RBSE Class 11 Hindi काव्यांग परिचय रस

Rajasthan Board RBSE Class 11 Hindi काव्यांग परिचय रस

रस की परिभाषा-“काव्य को पढ़ने-सुनने अथवा नाटक को देखने से हृदय में अवस्थित रति, शोक, उत्साह आदि भावों में से किसी एक के निष्पन्न होकर प्रकाशित हो जाने से जिस अलौकिक आनन्द की प्राप्ति होती है, उसे काव्य में रस Ras कहते हैं।”

रसावयव : रस की सामग्री को रसावयव कहते हैं। ये पाठक या सहृदय को रसानुभूति कराने में सहायक होते हैं। रस के अवयव (अंग) चार हैं-

  1. स्थायीभाव
  2. विभाव
  3. अनुभाव और
  4. संचारीभाव या व्यभिचारीभाव।

प्रमुख रस-काव्य-शास्त्र के प्रारम्भिक युग से लेकर आज तक विभिन्न प्रकार के वाद-विवाद के पश्चात् रस के दस भेद स्वीकार कर लिए गए। ग्यारहवें भक्ति रस पर अभी तक कोई आम निर्णय नहीं हो सका है। रस के दस भेद इस प्रकार हैं:
RBSE Class 11 Hindi काव्यांग परिचय रस 1

  1. श्रृंगार रस-सहृदय के चित्त में रति नामक स्थायीभाव का जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से संयोग होता है तो वह शृंगार रस का रूप धारण कर लेता है। इसके दो भेद होते हैं-संयोग और वियोग, इन्हें क्रमशः संभोग एवं विप्रलम्भ भी कहते हैं।
  2. हास्य रस-अपने अथवा पराये परिधान, वचन अथवा क्रिया-कलाप आदि से उत्पन्न हुआ हास नामक स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से हास्य रस का रूप ग्रहण करता है।
  3. करुण रस-शोक स्थायीभाव, विभाव, अनुभाव और संचारीभाव (व्यभिचारीभाव) के संयोग से करुण रस की दशा को प्राप्त होता है।
  4. रौद्र रस-विभाव, अनुभाव और संचारीभाव के संयोग से क्रोध नामक स्थायी भाव रौद्र रस का रूप धारण कर लेता है।
  5. वीर रस-विभाव, अनुभाव और संचारीभाव के संयोग से उत्साह नामक स्थायीभाव वीर रस की दशा को प्राप्त होता है।
  6. भयानक रस-विभाव, अनुभाव और संचारीभाव के संयोग से भय नामक स्थायीभाव भयानक रस का रूप ग्रहण करता है।
  7. वीभत्स रस-विभाव, अनुभाव और संचारीभाव के संयोग से जुगुप्सा (घृणा) स्थायीभाव वीभत्स रस का रूप ग्रहण करता है।
  8. अद्भुत रस-विभाव, अनुभाव और संचारीभाव के संयोग से विस्मय नामक स्थायीभाव उद्भुत रस की दशा को प्राप्त होता। है। विविध प्रकरणों में लोकोत्तरता देखकर जो आश्चर्य होता है, उसे विस्मय कहते हैं।
  9. शान्त रस-विभाव, अनुभाव और संचारीभाव के संयोग से निर्वेद नामक स्थायीभाव शान्त रस का रूप ग्रहण करता है।
  10. वात्सल्य (वत्सल) रसवात्सल्य नामक स्थायीभाव, विभाव, अनुभाव और संचारीभाव के संयोग से ‘वात्सल्य रस’ सम्पुष्ट होता है।
  11. भक्ति रस-ईश्वर विषयक प्रेम, स्थायी भाव, आलंबन, उद्दीपन, अनुभाव, संचारीभाव आदि से पुष्ट होकर भक्ति रस का रूप ग्रहण करता है।

महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर

प्रश्न  1.
अमिय, हलाहल, मद भरे, श्वेत, स्याम, रतनार। जियत, मरत, झुकि-झुकि परत, जेहि चितंवत इक बार। उक्त पद्य में रस है
(क) करुण
(ख) श्रृंगार
(ग) शान्त
(घ) रौद्र।
उत्तर:
(ख) श्रृंगार

प्रश्न  2.
जसोदा हरि पालने झुलावै।
हलरावै दुलराइ मल्हावै, जोइ सोइ कछु गावै।
इस पद्य में रस है-
(क) श्रृंगार
(ख) वात्सल्य
(ग) हास्य
(घ) करुण।
उत्तर:
(ख) वात्सल्य

प्रश्न  3.
जो तुम्हार अनुसासन पावों। कंदुक इव ब्रह्मांड उठाव।
धरौं मूरि मूलक इव तोरी। काँचे घट जिम डारा फोरी।
उपर्युक्त पंक्तियों में रस है
(क) वीर
(ख) रौद्र
(ग) वीभत्स
(घ) अद्भुत।
उत्तर:
(क) वीर

प्रश्न  4.
मातहिं पितहिं उरिन भए नीके। गुरु रिन रहा सोच बड़ जीके। इस पद्य में रस है
(क) रौद्र।
(ख) वीर।
(ग) हास्य
(घ) शृंगार।
उत्तर:
(ग) हास्य

