RBSE Class 11 Hindi साहित्य का संक्षिप्त इतिहास रीतिकाल

Rajasthan Board RBSE Class 11 Hindi साहित्य का संक्षिप्त इतिहास रीतिकाल

अभ्यास प्रश्न

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

11th Class Hindi Book RBSE 2021 प्रश्न 1.
निम्न में से कौनसा कवि रीतिमुक्त धारा से सम्बन्धित नहीं है?
(क) घनानन्द
(ख) ठाकुर
(ग) गिरधर कविराये
(घ) देव।
उत्तर:
(घ) देव।

11th Class Hindi Book RBSE प्रश्न 2.
बिहारी किस राज्य के प्रधान कवि हैं?
(क) हास्यरस
(ख) वीर रस
(ग) श्रृंगार रस
(घ) करुण रस।
उत्तर:
(ग) श्रृंगार रस

RBSE Solutions For Class 11 Hindi प्रश्न 3.
अमरसिंह राठौड़ की वीरता का वर्णन करने वाला कवि है?
(क) भूषण।
(ख) गुरुगोविन्द सिंह
(ग) बनवारी
(घ) चिन्तामणि।।
उत्तर:
(ग) बनवारी

कक्षा 11 हिंदी साहित्य के प्रश्न उत्तर प्रश्न 4.
‘शिवाबावनी’ के रचनाकार हैं?
(क) वृन्द
(ख) ठाकुर
(ग) भूषण
(घ) गंग।
उत्तर:
(ग) भूषण

Hindi Anivarya Class 11 प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से किसे ‘रीतिसिद्ध कवि कहा जाता है?
(क) बिहारी
(ख) घनानन्द
(ग) मतिराम
(घ) देव।
उत्तर:
(क) बिहारी

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न।

हिंदी साहित्य 11 वीं क्लास प्रश्न 1.
आचार्य शुक्ल ने रीतिकाल की समय-सीमा क्या मानी है?
उत्तर:
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने ग्रंथ हिंदी साहित्य का इतिहास में संवत् 1700 से संवत् 1900 (सन् 1643 से 1843) तक रीतिकाल की समय-सीमा मानी है।

11th Hindi Book RBSE प्रश्न 2.
भूषण के दो भाई भी प्रसिद्ध कवि थे। उनके नाम बताइए।
उत्तर:
मतिराम, चिन्तामणि और जयशंकर।

क्लास 11 हिंदी साहित्य प्रश्न 3.
रीतिकालीन कवियों के तीन वर्ग कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
तीन वर्ग-रीतिबद्ध, रीतिमुक्त, और रीति सिद्ध।

Class 11 Hindi Compulsory Book प्रश्न 4.
किस रचनाकार को योद्धा, संत और कवि कहा गया है?
उत्तर:
गुरु गोविन्द सिंह।

RBSE Class 11 Hindi Syllabus प्रश्न 5.
राजस्थान का ऐसा कौन-सा राजा था, जो कवि था और जिसने अलंकार ग्रंथ की रचना की।
उत्तर:
महाराजा जसवन्त सिंह। ये मारवाड़ के प्रसिद्ध प्रतापी राजा थे।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

Hindi Sahitya 11th Class RBSE प्रश्न 1.
कवि गंग को जब हाथी से चिरवाया जा रहा था तो हाथी को देखकर कवि ने क्या पद पढ़ा?
उत्तर:
गंग कवि ने झुकना स्वीकार नहीं किया और मरना स्वीकार किया। जब कवि को मैदान में हाथी से चिरवाया जाना था तब उससे पूछा कवि कैसा लग रहा है तो कवि ने उत्तर दिया सब देवन को दरबार जुर्यौ तहँ पिंगल छन्द बनाय कै गायो। जब काहुते अर्थ कह्यौ न गयो, तब नारद एक प्रसंग चलायो। मृतलोक में है नर एक गुनी, कवि गंग को नाम सभा में बतायो।

सुनि चाह भई परमेसर को तब गंग को लेन गनेस पठायो। कवि ने प्राण लेने को तत्पर हाथी को परमात्मा द्वारा भेजे गए गणेश से उपमित कर अपने स्वाभिमानी होने और मृत्यु से भी निडर होने का परिचय दिया।

RBSE Class 11th Hindi Book प्रश्न 2.
‘भाषा भूषण’ से उद्घृत अत्युक्ति अलंकार का उदाहरण वाला पद लिखिए।
उत्तर:
भाषा भूषण’ महाराजा जसवंत सिंह की रचना है‘भाषा भूषण’ में एक ही दोहे में लक्षण और उदाहरण रखे गए हैं। अत्युक्ति अलंकार का उदाहरण-अलंकार अत्युक्ति यह बरनत अतिसय रूप जाचक तेरे दान ते गए कल्पतरु भूप।

Class 11 Hindi Passbook प्रश्न 3.
रीतिकालीन धार्मिक परिस्थितियाँ बताइए।
उत्तर:
धार्मिक परिस्थितियाँ-इस युग में सभ्यता और संस्कृति का ह्रास हो रहा था। नैतिकता का अभाव हो रहा था। अन्धविश्वास, रूढ़ियाँ और बाह्याडम्बर ही धर्म कहलाते थे। राधा और कृष्ण की भक्ति की सात्विकता का स्थान स्थूल ऐंद्रियकता और श्रृंगारिकता ने ले लिया था। भक्तिकाल में राधा कृष्ण के प्रेम का आध्यात्मिक तत्व लुप्त प्रायः हो गया था।

प्रश्न 4.
देव का शब्द शक्ति के बारे में क्या कथन है?
उत्तर:
देव हमारे सामने आचार्य और कवि दोनों रूपों में आते हैं। इन्होंने रस, अलंकार, शब्दशक्ति और काव्यांगों का पर्याप्त वर्णन किया है। इनका-सा अर्थ सौष्ठव और नवोन्मेष विरले ही कवियों में मिलता है। शब्द शक्तियों के बारे में देव का कथन है अभिधा उत्तम काव्य है, मध्य लक्षणा लीन।

अधम व्यंजना रस निरस उलटो कहत नवीन॥ देव का भाषा पर विशेष अधिकार था।

प्रश्न 5.
आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र का कवि बिहारी के विषय में क्या कथन है?
उत्तर:
बिहारी रीतिकाल के सर्वाधिक प्रसिद्ध कवि माने जाते हैं। रीतिकाल के अन्तर्गत बिहारी ही एक मात्र ऐसे कवि हैं जिनको रीतिसिद्ध कवि माना जाता है क्योंकि उन्होंने किसी प्रकार के लक्षण ग्रन्थ नहीं लिखे परन्तु फिर भी इनके ‘सतसई’ नामक सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रन्थ में रीति परिपाटी की सभी विशेषताएँ उपलब्ध हैं।

आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र के अनुसार “बिहारी ने आचार्य कर्म से दूर रहकर जो सतसई रची उसमें रीतियाँ स्वत: सिद्ध होती चली गई हैं, इसलिए ये रीति सिद्ध कवि हैं।”

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
रीतिकालीन कलात्मक और साहित्यिक परिस्थितियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
कलात्मक एवं साहित्यिक परिस्थितियाँ मुगलकाल के दौरान शिल्पकला, चित्रकला और संगीत कला ने पर्याप्त प्रगति की थी। परन्तु जीवन के अन्य क्षेत्र के समान कलाक्षेत्र में भी प्रदर्शन की ही प्रमुखता रही। इन सभी कलाओं में उस युग की सभी प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं। परम्पराबद्ध शैली, अलंकार की अतिशयता, चमत्कारवृत्ति, रोमानी वातावरण की सृष्टि करना, कला और साहित्य सभी क्षेत्रों में दृष्टिगोचर हो रही थी। वास्तव में रीतिकाल के कवि, चित्रकार, कलाकार और संगीतज्ञ सभी आश्रयदाताओं की रुचि पर पल रहे थे और आश्रयदाता के अलंकार प्रिय और विलासी होने के कारण उनकी रुचि और प्रसन्नता के लिए ही कवि-कलाकार और संगीतज्ञ स्वतन्त्र दृष्टि से सृजन नहीं कर पा रहे थे। इसलिए इनमें भी चमत्कार प्रदर्शन, श्रृंगारपरकता और पाण्डित्य प्रदर्शन की प्रवृत्ति दिखाई देती है। तथापि इस काल को कला और साहित्य की दृष्टि से समृद्धकाल कह सकते हैं।

प्रश्न 2.
रीतिमुक्त काव्य की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
रीतिमुक्त काव्यधारा की विशेषताएँ

1. श्रृंगार का उदात्त चित्रण-इस काल में चित्रित प्रेम विलास एवं काम मूलक न होकर उदात्त रूप में चित्रित हुआ है। इसमें भाव गाम्भीर्य एवं वियोग पक्ष का प्राधान्य है। प्रेम का वर्णन भी दूती या सखियों के माध्यम से न होकर आत्मा की पुकार एवं प्रेम की आन्तरिक भावना के रूप में हुआ है। इसमें चमत्कार प्रदर्शन की प्रवृत्ति का अभाव है और तीव्र एकान्तिक प्रेम-भाव का निरूपण है। इसमें वासनोन्मुखता का अभाव है।

2. प्रेम की पीर-उन्मुक्त कवियों ने विरहानुभूति का मर्मस्पर्शी चित्रण किया है और वियोगान्तर्गत प्रेमी-हृदय की अन्तर्दशाओं का व्यंग्योक्तियों और उपालम्भों द्वारा मार्मिक वर्णन किया है। इनकी प्रेम की पीर सूफी-प्रेम की पीर से प्रभावित है।

3. प्रेम का एकान्तिक चित्रण-रीतिमुक्त काव्य में हमें प्रेम का एकतरफा चित्रण फारसी की शैली पर मिलता है। स्वच्छन्दतावादी कवियों ने प्रेम की पीर फारसी काव्यधारा की वेदना की प्रवृत्ति के साथ सूफी-कवियों से ग्रहण की है।

4. भावप्रधान संयोग वर्णन-रीतिमुक्त काव्य में संयोग पक्ष का भी मार्मिक वर्णन है। वहाँ भी वर्णन की मुद्राओं और हाव-भावों के हृदय पर पड़े प्रभाव का ही निरूपण अधिक हुआ है।

5. श्रीकृष्णलीला का प्रभाव-रीतिमुक्त काव्य में श्रीकृष्ण की लीलाओं का व्यापक प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। रीतिमुक्त कवियों ने श्रीकृष्ण की अलौकिक आलम्बन के सहारे अपने उन्मुक्त प्रेम की भावधारा को प्रवाहित किया है।

6. मुक्तक शैली-रीतिमुक्त काव्य की रचना कवित्त और सवैया छन्दों के माध्यम से मुक्तक शैली में हुई है।

7. अलंकरण का प्राधान्य-रीतिमुक्त काव्य में अलंकार की प्रवृत्ति पाण्डित्य प्रदर्शन के लिए न होकर सूक्ष्म अन्तर्वृत्तियों का परिचय देने एवं प्रेम की विषमता का निरूपण करने के लिए दिखाई पड़ती है। रीतिमुक्त काव्य में मुहावरे और लोकोक्तियों के विधान से स्वाभाविकता आ गई है तुम कौन सी पाटी पढ़े हौ लला, मन लेहु पै देहु छटांक नहीं।

8. ब्रजभाषा का प्रयोग-इन कवियों ने ब्रजभाषा में विशुद्धता एवं प्रौढ़ता के साथ माधुर्य का और कहीं-कहीं फारसी के शब्दों का भी प्रयोग किया है।

प्रश्न 3.
रीतिकाल की प्रमुख प्रवृत्ति, शृंगारिकता का वर्णन करते हुए तत्कालीन कवि का कोई श्रृंगार रस को पद लिखिए।
उत्तर:
रीतिकाव्य की विशेषताएँ
साहित्यकार और उसके साहित्य पर काल विशेष की परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है। रीतिकाल में भी हिन्दी साहित्य पर तत्कालीन परिस्थितियों का गहरा प्रभाव पड़ा है। परिस्थिति से प्रेरित और पुष्ट होकर जो प्रवृत्तियाँ सामने आईं, उनमें आचार्यत्व, श्रृंगारिकता, आलंकारिता आदि मुख्य हैं।

1. शृंगारिकता की भावना-रीतिकालीन काव्य में श्रृंगारिकता की भावना की प्रधानता है। श्रृंगारिकता की प्रवृत्ति रीतिकवियों की कविता का प्राण है। इस समय का भौतिक वातावरण भी श्रृंगारिक मनोवृत्ति के सर्वथा अनुकूल था। श्रृंगारपरक रचनाएँ भक्ति काल में भी होने लगी थीं। कृष्णभक्ति काव्य और रामभक्ति काव्य में भी रसिक भाव की प्रतिष्ठा हो चुकी थी परन्तु रीति काल में तो कवियों ने उन्मुक्त भाव से श्रृंगार सरिता में गोते लगाए हैं। श्रृंगार वर्णन रीतिकाव्य की प्रमुख प्रवृत्ति रही है नायक-नायिका भेद, नख-शिख वर्णन, अलंकार आदि के लक्षण प्रस्तुत करते समय भी श्रृंगार का ही प्रतिपादन किया है।

पद्माकर कवि का श्रृंगार रस का पद-
फागु की भीर, अभीरिन में गहि गोविन्द लै गई भीतर गोरी।
भाई करी मन की पद्माकर, ऊपर नाई अबीर की झोरी॥
छीनि पितंबर कम्मर ते सु विदा दई मीड़ि कपोलन रोरी।
नैन नचाय कही मुसुकाय, लला फिर आइयो खेलन होरी॥

प्रश्न 4.
बिहारी की अलंकार योजना पर सोदाहरण टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
बिहारी रीतिकाल के सर्वाधिक प्रसिद्ध कवि माने जाते हैं। रीतिकाल के अन्तर्गत बिहारी ही एक मात्र ऐसे कवि हैं जिनको रीतिसिद्ध कवि माना जाता है क्योंकि उन्होंने किसी प्रकार के लक्षण ग्रन्थ नहीं लिखे परन्तु फिर भी इनके ‘सतसई’ नामक सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रन्थ में रीति परिपाटी की सभी विशेषताएँ उपलब्ध हैं।

अलंकार वैभव-अलंकारों का पूरा अधिकारिक प्रयोग बिहारी ने किया है। प्रमुख और अप्रमुख अलंकारों के उदाहरण बिहारी की रचनाओं में मिलते है। अनुप्रास, यमक, श्लेष, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अन्वय, असंगति, व्यतिरेक, सन्देह, भ्रांतिमान, विरोधाभास, मानवीकरण, दृष्टांत, तथा सांगरूपक के एक से एक सुन्दर उदाहरण पाठक पढ़ सकते हैं। इनके काव्य में अलंकार योजना भी बड़ी अद्भुत है। एक ही दोहे में कई अलंकारों का प्रयोग हुआ है। ‘असंगति और विरोधाभास की ये प्रसिद्ध उक्तियाँ देखने योग्य हैं-

दृग उरझत, टूटत कुटुम, जुरत चतुर-चित प्रीति।
परति गाँठि दुरजन हिए, दई नई यह रीति॥
तंत्रीनाद कवित्त रस, सरस राग रति रंग।
अनबूडे बूडे तिरे, जे बूड़े सब अंग॥

अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
रीतिकालीन कवियों ने ब्रजभाषा में क्या योगदान किया
(क) ब्रजभाषा को व्यावहारिक बनाया
(ख) ब्रजभाषा को व्याकरण की दृष्टि से परिमार्जित किया
(ग) ब्रजभाषा के लालित्य और अर्थगाम्भीर्य की वृद्धि की
(घ) ब्रजभाषा को श्रृंगारिक रचनाओं के उपयुक्त बनाया
(च) ब्रजभाषा को संस्कृतनिष्ठता प्रदान की।
उत्तर:
(ग) ब्रजभाषा के लालित्य और अर्थगाम्भीर्य की वृद्धि की

प्रश्न 2.
रीतिमुक्त कवियों की प्रमुख विशेषता है
(क) स्वच्छंद काव्य रचना की प्रवृत्ति
(ख) काव्य कला का प्रदर्शन
(ग) मांसल श्रृंगार की अभिव्यक्ति।
(घ) प्रेम की उदात्तता की महिमा।
उत्तर:
(घ) प्रेम की उदात्तता की महिमा।

