपक अलंकार होता है। यह तीन प्रकार का होता हैसांगरूपक-जहाँ उपमेय पर उपमान का आरोप सभी अंगों सहित होता है, वहाँ सांगरूपक अलंकार होता है; यथा-

पेम अमिअ मन्दर विरहु भरत पयोधि गॅभीर। मथि प्रगटेउ सुर साधु हित कृपा सिंधु रघुवीर॥

यहाँ भरत के हृदय-स्थित प्रेम के प्रकट होने में समुद्र मंथन का सर्वांग-सहित आरोप है। इसी प्रकार एक और उदाहरण देखिए

सचिव विराग विवेक नरेसू। विपिन सुहावने पावन देसू॥
भट जम नियम सैल रजधानी। सांति, सुमति, सुचि सुन्दर रानी॥

यहाँ राज्य के सारे अंगों का आरोप विराग, विवेक आदिं पर किया गया है। अत: यहाँ सांगरूपक अलंकार है। निरंगरूपक-जहाँ केवल सामान्य रूप से उपमेय पर उपमान का आरोप प्रदर्शित हो, वहाँ निरंगरूपक अलंकारें होता है; यथा. चरन कमल बन्द हरिराई। यहाँ श्रीकृष्ण के चरणों पर कमल का आरोप है। अतः यहाँ निरंगरूपक अलंकार है।

प्रश्न 5.
अलंकार का अर्थ स्पष्ट करते हुए विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई परिभाषाएँ लिखिए।
उत्तर:
अलंकार का अर्थ और परिभाषा-“अलंकार” शब्द का अर्थ है-वह वस्तु जो सुंदर बनाए या सुंदर बनाने का साक्ष हो। साधारण बोलचाल में अलंकार आभूषण या गहने को कहते हैं। जैसे आभूषण धारण करने से नारी के शरीर की शोभा बढ़ती है। ही अलंकार के प्रयोग से कविता की शोभा बढ़ती है। काव्य में अलंकारों के कार्य को लक्ष्य करके आचार्यों ने अलंकार का लक्ष्य प्रकार बताया है-

  1. कथन के असाधारण या चमत्कारपूर्ण प्रकारों को अलंकार कहते हैं।
  2. शब्द और अर्थ का वैचित्र्य अलंकम
  3. काव्य की शोभा करने वाले धर्मों को अलंकार कहते हैं।
  4. काव्य की शोभा की वृद्धि करने वाले शब्दार्थ के अस्थिर अलंकार कहते हैं।

वास्तव में अलंकार काव्य में शोभा उत्पन्न न कर के वर्तमान शोभा को ही बढ़ाते हैं।

इसलिए आचार्य विश्वनाथ ने लिखा है कि अलंकार शब्द-अर्थ-स्वरूप काव्य के अस्थिर धर्म हैं और ये भावों एवं रसों पर। करते हुए वैसे ही काव्य की शोभा बढ़ाते हैं जैसे हार इत्यादि नारी की सुन्दरता में चार चाँद लगा देते हैं।

काव्य की शोभा की बढ़ोत्तरी में अलंकार अनिवार्य रूप से सहायक नहीं हैं। अलंकारों के बिना भी कविता उत्तम कोटि सकती है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अलंकारों को भावों के उत्कर्ष में सहायक मात्र मानते हुए कहा है-“भावों का उत्कर्ष दिने वस्तुओं के रूप, गुण, क्रिया का अधिक तीव्रता से अनुभव कराने में सहायक होने वाली उक्ति अलंकार है।”

प्रश्न 6.
शब्दालंकार व अर्थालंकार को उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
(1) शब्दालंकार-जहाँ उक्ति में चमत्कार (चारुता, सुन्दरता) शब्द पर निर्भर हो।।
(2) अर्थालंकार-जहाँ उक्ति में चमत्कार किसी शब्द पर निर्भर न होकर शब्द के अर्थ पर निर्भर हो। शब्दालंकार के उदाहरण

(1) हे उत्तरा के धन! रहो तुम उत्तरा के पास ही।
इसमें “उत्तरा” शब्द दो बार आने से यहाँ अनुप्रास का ‘लाटानुप्रास’ प्रकार है।

(2) पानी गये न ऊबरै मोती, मानुष, चून।
इस पंक्ति में “पानी” शब्द के अनेक अर्थ होने से श्लेष अलंकार है।

अर्थालंकार के उदाहरण
(1) मुख मयंक सम मंजु मनोहर।।
यहाँ ‘म’ वर्ण अनेक बार आया है। इसमें नाद-सौन्दर्य की सृष्टि हुई है, परन्तु यदि इस उदाहरण के शब्दों को बदलकर र्यों का दिय जाए – सुन्दर बदन सुधाकर जैसे। तो भी उपमा अलंकार ज्यों का त्यों बना रहेगा और बदले हुए शब्द भी मुख की सुन्दरता का प्रस्तुत करते रहेंगे।

(2) “उदित उदय-गिरि मंच पर रघुवर बाल पतंग
यहाँ ‘उदयगिरि’ को मंच और ‘रघुवर’ को बाल पतंग बताया गया है। अत: यहाँ रूपक अलंकार है। इस उक्ति के “बाल पतंग शब्द को बदल कर उसके स्थान पर “बाल रवि” या “बालारुण” रख देने पर भी उक्ति का चमत्कार मिट नहीं जाएगा, बल्कि वह ज्य का त्यों बना रहेगा। इसी प्रकार “उदयगिरि” को बदल कर उसके स्थान पर इसी अर्थ वाला “उदयाचल” शब्द रख देने पर भी उक्ति व चमत्कार नष्ट नहीं होगा। अत: इस उक्ति में चमत्कार का आधार शब्द नहीं है बल्कि सादृश्य-भावना है।

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