प्रश्न  5.
‘कबहुँक हौं यह रहनि रहौंगो’ में कौन-सा रस है?
(क) वात्सल्य
(ख) शान्त
(ग) श्रृंगार
(द) हास्य।
उत्तर:
(ख) शान्त

प्रश्न  6.
जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिवर कर हीना। असमय जिवन बंधु बिनु तोही। जौ जड़ दैव जिआबहि मोही। इस पद्य में रस है
(क) रौद्र
(ख) हास्य
(ग) करुण
(घ) शान्त।
उत्तर:
(ग) करुण

प्रश्न  7.
अभ्रस्पर्शी अट्टालिकाओं की नाक के नीचे, सभ्यता की लाश नोंचते हैं कुत्ते मृत पशुओं की दुर्गंध का गुबार, गंदगी का अंबार, महानगरी जगमग का विकृत उपहास उपर्युक्त पद्यांश में व्यंजित रस है
(क) भयानक
(ख) करुण।
(ग) वीभत्स
(घ) शान्त।
उत्तर:
(ग) वीभत्स

प्रश्न  8.
चकित, थकित, विस्फारित दृग से देखा व्रज-नर-नारी ने। इन्द्र-मान-मर्दित कर गिरि को धारण किया मुरारी ने। उपर्युक्त पंक्तियों में रस है
(क) वात्सल्य
(ख) वीर
(ग) अद्भुते।
(घ) शान्त।
उत्तर:
(ग) अद्भुते।

प्रश्न  9.
“तीक्षण शर विधृत क्षिप्रकर बेग प्रखरशत शत शैल संवरण शील, नील नभ गर्जित स्वर।” इस अवतरण में रंस है
(क) श्रृंगार
(ख) वीर।
(ग) रौद्र
(घ) शान्त।
उत्तर:
(ग) रौद्र

प्रश्न  10.
‘यह वर माँगहूँ कृपा निकेता। बसहुँ हृदय श्री अनुज समेता। इस पद में प्रयुक्त रस है
(क) श्रृंगार
(ख) अद्भुत
(ग) भक्ति
(घ) श्रृंगार।
उत्तर:
(ग) भक्ति

प्रश्न  11.
लक्ष अलक्षित चरण तुम्हारे चिह्न निरन्तर छोड़ रहे हैं जग के विक्षत वक्षस्थल पर।
शत-शत फेनोच्छ्वसित, स्फीत फूत्कार भयंकर, घुमा रहे हैं घनघोर धरती का अम्बर। इस अवतरण में रस है
(क) भयानक।
(ख) करुण
(ग) वीभत्स
(घ) शांत।
उत्तर:
(क) भयानक।

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
रस की निष्पत्ति किनके संयोग से होती है?
अथवा
रस के कितने अंग माने गए हैं?
उत्तर:
विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।

प्रश्न 2.
काव्य की आत्मा किसे माना गया है?
उत्तर:
काव्य की आत्मा रस को माना गया है।

प्रश्न 3.
आलंबन की चेष्टाएँ क्या कहलाती हैं?
उत्तर:
आलंबन की चेष्टाएँ उद्दीपन कहलाती हैं।

प्रश्न 4.
आश्रय की चेष्टाओं को क्या कहा जाता है?
उत्तर:
आश्रय की चेष्टाओं को अनुभाव कहा जाता है।

प्रश्न 5.
श्रृंगार रस का स्थायी भाव लिखिए।
उत्तर:
रति।

प्रश्न 6.
वीर रस का स्थायी भाव बताइए।
उत्तर:
उत्साह।

प्रश्न 7.
हास्य रस की व्यंजना कब होती है, इसका स्थायी भाव भी लिखिए।
उत्तर:
किसी की वेशभूषा, वाणी, अंग विकार या चेष्टाओं को देखकर प्रफुल्लित होने पर हास्य रस की व्यंजना होती है। इसका स्थायी भाव’ हास’ है।

प्रश्न 8.
करुण रस की व्यंजना कब होती है? इसका स्थायी भाव भी लिखिए।
उत्तर:
प्रिय वस्तु के नष्ट होने से उत्पन्न चित्त की व्याकुलता में करुण रस की व्यंजना होती है, इसका स्थायी भाव ‘शोक’ है।

प्रश्न 9.
संचारीभावों की संख्या कितनी निश्चित की गई है?
उत्तर:
33.

प्रश्न 10.
स्थायीभावों को उद्दीप्त अथवा तीव्र करने वाला कारण क्या कहलाता है?
उत्तर:
उद्दीपन विभाव।

प्रश्न 11.
‘रस’ प्रक्रिया में आश्रय क्या है? लिखिए।
उत्तर:
जिसमें रस उत्पन्न होता है, उसे आश्रय कहते हैं। जैसे, शकुंतला को देखकर दुष्यंत में रति उत्पन्न होती है तो दुष्यन्त श्रृंगार रस का आश्रय हुआ।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘रस’ किसे कहते हैं ? रस का अनुभव किस प्रकार हुआ करता है?
उत्तर:
‘रस्यते आस्वाद्यते इति रसः’ अर्थात् जिसका आस्वादन किया जाए, सराह-सराहकर चखा जाए, उसे ही रस कहते हैं। काव्य, कविता, नाटक आदि के पठन, श्रवण अथवा दर्शन से जो आनन्द प्राप्त होता है, उसे रस कहा गया है। काव्य-शास्त्र के आचार्य ‘रस’ को काव्य की आत्मा मानते हैं। रस-विहीन काव्य, आत्मा-विहीन शरीर के तुल्य होता है। . रस के अनुभव की प्रक्रिया भरतमुनि के अनुसार इस प्रकार है-‘विभावानुभावव्यभिचारि संयोगाद्रसनिष्पतिः’ अर्थात् विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी (संचारी) भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।