प्रश्न 3.
भूषण द्वारा रचित लक्षण ग्रन्थ कौन-सा है?
(क) शिवा बावनी
(ख) छत्रसाल दशक
(ग) भूषण उल्लास
(घ) शिवराज भूषण।
उत्तर:
(घ) शिवराज भूषण।

प्रश्न 4.
‘शिवराज भूषण’ ग्रन्थ का विषय है
(क) वीर रस का वर्णन।
(ख) श्रृंगार रस निरूपण
(ग) काव्य लक्षणों की प्रस्तुति
(घ) शिवाजी के युद्ध-कौशल का वर्णन
(च) शिवाजी की दान-वीरता की प्रस्तुति।
उत्तर:
(ग) काव्य लक्षणों की प्रस्तुति

प्रश्न 5.
ललित ललाम के रचयिता थे
(क) भूण
(ख) देव
(ग) बिहारी
(घ) मतिराम।
उत्तर:
(घ) मतिराम।

प्रश्न 6.
घनानंद की प्रसिद्ध रचना है
(क) वियोग-बेलि
(ख) कृपाकंद
(ग) सुजान-सागर
(घ) बिरह वारीश।
उत्तर:
(ग) सुजान-सागर

प्रश्न 7.
रीतिसिद्ध काव्यधारा के अग्रणी कवि हैं
(क) पद्माकर
(ख) देव।
(ग) केशव
(घ) बिहारीलाल।
उत्तर:
(घ) बिहारीलाल।

प्रश्न 8.
रीतिमुक्त काव्यधारा के अग्रणी कवि हैं
(क) बोधा
(ख) आलम
(ग) ठाकुर।
(घ) घनानंद।
उत्तर:
(घ) घनानंद।

प्रश्न 9.
बिना लक्षण ग्रन्थ लिखे ही, आचार्यत्व का प्रदर्शन करने वाले कवि हैं
(क) मतिराम
(ख) बिहारीलाल
(ग) पद्माकर
(घ) देव।
उत्तर:
(ख) बिहारीलाल

प्रश्न 10.
रीतिकाल में प्रसिद्ध नीतिकाव्य के रचयिता माने जाते हैं
(क) रहीम
(ख) गिरधर कविराय।
(ग) नागरीदास
(घ) बिहारीलाल।
उत्तर:
(ख) गिरधर कविराय।

प्रश्न 11.
बिहारीलाल के काव्य को प्रमुख विषय है
(क) नीतिपरक रचनाएँ।
(ख) भक्ति-भावे पूर्ण रचनाएँ
(ग) श्रृंगार रस का सर्वांगपूर्ण चित्रण
(घ) राजा जयसिंह की प्रशंसा
(च) लोक-मंगल की प्रेरणा।
उत्तर:
(ग) श्रृंगार रस का सर्वांगपूर्ण चित्रण

प्रश्न 12.
रीतिकालीन काव्य की प्रमुख भाषा है
(क) अवधी
(ख) ब्रजी
(ग) बुंदेलखण्डी
(घ) भोजपुरी
(च) राजस्थानी।
उत्तर:
(ख) ब्रजी

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
रीतिकाल की पूर्वा पर सीमा क्या थी?
उत्तर:
रीतिकाल की पूर्वा पर सीमा आचार्य शुक्ल 1375 वि. मानते हैं।

प्रश्न 2.
रीतिकाल विलासितापूर्ण वातावरण क्या जनता की मनोवृत्ति का प्रतीक था?
उत्तर:
रीतिकालीन विलासितापूर्ण वातावरण तत्कालीन राजा-सामन्तों की मनोवृत्ति का ही प्रतीक था, जनता की मनोवृत्ति का प्रतीक नहीं।

प्रश्न 3.
रीतिबद्ध कवि कौन-कौन थे?
उत्तर:
जिन कवियों ने लक्षण ग्रन्थों का निर्माण किया, वे ही रीतिबद्ध कवि थे-चिन्तामणि त्रिपाठी, कुलपति मिश्र, देव, भिखारीदास, जसवन्तसिंह आदि प्रमुख रीतिबद्ध कवि हैं।

प्रश्न 4.
‘रीतिमुक्त’ का अभिप्राय क्या था?
उत्तर:
जो काव्य ‘रीति’ की परम्परा से सर्वथा मुक्त और स्वच्छन्द रहा वही रीतिमुक्त काव्य कहलाया।

प्रश्न 5.
रीतिकाल में वीर-काव्य की रचना करने वाले कवि, कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
रीतिकाल में वीर-काव्य की रचना करने वाले कवि हैं- भूषण, सेनापति, शम्भूनाथ, पद्माकर, सूदन और लाल।

प्रश्न 6.
रीतिकाल के प्रवर्तक कवि का नाम बताइए।
उत्तर:
रीतिकाल के प्रवर्तक कवि आचार्य केशव और आचार्य चिन्तामणि माने जाते हैं, पर हमारी सम्मति में केशव ही हैं।

प्रश्न 7.
रीतिमुक्त कवियों में सर्वश्रेष्ठ कवि किसे माना जाता है?
उत्तर:
रीतिमुक्त काव्यधारा में मूर्धन्य कवि घनानंद ही हैं।

प्रश्न 8.
पद्माकर द्वारा रचित रीति-ग्रन्थों के नाम बताइए।
उत्तर:
ये दो हैं-पद्माभरण और नगद-विनोद

प्रश्न 9.
रीतिकालीन काव्य की तीन प्रवृत्तिगत विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
रीतिकालीन काव्य की तीन विशेषताएँ हैं-
(1) चमत्कार प्रदर्शन की लालसा,
(2) श्रृंगार रस प्रधान रचनाएँ,
(3) लक्षणा ग्रन्थों की रचनाएँ।

प्रश्न 10.
रीतिबद्ध कवि किनको माना गया है?
उत्तर:
आचार्यत्व और कवित्व दोनों क्षेत्रों में प्रतिष्ठित कवि रीतिबद्ध माने गये हैं।

प्रश्न 11.
रीतिमुक्त कवि किसको कहा गया है?
उत्तर:
विशुद्ध प्रेममूलक रचना करने वाले काव्य-लक्षणों के प्रदर्शन से दूर कवि रीतिमुक्त कहे गये।

प्रश्न 12.
दो रीतिबद्ध कवियों के नामों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
दो रीतिबद्ध कवि हैं-

  • आचार्य केशव तथा
  • आचार्य चिन्तामणि।

प्रश्न 13.
किसी रीतिसिद्ध कवि का नाम तथा उसकी एक प्रसिद्ध रचना का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
रीतिसिद्ध प्रमुख कवि बिहारीलाल हैं और बिहारीलाल की रचना ‘सतसई’ है।

प्रश्न 14.
रीतिमुक्त काव्य की तीन प्रमुख विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
रीतिमुक्त काव्य की तीन प्रमुख विशेषताएँ हैं-

  • प्रेमानुभूति का मार्मिक चित्रण,
  • चमत्कार प्रदर्शन और
  • अश्लीलता को अभाव।

प्रश्न 15.
‘गागर में सागर’ भरने की क्षमता किस रीतिकालीन कवि में मानी गयी है?
उत्तर:
रीतिकालीन कवियों में बिहारीलाल में ही यह क्षमता ‘गागर में सागर’ भरना मानी गयी है।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
बिहारी रतिसिद्ध या रीतिमुक्त कवि हैं? स्पष्ट करिए।
उत्तर:
रीतिसिद्ध कवि वे माने गये जिन्होंने लक्षण ग्रन्थों का निर्माण नहीं किया, फिर भी रीति परिपाटी की प्रमुख विशेषताओं को अपने काव्य में समेटा। श्रृंगार रस की प्रधानता, नायिका भेद, ध्वनि, रीति वक्रोक्ति के निरूपण को उन्होंने अपने काव्य में स्थान दिया। रीतिमुक्त कवि वे माने गये जो भाव, शैली दोनों में सर्वथा स्वच्छन्द रहे। जिनकी कविता प्रयत्न साध्य न होकर स्वतः स्फूर्त थी, वह भावाधारित थी। जहाँ तक बिहारी का प्रश्न है, उन्हें रीतिबद्ध कवि ही माना जाता है। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने स्पष्ट किया है-बिहारी ने आचार्य कर्म से दूर रहकर जो ‘सतसई’ रची उसमें रीतियाँ स्वत: ही सिद्ध होती चली गयी हैं, इसलिए उन्हें रीतिसिद्ध कवि कहा जा सकता है।

प्रश्न 2.
रीतिकाल में वीर रस के प्रणेता कौन थे? संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर:
रीतिकाल में श्रृंगारिक उदाहरण लेकर चली आई परम्परा का तिरस्कार कर वीर-भावना को अपना काव्य विषय भूषण ने ही बनाया। इन्हें राष्ट्र कवि भी माना जाता है इनका जन्म सन् 1631 ई. और मृत्यु 1715 ई. के लगभग मानी जाती है। ये कानपुर जिले के ‘तिकवाँपुर’ गाँव के पं. रत्नाकर त्रिपाठी के पुत्र थे। इनके वास्तविक नाम का किसी को पता नहीं। पर चित्रकूट के सोलंकी नरेश इन्द्र ने इन्हें ‘ भूषण’ की उपाधि प्रदान की थी इनके प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं-‘शिवराज भूषण’, ‘शिवा बावनी’ और ‘छत्रसाल दशक।’

इनकी कविता में वीर भाव के लिए जिस ओजपूर्ण वाणी की अपेक्षा है, वह है। ओज को बनाये रखने के लिए भूषण ने विशिष्ट शब्दावली का प्रयोग किया है। ये राष्ट्र की दुर्दशा से दु:खी थे। इनका काव्य आज भी राष्ट्रीय भावना जगाने में समर्थ है।

प्रश्न 3.
‘श्रृंगार काल’ नामकरण के विरुद्ध क्या तर्क दिया गया?
उत्तर:
आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने रीतिकाल को ‘ श्रृंगार काल’ नाम दिया। श्रृंगार की अतिशयता के कारण ही इन्होंने इसे श्रृंगार काल कहना अधिक उपयुक्त समझा पर इस नामकरण को स्वीकार करने में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने आपत्ति उठायी। इस युग में ऐसे भी अनेक कवि थे जो अपनी श्रृंगारिक रचनाओं से सन्तुष्ट नहीं थे। वे तो आश्रयदाताओं को प्रसन्न करने हेतु ही श्रृंगार लिखते थे।

साथ ही इस काल में श्रृंगार के अतिरिक्त वीर, भक्ति और नीति युक्त काव्य भी पर्याप्त मात्रा में रची गया। तब ‘ श्रृंगार काल’ नामकरण इस युग की समस्त वृत्तियों को अपने में न समेट पाने के कारण स्वतः संकुचित हो जाता है। साथ ही प्रसिद्ध लक्षण ग्रन्थ भी इस ‘नाम को सत्य करने में बाधा डालते हैं। लक्षण ग्रन्थों के रचयिताओं ने थोड़ा-बहुत श्रृंगार अवश्य लिखा है किन्तु ये श्रृंगारिक रचनाएँ कवियों की मूल प्रवृत्ति नहीं हैं। अत:’ श्रृंगार काल’ नाम इस युग के साहित्य के लिए अनुपयुक्त माना गया।

प्रश्न 4.
क्या श्रृंगारिक रचनाएँ ही रीतिकाल की मूल कवि मनोवृत्ति थीं?
उत्तर:
यदि हम रीतिकाल के काव्य पर विहंगम दृष्टि डालें तो यह स्पष्ट हो सकेगा कि इस काल में श्रृंगारपरक रचनाएँ सर्वाधिक मात्रा में लिखी गयीं। पर ऐसा नहीं है कि इस काल में श्रृंगार के अतिरिक्त कुछ लिखा ही नहीं गया। भक्ति-भाव, मुक्त, वीर-प्रधान और नीति प्रधान रचनाएँ भी सामने आयीं।।

जहाँ कवि, बिहारी और रीतिमुक्त कवियों ने श्रृंगार को सर्वाधिक महत्त्व दिया, वहीं घनानन्द और बिहारी ने भक्ति सम्बन्धी रचनाएँ भी कीं। इसके साथ ही परिसाहब, दरिया , जग जीवनदास, पलाईसाहब, चरनदास, शिवनारायण, तुलसी साहब, दयाबाई, सहजोबाई, गुरु तेग बहादुर, शिवदयाल और सूफी सन्त कालिम शाह, नूर मोहम्मद, शेख निसार आदि ने आध्यात्मिक काव्य रचना कर मानव जीवन को ऊँचा उठाने का प्रयास किया।

रीतिकाल में ही भूषण, सूदन, पद्माकर आदि कवियों ने वीर रस का उद्रेक करके, हिन्दुओं की जातीय एकता, गौरव और धर्म की रक्षार्थ उद्बोधन करते हुए राष्ट्रीयता को पुष्ट किया। राजाश्रय में लिखी आश्रयदाता की दान वीरता, दया वीरता तथा युद्ध वीरता का भी चित्रण हुआ। गुरु गोविन्दसिंह ने ब्रज भाषा में वीर भाव की रचनाएँ कीं।

यह बात दूसरी है कि अधिकता श्रृंगार की ही रही, फिर भी यह नहीं माना जा सकता कि अन्य प्रकार की रचनाएँ इस काल में हुई। ही नहीं। फिर भी यदि कुछ विद्वान इस काल की मूल प्रवृत्ति श्रृंगार ही मानते हैं तो यह उनका अपना सोच है।

प्रश्न 5.
रीतिकाल नामकरण के विरुद्ध क्या तर्क दिया जा सकता है?
उत्तर:
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस युग को उत्तर मध्यकाल या रीतिकाल नाम दिया हैं। इस युग में कवियों ने अधिकतर ‘रीति’। ग्रन्थों की ही रचना की थी। सम्भवत: इसी कारण इस काल का नाम ‘रीतिकाल’ माना गया।

‘रीतिकाल’ नाम के विरुद्ध भी यह आक्षेप हो सकता है कि इस नाम की सीमा में घनानंद, आलम, बोधा, ठाकुर, द्विजदेव तथा वीर रस के कवि और नीतिकार नहीं जमा सकते। जिन्होंने अपने काव्य में ‘रीति’ के किसी भी तत्व का निरूपण नहीं किया। इन पर काव्यशास्त्र का तनिक भी प्रभाव नहीं था। फिर भी यह माना गया कि प्रत्येक युग में कुछ प्रवृत्तियाँ मुख्य केन्द्र से हटकर भी चला करती हैं। अत: यदि विषय चयन को ही आधार बनाया जाय तो इसे रीतिकाल मानना अनुचित नहीं है।

प्रश्न 6.
रीतिबद्ध कवियों से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
हिन्दी के रीतिकाल को मुख्यतः तीन प्रकार के कवियों ने सजाया। रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त। जिन कवियों ने काव्यशास्त्र का आधार लेकर लक्षण ग्रन्थों की गणना की। लक्षणों का विवेचन करते हुए सुन्दर उदाहरणों की योजना की वे रीतिबद्ध कवि कहलाये, उन्हें लक्षण ग्रन्थकार भी कहा गया। रीतिबद्ध कवियों की प्रेरणा का स्रोत संस्कृत की काव्यशास्त्रीय परम्परा ही रही है।

प्रश्न 7.
घनानंद ने प्रेम के विषय में क्या मत व्यक्त किया है?
उत्तर:
घनानन्द की मान्यता है कि संसार में सच्चा स्नेही दुर्लभ है, यदि कोई सच्चा स्नेही हो भी तो उसका जीवन भीषण संकटों से आसन्न हुआ करता है। स्नेह का मार्ग अत्यन्त सीधा होता है उसमें चातुर्य का लेख भी अपेक्षित नहीं। प्रेम में वासना का तिरोभाव हो चुका रहता है और निष्ठा या अनन्यता आ चुकी रहती है। इसमें सर्वात्मभाव से आत्मसमर्पण करना पड़ता है। इसी कारण प्रेम का मार्ग कठिन भी है क्योंकि निश्छल, कपट-रहित समर्पण सहज-सम्भव नहीं है।