प्रश्न 2.
स्थायी भाव तथा संचारी भाव का अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
(1) स्थायी भाव रसानुभूति में पूरे समय तक उपस्थित रहता है, किन्तु संचारी भाव जल में उठने वाली तरंगों के समान बीच-बीच में उठते और विलीन होते रहते हैं।
(2) प्रत्येक रस का एक स्थायी भाव निश्चित है, किन्तु संचारी भाव एक ही रस में अनेक उत्पन्न हो सकते हैं तथा एक ही संचारी भाव एक से अधिक रसों में उपस्थित हो सकता है।

प्रश्न 3.
श्रृंगार रस की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
जहाँ काव्य में ‘रति’ नामक स्थायीभाव, विभाव, अनुभाव और संचारीभावों से पुष्ट होकर रस में परिणत होता है, वहाँ श्रृंगार रस होता है। श्रृंगार रस के दो पक्ष होते हैं-संयोग श्रृंगार और वियोग श्रृंगार। जहाँ नायक और नायिका के मिलन का वर्णन हो, वहाँ संयोग श्रृंगार और जहाँ दोनों के वियोग का वर्णन हो, वहाँ वियोग श्रृंगार कहा जाता है।

प्रश्न 4.
हास्य रस की परिभाषा तथा उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
जब विभाव, अनुभाव एवं संचारीभावों से पुष्ट होकर ‘हास’ नामक स्थायी भाव रस दशा को प्राप्त होता है, तो वहाँ हास्य रस की निष्पत्ति होती है; यथा|घोट मोट सिर, भूगोल-सा पेट, चाल में भूचाल, मुख किचन का हो गेट हाल में फूट गयी हँसी का गुब्बारा, कहने लगे दर्शक “दोबारा, दोबारा।”

यहाँ विचित्र आकृति वाला पात्र आलम्बन है। दर्शक आश्रय हैं। पात्र का शरीर चाल और चेष्टाएँ उद्दीपन हैं। दर्शकों का हँसना और उनके कथन अनुभाव हैं। हर्ष, औत्सुक्य आदि संचारी भाव हैं। इस प्रकार यहाँ हास्य रस की व्यंजना हुई है।

प्रश्न 5.
करुण रस की परिभाषा और उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
जहाँ ‘शोक’ नामक स्थायी भाव, विभाव आदि से संयुक्त होकर रस-दशा को प्राप्त होता है, वहाँ करुण रस कहा जाता है;
यथा –
सोक विकल सब रोवहिं रानी। रूप, सील, बल, तेज बखानी।
करहिं विलाप अनेक प्रकारा। परहिं भूमि तल बारहिं बारा।

यहाँ महाराज दशरथ के मरण पर रानियों के शोक का वर्णन है; अतः स्थायी भाव शोक है। आलम्बन मृत दशरथ हैं। आश्रय रानियाँ हैं। रोना, राजा के बल, प्रताप आदि का वर्णन करना, बार-बार भूमि पर गिरना अनुभाव है। स्मृति, चिन्ता, प्रलाप, विषाद आदि संचारी भाव हैं; अत: इन काव्य-पंक्तियों में करुण रस की व्यंजना हुई है।

प्रश्न 6.
रौद्र रस की परिभाषा उदाहरण सहित लिखिए।
उत्तर:
ज़ब ‘क्रोध’ नामक स्थाई भाव, विभावादि से पुष्ट होता हुआ रस-दशा को प्राप्त होता है, तो वहाँ ‘रौद्र रस’ माना जाता है;
यथा –
भाखे लखन, कुटिल भई भौहिं। रद पट फरकत नयन रिसौहिं।

यहाँ लक्ष्मण के क्रुद्ध होने का वर्णन है। स्थायी भाव क्रोध है। आलम्बन जनक के वाक्य हैं। आश्रय लक्ष्मण हैं। सभा में उपस्थित राजा, धनुष का दर्शन आदि उद्दीपन हैं। भौंहों का कुटिल होना, होठों का फड़कना, नेत्रों को क्रोधपूर्ण होना कायिक अनुभाव हैं। आवेश, चपलता, उग्रता आदि संचारी भाव हैं; अत: यहाँ ‘रौद्र रस’ की व्यंजना हुई है।

प्रश्न 7.
वीर रस का लक्षण तथा उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
जहाँ ‘उत्साह’ नामक स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों से पुष्ट होकर रस-दशा को प्राप्त होता है, वहाँ वीर रस की व्यंजना होती है;
यथा –
फहरीं ध्वजा, फड़कीं भुजा, बलिदान की ज्वाला उठी।

निज मातृभू के मान में, चढ़ मुण्ड की माला उठी। यहाँ मातृभूमि की रक्षा के लिए तत्पर वीरों का वर्णन है। स्थायी भाव उत्साह है। मातृभूमि की मानरक्षा विषय या आलम्बन है। वीर पुरुष या देशभक्त आश्रय हैं। ध्वजाएँ लहराना, भुजाओं का फड़कना, बलिदान होने की भावना आदि अनुभाव हैं तथा गर्व, हर्ष, धृति आदि संचारी भाव हैं। अत: यहाँ ‘वीर रस’ की व्यंजना हुई है।

प्रश्न 8.
‘भयानक’ रस का लक्षण तथा उदाहरण लिखिए।
उत्तर:
जहाँ ‘ भय’ नामक स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भावों से पुष्ट होकर रस में परिणत होता है, वहाँ भयानक रस की व्यंजना होती है;
यथा –
देखे जब बारात में भूत-प्रेत शिव व्याल।
थर-थर काँपे नारि-नर, भाग चले सब बाल।

यहाँ शिव की बारात को देखकर नर-नारियों के भयभीत होने का वर्णन है। स्थायी भाव भय’ है। भूत, प्रेत और शिव के शरीर पर स्थित सर्प आलम्बन है। नर-नारी और बालके आश्रय हैं। नर-नारियों का थर-थर काँपना और बालकों का डरकर भागना अनुभाव है। त्रास, शंका, चिन्ता आदि संचारी भाव हैं। अत: यहाँ ‘ भयानक रस’ की व्यंजना हुई है।

प्रश्न 9.
वीभत्स रस का लक्षण तथा उदाहरण लिखिए।
उत्तर:
‘जुगुप्सा’ नामक स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों से पुष्ट होकर रस में परिणत हो जाता है तो वीभत्स रस का व्यंजना होती है;
यथा –
घर में लाशें, बाहर लाशें, सड़ती लाशें, नुचती लाशें।

दुर्गन्ध घोटती है साँसें, इन्सान हुआ लाशें, लाशें। यहाँ बांग्लादेश में पाकिस्तानी अत्याचार का दृश्य प्रस्तुत किया गया है। स्थायी भाव जुगुप्सा या घृणा है। लाशें घृणा का विषय या आलम्बन हैं। दर्शक लोग आश्रय हैं। लाशों का सड़ना तथा कुत्तों आदि के द्वारा उन्हें नोंचा जाना उद्दीपन हैं तथा साँसें घुटना, मुँह फेरना आदि अनुभाव हैं। जड़ता, शंका, त्रास, ग्लानि आदि संचारी भाव हैं; अत: यहाँ ‘वीभत्स रस’ की व्यंजना हुई है।

प्रश्न 10.
‘अद्भुत’ रस का लक्षण और उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
‘विस्मय’ नामक स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव तथा संचारी भाव से पुष्ट होकर रस दशा को प्राप्त करता है, तो अद्भुत रस की व्यंजना होती है;
यथा –
‘माँटी उगल’ कहा जब माँ ने, हरि ने बदन पसारा।
चकित थकित हो गई यशोदा, जब मुख बीच निहारा।

यहाँ आलम्बन कृष्ण के मुख में दिखाई देने वाला विचित्र दृश्य है। आश्रय यशोदा हैं। कृष्ण का मुँह खोलना आदि उद्दीपन हैं। यशोदा का चकित-थकित होना अनुभाव हैं तथा वितर्क, जड़ता आदि संचारी भाव हैं। इस प्रकार यहाँ ‘अद्भुत रस’ की योजना हुई है।

प्रश्न 11.
शान्त रस की परिभाषा उदाहरण सहित लिखिए।
उत्तर:
जहाँ ‘निर्वेद’ नामक स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव आदि से पुष्ट होता हुआ रस-दशा को प्राप्त होता है, वहाँ ‘शान्त रस’ माना जाता है;
यथा –
अब लौं नसानी अब न नसैहों।
राम कृपा भवनिसा सिरानी जागे फिर न डसैहौं।
×            ×           ×
परबस जानि हँस्यों इन इंद्रिन निंज बस है न हँ सैहों।
मन मधुकर पन करि तुलसी रघुपति पद कमल बसैहों।

यहाँ तुलसी अपने हृदय की स्थिरता और संसार की व्यर्थता आदि का वर्णन कर रहे हैं। स्थायी भाव निर्वेद है। आलम्बन आयु का, व्यर्थ जाना है। इन्द्रियों द्वारा उपहास उद्दीपन है। ज्ञान-प्राप्ति, संसार की असारता एवं मन को राम के चरणों में लगाने आदि के कथन अनुभाव हैं। धृति, वितर्क, मति आदि संचारी भाव हैं। इस प्रकार यहाँ ‘शान्त रस’ का निरूपण है।

प्रश्न 12.
वात्सल्य रस की परिभाषा लिखिए।
उत्तर:
जहाँ वात्सल्य नामक स्थायीभाव, विभाव, अनुभाव और संचारों भाव से पुष्ट होकर रसत्व को प्राप्त होता है, वहाँ ‘वत्सल रस’ होता है। इसके संयोग और वियोग दो भेद माने गए हैं।