प्रेमी की चाह (प्रीति) रति और गति आदि सभी कुछ अटपटी होती हैं, व्यथा ही उनका जीवन होता है और संयोग भी उसे अधीर बनाता है। घनानंद प्रेम को संसार का और जीवन का सबसे महत्वूपर्ण तत्व मानते हैं, इसके बिना उनकी दृष्टि में जीवन व्यर्थ है। प्रेम के विहीन मनुष्य, मनुष्य नहीं होता, प्रेमहीन व्यक्ति का हृदय मलिन होता है, अच्छाई वह देख ही नहीं सकता

“नेह-रस-हीन, दीन अंतर मलिन-लीन।
दोष ही मैं रहैं गहैं कौन भाँति वे गुनै।”

प्रेम का महत्त्व इसी एक बात से प्रत्यक्ष है कि संसार में जो बहुत सारा प्रेम उमड़ रहा है, उसका आधार सागर लहरा रहा है।

“प्रेम को महोदधि अपार हरि के विचार
बापुरो हहरि बार ही ते फिरि आयो है।”

घनानंद लौकिक प्रेमी थे। वे लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक प्रेम की ओर जाने की बात नहीं करते। उनके अनुसार प्रेम मार्ग अत्यन्त सीधा है, पर बहुत कठिन है। उस पर सच्चे व्यक्ति ही चल सकते हैं।

तरु साँचे चलें, तजि आपुनपों
झिझके कपटी जे निसांक नहीं।”

प्रश्न 8.
रीतिकाल के नामकरण के आधार क्या हैं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भक्तिकालीन पवित्र काव्यधारी शनैःशनै कवियों के राज्याश्रित होने के कारण धनोपार्जन का माध्यम बन गयी। अब आश्रयददाताओं के मनोरंजन के लिए कवि काव्य-रचना करने लगे। इस काल में रीति या काव्य-लक्षणों को लेकर लक्षण-ग्रन्थ रचे गये। अनेक विषयों ने स्वतन्त्र रूप से भी काव्य-लक्षणों पर आधारित रचनाएँ कीं। रीति प्रधान रचनाएँ होने के कारण ही इस कालखण्ड को रीतिकाल नाम दिया गया।

प्रश्न 9.
रीतिकालीन काव्य की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
रीतिकालीन काव्य की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं

  1. रीति या लक्षण ग्रन्थों की रचना में प्रवृत्ति दिखायी देती है।
  2. रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध तथा रीतिमुक्त रचनाएँ हुईं।
  3. कवि होने के साथ-साथ आचार्यत्व का मोह भी लक्षित होता है।
  4. श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का सुन्दर निरूपण हुआ।
  5. नारी के प्रति विलासपरक दृष्टि प्रधान रही।
  6. उद्दीपन प्रधान प्रकृति-वर्णन प्राप्त होता है।
  7. काव्य के भाव और कला-पक्ष का उत्कृष्ट समन्वय है।’
  8. ब्रज भाषा के लालित्य और अर्थगाम्भीर्यता का अत्यधिक विकास हुआ है।
  9. चमत्कार प्रदर्शन की लालसा परिलक्षित होती है।

प्रश्न 10.
रचना शैली की दृष्टि से रीतिकालीन कवियों को किन वर्गों में विभाजित किया गया?
उत्तर:
रीतिकालीन कवियों को काव्य-रचना की दृष्टि से दो वर्गों में रखा गया है, जो इस प्रकार हैं

  1. रीतिबद्ध कवि-जिन कवियों ने रीतिपरक रचनाओं का शास्त्रीय दृष्टि से सृजन किया, वे रीतिबद्ध कवि कहे गये। इन्होंने आचार्यत्व और कवित्व दोनों क्षेत्रों का निर्वहन करते हुए रचनाएँ कीं। केशव, चिन्तामणि, देव, पद्माकर आदि इसी श्रेणी के कवि हैं।
  2. रीतिमुक्त कवि-जिन कवियों ने रीति-बन्धनों से मुक्त होकर स्वच्छन्द काव्य-रचनाएँ कीं, वे रीतिमुक्त कवि माने गये हैं। इनकी रचनाओं में प्रेम का मार्मिक स्वरूप दृष्टिगोचर होता है। घनानंद, बोधा, ठाकुर ऐसे ही कवि हैं।

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
रीतिकाल की विभिन्न परिस्थितियों तथा उनके द्वारा पड़ने वाले प्रभाव का विश्लेषण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:
रीतिकाल की अवधि संवत् 1650 से संवत् 1900 तक मानी जाती है। इस काल की युगीन परिस्थितियों ने हिन्दी काव्य को पूरी तरह प्रभावित किया है।
(1) राजनीतिक स्थिति-संवत् 1700 में भारत पर दिल्ली में शाहजहाँ का अधिकार था। अकबर ने अत्यन्त युक्तिपूर्वक शासन-व्यवस्था को दृढ़ किया था और जहाँगीर को एक वैभव काल सौंपा था। शाहजहाँ के काल में उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर गृह-कलह उत्पन्न हुआ, जिसने अव्यवस्था, विलासप्रियता को जन्म दिया और औरंगजेब के बाद मुगल शासन छिन्न-भिन्न हो गया। नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली ने मुगल शासन को भारी धक्का पहुँचाया। मुगल शासन के टूटने के बाद छोटे-छोटे रजवाड़े पनपे वहाँ भी विलासिता पनपती चली गयी। शौर्य चमत्कार, वैभव-प्रदर्शन और विलास-ये सामन्तवादी विशेषताएँ थीं।

इस प्रकार की राजनीतिक स्थिति में रीतिकालीन काव्य का जन्म हुआ। जो काव्य इन स्थितियों में रचा गया उससे किसी गम्भीर जीवन दर्शन की आशा नहीं की जा सकती, ऐसी स्थिति में श्रृंगार प्रिय साहित्य ही रचा जा सकता है। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार, “हिन्दी के रीतिकाव्य का सृजन और पोषण जिन प्रान्तों में हुआ वे अवध, बुन्देलखण्ड तथा राजस्थान हैं। ये तीनों ही प्रान्त गृह-कलह, स्वार्थपरती और वैमनस्य के कारण श्री-शक्तिविहीन हो चुके थे। मुगलकालीन वैभव ने उन्हें प्रभावित किया था। वीरता, त्याग, बलिदान, शौर्य-अब पुरानी कहानियों का विषय हो चुका था। जीवन में ऐसा मोड़ आया कि सारे जीवन मूल्य ही बदल गये।

(2) सामाजिक स्थिति-समाज स्थूल रूप से दो वर्गों में विभाजित था-शासक और शासित। बड़े-बड़े मुगल परिवार, मुगल सम्राट, राज परिवार के व्यक्ति, उच्च अधिकारी, छोटे-बड़े राजा, सामन्त, नवाब, जागीरदार, अमीर-उमराव आदि शासक वर्ग के ही अन्तर्गत आते थे। ये लोग विलासी और वैभव-प्रिय थे। मुगल सम्राटों के हरमों में सुन्दरियों की भरमार थी। मदिरा का प्रयोग सामान्य था। यह प्रभाव इन छोटे सरकारों पर भी पड़ा था। केन्द्रीय सत्ता के शिथिल होने पर तो इन छोटे राजाओं का वैभव-विलास और भी बढ़ गया था। अवसर पाते ही ये स्वतन्त्र ही नहीं, स्वच्छन्द भी हो उठते थे, फिर उनके विलास की गति भी बढ़ जाती थी।

यह भी एक विचित्र संयोग था कि हिन्दी कवियों का समाज इन्हीं के संयोग में अधिक फलीभूत हुआ कि जाने-अनजाने वैभवप्रियता, विलासिता का यह वर्ग भी समर्थक हो उठा। डॉ. देवीशरण रस्तोगी की मान्यता है-वैभवप्रियता तथा विलासिता-प्रधान राज दरबारों में चमत्कारपूर्ण श्रृंगारिक रचनाएँ सुनाकर आश्रयदाता की प्रशंसा तथा कृपा का अधिकारी बनना ही कवि कर्म हो गया। रीतिकालीन वैभवप्रियता पोषक, कामुकतापूर्ण और चमत्कारिक वर्णन इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं।

(3) धार्मिक स्थिति-भक्तिकाल में रामोपासना, कृष्णोपासना, निर्गुण साधना का मार्ग प्रशस्त हो चुका था। सूफी प्रभाव भी थोड़ा-बहुत प्रभावी रहा था। भक्तिकालीन ग्रन्थों में एक विशिष्ट चिन्तन प्रधान दर्शन का प्रभाव काव्य पर पड़ा जो भक्तिकाल को समाप्त होते-होते धूमिल हो उठा। धर्म अब मात्र बाह्याचार रस्म अदायगी रह गया और मुगलकालीन वैभव विलासिता ने उसे जड़ से ही समाप्त कर दिया। उसका केवल वही अंग ग्रहण किया गया जो वातावरण के अनुकूल पड़ता था। अब तो कृष्ण और ‘परमपुरुष’ और ‘शक्ति’ के प्रतीक थे, मात्र नायक-नायिका रह गये। डॉ. नगेन्द्र ने स्वीकार किया है-“धर्म का तात्विक विकास रुक गया था और उसके स्थान पर भक्ति के बाह्य विलास अत्यन्त समृद्ध हो गये थे।”

कृष्ण-भक्ति के रसिक सम्प्रदाय, जिसमें पदकीय भाव का समावेश हुआ, उसका प्रभाव यह पड़ा कि दर्शन शून्य परकीय भाव कामुकता की सीमा को छू गया। साथ ही विद्वानों की यह भी मान्यता है कि सूफी प्रभाव ने भी इस भावना को बल दिया।

(4) सांस्कृतिक परिस्थितियाँ-दक्षिण के मन्दिरों में देवदासी प्रथा पनपी तथा उत्तर भारत में भक्ति के क्षेत्र में प्रेम और श्रृंगार की प्रबलता हुई। सूफियों के इश्क ने इसे बहुत कुछ विकृत कर दिया। युगीन सामन्ती व्यवस्था के अन्तर्गत नारी जीवन की सार्थकता पुरुष को आकर्षित कर उसकी विलास-क्रीड़ा का साधन बनने एवं उसके द्वारा भोग किये जाने में मानी जाने लगी। ज्यों-ज्यों विलास के साधन बढ़ते गये, त्यों-त्यों समाज का मानस विकृत होता गया। नैतिक पतन इन परिस्थितियों का आवश्यक परिणाम था। बेईमानी और रिश्वत का बाजार गर्म था। भाग्यवाद और नैराश्य का साम्राज्य था। पूरे साम्राज्य में बौद्धिक स्वस होने लगा था। मौलिक प्रतिभा कुंठित हो गई थी। केवल विलास की रमणीयता शेष रह गयी थी।

(5) काव्य और कला पर परिस्थितियों का प्रभाव-मन्दिर टूटे, कला नष्ट हुई। मुगल दरबार फारसी कला एवं काव्य परम्परा का प्रश्रय स्थल बन गया। राजस्थानी नरेशों और सामंतों की छत्र-छाया में हिन्दी कविता का दरबारी रूप पनपा। ओरछा, कोटा, बूंदी, जयपुर जोधपुर और यहाँ तक कि महाराष्ट्र के राजदरबारों में भी प्रदर्शन प्रधान श्रृंगारपरक जीवन दर्शन की अभिव्यक्तिपरक काव्यधारा चलती रही। स्थापत्य-कला, चित्रकला, संगीत-कला, काव्य-कला, प्रत्येक प्रवृत्ति मौलिक उद्भावना की ओर उन्मुख न होकर रसीलेपन की ओर हो गई थी जिस पर विदेशी प्रभाव भी था। इन सब स्थितियों और परिस्थितियों का गहरा प्रभाव हिन्दी काव्य पर पड़ा। डॉ. सिन्हा के शब्दों में, “मुगल दरबार में पोषित दरबारी काव्य का गहरा प्रभाव हिन्दी साहित्य पर पड़ा। जीवन के व्यापक उपादानों को छोड़कर राजं प्रशस्ति और श्रृंगार वर्णन तक सीमित रह गया।”

प्रश्न 2.
रीतिकाल के काव्य को किन-किन श्रेणियों में विभाजित किया गया है? संक्षेप में उल्लेख करिए।
उत्तर:
हिन्दी साहित्य के रीतिकाल को तीन वर्गों में रखा गया है

  1. रीतिबद्ध कवि,
  2. रीतिमुक्त कवि,
  3. रीतिसिद्ध कवि।

(1) रीतिबद्ध कवि-जिन कवियों ने ‘रीति’ अर्थात् काव्यशास्त्र की परम्परा के अनुसार लक्षण ग्रन्थों का निर्माण किया, वे रीतिबद्ध कवि माने गये। इनके लक्षण ग्रन्थों को तीन वर्गों में विभाजित किया गयाअलंकार निरूपण सम्बन्धी, रस और नायिका भेद सम्बन्धी, सर्वांग निरूपण सम्बन्धी। इन्होंने अपने लक्षण ग्रन्थों में लक्षण और उदाहरण पद्य में ही लिखे। इनमें प्रमुख रूप से केशव, मतिराम, पद्माकर, देव, श्रीपति, रसलीन, भिखारीदास, आते हैं।

(2) रीतिमुक्त कवि-रीति काव्य की एक दूसरी धारा रीतिमुक्त कवियों की है। इसे स्वच्छन्द काव्यधारा भी कहा जाता है। इस वर्ग में जो कवि आते हैं उनमें घनानंद, बोधी, ठाकुर, आलम, द्विजदेव और रसखान को माना जाता है। ये वे कवि हैं जिनका काव्य रीति से सम्बन्ध सर्वथा मुक्त रहा, उनके हृदय से फूटा। रीतिबद्ध कवियों ने चमत्कार का पल्ला पड़कर बुद्धि प्रेरित कविता लिखी जबकि रीतिमुक्त कवियों ने भाव-भवत कविता लिखी।।

(3) रीतिसिद्ध कवि-इस कोटि के कवि बिहारी हैं। उन्होंने लक्षण ग्रन्थ का निर्माण नहीं किया, किन्तु फिर भी रीति परिपाटी की सभी विशेषताएँ उनकी ‘सतसई’ में देखी जा सकती हैं। उनकी ‘सतसई’ में रस, भाव, नायिका, भेद, ध्वनि, रीति, वक्रोक्ति आदि के आकर्षक उदाहरण उपलब्ध हैं। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र की मान्यता है कि “बिहारी ने आचार्य कर्म से दूर रहकर जो ‘सतसई’ रची उसमें रीतियाँ स्वत: ही सिद्ध होती चली गयी हैं, इसलिए उन्हें रीतिसिद्ध कवि कहा जा सकता है।

प्रश्न 3.
रीतिमुक्त काव्य धारा का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करिए।
उत्तर:
हिन्दी साहित्य के रीतिकाल में रीतिमुक्त श्रृंगारी काव्य की एक स्वतन्त्र धारा भी अस्तित्व में थी। इन्हें आचार्य शुक्ल ने श्रृंगार रस की फुटकर रचना करने वाले प्रेमोन्मत्त कवि कहा। ये ही ‘स्वच्छन्द कवि’ और ‘रीतिमुक्त कवि’ के नाम से भी जाने गये। इन कवियों में रसखान, आलम, घनानंद, बोधा, ठाकुर और द्विजदेव का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये अपनी मार्मिक प्रेम-व्यंजना के लिए विशेष रूप से जाने जाते हैं। इनको प्रेम का पपीहा या भावराशि को उन्मुक्त उड़ेलने वाला उन्मुक्त प्रेमोन्मत्त कवि माना जाता है, जो प्रेम की उमंग के मस्त कवि, तल्लीन अवस्था में मार्मिक प्रेम-दर्द के गायक हैं। इनकी कतिपय विशेषताओं का यहाँ उल्लेख हो रहा है

(1) काव्यगत दृष्टिकोण की भिन्नता-इनका काव्य सम्बन्धी दृष्टिकोण रीतिबद्ध कवियों से सर्वथा भिन्न है, ये रीति की संकरी गली में विचरण करने के पक्षधर नहीं थे, अपना राजपथ स्वयं निर्माण करने की आकांक्षा रखते थे। वे काव्य को स्वानुभूति प्रेरित मानते थे, आयास प्रसूत नहीं। ठाकुर का कथन है कि कवियों ने मीन, मृग, खंजन, कमल नैन को सोख लिया कल्पवृक्ष, कामधेनु, चिन्तामणि आदि को जान लिया और

डेल सो बनाय आय मेलत सभा के बीच
लोगन कवित्त की बो खेल करि जानो है!”।

इन कवियों ने काव्य की चिन्ताहरिणी शक्ति में कवित्व का अधिवास माना और यह चिन्ताहरिणी शक्ति अलंकार विधान से नहीं, अनुभूतियों से उत्पन्न होती है।

(2) दरबारदारी से दूर-वे दरबारों में रहे, पर सर्वथा स्वच्छन्द होकर रहे, आश्रयदाता की प्रशस्ति में अपनी प्रतिभा का अपव्यय इन्होंने नहीं किया। बोधा ने अपने आश्रयदाता महाराज क्षेत्रसिंह की राजसभा छोड़ते समय कहा था

“जो घन है तो गुनी बहुतै, अरु जौ गुन है तो अनेक हैं गाहक।”

(3) भाव प्रवणता-कवित्व उनका साध्य नहीं था, अन्त:करण की भावना को मुक्त भाव से उड़ेल देने में ही उनकी तृप्ति थी। ये कवि ऐसे थे जो हृदय को मुक्तावस्था प्राप्त करके रस दशा को पहुँचा करते थे। इस रस दशा को प्राप्त कर उनकी वाणी स्वत: भंगिमामयी हो जाती थी।

(4) मूलवक्तव्य प्रेम-रीतिमुक्त कवियों की कविता प्रेम की गहरी संवेदना से युक्त है, यह स्वानुभूति निरूपित है, सर्वथा निजी है, इसी से इनकी रचनाएँ हृदयस्पर्शी बन गयी हैं।

(5) स्वच्छन्द प्रेम के गायक-इनके काव्य में प्रेम का स्वच्छन्द रूप चित्रित हैं। यहाँ न तो गुरुजनों का संकोच है, न लोक की। लाज और न दूती का माध्यम। बन्धनों के बीच होकर चलने वाला प्रेम-व्यापार न तो इन कवियों को प्रिय ही हो सका था और न नष्ट। लोक की लज्जा, परलोक की चिन्ता को जो छोड़ सकता है, वही स्वच्छन्द प्रेम मार्ग का पथिक हो सकता है लोक की लाज को शोचि प्रलोक को बारिए प्रीति के ऊपर दोई।”

(6) एकान्तिक प्रेम निष्ठा-इन कवियों के प्रेम में अनन्यता और एक निष्ठता की भावना सतत् विद्यमान है

“घन आनन्द प्यारे सुजान सुनो, यहाँ एकतें दूसरो आँक नहीं।
तुम कौन सी पाटी पढ़े हौ लला, मन लेहु पै देहु छटांक नहीं॥”

(7) संयोग श्रृंगार की मार्मिक अभिव्यक्ति-इनका प्रेम रूपासक्ति जनित था, अतः इन्होंने अपने प्रेमपात्र के रूप-सौन्दर्य की झाँकियाँ बड़े मनोयोगपूर्वक अंकित की हैं। संयोग वर्णन के बड़े ही मार्मिक चित्र उतारे हैं। संयोग श्रृंगार की नाना स्थितियों, मनोदशाओं और स्वच्छन्द क्रीड़ाओं के साथ संभोग की स्थिति भी चित्रित है। साथ ही प्रणय की नाना मनोदशाओं और नाना भावों का चित्रण है। उनकी प्रिया को यही अभिलाषा रह गयी

“मो पछितावौ यहै जुसखी कि कलंक लग्यौ पै अंकन लागी।”

कहीं प्रगाढ़ आसक्ति, कहीं प्रेम की दीवानगी और न जाने कितनी भीवपूर्ण स्थितियों का चित्रण इन कवियों ने किया है। मिलनातुरता की ललक कितनी विलक्षण है

“हौं ही समै लखि कै उन आइ कहौ करि हैं सब रावरेजी को।”

(8) प्रेम भावना की उदात्तता-स्वच्छन्द प्रेम की स्थिति के कारण उनके काव्य में प्रेम भावना की एक प्रकार की उदात्तता है, उसमें गहराई है, व्यापकता है, संकीर्णता और ओछापन नहीं। उनका प्रेम शुद्ध वासनात्मक स्तर से भी ऊपर उठ सका है। इस उदात्तता ने इनके प्रेम को कुछ’आदर्श’ भी सौंपे हैं। उसमें अनन्यता, एक निष्ठता, लोकलाजं विहीन आसक्ति, अहंकार व अभिमान का त्याग आदि स्थितियाँ इस उदात्तभाव की ही देन हैं, इसमें समर्पण है, देना ही देना है, लेना कुछ भी नहीं

“चाहौ अन चाहौं जान प्यारे पै अनंद घन।
प्रीति रीति विषम सुरभि रोम रमी है।”

(9) प्रेम विषमता-प्रेम उभयपक्षीय होने पर सम तथा एकपक्षीय होने पर विषम कहलाता है। एक पात्र जहाँ प्रेम प्रवण हो, दूसरा उदासीन या निष्ठुर वहाँ प्रेम विषम होता है। रीतिमुक्त काव्य में यह प्रेम सविशेष रूप से चित्रित है। कारण भी स्पष्ट है-इनका निजी प्रेमिकाएँ थी, पर सुमान का मिलन बोधा से, सुजान का मिलन घनानंद से नहीं हो सका। अतः इनके प्रेम की टेक विषम ही है।

चाहौ अनचाहौ जान प्यार में आनंद घन।
प्रीति रीति विषम सु रोम-रोम रमी है।”

(10) वियोग की प्रधानता-ये कवि प्रेम की पीर के कवि कहे जाते हैं। इनका वियोग स्वानुभूत है, किसी के लिए किराये के आँसू नहीं बहाये हैं। उसमें कल्पना और ऊहात्मकता नहीं, अपितु मार्मिकता और स्वाभाविकता है। इनका वियोग निःसन्देह हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है जिसमें नाना प्रकार के मनोवेगों का चित्रण और अगणित शारीरिक, मानसिक व्यथाओं, का वर्णन हुआ है। वे अपने वियोग से पूर्ण सन्तुष्ट थे क्योंकि वे जानते और मानते थे कि संसार में विरही को नाना कष्ट झेलने ही पड़ते हैं। इसी से वे अपने मन को समझा लेते हैं

“इत बाँट परी सुधिरावरे भूलनि कैसे उराहनौ दीजिए जू।”

(11) संयोग में वियोग-यह विलक्षण दशा रीतिमुक्त काव्य की अपनी निजी विशिष्टता है जिसे उसने दो रूपों में चित्रित किया है-

  1. संयोगावस्था में भी वियोग का डर,
  2. संयोग में भी वियोग की स्थिति। वियोग सहते-सहते इनका हृदय इतना दु:खी हो गया था कि संयोगावस्था की रोमांचकारी स्थिति में भी वियोग की कल्पना से दु:खी रहता था

“अनौखी हिलग दैया ! बिछुरै तौ मिल्यौ चाहै।
मिले हू मैं मारै जारै खरक विछोह की॥”

इसके साथ ही इन्होंने तत्कालीन संस्कृति का भी चित्रण किया है, प्रकृति चित्रण में भी इन्होंने अपनी धाक जमायी है। इन्होंने प्रबन्ध काव्य भी लिखे हैं और कलापक्ष की उत्कृष्टता में तो ये समूचे रीतिकाव्य में सिर मौर हैं।

प्रश्न 4.
रीतिकाल की पूर्व सीमा का निर्धारण करते हुए उसके नामकरण के औचित्य को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
हिन्दी साहित्य के इतिहास में उत्तर:मध्यकाल के नामकरण के सम्बन्ध में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। सन् 1643 ई. से 1843 ई. तक हिन्दी साहित्य में अधिकतर श्रृंगार परक ग्रन्थों की रचना हुई। साहित्य के किसी काल का नामकरण करने के लिए भी कुछ न कुछ आधार अवश्य होना चाहिए। कई बार यह नामकरण, कृति, कृतिकार, पद्धति या विषय के आधार पर भी होता है; जैसे- भारतेन्दु युग, प्रसाद युग, छायावादी युग। सम्भवत: इसी आधार पर रीतिकाल के कई नाम सामने आये

अलंकृत काल-मिश्रबन्धुओं ने इस काल का नामकरण’ अलंकृत काल’ किया। जिसका तर्क दिया गया कि इस युग की कविता में ‘अलंकरण’ की प्रवृत्ति अधिक है।

किन्तु इस तर्क को सर्वत्र स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि ‘अलंकृत’ विशेषण इस युग की कविता के लिए विशेष उपयुक्त नहीं प्रतीत होता। कारण यह है कि इस युग की कविता में केवल अलंकारों का बाहुल्य ही नहीं है, अन्य काव्यांगों को भी इसमें यथेष्ट स्थान मिला है। कवियों की प्रवृत्ति भी काव्य को अलंकृत करने की ही नहीं है, उसमें रस-नियोजन की भी आकांक्षा स्पष्ट है, अपितु यह भी माना
जा सकता है कि उसमें अलंकार की अपेक्षा रस पर ही अधिक महत्त्व दिया गया है। अत:’अलंकृत कालं’ नामकरण सर्वथा एकाकी है। श्रृंगार काल-आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इसे ‘

श्रृंगार काल’ नाम दिया जिसका आधार श्रृंगार रस की अधिकता माना गया। आचार्य रामचन्द शुक्ल ने भी इसे इसी नाम से पुकारा।।

इस युग में मात्र श्रृंगार ही नहीं लिखा गया, इस काल में भक्ति, नीति, वीर रस प्रधान काव्य की भी रचना हुई। अत:’ श्रृंगार काल’ युग की मस्त वृत्तियों को अपने में नहीं समेट सका, साथ ही प्रसिद्ध लक्षण ग्रन्थ भी इस ‘नाम’ को सत्य करने में बाधा डालते हैं।

रीतिकाल-आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस युग को उत्तर:मध्यकाल या रीतिकाल नाम दिया।’रीति’ विशेषण का प्रयोग शत-प्रतिशत उचित न हो, किन्तु अलंकृत और श्रृंगार विशेषणों की अपेक्षा यह अधिक वैज्ञानिक और उपयुक्त है क्योंकि इस युग के कवियों ने अधिकतर रीति ग्रन्थों, की ही रचना की।

इस नामकरण के विरुद्ध भी यह आक्षेप है कि इस नाम की सीमा में घनानंद, आलम, बोधा, ठाकुर आदि कवि नहीं आते, जिन्होंने अपने काव्य में ‘रीति’ के किसी भी तत्व का निरूपण नहीं किया जिन पर काव्यशास्त्र का तनिक भी प्रभाव नहीं था। इसका सरल उत्तर यह है कि प्रत्येक युग में कुछ प्रवृत्तियाँ मुख्य केन्द्र से हटकर भी चला करती हैं। जैसे इस युग में वीर काव्य का सृजन किया गया, फिर भी उन्हें वीर गाथाकाल का कवि नहीं कह सकते। अत: विषय-चयन की दृष्टि से इस काल को ‘रीतिकाल’ कहने में कोई अनौचित्य नहीं होगा। यह नाम अधिकांशत: स्वीकार भी किया गया।

प्रश्न 5.
रीतिबद्ध काव्य की सामान्य प्रवृत्तियों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
दीर्घकालीन श्रृंगारिक काव्य को प्राय: दो धाराओं में विभाजित किया गया है-रीतिबद्ध और रीतिमुक्त। जिन कवियों ने काव्यशास्त्र का आधार लेकर लक्षण ग्रन्थों की रचना की, लक्षणों का विवेचन करते हुए सुन्दर उदाहरणों की योजना की, रीतिबद्ध कवि कहलाये। उन्हें लक्षण ग्रन्थकोर कवि कहा गया है। रीतिबद्ध कवियों की प्रेरणा का स्रोत संस्कृत की काव्यशास्त्रीय परम्परा ही रही है। रीतिकाव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ इस प्रकार हैं

(1) संस्कृत काव्यशास्त्र का प्रभाव-यह सर्वमान्य तथ्य है कि श्रृंगारकालीन रीति-ग्रन्थ, संस्कृत-काव्य सम्प्रदाय के ग्रन्थों से प्रभावित रहे हैं। कुछ ग्रन्थ तो सीधे-सीधे अनुवाद या छायानुवाद रूप में भी हैं। उदाहरण के लिए, कुलपति मिश्र का ‘रस रहस्य’ और ‘जसवन्तसिंह’ का ‘भाषा-भूषण’। रीति निरूपण के सैद्धान्तिक पक्ष में तो प्रायः मौलिकती नहीं है उदाहरणों में अवश्य कुछ मौलिकता का समावेश हो सका है।

(2) लक्षण ग्रन्थों का निर्माण-रीतिबद्ध काव्य की एक प्रमुख विशेषता लक्षण ग्रन्थों का निर्माण भी है। उनमें रस, रीति, अलंकार, छन्द, शब्द-शक्ति आदि का विस्तृत विवेचन किया गया है।

(3) लौकिक श्रृंगार की व्यंजना-रीति काव्य का क्षेत्र श्रृंगार में ही सिमट कर रह गया जो सर्वथा लौकिक ही था। यद्यपि रीतिकाल को श्रृंगार की परम्परा पूर्ववर्ती कवियों से ही प्राप्त हुई, परन्तु भक्तिकाल में उस पर जो अलौकिकता का आवरण था वह हट गया। यह बात भी विशेष उल्लेखनीय है कि इनका मन संयोग पक्ष में अधिक रमा है। संयोग के बड़े मादक चित्र इन कवियों ने अंकित किये हैं।

मैं मिसहा सोयौ समुझि मुँह चूयौं ढिग जाइ।
हस्यौ खिसानी गल गाह्यौ, रही गरै लपटाइ॥”

(4) चमत्कार प्रदर्शन-अधिकांश रीति कवि दरबारी थे। फलत: चमत्कार प्रदर्शन की भावना का उनमें होना स्वाभाविक है।

(5) अतिशय अलंकरण की प्रवृत्ति-इस काल में अलंकारों की प्रधानता के कारण ही सम्भवत: इसे ‘अलंकृत काल’ कहा गया। अलंकार इस काल की एक प्रवृत्ति रही है। भाषा-परिष्कार, अलंकारों को सार्थक मनोरम उपयोग, संक्षेप में बहुत अधिक कहने की प्रवृत्ति, बात को सीधे न कहकर चमत्कारपूर्ण ढंग से कहना, जीवन के आकर्षक एवं मनोरम प्रसंगों की ही व्यंजना करना, वाग्वैदग्ध्य, काव्य नियमों के परिपालन के प्रति सचेत रहना आदि बातों ने इस काव्य को कला-पक्ष की दृष्टि से पर्याप्त समृद्ध बना दिया है।

(6) मुक्तक की साधना-रीतिकाव्य में मुक्तक रचना की ही प्रधानता है। इसके प्राय: दो कारण हैं-

  • लक्षण ग्रन्थों का निर्माण तथा
  • दरबारी वातावरण का प्रभाव।

लक्षण ग्रन्थ प्राय: मुक्तक शैली में ही लिखे जा सकते हैं, साथ ही मात्र श्रृंगार की प्रधानता के. कारण भी मुक्तक शैली ही इस काल के कवियों के लिए अधिक उपयुक्त थी। दरबारी वातावरण भी मुक्तक-रचना के ही अनुकूल था।

(7) प्रकृति का उद्दीपन रूप-रीतिकाल में मानवीय भावों को उद्दीप्त करने में सहायक प्रवृत्ति का रूप ही उभर कर सामने आया। ऋतु वर्णन, बारह मासा रूप भी प्रचलित रहे। फिर भी कुछ कवि ऐसे हुए जिनके माध्यम से प्रकृति का आलम्बन रूप भी चित्रित हुआ और यह भी मानना पड़ेगा कि वह रूप प्रभावी और सरस भी रहा।

(8) भाषा-भाषा-सौन्दर्य अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच चुका था। डॉ. राजनाथ शर्मा तो इस काल के कवियों की भाषा शक्ति की महत्ता स्वीकार करते हुए यह भी मानते हैं कि उस काल का-सा भाषा परिष्कार और सौन्दर्य छायावादी काव्य के अतिरिक्त हिन्दी साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ ही है। भाषा में कोमलकान्त पदावली, अलंकारों का रम्य रूप सार्थक प्रयोग, मुहावरों, कहावतों आदि का सुन्दर और प्रचुर प्रयोग जैसा इस काल में हुआ, उसकी हल्की-सी झलक कृष्ण-भक्ति काव्य में ही मिलती है।