प्रश्न 13.
संचारी भावे के कितने प्रकार होते हैं? नाम लिखिए।
उत्तर:
संचारी भावों की संख्या तैंतीस मानी गई है, जो इस प्रकार हैं:
1. निर्वेद 2. ग्लानि 3. विषाद 4. गर्व 5. मोह 6. मरण 7. मद 8. श्रम 9. शंका 10. अपस्मार (मानसिक व्याधि) 11. अवहित्था (लोकहित में भय, लज्जा आदि भाव छिपाना) 12. स्वप्न 13. स्मृति 14. हर्ष 15. धृति (धैर्य) 16. अमर्ष (अप्रिय व्यवहार से उत्पन्न असहनीयता) 17. जड़ता 18. चपलता 19. चिन्ता 20. ब्रीड़ा (लज्जा) 21. व्याधि 22. विबोध (चेतना) 23. वितर्क 24. निद्रा 25. असूया (दूसरे की उन्नति से उत्पन्न ईष्र्या) 26. मति 27. दैन्य 28. त्रास 29. आवेग 30. उग्रता 31. आलस्य 32. औत्सुक्य 33. उन्माद।

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
रस के स्वरूप को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
रस मन की रजोगुणी और तमोगुणी वृत्तियों के विलीन होने पर सत्वगुण के उदय से उत्पन्न होता है। यह अखण्ड, स्वयं प्रकाश रूप और चैतन्य स्वरूप (चिन्मय) होता है। रसानुभूति के समय मन में रस के अतिरिक्त अन्य दूसरे विषयों का बोध नहीं रहता। यह ब्रह्मप्राप्ति के आनन्द के समान है। यह अलौकिक चमत्कार से पूर्ण होता है, जिसकी अनुभूति कुछेक सहृदयं ही कर सकते हैं। रसास्वाद के समय इसका भोक्ता इसे आत्मानंद के रूप में अनुभव करता है।

संक्षेपतः रस को स्वरूप इस प्रकार है : रस का स्वरूप-

  1. रस आस्वाद रूप है, क्योंकि वह पाठक की आत्मा में पहले से विद्यमान रहता है, बाहर से नहीं आती। इसलिए वह आस्वाद्य न होकर स्वयं आस्वाद है।
  2. वह अखण्ड है अर्थात् रसानुभूति को अवयवों या खण्डों में विभाजित करना असंभव है।
  3. वह अन्य ज्ञान से रहित होता है। घनी रसानुभूति के क्षणों में चित्तवृत्ति इतनी एकाग्र हो जाती है कि सहृदय की चेतना में अन्य विषयों का प्रवेश ही नहीं होता।
  4. वह स्व-प्रकाशानंद है : वह आत्मा में ही आत्मा का प्रकाश है।
  5. वह चिन्मय है : अर्थात् चैतन्यावस्था है, ज्ञानशून्य स्थिति नहीं।
  6. वह अलौकिक चमत्कार है : लौकिक सुख-दुखों से परे शुद्ध आनन्द की चेतना है।
  7. वह ब्रह्मानन्द के समान है।

प्रश्न 2.
रस के अवयव कितने हैं, सविस्तार लिखिए।
उत्तर:
रस के निम्नलिखित चार अवयव हैं
1. स्थायीभाव-सहृदय के अन्त:करण में जो भाव वासना या संस्कार के रूप में सदैव विद्यमान रहते हैं, उन्हें ‘स्थायी भाव’ कहते हैं। इन्हें रस की जड़ या मूल कहा जाता है। स्थायी भाव का अंकुर ही काव्य पढ़ने या नाटकं देखने से रस के रूप में परिणत होता है। जिस प्रकार कच्चा चावल पकने की प्रक्रिया से गुजर कर भोजन के रूप में आस्वाद्य होता है, वैसे ही स्थायी भाव नाटकादि देखने से परिपक्व होकर रस की स्थिति में पहुँचता है। इन्हें स्थायी भाव इसलिए कहते हैं कि ये हृदय में स्थायी रूप से रहते हैं। कोई विरोधी या अविरोधी भाव उन्हें तिरोहित नहीं कर सकता।
2. विभाव-लोक में रति आदि स्थायी भावों को जगाने के कारणों को काव्य-नाटक आदि में ‘विभाव’ कहते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं-
(क) आलम्बन विभाव और
(ख) उद्दीपन विभाव।

(क) आलम्बन विभाव – जिस व्यक्ति या वस्तु के कारण रस उत्पन्न होता है, उसे आलंबन विभाव कहते हैं, जैसे- पुष्पवाटिका प्रसंग में सीता को देखकर उसके प्रति राम के मन में रति-भाव जाग्रत होता है तो राम की रति का आलंबन सीता हुई।

(ख) उद्दीपन विभाव – रति आदि स्थायी भावों को उद्दीप्त (जगाने) करने के कारणों को उद्दीपन विभाव कहते हैं।
उद्दीपन विभावे के अन्तर्गत बाहरी परिस्थितियाँ तथा आलंबन की चेष्टाएँ आती हैं। जैसे शृंगार रस के उद्दीपन विभाव में चाँदनी रात, एकान्त, मधुर संगीत, नायक-नायिका की वेशभूषा, शारीरिक चेष्टाएँ आदि आते हैं।

3. अनुभाव-स्थायी भावों की प्रकाशक आश्रय की शारीरिक चेष्टाओं को ‘अनुभाव’ कहते हैं। ये भावों के बाद उत्पन्न होते हैं। इसलिए इन्हें अनुभाव (अनु+भाव) कहते हैं। आचार्य विश्वनाथ ने लिखा है, “आलंबन उद्दीपनादि अपने-अपने कारणों से उत्पन्न भावों को बाहर प्रकाशित करने वाली लोक में जो कार्यरूप चेष्टाएँ होती हैं, वे ही काव्यनाटकादि में अनुभाव कहलाती हैं।” जैसे- क्रोध में होठ फड़कना, भौहें तनना, संयोग शृंगार में अश्रु, स्वेद, रोमांच आदि अनुभाव कहलाएँगे।

अनुभावों के चार भेद हैं:

  • आंगिक-आश्रय की शारीरिक चेष्टाएँ,
  • वाचिक-प्रयत्नपूर्वक वाणी का व्यापार,
  • आहार्य-आरोपित या कृत्रिम वेष-भूषा तथा
  • सात्विक-बिना बाहरी प्रयत्न के उत्पन्न होने वाली शारीरिक चेष्टाएँ। जैसे-स्तंभ, स्वेद, रोमांच, स्वरभंग, अश्रु, प्रलाप आदि।

4. संचारीभाव या व्यभिचारी भाव-रस-निष्पत्ति के समय स्थायी-भाव तो सदैव जाग्रत रहते हैं, पर बीच-बीच में स्थायी भावों को पुष्ट करने के लिए अनेक भाव उठते और तिरोहित होते रहते हैं, उन्हे ‘संचारी भाव’ कहते हैं। संचारी भाव इन्हें इसलिए कहते हैं कि ये पानी के बुलबुलों के समान उठते और विलीन होते रहते हैं। स्थायी न होने और संचारणशील रहने के कारण ही इन्हें संचारी भाव कहते हैं।

प्रश्न 3.
रस-प्रक्रिया अर्थात् भोक्ता को रस की अनुभूति किस प्रकार होती है ? विभिन्न विद्वानों के मत स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
काव्य पढ़ने या नाटक देखने से पाठक को रसानुभूति होती है। इस निष्पत्ति के संबंध में भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में यह सूत्र दिया है :
‘विभावानुभाव-संचारिभाव-संयोगात् रसनिष्पत्तिः। अर्थात् विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से रस निष्पत्ति होती है। इस सूत्र के चार प्रमुख व्याख्याकार हैं, जिनके मतों का सारांश आगे दिया जा रहा है
1. भट्ट लोल्लट (उत्पत्तिवाद)- भरत के सूत्र के प्रथम व्याख्याकार भट्ट लोल्लट हैं। वे रस की मूल स्थिति ऐतिहासिक पात्रों (राम, दुष्यंत आदि) में मानते हैं। अभिनेता उन पात्रों का अभिनय इस कौशल से करता है कि दर्शक मूल पात्र की स्थिति का आरोप अभिनेता में कर लेता है। अभिनेता को इस दशा में देखकर दर्शक मानवीय सहानुभूति या भावना से प्रेरित होकर स्वयं भी रसानुभूति करने लगता है।

2. शंकुक (अनुमितिवाद)-शंकुक भी मूल रस की स्थिति ऐतिहासिक व्यक्तियों में ही मानते हैं। उहोंने “चित्रतुरंग न्याय” से अपने मत को स्पष्ट करते हुए कहा है कि जैसे चित्र-लिखित घोड़े को देखकर दर्शक अनुमान से उसे ही घोड़ा समझ लेता है, वैसे ही दर्शक अभिनेता में मूल पात्रों का अनुमान कर लेता है। अभिनेता अपने नाटकीय कौशल से अपने आपको ऐतिहासिक पात्रों के रूप में प्रदर्शित करने में सफल होता है। अतः दर्शक उसी के भावों के साथ तादात्म्य स्थापित कर रसानुभूति में लीन हो जाता है। ये दोनों मत इसलिए मान्य नहीं हैं कि ये रस की सत्ता दर्शक या सामाजिक में न मानकर ऐतिहासिक पात्रों या अभिनेता में स्वीकार करते हैं।

3. भट्ट नायक (भुक्तिवाद)-भट्ट नायक रस की न तो उत्पत्ति मानते हैं और न अनुमिति (अनुमान) बल्कि उसकी भुक्ति (भोग) मानते हैं। उन्होंने पहली बार सहृदय या सामाजिक में रस की सत्ता मानी। उन्होंने कहा कि पहले दर्शक भावकत्व व्यापार से अभिनेताओं को विशेष व्यक्ति न मानकर साधारण नर-नारी के रूप में देखता है। इससे उसकी भावनाओं का साधारणीकरण हो जाता है। इसके बाद वह भोजकत्व व्यापार से रस का आस्वादन करता है।