प्रश्न 6.
बिहारी सतसई’ की लोकप्रियता के आधारों का उल्लेख करिए।
उत्तर:
हिन्दी में रामचरितमानस जितनी लोकप्रियता यदि किसी अन्य ग्रन्थ को प्राप्त हो सकी, तो वह बिहारी सतसई’। ‘बिहारी सतसई’ की लोकप्रियता का ज्ञान कई ओर से होता है-गम्भीर से गम्भीर आलोचकों की आलोचना भी बिहारी सतसई’ की चर्चा चलाते समय प्रशंसात्मक हो गई है। बिहारी सतसई’ की लोकप्रियता का प्रमुख आधार इस प्रकार है

(1) सफल मुक्तक रचना-‘बिहारी सतसई’ की लोकप्रियता को पहला कारण उसमें पाई जाने वाली मुक्तक सम्बन्धी अनूठी सफलता है। साहित्य जगत में कोई भी कृति शिल्प सम्बन्धी बारीकी के बिना लोकप्रियता की अधिकारिणी बन सके, यह असम्भव है। ‘बिहारी सतसई’ काव्य की मुक्तक परम्परा में आती है और इस दृष्टि से उसकी सफलता, असंदिग्ध मानी जायेगी। कहना तो यह भी अत्युक्ति न होगी कि हिन्दी की मुक्तक परम्परा को हम वस्तु विषय-प्रतिपादन तथा रचना-शैली तीनों ही दृष्टियों से ‘बिहारी सतसई’ में विकास की चरमावस्था पर पहुँची हुई पाते हैं।

वरिष्ठ साहित्य शास्त्रियों ने मुक्तक के जिन विभिन्न गुणों की ओर संकेत किया है, वे सभी ‘बिहारी सतसई’ के अधिकांश दोहों में विद्यमान हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने इतिहास में इस प्रकार के तीन गुणों का उल्लेख किया है-व्यापार-शोधन की क्षमता, कल्पना की समाहार शक्ति और भाषा की समास शक्ति। ‘बिहारी सतसई’ के सभी प्रकार के दोहों में ये तीन गुण अपने चरम विकास को पहुँचे हुए मिलते हैं। सूक्तियाँ तक इसी प्रकार की हैं

“तंगी नाद, कवित्त रस, सरस राग, रति-रंग।
अनबढ़े बुरे तरे जे बड़े सब अंक॥”।

(2) श्रृंगारिकता-‘बिहारी सतसई’ की लोकप्रियता का दूसरा आधार उसके दोहों का अधिकांशतः श्रृंगारिक होना है। बिहारी सतसई’ श्रृंगार प्रधान ग्रन्थ है। श्रृंगार को रस-राज स्वीकार किया जाता है। ऐसी स्थिति में श्रृंगार से सम्बन्धित रचना का अन्य प्रकार की रचनाओं की अपेक्षा अधिक लोकप्रिय हो जाना स्वाभाविक ही है। साथ ही बिहारी ने जिस प्रकार के श्रृंगार-चित्र प्रस्तुत किये, उस प्रकार के चित्र 48 मात्रा के छोटे से छन्द में कोई अन्य कवि प्रस्तुत नहीं कर पाया।

(3) विषय-विविधता-बिहारी की प्रसिद्धि का आधार उनके दोहों का अन्य विषयों से सम्बन्धित होना भी है। उदाहरणार्थ, नीति-वर्णन, अन्योक्ति विधान आदि को लिया जा सकता है। बिहारी इन दोहों में सामान्य जीवन से सम्बन्धित खण्ड चित्रों का वह बंधान बाँध पाये हैं, जिसकी उपस्थिति ने उक्ति के वातावरण को एकदम सरस तथा सजीव बना दिया है यही कारण है कि बिहारी के बहुलता सम्बन्धी दोहे पर्याप्त प्रभावी हैं जो सभी प्रकार के पाठकों का अनुरंजन करने के कारण, बिहारी की लोकप्रियता वृद्धि में सहायक हैं

बसै बुराई जासु तन, ताही कौ सनमानु।
भलौ-भलौ कहि छोड़ियै खोटें ग्रह जपु-दानु॥”

(4) कला-पक्ष सम्बन्धी उत्कृष्टता-यद्यपि जनसाधारण का ध्यान कला-पक्ष सम्बन्धी उत्कृष्टता की ओर अधिक नहीं जाना है, किन्तु यह सर्वविदित है कि कला-पक्ष सम्बन्धी उत्कृष्टता की उपस्थिति में ही कोई रचना आकर्षण का केन्द्र बन पाती है।‘सतसई’ की लोकप्रियता में भाषा की समास शक्ति उत्कृष्ट कोटि की उपमान योजना और छन्द-रचना सम्बन्धी सौष्ठव का योग कितना अधिक रहा है, साहित्य को साधारण से साधारण, अनुशीलनकर्ता उसे भली-भाँति जानता है। कहना तो यह भी अत्युक्ति न होगा कि बिहारी की भाषा, अलंकार योजना तथा छन्द रचना को यदि यह उन्नत रूप न प्राप्त होता, तो उनके दोहे इतनी अधिक लोकप्रियता के अधिकारी कभी न बन पाते। बिहारी के भाव-चित्रों को, जिस रूप में आज वे हमारे सम्मुख उपस्थित हैं, उस रूप में हम कभी न देख पाते।

“दृग उरझत, टूटत कुटुम, जुरत चतुर चित प्रीति।
परति गाँठि, दुरजन, हियै, दई नई यह रीति॥”

उपसंहार-विद्वानों, टीकाकारों, अनुवादकों, कवियों और सहृदय समाज में ‘बिहारी सतसई’ की लोकप्रियता का मूल कारण उसका उत्कृष्ट कोटि की मुक्तक रचना होना ही है। यदि ऐसा न होता तो केवल एक ग्रन्थ के आधार पर बिहारी इतनी अधिक कीर्ति के अधिकारी कभी भी न बन पाते। इस सम्बन्ध में हमें आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का अनुमान सही प्रतीत होता है-“बिहारी ने इस ‘सतसई’ के अतिरिक्त और कोई ग्रन्थ नहीं लिखा।
यही एक ग्रन्थ उनकी इतनी बड़ी कीर्ति का आधार है। यह बात साहित्य के क्षेत्र के इस तथ्य की स्पष्ट घोषणा कर रही है कि किसी कवि का यश उसकी रचनाओं के परिणाम के हिसाब से नहीं होता, उसके गुण के हिसाब से होता है। मुक्तक कविता में जो गुण होना चाहिए वह बिहारी के दोहों में अपने चरम उत्कर्ष को पहुँचा है, इसमें कोई सन्देह नहीं।”

प्रश्न 7.
बिहारी की बहुलता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
बिहारी के विषय में यह धारणा बनी हुई है कि वे आयुर्वेद, ज्योतिष, गणित तथा दर्शन आदि के प्रकाण्ड पण्डित थे।’कवि’ शब्द ही बहुल होने का संकेत देता है। वेदों में कवि का अर्थ क्रान्तिदशों और मेधावी किया गया है। जहाँ तक बिहारी की बहुलता का प्रश्न है तो उसे संक्षेप में इस रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। (1) आयुर्वेद ज्ञान-बिहारी ने आयुर्वेद ज्ञान का पूर्ण परिचय दिया है। प्रस्तुत दोहे में सुदरसन, विषम जुर, आदि के प्रयोग द्वारा आयुर्वेद ज्ञान का ही परिचय दिया है

“यह बिनसत नग राखि के, जगत बड़ौ जस लेहु।
जरी विषम जुर जाइये, आय सुदरसन देहु।”

(2) गणित ज्ञान-निम्नलिखित दोहे के आधार पर कुछ लोगों ने उन्हें गणित का ज्ञाता भी बताया है

“कुटिल अलक छुटि परत मुख, बढ़िगौ इतौ उदी तु।
बेक बकारी देत ज्यों दाम रुपैया होतु ॥”

(3) ज्योतिष ज्ञान-बिहारी के ज्योतिष के पण्डित होने की बात निम्नलिखित दोहों के आधार पर की जाती है
(i) “सनि-कज्जल, चख झख लगन उप ज्यें सुदिन सनेहु।

क्यों न नृपति द्वै भोगवै, लहि सुदेसु सबु देहु॥”
“मंगल बिन्दु सुरंग, मुख ससि, केसरि, आड़ गुरु।
इक नारि लहि संगु, रसमय किये लेचन जगत ॥”

ये उदाहरण सामान्य ज्योतिष ज्ञान को स्पष्ट करते हैं। तुला, धनु और मीन के शनि यदि जन्म-लग्न में हों तो बालक राजा होता है। या राजवंश में जन्म लेता है। इसी प्रकार चन्द्रमा, मंगल और वृहस्पति के एक रीश में स्थित होने पर अपार वर्षा होने का योग बताया है। यह भी ज्योतिष के साधारण ज्ञान का सूचक है। इससे यह सिद्ध होता है कि बिहारी ज्योतिष के ज्ञाता थे। साथ ही बिहारी की यह भी महत्ता है कि उन्होंने ज्योतिष के तथ्यों को काव्य की उपयोगिता प्रदान की।

(4) दार्शनिक और पौराणिक ज्ञान-बिहारी को दार्शनिक सिद्ध करने वाले दोहे तो उनके भक्ति-भावना के अन्तर्गत आ जाते हैं, किन्तु निम्न दोहे उनके पौराणिक होने का भी दावा करते हैं

  • “मोर मुकुट की चन्द्र कनि, यौं राजत नन्द-नन्द।।
    मनु ससि सेखर की अकस, किये सेखर सन चन्द॥”
  • “रहयौं ऐचि अंत न लहै, अवधि दुसासन वीर।
    आली बाढ़त विरह ज्यों पांचाली कौ चीर॥”

इन्हें पौराणिक ज्ञान का प्रतीक माना जाता है, पर यहाँ पौराणिक आख्यान का अलंकार रूप में प्रयोग ही विशेष महत्त्वपूर्ण है। ये प्रयोग यह स्पष्ट करते हैं कि अनेक विद्याओं की साधारण बातों का उचित उपयोग कर उन्हें रस-सृष्टि का साधन बनाकर उन्होंने बहुलता का परिचय दिया है।

(5) सामाजिक रीति-रिवाजों का ज्ञान-बहुलता का आधार लोक-जीवन में प्रयुक्त होने वाले वे तथ्य भी होते हैं, जिनका वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में अधिक योग होता है इस दृष्टि से सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, लौकिक तथा अलौकिक कितने ही प्रसंगों, तथ्यों एवं वस्तुओं का महत्त्व होता है। बिहारी ने अपनी ‘सतसई’ में लोकाचार के इन तथ्यों को अपने ज्ञान और अनुभव से संचित करने का प्रयोग करके बहुलता का परिचय दिया।

बिहारी ने उल्लेख किया है कि उस युग में जादू-टोना प्रचलित था, पर इसे श्रेय प्राप्त नहीं थी। श्राद्ध पक्ष में कौओं की बलि दी जाती थी। अंगों को स्फुरण शुभ-अशुभ माना जाता था। मनोरंजन हेतु कबूतर बाजी और पतंग बाजी प्रचलित थी। मदिरापान पुरुष-स्त्री दोनों ही करते थे। विवाह, उत्सव, रीति-रिवाज का उल्लेख करते हुए कहा है कि श्वसुर के घर रहने वाले जामाता का मान घट जाता था। संक्षेप में, बिहारी ने नीति विषयक ज्ञान, राजनीति का ज्ञान आदि का परिचय देकर यह संकेत किया है कि बिहारी को साहित्य के अतिरिक्त अन्य विषयों का भी थोड़ा-बहुत ज्ञान था। इसमें सबसे विशेष बात यह है कि उनकी पर्यवेक्षण दृष्टि बड़ी सूक्ष्म और पैनी थी। जो भी वस्तु उनकी दृष्टि से गुजरी, उसका उन्होंने तह तक निरीक्षण किया और अपने काव्य में यथावसर गूंथ दिया। भाषा पर उनका पूर्ण अधिकार था। शब्दों का चयन, वाक्य-विन्यास उनके असीम ज्ञान और अनुभव के सूचक हैं। अतः वे बहुत थे और उस बहुलता की अभिव्यक्ति करने की कौशल उनके पास था।

प्रश्न 8.
प्रमुख रीतिमुक्त कवियों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करिए।
उत्तर:
रीतिकाल में रीतिबद्ध रचना से पृथक् जिन कवियों ने अपना काव्य रचा उन्हें ही रीतिमुक्त कवि कहा गया। इस श्रेणी के निम्न प्रमुख कवि आते हैं

(1) आलम-आलम ब्राह्मण जाति के थे और शेख नामक रंगरेजिन से उनका विवाह हुआ था। इनका रचनाकाल भी विवादग्रस्त है। इनके प्रमुख काव्य ग्रन्थ-माद्यवानल काम कंदला, स्याम सनेही, सुदामा चरित्र और आलम केलि माने जाते हैं।

आलम स्वच्छन्द धारा के प्रेमोन्मत्त कवि थे, जिनमें प्रेम तन्मयता उच्च कोटि की थी और सूफी-फारसी भाव भूमि पर आधारित ‘प्रेम की पीर’ बड़ी ऊँची थी। वे प्रेम के कोकिल भी थे और पपीहे भी। भाव व्यंजनों के लिए जैसे-जैसे खण्ड वृत्तों की इन्होंने कल्पना की और रूप वर्णन के लिए जैसे-जैसे खण्ड दृश्य ये सामने लाये उनमें सच्ची भावुकता और सच्ची अनुभूति पाई जाती है।

आलम की भाषा शुद्ध, साहित्यिक, परिष्कृत, प्रवाह-माधुर्य, युक्त ब्रज ही है। ‘सुदामा चरित्र’ खड़ी बोली की कृति है। पूर्वी-पंजाबी का प्रयोग कहीं-कहीं दृष्टव्य है। यद्यपि ये अलंकार प्रेमी नहीं थे, तो भी इनके काव्य में अनूठी उत्प्रेक्षायें और अनुप्रास की निराली छटा मिलती है। शब्द-विधान भी उत्तम है। छन्दों में ‘दोहा’, ‘चौपाई’, ‘कवित्त-सवैया’ और कुछ ‘छप्पय’ भी उन्होंने प्रयोग किये हैं।

(2) बोधा-बोधा का जन्म जिला बाँदा के राजपुर में सरयूपारी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनका नाम बुद्धसेन था और ये पन्ना दरबार के राजकवि थे। उनके सम्बन्ध में ‘सुमान’ नामक वैश्या से विषय प्रेम की कथा भी प्रचलित है। सभी रीतिमुक्त कवियों की भाँति इनको रचनाकाल, जन्म-तिथि आदि सर्वमान्य नहीं हैं। आचार्य शुक्ल इनका रचनाकाले सं. 1830 से 1860 मानते हैं। इनका जन्म सं. 1804 माना जाता है।

इनके प्रसिद्ध ग्रन्थ-इनके प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘विरह वारिश’ और ‘इश्कनामा’ ही हैं। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने ‘विरही, सुमान, दंपति, विलास’ का भी उल्लेख किया है। इन काव्य-ग्रन्थों पर सूफी-फारसी शैली का प्रभाव है, किन्तु विरह-वर्णन भारतीय पद्धति पर है।

बोधा रसिक, प्रेमोन्मत्त, भावुक और विरही कवि थे। उनका काव्य भोगा हुआ यथार्थ है। इसमें प्रेम की सच्ची पीर थी। ये प्रेम के चकोर कम है कि हैं! ऐगी उ मग्न करने वाली उमंग थोड़े ही कवियों में मिलती है। बोधा में तेजस्विता भी थी और मनस्विता भी। उनमें निसन्देह अनियन्त्रित प्रेम की उमंग है जिससे प्रेम-वर्णन कहीं-कहीं निम्न स्तरीय बाजारू भी हो गया है।

संस्कृत, फारसी के ज्ञाता बोधा ने चलती, व्याकरण दोषयुक्त, मुहावरेदार, सरस ब्रजभाषा का चमत्कारविहीन प्रयोग किया है। थोथी आलंकारिकता से वे दूर हैं, ‘सोरठा’, ‘दोहा’, ‘बरवै’, ‘कवित्त’ आदि छंदों का प्रयोग इन्होंने किया है।

(3) घनानंद-रीतिमुक्त काव्य-धारा के सर्वश्रेष्ठ कवि घनानंद अब सभी के लिए पूर्ण परिचित हैं। इनकी रचनाओं में घनानंद, आनन्दघन कई नाम मिलते हैं। अभी तक उनका प्रामाणिक जीवन वृत्त उपलब्ध नहीं है। इनके बारे में यह कहा जाता है कि मुहम्मदशाह रंगीले के दरबार की सुजान नामक वैश्या पर ये आसक्त थे। उसी के कारण इनको निष्कासित होना पड़ा। ये वृन्दावन में जाकर बस गये। इनकी वैश्या प्रेमिका ने इनका साथ नहीं दिया, फलतः इनका प्रेमी हृदय टूट गया और निराश प्रेम को रहस्यात्मक झीने आवरण में ढक अलौकिक रंग में भी रंगने लगे।

इनकी रचनाओं के सम्बन्ध में भी पर्याप्त मतभेद हैं। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इनकी सभी प्रामाणिक रचनाओं का एक संकलन ‘घनानंद ‘ग्रन्थावली’ के नाम से सम्पादित किया है। इनका रचनाकाल भी सर्वमान्य नहीं है। कहीं सं. 1746-1818 तो कहीं सं. 1777 से 1817 माना जाता है।

घनानंद ने अपनी निजी लौकिक प्रेम की तन्मयता को ही काव्य विषय बनाया है, जिसमें व्यक्तिगत राग-विराग का चित्रण प्रेमिका सुजान के प्रति गम्भीर आकर्षण के रूप में प्रकट हुआ है। इनका सम्पूर्ण काव्य विरह प्रधान ही है। सरस तीव्र गहरी वेदना, पीड़ा को ठेस, अनुभूत विरहानुभूति उनके विरह में विद्यमान हैं।

यह कवि अपनी पीड़ा से रोया है। सरसे, तीव्र गहरी वेदना, पीड़ा को ठेस, मनोवेगों की नाना स्थितियों के साथ इनके काव्य में फूटी है। इसी कारण इनकी प्रेम-व्यंजना एवं विरह-वर्णन में हृदय की सच्ची तीव्र प्रेमानुभूति, उद्वेग-युक्त-उफान और सूक्ष्मातिसूक्ष्म एवं अनिवार्यवचनीय मानसिक व्यापारों का सरस-चित्रण विद्यमान है।

कला-पक्ष के क्षेत्र में भाषा की दृष्टि से आचार्य शुक्ल के अनुसार इनकी-सी विशुद्ध, सरस और शक्तिशाली ब्रजभाषा लिखने में और कोई कवि समर्थ नहीं हुआ। विशुद्धता के साथ प्रौढ़ता और माधुर्य भी अपूर्व ही है। लाक्षणिक प्रयोगों की दृष्टि से सम्पूर्ण ब्रजभाषा काव्य में आपका स्थान श्रेष्ठ है। विरोधाभास के आश्रय से उक्ति वैचित्र्य को सौन्दर्य जैसा आपके काव्य में निखरा है, वह भी दुर्लभ ही है।

(4) ठाकुर-लाला ठाकुरदास ‘ठाकुर’ रीतिस्वच्छन्द काव्यधारा के विख्यात कवि हैं। इनके पिता गुलाबराय ओरधेश के मुसाहिब थे। लाला भगवानदीन ने इनकी रचनाओं का संकलन ‘ठाकुरदसक’ नाम से सम्पादित किया है।

उनका जीवनकाल कहीं सं. 1823 से 1880 माना जाता है तो कहीं सं. 1850 से 1880। ठाकुर का कवित्व ही नहीं व्यक्तित्व भी ओजपूर्ण था। निश्छल और सच्ची प्रेममयी भावना, उनकी दृष्टि में पुरुषार्थ की प्रतीक थी। ये सच्चे रसिक, बड़े प्रेमी, सरस हृदयी, सुसंस्कृत रुचि सम्पन्न, मनमौजी, मस्ती भरे स्वभाव के धनी, उच्चादर्शी, आत्मसम्मानी, लोक व्यवहार में कुशल, स्वामिभक्ति में निपुण, दूरदर्शिता में गुणी, वाक् चातुरी में सिद्धहस्त और सच्चे मानवता के पुजारी थे। जहाँ एक ओर प्रेमादर्श की उच्चता में निपुण, सहृदय एवं ईश्वर भक्त थे, वहाँ साहसयुक्त अक्खड़पन, अहंभाव युक्त उद्दण्डता की भी छाप उन पर विद्यमान थी।

ठाकुर सच्ची उमंग के कवि थे, स्वाभाविक, सहज लोकानुभूति, नितान्त स्वच्छन्द, स्पष्ट और सरल ढंग से उन्होंने राष्ट्र-बद्ध कर दी है। इनकी भावुकता एवं सहृदयता विलक्षण है। इसी से आपके प्रेम-रस लिप्त सवैये बड़े लोकप्रिय हुए। लोकभाषा समन्वित ब्रज का सर्वथा अकृत्रिम व्यावहारिक, प्रचलित कोमल भावाभिव्यंजना से सक्षम सरस रूप आपके सवैयों में देखा जा सकता है। लोकोक्तियों कहावतों और मुहावरों में भरपूर व्यंजना से काव्य में निखार आ गया है। वास्तव में ठाकुर प्रेम पारखी भी हैं और लोकदर्शी भी। भाषा, भाव, व्यंजना, प्रवाह-माधुर्य- किसी भी विचार से ठाकुर का कोई भी कवित्त’ ! सवैया पढ़ते ही हृदय नाच उठता है।

प्रश्न 9.
रीतिकालीन काव्य की प्रमुख विशेषताओं का संक्षेप में उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
रीतिकालीन काव्य की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं

  1. रीति-ग्रन्थों की रचना-इस काल के कवियों ने संस्कृत का आधार लेकर रीति या काव्य-लक्षणों को काव्य-रचना का विषय बनाया।
  2. कवि और आचार्य बनने की अभिलाषा-इस युग के कवियों में कवित्व और आचार्यत्व, दोनों प्रदर्शित करने की प्रवृत्ति दिखाई देती है।
  3. श्रृंगार रस का प्राधान्य-रीतिकाल के कवियों का प्रिय विषय श्रृंगार ही रहा। श्रृंगार के उत्कृष्ट और निकृष्ट, दोनों स्वरूपों के दर्शन इस युग की रचनाओं में उपस्थित हैं।
  4. अतिश्योक्ति और चमत्कारपरक-रीतिकालीन कवियों ने अतिश्योक्तिपूर्ण विरह-वर्णन तथा चमत्कार-परक उक्तियों को विशेष स्थान दिया।
  5. रीतिमुक्त काव्य-रचना-इस काल के अनेक कवियों ने लीक से हटकर मार्मिक काव्य की सृष्टि की। घनानंद, बोधा, आलम आदि की रचनाएँ श्रृंगार और प्रेम के हृदयस्पर्शी निष्कलुष चित्र प्रस्तुत करती हैं।
  6. वीर रसात्मक काव्य-घोर श्रृंगारिक वातावरण में भी वीर रस की हुँकार सुनाने वाले भूषण, सूदन तथा लाल आदि कवि इस काल में हुए।
  7. कला-पक्ष की प्रधानता-रीतिबद्ध तथा रीतिसिद्ध कवियों ने काव्य के कला-पथ को सँवारने में ही विशेष परिश्रम किया। भाव-पक्ष का सौन्दर्य केवल रीतिमुक्त काव्य में ही लक्षित होता है।
  8. भाषा और शैलीगत वैशिष्ट्य-रीतिकाल में ब्रजभाषा में अभिव्यक्ति, सामर्थ्य और लालित्य का परम उत्कर्ष हुआ। इस काल के कवियों ने मुक्तक शैली का चरम विकास प्रस्तुत किया।

प्रश्न 10.
रीतिकालीन काव्य की रीतिबद्ध एवं रीतिमुक्त काव्यधारा के अन्तर पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
रीतिकाल मुगल शासन के पतनोन्मुखी अवस्था का समय था। देशी राजागण विलास मग्न और दरबार लगाने वाले रह गये थे। कविगण भी ‘जिसका खाना उसका गाना’ की प्रवृत्ति से ग्रसित होकर काव्य को आश्रयदाताओं के मनोरंजन की सामग्री बना चुके थे। दक्षिणा और प्रशंसा के लोभ में चमत्कारिक और अतिश्योक्तिपूर्ण काव्य-रचना ही अधिकांश कवियों का लक्ष्य बन गया था। ऐसे परिवेश। में किसी लोकमंगल की भावना से प्रेरित काव्य के सृजन की अपेक्षा कैसे की जा सकती थी। फलस्वरूप कविगण पाण्डित्य और आचार्यत्व के प्रदर्शन हेतु काव्य-रचना में प्रवृत्त हुए। रीति या लक्षण ग्रन्थों की रचना द्वारा ही यह अभिलाषा पूर्ण हो सकती थी। अतः जिन कवियों ने रीति या लक्षण ग्रन्थों की रचना की उनको रीतिबद्ध कवि कहा गया।

रीतिबद्ध कविगणों ने संस्कृत की परम्परा पर रस, गुण-दोष, नायिका-भेद, नख-शिख वर्णन तथा अलंकार आदि के लक्षणों के निरूपण के लिए काव्य-रचना की। इनका काव्य रसवर्षी न होकर चमत्कारपूर्ण काव्योक्तियों का संग्रहालय बन गया। केशव और चिन्तामणि इसी वर्ग के कवि हैं।

इस प्रदर्शन और पाण्डित्य की स्पर्धा से दूर कुछ ऐसे भी कवि थे जो स्वच्छन्द रूप से रसपूर्ण काव्य का सृजन कर रहे थे। इनका काव्य-विषय भी श्रृंगार था किन्तु वह मात्र देह-मूलक वासना के उत्तेजित करने वाला श्रृंगार न होकर, आत्मा का स्पर्श करने वाला, संयत और रसमग्न कर देने वाला श्रृंगार था। घनानंद इन रीतिमुक्त कवियों में अग्रणी हैं। इनकी कविता हृदय की गहराई में उतरती चली जाती है। ‘प्रेम की पर’ के गायक इन कवियों में अन्य नाम आलम, बोधा, ठाकुर आदि हैं। रीतिमुक्त कवियों को किसी आश्रयदाता की प्रसन्नता के लिए काव्य-रचना नहीं करनी थी। हृदय में उमड़ते भावों को अपने प्रिय या इष्ट को लक्ष्य करके सुनाना था। यही कारण है। कि रीतिमुक्त काव्य रीतिगत जड़ता से मुक्त सहृदयों को आल्हादित करने वाला काव्य है।

नामकरण-संस्कृत के आचार्य वामन ने कहा है-‘विशिष्टा पदरचन रीतिः।’ अर्थात् विशेष प्रकार की पद रचना ही रीति है। रीतियाँ वैदर्भी, गौड़ीय तथा पांचाली तीन प्रकार की मानी गई थीं। हिन्दी में ‘रीति’ शब्द का प्रयोग परम्परागत अर्थ में न होकर रस, छन्द, अलंकार, शब्द-शक्ति, नायिका-भेद आदि के निरूपण के अर्थ में प्रचलित हो गया।

सन् 1643 ई. से 1843 ई. तक के समय का नामकरण मतभेदयुक्त रहा है। मिश्र बन्धुओं ने अलंकृत काल कहा क्योंकि इस काल के कवियों को अलंकारों के प्रयोग में विशेष रुचि थी। विश्वनाथ प्रसाद इसे ‘ श्रृंगार काल’ नाम देना चाहते हैं। आचार्य शुक्ल ने इसे ‘उत्तर:मध्यकाल’ अथवा ‘रीतिकाल’ नाम दिया। रीति ग्रन्थों की रचना अधिक होने से यह नाम अधिक समीचीन प्रतीत हुआ और प्रचलित हो गया।

रीतिबद्ध एवं रीतिमुक्त काव्य-रीतिकालीन कवियों को समालोचकों ने रीतिबद्ध तथा रीतिमुक्त दो भागों में बाँटा है। जिन कवियों ने रीति के नियमों में बँधकर रचनाएँ कीं, वे रीतिबद्ध कवि कहलाये। जिन्होंने स्वयं को रीति से मुक्त रखकर मार्मिक रसपूर्ण रचनाएँ कीं, वे रीतिमुक्त कवि कहलाये।

रीतिकालीन परिस्थितियाँ-साहित्य के निर्माण में उस युग के वातावरण का विशेष योगदान होता है।

अत: किसी भी काल की साहित्यिक गतिविधियों को यथार्थ रूप से समझने के लिए उस समय की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक कलात्मक और साहित्यिक परिस्थितियों का अध्ययन आवश्यक होता है। इस कारण यदि रीतिकाल का अध्ययन करना है तो उसकी प्रेरक परिस्थितियों का अध्ययन भी आवश्यक है।

तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियाँ :–हिन्दी साहित्य में रीतिकाल संवत् 1700 से 1900 तक माना जाता है। इस समय में निरंकुश राजतन्त्र का बोलवाला था। अकबर के बाद उत्तराधिकारियों ने राज्य के सम्बन्ध में कोई विशेष योगदान नहीं किया। उसकी सुरा और सुन्दरी के प्रति अदम्य लोलुपता और असन्तुलित लालसा उसके उत्तराधिकारियों को विरासत में मिली।

औरंगजेब की मृत्यु पश्चात् केन्द्र की राजसत्ता ढीली पड़नी शुरु हो गई थी। उसके साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हो गया था। अनेक देशी राजा स्वतन्त्र आचरण करने लगे थे। अंग्रेजों ने धीरे-धीरे भारत पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था। राजमहल आनन्द-प्रमोद और भोग-विलास के केन्द्र बन गए थे। रीति कालीन काव्य पर इसका असर पड़ना स्वाभाविक था। इसलिए इस काल के साहित्य पर भोग विलास और तज्जन्य सौन्दर्य बोध का गहरा प्रभाव पड़ा। भूषण जैसे कुछ ही कवि थे जिन्होंने वीर रस की रचना कर जनता के स्वाभिमान को जगाने की चेष्टा की थी।

सामाजिक परिस्थिति-बादशाहों और राजाओं की विलास लिप्सा और वैभवप्रियता का सामन्त्रीय जीवन पर भी पर्याप्त प्रभाव पड़ा। अमीर-उमराव और सामन्त जनता का शोषण करते थे। उनसे लिए कर से भोग विलास के साधन एकत्र करते थे। राजाओं में ही नहीं सामन्तों और अभिजात्य वर्ग में बहुपत्नीत्व का चलन था। नारी के प्रति सम्मान का भाव नहीं रह गया था। गरीब जनता अकाल महामारियों से तो त्रस्त थी ही, सामन्तों के शोषण की चक्की में भी पिस रही थी। अंधविश्वास बढ़ रहे थे। राष्ट्रीयता की भावना लुप्त प्रायः हो गई थी। इसीलिए रीतिकाल के लेखक में भी समाज और राष्ट्र के प्रति लगाव के दृष्टिकोण का भाव अत्यन्त न्यून मात्रा में ही दिखाई देता है।

धार्मिक परिस्थितियाँ-इस युग में सभ्यता और संस्कृति का ह्मस हो रहा था। नैतिकता का अभाव हो रहा था। अन्धविश्वास, रूढ़ियाँ और बायोडम्बर ही धर्म कहलाते थे। राधा और कृष्ण की भक्ति की सात्विकता का स्थान स्थूल ऐंद्रियकता और श्रृंगारिकता ने ले लिया था। भक्तिकाल में राधा कृष्ण के प्रेम का आध्यात्मिक तत्व लुप्त प्रायः हो गया था।