4. अभिनवगुप्त (अभिव्यक्तिवाद)-अभिनवगुप्त ने भट्ट नायक के भावकत्व और भोजकत्व नामक दो व्यापारों की कल्पना को निरर्थक बताकर उनके स्थान पर व्यंजना-व्यापार की कल्पना की। अभिनवगुप्त ने स्थायीभाव की स्थिति दर्शक में मानी। उसने कहा कि सहृदय या दर्शक में स्थायी भाव सदैव रहता है। काव्य नाटकों को पढ़ सुनकर उसके हृदय में स्थित स्थायीभाव उद्बुद्ध (जाग्रत) होकर रस के रूप में परिणत हो जाता है। जैसे- मिट्टी के कोरे घड़े में पानी डालते ही उसके भीतर की गंध बाहर अभिव्यक्त हो जाती है, वैसे ही दर्शक के अन्त:करण में स्थित सुप्त स्थायीभाव काव्य के माध्यम से जागकर रस में परिणत हो जाता है, जिससे दर्शक आनंदित हो जाता है। इसे ही रसनिष्पित्ति कहते हैं।

प्रश्न 4.
श्रृंगार रस के भेदों को उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
श्रृंगार रस के दो भेद हैं : संयोग और विप्रलम्भ अर्थात् संयोग श्रृंगार और वियोग श्रृंगार। संयोग-शृंगार-संयोग-श्रृंगार वहाँ होता है जहाँ नायक-नायिका की मिलन अवस्था का वर्णन किया गया हो। इसमें नायक-नायिका के परस्पर हास-विलास, स्पर्श आदि का वर्णन रहता है। इसका स्थायीभाव रति है। श्रृंगार रस में नायक और नायिका एक दूसरे के आलम्बन होते हैं।

उदाहरण :

कहुँ बाग तडाग तरंगिनी तीर तमाल की छाँह विलोकि भली।
घटिका यक बैठत है सुख पाय बिछाय तहाँ कुस कास थली।
मग को श्रम दूर करें सिय को शुभ वल्कल अंचल सौं।
श्रमतेउ हरें तिने को कहि केशव चंचल चाक दृगंचल सौं।

इस पद में राम और सीता के परस्पर अनुराग का चित्रण किया गया है। राम और सीता एक दूसरे की रति के आलम्बन हैं। बाग, तड़ाग, नदी, किनारा आदि बाह्य उद्दीपन विभाव हैं व राम का वल्कल से हवा करना उद्दीपन-विभाव है। विभाव, अनुभाव और संचारी भावे के संयोग से उदबुद्ध रति स्थायीभाव परिपक्व होकर संयोग श्रृंगार के रूप में आस्वादित होता हुआ आनन्द देता है।
वियोग-शृंगार-वियोग-शृंगार वहाँ होता है जहाँ नायक और नायिका में परस्पर उत्कट प्रेम होने पर भी उनका मिलन नहीं हो पाता। संयोग और वियोग एक दूसरे के विपरीत होते हैं। फलत: इनके अनुभावों और संचारीभावों में भी अन्तर पाया जाता है।

उदाहरण :

हा! गुण-खानि जानकी सीता। रूप सील व्रत नेम पुनीता।
लछिमन समुझाये बहु भांति। पूछत चले लता तरु पाँती।
हे खग मृग हे मधुकर सैनी। तुम देखी सीता मृगनैनी।
किमि सहि जात अनख तोहिं पाही। प्रिया वेगि प्रगटसि कस नाहीं।

सीता-हरण के पश्चात् राम स्वर्ण-मृग को मारकर लौटते हैं और कुटी को.सीताविहीन पाते हैं। राम सीता के गुणों का वर्णन करते। हुए पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों से सीता के संबंध में पूछताछ करते हैं तो कभी सीता से शीघ्र प्रकट हो जाने के लिए प्रार्थना करते हैं।

इस पद में राम आश्रय हैं, सीता आलम्बन है तथा शून्य स्थान उद्दीपन विभाव है। सीता की खोज में निकलना, पशु-पक्षियों से पूछना आदि अनुभाव हैं। उन्माद संचारीभाव है।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित पंक्तियों में उपस्थित रस का नाम, स्थायी भाव तथा लक्षण लिखिए
(1) कै बिरहनि हूँ मच दै, के आपा दिखलाई। आठ पहर का दाझणा, मो पै सह्यो न जाइ।
(2) हिय हिंडोल असे डोले मोरा। विरह झुलाइ देहि झकझोरा।
(3) कैसी मूढ़ता या मन की। परिहरि राम-भगति सुर सरिता, आस करत ओसकन की।
×            ×           ×
तुलसिदास प्रभु हरहु दुसह दुख, करहु लाज निज़ पन की।
(4) बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाइ। सौंह करै, भौंहनु हँसै, दैन, कहै नटि जाई।
(5) शत-शत फेनोच्छ्वसित, स्फीत फूत्कार भयंकर। घुमा रहे हैं घनाकार जगती का अम्बर।
(6) सामने टिकते नहीं गजराज पर्वत डोलते हैं। काँपता है कुंडली मारे समय का व्याल, मेरी बाँह में मारुत, गरुड़, गजराज का बल है।
(7) कौन हो तुम बसंत के दूत, विरस पतझर में अति सुकुमार,
घन तिमिर में चपलता की रेख, तपन में शीतल मंद बयार।
(8) आए होंगे यदि भरत कुमति वश वन में, तो मैंने यह संकल्प किया है मन में,
उनको इस शर का लक्ष्य चुनँगा क्षण में, प्रतिरोध आपका भी न सुनँगा रण में।
(9) अब लौं नसानी अब न नसैहौं।
राम कृपा भव निसा सिरानी, जागे फिर न डसैहों।
×            ×           ×
मन मधुकर पन करि तुलसी रघुपति पद कमल बसैहों।
उत्तर:
(1) इस छन्द में वियोगिनी आत्मा को परमात्मा के प्रति विरह के कष्ट का वर्णन है। यह रति स्थायीभाव है। आलम्बन परमात्मा तथा आश्रय आत्मा या कवि है। रात-दिन दग्ध होना उद्दीपन है। मृत्यु की अथवा दर्शन देने की प्रार्थना अनुभाव है, दैन्य आदि संचारी भाव हैं: अतः यहाँ वियोग-श्रृंगार की योजना है।