कलात्मक एवं साहित्यिक परिस्थितियाँ-मुगलकाल के दौरान शिल्पकला, चित्रकला और संगीत कला ने पर्याप्त प्रगति की थी। परन्तु जीवन के अन्य क्षेत्र के समान कलाक्षेत्र में भी प्रदर्शन की ही प्रमुखता रही। इन सभी कलाओं में उस युग की सभी प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं। परम्पराबद्ध शैली, अलंकार की अतिशयता, चमत्कीरवृत्ति, रोमानी वातावरण की सृष्टि करना, कला और साहित्य सभी क्षेत्रों में दृष्टिगोचर हो रही थी।

रीतिकाल की सामान्य प्रवृत्तियाँ

  1. अधिकांश कवि राज्याश्रित-रीतिकाल के अधिकांश कवि राज-दरबारों में रहते थे। आश्रयदाताओं का मनोरंजन करनी ही इनका काम था। इसी कारण समाज से दूर केवल स्वामियों के विलास में सहयोग देने वाली श्रृंगारमयी रचनाएँ इन कवियों ने प्रस्तुत
  2. श्रृंगार-प्रधान काव्य-आश्रयदाताओं से धन और सम्मान पाने के लिए सभी कवि घोर श्रृंगारिक काव्य रचनाओं में लीन थे। श्रृंगार के वियोग-संयोग, दोनों पक्षों का विस्तार से वर्णन इस काल में हुआ। यह श्रृंगार-वर्णन कहीं-कहीं अश्लीलता के स्तर तक भी पहुँच गया है।
  3. आचार्य बनने की होड़-रीति-ग्रन्थों की रचना करके सभी कवि आचार्य बनने की होड़ में लगे हुए थे। काव्यांगों के लक्षण रूप में ही कविता रची जा रही थी। बिहारी, मतिराम तथा केशव ऐसे ही कवि थे। घनानन्द, बोधा आदि कुछ कवियों ने स्वतन्त्र रचनाएँ भी की।
  4. वीर रस के कवि-रीति और श्रृंगार के कोमल संगीत के बीच वीर रस की तलवारों की झंकार गुंजाने वाले कुछ कवि भी इस काल में हुए। भूषण, सूदन, लाल आदि ऐसे ही रचनाकार थे। कवि भूषण ने वीर शिवा के चरित्र का आश्रय लेकर श्रृंगार के पंक में डूबती सरस्वती का उद्धार किया।
  5. मुक्तक काव्य-रीतिकाल में अधिकांश कवियों ने मुक्तक रचनाएँ ही प्रस्तुत कीं। ‘दोहा,”सोरठा’, ‘कवित्त’ और ‘सवैया’ में एक सम्पूर्ण छवि और दृश्य को अंकित कर देने की कला का खूब विकास हुआ।
  6. रस-योजना-रीतिकाल का प्रधान रस श्रृंगार था। उसके अंग-उपांगों का सूक्ष्म में सूक्ष्म वर्णन-विश्लेषण रीतिकालीन कवियों ने किया। संयोग और वियोग, दोनों पक्षों का विस्तार से आयोजन किया गया। केवल भूषण, सूदन और लाल कवियों ने वीर रस को अपनी लेखनी का विषय बनाया।
  7. छन्द-विधान-इस युग के ‘छन्द’, ‘सवैया,’ ‘दोहा’ आदि हैं जोकि मुक्तक काव्य के सर्वथा अनुकूल हैं।
  8. अलंकार-यह युग कविता के कलापक्ष की प्रधानता का युग था, अत: अलंकारों का प्रयोग मुक्त हृदय से किया गया है। अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन करने की इच्छा से अलंकारों का अनावश्यक प्रयोग भी किया गया है।
  9. भाषा-रीतिकाल की काव्य-भाषा ब्रज-भाषा है। रीतिकालीन कवियों ने ब्रजी को जो लालित्य और सामर्थ्य प्रदान किया, वह निश्चय ही प्रशंसनीय है।
  10. शैली-अधिकांश कवियों ने मुक्तक रचना-शैली को अपनाया है। भाव की अपेक्षा कला-पक्ष को प्रधानता दी है। अतिशयोक्ति और चमत्कारपूर्ण उक्तियों को पर्याप्त महत्त्व दिया गया है।

यदि विषय की संकीर्णता और उद्देश्य की क्षुद्रता पर ध्यान न दिया जाय तो रीतिकालीन काव्य ने भाव और कला का विशाल चित्रफलक प्रस्तुत किया है। भाषा की अर्थवत्ता और लालित्य का विकास, निश्चय ही रीतिकालीन कवियों के पक्ष में जाता है।

रीतिकाल की प्रमुख धाराएँ-रीतिकालीन कवियों को स्पष्ट रूप से दो भागों में रखा जाता है-रीतिबद्ध और रीतिमुक्त।

प्रमुख रीतिबद्ध कवि
(1) चिन्तामणि त्रिपाठी-इनको रीतिकाल का प्रवर्तक आचार्य माना जाता है। चिन्तामणि ने रीति में सभी अंगों का निरूपण किया। कुछ लोग इन्हें भूषण का भाई मानते हैं। चिन्तामणि में ‘रस-विलास’, ‘छन्द-विचार’, ‘श्रृंगार-मंजरी’, ‘काव्य प्रकाश’; ‘कवित्त-विचार’ आदि ग्रन्थ रचे। चिन्तामणि ने एक रीति के आचार्य की भूमिका सफलता से निभाई। इन्होंने संस्कृत के काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों का अनुवाद ही ब्रज भाषा में किया। आप कोई मौलिक स्थापना नहीं कर पाये।

(2) कुलपति मिश्र-ये माथुर चौबे थे और जयपुर के राजा रामसिंह के आश्रय में रहते थे। इनके ‘रस-रहस्य’, ‘संग्राम-सार’ तथा ‘दुर्गा-भक्ति’ तीन ग्रन्थ ही प्राप्त हैं। इन पर काव्य प्रकाश, साहित्य दर्पण तथा केशव का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।

(3) देव-देव रीतिकालीन कवियों में विशेष स्थान रखते हैं। इनका जन्म इटावा के ब्राह्मण परिवार में हुआ था। ये बहुत स्वाभिमानी थे, अत: इनके आश्रयदाता निरन्तर बदलते रहे। आलमशाह, भवानीदत्त, राजा कुशलसिंह, राजा मांगीलाल, राजा उद्योत सिंह आदि के आश्रय में आप रहे। देव ने ‘काव्यशास्त्रीय तथा विशुद्ध काव्य ग्रन्थ दोनों की ही रचना की। भाव-विलास’, ‘भवानी-विलास’, ‘प्रेमतरंग’, ‘कुशल-विलास’, ‘रस-विलास’, ‘प्रेमचन्द्रिका’, ‘सुजान-विनोद’ आदि देव की रचनाएँ हैं।

देव ने अलंकार आदि की स्पष्ट और सरल परिभाषाएँ दी हैं। फिर भी देव आचार्य की अपेक्षा एक कवि के रूप में ही महत्वपूर्ण हैं। आपका वर्ण्य-विषय’ श्रृंगार रस’ है। देव में कल्पना की ऊँची उड़ान है, भावों की कोमलता है, वचनवक्रता है।

(4) भिखारीदास-भिखारीदास का जन्म प्रतापगढ़ के टोंगा’ नामक गाँव में कायस्थ कुल में हुआ था। ये अनेक राजाओं के आश्रय में रहे। इनके रचे हुए सात ग्रन्थ माने गये हैं। ‘रस-सारांश’, ‘काव्य-निर्माण’, ‘श्रृंगार-निर्णय’, ‘छन्दोर्णव पिंगल’ ये चार रीति ग्रन्थ हैं। इनके अतिरिक्त, ‘शब्द-नाम काव्य’, ‘विष्णु-पुराण भाषा’ तथा ‘शतरंज-शतिका’ तीन काव्य ग्रन्थ हैं।

(5) मतिराम-मतिराम का जन्म उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जनपद में स्थित ‘वनपुर’ नामक ग्राम में हुआ था। मतिराम जहाँगीर, बूंदी नरेश मानसिंह हाड़ा, कुमायूँ के राजा ज्ञानचन्द, श्रीनगर (बन्देलखण्ड) के राजा स्वरूप सिंह बघेला आदि के आश्रय में रहे। इन्होंने ‘फूल में जरी’, ‘लक्षण-श्रृंगार’, ‘साहित्यसार’, ‘रसराज़’, ‘ललित-ललाम’, ‘सतसई’, ‘अलंकार’, ‘पंचाशिका’ और ‘वृत-कौमुदी’ आठ ग्रन्थों की रचना की। मतिराम ने श्रृंगार को रसराज मानकर उसी का वर्णन किया है।

(6) भूषण-भूषण रीतिकाल के घोर श्रृंगारी वातावरण में भी जल में कमल के समान सबसे अलग खड़े दिखाई देते हैं। वीर रस को रचना का विषय बनाकर उन्होंने अनेक वीर पुरुषों के पराक्रम की वन्दना की है। आप शिवाजी, शाहूजी, छत्रसाल आदि राजाओं के आश्रय में रहे। इन्होंने शिवाजी की प्रशंसा में ‘शिवा बावनी’ तथा छत्रसाल की प्रशंसा में ‘छत्रसाल दसक’ की रचना की। इनकी भाषा में वीर रस के अनुकूल’ओज’ है। शब्द चयन रस और भावानुकूल है। भाव को तीव्रता देने के लिए शब्दों के रूपों में भी परिवर्तन किया है। भूषण की वर्णन शैली वीर रस के सर्वथा उपयुक्त है। अतिश्योक्तिपूर्ण तथा आलंकारिक शैलियों में प्रताप तथा युद्ध का वर्णन श्रोता की भुजाओं की तरंगित कर देने वाले हैं।

शब्दालंकारों तथा अर्थालंकारों का प्रयोग बड़ा प्रभावशाली है। एक उदाहरण दर्शनीय है-

“प्रति भट कटक कटीले केते काटि-कोटि,
कालिका सी किलकि कलेऊ देत काल को।”

(7) सेनापति–इनका प्राप्त ग्रन्थ ‘कवित्त रत्नाकर’ है। इस ग्रन्थ में कवि ने अलंकार, श्रृंगार, षट्ऋतु, रामायण आदि पर कवित्त रचना की है। ऋतु-वर्णन में सेनापति सर्वोपरि हैं। इन्होंने प्रकृति का स्वाभाविक वर्णन किया है। प्रकृति इनके काव्य का वर्ण्य-विषय बन कर आई है, उद्दीपन बनकर नहीं। ग्रीष्म ऋतु का एक दृश्य प्रस्तुत है-

“वृर्ष कौ तरनि तेज सहसौ किरनकरि।
ज्वाले के समूह विकराल बरसत हैं।”
x        x       x
“मेरी जानि पौनों सीरी ठौर को पकरि कौनौं।
घरी एक बैठि कहूँ घामें चितबत है।”

(8) पुमाकर-पद्माकर का जन्म मध्य प्रदेश के ‘सागर’ जिले में हुआ था। आप तैलंग ब्राह्मण थे। आप पद्माकर सागर, जैतपुर, दतिया, जयपुर, ग्वालियर आदि स्थानों में रहे। पद्माकर आचार्यत्व और कवित्व दोनों के सफल निर्वाहकर्ता माने जाते हैं।

पद्माकर ने ‘पद्माभरण’ और ‘जगविनोद’ दो रीति ग्रन्थों की रचना की। अनेक राजाओं की प्रशंसा में ग्रन्थ रचे तथा फुटकर रचनाएँ भी कीं। आपकी रचनाओं के विषय भक्ति, प्रकृति तथा आश्रयदाताओं की वीरता आदि हैं।
(9) जसवंतसिंह-जोधपुर के राजा गजसिंह के पुत्र महाराणा जसवंतसिंह अलंकार में आचार्य्यत्व का सम्मान प्राप्त किये हैं। आप कुशल राजनीतिक तथा साहित्य प्रेमी थे। इन्होंने भाषा-भूषण’ नामक ग्रन्थ की रचना की है। यह नायिका-भेद, अलंकार तथा वृत्ति आदि पर लिखा गया ग्रन्थ है। एक ही छन्द में लक्षण तथा उदाहरण दोनों दिये गये है।

(10) कवि गंग (1538 से 1617 ई.)-गंग अकबर के दरबारी कवि थे। इनका समय 16 वीं शती रहा होगा। आचार्य शुक्ल ने अपने ग्रन्थ ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास में इनकी गणना भक्ति काल के कवियों में की है परन्तु इनकी रचना पद्धति रीति काल की सी है इसलिए ये रीति काल के ही कवि ठहरते हैं। अकबर के दरबारी कवि रहीम इनके परम मित्र थे। इनका कोई ग्रन्थ तो नहीं मिलता परन्तु समकालीन और परवर्ती कवियों में इनका नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। कहा भी गया है-‘तुलसी गंग दुऔ भए सुकविन के सरदार।’

(11) बिहारीलाल-दोहा छंद की लघुकाय गागर में अर्थगाम्भीर्य का सागर भर देने वाले, भाषा के कुशल शिल्पी, कविवर बिहारीलाल सदा से लोकप्रियता के शिखर पर विराजते आ रहे हैं। रीतिकालीन काव्य की सभी प्रवृत्तियाँ इनके काव्य में कलात्मकता से प्रतिबम्बित हुई हैं।

जीवन-परिचय–बिहारलाल का जन्म ग्वालियर के ‘गोविन्दपुर’ नामक ग्राम में सन् 1603 ई. में हुआ था। बिहारी की ससुराल मथुरा में थी। कहते हैं कि यह माथुर चौबे थे। इनकी युवावस्था ससुराल में व्यतीत हुई। अध्ययन और अभ्यास से पुष्ट होकर ये जयपुर के राजा जयसिंह के दरबारी कवि बन गये।

जनश्रुति है कि राजा जयसिंह अपनी नवविवाहिता पत्नी में अत्यधिक आसक्त थे। राजकाज की भी उपेक्षा का रहे थे। किसी का साहस न था कि राजा को समझाये। कहते हैं कि कवि बिहारी ने एक दोहा राजा के पास भिजवाया

“नहिं परागु, नहिं मधुर मधु, नहिं विकासु इहिं काल।।
अली, कली ही सौं बन्ध्यों, आगै कौन हवाल॥”

राजा जयसिंह इस दोहे से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने बिहारी को पर्याप्त सम्मान दिया। इस दिन से बिहारी प्रतिदिन एक दोहा रचकर राजा को सुनाने लगे और प्रत्येक दोहे पर स्वर्ण-मुद्रा की भेंट पाने लगे। आश्चर्य है कि जिस बिहारी ने राजा जयसिंह को विलास के जाल से मुक्त कराया था, उसी ने सम्मान और पुरस्कार की अभिलाषा में घोर ‘ श्रृंगारमयी’ ‘सतसई’ की रचना की।

बिहारी की पत्नी का नाम राधा बताया जाता है। पत्नी की मृत्यु के पश्चात् बिहारी की रसिकता ने भक्ति-वैराग्य का उत्तरीय धारण कर लिया। सम्भवत: इसी कारण कुछ भक्ति और वैराग्य सम्बन्धी दोहे भी उनकी ‘सतसई’ में प्राप्त होते हैं। बिहारी का देहावसान सन् 1663 ई. में हुआ।

साहित्यिक परिचय-बिहारी लाल विलक्षण काव्य-प्रतिभा के धनी थे। आप स्वभाव से रसिक थे। आपकी ‘सतसई’ आपके विशद अध्ययन, सूक्ष्म निरीक्षण और भाषा पर पूर्ण अधिकार की परिचायिका है। रीतिकालीन काव्य की सभी प्रवृत्तियों का परिमार्जित और ललित स्वरूप बिहारी की रचनाओं में उपस्थित है।

रचनाएँ-बिहारीलाल की एकमात्र प्रामाणिक रचना ‘सतसई’ है। इसमें 719 दोहे तथा सौरठे संगृहीत हैं। ‘सतसई’ श्रृंगार-प्रधान मुक्तक काव्य है। दोहा काव्य का सिद्ध छंद है। कवि की बहुज्ञता के परिचायक अनेक दोहे नीति, धर्माचरण, ज्योतिष, राजनीति, माक-शास्त्र आदि पर भी प्राप्त होते हैं। बिहारी सतसई’ बहुत लोकप्रिय ग्रन्थ रहा है। इसकी सर्वाधिक टीकाएँ हुई हैं। ‘रामचरितमानस के पश्चात् यही ऐसी रचना है जिसका प्रचार-प्रसार अत्यधिक रहा है।

काव्यगत विशेषताएँ-बिहारी का काव्य भाव-पक्ष और कला-पक्ष, दोनों ही दृष्टि से श्रेष्ठ है। रीतिकालीन काव्य की सभी विशेषताएँ उनकी रचनाओं में उपलब्ध हैं।

(क) भाव-पक्षीय विशेषताएँ

(1) रचना-क्षेत्र-बिहारी प्रधानतया श्रृंगार रस के कवि हैं। आपकी ‘सतसई’ में ‘नख-शिख वर्ण’,’नायिका-भेद’, ‘संयोग’ एवं ‘वियोग’ श्रृंगार-सभी का समाहार है। इसके अतिरिक्त नीति और भक्तिपरक रचनाएँ भी अल्प मात्रा में विद्यमान हैं। यथा

मीत न नीति गलीत है, जो धरिए धन जोर।
खाये खरचे जो बचै, तो जोरिए करोर॥” (नीति)
x        x       x
जो विरियाँ नहिं और की, तू किरिया वह सोधि।
पाहन नाव चढ़ाई जिन, कान्हेसि पर पयोधि॥” (भक्ति )

(2) प्रकृति चित्रण-ऋतु-वर्णन भी रीतिकालीन काव्य की एक विशिष्टता है। रीतिकालीन कवियों ने प्रकृति को प्रायः उद्दीपन रूप में ही भ्रमण किया है। बिहारी ने प्रकृति का आलम्बन और उद्दीपन, दोनों रूपों में ही वर्णन किया है। यथा

रनित भंग घण्टावली, झरित दान मधु नीर।
मंद-मंद आवत चल्यौ, कुंजर कुंज समीर॥”
x        x       x
“छकि रसाल सौरभ सने, मधुर माधवी गंध।
ठौर-ठौर झूमत झपत, भौर झऔर मद अंध॥”

(3) आकर्षक रस-योजना-बिहारी के काव्य का प्रधान रस श्रृंगार है। श्रृंगार के संयोग और विप्रलम्भ, दोनों ही पक्षों का सफलता से वर्णन हुआ है। यथा

वतरस-लालच लाल की, मुरली धरी लुकाई।।
सौंह करै भौंहनु हंसे, दैन कहै नटि जाइ॥” (संयोग)

(4) अनुभावों की मनोहारी व्यंजना-अनुभावों के प्रस्तुतीकरण में बिहारी अत्यन्त कुशल हैं। दोहे की छोटी-सी काया में उन्होंने अपने नायक-नायिकाओं के अनुभावों का सजीव चलचित्र ही प्रस्तुत कर दिया है। यथा

कर लै, चूमि, चढ़ाइ सिर, डर लगाइ, भुज भेटि।
लहि पाती पिय की लखति, बांचति, धरति समेटि॥”

संयोग श्रृंगार की कैसी सहज अनुभाव-व्यंजना है।

(5) ऊहात्मक विरह-वर्णन-रीतिकालीन परम्परा का निर्वाह करते हुए बिहारी ने अनेक स्थलों पर अत्युक्तिपूर्ण विरह-वर्णन करते हुए अपनी कौतुक-प्रियता का भी प्रदर्शन किया है। यथा

“करी बिरह ऐसी, तऊ गैल न छाँड़तु नीचु।
दीनैं हूँ चसमा चखनु, चाहै लहै न मीचु॥”

विरहिणी दुर्बलता के कारण अणुवीक्षणीय स्थिति को प्राप्त हो गयी है।

(6) बहुज्ञता का प्रदर्शन-पाण्डित्य और बहुज्ञता का प्रदर्शन करना भी रीतिकालीन काव्य परम्परा का अंग था। बिहारी भी उसके अपवाद नहीं हैं। अनेक विषयों से अपने सुपरिचय का प्रमाण वह स्थान-स्थान पर देते हैं। यथा

“ललन, सलोने अरु रहे, अति सनेह सौं पागि।
तनक कचाई देत दुःख सूरन लौं मुँह लागि॥” (पाकशास्त्रीय)
x        x       x
“मंगल बिन्दु सुरंगु, मुख ससि केसर आउ गुरु।।
इकनारी लहि सुंग, रसमय किष लोचन जगत ॥” (ज्योतिष-ज्ञान)
दुसह दुराजु प्रजानु कौ, क्यों न बढ़े दुःख द्वंद्व।।
अधिक अँधेरौ जग करें, मिलि मावस रवि चन्द॥” (राजनीति-ज्ञान)

(7) उक्ति-वैचित्र्य-काव्य-कौतुक का एक स्वरूप चमत्कारिक उक्तियों का प्रयोग भी है। बिहारी इसमें भी निपुण हैं। यथा”करौ कुबत जगु, कुटिलता तजौं न, दीनदयाल।” कवि ने कुटिलता जैसे दुर्गुण को भी अपने वागवैद्ग्ध्य और उक्ति-वैचित्र्य से ग्रहणीय गुण बना दिया है।

(8) सौन्दर्य और प्रेम के चितेरे-कवि बिहारी रसिक कवि हैं। उन्होंने मानवीय सौन्दर्य का बड़े निकट से और सूक्ष्मता से निरीक्षण किया है। यही कारण है कि ‘सतसई’ में विशेष रूप से नारी-सौन्दर्य के विविध चित्रों की प्रदर्शनी लगी हुई है। गौरवर्णा नायिका का सौन्दर्य निरूपण दर्शनीय है

अंग-अंग-नंग जगमगत, दीप सिखा सी देह।
दिया बढ़ाएँ हूँ रहै, बड़ी उज्यारौ गेह॥”

और प्रेम भाव का एक चित्र देखिए-

कंज-नयनि मंजनु किए, बैठी ब्योरति बार।
कच-अँगुरी-बिच दीठि है, चितवति नंदकुमार।”

(ख) कलापक्षीय विशेषताएँ।
(1) भाषा-वैदग्ध्य–बिहारीलाल का ब्रज-भाषा पर असाधारण अधिकार है। तभी तो वह दोहे की गागर में सागर भर सके हैं। भाव और चेष्टा के अनुकूल सटीक शब्दावली सहज रूप से उनकी रचना में उपस्थित हुई है। यों तो बिहारी की भाषा ब्रजी है किन्तु उसमें भाव-प्रकाशन की सम्पूर्णता के निमित्त अन्य भाषाओं के शब्द भी सहज रूप से प्रयोग में लाये गये हैं। चश्मा, आरसी, पायन्दाज, निशान आदि ऐसे ही शब्द हैं।

बिहारीलाल ने लोकोक्तियों और मुहावरों के प्रयोग द्वारा कथ्य को प्रभाव, सक्षम और पैना बनाया है। एक ही दोहे में चार मुहावरों का गुंफन दर्शनीय है

मूड़ चढ़ाएँऊ रहै, पर्यौ पीठि कच-भारु।
रहैं गर्दै परि राखिबौ तऊ हियँ पर हारु॥”

लाक्षणिकता और व्यंजना, बिहारी के काव्य के प्राण हैं। उनके भाषा-वैभव का रहस्य है। व्यंजना शक्ति का एक उदाहरण देखिए।

सुनत पथिक-मुँह, माह-निसि, चलति लुर्वै उहिं गाम।।
बिनु-बूझै, बिनु कहैं जियति बिचारी बाम॥”

(2) शैली-सौन्दर्य–बिहारी ने मुक्तक काव्य-शैली को अपनाया है। उनका दोहा एक सम्पूर्ण आयोजना है। उनकी काव्य-रचना की अनेक शैलियाँ हैं। वर्णनात्मक शैली में उन्होंने शब्द-चित्रों का अपूर्व वैभव प्रस्तुत किया है। उसमें रूप और चेष्टाओं के साथ-साथ भावानुभावों का सौन्दर्य भी प्रतिभासित है।

पिय कै ध्यान गही गही, रही वही है नारि।
आपु आपु हीं आरसी, लखि रीझति रिझवारि॥”

इसके अतिरिक्त आलंकारिक, भावप्रवण तथा सूक्ति शैली को ही उन्होंने सिद्धहस्तता से प्रयोग किया है।

(3) चमत्कार-प्रदर्शन-उक्ति की विचित्रता द्वारा पाठक को चमत्कृत करने की कला भी, बिहारी भली प्रकार से जानते हैं। शिकारी द्वारा हरिणों का शिकार तो कोई भी कवि करा सकता है परन्तु हिरणों द्वारा ‘नागर नरों’ का शिकार करना बिहारी ही का कौशल है

“खेलन सिखए, अलि, भलैं, चतुर अहेरी मार।
कानन-चारी नैन-मृग, नागर नरनु सिकार॥”

(4) अलंकार-वैभव-अलंकारों का पूरा और साधिकार उपयोग बिहारी ने किया है। प्रमुख और अप्रमुख अलंकारों के मनचाहे उदाहरण बिहारी की रचनाओं में उपस्थित हैं। अनुप्रास, यमक, श्लेष, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अन्वय, असंगति, व्यतिरेक, सन्देह, भ्रान्तिमान, विरोधाभास, मानवीकरण, दृष्टान्त तथा सांगरूपक के एक से एक सुन्दर उदाहरण पाठक पा सकते हैं।

(5) छंद-बिहारी ने केवल ‘दोहा’ और ‘सोरठा छंद’ को ही अपने काव्य-कौशल का माध्यम बनाया है। दोहा उनका सिद्ध छंद है। गागर में सागर भरने का यश उनके दोहों ने ही उनको दिलाया है। जिन भावों और घटनाओं के चित्र अंकित करने के लिए अन्य कवियों ने आठ-आठ पंक्तियों में छंदों का प्रयोग किया है, बिहारी ने उन्हें दो पंक्ति के दोहे में ही परिपूर्णता से प्रस्तुत कर दिया है। इनके अतिरिक्त प्रताप साहि, श्रीपति, सोमनाथ, रसलीन तथा ग्वाल आदि अन्य रीतिबद्ध कवि हैं।

रीतिमुक्त काव्यधारा-
वे कवि जो रीति को सम्पादन करने में अपनी कवित्व शक्ति का चमत्कार दिखा रहे थे रीतिसिद्ध कहलाए। दूसरे वे जो रीति के बन्धन से मुक्त थे, रीतिमुक्त या स्वच्छन्द धारी के कवि कहलाए। रीतिमुक्त काव्यधारा के कवि रीतिशास्त्र की बँधी-बँधाई शास्त्रीय परंपरा का अनुगमन न करके, अपनी स्वच्छन्द प्रवृत्ति को सर्वोपरि मानते हुए उन्मुक्त प्रेम के गीत गाते थे। दोनों प्रकार के काव्यों में श्रृंगार और प्रेम की प्रधानता है और विषय-वस्तु की दृष्टि से इन दोनों में कोई अन्तर नहीं था किंतु भावों के प्रकार; गहराई तथा अभिव्यक्ति में बहुत पृथकता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती थी। रीतिमुक्त काव्यों ने रीतिबद्ध कवियों की भाँति लक्षण ग्रंथों की रचना नहीं की, वरन् रीति का बन्धन ढीला करके चले हैं। रीतिमुक्त प्रेमकाव्य की रचना करने वालों में रसखान, घनानन्द, आलम, बोधा, ठाकुर आदि कवि प्रमुख माने जाते हैं।

प्रमुख रीतिर्मुक्त कवि-
काव्यशास्त्र के नियमों में न बंधकर अनुभूति की सच्चाई पर बल देने वाली कविता रीतिमुक्त कविता होती है। रीतिमुक्त कवियों का परिचय यहाँ दिया जा रहा है

  1. आलम-इनका जन्म 1653 ई. के लगभग माना गया है। ये औरंगजेब के पुत्र मुहज्जम के आश्रय में रहे। कहा जाता है कि इनका प्रेम एक अंगरेजिन से हो गया था जो स्वयं कविता करती थी। कुछ लोग शेख और आलम को एक ही व्यक्ति मानते हैं। आलम को शुक्लजी ने पद्माकर के तुल्य माना है। आलम के प्रेम में हृदय की गहराई है। इन्होंने ‘मुक्तक’ रचनाएँ की हैं।
  2. बोधा-ये पन्ना के राजा के आश्रय में रहे थे। इनका वास्तविक नाम बुद्धसेन था। ‘विरह वारीश’ इनका श्रृंगार रस प्रधान काव्य-ग्रन्थ है। इसमें माधवानले काम-कन्दला की प्रेम कथा वर्णित है। इनकी प्रेयसी का नाम सुभान बताया जाता है। बोधा का काव्य प्रेमानुभूति की अकृत्रिमता से युक्त है।
  3. ठाकुर-ठाकुर अर्थात् ठाकुरदास कायस्थ थे। ये ‘ओरछा’ में जन्म थे। जैतपुर, बिजावर तथा बाँदा के राजाओं ने इनका अच्छा सम्मान किया। ठाकुर का काव्य बुन्देलखण्ड के लोकजीवन से जुड़ा हुआ है। वहाँ के विभिन्न त्यौहारों का सजीव वर्णन ठाकुर ने किया है।
  4. घनानन्द-घनानन्द का जन्म उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर जिले में हुआ था। जनश्रुति के अनुसार ये सुजान नामक गायिका पर आसक्त थे। एक बार मोहम्मदशाह के कहने पर इन्होंने दरबार में सुजान की ओर मुख करके गाना गाया, इससे रुष्ट होकर मोहम्मदशाह ने इनको दिल्ली छोड़ने का आदेश दे दिया। आप वृन्दावन आकर रहने लगे।

घनानन्द बड़े भावुक कवि थे। उनकी ब्रजभाषा बड़ी समर्थ है। प्रेम की पीर को व्यक्त करने में घनानन्द का समकक्ष कवि बड़ी कठिनाई से मिलेगा।

भारतेन्दुजी ने ‘सुजान-शतक’ नाम से घनानन्द के 100 से अधिक छन्दों का संकलन किया है। रामनरेश त्रिपाठी ने घनानन्द की रचनाएँ; ‘सुजान-सागर’, ‘घनानन्द कवित्त’, ‘रसकेलि-बल्ली’, ‘कृपकन्द बिन्ध’, ‘कोकसार’ तथा ‘विरह-लीला’ बताई हैं। विश्वनाथ प्रसाद ने घनानन्द की रचनाओं की संख्या 38 बताई है।

घनानन्द प्रेम के कवि हैं, प्रेम में भी वियोग वर्णन तथा सौन्दर्य निरूपण में ये सिद्धहस्त हैं। भाषा उनकी अनुचरी है। प्रेम की एक से एक मार्मिक स्थिति का चित्रण घनानन्द ने अद्भुत सम्प्रेषणीयती से किया है। गुरु गोविन्दसिंह (1666-1708 ई.)-सिख पंथ के दसवें गुरु गोविन्दसिंह का जन्म संवत् 1723 में पटना (बिहार) में हुआ और परलोक गमन संवत् 1765 में हुआ। इनके पिता का नाम गुरु तेगबहादुर और माता का नाम गुजरीबाई था। ये योद्धा, संत, कवि और प्रशासक थे।

यद्यपि ये पंजाबी थे तथापि इन्होंने अपनी रचनाओं में साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। इन्होंने पंजाबी और फारसी में भी रचना की है। इनकी ‘चौबीसअवतार’ नामक रचना में श्रृंगार रस भी पर्याप्त दिखाई देता है। इनके अन्य प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं’ सुमतिप्रकाश’, ‘सर्वलोहप्रकाश’, ‘प्रेमसुमार्ग’ और ‘बुद्धिसागर’।

गिरधर कविराय-इनका जन्म संवत् 1770 में माना जाता है। ये बहुत लोकप्रिय कवि थे। इनकी नीति सम्बन्धी कुण्डलियाँ बहुत प्रसिद्ध हैं। गिरधर को मध्यकाल के सद्गृहस्थों का सलाहकार कहा जाता है।

बनवारी-इनके जन्म और परिवार के विषय में ज्ञात नहीं है। इनके आश्रयदाता महाराजा जसवन्त सिंह (जिनका उल्लेख रीतिबद्ध कवि के रूप में पूर्व में हो चुका है) के बड़े भाई अमरसिंह राठौड़ थे।

RBSE Class 11 Hindi Solutions