(2) इन पंक्तियों में विरहिणी नागमती का विरहोद्गार प्रस्तुत हुआ है। स्थायीभाव रति है। आलम्बन रत्नसेन है। आश्रय नागमती है। वर्षा-ऋतु, सखियों का हिंडोलों में झूलना आदि उद्दीपन हैं। हृदय की अवस्था का वर्णन आदि अनुभाव हैं तथा दैन्य, स्मृति, खिन्नता आदि संचारीभाव हैं; अतः वियोग-शृंगार रस की व्यंजना हुई है।

(3) प्रस्तुत पंक्तियों में तुलसीदासजी ने मन की मूर्खता और विषय-लोलुपता का वर्णन किया है। यहाँ स्थायीभाव निर्वेद है। आलम्बन मन है तथा आश्रय स्वयं कवि है। मन का विषयों की ओर ललकना उद्दीपन है तथा कवि का आराध्य से दु:सहे दु:खों को हरने और अपने प्रण का पालन करने के लिए अनुरोध करना अनुभाव है। धृति, मति, वितर्क आदि संचारीभाव हैं। अत: यहाँ शान्त रस की अवतारणा हुई है।

(4) यहाँ राधा द्वारा कृष्ण की वंशी चुरा लिए जाने के प्रसंग का वर्णन है। स्थायीभाव रति है। आलम्बन श्रीकृष्ण हैं। आश्रय राधा हैं। श्रीकृष्ण का वार्तालाप उद्दीपन विभाव है। सौगन्ध खाना, भौंहों में हँसना आदि अनुभाव हैं। हर्ष, चपलता आदि संचारीभाव हैं; अतः यहाँ संयोग-श्रृंगार की व्यंजना हुई है।

(5) प्रस्तुत पंक्तियों में परिवर्तन के भयंकर स्वरूप का वर्णन है। स्थायीभाव ‘भय’ है। आलम्बन परिवर्तन का भयंकर स्वरूप है। और आश्रय मानव-मात्र है। परिवर्तन के कारण घटित दारुण घटनाएँ उद्दीपन हैं। जीवों का भयभीत होना आदि अनुभाव हैं तथा चिन्ता, त्रास आदि संचारीभाव हैं। अत: यहाँ भयानक रस की सृष्टि हुई है।

(6) प्रस्तुत पंक्तियाँ पुरूरवा का कथन है। यहाँ स्थायीभाव ‘उत्साह’ है। आलम्बन बेल-पराक्रम के विज्ञापन की भावना है। आश्रय पुरूरवा हैं। उर्वशी की प्रतिक्रिया उद्दीपन है। पुरूरवा के हाव-भाव और पराक्रम-कथन अनुभाव हैं। हर्ष,चपलता आदि संचारी भाव हैं; अत: यहाँ वीर रस की व्यंजना हो रही है।

(7) प्रस्तुत पंक्तियों में मनु के श्रद्धा के प्रति आकर्षण का वर्णन है। स्थायीभाव रति है। आश्रय मनु हैं तथा आलम्बने श्रद्धा है। श्रद्धा की सुकुमारता आदि उद्दीपन है। मनु का प्रश्न करना आदि अनुभाव हैं। हर्ष, चपलता आदि संचारीभाव हैं। अत: यहाँ संयोग शृंगार रस की व्यंजना हो रही है।

(8) प्रस्तुत पंक्तियों में लक्ष्मण द्वारा भरत के प्रति उत्पन्न मनोभावों का वर्णन है। यहाँ आश्रय लक्ष्मण, आलम्बन भरत तथा भरत के प्रति संदेह उद्दीपन है। लक्ष्मण की चेष्टाएँ तथा कथन अनुभाव हैं तथा हर्ष, चपलता आदि संचारीभाव हैं। अतः यहाँ वीर रस की सृष्टि हुई है।

(9) प्रस्तुत पंक्तियों में तुलसीदास द्वारा अपने मन को राम की भक्ति में लीन करने के संकल्प का वर्णन हुआ है। यहाँ आश्रय स्वयं कवि है। आलम्बन राम हैं तथा सांसारिक विषयों का प्रभाव उद्दीपन है। कवि द्वारा व्यक्त विविध संकल्प अनुभाव हैं तथा धृति, मति, वितर्क आदि संचारीभाव हैं। अत: यहाँ शान्त रस की सृष्टि हुई है।

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